स्थिति: Difference between revisions
From जैनकोष
Anita jain (talk | contribs) mNo edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
(6 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<span class="HindiText">अवस्थान काल का नाम स्थिति है। बंध काल से लेकर प्रतिसमय एक एक करके कर्म उदय में आ आकर खिरते रहते हैं। इस प्रकार जब तक उस समय में बंधा सर्व द्रव्य समाप्त हो, उतना उतना काल उस कर्म की स्थिति है। और प्रतिसमय वह खिरने वाला द्रव्य निषेक कहलाता है। संपूर्ण स्थिति में एक-एक के पीछे एक स्थित रहता है। सबसे पहिले निषेक में सबसे अधिक द्रव्य हैं, पीछे क्रम पूर्वक घटते-घटते अंतिम निषेक में सर्वत्र स्तोक द्रव्य होता है। इसलिए स्थिति प्रकरण में कर्म निषेकों का यह त्रिकोण यंत्र बन जाता है। कषाय आदि की तीव्रता के कारण संक्लेश परिणामों से अधिक और विशुद्ध परिणामों से हीन स्थिति बंधती है।</span> | <span class="HindiText">अवस्थान काल का नाम स्थिति है। बंध काल से लेकर प्रतिसमय एक एक करके कर्म उदय में आ आकर खिरते रहते हैं। इस प्रकार जब तक उस समय में बंधा सर्व द्रव्य समाप्त हो, उतना उतना काल उस कर्म की स्थिति है। और प्रतिसमय वह खिरने वाला द्रव्य निषेक कहलाता है। संपूर्ण स्थिति में एक-एक के पीछे एक स्थित रहता है। सबसे पहिले निषेक में सबसे अधिक द्रव्य हैं, पीछे क्रम पूर्वक घटते-घटते अंतिम निषेक में सर्वत्र स्तोक द्रव्य होता है। इसलिए स्थिति प्रकरण में कर्म निषेकों का यह त्रिकोण यंत्र बन जाता है। कषाय आदि की तीव्रता के कारण संक्लेश परिणामों से अधिक और विशुद्ध परिणामों से हीन स्थिति बंधती है।</span> | ||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[#1 | भेद व लक्षण ]]</strong> | ||
<ol> | <ol class="HindiText"> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#1.1 | स्थिति सामान्य का लक्षण।]]</li> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#1.2 | स्थिति बंध का लक्षण।।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>स्थिति बंध अध्यवसाय स्थान।-देखें [[ अध्यवसाय ]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li>स्थिति बंध अध्यवसाय स्थान।-देखें [[ अध्यवसाय ]]।</li></ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3" class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#1.3 | उत्कृष्ट व सर्व स्थिति के लक्षण।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>उत्कृष्ट व सर्व स्थिति आदि में अंतर।-देखें [[ अनुयोग#3.2 | अनुयोग - 3.2]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li>उत्कृष्ट व सर्व स्थिति आदि में अंतर।-देखें [[ अनुयोग#3.2 | अनुयोग - 3.2]]।</li></ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4" class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#1.4 | अग्र व उपरितन स्थिति के लक्षण।]]</li> | ||
<li | <li>[[#1.5 | सांतर व निरंतर स्थिति के लक्षण।]]</li> | ||
<li | <li>[[#1.6 | प्रथम व द्वितीय स्थिति के लक्षण।]]</li> | ||
<li | <li>[[#1.7 | सादि अनादि स्थिति के लक्षण।]]</li> | ||
<li | <li>[[#1.8 | विचार स्थान का लक्षण।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>जीवों की स्थिति।-देखें [[ आयु ]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li>जीवों की स्थिति।-देखें [[ आयु ]]।</li></ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li><strong>[[#2 | स्थितिबंध निर्देश ]]</strong> | ||
<ol> | <ol class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#2.1 | स्थितिबंध में चार अनुयोग द्वार।]]</li> | ||
<li | <li>[[#2.2 | भवस्थिति व कायस्थिति में अंतर।]]</li> | ||
<li | <li>[[#2.3 | एकसमयिक बंध को बंध नहीं कहते।]]</li> | ||
<li | <li>[[#2.4 | स्थिति व अनुभाग बंध की प्रधानता।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul class="HindiText"> | ||
<li>स्थितिबंध का कारण कषाय है।-देखें [[ बंध#5.1 | बंध - 5.1]]।</li> | <li>स्थितिबंध का कारण कषाय है।-देखें [[ बंध#5.1 | बंध - 5.1]]।</li> | ||
<li>स्थिति (काल) की ओघ आदेश प्ररूपणा।-देखें [[ काल#5 | काल - 5]],6।</li> | <li>स्थिति (काल) की ओघ आदेश प्ररूपणा।-देखें [[ काल#5 | काल - 5]],6।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[#3 |निषेक रचना ]]</strong> | ||
<ol> | <ol class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#3.1 | निषेक रचना ही कर्मों की स्थिति है।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.2 | स्थितिबंध में निषेकों की त्रिकोण रचना संबंधी।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>निषेकों की त्रिकोण रचना का आकार।-देखें [[ उदय#3 | उदय - 3]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li>निषेकों की त्रिकोण रचना का आकार।-देखें [[ उदय#3 | उदय - 3]]।</li></ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3" class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#3.3 | कर्म व नोकर्म की निषेक रचना संबंधी विशेष सूची।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li><strong>[[#4 |उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबंध संबंधी नियम ]]</strong> | ||
<ul><li>जघन्य स्थिति में निषेक प्रधान हैं और उत्कृष्ट स्थिति में काल।-देखें [[ सत्त्व#2.5 | सत्त्व - 2.5]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li>जघन्य स्थिति में निषेक प्रधान हैं और उत्कृष्ट स्थिति में काल।-देखें [[ सत्त्व#2.5 | सत्त्व - 2.5]]।</li></ul> | ||
<ol> | <ol class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#4.1 | मरण समय उत्कृष्ट बंध संभव नहीं।]]</li> | ||
<li | <li>[[#4.2 | स्थितिबंध में संक्लेश विशुद्ध परिणामों का स्थान।]]</li> | ||
<li | <li>[[#4.3 | मोहनीय का उत्कृष्ट स्थितिबंधक कौन।]]</li> | ||
<li | <li>[[#4.4 | उत्कृष्ट अनुभाग के साथ उत्कृष्ट स्थिति बंध की व्याप्ति।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>स्थिति व प्रदेश बंध में अंतर-देखें [[ प्रदेश#1.2 | प्रदेश बंध ]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li>स्थिति व प्रदेश बंध में अंतर-देखें [[ प्रदेश#1.2 | प्रदेश बंध ]]।</li></ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5" class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#4.5 | उत्कृष्ट स्थिति बंध का अंतरकाल।]]</li> | ||
<li | <li>[[#4.6 | जघन्य स्थितिबंध में गुणहानि संभव नहीं।]]</li> | ||
<li | <li>[[#4.7 | साता व तीर्थंकर प्रकृतियों का ज.उ.स्थितिबंध संबंधी दृष्टि भेद।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul class="HindiText"> | ||
<li>ईर्यापथ कर्म की स्थिति संबंधी-देखें [[ ईर्यापथ ]]।</li> | <li>ईर्यापथ कर्म की स्थिति संबंधी-देखें [[ ईर्यापथ ]]।</li> | ||
