वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 358
From जैनकोष
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सो दु।।358।।
पर के अपोहकत्व की व्यवहार दृष्टि―संयत का अर्थ है अपने आपमें भली प्रकार से नियत हो जाना। इसका अर्थ यह निकलता है कि यह समस्त परद्रव्यों का परिहारी है। अपने आपमें नियत होना और पर का त्याग होना, इन दोनों का एक ही अर्थ है। तब इस त्यागी का और परद्रव्य का वास्तव में क्या कोई संबंध है ? इस बात पर विचार करना है। यह आत्मा ज्ञान और दर्शन गुणकर भरपूर और पर से अलग रहने के स्वभाव वाला है। यह पर का अपोहक है। इस अपोह्य अपोहक के संबंध में विचार किया जा रहा है। व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि यह परद्रव्य का अपोहक है, पुद्गलादिक परद्रव्य अपोह्य है और यह आत्मा अपोहक है और व्यवहार में भी लोग कहते हैं कि हम आलू के त्यागी हैं, गोभी के त्यागी हैं और कोई-कोई यह भी कहते हैं कि हम त्याग के त्यागी हैं, पर वह तो मखौल है। कुछ छोड़ते न बने तो अपनी बड़ाई करने के लिए कह देते हैं कि हम त्याग के त्यागी हैं। अपोहक में अपोह्य का अत्यंताभाव―भैया ! हमारी थाली में जो चीज न आई हो उसको हम त्याग रखते हैं। तो जैसे थाली में चीज नहीं आई उसके त्यागी हैं। इसी प्रकार जो चीज सामने हो उसके भी हम सदा त्यागस्वभाव वाले हैं। इसकी खबर मोही जीव को नहीं है। यह जीव विकल्पों को तो ग्रहण करता है और विकल्पों का त्याग करता है, यह बात तो है इसी की युक्तिसंगत, पर अन्य पदार्थों को न यह जीव ग्रहण करता है और न यह जीव त्याग कर सकता है और फिर विकल्पों का त्याग करने वाला यह आत्मा क्या परपदार्थों का कुछ लगता है ? एक तो कहते हैं त्यागी और दूसरे जोड़ते हैं संबंध। जैसे यह किसके फूफा हैं ? अमुक के हैं। यह किसके हैं ? अमुक के हैं, ऐसे ही हम त्यागी अमुक पदार्थ के हैं यों रिश्ता जोड़ रखा है। गृहीत के ही अपोह्यपने की संभवता―त्याग वस्तुत: परद्रव्य का नहीं किया जाता किंतु अपने आपके विकल्पों का किया जाता है। व्यवहार से जो यह कहा जा रहा है कि यह अपोहक परद्रव्य का है तो वहां संबंध विचार करिये कि यह संयमी परद्रव्य का संयमी है क्या ? यदि यह आत्मा पुद्गलादिक का कुछ हो जाय, त्यागी हो जाय, संयमी हो जाय तो जिसका जो होता है उसका वही होता है। वहां दो चीजें नहीं रह सकती हैं। जैसे आत्मा का ज्ञान होता है तो ज्ञान और आत्मा कोर्इ जुदी जुदी चीजें नहीं हैं, आत्मा ही ज्ञान है। इसी तरह यदि यह अपोहक परद्रव्य का अपोहक हो जाय तो परद्रव्य और ये दोनों दो सत्त्व वाले पदार्थ न रहेंगे। तो रहेगा कौन ? स्वामी रहेगा मेरी अंदाज में। संकरता में सर्वलोप का प्रसंग―यद्यपि वहां भी विवाद है कि जब दो मिलकर एक बने तो कौन एक रहे ? लेकिन व्यवहारपने की लाज रखते हुए बात खोजी जाय तो यह कहा जायेगा कि स्वामी रह जायेगा। क्योंकि स्वस्वामी संबंध बताने में मुख्यता स्वामी की होती है। तो जब परद्रव्य का अपोहक आत्मा उच्छेद को प्राप्त हो गया, जब अपोहक नहीं रहा तो अपोह्य क्या है ? जब त्यागी नहीं रहा तो त्याज्य क्या रहा, किंतु ऐसा नहीं होता है। कोई द्रव्य किसी द्रव्यरूप हो जाय या किसी द्रव्य का उच्छेद हो जाय जब ऐसा नहीं है।
