समयसार - गाथा 364: Difference between revisions
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<div class="PravachanText">जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो | <div class="PravachanText"><p><strong>जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।तह परदव्वं सद्दहइ सम्मदिट्ठी सहावेण।।364।।</strong> <strong>श्रद्धाता व श्रद्धेय परपदार्थविषयक व्यवहार कथन</strong>―जैसे सेटिका अपने स्वभाव से परद्रव्य को श्वेत करती है इस ही प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अपने भावों से परद्रव्यों का श्रद्धान करता है। यह व्यवहारनय का कथन है। तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है। उसमें श्रद्धेयरूप जीवादिक बाह्य पदार्थ हैं उनका निश्चय से श्रद्धान करना नहीं होता है अर्थात् श्रद्धेय परद्रव्य में यह तन्मय नहीं होता। तो फिर क्या रहता है ? सम्यग्दर्शन, सम्यग्दर्शन रूप ही अपने स्वरूप में ठहरता है। जैसे श्वेतगुणकर भरपूर यह खड़िया अपने स्वभाव से परिणम रही है, भींतादिक परद्रव्यों के स्वभाव से नहीं परिणमती। खूब देख लो। </p> | ||
<p><strong>उपदृष्टांतपूर्वक व्यवहारसंबंधक दृष्टांत का विवरण</strong>―एक अपने कपड़ों को ही देख लो। कोई मनुष्य एकदम लाल कपड़े पहिने है ऊपर से नीचे तक। तो लाल कपड़ों ने आदमी को लाल कर दिया क्या ? लाल कपड़ा अपने स्वभाव से परिणम रहा है आदमी के स्वभाव से नहीं परिणम रहा है। आदमी अपने ही रूप परिणम रहा है, कपड़ा अपने ही रूप परिणम रहा है। मगर जिस तरह से कमीज या ओढ़नी ओढ़ी जाती है। आदमी न हो तो भला उसे आकाश में उस ढंग से उड़ा दो। कोई आधारभूत परद्रव्य न हो तो यह कपड़ा कमीज इस तरह से तो नहीं फैल सकता, जैसा आदमी के पहिनने में फैला है। तो इतना निमित्तनैमित्तिक संबंध तो है इस कपड़े के इस आकार में फैलने का, पर आदमी ने कपड़े में कुछ नहीं किया, कपड़े ने आदमी में कुछ नहीं किया, यह बात तो जरा जल्दी समझ में आती है। ऐसी ही बात बिल्कुल इस कलई और भींत की है। मनुष्य के मानिंद यह भींत बिल्कुल स्वतंत्र अपने रूप है और वस्त्र के मानिंद यह कलई अपने रूप में बिल्कुल स्वतंत्र है, एक दूसरे रूप नहीं परिणमती है, फिर भी परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है, इस कारण व्यवहार में यों कहा जाता है कि कलई ने भींत को सफेद कर दिया। </p> | |||
<p><strong>श्रद्धाता व श्रद्धेय का संबंध व्यवहार</strong>―इसी तरह श्रद्धा नामक शक्ति जो कि परद्रव्य जैसा है उस रूप से परिणमे, श्रद्धा करे ऐसी वृत्ति रखता है। उस श्रद्धारूप से परिणमते हुए जीव का इन परद्रव्यों से संबंध नहीं है, परद्रव्य का स्वामी वह पर ही है, हम परद्रव्य के कर्ता नहीं है। और वे परद्रव्य इसका श्रद्धान बनाते नहीं हैं, किंतु परस्पर में एक ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि यह श्रद्धाता अपने रूप से परिणम रहा है। उसमें विषयभूत बाह्य पदार्थ होते हैं। </p> | |||
<p><strong>श्रद्धान और श्रद्धान के विषय की अनिवार्यता</strong>―भैया ! जीव कहीं न कहीं श्रद्धान तो बनाता ही है। कोई भी जीव हो, मिथ्यादृष्टि हो, सम्यग्दृष्टि हो, किसी न किसी जगह उसका श्रद्धान अटका है। अज्ञानियों का कुटुंब और वैभव में श्रद्धान अटका है, सम्यग्दृष्टि जीव का अपने स्वभाव में श्रद्धान अटका है। श्रद्धान कहते हैं उसे कि जिसके प्रताप से जिसमें रूचि जगे। यद्यपि रूचि ही श्रद्धान नहीं है किंतु श्रद्धान का फल रूचि है। जिस का जहां श्रद्धान होगा वैसी उसकी रूचि होगी। तो जिसका वैभव और कुटुंब में रूचि है उसके श्रद्धान कहां कहा जायेगा ? वैभव और कुटुंब में। और जिसको निज सहज स्वभाव के देखने की ही रूचि रहती है उसका श्रद्धान कहां कहा जायेगा ? अपने आपके सहज स्वभाव में।</p> | |||