<li>जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व के स्वामी।-देखें [[ सत्त्व#2 | सत्त्व - 2]]।</li> | <li>जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व के स्वामी।-देखें [[ सत्त्व#2 | सत्त्व - 2]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="8"> | <ol start="8" class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#4.8 | उत्कृष्ट अनुभाग के साथ अनुत्कृष्ट स्थितिबंध कैसे।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li><strong>[[#5 |स्थितिबंध संबंधी शंका समाधान ]]</strong> | ||
<ol> | <ol class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#5.1 | साता के जघन्य स्थितिबंध संबंधी।]]</li> | ||
<li | <li>[[#5.2 | उत्कृष्ट अनुभाग के साथ अनुत्कृष्ट स्थितिबंध कैसे।]]</li> | ||
<li | <li>[[#5.3 | विग्रह गति में नारकी संज्ञी का भुजगार स्थितिबंध कैसे ?]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li id="6"><strong>[[स्थितिबंध प्ररूपणा]]</strong> | <li id="6" class="HindiText"><strong>[[#6 |स्थितिबंध प्ररूपणा ]]</strong> | ||
<ol> | <ol class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#6.1 | मूलोत्तर प्रकृतियों की जघन्योत्कृष्ट आबाधा व स्थिति तथा उनका स्वामित्व।]]</li> | ||
<ol class="HindiText"> | |||
<li | <li>[[ #6.1.1 | ज्ञानावरणीय ]]</li> | ||
<li | <li>[[ #6.1.2 | दर्शनावरणीय ]]</li> | ||
<li>[[ #6.1.3 | वेदनीय ]]</li> | |||
<li>[[ #6.1.4 | मोहनीय ]]</li> | |||
<li>[[ #6.1.5 | आयु ]]</li> | |||
<li>[[ #6.1.6 | नाम ]]</li> | |||
<li>[[ #6.1.7 | गोत्र ]]</li> | |||
<li>[[ #6.1.8 | अंतराय ]]</li> | |||
</ol> | |||
<li class="HindiText">[[#6.2 | इंद्रिय मार्गणा की अपेक्षा प्रकृतियों की उ.ज.स्थिति की सारणी।]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#6.3 | उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति, प्रदेश व अनुभाग के बंधों की प्ररूपणा।]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#6.4 | अन्य प्ररूपणाओं संबंधी सूची।]]</li> | |||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>मूलोत्तर प्रकृति की स्थितिबंध व बंधकों संबंधी संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें [[ वह वह नाम ]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li>मूलोत्तर प्रकृति की स्थितिबंध व बंधकों संबंधी संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें [[ वह वह नाम ]]।</li></ul> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
{{ :स्थिति भेद व लक्षण}} | |||
{{ :स्थितिबंध निर्देश}} | |||
{{ :स्थिति निषेक रचना}} | |||
{{ :उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबंध संबंधी नियम}} | |||
{{ :स्थितिबंध संबंधी शंका समाधान}} | |||
{{ :स्थितिबंध प्ररूपणा}} | |||
<noinclude> | <noinclude> |
Latest revision as of 14:26, 15 August 2023
अवस्थान काल का नाम स्थिति है। बंध काल से लेकर प्रतिसमय एक एक करके कर्म उदय में आ आकर खिरते रहते हैं। इस प्रकार जब तक उस समय में बंधा सर्व द्रव्य समाप्त हो, उतना उतना काल उस कर्म की स्थिति है। और प्रतिसमय वह खिरने वाला द्रव्य निषेक कहलाता है। संपूर्ण स्थिति में एक-एक के पीछे एक स्थित रहता है। सबसे पहिले निषेक में सबसे अधिक द्रव्य हैं, पीछे क्रम पूर्वक घटते-घटते अंतिम निषेक में सर्वत्र स्तोक द्रव्य होता है। इसलिए स्थिति प्रकरण में कर्म निषेकों का यह त्रिकोण यंत्र बन जाता है। कषाय आदि की तीव्रता के कारण संक्लेश परिणामों से अधिक और विशुद्ध परिणामों से हीन स्थिति बंधती है।
- भेद व लक्षण
- स्थिति बंध अध्यवसाय स्थान।-देखें अध्यवसाय ।
- उत्कृष्ट व सर्व स्थिति आदि में अंतर।-देखें अनुयोग - 3.2।
- अग्र व उपरितन स्थिति के लक्षण।
- सांतर व निरंतर स्थिति के लक्षण।
- प्रथम व द्वितीय स्थिति के लक्षण।
- सादि अनादि स्थिति के लक्षण।
- विचार स्थान का लक्षण।
- जीवों की स्थिति।-देखें आयु ।
- स्थितिबंध निर्देश
- निषेक रचना
- निषेकों की त्रिकोण रचना का आकार।-देखें उदय - 3।
- उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबंध संबंधी नियम
- जघन्य स्थिति में निषेक प्रधान हैं और उत्कृष्ट स्थिति में काल।-देखें सत्त्व - 2.5।
- मरण समय उत्कृष्ट बंध संभव नहीं।
- स्थितिबंध में संक्लेश विशुद्ध परिणामों का स्थान।
- मोहनीय का उत्कृष्ट स्थितिबंधक कौन।
- उत्कृष्ट अनुभाग के साथ उत्कृष्ट स्थिति बंध की व्याप्ति।
- स्थिति व प्रदेश बंध में अंतर-देखें प्रदेश बंध ।
- उत्कृष्ट स्थिति बंध का अंतरकाल।
- जघन्य स्थितिबंध में गुणहानि संभव नहीं।
- साता व तीर्थंकर प्रकृतियों का ज.उ.स्थितिबंध संबंधी दृष्टि भेद।
- ईर्यापथ कर्म की स्थिति संबंधी-देखें ईर्यापथ ।
- जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व के स्वामी।-देखें सत्त्व - 2।
- स्थितिबंध संबंधी शंका समाधान
- स्थितिबंध प्ररूपणा
- मूलोत्तर प्रकृतियों की जघन्योत्कृष्ट आबाधा व स्थिति तथा उनका स्वामित्व।
- इंद्रिय मार्गणा की अपेक्षा प्रकृतियों की उ.ज.स्थिति की सारणी।
- उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति, प्रदेश व अनुभाग के बंधों की प्ररूपणा।
- अन्य प्ररूपणाओं संबंधी सूची।
- मूलोत्तर प्रकृति की स्थितिबंध व बंधकों संबंधी संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
स्थिति भेद व लक्षण
1. स्थिति सामान्य का लक्षण
1. स्थिति का अर्थ गमनरहितता
राजवार्तिक/5/17/2/460/24 तद्विपरीता स्थिति:।2। द्रव्यस्य स्वदेशादप्रच्यवनहेतुर्गतिनिवृत्तिरूपा स्थितिरवगंतव्या। = गति से विपरीत स्थिति होती है। अर्थात् गति की निवृत्ति रूप स्वदेश से अपच्युति को स्थिति कहते हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/5/17/281/12 )।
राजवार्तिक/5/8/16/451/12 जीवप्रदेशानाम् उद्धवनिधवपरिस्पंदस्याप्रवृत्ति:। = जीव के प्रदेशों की उथल-पुथल को अस्थिति तथा उथल-पुथल न होने को स्थिति कहते हैं।
2. स्थिति का अर्थ काल
सर्वार्थसिद्धि/1/7/22/4 स्थिति: कालपरिच्छेद:। = जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है। ( राजवार्तिक/1/7/-/38/3 )
राजवार्तिक/1/8/6/42/3 स्थितिमतोऽवधिपरिच्छेदार्थं कालोपादानम् ।6। = किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थ की काल मर्यादा निश्चय करना काल (स्थिति) है।
कषायपाहुड़/3/358/192/9 कम्मसरूवेण परिणदाणं कम्मइयपोग्गलक्खंधाणं कम्मभावमछंडिय अच्छाणकालो ट्ठिदीणाम। = कर्म रूप से परिणत हुए पुद्गल कर्मस्कंधों के कर्मपने को न छोड़कर रहने के काल को स्थिति कहते हैं।
कषायपाहुड़ 3/3-22/514/292/5 सयलणिसेयगयकालपहाणो अद्धाछेदो, सयलणिसेगपहाणा ट्ठिदि त्ति। = सर्वनिषेकगत काल प्रधान अद्धाच्छेद होता है और सर्वनिषेक प्रधान स्थिति होती है।
गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/पृष्ठ 310/2 अन्य काय तै आकर तैजसकाय विषै जीव उपज्या तहाँ उत्कृष्टपने जेते काल और काय न धरै, तैजसकायनिकों धराकरै तिस काल के समयनि का प्रमाण (तेजसकायिक की स्थिति) जानना।
3. स्थिति का अर्थ आयु
सर्वार्थसिद्धि/4/20/251/7 स्वोपात्तस्यायुष उदयात्तस्मिन्भवे शरीरेण सहावस्थानं स्थिति:। = अपने द्वारा प्राप्त हुई आयु के उदय से उस भव में शरीर के साथ रहना स्थिति कहलाती है। ( राजवार्तिक/4/20/1/235/11 )
