अमूर्त: Difference between revisions
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<p class="HindiText">1. गणित संबंधी अर्थ ( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो / प्रस्तावना 105) Abstract <br> | <p class="HindiText">1. गणित संबंधी अर्थ ( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो / प्रस्तावना 105) Abstract <br> | ||
2. अमूर्तत्व सामान्य व अमूर्तत्व शक्ति | <p class="HindiText"><b>2. अमूर्तत्व सामान्य व अमूर्तत्व शक्ति</b></p> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/6 </span><span class="SanskritText"> मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमूर्तत्वं रूपादिरहितत्वम् इति गुणानां व्युत्पत्तिः । </span> | <span class="GRef"> आलापपद्धति/6 </span><span class="SanskritText"> मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमूर्तत्वं रूपादिरहितत्वम् इति गुणानां व्युत्पत्तिः । </span><p class="HindiText">=मूर्त द्रव्य का भाव मूर्तत्व है अर्थात् रूपादिमान् होना ही मूर्तत्व है । इसी प्रकार अमूर्त द्रव्यों का भाव अमूर्तत्व है अर्थात् रूपादि रहित होना ही अमूर्तत्व है । <br /> | ||
-देखें [[ मूर्तः#3 | मूर्तः - 3]]. <br> | <p class="HindiText">-देखें [[ मूर्तः#3 | मूर्तः - 3]]. <br></p> | ||
3. जीव का अमूर्तत्व निर्देश-देखें [[ जीव#3 | जीव - 3]]; <br> | <span class="GRef"> आलापपद्धति/4 </span><span class="SanskritText">स्वभावा: कथ्यंते–अस्तिस्वभाव:, नास्तिस्वभाव:, नित्यस्वभाव:, अनित्यस्वभाव:, एकस्वभाव:, अनेकस्वभाव:, भेदस्वभाव:, अभेदस्वभाव:, भव्यस्वभाव:, अभव्यस्वभाव:, परमस्वभाव:–द्रव्याणामेकादशसामान्यस्वभावा:। चेतनस्वभाव:, अचेतनस्वभाव:, मूर्तस्वभाव:, अमूर्तस्वभाव:, एकप्रदेशस्वभाव:, अनेकप्रदेशस्वभाव:, विभावस्वभाव:, शुद्धस्वभाव:, अशुद्धस्वभाव:, उपचरितस्वभाव:–एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावा:। जीवपुद्गलयोरेकविंशति:। ‘एकविंशतिभावा: स्युर्जीवपुद्गलयोर्मता:।‘ टिप्पणी–जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणाचेतनस्वभाव:, जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्तत्वस्वभाव:। तत्कालपर्ययाक्रांतं वस्तुभावोऽभिधीयते। तस्य एकप्रदेशसंभवात् ।</span><p class="HindiText">=स्वभावों का कथन करते हैं–अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भेदस्वभाव, अभेदस्वभाव, भव्यस्वभाव, अभव्यस्वभाव, और परमस्वभाव ये ग्यारह सामान्य स्वभाव हैं। और–चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव, एकप्रदेशस्वभाव, अनेकप्रदेशस्वभाव, विभावस्वभाव, शुद्धस्वभाव, अशुद्धस्वभाव और उपचरित स्वभाव ये दस विशेष स्वभाव हैं। कुल मिलकर 21 स्वभाव हैं। इनमें से जीव व पुद्गल में 21 के 21 हैं। प्रश्न–(जीव में अचेतन स्वभाव, मूर्तस्वभाव और एकप्रदेश स्वभाव कैसे संभव है)। उत्तर–असद्भूत व्यवहारनय से जीव में अचेतन व मूर्त स्वभाव भी संभव है क्योंकि संसारावस्था में यह अचेतन व मूर्त शरीर से बद्ध रहता है। एक प्रदेशस्वभाव भाव की अपेक्षा से है। वर्तमान पर्यायाक्रांत वस्तु को भाव कहते हैं। सूक्ष्मता की अपेक्षा वह एकप्रदेशी कहा जा सकता है।<br /> | ||
4. द्रव्योंमें मूर्तामूर्तकी अपेक्षा विभाजन-देखें [[ द्रव्य#3 | द्रव्य - 3]]; <br> | <p class="HindiText"><b>3. जीव का अमूर्तत्व निर्देश-</b> | ||
5. अमूर्त | <span class="GRef"> भावपाहुड़/ मूल/148</span><span class="PrakritGatha"> कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य। दंसणणाणुवओगो णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं।148। </span><p class="HindiText">=जीव कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तीक है, शरीरप्रमाण है, अनादि-निधन है, दर्शन ज्ञान उपयोगमयी है, ऐसा जिनवरेंद्र द्वारा निर्दिष्ट है। </span><br /> | ||
6. अमूर्त | <p class="HindiText">देखें [[ जीव#3 | जीव - 3]]; <br> | ||
