युक्त्यनुशासन - गाथा 23: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p>रागाद्यविद्याऽनल-दीपनं च विमोक्ष-विद्याऽमृत-शासनं च ।</p> | <div class="PravachanText"><p><strong>रागाद्यविद्याऽनल-दीपनं च</p></strong> | ||
<p><strong> न भिद्यते | <p><strong>विमोक्ष-विद्याऽमृत-शासनं च ।</p></strong> | ||
<p> <strong>(85) विज्ञानाद्वैत तत्त्व की | <p><strong> न भिद्यते संवृति-वादि-वाक्यं</strong></p> | ||
<p><strong> भवत्प्रतीपं परमार्थ शून्यम् ।।23।।</strong></p> | |||
<p> <strong>(85) विज्ञानाद्वैत तत्त्व की प्रतिपत्ति को काल्पनिक मानने का स्वघाती विडंबित कथन</strong>―यहां विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि तत्त्व तो परमार्थ से विज्ञानाद्वैत है, पर उसकी प्रतिपत्ति अर्थात् जानकारी हम कल्पना से मान लेंगे तो फिर क्षणिकवादियों का यह दर्शन कष्टरूप न बनेगा । इस शंका का समाधान करते हैं कि यह कहना भी यों ठीक नहीं है कि कल्पनावादियों का जो उपदेश है वह परस्पर भेद को लिए हुए है । तो कैसे सही भेद बनता ? जैसे एक जगह उपदेश किया है कि जो लोग कहते हैं कि स्वर्ग की इच्छा से यज्ञ करें । यह परमार्थशून्य बात है, मीमांसकों के मंतव्य का निषेध किया है बौद्धदर्शन में । मीमांसकों का मंतव्य है कि “अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम:” याने स्वर्ग की इच्छा करने वाले पुरुष अग्नि से यज्ञ करें । तो इसको बतलाते हैं बौद्धजन कि “यह रागादिक अविद्यानलदीपन है” अर्थात् रागादिक जो अज्ञानरूप अग्नि है उसको प्रदीप्त करने वाला वचन है, क्योंकि इस वचन ने द्वैत में भ्रमाया, व्यवहार क्रियाकांड में लगाया, स्वर्गादिक बताया, तो ये सब रागादिक को बढ़ाने वाले वचन हैं, ऐसा कथन है ।</p> | |||
<p> <strong>(86) बौद्ध जनों का एक और विचार</strong>―तो दूसरी ओर ये बौद्ध कहते हैं―“सम्यग्ज्ञान वैतुष्णभावनातो निश्रेयसं” अर्थात् सम्यग्ज्ञान बने और तृष्णा―रहित भावना बने तो उससे मोक्ष मिलता है । तो यह कहलाया मोक्षविद्यामृत का शासन, इसको भी परमार्थ कहते हैं । सो जब दोनों में ही परमार्थशून्यता का कोई भेद नहीं ठहरता, क्योंकि जब तत्त्वमात्र विज्ञानाद्वैत है तो मोक्ष का उपाय बनाना भी परमार्थशून्य है, और कुछ वचन बोलना भी परमार्थशून्य है । तो अब वह परमार्थशून्य ही रहा तो उसमें किसी प्रकार का उपदेश करना कैसे युक्त हो सकता है? तो विज्ञानमात्र ही तत्त्व है, परमार्थ कुछ है ही नहीं । जीव आत्मा आदिक कुछ है ही नहीं तब फिर यह विडंबना क्यों बनी? और फिर विडंबना छूटने का उपाय भी कुछ नहीं बन सकता है । सो हे वीर जिनेंद्र ! आपके प्रत्येक वाक्य स्वाद्वादसम्मत हैं और स्याद्वाद शासन से पृथक् सर्वथा एकांत विषय करने वाले जो वचन हैं वे आपके शासन के विरुद्ध हैं और इसी कारण परमार्थशून्य हैं ।