2. स्थिति बंध का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/4 तत्स्वभावादप्रच्युति: स्थिति:। यथा-अजागोमहिष्यादिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युति: स्थिति:। तथा ज्ञानावरणादीनामर्थावगमादिस्वभावादप्रच्युति: स्थिति:। = जिसका जो स्वभाव है उससे च्युत न होना स्थिति है। जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध का माधुर्य स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है। उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों का अर्थ का ज्ञान न होने देना आदि स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है। (पंचसंग्रह/प्राकृत/4/514-515); ( राजवार्तिक/8/3/5/567/7 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/93/5 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/366-367)
धवला 6/1,9-6,2/146/1 जोगवसेण कम्मस्सरूवेण परिणदाणं पोग्गलखंधाणं कसायवसेण जीवे एगसरूवेणावट्ठाणकालो ट्ठिदी णाम। = योग के वश से कर्मस्वरूप से परिणत पुद्गल स्कंधों का कषाय के वश से जीव में एक स्वरूप से रहने के काल को स्थिति कहते हैं।
3. उत्कृष्ट व सर्व स्थिति के लक्षण
कषायपाहुड़ 3/3-22/20/15/2 तत्थतणसव्वणिसेयाणं समूहो सव्वट्ठिदी णाम। = (बद्ध कर्म के) समस्त निषेकों के या समस्त निषेकों के प्रदेशों के काल को उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति कहते हैं।
देखें स्थिति - 1.6 वहाँ पर (उत्कृष्ट स्थिति में) रहने वाले (बद्ध कर्म के) संपूर्ण निषेकों का जो समूह वह सर्व स्थिति है।
कषायपाहुड़/3/3-22/20/15 पर विशेषार्थ
-(बद्ध कर्म में) अंतिम निषेक का जो काल है वह (उस कर्म की) उत्कृष्ट स्थिति है। इसमें उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर प्रथम निषेक से लेकर अंतिम निषेक तक की सब स्थितियों का ग्रहण किया है। उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर जो प्रथम निषेक से लेकर अंतिम निषेक तक निषेक रचना होती है वह सर्व स्थिति विभक्ति है।
4. अग्र व उपरितन स्थिति के लक्षण
1. अग्र स्थिति
धवला 14/5,6,320/367/4 जहण्णणिव्वत्तीए चरिमणिसेओ अग्गं णाम। तस्स ट्ठिदी जहण्णिया अग्गट्ठिदि त्ति घेत्तव्वा। जहण्णणिव्वत्ति त्ति भणिदं होदि। = जघन्य निर्वृत्ति के अंतिम निषेक की अग्रसंज्ञा है। उसकी स्थिति जघन्य अग्रस्थिति है।...जघन्य निवृत्ति (जघन्य आयुबंध) यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
2. उपरितन स्थिति
गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा./67/176/10
वर्तमान समय तै लगाइ उदयावली का काल, ताकै पीछे गुण श्रेणी आयाम काल, ताके पीछे अवशेष सर्व स्थिति काल, अंत विषै अतिस्थापनावली बिना सो उपरितन स्थिति का काल, तिनिके निषेक पूर्वै थे तिनि विषै मिलाइए है। सो यह मिलाया हुआ द्रव्यपूर्वं निषेकनि के साथ उदय होइ निर्जरै है, ऐसा भाव जानना। ( लब्धिसार/ भाषा./69/104)।
गोम्मटसार जीवकांड/ अर्थ संदृष्टि/पृष्ठ 24
ताके (उदयावली तथा गुणश्रेणी के) ऊपर (बहुत काल तक उदय आने योग्य) के जे निषेक तिनिका समूह सो तो उपरितन स्थिति है।
5. सांतर निरंतर स्थिति के लक्षण
गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा/945,946/2054-2055
सांतरस्थिति उत्कृष्ट स्थिति तै लगाय-जघन्य स्थिति पर्यंत एक-एक समय घाटिका अनुक्रम लिये जो निरंतर स्थिति के भेद...(945/2054)। सांतर स्थिति-सांतर कहिए एक समय घाटिके नियम करि रहित ऐसे स्थिति के भेद।
क्षपणासार/ भाषा/583/695/16
गुणश्रेणि आयाम के ऊपरवर्ती जिनि प्रदेशनिका पूर्वै अभाव किया था तिनिका प्रमाण रूप अंतरस्थिति है।
6. प्रथम व द्वितीय स्थिति के लक्षण
क्षपणासार/ भाषा/583/695/17
ताके ऊपरिवर्ती (अंतर स्थिति के उपरिवर्ती) अवशेष सर्व स्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है।
देखें अंतरकरण - 1.2 अंतरकरण से नीचे की अंतर्मुहूर्तप्रमित स्थिति को प्रथम स्थिति कहते हैं और अंतरकरण से ऊपर की स्थिति को द्वितीय स्थिति कहते हैं।
7. सादि अनादि स्थिति के लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/टीका/4/390/243/16 सादिस्थितिबंध:, य: अबंधं स्थितिबंधं बध्नाति स सादिबंध:। अनादिस्थितिबंध:, जीवकर्मणोरनादिबंध: स्यात् । = विवक्षित कर्म की स्थिति के बंध का अभाव होकर पुन: उसके बँधने को सादि स्थितिबंध कहते हैं। गुणस्थानों में बंध व्युच्छित्ति के पूर्व तक अनादि काल से होने वाले स्थितिबंध को अनादिस्थितिबंध कहते हैं।
8. विचार स्थान का लक्षण
धवला 6/1,9-6,5/150 पर उदाहरण
वीचारस्थान=(उत्कृष्ट स्थिति-जघन्य स्थिति) या अबाधा के भेद-1
जैसे यदि उत्कृष्ट स्थिति=64; जघन्य स्थिति=45;
उत्कृष्ट आबाधा 16; आबाधा कांडक= =4
तो 64-61 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
(ii) 60-57 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
(iii) 56-53 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
(iv) 52-49 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
(v) 48-45 तक 4 स्थिति भेदों का एक आबाधा कांडक
यहाँ आबाधा कांडक=5; आबाधा कांडक आयाम=4 आबाधा के भेद=5x4=20
वीचार स्थान=20-1=19 या 64-45=19
2. स्थितिबंध निर्देश
1. स्थितिबंध में चार अनुयोग द्वार
षट्खंडागम/11/4,2,6/ सूत्र 36/140 एत्तो मूलपयडिट्ठिदिबंधे पुव्वं गमणिज्जे तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि ट्ठिदिबंधट्ठाणप्ररूवणा णिसेयपरूवणा आबाधाकंडयपरूवणा अप्पाबहुए त्ति।36। = आगे मूल प्रकृति स्थितिबंध पूर्व में ज्ञातव्य है। उसमें ये चार अनुयोगद्वार हैं-स्थिति बंधस्थान प्ररूपणा, निषेक-प्ररूपणा, आबाधा कांडक प्ररूपणा, और अल्प बहुत्व।
2. भवस्थिति व कायस्थिति में अंतर
राजवार्तिक/3/39/6/210/3 एकभवविषया भवस्थिति:। कायस्थितिरेककायापरित्यागेन नानाभवग्रहणविषया। = एक भव की स्थिति भवस्थिति कहलाती है और एक काय का परित्याग किये बिना अनेक भवविषयक कायस्थिति होती है।
3. एकसमयिक बंध को बंध नहीं कहते
धवला 13/5,4,24/54/5 ट्ठिदि-अणुभागबंधाभावेण सुक्ककुड्ड पक्खित्तवालुवमुट्ठिव्व जीवसंबंधविदियसमए चेव णिवदंतस्स बंधववएसविरोहादो। = स्थिति और अनुभाग बंध के बिना, शुष्क भीत पर फैंकी गयी मुट्ठीभर बालुका के समान जीव से संबंध होने पर, दूसरे समय में ही पतित हुए सातावेदनीय कर्म को बंध संज्ञा देने में विरोध आता है।
4. स्थिति व अनुभाग बंध की प्रधानता
राजवार्तिक/6/3/7/507/31 अनुभागबंधो हि प्रधानभूत: तन्निमित्तत्वात् सुखदु:खविपाकस्य। = अनुभागबंध प्रधान है, वही सुख-दु:खरूप फल का निमित्त होता है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/800/979/8 ऐतेषु षट्सु सत्सु जीवो ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भूयो बध्नाति-प्रचुरवृत्त्या स्थित्त्यनुभागौ बध्नातीत्यर्थ:। = इन छह (प्रत्यनीक आदि) कार्यों के होते जीव ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म को अधिक बाँधता है अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म को स्थिति व अनुभाग को प्रचुरता लिये बाँधे हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/637 स्वार्थ क्रियासमर्थोऽत्र बंध: स्याद् रससंज्ञिक:। शेषबंधत्रिको ऽप्येष न कार्यकरणक्षम:।937। = केवल अनुभाग नामक बंध ही बाँधने रूप अपनी क्रिया में समर्थ है। तथा शेष के तीनों बंध आत्मा को बाँधने रूप कार्य करने में समर्थ नहीं हैं।