<p><strong>श्रद्धान और रूचि की अनुरूपता</strong>―भैया ! जैसी श्रद्धा होती है वैसी रूचि जगती है और उस ओर की ही प्रवृत्ति होती है। श्रद्धानपूर्वक किया हुआ कार्य फलवान होता है। यद्यपि प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक जीव जो भी कार्य करता है वह श्रद्धानपूर्वक ही तो कर पाता है। पर यथार्थ श्रद्धापूर्वक जो कार्य होता है वह यथार्थ प्रयोजन को सिद्ध करता है। लोक में भी कोई नियम श्रद्धापूर्वक लिया जाय तो उस नियम का भी फल उत्तम होता है लोक दृष्टि में। फिर धार्मिक कर्तव्य के नियम यदि श्रद्धापूर्वक हों तो भी उत्तमफल देने वाला होता है। अब श्रद्धा तो मन में बनी है कुटुंब वैभव की और प्रवृत्ति रखते हैं पूजा पाठ की तो यह बेमेल काम हुआ कि नहीं ? मेल कहां खाया और जब मेल नहीं खाता तो शांति भी वहां नहीं मिलती। और धन का मिलना कोई पूजा के आधीन बात है नहीं। वह तो पूर्वकृत पुण्य के अनुसार आता है। तो जब ऐसे लोगों को न तो धन वैभव मिलता है और शांति मिलती है बल्कि विवाद झगड़े कुबुद्धि ये अवगुण सताते हैं तो दर्शक लोगों की श्रद्धा धर्म से हटने लगती है। ये तो बने हैं बड़े धर्मात्मा। इनकी तो दशा देखो। जो पुरूष मायाचार सहित धर्म की बातें रखता है तो वह केवल अपनी ही दुर्दशा नहीं बनाता, किंतु अनेक लोगों की दुर्गति बनाने में निमित्त होता है। <strong>निर्माया ह्रदय ही धर्म का अधिकारी</strong>―धर्मपालन मायाचार में नहीं होता। ब्रह्मगुलाल मुनि की बात सुनी होगी। वे बहुत-बहुत भेष बनाया करते थे। सो उससे राजा प्रसन्न रहे। किसी मंत्री को यह बात खटकी तो राजा से कहा कि महाराज इससे कहो कि कल सिंह का भेष बनाकर सभा में आए। राजा ने कहा कि कल आप शेर का स्वांग बनाकर सभा में आना। तो कहा कि महाराज शेर का स्वांग बड़ा कठिन होता है। कहीं एक आध खून हो जाय तो माफ करना होगा तब स्वांग बनाया जा सकता है। अच्छा भाई माफ। जब शेर का स्वांग बनाकर आया तो परिणाम भी उस ही रूप बनाना पड़ता है तब तो स्वांग की बात आती है। तो जब वहां से निकला सिंह, वही ब्रह्मगुलाल, तो राजा के लड़के ने कुछ तुच्छ बात कह दी कि यह आया है गीदड़। तो उसके रोष आया और अपना पंजा उस राजपुत्र के मार दिया। राजपुत्र मर गया, पर राजा तो वचनबद्ध था। कहे क्या ? तो मंत्रियों ने राजा को यह सलाह दी कि आप इससे यह कहो कि मुनि का भेष बनाकर सभा में आए। राजा ने ब्रह्मगुलाल से कहा कि मुनि का भेष बनाकर सभा में आए। तो वह बोला कि महाराज इस भेष को बनाने में 6 महीने सीखना होगा। साधुपद ऐसा नहीं है कि आया मन में तो हो गए नंगे। यों साधुता नहीं होती है तो इसके लिए तो हमें 6 मास तक अभ्यास करना होगा। राजा ने कहा अच्छा 6 महीने सही। उन 6 महीनों में ब्रह्मगुलाल रात दिन स्वाध्याय, ध्यान, आत्मभावना में रहा आया। अंत में जब वैराग्य हुआ तब मुनि का भेष बनाकर पिछी कमंडल लेकर सभा के सामने से निकल गया। राजा ने बहुत बुलाया, पर ब्रह्मगुलाल ने कहा कि बस मुनि भेष में यही होता है। <strong>श्रद्धान सहित नियम का निर्वाह</strong>―भैया ! किसी से प्रेम नहीं करे, किसी वस्तु में मोह नहीं करे, किन्हीं भी पदार्थों का परिग्रह न करे, किसी की बात न सुने, अपने ज्ञान ध्यान तप में लीन रहे यह है साधु की चर्या। साधु तो भगवान की मुद्रा में है ना। जैसे प्रभु रागद्वेष से परे है तो यह भी पदवी के अनुसार रागद्वेष से परे होगा तो बस निकल गए सभा के सामने से। श्रद्धापूर्वक जो नियम होता है उस नियम में बाधा नहीं आती है। अब श्रद्धान तो है और तरह का, रूचि तो है और प्रकार की और धर्म का रूपक रखे हैं तो उसका मेल नहीं खाता है। जो भी नियम ले उस नियम की सच्चाई से श्रद्धा है तो वह नियम अवश्य फलेगा और उसका फल उत्तम मिलेगा। <strong>श्रद्धानसहित नियम का परिणाम</strong>―एक सेठ थे तो उससे साधु ने कहा कि तुम कोई नियम ले लो। तो वह बोला कि महाराज हमसे नियम का पालना कठिन है सो महाराज नियम तो मुश्किल है साधु ने कहा कि देवदर्शन रोज कर लिया करो। सेठ बोला-महाराज मंदिर तो एक फर्लांग दूर है। तो तुम्हारे घर के सामने क्या है ? सेठ ने कहा कि कुम्हार का घर है। उसके यहां क्या है जो तुम्हें शीघ्र दिख जाय। सेठ ने कहा कि पड़ा बँधा रहता है, भैंसा उसकी चाँद रोज दिख जाती है। साधु ने कहा कि अच्छा