वर्ण: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> वर्ण का अनेकों अर्थों में प्रयोग </strong><br /> | <li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> वर्ण का अनेकों अर्थों में प्रयोग </strong><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/20/178/1 </span><span class="SanskritText">वर्ण्यत इति वर्णः ।... वर्णनं वर्णः । </span>=<span class="HindiText"> जो देखा जाता है वह वर्ण है, अथवा वर्णन वर्ण है । | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/20/178/1 </span><span class="SanskritText">वर्ण्यत इति वर्णः ।... वर्णनं वर्णः । </span>=<span class="HindiText"> जो देखा जाता है वह वर्ण है, अथवा वर्णन वर्ण है । <span class="GRef">( राजवार्तिक 2/20/1/132/32 )</span> । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/23/294/1 </span><span class="SanskritText">वर्ण्यते वर्णनमात्रं वा वर्णः । </span>=<span class="HindiText"> जिसका कोई वर्ण है या वर्णन मात्र को वर्ण कहते हैं । </span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/23/294/1 </span><span class="SanskritText">वर्ण्यते वर्णनमात्रं वा वर्णः । </span>=<span class="HindiText"> जिसका कोई वर्ण है या वर्णन मात्र को वर्ण कहते हैं । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 33/546/1 </span><span class="SanskritText"> अयं वर्णशब्दः कर्मसाधनः । यथा यदा द्रव्यं प्रधान्येन विवक्षितं तदेंद्रियेण द्रव्यमेव संनिकर्ष्यते, न ततो व्यतिरित्तः स्पर्शादयः संतीत्येतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं स्पर्शादीनामवसीयते, वर्ण्यत इति वर्णः । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेरौदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनत्वं स्पर्शादीनां युज्यते वर्णनं वर्णः ।</span> = <span class="HindiText">यह वर्ण शब्द कर्मसाधन है । जैसे जिस समय प्रधानरूप से द्रव्य विवक्षित होता है, उस समय इंद्रिय से द्रव्य का ही ग्रहण होता है, क्योंकि उससे भिन्न स्पर्श (वर्णादि) पर्यायें नहीं पायी जाती हैं । इसलिए इस विवक्षा में स्पर्शादि के कर्म साधन जाना जाता है । उस समय जो देखा जाये उसे वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति करना चाहिए । तथा जिस समय पर्याय प्रधान रूप से विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद बन जाता है, इसलिए उदासीन रूप से अवस्थित जो भाव है, उसी का कथन किया जाता है । अतएव स्पर्शादि के भाव साधन भी बन जाता है । उस समय देखने रूप धर्म को वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति होती है । </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 33/546/1 </span><span class="SanskritText"> अयं वर्णशब्दः कर्मसाधनः । यथा यदा द्रव्यं प्रधान्येन विवक्षितं तदेंद्रियेण द्रव्यमेव संनिकर्ष्यते, न ततो व्यतिरित्तः स्पर्शादयः संतीत्येतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं स्पर्शादीनामवसीयते, वर्ण्यत इति वर्णः । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेरौदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनत्वं स्पर्शादीनां युज्यते वर्णनं वर्णः ।</span> = <span class="HindiText">यह वर्ण शब्द कर्मसाधन है । जैसे जिस समय प्रधानरूप से द्रव्य विवक्षित होता है, उस समय इंद्रिय से द्रव्य का ही ग्रहण होता है, क्योंकि उससे भिन्न स्पर्श (वर्णादि) पर्यायें नहीं पायी जाती हैं । इसलिए इस विवक्षा में स्पर्शादि के कर्म साधन जाना जाता है । उस समय जो देखा जाये उसे वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति करना चाहिए । तथा जिस समय पर्याय प्रधान रूप से विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद बन जाता है, इसलिए उदासीन रूप से अवस्थित जो भाव है, उसी का कथन किया जाता है । अतएव स्पर्शादि के भाव साधन भी बन जाता है । उस समय देखने रूप धर्म को वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति होती है । </span><br /> | ||