3.स्थिति निषेक रचना
1. निषेक रचना ही कर्मों की स्थिति है
धवला 6/1,9-7,43/200/10 ठिदिबंधे णिसेयविरयणा परूविदा। ण सा पदेसेहि विणा संभवदि, विरोहादो। तदो तत्तो चेव पदेसबंधो वि सिद्धो। = स्थिति बंध में निषेकों की रचना प्ररूपण की गयी है। वह निषेक रचना प्रदेशों के बिना संभव नहीं है, क्योंकि, प्रदेशों के बिना निषेक रचना मानने में विरोध आता है। इसलिए निषेक रचना से प्रदेश बंध भी सिद्ध होता है।
2. स्थिति बंध में निषेकों का त्रिकोण रचना संबंधी नियम
गोम्मटसार कर्मकांड/920-921/1104 आबाहं बोलाविय पढमणिसेगम्मि देय बहुगं तु। तत्तो विसेसहीणं विदियस्सादिमणिसेओत्ति।920। बिदिये विदियणिसेगे हाणी पुव्विल्लहाणि अद्धं तु। एवं गुणहाणिं पडि हाणी अद्धद्धयं होदि।921। = कर्मों की स्थिति में आबाधा काल के पीछे पहले समय प्रथम गुणहानि के प्रथम निषेक में बहुत द्रव्य दिया जाता है। उसके ऊपर दूसरी गुणहानि का प्रथम निषेक पर्यंत एक-एक चय घटता-घटता द्रव्य दिया जाता है।920। दूसरी गुणहानि के दूसरे निषेक उस ही के पहले निषेक से एक चय घटता द्रव्य जानना। जो पहिली गुणहानि में निषेक-निषेक प्रति हानि रूप चय था, तिसतैं दूसरी गुणहानि में हानि रूप चय का प्रमाण आधा जानना। इस प्रकार ऊपर-ऊपर गुणहानि प्रति हानिरूप चय का प्रमाण आधा-आधा जानना।
गोम्मटसार कर्मकांड/940/1139 उक्कस्सट्ठिदिबधे सयलबाहा हु सव्वठिदिरयणा। तक्काले दीसदि तो धोधो बंधट्ठिदीणं च। = विवक्षित प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बंध होने पर उसी काल में उत्कृष्ट स्थिति की आबाधा और सब स्थिति की रचना भी देखी जाती है। इस कारण उस स्थिति के अंत के निषेक से नीचे-नीचे प्रथम निषेक पर्यंत स्थिति बंध रूप स्थितियों की एक-एक समय हीनता देखनी चाहिए।
3. कर्म व नोकर्म की निषेक रचना संबंधी विशेष सूची
1. चौदह जीवसमासों में मूल प्रकृतियों की अंतरोपनिधा परंपरोपनिधा की अपेक्षा पूर्णस्थिति में निषेक रचना =(महाबंध 2/5-16/6-12)।
2. उपरोक्त विषय उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा ((महाबंध 2/19-28/228-229)।
3. नोकर्म के निषेकों की समुत्कीर्तना ( षट्खंडागम/2/5,6/ सूत्र /246-248/331)।
उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबंध संबंधी नियम
1. मरण समय उत्कृष्ट स्थितिबंध संभव नहीं
धवला 12/4,2,13,9/378/12 चरिमसमये उक्कस्सट्ठिदिबंधाभावादो। = (नारक जीव के) अंतिम समय में उत्कृष्ट स्थितिबंध का अभाव है।
2. स्थितिबंध में संक्लेश विशुद्ध परिणामों का स्थान
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/425 सव्वट्ठिदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण। विवरीओ दु जहण्णो आउगतिगं वज्ज सेसाणं।425। = आयुत्रिक को छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियों की स्थितियों का उत्कृष्ट बंध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है और उनका जघन्य स्थितिबंध विपरीत अर्थात् संक्लेश के कम होने से होता है। यहाँ पर आयुत्रिक से अभिप्राय नरकायु के बिना शेष तीन आयु से है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/134/132 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/239); ( लब्धिसार/ भाषा/17/3)।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/134/132/17 तत्त्रयस्य तु उत्कृष्टं उत्कृष्टविशुद्धपरिणामेन जघन्यं तद्विपरीतेन भवति। = तीन आयु (तिर्यग्, मनुष्य व देवायु) का उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से और जघन्य स्थितिबंध उससे विपरीत अर्थात् कम संक्लेश परिणाम से होता है।
3. मोहनीय का उत्कृष्ट स्थितिबंधक कौन
कषायपाहुड़ 3/3-22/22/16/5 तत्थ ओघेण उक्कस्सट्ठिदी कस्स। अण्णदरस्स, जो चउट्ठाणिय जवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिं बंधंतो अच्छिदो उक्कस्ससंकिलेसं गदो। तदो उक्कस्सट्ठिदी पबद्धा तस्स उक्कस्सयं होदि। = जो चतुस्थानीय यवमध्य के ऊपर अंत:कोडाकोड़ी प्रमाण स्थिति को बाँधता हुआ स्थित है और अनंतर उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्ट-उत्कृष्ट स्थिति का बंध किया है, ऐसे किसी भी जीव के मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति होती है।
4. उत्कृष्ट अनुभाग के साथ उत्कृष्ट स्थितिबंध की व्याप्ति
धवला 12/4,2,13,31/390/13 जदि उक्कस्सट्ठिदीए सह उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सविसेसपच्चएण उक्कस्साणुभागो पबद्धो तो कालबेयणाए सह भावो वि उक्कस्सो होदि। उक्कस्सविसेसपच्चयाभावे अणुक्कस्सामो चेव। = यदि उत्कृष्ट स्थिति के साथ उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययरूप उत्कृष्ट संकलेश के द्वारा उत्कृष्ट अनुभाग बाँधा गया है तो काल वेदना (स्थितिबंध) के साथ भाव (अनुभागी) भी उत्कृष्ट होता है। और (अनुभाग संबंधी) उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय के अभाव में भाव (अनुभाग) अनुत्कृष्ट ही होता है। ( धवला 12/4,2,13,40/393/4 )।
धवला 12/4,2,13,40/393/6 उक्कस्साणुभागं बंधमाणो णिच्छएण उक्कस्सियं चेव ट्ठिदिं बंधदि, उक्कस्ससंकिलेसेण विणा उक्कस्साणुभागबंधाभावादो। = उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधने वाला जीव निश्चय से उत्कृष्ट स्थिति को ही बाँधता है, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश के बिना उत्कृष्ट अनुभाग बंध नहीं होता है।
5. उत्कृष्ट स्थितिबंध का अंतरकाल
कषायपाहुड़/3/3-22/538/316/3 कम्माणमुक्कस्सट्ठिदिबंधुवलंभादो। दोण्हमुक्कस्सट्ठिदीणं विच्चालिमअणुक्कस्सट्ठिदिबंधकालो तासिमंतरं ति भणिदं होदि। एगसमओ जहण्णंतरं किण्ण होदि। ण उक्कस्सट्ठिदिं बंधिय पडिहग्गस्स पुणो अंतोमुहुत्तेण विणा उक्कस्सट्ठिदिबंधासंभवादो। = कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को बाँधने वाला जीव अनुत्कृष्ट स्थिति का कम से कम अंतर्मुहूर्त काल तक बंध करता है उसके अंतर्मुहूर्त के बाद पुन: पूर्वोक्त पूर्वों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध पाया जाता है। प्रश्न-जघन्य अंतर एक समय क्यों नहीं होता ? उत्तर-नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति को बाँधकर उससे च्युत हुए जीव के पुन: अंतर्मुहूर्त काल के बिना उत्कृष्ट स्थिति का बंध नहीं होता, अत: जघन्य अंतर एक समय नहीं है।
6. जघन्य स्थितिबंध में गुणहानि संभव नहीं
धवला 6/1,9-7,3/183/1 एत्थ गुणहाणीओ णत्थि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तट्ठिदीए विणा गुणहाणीए असंभवादो। = इस जघन्य स्थिति में गुणहानियाँ नहीं होती हैं, क्योंकि, पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र स्थिति के बिना गुणहानि का होना असंभव है।
7. साता व तीर्थंकर प्रकृतियों की जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबंध संबंधी दृष्टिभेद