उसी की चाँद को देखकर खाना खाने का नियम लो। कहा कि अच्छा महाराज यह तो कर लेंगे। अब एक दिन कुम्हार अपने पड़ा को लेकर जल्दी खान में चला गया तो वहां खान खोदते हुए में एक अशर्फियों का हंडा उसे मिला। यहां क्या हुआ कि जब सेठ को उसके घर में पड़ा न मिला तो सीधे वह उसकी खान में पहुंचा। भैंसे का चाँद देख लिया। जब सेठ खान से कोई 25-30 हाथ दूर था तो कुम्हार ने खड़े होकर देखा कि हंडा पाया है तो कोई देख तो नहीं रहा है। देखा कि सेठ जी खड़े हैं। लो सेठ जी से कुम्हार ने कहा कि सेठ जी सुनो। तो सेठ जी ने कहा कि बस-बस देख लिया। अरे सुनो तो बस-बस देख लिया। वह तो यह कह रहा था कि हमने भैंसे के चाँद को देख लिया क्योंकि हमें दर्शन इसके करना था, भूख लगी है, अब जाकर खाना खायेंगे। कुम्हार ने कहा―अरे सुनो तो। कहा―बस देख लिया। क्या देख लिया सुनो तो सही। बस सब देख लिया। जो देखना था सो देख लिया तो सेठ अपने घर पहुंचा। अब कुम्हार सोचता है कि सेठ ने देख लिया है, यदि वह राजा से कह देगा तो सारी अशर्फियाँ छिन जायेंगी। सो वह सेठ के यहां सारी अशर्फियाँ लेकर पहुंचा। सेठ से कहा कि देखो किसी से कहने की बात नहीं है, इतनी अशर्फियां मिली हैं, आधी आप ले लो आधी हम ले लें। कुम्हार आधी अशर्फियां देकर चला गया। अब सेठ सोचता है कि जब एक अटपट नियम पालने पर इतनी अशर्फियां मिलीं तो साधु महाराज जो कहते थे वह ठीक ही कहते थे कि प्रभु के दर्शन करने का रोज का नियम रखो तो कोई अलौकिक बात मिलती है। सो भाई यदि कोई श्रद्धा सहित प्रभु दर्शन का नियम रखता है तो उसे अलौकिक निधि ही मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। <strong>आत्मवैभव की श्रद्धा में हित</strong>―अलौकिक निधि की तुलना इस लोक की निधि से नहीं हो सकती। यह लोक की निधि, धन, वैभव इस जीव के शांति का कारण नहीं है। पाप का उदय आता है तो लौकिक वैभव की तुलना मन में आती है। तृष्णा करना पाप है या पुण्य ? पाप भाव है। पाप भाव से की हुई प्रवृत्ति से शांति आए यह कैसे हो सकता है ? यदि वास्तविक मायने में इस ज्ञानानंद निधान अमूर्त सबसे निराले इस ज्ञाता आत्मा की श्रद्धा हो तो वहां से शांति का उदय होगा। अशांति का वहां काम नहीं है। अशांति होती है परद्रव्यों में हित की श्रद्धा रखने वालों को। क्योंकि पर में तो हित माना और पर का परिणमन अपने आधीन नहीं तब देख-देखकर दु:खी ही तो होना पड़ेगा। मोक्षमार्ग में यथार्थ श्रद्धान का सर्व प्रथम स्थान है। शुरू बात होती है मोक्ष मार्ग में चलने की तो इस यथार्थ श्रद्धान से होती है। <strong>पर्यायबुद्धि का महान् अपराध</strong>―भैया ! क्या चाहिए ? मुक्ति। मुक्ति किसको चाहिए ? इस आत्मा को। जिस आत्मा को मुक्ति चाहिए उस आत्मा को ही न पहिचानें कि यह परमार्थ से किस रूप है, तो मुक्ति कहां से होगी ? बैल, घोड़ा, कुत्ता, मेंढक, चूहा व हाथियों को सम्यग्दर्शन हो जाय जिसने न संस्कृत सीखा, न प्राकृत सीखा, न व्याख्यान देना सीखा, न चर्चा करना जाना ऐसे मेंढ़क बंदर नेवला साँप आदिक को सम्यक्त्व जग जाय और यहां बड़ा ज्ञान सीखते हैं, बड़ा यत्न करते हैं और फिर भी सम्यक्त्व न जगे तो इसमें कोई अपराध तो ढूंढ़ना चाहिए। अपराध है परद्रव्य की तीव्र रूचि। जो पढ़ता है उसको अपने प्रयोजन में ढालता है। शुद्ध सत्य प्रयोजन उसके नहीं रहता है। तब जो विद्याएँ पढ़ीं वे मान के लिए पढ़ीं। विवाद के लिए पढ़ीं, हित के लिए नहीं पढ़ीं हैं। उन संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंचों ने जिसने कि सम्यक्त्व पाया है उनका मान विवाद हठ ये कुछ नहीं होते। वे अपने स्वरूप की श्रद्धा कर लेते हैं और ये मनुष्य हम आप नहीं कर पाते। न कर सकें तो यह एक विषाद की बात है। <strong>तृष्णा क्लेश की जननी</strong>―आत्महित की तो बात दूर ही है। रात दिन चित्त में यह बात रखे रहते हैं कि हाय हम दु:खी हैं, हम दरिद्री हैं, हमारे पास थोड़ा वैभव है। अरे उन संज्ञी तिर्यंचों से आप हम कितने अच्छे हैं, उन कीड़े, मकोड़ों से हम आप कितने अच्छे हैं ? जो वर्तमान में अच्छापन पाया उसका संतोष नहीं किया जाता। तृष्णा में यह हाल होता है कि जो मिला है उसका आनंद भी नहीं पाया जा सकता है।</p> | |||