अपोहक का स्वामित्व―अब विचार करें कि यह अपोहक किसका है ? यह त्यागी किसका है ? यह अपोहक अपोहक का है। यह संयमी संयमी का है। वह दूसरा संयमी क्या जिसका कि यह संयमी बने। तो दूसरा कुछ नहीं है। तो इसका अर्थ ही क्या निकला कि संयमी का संयमी है, रोटी की रोटी है, तुम्हारी नहीं है। तो वह दूसरी रोटी क्या जिसकी रोटी बने ? कुछ भी नहीं है। तो फिर इसका कुछ मतलब ही नहीं निकला। तो ऐसी बकवाद क्यों की जा रही है ? अरे बकवाद नहीं की जा रही है किंतु जो जीव पर को स्वामी मानता था उसकी पर में स्वस्वामी बुद्धि मिटाने के लिए अभेदरूप से खुद को खुद का स्वामी बताना पड़ा। स्पष्ट अर्थ तो यह है कि यह अपोहक अपोहक ही है। अपोहक माने त्यागी। त्याग करने का अर्थ है अपने आपमें संयत रहना। तो यह आत्मा किसी परद्रव्य का कुछ नहीं है। वस्तुस्वातंत्र्य की घोषणा―भैया ! यहां ऐसी स्वतंत्रता की घोषणा की जा रही है कि जब कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य में न अपने द्रव्यत्व का संबंध रखता है, न गुण का संबंध रखता है, न परिणमन का संबंध रखता है। फिर उसमें स्वस्वामी संबंध बताना और कर्ता कर्म का भ्रम करना कहां तक युक्त है ?
ज्ञानस्थैर्यके लिये त्याग का सहयोग―त्याग भी ज्ञान दर्शन की स्थिरता का नाम है। जो जीव ज्ञान दर्शनगुण में स्थिर होना चाहता है उसे यह आवश्यक है कि वह विकल्पों को छोड़े। विकल्पों को छोड़े बिना ज्ञायक शुद्ध स्वभाव में स्थिरता नहीं हो सकती। विकल्प होते हैं परपदार्थ विषयक विकल्पों के स्वरूप का निर्माण परपदार्थों को विषय किए बिना नहीं होता है। जैसे कहा जाय कि किसी भी परपदार्थ का ख्याल न रखो और विकल्प किए जावो तो यह बात संभव नहीं है। विकल्प पर का विषय लिए बिना होता नहीं है। तब बुद्धिपूर्वक उपाय क्या है ? तो उपाय दो ही हैं। एक तो ज्ञानस्वभाव का मनन करना और बाह्य में जिन पदार्थों का आश्रय करके विकल्प उत्पन्न हुआ करता है उन पदार्थों का त्याग करना, उनको निकट से हटाना, यही बाह्य में उपाय है। परंतु द्रव्यानुयोग की प्रगति और चरणानुयोग की प्रगति का संबंध है। त्याग का सर्वत्र सुफल―जैसे किन्हीं भी दो पुरूषों में विवाद हो गया कि परलोक है या नहीं। तो बहुत विवाद होने के बाद अंत में यह निष्कर्ष निकला कि देखो सदाचार से परसेवा करते हुए, अपना परिणाम निर्मल रखते हुए रहने में शांति तो मिलती है ना, सो इस भव में भी शांति चाहते हो तो कषाय मंद करना चाहिए। और