</p> | <p> <strong>(86) बौद्ध जनों का एक और विचार</strong>―तो दूसरी ओर ये बौद्ध कहते हैं―“सम्यग्ज्ञान वैतुष्णभावनातो निश्रेयसं” अर्थात् सम्यग्ज्ञान बने और तृष्णा―रहित भावना बने तो उससे मोक्ष मिलता है । तो यह कहलाया मोक्षविद्यामृत का शासन, इसको भी परमार्थ कहते हैं । सो जब दोनों में ही परमार्थशून्यता का कोई भेद नहीं ठहरता, क्योंकि जब तत्त्वमात्र विज्ञानाद्वैत है तो मोक्ष का उपाय बनाना भी परमार्थशून्य है, और कुछ वचन बोलना भी परमार्थशून्य है । तो अब वह परमार्थशून्य ही रहा तो उसमें किसी प्रकार का उपदेश करना कैसे युक्त हो सकता है? तो विज्ञानमात्र ही तत्त्व है, परमार्थ कुछ है ही नहीं । जीव आत्मा आदिक कुछ है ही नहीं तब फिर यह विडंबना क्यों बनी? और फिर विडंबना छूटने का उपाय भी कुछ नहीं बन सकता है । सो हे वीर जिनेंद्र ! आपके प्रत्येक वाक्य स्वाद्वादसम्मत हैं और स्याद्वाद शासन से पृथक् सर्वथा एकांत विषय करने वाले जो वचन हैं वे आपके शासन के विरुद्ध हैं और इसी कारण परमार्थशून्य हैं ।</p> | ||
<p> <strong>(87) संयोगज आकारों में मिथ्यारूपता की सिद्धि न होकर मायामयता की सिद्धि</strong>―इस संबंध में यथार्थता यह समझिये कि जैसे बाहर में ये अनेक अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं; देह, मकान आदिक उसी तरह इस देह के अंदर आत्मा विराजमान है जो ज्ञानस्वरूप है । अब यह आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप की सुध | <p> <strong>(87) संयोगज आकारों में मिथ्यारूपता की सिद्धि न होकर मायामयता की सिद्धि</strong>―इस संबंध में यथार्थता यह समझिये कि जैसे बाहर में ये अनेक अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं; देह, मकान आदिक उसी तरह इस देह के अंदर आत्मा विराजमान है जो ज्ञानस्वरूप है । अब यह आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप की सुध छोड़कर इन बाहरी पदार्थों में अनुराग करने लगता है तो उसका संसार बढ़ता है, जन्म-मरण की परंपरा चलती है और जब यह अपने आत्मा का सत्त्व अपने में जानता है और इन परपदार्थों का सत्त्व इन पदार्थों में ही समझता है और इस समझ के कारण परपदार्थों से विरक्त रहता है, अपने आपके स्वभाव के अभिमुख होता है तो इसको कल्याण का मार्ग मिलता है, शांति का लाभ होता है । तो ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप की सुध लेना, यह तो है कल्याण का उपाय, लेकिन ज्ञानमात्र ही तत्त्व है और बाकी ये सब दिखने वाले पदार्थ मिथ्या हैं, हैं ही नहीं । केवल भ्रम है, ऐसा बाह्य पदार्थों का अस्तित्व मना कर देने पर तो विज्ञानमात्र की सिद्धि करना कोई बुद्धिमानी नहीं है । जैसे सब हैं, ज्ञानस्वरूप आत्मा है; रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले पुद्गल पदार्थ हैं, कालद्रव्य है, आकाशद्रव्य है, और जीव पुद᳭गल की गति एवं स्थिति का निमित्तभूत धर्म और अधर्मद्रव्य भी है, अनंतानंत पदार्थ हैं । उनकी सत्ता स्वीकार कर लें तो यह यथार्थ जानकारी है । अब यह जीव में ज्ञानबल है कि संसार के सभी पदार्थों का ज्ञाता दृष्टा रहे, उनमें मोह न करे और उनसे हटकर मात्र अपने स्वरूप में लगे, यह तो कल्याण चाहने वाले जीव का पुरुषार्थ है । अब किन्हीं संन्यासियों ने यथार्थ ज्ञानियों के मुख से यह तत्त्व सुना होगा कि जीव का कल्याण विज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में लीन होने से होता है और अन्य समस्त पदार्थ इस जीव के लिए मायारूप हैं । मायारूप तो यों हैं कि अनेक पदार्थों का मिलकर यह आकार बनता है । जो भी आकार नजर में आ रहा है वह अनेक परमाणुओं का मिलकर स्कंध होने पर यह आकार बना है सो यह आकार शाश्वत नहीं है । अब वह आयु विघट जायेगी तो यह आकार भी विघट जायेगा, इसीलिए तो मायारूप है, पर इस मायारूप का यह अर्थ नहीं है कि वह पदार्थ कुछ हो ही नहीं । मिलकर स्कंध बना तो उनका वर्तमान रूप यह है और विघट करके छोटा स्कंध रह जायेगा तो उनका वर्तमानरूप वह है और वह भी विघट जायेगा, सिर्फ परमाणु परमाणु बन जायेगा, तो यह एक प्रदेशाकार रहेगा, पर सत्ता तो नहीं मिटती ।