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देखें [[ निक्षेप#5.9 | निक्षेप - 5.9 ]](चित्रित मनुष्य तुरंग आदि आकार वर्ण कहे जाते हैं ।) <br /> | देखें [[ निक्षेप#5.9 | निक्षेप - 5.9 ]](चित्रित मनुष्य तुरंग आदि आकार वर्ण कहे जाते हैं ।) <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">वर्ण नामकर्म का लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/11 </span><span class="SanskritText"> यद्धेतुको वर्णविभागस्तद्वर्णनाम । </span>= <span class="HindiText">जिसके निमित्त से वर्ण में विभाग होता है, वह वर्ण नामकर्म है । | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/11 </span><span class="SanskritText"> यद्धेतुको वर्णविभागस्तद्वर्णनाम । </span>= <span class="HindiText">जिसके निमित्त से वर्ण में विभाग होता है, वह वर्ण नामकर्म है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/11/10/577/17 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/29/13 )</span> । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 28/55/1 </span><span class="PrakritText"> जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे वण्णणिप्फत्ती होदि, तस्स कम्मक्खंधस्स वण्णसण्णा । एदस्स कम्मस्साभावे अणियदवण्णं सरीररं होज्ज । ण च एवं, भमर-कलयंठी-हंस-बलायादिसु सुणियदवण्णुवलंभा । </span>=<span class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में वर्ण की उत्पत्ति होती है, उस कर्मस्कंध की ‘वर्ण’ यह संज्ञा है । इस कर्म के अभाव में अनियत वर्ण वाला शरीर हो जायेगा । किंतु, ऐसा देखा नहीं जाता । क्योंकि भौंरा, कोयल, हंस और बगुला आदि में सुनिश्चित वर्ण पाये जाते हैं । | <span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 28/55/1 </span><span class="PrakritText"> जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे वण्णणिप्फत्ती होदि, तस्स कम्मक्खंधस्स वण्णसण्णा । एदस्स कम्मस्साभावे अणियदवण्णं सरीररं होज्ज । ण च एवं, भमर-कलयंठी-हंस-बलायादिसु सुणियदवण्णुवलंभा । </span>=<span class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में वर्ण की उत्पत्ति होती है, उस कर्मस्कंध की ‘वर्ण’ यह संज्ञा है । इस कर्म के अभाव में अनियत वर्ण वाला शरीर हो जायेगा । किंतु, ऐसा देखा नहीं जाता । क्योंकि भौंरा, कोयल, हंस और बगुला आदि में सुनिश्चित वर्ण पाये जाते हैं । <span class="GRef">( धवला 13/5, 5, 101/364/6 )</span> । </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">वर्ण व वर्ण नामकर्म के भेद </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 37/74</span> <span class="PrakritText">जं तं वण्णणामकम्मं तं पंचविहं, किण्हवण्णणामं णीलवण्णणामं रुहिरवण्णणामं हालिद्दवण्णणामं सुक्किलवण्णणामं चेदि ।37। </span>= <span class="HindiText">जो वर्ण नामकर्म है, वह पाँच प्रकार का है-कृष्णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रुधिरवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्लवर्ण नामकर्म । | <span class="GRef">षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 37/74</span> <span class="PrakritText">जं तं वण्णणामकम्मं तं पंचविहं, किण्हवण्णणामं णीलवण्णणामं रुहिरवण्णणामं हालिद्दवण्णणामं सुक्किलवण्णणामं चेदि ।37। </span>= <span class="HindiText">जो वर्ण नामकर्म है, वह पाँच प्रकार का है-कृष्णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रुधिरवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्लवर्ण नामकर्म । <span class="GRef">(षट्खण्डागम/13/5/सूत्र 110/370)</span>; <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/47/30 )</span>; <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/12 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/11/10/577/18 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/32 /26/1; 33/29/13 )</span> । