वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 365
From जैनकोष
एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते।भणिओ अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णायव्वो।।365।।
अन्य गुणों की वृत्तियों का पर से संबंध विषयक व्यवहारविनिश्चय―जिस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र और सम्यक्त्व के संबंध में आत्मा का परद्रव्य के साथ संबंध होने की बात निश्चय और व्यवहार से बताई है इस ही प्रकार अन्य गुणों और पर्यायों में भी समझ लेना चाहिए। जैसे एक आनंद नामक गुण है, पहिले आनंद गुण की वृत्ति को जान लें, आनंदगुण आत्मा में त्रैकालिक गुण है और उसके परिणमन 3 प्रकार के हैं। दु:ख, सुख और आनंद। दु:ख कहते हैं उसे जो इंद्रियों को असुहावना लगे। सुख कहते हैं उसे जो इंद्रियों को सुहावना लगे और आनंद कहते हैं उसे जो आत्मा की शक्ति समृद्धि का अनुभव होने के कारण अनाकुलतारूप परिणमन हो। इसमें सुख और दु:ख विकार परिणमन है और आनंद स्वभाव परिणमन है। आनंद गुण का भी नाम है और उसकी स्वाभाविक पर्याय का भी नाम है।
आनंदगुण की वृत्ति का पर से असंबंध―इस आनंद गुण का सुख दु:ख रूप विकार अवस्था में परमार्थ से क्या परवस्तु के साथ कुछ संबंध है ? नहीं। आनंदगुण की स्वभाव अवस्था में परवस्तु के साथ संबंध नहीं है, यह बात जल्दी ध्यान में आ जाती है। ठीक है, किंतु विकार दशा में भी पर से संबंध नहीं है, सिद्ध भगवान अनंत आनंद में मग्न है, तो क्या किसी परवस्तु के लक्ष्य के कारण या विषय के कारण वह आनंदमग्न है ? नहीं। उनके आनंदगुण का परिणमन उनके द्रव्यत्व गुण के कारण हो रहा है। सुख और दु:ख की दशा में कुछ संदेह हो जाता है कि आत्मा परवस्तु से ही सुख लेता है और परवस्तु से ही दुःख लेता है। इस लोक में भी कहते हैं कि अमुक लड़के ने नाक में दम कर डाला। नाक में दम विपत्ति को कहते हैं। जैसे नाक के छेद में कोई चीज अड़ जाय तो दम घुटने लगता है ऐसा लोक में भी कहते हैं। और सुख के बारे में भी कहते हैं कि हमारी बहुयें तो ऐसी भली आयी हैं कि हमें कोई तकलीफ नहीं है। बेचारी बड़ी सेवा करती हैं, उनसे हमें बड़ा सुख है। ऐसा व्यवहार में भी कहते हैं ना। तो सुख और दुःख परवस्तु से आते हैं। पर से ही सुख है पर से ही दुःख है, यह बात व्यवहार में समझ में आ रही है, परंतु निश्चयनय यह बताता है कि सुखरूप से परिणमने वाला यह आत्मा अपने आनंद गुण के परिणमन से सुखी होता है।
आनंद परिणतियों का मात्र व्यवहार से संबंधदर्शन―यह आत्मा अपने आनंद स्वभाव से परिणमता, परवस्तु के स्वभाव से नहीं परिणमता और परविषय अपने स्वभाव से इस आत्मा को नहीं परिणमाता किंतु अपनी परिणति से परिणमते हुए दोनों के प्रसंग में यह संसारी जीव परविषयक लक्ष्य में लेकर उसका निमित्त पाकर अपने सुख से परिणमते हुए में पर से सुखी होता है, यह अमुक विषय का सुख है ऐसा व्यवहार में कहते हैं। परमार्थ से इस आत्मा का सुखादिक के आश्रयभूत विषयों से भी संबंध नहीं है। विषय बहुत दूर पड़े हैं, यह बहुत दूर बैठे-बैठे सुखरूप परिणम रहा है।