धवला 11/4,2,6,181/321/6 उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ सेडिछेदणाहिंतो बहुगाओ त्ति के वि आइरिया भणंति। तेसिमाइरियाणमहिप्पाएण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता जीवा उवरि तप्पाओग्गासंखेज्जगुणहाणीओ गंत्तूण होंति। ण च एवं वक्खाणे अण्णोण्णब्भत्थरासिस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवत्तुवलंभादो। = (साता वेदनीय के द्वि स्थानिक यव मध्य से तथा असाता वेदनीय के चतुस्थानिक यव मध्य से ऊपर की स्थितियों में जीवों की) 'नाना गुणहानि शलाकाएँ श्रेणि के अर्धच्छेदों से बहुत हैं' ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। उन आचार्यों के अभिप्राय से श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव आगे तत्प्रायोग्य असंख्यात गुणहानियाँ जाकर है। परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि इस व्याख्यान में अन्योन्याभ्यस्त राशि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण पायी जाती है।
धवला 12/4,2,14,38/494/12 आदिमंतिमदोहि वासपुधत्तेहि ऊणदोपुव्वकोडीहि सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ता तित्थयरस्स समयपबद्धट्ठदा होदि त्ति के वि आइरिया भणंति। तण्ण घडदे। कुदो। आहारदुगस्स संखेज्जवासमेत्ता तित्थयरस्स सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ता समयपबद्धट्ठदा होंति त्ति सुत्ताभावादो। = आदि और अंत के दो वर्ष पृथक्त्वों से रहित तथा दो पूर्व कोटि अधिक तीर्थंकर प्रकृति की तेतीस सागरोपम मात्र समय प्रबद्धार्थता होती है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, आहारकद्विक की संख्यात वर्ष मात्र और तीर्थंकर प्रकृति की साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण समय प्रबद्धार्थता है, ऐसा कोई सूत्र नहीं है।
5. स्थितिबंध संबंधी शंका-समाधान
1. साता के जघन्य स्थिति बंध संबंधी
धवला 6/1,9-7,9/186/1 तीसियस्स दंसणावरणीयस्स अंतोमुहुत्तमेत्तट्ठिदिं बंधमाणे सुहुमसांपराइयो तीसियवेदणीयभेदस्स सादावेदणीयरस पण्णारससागरोवमकोडाकोडी उक्करसट्ठिदिअरस्स कधं वारसमुहुत्तियं जहण्णट्ठिदिं बंधदे। ण, दंसणावरणादो सुहस्स सादावेदणीयस्स विसोधीदो सुट्ठु ट्ठिदिबंधोवट्टणाभावा। = तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले दर्शनावरणीय कर्म की अंतर्मुहूर्त मात्र जघन्य स्थिति को बाँधने वाला सूक्ष्म सांपराय संयत तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति वाले वेदनीय कर्म के भेदस्वरूप पंद्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमित उत्कृष्ट स्थितिवाले साता वेदनीय कर्म की बारह मुहूर्त वाली जघन्य स्थिति को कैसे बाँधता है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, दर्शनावरणीय कर्म की अपेक्षा शुभ प्रकृति रूप सातावेदनीय कर्म की विशुद्धि के द्वारा स्थितिबंध की अधिक अपवर्तना का अभाव है।
2. उत्कृष्ट अनुभाग के साथ अनुत्कृष्ट स्थिति बंध कैसे
धवला 12/4,2,13,40/393/6 उक्कस्साणुभागं बंधमाणो णिच्छएण उक्कसियं चेव ट्ठिदिं बंधदि, उक्कस्ससंकिलेसेण विणा उक्कस्साणुभागबंधाभावादो। एवं संते कधमुक्कस्साणुभागे णिरुद्धे अणुक्कस्सट्ठिदीए संभवो त्ति। ण एस दोसो, उक्कस्साणुभागेण सह उक्कस्सट्ठिदिं बंधिय पडिभग्गस्स अधट्ठिदिगलणाए उक्कस्सट्ठिदीदो समऊणादिवियप्पुवलंभादो। ण च अणुभागस्स अद्धट्ठिदिगलणाए घादो अत्थि, सरिसधणिय परमाणुणं तत्थुवलंभादो।...पडिभग्गपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहूत्तकालो ण गदो ताव अणुभागखंडयघादाभावादो। = प्रश्न-चूँकि उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधने वाला जीव निश्चय से उत्कृष्ट स्थिति को ही बाँधता है, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश के बिना उत्कृष्ट अनुभाग का बंध नहीं होता; अतएव ऐसी स्थिति में उत्कृष्ट अनुभाग की विवक्षा में अनुत्कृष्ट स्थिति की संभावना कैसे हो सकती है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग के साथ उत्कृष्ट स्थिति को बाँधकर प्रतिभग्न हुए जीव के अध:स्थिति के गलने से उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा एक समय हीन आदि स्थिति विकल्प पाये जाते हैं। और अध:स्थिति के गलने से अनुभाग का घात कुछ नहीं होता है, क्योंकि, समान धनवाले परमाणु वहाँ पाये जाते हैं।...प्रतिभग्न होने के प्रथम समय से लेकर जब तक अंतर्मुहूर्त काल नहीं बीत जाता है तब तक अनुभाग कांडक घात संभव नहीं है।
3. विग्रह गति में नारकी संज्ञी का भुजगार स्थितिबंध कैसे
कषायपाहुड़/4/3-22/51/27/7 संकिलेसक्खएण विणा तदियसमए कधं सण्णिं ट्ठिदिं बंधदि। ण संकिलेसेण विणा सण्णिपंचिंदियजादि मस्सिदूण ट्ठिदिबंधवड्ढीए उवलंभादो। = प्रश्न-संक्लेश क्षय के बिना (विग्रहगति के) तीसरे समय में वह (नरक गति को प्राप्त करने वाला) जीव संज्ञी की (भुजगार) स्थिति को कैसे बाँधता है ? उत्तर-क्योंकि संक्लेश के बिना संज्ञी पंचेंद्रिय जाति के निमित्त से उसके स्थितिबंध में वृद्धि पायी जाती है।
- मूलोत्तर प्रकृतियों की जघन्योत्कृष्ट आबाधा, व स्थिति तथा उनका स्वामित्व
- इंद्रिय मार्गणा की अपेक्षा प्रकृतियों का उत्कृष्ट, जघन्य स्थिति की सारणी
- उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति, प्रदेश व अनुभाग के बंधकों की प्ररूपणा
- अन्य प्ररूपणाओं संबंधी सूची
स्थितिबंध प्ररूपणा-
1. मूलोत्तर प्रकृतियों की जघन्योत्कृष्ट आबाधा, व स्थिति तथा उनका स्वामित्व-( तत्त्वार्थसूत्र/8/14-30 ), (मू.आ./1237-1239), ( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/392-440 ), (पं.सं./सं./4/199-257), (शतक/54-64), ( धवला 6/146-198 ), ( धवला 12/490-497 ), ( महाबंध/2/24/17 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/128-133,139-140,129-132,140-141 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/252/519/2 ), ( तत्त्वसार/5/43-46 ) संकेत– * =पल्य/असं.से हीन
क्र. | प्रकृति | उत्कृष्ट | जघन्य | |||||||||||||
काल | स्वामित्व | काल | स्वामित्व | |||||||||||||
धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |||
सहस्र वर्ष | को.को.सागर | |||||||||||||||
(1) | ज्ञानावरणीय- | |||||||||||||||
मूल | 486 | 3 | 30 | 432 | 1 | चारों गति उत.व मध्य संक्लेश | गो.मू. | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 433 | सूक्ष्म सांपराय | |||||
1-5 | पाँचों | 146 | 486 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 182 | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 183 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | ||
(2) | दर्शनावरणीय- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
1 | मूल | 486 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | गो.मू. | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 433 | सूक्ष्म सांपराय | ||||
1 | निद्रानिद्रा | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 184 | गो.मू. | अंतर्मुहूर्त | 3/7सा* | 184 | 434 | सर्व विशुद्ध बादर एकेंद्रिय पर्याप्त | ||
2 | प्रचलाप्रचला | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 184 | अंतर्मुहूर्त | 3/7सा* | 184 | 434 | सर्व विशुद्ध बादर एकेंद्रिय पर्याप्त | |||
3 | स्त्यानगृद्धि | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 184 | अंतर्मुहूर्त | 3/7सा* | 184 | 434 | सर्व विशुद्ध बादर एकेंद्रिय पर्याप्त | |||
4 | निद्रा | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 184 | अंतर्मुहूर्त | 3/7सा* | 184 | 434 | सर्व विशुद्ध बादर एकेंद्रिय पर्याप्त | |||