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/33/294/2 </span><span class="SanskritText">स पंचविधः; कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् ।</span> = <span class="HindiText">काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद सेवर्ण पाँच प्रकार का है । | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/33/294/2 </span><span class="SanskritText">स पंचविधः; कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् ।</span> = <span class="HindiText">काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद सेवर्ण पाँच प्रकार का है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/23/10/485/3 )</span>; <span class="GRef">(पंचसंग्रह प्राकृत टीका/1/21/26/1)</span>; <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका 7/ 19/9 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/479/885/15 )</span> । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> नामकर्मों के वर्णादि सकारण हैं या निष्कारण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 28/57/4 </span><span class="PrakritText">वण्ण-गंध-रस-फासकम्माणं वण्ण गंध-रस-पासा सकारणा णिक्कारणा वा । पढमपक्खे अणवत्था । विदियपक्खे सेसणोकम्म-गंध-रस-फासा वि णिक्कारणा होंतु, विसेसाभावा । एत्थ परिहारो उच्चदे-ण पढमे पक्खे उत्तदोसो, अणब्भुवगमादो । ण विदियपक्खदोसो वि, कालदव्वं व दुस्सहावत्तदो एदेसिमुभयत्थ वावारवि-रोहाभावा ।</span> =<strong> <span class="HindiText">प्रश्न - </span></strong><span class="HindiText">वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नामकर्मों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श सकारण होते हैं, या निष्कारण । प्रथम पक्ष में अनवस्था दोष आता है । (क्योंकि जिस अन्य कर्म के कारण ये कर्म वर्णादिमान होंगे, वह स्वयं किसी अन्य ही कर्म के निमित्त से वर्णादिमान होगा) । द्वितीय पक्ष के मानने पर शेष नोकर्मों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी निष्कारण होने चाहिए (अर्थात् उन्हें वर्णादिमान करने के लिए वर्णादि नामकर्मों का निमित्त मानना व्यर्थ है), क्योंकि दोनों में कोई भेद नहीं हैं? <strong>उत्तर -</strong> यहाँ पर उक्त शंका का परिहार कहते हैं - प्रथम पक्ष में कहा गया अनवस्थादोष तो प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वैसा माना नहीं गया है । (अर्थात् वर्णादि नाम कर्मों को वर्णादिमान करने के लिए अन्य वर्णादि कर्म माने नहीं गये हैं ।) न द्वितीय पक्ष में दिया गया दोष भी प्राप्त होता है, क्योंकि कालद्रव्य के समान द्विस्वभावी होने से इन वर्णादिक के उभयत्र व्यापार करने में कोई विरोध नहीं है । (अर्थात् जिस प्रकार काल द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभावी होता हुआ अन्य द्रव्यों के भी परिणमन में कारण होता है उसी प्रकार वर्णादि नाम कर्म स्वयं वर्णादिमान होते हुए ही नोकर्मभूत शरीरों के वर्णादि में कारण होते हैं ।) । <br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 28/57/4 </span><span class="PrakritText">वण्ण-गंध-रस-फासकम्माणं वण्ण गंध-रस-पासा सकारणा णिक्कारणा वा । पढमपक्खे अणवत्था । विदियपक्खे सेसणोकम्म-गंध-रस-फासा वि णिक्कारणा होंतु, विसेसाभावा । एत्थ परिहारो उच्चदे-ण पढमे पक्खे उत्तदोसो, अणब्भुवगमादो । ण विदियपक्खदोसो वि, कालदव्वं व दुस्सहावत्तदो एदेसिमुभयत्थ वावारवि-रोहाभावा ।