आनंद और विषय की भिन्नता के उदाहरण―जैसे देखने का जो विषय है सुहावना रूप है, सिनेमा के चित्रादिक हैं वे तो बहुत दूर बने हुए हैं, यह इतनी दूर बैठा हुआ अपने आप में उस रूप का विषय करके सुखरूप परिणम रहा है। आंखों से दिखने वाली बाहर की बात कुछ जल्दी समझ में आ गयी होगी कि हां कुछ भी तो इस रूप से संबंध नहीं है। तो जैसे उस चक्षु के विषयभूत रूप पदार्थों से इस आत्मा का कोई संबंध नहीं है सुख के प्रसंग में, इसी प्रकार चबा-चबाकर खाये हुए में लड्डू, रबड़ी से इस आत्मा का कोई संबंध नहीं है। इस जीव को लड्डू रबड़ी आदि से सुख मिलता हो, ऐसी बात नहीं है, यह भी आत्मप्रदेश से दूर रहने वाली बात है।
एकक्षेत्रावगाही पर का भी आनंद में अत्यंताभाव―कदाचित् पर का आत्मप्रदेश में एकक्षेत्रावगाह भी हो जाय, वह लड्डू किसी तरह खाया, रस बना तो वह रूधिर आदिक रूप परिणम गया। अब शरीर के रूधिर आदिक समस्त अंगों में आत्मप्रदेश भरा पड़ा है। एकक्षेत्रावगाह है ऐसा एकक्षेत्रावगाहरूप भी परपरिणति हो तो भी वह आत्मा से बाहर है, स्वरूप में उसका प्रवेश नहीं है। कहीं स्वास्थ्य अच्छा है ना, खून बढ़ रहा है तो कहीं खून बढ़ने के कारण इस जीव का सुख परिणमन नहीं हुआ वह तो एक आश्रयभूत है, उसका विषय करके यह जीव अपनी परिणति से अपनी कला से अपने आप सुखरूप परिणमता है। इसी प्रकार अन्य शक्तियों की भी बात समझिए।
क्रियावती शक्ति की परिणति का भी पर से असंबंध―जैसे एक क्रियावती शक्ति है। क्रियावती शक्ति के प्रताप से यह जीव गति करता है। इस देह से बँधी हुई हालत में कोई इस देह को अभी घसीट ले जाय तो देह जो चला, उसमें निमित्त वह घसीटने वाला पुरूष तो है पर यह देह अपनी क्रिया से चला और देह के चलने का निमित्त पाकर जीव भी उसके साथ चला। कहीं जीव यहां रखा नहीं रहा, फिर भी जीव में गति जीव की क्रियावती शक्ति के परिणमन से है। उसमें संयुक्त पुद्गल की क्रिया निमित्तभूत है। सो व्यवहार से निमित्तनैमित्तिक संबंध के कारण एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से संबंध है, अथवा एक दूसरे को यों करके यों व्यावहारिक संबंध बताया जाय किंतु परमार्थ से किसी द्रव्य के परिणमन का किसी अन्य द्रव्य के परिणमन से तन्मयता का संबंध नहीं है। व्यवहारभाषा का मर्मभूत अन्य अर्थ―व्यवहार में लोग कहते हैं कि यह मैंने भोजन किया, यह मैंने कांटा निकाल दिया, यह घर मैंने बनवाया, मैंने गधे को आदमी बनाया। गधे को आदमी बनाना मायने पढ़ा लिखा देना। यह सब व्यवहार कथन है। एक मास्टर साहब स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहे थे। सो एक बच्चे को कह रहे थे कि तू तो बड़ा मूर्ख है, अभी तक तेरी समझ में नहीं आया। मैंने बीसों गधों को आदमी बनाया। तो एक कुम्हार जा रहा था। उसने सोचा कि हमारे कोई लड़का नहीं है सो एक गधे का क्यों न लड़का बनवा लें। सो मास्टर साहब से उसने विनती की कि मास्टर साहब हमारे घर में एक भी लड़का नहीं है, हम अकेले घर में। एक गधे का लड़का बना दीजिए। मास्टर ने सोचा कि अच्छा बेवकूफ आज पल्ले पड़ा। थोड़ा सोच कर बोला कि अच्छा ले आना गधा―देखो 7 वें दिन आना और ठीक 3 बजे दोपहर