कषाय मंद करने के फल में यदि परलोक निकल आए तो वहां भी शांति रहे। सो परवस्तुओं का त्याग करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह बात न देखो कि पहिले सम्यग्दर्शन को मजबूत कर लें फिर बाह्य चीजों का त्याग करना शुरू करेंगे। प्रथम तो तुम सम्यग्दर्शन का नियम कब मानोगे ? ऐसी ही बात बनती चली जायेगी तो बाह्य वस्तुवों का त्याग सम्यग्दर्शन न भी हो तो भी उसका त्याग उचित है। त्याग विकल्पों की मंदता में सहायक तो है। इसलिए यथाशक्ति त्याग करना ही चाहिए। पर साथ ही यह ध्यान रखो कि परद्रव्य का त्याग किया जाता है ज्ञान दर्शन स्वभाव में स्थिर होने के लिए। सो काम तो किया पर प्रयोजन का स्मरण न रहा तो वह काम विडंबनारूप हो जाता है।
प्रयोजन के ज्ञान बिना विडंबना―जैसे किसी सेठ के यहां शादी थी। उनके घर में एक बिल्ली रहा करती थी तो शादी के समय में वह बिल्ली इधर उधर भगे। बिल्ली का इधर उधर आना जाना असगुन माना जाता है। वास्तव में असगुन वह है जो हिंसा का कार्य हो। बिल्ली तो बड़ी हिंसक होती है सब लोग जानते हैं, इसलिए बिल्ली को असगुन माना जाता है। सो उस सेठ ने विवाह के समय में बिल्ली को पकड़कर एक पिटारे में बंद करवा दिया था। अब 5-7 वर्ष बाद सेठजी तो गुजर गए। किसी की फिर शादी आयी। तो लड़कों ने भांवर पड़ने के समय में कहा कि अभी ठहरो, पहिले कोई बिल्ली पकड़कर लावें, पिटारे में बंद करें तब भांवर पड़ेगी क्योंकि पिताजी ने ऐसा ही किया था। तो बड़ी हैरानी हुई खोज करने में, मुश्किल से एक बिल्ली पकड़ में आयी, उसको पिटारे में बंद किया तब भांवर पड़ी। भांवर पड़ने में भी देर हो गयी, सबेरा हो गया, सूर्य निकल आया। तो इसी प्रकार जब प्रयोजन का पता नहीं रहता है तो बाह्य वृत्ति में और बाह्य बातों में ऐसी ही विडंबनाएँ हो जाती है।
भैया ! परद्रव्य का त्याग किसलिए किया जाता है ? इस लिए किया जाता है कि विकल्प हटें और ऐसे विकल्परहित अवसर में हम अपने ज्ञानस्वभाव का, ज्ञानवृत्ति द्वारा अनुभव करें, जिस इस अंत:पुरूषार्थ के बल से भव-भव के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। यह है प्रयोजन त्याग का। किंतु यह प्रयोजन जहां नहीं मालूम होता तो उस त्याग की विडंबना हो जाती है। और जो पुरूष जानबूझ कर घर में सुविधा न हुई, अच्छी प्रकार से रहने के खाने पीने के साधन न रहे तो कोई-कोई तो साफ कह देते हैं कि महाराज हमारे तो खाने तक की भी सुविधा नहीं है। सो हमें बाबा बना दो। अरे बाबा बनने में क्या लगता है ? तनिक कपड़े हमारे जैसे ले लिये और तनिक ऊँचा बनना हुआ तो कपड़े भी छोड़ दिये। और यदि दोनों लाभ लूटना हो कि पैसा भी पास में खूब रहे और तनिक पुजते भी रहें तो तनिक ब्रह्मचारी वगैरह 1-2 प्रतिमा का नाम लेकर बन जायें। यदि इस ही भाव से त्यागी बने कोई तो वह प्रयोजन पायेगा कहां से ?