</span> =<strong> <span class="HindiText">प्रश्न - </span></strong><span class="HindiText">वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नामकर्मों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श सकारण होते हैं, या निष्कारण । प्रथम पक्ष में अनवस्था दोष आता है । (क्योंकि जिस अन्य कर्म के कारण ये कर्म वर्णादिमान होंगे, वह स्वयं किसी अन्य ही कर्म के निमित्त से वर्णादिमान होगा) । द्वितीय पक्ष के मानने पर शेष नोकर्मों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी निष्कारण होने चाहिए (अर्थात् उन्हें वर्णादिमान करने के लिए वर्णादि नामकर्मों का निमित्त मानना व्यर्थ है), क्योंकि दोनों में कोई भेद नहीं हैं? <strong>उत्तर -</strong> यहाँ पर उक्त शंका का परिहार कहते हैं - प्रथम पक्ष में कहा गया अनवस्थादोष तो प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वैसा माना नहीं गया है । (अर्थात् वर्णादि नाम कर्मों को वर्णादिमान करने के लिए अन्य वर्णादि कर्म माने नहीं गये हैं ।) न द्वितीय पक्ष में दिया गया दोष भी प्राप्त होता है, क्योंकि कालद्रव्य के समान द्विस्वभावी होने से इन वर्णादिक के उभयत्र व्यापार करने में कोई विरोध नहीं है । (अर्थात् जिस प्रकार काल द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभावी होता हुआ अन्य द्रव्यों के भी परिणमन में कारण होता है उसी प्रकार वर्णादि नाम कर्म स्वयं वर्णादिमान होते हुए ही नोकर्मभूत शरीरों के वर्णादि में कारण होते हैं ।) । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5">अन्य संबंधित विषय </strong><br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1">(1) शरीर-स्वर का एक भेद । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 19.148 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) शरीर-स्वर का एक भेद । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_19#148|हरिवंशपुराण - 19.148]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) पदगत-गांधर्व की एक विधि । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 19.149 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) पदगत-गांधर्व की एक विधि । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_19#149|हरिवंशपुराण - 19.149]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) वीणा का एक स्वर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 19.147 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) वीणा का एक स्वर । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_19#147|हरिवंशपुराण - 19.147]] </span></p> | ||
<p id="4">(4) कौशिक नगरी का राजा । इसकी रानी प्रभावती और पुत्री कुसुमकोमला थी । पांडवपुराण में इस राजा की रानी प्रभाकरी तथा पुत्री कमला बतायी गयी है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 45.61-62, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 13. 4-7 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) कौशिक नगरी का राजा । इसकी रानी प्रभावती और पुत्री कुसुमकोमला थी । पांडवपुराण में इस राजा की रानी प्रभाकरी तथा पुत्री कमला बतायी गयी है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_45#61|हरिवंशपुराण - 45.61-62]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 13. 4-7 </span></p> | ||
<p id="5">(5) एक जाति भेद । आरंभ में मात्र एक मनुष्य जाति ही थी । कालांतर में आजीविका भेद से वह चार भार भागों में विभाजित हुई― ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इनमें व्रतों से सुसंस्कृत मनुष्य ब्राह्मण, शस्त्र से आजीविका करने वाले क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धनार्जन करने वाले वैश्य और निम्नवृत्ति से आजीविका करने वाले शूद्र कहे गये । चारों वर्णों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों को आदि तीर्थंकर वृषभदेव ने सृजा था । उन्होने शूद्र वर्ण को दो भागों में विभाजित किया था । जो वर्ण स्पृश्य माना गया था उसे इन्होंने ‘‘कारू’’ संज्ञा दी और जिस वर्ण के लोग अस्पृश्य माने गये उन्होंने ‘‘अकारू’’ कहा है तथा इनका प्रजा से दूर गाँव के