को आना। उसने गधा लाकर दे दिया 25-30 रू का बिका तो उससे अपना काम चलाया। अब वह देहाती, 7 वें दिन ठीक 3 बजे आ ही जाय ऐसी घड़ी तो उसके पास थी नहीं, सो बेचारा 3।। बजे आया। सो कहा महाराज अब हमारा लड़का दे दीजिए। मास्टर कहता है कि ओह तू आध घंटे बाद आया। अरे तेरा गधा तो लड़का बन चुका है, यदि आध घंटे पहिले आ जाता तो तेरा लड़का यहीं मिल जाता। अब तो वह फलां कचहरी में जज बन गया है, वहां तू जा वह कुर्सी पर बैठा हुआ फैसला करता हुआ मिलेगा। तो वह पछताता है कि यदि मैं आध घंटे पहिले आ जाता तो हमारा लड़का हमको यहीं मिल जाता, अब कहां जायें, किससे पूछें ? सोचा कि कचहरी चलें। उसी गधे का तोबरा और रस्सी लेकर वह कुम्हार कचहरी पहुंचा। जिससे कि वह लड़का इसको देखकर यह ख्याल करले कि हम इस कुम्हार के ही लड़के हैं, सो वह कचहरी के दरवाजे पर बैठ गया। उस गधे के तोबरा को दिखाकर वह बोलता है कि ओह ओह आजा मेरे पास, तू हमसे नाराज होकर यहां क्यों चला आया ? आधा घंटा ही तो हमको देर हो गयी थी। जज ने देखा कि यह कैसा मूर्ख है सो सिपाहियों से कहकर धक्के मारकर निकलवा दिया। व्यवहारभाषा के लक्ष्य की जानकारी की आवश्यकता―तो व्यवहार में भी यह कहते हैं कि मैंने गधे को आदमी बना डाला तो क्या उसका सीधा अर्थ यह लेना है कि हां बन जाता है। व्यवहार भाषा में बोलने का लक्ष्य किस बात पर है ? यह ध्यान में आए बिना व्यवहार की बात गलत हो जायगी। तो यद्यपि परवस्तुओं के प्रति व्यवहार में ऐसा कहा जाता है कि मैंने घर बनाया, मैंने कांटा निकाला, मैंने भोजन बनाया, मैंने अमुक को पढ़ाया, लेकिन निश्चय से देखा जाय तो मैंने तो रागादिक परिणाम ही किया। न मैंने किसी को पढ़ाया, न मैंने भोजन बनाया, न मैंने घर वगैरह बनाया, यह एक मोटी सी बात है। जैसे कोई कहता हो कि मैंने अमुक परद्रव्य को जाना तो उसका अर्थ लगावो कि क्या यह परद्रव्य में तन्मय होकर जानता है ? नहीं। इस कारण से निश्चय से पर को नहीं जाना।
व्यवहार से सर्वज्ञता का अर्थ―कोई शंका करता है कि यदि भगवान भी परद्रव्य को व्यवहार से जानता है तो फिर वह भी व्यवहार से सर्वज्ञ हुए, निश्चय से तो सर्वज्ञ नहीं रहे। उत्तर में यह जानना कि भाई उसका अर्थ यह लगाना कि परद्रव्य के संबंध में जानकारी तो हुई यह बात तो असत्य नहीं है किंतु परद्रव्य में तन्मय होकर नहीं जानते, किंतु वे अपने आपके ज्ञानपरिणमन में ही तन्मय होकर जानते हैं। जैसे कोई मनुष्य पर के सुख को जानता है, यह बड़ा सुखी है, तो क्या वह दूसरे के सुख में तन्मय होता हुआ जानता है ? नहीं। दूसरे के सुख के बारे में जानता है। दूसरे के सुख में तन्मय होकर नहीं जानता है।