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<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/97 </span><span class="PrakritText">आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा। मुत्तं पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु।</span> <p class="HindiText">=आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म अमूर्त हैं। पुद्गलद्रव्य मूर्त है। <span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/5/5 )</span> <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/28 )</span> <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/ अधिकार 2 की चूलिका/77/2)</span> <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/18 )</span>।</span><br /> | |||
<p class="HindiText">-देखें [[ द्रव्य#3 | द्रव्य - 3]]; <br> | |||
<p class="HindiText"><b>5. अमूर्त जीव से मूर्तकर्म कैसे बंधे</b></p> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2,7/161/9 </span><span class="SanskritText">न चामूर्ते: कर्मणां बंधो युज्यत इति । तन्न; अनेकांतात् । नायमेकांतः अमूर्तिरेवात्मेति । कर्मबंधपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्तः । शुद्धस्वरूपापेक्ष्या स्यादमूर्तः ।</span> <p class="HindiText">=<strong>प्रश्न - </strong>अमूर्त आत्मा के कर्मों का बंध नहीं बनता है ? <br> | |||
<strong>उत्तर-</strong> आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकांत है । यह कोई एकांत नहीं कि आत्मा अमूर्ति ही है । कर्म बंधरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है । <span class="GRef">( तत्त्वसार/5/16 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/27 )</span>, <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/1 )</span> ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,3,12/11/9 </span><span class="PrakritText">जीव-पोग्गलदव्वाणममुत्त-मुत्ताणं कधमेयत्तेण संबंधो । ण एस दोसो, संसारावत्थाए जीवाणमसुत्तत्ताभावादो । जदि संसारावत्थाए मुत्तो जीवो, कधं णिव्वुओ संतो अमुत्तत्त- मल्लियइ । ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबंधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्स वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभावसिद्धीदो ।</span> <p class="HindiText">=<strong>प्रश्न -</strong> जीवद्रव्य अमूर्त है और पुद्गलद्रव्य मूर्त है । इनका एकमेक संबंध कैसे हो सकता है ?<br> | |||
<strong>उत्तर-</strong> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसारअवस्था में जीवों के अमूर्तपना नहीं पाया जाता । <br> | |||
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<strong>प्रश्न -</strong> यदि संसारअवस्था में जीव मूर्त हैं, तो मुक्त होने पर वह अमूर्तपने को कैसे प्राप्त हो सकता है ? <br> | |||
<strong>उत्तर-</strong> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव में मूर्तत्व का कारण कर्म है अत: कर्म का अभाव होने पर तज्जनित मूर्तत्व का भी अभाव हो जाता है और इसलिए सिद्ध जीवों के अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है । <span class="GRef">( योगसार (अमितगति)/4/35 )</span> ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,63/333/6 </span><span class="PrakritText">मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो ।</span><p class="HindiText">=क्योंकि संसारी जीव मूर्तआठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बंधन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । <span class="GRef">( धवला 15/32/8 )</span> ।</span><br /> | |||
<p class="HindiText">-देखें [[ बंध#2 | बंध - 2]]; <br> | |||
<p class="HindiText"><b>6. अमूर्त द्रव्यों के साथ मूर्त द्रव्यों का स्पर्श कैसे संभव है </b></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 4/1,4,1/143/3 </span><span class="PrakritText">अमुत्तेण आगासेण सह सेसदव्वाणं मुत्ताणममुत्ताणं वा कधं पोसो। ण एस दोसो, अवगेज्झावगाहभावस्सेव उवयारेण फासववएसादो, सत्त-पमेयत्तादिणा अण्णोण्णसमाणत्तणेण वा।... अमुत्तेण कालदव्वेण सेसदव्वाणं जदि वि पासो णत्थि, परिणामिज्जमाणाणि सेसदव्वाणि परिणत्तेण कालेण पुसिदाणि त्ति उवयारेण कालफोसणं वुच्चदे।</span><p class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>-अमूर्तआकाश के साथ शेष अमूर्त और मूर्त द्रव्यों का स्पर्श कैसे संभव है ? | |||