</p> | ||
<p> <strong>(88) माया की हेयता व ज्ञानस्वरूप की आदेयता</strong>―संयोगज मायामय स्वरूप को मानो किन्हीं मायावियों ने मिथ्या रूप ही दे दिया हो, यह केवल भ्रम से ही दिखता है, इसकी सत्ता कुछ नहीं है तो यह उनके श्रम की निर्बलता है ꠰ यह जगत अनंत पदार्थों का समूह है न कि ज्ञानाद्वैतमात्र जगत है । अब अनंत पदार्थों का सही स्वरूप जाने बिना उनसे उपेक्षा कैसे हो सकती और आत्मा का यथार्थस्वरूप जाने, बिना उसकी ओर अभिमुखता कैसे हो सकती? इससे मानना तो सभी पदार्थों को चाहिए जो-जो सत्त्व में हैं, पर कल्याण के लिए कहां दृष्टि देना ? उसका निर्णय करके वहाँ दृष्टि देनी चाहिए और कहीं अपने को न फंसाना, ऐसा निर्णय करके उन सब हेय पदार्थों से अपने को निवृत्त होना चाहिए ꠰ तो हेय और उपादेय की समस्यावों का यह ही एक समाधान है कि जो आत्मरूप है वह तो सदा आत्मा के साथ है और स्वयं का स्वरूप कभी अशांति के लिए नहीं होता ꠰ सो आत्मस्वरूप है ज्ञानमात्र, वह तो है उपादेय और ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप को | <p> <strong>(88) माया की हेयता व ज्ञानस्वरूप की आदेयता</strong>―संयोगज मायामय स्वरूप को मानो किन्हीं मायावियों ने मिथ्या रूप ही दे दिया हो, यह केवल भ्रम से ही दिखता है, इसकी सत्ता कुछ नहीं है तो यह उनके श्रम की निर्बलता है ꠰ यह जगत अनंत पदार्थों का समूह है न कि ज्ञानाद्वैतमात्र जगत है । अब अनंत पदार्थों का सही स्वरूप जाने बिना उनसे उपेक्षा कैसे हो सकती और आत्मा का यथार्थस्वरूप जाने, बिना उसकी ओर अभिमुखता कैसे हो सकती? इससे मानना तो सभी पदार्थों को चाहिए जो-जो सत्त्व में हैं, पर कल्याण के लिए कहां दृष्टि देना ? उसका निर्णय करके वहाँ दृष्टि देनी चाहिए और कहीं अपने को न फंसाना, ऐसा निर्णय करके उन सब हेय पदार्थों से अपने को निवृत्त होना चाहिए ꠰ तो हेय और उपादेय की समस्यावों का यह ही एक समाधान है कि जो आत्मरूप है वह तो सदा आत्मा के साथ है और स्वयं का स्वरूप कभी अशांति के लिए नहीं होता ꠰ सो आत्मस्वरूप है ज्ञानमात्र, वह तो है उपादेय और ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप को छोड़कर बाकी अन्य आत्मा भी ज्ञानस्वरूप हैं तो भी मेरे स्वरूप में नहीं है, अतएव वे हेय हैं और बाकी जितने भी अचेतन पदार्थ हैं वे पदार्थ सब ज्ञानमात्र तत्त्व से बहिर्भूत हैं, इस कारण वे भी हेय हैं तो एक आत्मस्वरूप उपादेय रहा और शेष जितने भी बाह्य तत्त्व हैं वे सब इस जीव के लिए हेय रहे अर्थात् अनात्मतत्त्व में बुद्धि लगाने से कल्याण नहीं है, किंतु आत्मस्वरूप में ही लीन होने से कल्याण है ꠰</p> | ||
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Latest revision as of 09:23, 29 November 2021