भैया ! और भी देखो जब अपने बुखार आता है 102 डिग्री बुखार मानो आया तो आपको बुखार का ज्ञान हुआ। एक तो यह ज्ञान हुआ और दूसरे जब आप स्वस्थ हो गए, अब भाई को बुखार आया तो उसको भी 102 डिग्री बुखार है। सो थर्मामीटर लगाकर देख रहा है ओह भाई के भी 102 डिग्री बुखार है। तो एक तो अपने बुखार का ज्ञान था और अब भाई के बुखार का ज्ञान हो रहा है। इन दोनों ज्ञानों में कुछ अंतर है या नहीं ? अंतर है। अपने बुखार की वेदना को तो तन्मय होकर जानता था और भाई के बुखार की वेदना को तन्मय होकर नहीं जानता है। अगर तन्मय होकर जानने लगे तो फिर दोनों की दवाई होगी तब बुखार मिटेगा। होता भी है क्या ऐसा ? कोई बीमार हो जाय और उसे कड़वी दवा दे डॉक्टर तो वह बीमार पुरूष कहे कि डॉक्टर साहब यह दवा तो हमसे नहीं पी जाती है आप पी लो तो क्या ऐसा भी कोर्इ कहता हैं या उसके कहने से डॉक्टर दवा पी लेता है ? परपदार्थ का जो सम्वेदन होता है वह व्यवहार का सम्वेदन कहलाता है क्योंकि पर में तन्मय होकर सम्वेदन रूप परिणमन नहीं होता। यदि दूसरे के सुख को अपने सुख की तरह तन्मय होकर जाने तो जैसे अपने सुख के सम्वेदन में यह जीव सुखी होता है इस प्रकार पर के सुख के सम्वेदन से भी सुखी हो जाय और पर के दुःख के ज्ञान में यह दुःखी हो जाय किंतु ऐसा नहीं है। तो जैसे यह अपने सम्वेदन की बात तो निश्चय है और दूसरे के सुख की ज्ञान की बात व्यवहार से है, इस तरह सभी आत्मावों को अपने ज्ञान के परिणमन की तन्मयता की बात तो निश्चय से है और पर का ज्ञान होते हुए भी पर का ज्ञान व्यवहार से यों कहलाता है कि परपदार्थ तन्मय होकर नहीं जानते। यों तो निरंशवादी भी कहते हैं कि ज्ञाननिश्चय से अपने को जानता है और व्यवहार से पर को जानता है। यही बात जैन लोग कहते हैं, यही बात बौद्ध भी कहते हैं। किंतु निरंशवादियों के यहां व्यवहार को जानना व्यवहार से भी सत्य नहीं है ऐसा कहते हैं। उसे भ्रम बताते हैं किंतु यहां ऐसी बात नहीं है कि परपदार्थ के बारे में जानकारी हुई तो वह भ्रम हो गया, भ्रम वाली बात नहीं है। यह व्यवहार रूप से व्यवहार की बात सत्य है और निरंशवाद में व्यवहार की बात सर्वथा झूठ है, केवल भ्रममात्र है। यही अंतर है। यदि व्यवहार की जानकारी मात्र होती तो भगवान व्यवहार से सर्वज्ञ हैं इस का अर्थ यह लगाते कि वास्तव में वे सर्वज्ञ नहीं हैं ? किंतु ऐसा तो नहीं है। व्यवहार की बात भ्रमरूप नहीं है। व्यवहार व्यवहाररूप से सत्य है इस कारण भगवान वास्तव में सर्वज्ञ है किंतु सर्वज्ञपने का निर्णय व्यवहार दृष्टि से होता है और आत्मज्ञता का निर्णय निश्चयदृष्टि से होता है। यदि व्यवहार की अपेक्षा भी पर का जानना सत्य नहीं रहा तो फिर सारे लौकिक व्यवहार मिथ्या हो जायेंगे। सो तो मानते नहीं। अगर मान लें तो बड़ी विपत्तियां और विडंबनाएँ बन जायें, सब पागलों जैसी बातें करने लगें। हमने तुम्हें कहां देखा ? आप कौन हैं, हम नहीं जानते हैं यों खूब परिचित पुरूषों के प्रति बातें बोलकर उल्लू बनाया जा सकता है अगर व्यवहार की बात मिथ्या मान ली जाय तो। ऐसी ही एक घटना हुई है। जब हम 8-9 वर्ष के थे हमारे पिता जी गुजर गए थे। बाद में माँ ने सब काम सँभाला। 