<strong>उत्तर</strong>-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अवगाह्य अवगाहक भाव को ही उपचार से स्पर्श संज्ञा प्राप्त है, अथवा सत्त्व प्रमेयत्व आदि के द्वारा मूर्त द्रव्य के साथ अमूर्त द्रव्य की परस्पर समानता होने से भी स्पर्श का व्यवहार बन जाता है।...यद्यपि अमूर्त काल द्रव्य के साथ शेष द्रव्यों का स्पर्शन नहीं है, तथापि परिणमित होने वाले शेष द्रव्य परिणामत्व की अपेक्षा काल से स्पर्शित हैं, इस प्रकार से उपचार से काल स्पर्शन कहा जाता है।</span></p> | |||
<p class="HindiText">-देखें [[ स्पर्श#2 | स्पर्श - 2]]</p> | |||
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<div class="HindiText"> <p> सौधर्मेंद्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.187 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> सौधर्मेंद्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.187 </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. गणित संबंधी अर्थ ( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो / प्रस्तावना 105) Abstract
2. अमूर्तत्व सामान्य व अमूर्तत्व शक्ति
आलापपद्धति/6 मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमूर्तत्वं रूपादिरहितत्वम् इति गुणानां व्युत्पत्तिः ।
=मूर्त द्रव्य का भाव मूर्तत्व है अर्थात् रूपादिमान् होना ही मूर्तत्व है । इसी प्रकार अमूर्त द्रव्यों का भाव अमूर्तत्व है अर्थात् रूपादि रहित होना ही अमूर्तत्व है ।
-देखें मूर्तः - 3.
आलापपद्धति/4 स्वभावा: कथ्यंते–अस्तिस्वभाव:, नास्तिस्वभाव:, नित्यस्वभाव:, अनित्यस्वभाव:, एकस्वभाव:, अनेकस्वभाव:, भेदस्वभाव:, अभेदस्वभाव:, भव्यस्वभाव:, अभव्यस्वभाव:, परमस्वभाव:–द्रव्याणामेकादशसामान्यस्वभावा:। चेतनस्वभाव:, अचेतनस्वभाव:, मूर्तस्वभाव:, अमूर्तस्वभाव:, एकप्रदेशस्वभाव:, अनेकप्रदेशस्वभाव:, विभावस्वभाव:, शुद्धस्वभाव:, अशुद्धस्वभाव:, उपचरितस्वभाव:–एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावा:। जीवपुद्गलयोरेकविंशति:। ‘एकविंशतिभावा: स्युर्जीवपुद्गलयोर्मता:।‘ टिप्पणी–जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणाचेतनस्वभाव:, जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्तत्वस्वभाव:। तत्कालपर्ययाक्रांतं वस्तुभावोऽभिधीयते। तस्य एकप्रदेशसंभवात् ।
=स्वभावों का कथन करते हैं–अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भेदस्वभाव, अभेदस्वभाव, भव्यस्वभाव, अभव्यस्वभाव, और परमस्वभाव ये ग्यारह सामान्य स्वभाव हैं। और–चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव, एकप्रदेशस्वभाव, अनेकप्रदेशस्वभाव, विभावस्वभाव, शुद्धस्वभाव, अशुद्धस्वभाव और उपचरित स्वभाव ये दस विशेष स्वभाव हैं। कुल मिलकर 21 स्वभाव हैं। इनमें से जीव व पुद्गल में 21 के 21 हैं। प्रश्न–(जीव में अचेतन स्वभाव, मूर्तस्वभाव और एकप्रदेश स्वभाव कैसे संभव है)। उत्तर–असद्भूत व्यवहारनय से जीव में अचेतन व मूर्त स्वभाव भी संभव है क्योंकि संसारावस्था में यह अचेतन व मूर्त शरीर से बद्ध रहता है। एक प्रदेशस्वभाव भाव की अपेक्षा से है। वर्तमान पर्यायाक्रांत वस्तु को भाव कहते हैं। सूक्ष्मता की अपेक्षा वह एकप्रदेशी कहा जा सकता है।
3. जीव का अमूर्तत्व निर्देश- भावपाहुड़/ मूल/148 कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य। दंसणणाणुवओगो णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं।148।
=जीव कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तीक है, शरीरप्रमाण है, अनादि-निधन है, दर्शन ज्ञान उपयोगमयी है, ऐसा जिनवरेंद्र द्वारा निर्दिष्ट है।
देखें जीव - 3;
4. द्रव्योंमें मूर्तामूर्तकी अपेक्षा विभाजन
पंचास्तिकाय/97 आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा। मुत्तं पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु।
=आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म अमूर्त हैं। पुद्गलद्रव्य मूर्त है। ( तत्त्वार्थसूत्र/5/5 ) ( वसुनंदी श्रावकाचार/28 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/ अधिकार 2 की चूलिका/77/2) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/18 )।
-देखें द्रव्य - 3;
5. अमूर्त जीव से मूर्तकर्म कैसे बंधे
सर्वार्थसिद्धि/2,7/161/9 न चामूर्ते: कर्मणां बंधो युज्यत इति । तन्न; अनेकांतात् । नायमेकांतः अमूर्तिरेवात्मेति । कर्मबंधपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्तः । शुद्धस्वरूपापेक्ष्या स्यादमूर्तः ।
=प्रश्न - अमूर्त आत्मा के कर्मों का बंध नहीं बनता है ?