5 | प्रचला | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 184 | अंतर्मुहूर्त | 3/7सा* | 184 | 434 | सर्व विशुद्ध बादर एकेंद्रिय पर्याप्त | |||
6 | चक्षुद. | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 182 | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 183 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | |||
7 | अचक्षुद. | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 182 | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 183 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | |||
8 | अवधिद. | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 182 | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 183 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | |||
9 | केवलद. | 146 | 3 | 30 | 1 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 182 | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 183 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | |||
(3) | वेदनीय- | |||||||||||||||
1 | मूल | 3 | 30 | 432 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 182 | गो.मू. | अंतर्मुहूर्त | 12 मुहूर्त | 183 | |||||
1 | साता | 158 | 487 | 1 | 15 | 432 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 185 | अंतर्मुहूर्त | 12 मुहूर्त | 186 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | ||
2 | असाता | 146 | 487 | 3 | 30 | 432 | 1 | चारों गति उत. व मध्य संक्लेश | 184 | अंतर्मुहूर्त | 3/7सा.* | 184 | 434 | सर्वविशुद्ध वा.एकेंद्रि.पर्याप्त | ||
(4) | मोहनीय- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
मूल | 7 | 70 | 432 | 1 | (विशेष देखें स्थिति - 4.3) | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 434 | अनिवृत्तिकरण बादर संपराय | |||||||
दर्शनमोहनीय- | ||||||||||||||||
1 | मिथ्यात्व प्रकृति | 160 | 490 | 7 | 70 | 432 | 1 | चारों गति में उ.व म.संक्लेश | 186 | अंतर्मुहूर्त | 1/7सा.* | 187 | 434 | सर्वविशुद्ध बा. एकेंद्रिय प. | ||
2 | सम्यक्त्व प्रकृति/td> | 7 | 70 | 432 | 1 | चारों गति में उ.व म.सत्त्व | 187 | अंतर्मुहूर्त | 1/7सा.* | 434 | x | |||||
3 | सम्यग्मिथ्यात्व | 7 | 70 | 432 | 1 | चारों गति में उ.व म.सत्त्व | 187 | अंतर्मुहूर्त | 1/7सा.* | 434 | x | |||||
चारित्र मोहनीय- | ||||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
मूल | 4 | 40 | 432 | 1 | चारों गति में उ.व म.सत्त्व | |||||||||||
1-4 | अनंतानुबंधी चतुष्क | 160 | 490 | 4 | 40 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 187 | अंतर्मुहूर्त | 4/7 सा. | 188 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
8 | अप्रत्याख्यान चतुष्क | 160 | 490 | 4 | 40 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 187 | अंतर्मुहूर्त | 4/7 सा. | 188 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
12 | प्रत्याख्यान चतुष्क | 160 | 490 | 4 | 40 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 187 | अंतर्मुहूर्त | 4/7 सा. | 188 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
13 | संज्वलन क्रोध | 160 | 490 | 4 | 40 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 188 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | 2 मास | 188 | 433 | अनिवृत्तिकरण क्षपक | |
14 | संज्वलन मान | 160 | 490 | 4 | 40 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 188 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | 1 मास | 433 | अनिवृत्तिकरण क्षपक | ||
15 | संज्वलन माया | 160 | 490 | 4 | 40 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 188 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | 1 पक्ष | 433 | अनिवृत्तिकरण क्षपक | ||
16 | संज्वलन लोभ | 160 | 490 | 4 | 40 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 188 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 183 | 433 | (सूक्ष्म सांपराय मू.आ.) | |
नोकषाय- | ||||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
1 | हास्य | 162 | 490 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
2 | रति | 162 | 490 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
3 | अरति | 163 | 490 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
4 | शोक | 163 | 490 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
5 | भय | 163 | 490 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
6 | जुगुप्सा | 163 | 490 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
7 | स्त्री वेद | 158 | 490 | 1 | 15 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | ||
8 | पुरुष वेद | 162 | 490 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 189 | गो./140 | 8 वर्ष | 433 | अनिवृत्तिकरण क्षपक | |||
9 | नपुंसक वेद | 163 | 490 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एकेंद्रिय प. | |||
(5) | आयु- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
मूल | गो.मू. | 1/3पू.को. | 33 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 434 | कर्मभूमिज मनुष्य तिर्यंच | |||||
1 | नरकायु | 166 | 1/3पू.को. | 33 | 431 | 1 | मनुष्य व संज्ञी प.पंचे. | 193 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | 10,000वर्ष | 193 | 434 | मि.संज्ञी पंचे.ति.संक्लेश परिणत या सर्वविशुद्ध संज्ञी पंचे.प.। | ||
2 | तिर्यंचायु | 169 | 1/3पू.को. | 3 पल्य | 431 | 1 | मनु.व संज्ञी प.पंचे. | 193 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | क्षुद्रभव | 434 | कर्मभूमिया मनुष्य व तिर्यंच संक्लेश युक्त | |||
3 | मनुष्यायु | 169 | 1/3पू.को. | 3 पल्य | 431 | 1 | मनु.व संज्ञी प.पंचे. | 193 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | क्षुद्रभव | 434 | कर्मभूमिया मनुष्य व तिर्यंच संक्लेश युक्त | |||
4 | देवायु | 166 | 1/3पू.को. | 33 सा. | 427 | 6 | प्रमत्त संयत | 193 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | 10,000वर्ष | 193 | 434 | संज्ञी व असंज्ञी तिर्यंच | ||
440 | सर्वविशुद्ध असंज्ञी तिर्यंच या संक्लेशयुक्त संज्ञी पर्याप्त | |||||||||||||||
(6) | नाम- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
मूल | 2 | 20 | 1 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | 8 मुहूर्त | ||||||||||
गति- | ||||||||||||||||
नरक | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | मनु.व ति.संज्ञी प.पंचें. | 194 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 194 | 434 | संक्लेशयुक्त असंज्ञी पंचें.प. | |||
तिर्यंच | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | देव, नारकी | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
मनुष्य | 158 | 493 | 1 | 15 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
देव | 162 | 493 | 1 | 10 | 431 | 1 | मनु.व ति.संज्ञी पं.प. | 194 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 194 | 434 | सर्व विशुद्ध असंज्ञी पंचे. | |||