9-10 गाँवों का लेनदेन था, खेतीबाड़ी थी। जब हम 20 वर्ष के हो गये तो ओर्छा के राजा को प्रार्थना पत्र दिया कि हमारी नाबालिक अवस्था थी अभी तक। अब हम संभल गए हैं, इसलिए 14 वर्ष के जो ऋण है, रूक्के हैं उनकी म्याद मानी जाय और हमको अधिकार दिया जाय कि हम उन पर नालिश कर सकें। पर एक बार पेशी में गये, वहां अनुकूल उत्तर मिल गया कि तुम्हें अधिकार है कि तुम 14 वर्ष के पुराने रूक्कों को वसूल कर सकते हो। अब बहुत सोचा हम कि नालिश करें या न करें। तो 12-13 वर्ष का पुराना एक ऋण था। था तो वह 399 रू का रूक्का। पहिले जमाने में 1) कम या 1) ज्यादा दिया जाता था। वहां व्यवहार लगाया तो हो गए हज़ारों। हज़ारों रुपयों की नालिश का रूक्का बनवाया, एक वकील किया। उसको भी कुछ भेंट किया जो कुछ देना था। अब वह वकील ओर्छा से बदल कर टीकमगढ़ पहुंचा। किसी तरह मैं उसके पास गया। उससे मैंने कहा कि वकील साहब बही हमारी कहां है ? तो बोले कि आप कौन हैं, कहां से आए हैं, वे ऐसा बोलने लगें कि मानो हमें जानते ही न हों। मैं वहां से सीधे उठकर घर चला आया। मैंने सोचा कि यह अभी और कुछ खाने को माँगते हैं इसलिए ऐसा करते हैं। तो अगर यह व्यवहार मिथ्या हो जाय तो कल तक तो हमारा आपसे परिचय था और आप बोलें कि आप कौन हैं ? कहां से आप आए हैं ? यदि ऐसा हो जाय तो सारे लोक में पागलपन सा छा जायेगा। व्यवहार की बात व्यवहार के रूप में सत्य है। इस बुनियादी जैन सिद्धांत में व्यवहार की सर्वज्ञता है किंतु निरंशवादों के यहां व्यवहार से जानी हुई बात को यों कहते हैं कि जो कोई नींद में स्वप्न में कुछ वस्तु देखे तो वह कोरा भ्रम है, अथवा मैं पर को नहीं जानता। इसी प्रकार सविकल्प अवस्था में व्यवहार को जो कुछ जाना जा रहा है वह सब पूर्ण मिथ्या है, भ्रम है, ऐसा निरंशवाद में कहते हैं, जैन सिद्धांत में नहीं है। इस प्रकार यहां तक यह सिद्ध किया है कि आत्मा की सब वृत्तियों का आत्मा के साथ संबंध है पर के साथ संबंध की बात व्यवहार दृष्टि से विविक्त होती है। नय नयन के प्रणयन का निष्कर्ष―निश्चय और व्यवहारनय से दर्शन, ज्ञान, चारित्र के संबंध में विनिश्चय बताकर अब उसके शिक्षारूप में क्या ग्रहण करना है, ज्ञानी जीव उससे क्या शिक्षा पाता है ? इस पर कुछ दृष्टिपात किया जा रहा है। जिन पुरूषों ने शुद्ध द्रव्य के अवलोकन में बुद्धि लगाई है और ऐसी स्थिति में जो उन्हें तत्त्व दिखता है वे पुरूष केवल एक शुद्ध स्वरूप को ही निरख रहे हैं। उनकी दृष्टि में कोई दूसरा द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य में भी नहीं करता है। फिर भी ज्ञान ज्ञेय को जानता तो है। यह सब ज्ञान के स्वभाव का उदय है, वह ज्ञान से सब कुछ जानता है। जैसे दर्पण में सामने की चीज प्रतिभासित हो गयी हो, फिर भी दर्पण का उस परवस्तु में प्रवेश रंच भी नहीं है। द्रव्य जो परद्रव्य के आकाररूप प्रतिभास गया है यह दर्पण की स्वच्छता का प्रताप है किंतु उसमें परद्रव्य प्रवेश कर गया हो यह रंच बात नहीं है। इस ही प्रकार इस ज्ञानतत्त्व में कोई परज्ञेय प्रवेश कर गया हो यह रंच बात नहीं है। यह तो ज्ञान के स्वभाव की ही कला है जो ज्ञान ज्ञेय को जानता है। कोई इस मर्म को जाने तो उसमें पर का प्रवेश नहीं। कोई इस मर्म को न जाने तो उसमें भी पर का प्रवेश नहीं है। तत्त्व से व्यर्थ च्युत होने का खेद―अहो जब परपदार्थ से अत्यंत विविक्त यह ज्ञानतत्त्व है तो जगत ये जीवलोक क्यों अन्य द्रव्यों की ओर बुद्धि लगाकर इस तत्त्व से च्युत हो रहे है ? चीज जो है सो है, माना