<p><strong>श्रद्धा का विस्तार</strong>―यह जीव श्रद्धान करता किसका है ? व्यवहार में तो परद्रव्यों का श्रद्धान करता है और परमार्थ से अपने स्वरूप रूप का श्रद्धान करता है। अपने ही परिणमन का श्रद्धान करता है। इस ही श्रद्धान गुण के परिणमन से परिणमता हैं। सो इस जीव का श्रद्धेय जीवादिक परपदार्थों के साथ संबंध ही नहीं है। श्रद्धान इनका करता हो इतने मात्र का भी स्वामित्व परपदार्थ से नहीं है। फिर मैं वैभव का स्वामी हूँ, इतने परिजन का स्वामी हूँ, यह बात तो आयेगी कहां से ?</p> | |||
<p><strong>आत्मपरमार्थता</strong>―यह प्रकरण चल रहा है जोड़ और तोड़ दोनों व्यवहारों से रहित परमार्थ स्वरूप का। आत्मा में रागद्वेष कुटुंब वैभव जोड़ना यह तो है जोड़ का व्यवहार व आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है इस तरह के भेद करना यह तोड़रूप व्यवहार है। आत्मा जोड़ से और तोड़ से रहित अपने स्वरूप मात्र अखंड वस्तु है। इस आत्म पदार्थ की जो श्रद्धा करते हैं उनकी अलौकिकी वृत्ति हो जाती है। लोग गाली दें तिस पर भी बुरा न माने तो सुनने वाले, देखने वाले उसको कहते हैं कि यह कैसा पागल हो गया है ? कुछ अपनी बात ही नहीं समझता है तो ज्ञानी जीव की वृत्ति अलौकिकी होती है। लोग जैसा करें उससे उल्टा काम है इसका। लोग संचय करते हैं और यह त्याग पर उतारू है। कितना उल्टा काम है इसका ?</p> | |||
<p><strong>ज्ञानी व अज्ञानी की वृत्तियां</strong>―भैया ! कृपण पुरूष तो दूसरों को दान देता हुआ देखकर दूसरों को बुद्धिहीन समझता है और सोचता है कि इसके दिमाग में कुछ फितूर होगा। एक बार एक कृपण ने किसी सेठ को वस्त्र, भोजन आदि बाँटते हुए देख दिया। बस, देखते ही उसका चित्त दु:खी हो गया, हाय कैसा धन बांटा जा रहा है ? उसके सिर दर्द हो गया चेहरा मलिन हो गया। मलिन चेहरा लेकर घर आया तो घरवाली भी उसके अनुरूप थी, जैसा कि वह सेठ कृपणता की वृत्ति वाला था। पूछती है―‘नारी पूछे सूमसे काहे बदन मलीन। क्या तेरो कुछ गिर गया या काहू को दीन।।’ वह जानती थी कि किसी को कुछ दे दिया होगा आज या कुछ गिर गया होगा सो दु:खी है। उसे अभी रहस्य का पता नहीं है। तो सूम कहता है--‘‘ना मेरा कुछ गिर गया ना काहू को दीन। देतन देखा और को तासो बदन मलीन।।’’ ज्ञानी और अज्ञानी का जोड़ कैसे मिलावोगे ? जिसको जैसी श्रद्धा होती है उसके अनुसार उसकी वृत्ति होती है।</p> | |||
<p><strong>परमार्थ श्रद्धान</strong>―भैया ! हमें प्रवृत्ति चाहिए शांति की। शांति किस प्रकार मिले, इसका उपाय है वस्तु की स्वतंत्रता का श्रद्धान रखना। बाहर में कोई कैसे कुछ परिणमे वह उनकी वृत्ति है, उससे मेरे में कुछ सुधार अथवा बिगाड़ नहीं है। ऐसा जानकर अपने आपकी ओर उन्मुखता रहे तो वहां शांति उत्पन्न होती है, ऐसी सही श्रद्धा करने वाला ज्ञानी पुरूष भी श्रद्धेय परपदार्थों का कुछ नहीं है। व्यवहार ही पर का श्रद्धान करने वाला है ऐसा कहकर निश्चय की बात का संकेत करता है। जीवादिक तत्त्वार्थों का श्रद्धान करने वाला जीव है इस प्रकार व्यवहार से कहा जाता है। </p> | |||
श्रद्धान और रूचि की | <p><strong>अन्य गुणों के संबंध की प्ररूपणा</strong>―यह जीव ज्ञायक है, दर्शक है, अपोहक है, श्रद्धाता है। क्या परवस्तु का इस आत्मा से इस रूप में भी संबंध है ? इसके उत्तर में निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों पद्धतियों से वर्णन करते हैं, तो इस ही तरह आत्मा के अन्य गुणों के परिणमन के साथ ही परवस्तु का क्या संबंध है या नहीं है, इसमें भी निश्चय और व्यवहार के तरीके से संबंध जानना चाहिए, इस संबंध में आचार्यदेव इस गाथा में कह रहे हैं।</p> | ||
<p><strong> </strong></p> | |||
परमार्थ | |||
अन्य गुणों के संबंध की | |||