2 | जाति- | |||||||||||||||
एकेंद्रिय | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | ईशान देव | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
द्वींद्रिय | 172 | 493 | 1 | 18 | 431 | 1 | मनु.,ति.पं.प. | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
त्रींद्रिय | 172 | 493 | 1 | 18 | 431 | 1 | मनु.,ति.पं.प. | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
चतुरिंद्रिय | 172 | 493 | 1 | 18 | 431 | 1 | मनु.,ति.पं.प. | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
पंचेंद्रिय | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उत्तम मध्यम संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 192 | 434 | ||||
3 | शरीर, बंधन, संघात- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
औदारिक | 163 | 2 | 20 | 431 | 1 | देव, नारकी | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||||
वैक्रियक | 163 | 2 | 20 | 431 | 1 | मनु.व ति.संज्ञी पं.प. | 194 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा. | 194 | 434 | सर्व विशुद्ध असंज्ञी पंचें. | ||||
आहारक | 174 | 495 | अंत. | अंत. | 427 | 7 | अप्रमत्त | 197 | गो./140 | अंतर्मुहूर्त | अंत को.को.सा. | 197 | 433 | अपूर्वकरण क्षपक के 1-7 भाग तक | ||
तैजस | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
कार्मण | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
4 | अंगोपांग- | |||||||||||||||
औदारिक | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | देव, नारकी | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
वैक्रियक | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | मनु.व ति.संज्ञी पं.प. | 194 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 194 | 434 | सर्व विशुद्ध असंज्ञी पंचें. | |||
आहारक | 174 | गो.मू.आ. | अंत. | अंतर्मुहूर्त | 427 | 7 | अप्रमत्त | 197 | अंतर्मुहूर्त | अंत को.को.सा. | 197 | 433 | अपूर्वकरण क्षपक के 1-7 भाग तक | |||
5 | निर्माण- | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
6 | बंधन | - | - | - | - | - | - | शरीरवत् | - | - | - | - | - | - | ||
7 | संघात | - | - | - | - | - | - | शरीरवत् | - | - | - | - | - | - | ||
8 | संस्थान- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
समचतुरस्र | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
न्यग्रोध परिमंडल | 177 | 493 | 1 | 12 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
स्वाति | 178 | 493 | 1 | 14 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
कुब्जक | 179 | 493 | 1 | 16 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
वामन | 172 | 493 | 1 | 18 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
हुंडक | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
9 | संहनन- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
वज्रऋषभ-नाराच | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
वज्रनाराच | 177 | 493 | 1 | 12 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
नाराच | 178 | 493 | 1 | 14 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 433 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
अर्धनाराच | 179 | 493 | 1 | 16 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
कीलित | 172 | 493 | 1 | 18 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
असंप्राप्तसृपाटिका | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | देव, नारकी | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
10 | स्पर्श (आठों) | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
11 | रस (पाँचों) | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
12 | गंध (दोनों) | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
13 | वर्ण (पाँचों) | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
14 | आनुपूर्वी- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
नरक | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | मनु.व ति.संज्ञी पं.प. | 194 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 194 | 434 | संक्लेश युक्त असंज्ञी पंचें.प. | |||
तिर्यंच | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | देव, नारकी | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
मनुष्य | 158 | 493 | 1 | 15 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
देव | 162 | 493 | 1 | 10 | 431 | 1 | मनु.व ति.संज्ञी पं.प. | 194 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 194 | 434 | सर्वविशुद्ध असंज्ञी पंचे.प. | |||
15 | अगुरुलघु | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
16 | उपघात | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
17 | परघात | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
18 | आतप | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | ईशान देव | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
19 | उद्योत | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | देव, नारकी | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
20 | उच्छ्वास | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
21 | विहायोगति- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
प्रशस्त | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
अप्रशस्त | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
22 | प्रत्येक | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
23 | साधारण | 172 | 493 | 1 | 18 | 431 | 1 | मनु.व ति.संज्ञी पं.प. | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
24 | त्रस | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
25 | स्थावर | 163 | 492 | 2 | 20 | 431 | 1 | ईशान देव | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
26 | सुभग | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
27 | दुर्भग | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
28 | सुस्वर | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
29 | दु:स्वर | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
30 | शुभ | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
31 | अशुभ | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
32 | सूक्ष्म | 172 | 493 | 1 | 18 | 431 | 1 | मनु.व संज्ञी तिलोयपण्णत्ति | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
33 | बादर | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 20 सा. | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
34 | पर्याप्त | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7 सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