जाय तो पार हो जायेगा, न माना गया तो संसार में रूलेगा। किसी के सोचने से वस्तुस्वरूप अन्य प्रकार नहीं हो सकता है। जब इस आत्मा का परपदार्थ को जानने देखने त्यागने और श्रद्धान करने तक का भी संबंध नहीं है, यह जीव स्वयं के ही ज्ञानरूप, दर्शनरूप, त्यागरूप, चारित्ररूप, श्रद्धानरूप परिणमाता है। जब गुणवृत्ति का पर से संबंध नहीं है तो पर का कर्ता मानना भोक्ता मानना यह तो कितनी बड़ी भारी भूल है। प्रत्येक पदार्थ अपने ही शुद्ध स्वभाव से हुआ करता है। द्रव्य का जो निजभाव है वही द्रव्य का स्वभाव है। द्रव्य अपने स्वभाव से ही हुआ करता है। क्या स्वभाव का कोई अन्य द्रव्य कुछ लगता है अथवा किसी अन्य द्रव्य का यह स्वभाव कुछ होता है ? कोई संबंध नहीं है। एक दूसरे के परस्पर असंबंध में एक लोक दृष्टांत―इसे एक लोक दृष्टांत से समझिये कि जैसे चाँदनी छिटक रही है तो यह चाँदनी पृथ्वी को उज्ज्वल कर रही है फिर भी पृथ्वी चाँदनी की कुछ नहीं हुई। चाँदनी पृथ्वी की कुछ नहीं हुई। इसी प्रकार यह ज्ञान ज्ञेय पदार्थ को सदा जानता रहता है तो भी ज्ञेय ज्ञान का नहीं हो जाता, ज्ञान ज्ञेय का नहीं हो जाता। जैसे धन के लोभी पुरूष इस बात पर बड़ी रिस करते हैं कि हाय यह धन मरने पर क्यों साथ नहीं जाता। कमाने पर भरोसा हैं ना। जोड़ते हैं, और जानते हैं कि लक्ष्मी का आना हमारे बांयें हाथ का खेल है। सो अरबपति भी इस बात पर गुस्सा रख रहे हैं कि मेरे पास तो अरबों की संपत्ति है। मरने पर यह कुछ भी साथ क्यों नहीं जाती ? इसी तरह रागी लोग, आसक्त लोग दूसरे प्राणी के प्रति ऐसी रिस रखते हैं, क्रोध रखते हैं कि हमारा तो इतना तीव्र अनुराग है पर हम और ये एक क्यों नहीं बन जाते ? दो क्यों बने हुए हैं ? कोई बड़ा प्रभावी है, बड़े बड़े मकानों को बना देने में दिनों या महीने का ही मेरा काम है, इस भ्रम से यह कर्तापन और भोक्तापन का भूत इसके सिर पर लदा हुआ बना रहता है किंतु कोई कैसे ही प्रवर्तो, वस्तु का स्वभाव तो कभी बदला नहीं जा सकता। ज्ञान के वृत्ति की अनिवार्यता―भैया ! ज्ञान ज्ञेय को जानता है। इस तरह ज्ञेय का ज्ञान के साथ और ज्ञान का ज्ञेय के साथ कुछ संबंध नहीं हो जाता। किंतु यह ज्ञान के शुद्ध स्वभाव का उदय है। यह कुछ क्षण गम खाये, न जाने कुछ, ऐसा नहीं हो पाता। क्या करें विवश है यह ज्ञान। यह चाहे भी कि मेरे ज्ञान में कुछ न आये तो भी क्या होगा ? क्या है कोई ऐसा प्रसंग कि यह ज्ञान ज्ञानकार्य को छोड़कर रहता हो। पुरूष बेहोश हो जाता है। ऐसी स्थिति में बाहरी लोग जानते हैं कि इसका ज्ञान काम नहीं कर रहा है, पर ऐसा नहीं है। किसी भी रूप में करे, ज्ञान निरंतर कार्य कर रहा है। यह उसका स्वभाव है। जैसे दर्पण परपदार्थ को झलकाये बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता है, ट्रंक में धर दोगे तो ट्रंक के पड़ले को झलका देगा, कपड़े में रख दोगे तो कपड़े को झलका देगा। कहीं ले जावो दर्पण को, उसमें परपदार्थ भव्य प्रतिभासित हो जायेगा। इसी तरह ज्ञान का क्या बनाओगे जिससे ज्ञान में ज्ञेय प्रतिभासित न हो।