बाहर रहना बताया है । ब्राह्मण वर्ण इनके बाद सृजित हुआ । चक्रवर्ती भरतेश ने राजाओं को साक्षीपूर्वक अच्छे व्रत धारण करने वाले उत्तम मनुष्यों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण बनाया था । भरतेश ने दिग्विजय के पश्चात् परोपकार में अपना धन खर्च करने की बुद्धि से महामह पूजोत्सव किया था । सद्व्रतियों की परीक्षा के लिए उन्होने इस उत्सव में सभी को निमंत्रित किया । इधर अपने प्रांगण में अंकुर, फल और पुष्प बिलवा दिये । जो बिना सोचे-समझे अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में आये, भरतेश ने उन्हें पृथक कर दिया और जो अंकुरों पर पैर रखने के भय से लौटने लगे थे उन्हें दूसरे मार्ग से लाकर उन्होने उनका सम्मान किया । उन्होंने उन्हें प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञोपवीत से चिह्नित किया तथा पूजा, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन छ: प्रकार की विशुद्धि-वृत्ति के कारण उन्हें द्विज संज्ञा दी । भरतेश का सम्मान पाकर इस वर्ण में अभिमान जागा । वे अपने को महान् समझकर पृथिवीतल पर याचना करते हुए विचरण करने लगे । अपने मंत्री से इनके भविष्य में भ्रष्टाचारी होने की संभावना सुनकर चक्रवर्ती भरतेश इन्हें मारने के लिए उद्यत हुए, किंतु ये सब वृषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे, जिससे वृषभदेव द्वारा रोके जाने पर भरतेश इनका वध नहीं कर सके । ऊपर जिन चार वर्णों का उल्लेख किया गया है उनमें जिनकी जाति और गोत्र आदि कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं वे तीन वर्ण हैं― ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का विच्छेद नहीं होता परंतु भरत में तथा ऐरावतक्षेत्र में चतुर्थ काल में ही इन वर्णों की परंपरा चलती है अन्य कालों में नहीं । भोगभूमि में ऐसा कोई वर्ण भेद नहीं होता । वहाँ पुरुष स्त्री को आर्या तथा स्त्री पुरुष को आर्य कहती है । असि-मसि आदि छ: कर्म भी वहाँ नहीं होते और न वहाँ सेव्य सेवक का संबंध होता है । अपने वर्ण अथवा नीचे के वर्णों की कन्या का ग्रहण करना वर्ण व्यवस्था में उचित माना गया है । <span class="GRef"> महापुराण 16.183-186, 247, 38.5-50, 40.221, 42.3-4, 12-13, 74.491-495, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 4.111-112, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.102-103, 9. 39 </span></p> | <p id="5" class="HindiText">(5) एक जाति भेद । आरंभ में मात्र एक मनुष्य जाति ही थी । कालांतर में आजीविका भेद से वह चार भार भागों में विभाजित हुई― ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इनमें व्रतों से सुसंस्कृत मनुष्य ब्राह्मण, शस्त्र से आजीविका करने वाले क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धनार्जन करने वाले वैश्य और निम्नवृत्ति से आजीविका करने वाले शूद्र कहे गये । चारों वर्णों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों को आदि तीर्थंकर वृषभदेव ने सृजा था । उन्होने शूद्र वर्ण को दो भागों में विभाजित किया था । जो वर्ण स्पृश्य माना गया था उसे इन्होंने ‘‘कारू’’ संज्ञा दी और जिस वर्ण के लोग अस्पृश्य माने गये उन्होंने ‘‘अकारू’’ कहा है तथा इनका प्रजा से दूर गाँव के बाहर रहना बताया है । ब्राह्मण वर्ण इनके बाद सृजित हुआ । चक्रवर्ती भरतेश ने राजाओं को साक्षीपूर्वक अच्छे व्रत धारण करने वाले उत्तम मनुष्यों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण बनाया था । भरतेश ने दिग्विजय के पश्चात् परोपकार में अपना धन खर्च करने की बुद्धि से महामह पूजोत्सव किया था । सद्व्रतियों की परीक्षा के लिए उन्होने इस उत्सव में सभी को निमंत्रित किया । इधर अपने प्रांगण में अंकुर, फल और पुष्प बिलवा दिये । जो बिना सोचे-समझे अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में आये, भरतेश ने उन्हें पृथक कर दिया और जो अंकुरों पर पैर रखने के भय से लौटने लगे थे उन्हें दूसरे मार्ग से लाकर