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Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।तह परदव्वं सद्दहइ सम्मदिट्ठी सहावेण।।364।। श्रद्धाता व श्रद्धेय परपदार्थविषयक व्यवहार कथन―जैसे सेटिका अपने स्वभाव से परद्रव्य को श्वेत करती है इस ही प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अपने भावों से परद्रव्यों का श्रद्धान करता है। यह व्यवहारनय का कथन है। तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है। उसमें श्रद्धेयरूप जीवादिक बाह्य पदार्थ हैं उनका निश्चय से श्रद्धान करना नहीं होता है अर्थात् श्रद्धेय परद्रव्य में यह तन्मय नहीं होता। तो फिर क्या रहता है ? सम्यग्दर्शन, सम्यग्दर्शन रूप ही अपने स्वरूप में ठहरता है। जैसे श्वेतगुणकर भरपूर यह खड़िया अपने स्वभाव से परिणम रही है, भींतादिक परद्रव्यों के स्वभाव से नहीं परिणमती। खूब देख लो।
उपदृष्टांतपूर्वक व्यवहारसंबंधक दृष्टांत का विवरण―एक अपने कपड़ों को ही देख लो। कोई मनुष्य एकदम लाल कपड़े पहिने है ऊपर से नीचे तक। तो लाल कपड़ों ने आदमी को लाल कर दिया क्या ? लाल कपड़ा अपने स्वभाव से परिणम रहा है आदमी के स्वभाव से नहीं परिणम रहा है। आदमी अपने ही रूप परिणम रहा है, कपड़ा अपने ही रूप परिणम रहा है। मगर जिस तरह से कमीज या ओढ़नी ओढ़ी जाती है। आदमी न हो तो भला उसे आकाश में उस ढंग से उड़ा दो। कोई आधारभूत परद्रव्य न हो तो यह कपड़ा कमीज इस तरह से तो नहीं फैल सकता, जैसा आदमी के पहिनने में फैला है। तो इतना निमित्तनैमित्तिक संबंध तो है इस कपड़े के इस आकार में फैलने का, पर आदमी ने कपड़े में कुछ नहीं किया, कपड़े ने आदमी में कुछ नहीं किया, यह बात तो जरा जल्दी समझ में आती है। ऐसी ही बात बिल्कुल इस कलई और भींत की है। मनुष्य के मानिंद यह भींत बिल्कुल स्वतंत्र अपने रूप है और वस्त्र के मानिंद यह कलई अपने रूप में बिल्कुल स्वतंत्र है, एक दूसरे रूप नहीं परिणमती है, फिर भी परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है, इस कारण व्यवहार में यों कहा जाता है कि कलई ने भींत को सफेद कर दिया।
श्रद्धाता व श्रद्धेय का संबंध व्यवहार―इसी तरह श्रद्धा नामक शक्ति जो कि परद्रव्य जैसा है उस रूप से परिणमे, श्रद्धा करे ऐसी वृत्ति रखता है। उस श्रद्धारूप से परिणमते हुए जीव का इन परद्रव्यों से संबंध नहीं है, परद्रव्य का स्वामी वह पर ही है, हम परद्रव्य के कर्ता नहीं है। और वे परद्रव्य इसका श्रद्धान बनाते नहीं हैं, किंतु परस्पर में एक ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि यह श्रद्धाता अपने रूप से परिणम रहा है। उसमें विषयभूत बाह्य पदार्थ होते हैं।
श्रद्धान और श्रद्धान के विषय की अनिवार्यता―भैया ! जीव कहीं न कहीं श्रद्धान तो बनाता ही है। कोई भी जीव हो, मिथ्यादृष्टि हो, सम्यग्दृष्टि हो, किसी न किसी जगह उसका श्रद्धान अटका है। अज्ञानियों का कुटुंब और वैभव में श्रद्धान अटका है, सम्यग्दृष्टि जीव का अपने स्वभाव में श्रद्धान अटका है। श्रद्धान कहते हैं उसे कि जिसके प्रताप से जिसमें रूचि जगे। यद्यपि रूचि ही श्रद्धान नहीं है किंतु श्रद्धान का फल रूचि है। जिस का जहां श्रद्धान होगा वैसी उसकी रूचि होगी। तो जिसका वैभव और कुटुंब में रूचि है उसके श्रद्धान कहां कहा जायेगा ? वैभव और कुटुंब में। और जिसको निज सहज स्वभाव के देखने की ही रूचि रहती है उसका श्रद्धान कहां कहा जायेगा ? अपने आपके सहज स्वभाव में।
श्रद्धान और रूचि की अनुरूपता―भैया ! जैसी श्रद्धा होती है वैसी रूचि जगती है और उस ओर की ही प्रवृत्ति होती है। श्रद्धानपूर्वक किया हुआ कार्य फलवान होता है। यद्यपि प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक जीव जो भी कार्य करता है वह श्रद्धानपूर्वक ही तो कर पाता है। पर यथार्थ श्रद्धापूर्वक जो कार्य होता है वह यथार्थ प्रयोजन को सिद्ध करता है। लोक में भी कोई नियम श्रद्धापूर्वक लिया जाय तो उस नियम का भी फल उत्तम होता है लोक दृष्टि में। फिर धार्मिक कर्तव्य के नियम यदि श्रद्धापूर्वक हों तो भी उत्तमफल देने वाला होता है। अब श्रद्धा तो मन में बनी है कुटुंब वैभव की और प्रवृत्ति रखते हैं पूजा पाठ की तो यह बेमेल काम