निर्विकल्प समाधि में भी ज्ञानवृत्ति की निरंतरता―छद्मस्थपुरूष निर्विकल्प समाधि के समय अन्य सब चिंतावों को रोक देते हैं। समस्त पर के विकल्प दूर हो जाते हैं। तो वह निर्विकल्प ज्ञान क्या सचमुच में किसी भी ज्ञेय को नहीं प्रतिभास रहा है, ऐसा नहीं हो सकता। पर ज्ञेय नहीं प्रतिभासता तो आत्मा ही ज्ञेय हो रहा है और ज्ञान के विषय में आत्मा आता है तो ज्ञान का विकल्प करते हुए आता है। रागद्वेष के विकल्प की बात नहीं कह रहे हैं। जैसे हम धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य आदिक के संबंध में कुछ जानते हैं तो जैसे वहां अर्थग्रहणरूप विकल्प है इसी तरह ज्ञान द्वारा जब हम केवल शुद्ध सहज स्वभावमय आत्मा को जानते हैं तो वहां आत्मग्रहणरूप विकल्प होता है। यह जाने बिना कैसे कभी रह सकता है ? मैं ज्ञानमात्र हूँ, जानन बना रहना इसका कार्य है। इसके अतिरिक्त और कोई संबंध तो नहीं है इस दुनिया से। इस वस्तुमर्म की बात जब उपयोग में नहीं रहती तब यह जीव दीन हीन भिखारी होता हुआ परद्रव्य के संचय में, स्पर्श में, भोग में अपनी बुद्धि बसाये रहता है। सो इन वृत्तियों के कारण यह जन्ममरण लंबा बनाता रहेगा। ज्ञानदृष्टि का महापुरूषार्थ―भैया ! यदि जन्ममरण के चक्कर से दूर होना है तो अंत: ज्ञानदृष्टिरूप महापुरूषार्थ करना होगा। मोह बड़ा सस्ता लग रहा है पर यह बहुत महंगा पड़ता है। पुण्य का उदय है घर में सर्वसुख साधन है। घर के चार प्राणियों के साथ खाना पीना, राग करना, उनका पालना पोषना एकदम कितना सस्ता लग रहा है ? धर्म की बात ज्ञान की बात तो सुनने में भी ऊब जाते हैं। कितना समय हो गया, अभी कब तक बोला जायेगा। पर मोह करने की बात इसे बड़ी सुगम हो जाती है। कदाचित् दौड़ता हुआ लड़का पास आ जाय तो शास्त्र सुनने की बात गौण हो जायेगी और उसे पकड़कर गोद में बैठा लेने की बात मुख्य हो जायेगी। कितना सस्ता यह मोह लग रहा है, पर यहां से मरकर कीड़ा मकोड़ा हो जाय, पशु पक्षी हो जाय, अब कहां गये तुम्हारे बाल बच्चे, कहां गयी हवेली, कहां गया वह वैभव। वस्तुमर्म का परिज्ञान होना यही है सबसे बड़ा भारी सुभवितव्य। ज्ञानविशुद्धि के यत्न की करणीयता―भैया ! यह राग और द्वेष तब तक उदित होता है, जब तक यह ज्ञान, ज्ञानरूप नहीं बनता और ज्ञेय ज्ञेयरूप नहीं बनता, तभी तक राग और द्वेष का नृत्य चलता रहता है। मैं ज्ञानमात्र हूँ, केवल जाननस्वरूप परिणमता हूँ। इस मुझ आत्मतत्त्व का अन्य द्रव्य के साथ रंच भी संबंध नहीं है। यह ही जीव मूढ़ बनकर परवस्तु के संबंध में विकल्प बनाकर खुद दुःखी होता है। दूसरा कोई दुःखी करने में समर्थ नहीं है। ज्ञान को ज्ञानरूप बनावो और ज्ञेय को ज्ञेय ही रहने दो तो रागद्वेष का चक्र समाप्त होगा। इस वर्तमान स्थिति में अज्ञान भाव वर्त रहा है तो इस अज्ञानभाव का तिरोभाव करके ज्ञानरूप परिणमन बनाओ। जो चीज इस समय है उसको दूर करो और जो अभाव है उसको दूर करो। भाव तो अज्ञान का है उसे दूर करो और अभाव ज्ञान का है सो ज्ञान के अभाव को दूर करो। जिससे यह पूर्ण स्वभाव ज्ञायक आत्मतत्त्व प्रकट हो। इसी तैयारी के लिए कुंदकुंदाचार्य अब अगली गाथा में कहते हैं।