आंशिक त्याग में धर्मपालन की आम व्यवस्था―वैसे साधारणरूप से त्याग का यह नियम है कि 7 प्रतिमा तक पुरूष अपने घर की आजीविका बनाकर घर में ही शुद्ध भोजन करता हुआ रहे और धर्मसाधना करे और जो उसने दूसरी प्रतिमा में अतिथि संविभाग व्रत लिया है उसकी भी उपेक्षा न करे। साधारणतया यह है नियम की बात, पर कोई इसे भंग करे तो उसके आत्मा का संतुलन फिर बिगड़ जाता है और यदि त्याग मार्ग से ही चलना है तो फिर आरंभ परिग्रह का त्याग करके कषाय मंद रखकर ज्ञान ज्यादा न भी हो तो भी कुछ परवाह नहीं, अपना व्रत निभाने लायक ज्ञान हो उतना ही बहुत है। थोड़ी भी आत्मतत्त्व की बात याद हो उतना भी बहुत है, पर कषाय मंद हो शांतिपूर्वक कोई ऊँचा त्यागी बनकर रहे तो उसका भी भला है। त्यागी के दो सदवृत्तियों की अनिवार्यता―भैया ! कोई यह बात नहीं है कि उपदेश झाड़ने वाला हो वही त्यागी हो तो काम चले, पर यह बात जरूर है कि जो त्यागी बने उसकी कषाय मंद हो और उसका वार्तालाप दूसरों को हित करने वाला प्रिय लगे ऐसा उसका वचन हो। दो बातें कम से कम त्यागी में अवश्य होनी चाहियें। एक तो कषाय की मंदता याने शांति और दूसरे हित मित प्रिय वचन बोलना। यदि ये ही दो बातें न रहीं, लट्ठमार ही बोलते रहे, बोलने का भी सहूर न रखा और पद पद पर क्रोध भी बगरायें, दूसरों पर ऐंठ भी चलाए कि वाह हम तो हल्के भगवान बन गए है, हमें तो पूजना ही चाहिए, इनके सिर पर लदना ही चाहिए ऐसी बुद्धि रखें तो बतलावो अब क्या बात रह गयी जिससे आपको उससे कुछ शिक्षा मिली ? यदि आपको हम त्यागियों से किसी प्रकार की शिक्षा मिले तो आपके लिए हम त्यागी कहला सकते हैं और उल्टे आपके क्लेश के लिए कारण बनें तो आपके हम क्या कहला सकते हैं ?
त्यागभाव का महत्व―त्याग का प्रयोजन है किसी प्रकार अपने ज्ञान दर्शन स्वरूप में स्थिर हो जाना, यह बात यदि आती है मन में तब तो समझो कि हमारा जीवन सफल है। देखो त्याग किए बिना गुजारा न चलेगा। मोह-मोह करके घर में ही रहकर विषय कषाय भोगकर अंत में मिलेगा कुछ नहीं, वह रीता ही रहेगा। त्याग तो आवश्यक है किंतु त्याग के साथ ज्ञान भी आवश्यक है। बहुत ज्ञान न हो तो जिसमें आत्महित की सुध बनी रहे इतना तो ज्ञान होना ही चाहिए। सो इस ज्ञान दर्शन गुणकर भरपूर आत्मा का यहां पर द्रव्य के साथ संबंध पूछा जा रहा है कि यह हेय पदार्थों का त्यागी कुछ लगता है क्या ? तो इसका इस त्याज्य पदार्थ के साथ कोई संबंध नहीं है। इसने तो अपने विकल्प परिणमन का विलय किया और निर्विकल्प परिणमन का उत्पाद किया, यह ही काम इसमें हुआ और इसको इस कार्य से ही लाभ मिला। ऐसा करने में परद्रव्यों का परिहार सहायक है क्योंकि आश्रयभूत पदार्थ को छोड़ दिया तो विकल्पों को वहां अवकाश नहीं रहता है। असद्भूत में विकल्प का अभाव―जो चीज नहीं है उस चीज को कौन पकड़ सकता है ? क्या कोई यह सोचता है कि मैं आज बांझ के लड़के से लड़ूंगा, क्या कोई यह सोचेगा कि आप मैं धुँवा के पत्ते की चटनी खाऊँगा। क्या कोई यह सोचता है कि आज मैं बादल की छाल का काढ़ा पीऊँगा ? चीज ही नहीं है तो सोचेगा क्या ? यदि यह वर्तमान चीज भी हटा दी जाय और इस प्रकार हटा दी जाय कि तत्संबंधी कल्पना भी मन में न जगे तो फिर विकल्प कहां से होगा, इस कारण इसका त्याग किया जाता है। यद्यपि यह नियम नहीं है कि त्याग कर देने पर विकल्प हट जाता है फिर भी नियम है कि जिनका विकल्प हटता है