हुआ कि नहीं ? मेल कहां खाया और जब मेल नहीं खाता तो शांति भी वहां नहीं मिलती। और धन का मिलना कोई पूजा के आधीन बात है नहीं। वह तो पूर्वकृत पुण्य के अनुसार आता है। तो जब ऐसे लोगों को न तो धन वैभव मिलता है और शांति मिलती है बल्कि विवाद झगड़े कुबुद्धि ये अवगुण सताते हैं तो दर्शक लोगों की श्रद्धा धर्म से हटने लगती है। ये तो बने हैं बड़े धर्मात्मा। इनकी तो दशा देखो। जो पुरूष मायाचार सहित धर्म की बातें रखता है तो वह केवल अपनी ही दुर्दशा नहीं बनाता, किंतु अनेक लोगों की दुर्गति बनाने में निमित्त होता है। निर्माया ह्रदय ही धर्म का अधिकारी―धर्मपालन मायाचार में नहीं होता। ब्रह्मगुलाल मुनि की बात सुनी होगी। वे बहुत-बहुत भेष बनाया करते थे। सो उससे राजा प्रसन्न रहे। किसी मंत्री को यह बात खटकी तो राजा से कहा कि महाराज इससे कहो कि कल सिंह का भेष बनाकर सभा में आए। राजा ने कहा कि कल आप शेर का स्वांग बनाकर सभा में आना। तो कहा कि महाराज शेर का स्वांग बड़ा कठिन होता है। कहीं एक आध खून हो जाय तो माफ करना होगा तब स्वांग बनाया जा सकता है। अच्छा भाई माफ। जब शेर का स्वांग बनाकर आया तो परिणाम भी उस ही रूप बनाना पड़ता है तब तो स्वांग की बात आती है। तो जब वहां से निकला सिंह, वही ब्रह्मगुलाल, तो राजा के लड़के ने कुछ तुच्छ बात कह दी कि यह आया है गीदड़। तो उसके रोष आया और अपना पंजा उस राजपुत्र के मार दिया। राजपुत्र मर गया, पर राजा तो वचनबद्ध था। कहे क्या ? तो मंत्रियों ने राजा को यह सलाह दी कि आप इससे यह कहो कि मुनि का भेष बनाकर सभा में आए। राजा ने ब्रह्मगुलाल से कहा कि मुनि का भेष बनाकर सभा में आए। तो वह बोला कि महाराज इस भेष को बनाने में 6 महीने सीखना होगा। साधुपद ऐसा नहीं है कि आया मन में तो हो गए नंगे। यों साधुता नहीं होती है तो इसके लिए तो हमें 6 मास तक अभ्यास करना होगा। राजा ने कहा अच्छा 6 महीने सही। उन 6 महीनों में ब्रह्मगुलाल रात दिन स्वाध्याय, ध्यान, आत्मभावना में रहा आया। अंत में जब वैराग्य हुआ तब मुनि का भेष बनाकर पिछी कमंडल लेकर सभा के सामने से निकल गया। राजा ने बहुत बुलाया, पर ब्रह्मगुलाल ने कहा कि बस मुनि भेष में यही होता है। श्रद्धान सहित नियम का निर्वाह―भैया ! किसी से प्रेम नहीं करे, किसी वस्तु में मोह नहीं करे, किन्हीं भी पदार्थों का परिग्रह न करे, किसी की बात न सुने, अपने ज्ञान ध्यान तप में लीन रहे यह है साधु की चर्या। साधु तो भगवान की मुद्रा में है ना। जैसे प्रभु रागद्वेष से परे है तो यह भी पदवी के अनुसार रागद्वेष से परे होगा तो बस निकल गए सभा के सामने से। श्रद्धापूर्वक जो नियम होता है उस नियम में बाधा नहीं आती है। अब श्रद्धान तो है और तरह का, रूचि तो है और प्रकार की और धर्म का रूपक रखे हैं तो उसका मेल नहीं खाता है। जो भी नियम ले उस नियम की सच्चाई से श्रद्धा है तो वह नियम अवश्य फलेगा और उसका फल उत्तम मिलेगा। श्रद्धानसहित नियम का परिणाम―एक सेठ थे तो उससे साधु ने कहा कि तुम कोई नियम ले लो। तो वह बोला कि महाराज हमसे नियम का पालना कठिन है सो महाराज नियम तो मुश्किल है साधु ने कहा कि देवदर्शन रोज कर लिया करो। सेठ बोला-महाराज मंदिर तो एक फर्लांग दूर है। तो तुम्हारे घर के सामने क्या है ? सेठ ने कहा कि कुम्हार का घर है। उसके यहां क्या है जो तुम्हें शीघ्र दिख जाय। सेठ ने कहा कि पड़ा बँधा रहता है, भैंसा उसकी चाँद रोज दिख जाती है। साधु ने कहा कि अच्छा उसी की चाँद को देखकर खाना खाने का नियम लो। कहा कि अच्छा महाराज यह तो कर लेंगे। अब एक दिन कुम्हार अपने पड़ा को लेकर जल्दी खान में चला गया तो वहां खान खोदते हुए में एक अशर्फियों का हंडा उसे मिला। यहां क्या हुआ कि जब सेठ को उसके घर में पड़ा न मिला तो सीधे वह उसकी खान में पहुंचा। भैंसे का चाँद देख लिया। जब सेठ खान से कोई 25-30 हाथ दूर था तो कुम्हार ने खड़े होकर देखा कि हंडा पाया है तो कोई देख तो नहीं रहा है। देखा कि सेठ जी खड़े हैं। लो सेठ जी से कुम्हार ने कहा कि सेठ जी सुनो। तो सेठ जी ने कहा कि बस-बस