35 | अपर्याप्त | 172 | 493 | 1 | 18 | 431 | 1 | मनु.व ति.संज्ञी पंचे.प. | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7 सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
36 | स्थिर | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7 सा.* | 193 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
37 | अस्थिर | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7 सा.* | 193 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
38 | आदेय | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7 सा.* | 193 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
39 | अनादेय | 163 | 492 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | अंतर्मुहूर्त | 2/7 सा.* | 193 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | ||
40 | यश:कीर्ति | 162 | 493 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 198 | अंतर्मुहूर्त | 8 मुहूर्त | 198 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | ||
41 | अयश:कीर्ति | 163 | 492 | 1 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | 2/7 सा.* | 192 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.पर्या. | |||
42 | तीर्थंकरत्व | 174 | 495 | अंत: | अंतर्मुहूर्त | 427 | 4 | अविरत सम्यग्दृष्टि | 197 | अंतर्मुहूर्त | अंत.को.को.सा. | 197 | 433 | अपू.क्षपक का 1-7 भाग तक | ||
(7) | गोत्र- | |||||||||||||||
क्र. | प्रकृति | धवला 6/ पृ. | धवला 12/ पृ. | आबाधा | स्थिति | पंचसंग्रह / प्राकृत/ गा. | गुणस्थान | विवरण | धवला 6/ पृ. | गोम्मटसार मूल | आबाधा | स्थिति | धवला 6/ पृ. | पंचसंग्रह/प्राकृत/गाथा | विवरण | |
मूल | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | अंतर्मुहूर्त | 8 मुहूर्त | |||||||||
1 | उच्च | 162 | 497 | 1 | 10 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 198 | अंतर्मुहूर्त | 8 मुहूर्त | 189 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | ||
2 | नीच | 163 | 497 | 2 | 20 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 190 | 2/7 सा.* | 190 | 434 | सर्व विशुद्ध बा.एके.प. | |||
(8) | अंतराय- | |||||||||||||||
मूल | 486 | 3 | 30 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | ||||||
पाँचों | 146 | 3 | 30 | 432 | 1 | चारों गति के उ.म.संक्लेश | 182 | अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त | 183 | 433 | सू.सा.क्षपक का अंतिम समय | ||||
संकेत-* पल्य के असं.से हीन |
2. इंद्रिय मार्गणा की अपेक्षा प्रकृतियों का उ.ज.स्थिति की सारणी - ( राजवार्तिक/8/14-20 ); ( महाबंध 2/24/17-29 ); ( धवला 6/196 )।
क्र. | प्रकृति | एकेंद्रिय | द्वींद्रिय | त्रींद्रिय | चतुरिंद्रिय | असंज्ञी पंचेंद्रिय | संज्ञी पंचेंद्रिय | ||||||
उत्कृष्ट | जघन्य | उत्कृष्ट | जघन्य | उत्कृष्ट | जघन्य | उत्कृष्ट | जघन्य | उत्कृष्ट | जघन्य | उत्कृष्ट | जघन्य | ||
सागर | सागर | सागर | सागर | सागर | सागर | सागर | सागर | सागर | सागर | सागर | अंतर्मुहूर्त | ||
1 | ज्ञानावरणीय | 3/7 | 3/7-पल्य/सं. | 75/7 | 75/7-पल्य/सं. | 150/7 | -पल्य/सं. | 300/7 | -पल्य/सं. | 3000/7 | -पल्य/सं. | 30 को.को. | 1 |
2 | दर्शनावरणीय | 3/7 | 3/7-पल्य/सं. | 75/7 | 75/7-पल्य/सं. | 150/7 | -पल्य/सं. | 300/7 | -पल्य/सं. | 3000/7 | -पल्य/अ. | 30 को.को. | 1 |
3 | वेदनीय | 3/7 | 3/7-पल्य/सं. | 75/7 | 75/7-पल्य/सं. | 150/7 | -पल्य/सं. | 300/7 | -पल्य/सं. | 3000/7 | -पल्य/सं. | 30 को.को. | 12 |
4 | दर्शनमोहनीय | 1 | 1-पल्य/सं. | 25 | 25-पल्य/सं. | 50 | 50-पल्य/सं. | 100 | 100-पल्य/सं. | 1000 | 1000-पल्य/सं. | 70 को.को. | 1 |
कषाय मोहनीय | 4/7 | 4/7-पल्य/सं. | 100/7 | 100/7-पल्य/सं. | 200/7 | 200/7-पल्य/सं. | 400/7 | 400/7-पल्य/सं. | 4000/7 | -पल्य/सं. | 40 को.को. | 1 | |
नोकषाय मोहनीय | 2/7 | 2/7-पल्य/सं. | 50/7 | 50/7-पल्य/सं. | 100/7 | 100/7-पल्य/सं. | 200/7 | 200/7-पल्य/सं. | 2000/7 | -पल्य/सं. | 40 को.को. | 1 | |
5 | आयु | - | - | - | - | देखें आयु | - | - | - | - | - | - | |
6 | नाम | 2/7 | -पल्य/सं. | 50/7 | -पल्य/सं. | 100/7 | --पल्य/सं. | 200/7 | 2-पल्य/सं. | 2000/7 | -पल्य/सं. | 20 को.को. | 8 |
7 | गोत्र | 2/7 | -पल्य/सं. | 50/7 | -पल्य/सं. | 100/7 | --पल्य/सं. | 200/7 | 2-पल्य/सं. | 2000/7 | -पल्य/सं. | 20 को.को. | 8 |
8 | अंतराय | 3/7 | 3/7-पल्य/सं. | 75/7 | 75/7-पल्य/सं. | 150/7 | -पल्य/सं. | 300/7 | -पल्य/सं. | 3000/7 | -पल्य/सं. | 30 को.को. | 1 |
3. उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति, प्रदेश व अनुभाग के बंधकों की प्ररूपणा-
1. सारणी में प्रयुक्त संकेतों का अर्थ
- मारणांतिक समुद्घात रहित सप्तम पृथिवी की 500 धनुष अवगाहना वाला अंतिम समयवर्ती गुणित कर्मांशिक नारकी।
- सप्तम पृथिवी के प्रति मारणांतिक समुद्घात गत महामत्स्य।
- सूक्ष्म सांपराय के अंतिम समय तथा आगे के सर्वस्थान।
- द्विचरम वा त्रिचरम समय के पहले अंतर्मुहूर्त काल तक स्थित सप्तम पृथिवी का मिथ्यादृष्टि नारकी।
- लोकपूर्ण समुद्घात गत केवली।
- पूर्वकोटि के त्रिभाग प्रमाण आयु की आबाधा करके सप्तम नरक की आयु बाँधने वाला महामत्स्य।
- उत्कृष्ट मनुष्यायु सहित आयु बंध के प्रथम समय गत प्रमत्त संयत/7-11 गुणस्थान मनुष्य यदि पूर्व कोटि के त्रिभाग में देवायु को बाँधे।
- त्रिसमयवर्ती आहारक व तद्भवस्थ होने के तृतीय समय में वर्तमान जघन्य योगवाला सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीव।
- क्षपित कर्मांशिक क्षीणकषायी 12वें गुणस्थान के अंतिम समयवर्ती संयत।
- चरम समयवर्ती क्षपित कर्मांशिक अयोग केवली।
- चरम समयवर्ती सामान्य कर्मांशिक अयोग केवली।
- असाता वेदनीय के उदय सहित क्षपक श्रेणी पर चढ़ा हुआ अंतिम समयवर्ती अयोग केवली।
- संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तक 500 धनुष अवगाहना वाला यदि तिर्यंच आयु बाँधे, नारकी जीव तेतीस सागर के भीतर असं-गुणहानियों को गलाकर दीपशिखाकार से स्थित। ( धवला 12/462/17 )।
- तिर्यंचायु बाँधने वाला अपर्याप्त।
- क्षपित कर्मांशिक सर्वविशुद्ध सूक्ष्म निगोद त्रि चरमसमय स्थित।
- बादर तेज व वायुकायिक पर्याप्त।
धवला 12/4,2,13,7/ पृ.सं. |
||||||||||||
प्रकृति | द्रव्य प्रदेशबंध |
क्षेत्र बंधक जीव की अवगाहना |
काल बंध की स्थिति |
भाव अनुभाग |
||||||||
प्रमाण | ज. | उ. | प्रमाण | ज. | उ. | प्रमाण | ज. | उ. | प्रमाण | ज. | उ. | |
ज्ञानावरणी | 377-446 | 9 | 1 | 381 | 8 | 2 | 387 | 9 | 1 | 391 | 9 | 4 |
दर्शनावरणी | 395 | 9 | 1 | 395 | 8 | 2 | 395 | 9 | 1 | 395 | 9 | 4 |
वेदनीय | 396-446 | 10 | 1 | 397 | 8 | 5 | 401 | 11 | 1 | 402 | 12 | 3 |
मोहनीय | 395 | 9 | 1 | 395 | 8 | 2 | 395 | 9 | 1 | 395 | 9 | 4 |
आयु | 405 | 13 | 6 | 405 | 8 | 5 | 409 | 10 | 7 | 411 | 14 | 7 |
नाम | 404 | 11 | 1 | 404 | 8 | 5 | 404 | 11 | 1 | 404 | 15 | 3 |
गोत्र | 404 | 11 | 1 | 404 | 8 | 5 | 404 | 11 | 1 | 404 | 16 | 3 |
अंतराय | 395 | 9 | 1 | 395 | 8 | 2 | 395 | 9 | 1 | 395 | 9 | 4 |
4. अन्य प्ररूपणाओं संबंधी सूची-(म.बं./पृ.सं./ )