उनका बाह्य वस्तुवों का त्याग करते हुए विकल्प हटता है। ऐसा नहीं बनता है कि परवस्तु को भी अपनायें और निर्विकल्प बन लें। इस कारण बाह्य वस्तु का त्याग करना आवश्यक है। त्याग के प्रयोजन का लक्ष्य हुए बिना विडंबना―फिर भी भैया ! बाह्य वस्तु के त्याग का प्रयोजन हम जानें और प्रयोजन के लिए ही त्याग करने का यत्न करें तो यह हमारा मार्ग ठीक रहेगा। परंतु, प्राय: होता क्या है कि जितना त्याग करें, उतना ही गुस्सा बढ़े, जिस दिन घर में उपवास कर लेते हैं, सबकी बात तो नहीं कह रहे हैं पर जिसे अपना प्रयोजन नहीं मिला है उसकी बात कह रहे हैं, गुस्सा ही भरा रहता है क्योंकि एक तो यह मन में आ गया कि आज हम त्यागी बन गए, हम इन सबसे आज बड़े हो गए, एक तो मन में यह भरे है कि हम तो धर्मात्मा बने हैं और दूसरों को बढ़िया पूड़ी हलुवा खाते देख लिया सो मन में अब ज्ञान स्वभाव की स्थिरता का प्रयोजन तो है नहीं ना, जबरदस्ती के त्याग में यह भी मन में उठ रहा है कि ये कैसा बढ़िया हँस खेल कर खा रहे हैं, सो उनके गुस्सा चढ़ती है।
शुद्ध दृष्टि बिना तृष्णादिक का प्रसार―बूढ़ों को देखा होगा उनको बड़ी ही जल्दी गुस्सा आती है। जहां ज्ञान कम होगा और तृष्णा बढ़ी हुई होगी वहां गुस्सा आता है। जिसने अज्ञान में ही जीवन बिताया उसके बुढ़ापे में तृष्णा और बढ़ जाती है। तो इसी प्रकार जिसको व्रत उपवास का प्रयोजन याद नहीं है सो उन्हें त्याग करते हुए गुस्सा बढ़ जाती है। तो बाह्य वस्तु का त्याग तो करें पर ज्ञान सहित करें, किसलिए यह त्याग करें उसका प्रयोजन तो जान लें। हम अपने स्वभाव से चिगकर बाह्यपदार्थों में दृष्टि लगाए हैं और इसी कारण मुझमें अधीरता बनी है, आकुलता बनी है। उन आकुलतावों को मिटाना है तो इसके लिए हमें अपने आनंदमय स्वरूप में प्रवेश करना होगा। इसलिए बाह्यपदार्थों हटो। और बाह्य पदार्थों का आश्रय करके समता का निमित्त पाकर उत्पन्न हुए जो रागादिक परिणाम हैं ये परिणामो ! मुझसे दूर हटो, फिर हम क्या रहना चाहते ? मैं अभिराम सहजानंद रहूंगा। मैं अपने आत्मा के समस्त प्रदेशों में सहज आनंदस्वरूप रहूंगा। यह दृष्टि हो एक त्यागी पुरूष की। जिस दृष्टि के प्रताप से उसको त्याग द्वारा मदद मिलती है अपने आपके स्वरूप में प्रवेश करने की।
लक्ष्य बिना प्रयत्न की अकार्यकारिता―भैया ! जिसको लक्ष्य का ही पता नहीं होता तो जैसे कोई नाव खेने वाला जिसका उद्देश्य ही कुछ नहीं है कि मुझे कहां जाना है तो थोड़ा पूरब को नाव खेया, थोड़ा पश्चिम को खेया, इसी तरह चारों दिशावों में जहां चाहे नाव खेता रहता है। इसी तरह से नाव खेते-खेते सारी रात बिता डालता है, सुबह देखता है तो नाव वहीं की वहीं है। इसी तरह त्याग व्रत का भारी तो यत्न करते हैं पर प्रयोजन जाने बिना करते हैं तो वहीं के वहीं विह्वल आकुलित ज्यों के त्यों अज्ञानी रह जाते है और फिर सोचते हैं कि देखो कितना तो धर्म किया मगर शांति न मिली। अरे धर्म कहां किया था, धर्म करे और शांति न मिले यह तो नहीं हो सकता है। तो धर्म के स्वरूप को जानो और उसमें ही स्थिर होने का यत्न करो, यही त्याग का प्रयोजन है।
जिस प्रकार यह आत्मा परद्रव्यों का ज्ञायक नहीं है और परद्रव्यों का दर्शक नहीं है तथा परद्रव्यों का अपोहक नहीं है इस ही प्रकार परमार्थ से यह आत्मा परद्रव्य का श्रद्धान करने वाला भी नहीं है, इस बात को अब अगली गाथा में कह रहे हैं।