देख लिया। अरे सुनो तो बस-बस देख लिया। वह तो यह कह रहा था कि हमने भैंसे के चाँद को देख लिया क्योंकि हमें दर्शन इसके करना था, भूख लगी है, अब जाकर खाना खायेंगे। कुम्हार ने कहा―अरे सुनो तो। कहा―बस देख लिया। क्या देख लिया सुनो तो सही। बस सब देख लिया। जो देखना था सो देख लिया तो सेठ अपने घर पहुंचा। अब कुम्हार सोचता है कि सेठ ने देख लिया है, यदि वह राजा से कह देगा तो सारी अशर्फियाँ छिन जायेंगी। सो वह सेठ के यहां सारी अशर्फियाँ लेकर पहुंचा। सेठ से कहा कि देखो किसी से कहने की बात नहीं है, इतनी अशर्फियां मिली हैं, आधी आप ले लो आधी हम ले लें। कुम्हार आधी अशर्फियां देकर चला गया। अब सेठ सोचता है कि जब एक अटपट नियम पालने पर इतनी अशर्फियां मिलीं तो साधु महाराज जो कहते थे वह ठीक ही कहते थे कि प्रभु के दर्शन करने का रोज का नियम रखो तो कोई अलौकिक बात मिलती है। सो भाई यदि कोई श्रद्धा सहित प्रभु दर्शन का नियम रखता है तो उसे अलौकिक निधि ही मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। आत्मवैभव की श्रद्धा में हित―अलौकिक निधि की तुलना इस लोक की निधि से नहीं हो सकती। यह लोक की निधि, धन, वैभव इस जीव के शांति का कारण नहीं है। पाप का उदय आता है तो लौकिक वैभव की तुलना मन में आती है। तृष्णा करना पाप है या पुण्य ? पाप भाव है। पाप भाव से की हुई प्रवृत्ति से शांति आए यह कैसे हो सकता है ? यदि वास्तविक मायने में इस ज्ञानानंद निधान अमूर्त सबसे निराले इस ज्ञाता आत्मा की श्रद्धा हो तो वहां से शांति का उदय होगा। अशांति का वहां काम नहीं है। अशांति होती है परद्रव्यों में हित की श्रद्धा रखने वालों को। क्योंकि पर में तो हित माना और पर का परिणमन अपने आधीन नहीं तब देख-देखकर दु:खी ही तो होना पड़ेगा। मोक्षमार्ग में यथार्थ श्रद्धान का सर्व प्रथम स्थान है। शुरू बात होती है मोक्ष मार्ग में चलने की तो इस यथार्थ श्रद्धान से होती है। पर्यायबुद्धि का महान् अपराध―भैया ! क्या चाहिए ? मुक्ति। मुक्ति किसको चाहिए ? इस आत्मा को। जिस आत्मा को मुक्ति चाहिए उस आत्मा को ही न पहिचानें कि यह परमार्थ से किस रूप है, तो मुक्ति कहां से होगी ? बैल, घोड़ा, कुत्ता, मेंढक, चूहा व हाथियों को सम्यग्दर्शन हो जाय जिसने न संस्कृत सीखा, न प्राकृत सीखा, न व्याख्यान देना सीखा, न चर्चा करना जाना ऐसे मेंढ़क बंदर नेवला साँप आदिक को सम्यक्त्व जग जाय और यहां बड़ा ज्ञान सीखते हैं, बड़ा यत्न करते हैं और फिर भी सम्यक्त्व न जगे तो इसमें कोई अपराध तो ढूंढ़ना चाहिए। अपराध है परद्रव्य की तीव्र रूचि। जो पढ़ता है उसको अपने प्रयोजन में ढालता है। शुद्ध सत्य प्रयोजन उसके नहीं रहता है। तब जो विद्याएँ पढ़ीं वे मान के लिए पढ़ीं। विवाद के लिए पढ़ीं, हित के लिए नहीं पढ़ीं हैं। उन संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंचों ने जिसने कि सम्यक्त्व पाया है उनका मान विवाद हठ ये कुछ नहीं होते। वे अपने स्वरूप की श्रद्धा कर लेते हैं और ये मनुष्य हम आप नहीं कर पाते। न कर सकें तो यह एक विषाद की बात है। तृष्णा क्लेश की जननी―आत्महित की तो बात दूर ही है। रात दिन चित्त में यह बात रखे रहते हैं कि हाय हम दु:खी हैं, हम दरिद्री हैं, हमारे पास थोड़ा वैभव है। अरे उन संज्ञी तिर्यंचों से आप हम कितने अच्छे हैं, उन कीड़े, मकोड़ों से हम आप कितने अच्छे हैं ? जो वर्तमान में अच्छापन पाया उसका संतोष नहीं किया जाता। तृष्णा में यह हाल होता है कि जो मिला है उसका आनंद भी नहीं पाया जा सकता है।
श्रद्धा का विस्तार―यह जीव श्रद्धान करता किसका है ? व्यवहार में तो परद्रव्यों का श्रद्धान करता है और परमार्थ से अपने स्वरूप रूप का श्रद्धान करता है। अपने ही परिणमन का श्रद्धान करता है। इस ही श्रद्धान गुण के परिणमन से परिणमता हैं। सो इस जीव का श्रद्धेय जीवादिक परपदार्थों के साथ संबंध ही नहीं है। श्रद्धान इनका करता हो इतने मात्र का भी स्वामित्व परपदार्थ से नहीं है। फिर मैं वैभव का स्वामी हूँ, इतने परिजन का स्वामी हूँ, यह बात तो आयेगी कहां से ?
