भूपाल: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) सुभौम चक्रवर्ती के तीसरे पूर्व भव का जीव, भरतक्षेत्र का एक नृप । युद्ध में पराजित होने के कारण हुए मानभंग से संसार से विरक्त होकर इसने संभूत गुरू से दीक्षा ले ली थी तथा तपश्चरण करते हुए चक्रवर्ती पद का निदान किया था । आयु के अंत में संन्यास-मरण करके यह महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से चयकर अयोध्या में राजा सहस्रबाहु का पुत्र कृतवीराधिप हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 65.51-58 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) सुभौम चक्रवर्ती के तीसरे पूर्व भव का जीव, भरतक्षेत्र का एक नृप । युद्ध में पराजित होने के कारण हुए मानभंग से संसार से विरक्त होकर इसने संभूत गुरू से दीक्षा ले ली थी तथा तपश्चरण करते हुए चक्रवर्ती पद का निदान किया था । आयु के अंत में संन्यास-मरण करके यह महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से चयकर अयोध्या में राजा सहस्रबाहु का पुत्र कृतवीराधिप हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 65.51-58 </span></p> | ||
<p id="2">(2) राजा का एक भेद । यह साधारण नृप की अपेक्षा अधिक शक्ति संपन्न होता है । इसके पास चतुरंगिणी सेना होती है । यह दिग्विजय करता है । <span class="GRef"> महापुराण 4.70 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) राजा का एक भेद । यह साधारण नृप की अपेक्षा अधिक शक्ति संपन्न होता है । इसके पास चतुरंगिणी सेना होती है । यह दिग्विजय करता है । <span class="GRef"> महापुराण 4.70 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
महापुराण/65/ श्लोक नं. भरत क्षेत्र में भूपाल नामक राजा (51) युद्ध में मान भंग होने के कारण चक्रवर्ती पद का निदान कर दीक्षा धारण कर ली (52-54)। संन्यास मरणकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ (55) यह सुभौम चक्रवर्ती का पूर्व का तीसरा भव है।–देखें सुभौम ।
पुराणकोष से
(1) सुभौम चक्रवर्ती के तीसरे पूर्व भव का जीव, भरतक्षेत्र का एक नृप । युद्ध में पराजित होने के कारण हुए मानभंग से संसार से विरक्त होकर इसने संभूत गुरू से दीक्षा ले ली थी तथा तपश्चरण करते हुए चक्रवर्ती पद का निदान किया था । आयु के अंत में संन्यास-मरण करके यह महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से चयकर अयोध्या में राजा सहस्रबाहु का पुत्र कृतवीराधिप हुआ । महापुराण 65.51-58
(2) राजा का एक भेद । यह साधारण नृप की अपेक्षा अधिक शक्ति संपन्न होता है । इसके पास चतुरंगिणी सेना होती है । यह दिग्विजय करता है । महापुराण 4.70