वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 24
From जैनकोष
विद्याप्रसूत्यैकिल शील्यमाना
भवत्यविद्या गुरुणोपदिष्टा ।
अहो त्वदोयोक्त्यनभिज्ञमोहो,
यज्जन्मने यत्तदजन्मने तत् ॥24॥
(89) गुरूपदिष्ट भावित अविद्या को विद्याजननी मानने की उपहासास्पदता―विज्ञानवादी कहते हैं कि विज्ञानमात्र अद्वैत तत्त्व को छोड़कर जितनी भी जो कुछ बुद्धि है वह सब अविद्या है, ऐसा कहने पर जब उनसे पूछा जाता है कि जब यह जीव अविद्या में ही रहता है तो यह विद्या को कैसे प्राप्त हो सकता है? इसका उत्तर उनका यह है कि गुरु महाराज ने दिया उपदेश, उससे अविद्या का कोई ऐसा परिणाम होता है कि वह अविद्या निश्चय से विद्या को जन्म देने में समर्थ होती है, क्योंकि जो अविद्या उत्तर अविद्या को जन्म देने का कारणभूत और यह बात तो अत्यंत प्रसिद्ध ही है, लेकिन वही अविद्या अविद्या का जन्म न हो इनका भी कारण हो जाता है, सो यह बिल्कुल विपरीत कथन है । क्या कोई ऐसा मान सकता है कि जो मदिरापान बेहोशी करने के लिए प्रसिद्ध है वही मदिरापान मद की अनुत्पत्ति का भी कारण हो सकता है ? ऐसा कोई नहीं मान सकता । सबकी समझ में यह ही है कि मदिरापान मद को जन्म देने के लिए प्रसिद्ध है तो वही मदिरापान मद की अनुत्पत्ति करे याने मद का विनाश करे, ऐसा नहीं होता । तो यह सब व्यामोह भरा विडंबनापूर्ण कथन है, वह स्याद्वाद की शैली से अनभिज्ञ पुरुषों का कथन है । नहीं तो सीधी बात यह है कि आत्मा ही आवरण होने पर अविद्यामय होता है । जीव तो सहजस्वरूप में विद्यामय है, उसमें अविद्या का रूप नहीं पड़ा है, पर आवरण और कलुषता के कारण यह ही विद्यास्वरूप अविद्या का रूप रख लेता है । सो स्याद्वाद में तो सर्व कथन संगत होता है, पर स्याद्वाद शैली को छोड़कर एकांतत: कुछ भी निर्णय करने में विडंबना ही जगती है ।
(90) विषभक्षण में विषविकारहेतुता व विषनाशकहेतुता की तरह अविद्या में अविद्याहेतुता, अविद्याहेतुता की सिद्धि की आशंका व उसका समाधान―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि जैसे विषभक्षण विषविकार का कारण है याने कोई विष खा ले तो उस विष का विकार बनेगा । विष का विकार बनेगा, ऐसी प्रसिद्धि होते हुए भी कभी-कभी विषभक्षण विषविकार को उत्पन्न न करे, ऐसा भी देखा जाता है । जहाँ उस विष को सिद्ध कर ले कोई दवाइयों के प्रयोग से तो वही विषभक्षण स्वास्थ्य को उत्पन्न कर देता है । जैसे संखिया खाने पर मनुष्य मर जाते हैं, किंतु विधिपूर्वक उस संखिया का प्रयोग कर भस्म आदिक बने तो वही स्वास्थ्य का कारण बन जाता है । इसी तरह कोई अविद्या जब किसी विशिष्ट भावना में आये तो वह अविद्या उत्पन्न न करे, किंतु विद्या को जन्म दे, इसमें किसी प्रकार का विरोध न होना चाहिए ।
(91) उपरोक्त शंका का समाधान―उपरोक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि वे यह विचार करें कि भ्रम, दाह, मूर्छा, बेहोशी को, इन विकार को, जन्म देने वाला जो जंगम विष है यह तो जन्म-बीज है और इन विकारों को जन्म न देने वाला, बल्कि उन विकारों को दूर कर देने वाला स्थावर है नहीं, कोई अन्य ही है । स्थावरविष तो मूर्छा आदिक विकार वाले विष का प्रतिपक्षभूत है, इसलिए स्थावरविष किसी प्रकार से सिद्ध कर देने पर अमृतकोटि में आ जाता है और तब ही देखिये कि विष के दो अर्थ किए गए हैं―विष भी है और अमृत भी है । विष सर्वथा विष नहीं कहलाता । विष को सर्वथा विष मान लेने पर वह अन्य विषय का प्रतिपक्षभूत नहीं बनता ꠰ देखा गया कि जैसे कोई मनुष्य विष खा ले और उसे मूर्छा, दाह, उत्पन्न हो जाये तो उसे दूसरे प्रकार का विष दिया जाता है सो उससे मूर्छा, दाह समाप्त होता है याने विष के प्रभाव को नष्ट करने के लिए अन्य विष समर्थ होता है, इस कारण विष का उदाहरण देना और उससे अविद्या को विद्या का जन्मदाता मान लेना बहुत कठिन बात है, युक्तिसंगत नहीं है ।