उत्तर- आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकांत है । यह कोई एकांत नहीं कि आत्मा अमूर्ति ही है । कर्म बंधरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है । ( तत्त्वसार/5/16 ), ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/27 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/1 ) ।
धवला 13/5,3,12/11/9 जीव-पोग्गलदव्वाणममुत्त-मुत्ताणं कधमेयत्तेण संबंधो । ण एस दोसो, संसारावत्थाए जीवाणमसुत्तत्ताभावादो । जदि संसारावत्थाए मुत्तो जीवो, कधं णिव्वुओ संतो अमुत्तत्त- मल्लियइ । ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबंधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्स वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभावसिद्धीदो ।
=प्रश्न - जीवद्रव्य अमूर्त है और पुद्गलद्रव्य मूर्त है । इनका एकमेक संबंध कैसे हो सकता है ?
उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसारअवस्था में जीवों के अमूर्तपना नहीं पाया जाता ।
प्रश्न - यदि संसारअवस्था में जीव मूर्त हैं, तो मुक्त होने पर वह अमूर्तपने को कैसे प्राप्त हो सकता है ?
उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव में मूर्तत्व का कारण कर्म है अत: कर्म का अभाव होने पर तज्जनित मूर्तत्व का भी अभाव हो जाता है और इसलिए सिद्ध जीवों के अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है । ( योगसार (अमितगति)/4/35 ) ।
धवला 13/5,5,63/333/6 मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो ।
=क्योंकि संसारी जीव मूर्तआठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बंधन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । ( धवला 15/32/8 ) ।
-देखें बंध - 2;
6. अमूर्त द्रव्यों के साथ मूर्त द्रव्यों का स्पर्श कैसे संभव है
धवला 4/1,4,1/143/3 अमुत्तेण आगासेण सह सेसदव्वाणं मुत्ताणममुत्ताणं वा कधं पोसो। ण एस दोसो, अवगेज्झावगाहभावस्सेव उवयारेण फासववएसादो, सत्त-पमेयत्तादिणा अण्णोण्णसमाणत्तणेण वा।... अमुत्तेण कालदव्वेण सेसदव्वाणं जदि वि पासो णत्थि, परिणामिज्जमाणाणि सेसदव्वाणि परिणत्तेण कालेण पुसिदाणि त्ति उवयारेण कालफोसणं वुच्चदे।
=प्रश्न-अमूर्तआकाश के साथ शेष अमूर्त और मूर्त द्रव्यों का स्पर्श कैसे संभव है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अवगाह्य अवगाहक भाव को ही उपचार से स्पर्श संज्ञा प्राप्त है, अथवा सत्त्व प्रमेयत्व आदि के द्वारा मूर्त द्रव्य के साथ अमूर्त द्रव्य की परस्पर समानता होने से भी स्पर्श का व्यवहार बन जाता है।...यद्यपि अमूर्त काल द्रव्य के साथ शेष द्रव्यों का स्पर्शन नहीं है, तथापि परिणमित होने वाले शेष द्रव्य परिणामत्व की अपेक्षा काल से स्पर्शित हैं, इस प्रकार से उपचार से काल स्पर्शन कहा जाता है।
-देखें स्पर्श - 2
पुराणकोष से
सौधर्मेंद्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.187