आत्मपरमार्थता―यह प्रकरण चल रहा है जोड़ और तोड़ दोनों व्यवहारों से रहित परमार्थ स्वरूप का। आत्मा में रागद्वेष कुटुंब वैभव जोड़ना यह तो है जोड़ का व्यवहार व आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है इस तरह के भेद करना यह तोड़रूप व्यवहार है। आत्मा जोड़ से और तोड़ से रहित अपने स्वरूप मात्र अखंड वस्तु है। इस आत्म पदार्थ की जो श्रद्धा करते हैं उनकी अलौकिकी वृत्ति हो जाती है। लोग गाली दें तिस पर भी बुरा न माने तो सुनने वाले, देखने वाले उसको कहते हैं कि यह कैसा पागल हो गया है ? कुछ अपनी बात ही नहीं समझता है तो ज्ञानी जीव की वृत्ति अलौकिकी होती है। लोग जैसा करें उससे उल्टा काम है इसका। लोग संचय करते हैं और यह त्याग पर उतारू है। कितना उल्टा काम है इसका ?
ज्ञानी व अज्ञानी की वृत्तियां―भैया ! कृपण पुरूष तो दूसरों को दान देता हुआ देखकर दूसरों को बुद्धिहीन समझता है और सोचता है कि इसके दिमाग में कुछ फितूर होगा। एक बार एक कृपण ने किसी सेठ को वस्त्र, भोजन आदि बाँटते हुए देख दिया। बस, देखते ही उसका चित्त दु:खी हो गया, हाय कैसा धन बांटा जा रहा है ? उसके सिर दर्द हो गया चेहरा मलिन हो गया। मलिन चेहरा लेकर घर आया तो घरवाली भी उसके अनुरूप थी, जैसा कि वह सेठ कृपणता की वृत्ति वाला था। पूछती है―‘नारी पूछे सूमसे काहे बदन मलीन। क्या तेरो कुछ गिर गया या काहू को दीन।।’ वह जानती थी कि किसी को कुछ दे दिया होगा आज या कुछ गिर गया होगा सो दु:खी है। उसे अभी रहस्य का पता नहीं है। तो सूम कहता है--‘‘ना मेरा कुछ गिर गया ना काहू को दीन। देतन देखा और को तासो बदन मलीन।।’’ ज्ञानी और अज्ञानी का जोड़ कैसे मिलावोगे ? जिसको जैसी श्रद्धा होती है उसके अनुसार उसकी वृत्ति होती है।
परमार्थ श्रद्धान―भैया ! हमें प्रवृत्ति चाहिए शांति की। शांति किस प्रकार मिले, इसका उपाय है वस्तु की स्वतंत्रता का श्रद्धान रखना। बाहर में कोई कैसे कुछ परिणमे वह उनकी वृत्ति है, उससे मेरे में कुछ सुधार अथवा बिगाड़ नहीं है। ऐसा जानकर अपने आपकी ओर उन्मुखता रहे तो वहां शांति उत्पन्न होती है, ऐसी सही श्रद्धा करने वाला ज्ञानी पुरूष भी श्रद्धेय परपदार्थों का कुछ नहीं है। व्यवहार ही पर का श्रद्धान करने वाला है ऐसा कहकर निश्चय की बात का संकेत करता है। जीवादिक तत्त्वार्थों का श्रद्धान करने वाला जीव है इस प्रकार व्यवहार से कहा जाता है।
अन्य गुणों के संबंध की प्ररूपणा―यह जीव ज्ञायक है, दर्शक है, अपोहक है, श्रद्धाता है। क्या परवस्तु का इस आत्मा से इस रूप में भी संबंध है ? इसके उत्तर में निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों पद्धतियों से वर्णन करते हैं, तो इस ही तरह आत्मा के अन्य गुणों के परिणमन के साथ ही परवस्तु का क्या संबंध है या नहीं है, इसमें भी निश्चय और व्यवहार के तरीके से संबंध जानना चाहिए, इस संबंध में आचार्यदेव इस गाथा में कह रहे हैं।