रागाद्यविद्याऽनल-दीपनं च
विमोक्ष-विद्याऽमृत-शासनं च ।
न भिद्यते संवृति-वादि-वाक्यं
भवत्प्रतीपं परमार्थ शून्यम् ।।23।।
(85) विज्ञानाद्वैत तत्त्व की प्रतिपत्ति को काल्पनिक मानने का स्वघाती विडंबित कथन―यहां विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि तत्त्व तो परमार्थ से विज्ञानाद्वैत है, पर उसकी प्रतिपत्ति अर्थात् जानकारी हम कल्पना से मान लेंगे तो फिर क्षणिकवादियों का यह दर्शन कष्टरूप न बनेगा । इस शंका का समाधान करते हैं कि यह कहना भी यों ठीक नहीं है कि कल्पनावादियों का जो उपदेश है वह परस्पर भेद को लिए हुए है । तो कैसे सही भेद बनता ? जैसे एक जगह उपदेश किया है कि जो लोग कहते हैं कि स्वर्ग की इच्छा से यज्ञ करें । यह परमार्थशून्य बात है, मीमांसकों के मंतव्य का निषेध किया है बौद्धदर्शन में । मीमांसकों का मंतव्य है कि “अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम:” याने स्वर्ग की इच्छा करने वाले पुरुष अग्नि से यज्ञ करें । तो इसको बतलाते हैं बौद्धजन कि “यह रागादिक अविद्यानलदीपन है” अर्थात् रागादिक जो अज्ञानरूप अग्नि है उसको प्रदीप्त करने वाला वचन है, क्योंकि इस वचन ने द्वैत में भ्रमाया, व्यवहार क्रियाकांड में लगाया, स्वर्गादिक बताया, तो ये सब रागादिक को बढ़ाने वाले वचन हैं, ऐसा कथन है ।
(86) बौद्ध जनों का एक और विचार―तो दूसरी ओर ये बौद्ध कहते हैं―“सम्यग्ज्ञान वैतुष्णभावनातो निश्रेयसं” अर्थात् सम्यग्ज्ञान बने और तृष्णा―रहित भावना बने तो उससे मोक्ष मिलता है । तो यह कहलाया मोक्षविद्यामृत का शासन, इसको भी परमार्थ कहते हैं । सो जब दोनों में ही परमार्थशून्यता का कोई भेद नहीं ठहरता, क्योंकि जब तत्त्वमात्र विज्ञानाद्वैत है तो मोक्ष का उपाय बनाना भी परमार्थशून्य है, और कुछ वचन बोलना भी परमार्थशून्य है । तो अब वह परमार्थशून्य ही रहा तो उसमें किसी प्रकार का उपदेश करना कैसे युक्त हो सकता है? तो विज्ञानमात्र ही तत्त्व है, परमार्थ कुछ है ही नहीं । जीव आत्मा आदिक कुछ है ही नहीं तब फिर यह विडंबना क्यों बनी? और फिर विडंबना छूटने का उपाय भी कुछ नहीं बन सकता है । सो हे वीर जिनेंद्र ! आपके प्रत्येक वाक्य स्वाद्वादसम्मत हैं और स्याद्वाद शासन से पृथक् सर्वथा एकांत विषय करने वाले जो वचन हैं वे आपके शासन के विरुद्ध हैं और इसी कारण परमार्थशून्य हैं ।
(87) संयोगज आकारों में मिथ्यारूपता की सिद्धि न होकर मायामयता की सिद्धि―इस संबंध में यथार्थता यह समझिये कि जैसे बाहर में ये अनेक अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं; देह, मकान आदिक उसी तरह इस देह के अंदर आत्मा विराजमान है जो ज्ञानस्वरूप है । अब यह आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप की सुध छोड़कर इन बाहरी पदार्थों में अनुराग करने लगता है तो उसका संसार बढ़ता है, जन्म-मरण की परंपरा चलती है और जब यह अपने आत्मा का सत्त्व अपने में जानता है और इन परपदार्थों का सत्त्व इन पदार्थों में ही समझता है और इस समझ के कारण परपदार्थों से विरक्त रहता है, अपने आपके स्वभाव के अभिमुख होता है तो इसको कल्याण का मार्ग मिलता है, शांति का लाभ होता है । तो ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप की सुध लेना, यह तो है कल्याण का उपाय, लेकिन ज्ञानमात्र ही तत्त्व है और बाकी ये सब दिखने वाले पदार्थ मिथ्या हैं, हैं ही नहीं । केवल भ्रम है, ऐसा बाह्य पदार्थों का अस्तित्व मना कर देने पर तो विज्ञानमात्र की सिद्धि करना कोई बुद्धिमानी नहीं है । जैसे सब हैं, ज्ञानस्वरूप आत्मा है; रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले पुद्गल पदार्थ हैं, कालद्रव्य है, आकाशद्रव्य है, और जीव पुद᳭गल की गति एवं स्थिति का निमित्तभूत धर्म और अधर्मद्रव्य भी है, अनंतानंत पदार्थ हैं । उनकी सत्ता स्वीकार कर लें तो यह यथार्थ जानकारी है । अब यह जीव में ज्ञानबल है कि संसार के सभी पदार्थों का ज्ञाता दृष्टा रहे, उनमें मोह न करे और उनसे हटकर मात्र अपने स्वरूप में लगे, यह तो कल्याण चाहने वाले जीव का पुरुषार्थ है । अब किन्हीं संन्यासियों ने यथार्थ ज्ञानियों के मुख से यह तत्त्व सुना होगा कि जीव का कल्याण विज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में लीन होने से होता है और अन्य समस्त पदार्थ इस जीव के लिए मायारूप हैं । मायारूप तो यों हैं कि अनेक पदार्थों का मिलकर यह आकार बनता है । जो भी आकार नजर में आ रहा है वह अनेक परमाणुओं का मिलकर स्कंध होने पर यह आकार बना है सो यह आकार शाश्वत नहीं है । अब वह आयु विघट जायेगी तो यह आकार भी विघट जायेगा, इसीलिए तो मायारूप है, पर इस मायारूप का यह अर्थ नहीं है कि वह पदार्थ कुछ हो ही नहीं । मिलकर स्कंध बना तो उनका वर्तमान रूप यह है और विघट करके छोटा स्कंध रह जायेगा तो उनका वर्तमानरूप वह है और वह भी विघट जायेगा, सिर्फ परमाणु परमाणु बन जायेगा, तो यह एक प्रदेशाकार रहेगा, पर सत्ता तो नहीं मिटती ।
(88) माया की हेयता व ज्ञानस्वरूप की आदेयता―संयोगज मायामय स्वरूप को मानो किन्हीं मायावियों ने मिथ्या रूप ही दे दिया हो, यह केवल भ्रम से ही दिखता है, इसकी सत्ता कुछ नहीं है तो यह उनके श्रम की निर्बलता है ꠰ यह जगत अनंत पदार्थों का समूह है न कि ज्ञानाद्वैतमात्र जगत है । अब अनंत पदार्थों का सही स्वरूप जाने बिना उनसे उपेक्षा कैसे हो सकती और आत्मा का यथार्थस्वरूप जाने, बिना उसकी ओर अभिमुखता कैसे हो सकती? इससे मानना तो सभी पदार्थों को चाहिए जो-जो सत्त्व में हैं, पर कल्याण के लिए कहां दृष्टि देना ? उसका निर्णय करके वहाँ दृष्टि देनी चाहिए और कहीं अपने को न फंसाना, ऐसा निर्णय करके उन सब हेय पदार्थों से अपने को निवृत्त होना चाहिए ꠰ तो हेय और उपादेय की समस्यावों का यह ही एक समाधान है कि जो आत्मरूप है वह तो सदा आत्मा के साथ है और स्वयं का स्वरूप कभी अशांति के लिए नहीं होता ꠰ सो आत्मस्वरूप है ज्ञानमात्र, वह तो है उपादेय और ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप को छोड़कर बाकी अन्य आत्मा भी ज्ञानस्वरूप हैं तो भी मेरे स्वरूप में नहीं है, अतएव वे हेय हैं और बाकी जितने भी अचेतन पदार्थ हैं वे पदार्थ सब ज्ञानमात्र तत्त्व से बहिर्भूत हैं, इस कारण वे भी हेय हैं तो एक आत्मस्वरूप उपादेय रहा और शेष जितने भी बाह्य तत्त्व हैं वे सब इस जीव के लिए हेय रहे अर्थात् अनात्मतत्त्व में बुद्धि लगाने से कल्याण नहीं है, किंतु आत्मस्वरूप में ही लीन होने से कल्याण है ꠰