(92) अविद्या के लिये दत्त विष के उदाहरण में समानता का अभाव―चेतनविकार व अचेतन विष का उदाहरण समानता का उदाहरण नहीं है । अविद्या तो संसार की हेतुभूत है। जहाँ अज्ञान छाया है, वस्तुस्वरूप के विरुद्ध ज्ञान बनता है वह तो अनादिवासना से उत्पन्न हुई अविद्या है और वह अविद्या के अनुकूल है ऐसी अविद्या, अविद्या को जन्म देती रहती है और मोक्ष के हेतुभूत अविद्या दूसरी है, ऐसे उदाहरण की समता दिखानी शंकाकार की सही नहीं बन सकती । हाँं, उस उदाहरण में तो यह बात थी कि कोई विष मनुष्य के प्राण हर सकता है, मगर कोई दूसरा विष उस विष के प्रभाव को भी नष्ट कर सकता, वहाँ तो यह बात उचित है, परंतु चेतन में अविद्या की ऐसी दुविधा मानना संगत नही है कि कोई अविद्या अविद्या को जन्म दे और कोई अविद्या विद्या को, शांति को जन्म दे दे, क्योंकि विद्या और अविद्या ये परस्पर में अत्यंत प्रतिपक्षभूत हैं । कहां तो अविद्या अंधकार और कहां विद्या प्रकाश । तो अंधकार से कहीं प्रकाश की उत्पत्ति हो सकती है? यदि कोई ऐसी अविद्या है कि जिससे विद्या की उत्पत्ति होती है तो वह विद्या ही है, अविद्या नहीं है । यदि उस अनादिकालीन अविद्या के प्रतिपक्षी होने के कारण अविद्या को ही कथंचित् विद्या कह देंगे तो अब इसमें एकांत मत तो न रहा, कल्पनावादियों का मत न रहा, स्याद्वाद का मत आ गया मायने वही ज्ञान कभी अविद्या कहलाता था और वही ज्ञान अब विद्या कहलाने लगा ꠰
(93) विद्या और अविद्या का विवरण―स्याद्वाद शासन में केवलज्ञान उत्कृष्ट विद्या है, उसकी अपेक्षा मतिज्ञानादिक जो क्षायोपशमिक ज्ञान हैं उनकी हल्की विद्या है ꠰ तो केवलज्ञानरूप विद्या के सामने मतिज्ञानादिकरूप विद्या अविद्या कहलाती है, यह बात स्याद्वादशासन में तो संगत बन गई, पर एकांतवाद में इसकी संगति नहीं बैठती । और स्याद्वादशासन की दूसरी बात देखिये―जो जीव के अनादिकाल से मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शनरूप अविद्या लग रही है उस अविद्या की अपेक्षा तो मतिज्ञानादिकरूप क्षायोपशमिक ज्ञान विद्या ही कहलायेगी याने विद्या और अविद्या का अर्थ तुलना में लिया जायेगा ꠰ केवलज्ञान के सामने मतिज्ञान अविद्या है तो मतिज्ञान विद्या के सामने अनादिकालीन जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र लग रहे हैं वे सब अविद्या हैं ꠰ तो विज्ञानाद्वैतवादियों का यह कहना है कि जो अविद्या थी वही गुरु के द्वारा उपदिष्ट होकर विद्या को जन्म देने में समर्थ हो जाती, यह बात संगत नहीं और इस तरह यदि अविद्या को विद्या की जन्मदात्री मान लिया जाये तो उपदेष्टा गुरु फिर गुरु नहीं रहता । फिर उसका अर्थ ही क्या है? अविद्या है, उसी का परिणाम बना कुछ और उसने विद्या को जन्म दे दिया । अब विद्या का उपदेष्टा गुरु का क्या महत्त्व रहा? तो इस तरह पुरुषाद्वैत की तरह ज्ञानाद्वैत तत्त्व भी अनुपाय बन गया मायने उसकी कोई प्रमाण से सिद्धि नहीं, युक्ति उपाय से सिद्धि नहीं, इसलिए केवल ज्ञानाद्वैत ही तत्त्व है । जगत के अन्य पदार्थ सब भ्रममात्र हैं, ऐसा कहना युक्त नहीं है । पदार्थ अनंत हैं, उनमें कोई चेतन हैं, कोई अचेतन हैं, और जो चेतन हैं वे भी परिणमनशील हैं, उन्ही में कभी अविद्या की अवस्था आती है और कभी विद्या की अवस्था आती है ।