उन्होने उनका सम्मान किया । उन्होंने उन्हें प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञोपवीत से चिह्नित किया तथा पूजा, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन छ: प्रकार की विशुद्धि-वृत्ति के कारण उन्हें द्विज संज्ञा दी । भरतेश का सम्मान पाकर इस वर्ण में अभिमान जागा । वे अपने को महान् समझकर पृथिवीतल पर याचना करते हुए विचरण करने लगे । अपने मंत्री से इनके भविष्य में भ्रष्टाचारी होने की संभावना सुनकर चक्रवर्ती भरतेश इन्हें मारने के लिए उद्यत हुए, किंतु ये सब वृषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे, जिससे वृषभदेव द्वारा रोके जाने पर भरतेश इनका वध नहीं कर सके । ऊपर जिन चार वर्णों का उल्लेख किया गया है उनमें जिनकी जाति और गोत्र आदि कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं वे तीन वर्ण हैं― ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का विच्छेद नहीं होता परंतु भरत में तथा ऐरावतक्षेत्र में चतुर्थ काल में ही इन वर्णों की परंपरा चलती है अन्य कालों में नहीं । भोगभूमि में ऐसा कोई वर्ण भेद नहीं होता । वहाँ पुरुष स्त्री को आर्या तथा स्त्री पुरुष को आर्य कहती है । असि-मसि आदि छ: कर्म भी वहाँ नहीं होते और न वहाँ सेव्य सेवक का संबंध होता है । अपने वर्ण अथवा नीचे के वर्णों की कन्या का ग्रहण करना वर्ण व्यवस्था में उचित माना गया है । <span class="GRef"> महापुराण 16.183-186, 247, 38.5-50, 40.221, 42.3-4, 12-13, 74.491-495, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_4#111|पद्मपुराण - 4.111-112]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#102|हरिवंशपुराण - 7.102-103]], 9. 39 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- वर्ण का अनेकों अर्थों में प्रयोग
सर्वार्थसिद्धि/2/20/178/1 वर्ण्यत इति वर्णः ।... वर्णनं वर्णः । = जो देखा जाता है वह वर्ण है, अथवा वर्णन वर्ण है । ( राजवार्तिक 2/20/1/132/32 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/5/23/294/1 वर्ण्यते वर्णनमात्रं वा वर्णः । = जिसका कोई वर्ण है या वर्णन मात्र को वर्ण कहते हैं ।
धवला 1/1, 1, 33/546/1 अयं वर्णशब्दः कर्मसाधनः । यथा यदा द्रव्यं प्रधान्येन विवक्षितं तदेंद्रियेण द्रव्यमेव संनिकर्ष्यते, न ततो व्यतिरित्तः स्पर्शादयः संतीत्येतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं स्पर्शादीनामवसीयते, वर्ण्यत इति वर्णः । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेरौदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनत्वं स्पर्शादीनां युज्यते वर्णनं वर्णः । = यह वर्ण शब्द कर्मसाधन है । जैसे जिस समय प्रधानरूप से द्रव्य विवक्षित होता है, उस समय इंद्रिय से द्रव्य का ही ग्रहण होता है, क्योंकि उससे भिन्न स्पर्श (वर्णादि) पर्यायें नहीं पायी जाती हैं । इसलिए इस विवक्षा में स्पर्शादि के कर्म साधन जाना जाता है । उस समय जो देखा जाये उसे वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति करना चाहिए । तथा जिस समय पर्याय प्रधान रूप से विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद बन जाता है, इसलिए उदासीन रूप से अवस्थित जो भाव है, उसी का कथन किया जाता है । अतएव स्पर्शादि के भाव साधन भी बन जाता है । उस समय देखने रूप धर्म को वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति होती है ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/160/1 वर्णशब्दः क्कचिद्रूपवाची शुक्लवर्णमानय शुक्लरूपमिति । अक्षरवाची क्कचिद्यथा सिद्धो वर्णसमाम्नायः इति । क्कचित् ब्राह्मणादौ यथात्रेव वर्णानामधिकार इति । क्कचिद्यशसिवर्णार्थी ददाति । = वर्ण शब्द के अनेक अर्थ हैं । वर्ण-शुक्लादिक वर्ण, जैसे सफेद रंग को लाओ । वर्ण शब्द का अर्थ अक्षर ऐसा भी होता है, जैसे वर्णों का समुदाय अनादि काल से है । वर्ण शब्द का अर्थ ब्राह्मण आदिक ऐसा भी है । यथा-इस कार्य में ही ब्राह्मणादिक वर्णों का अधिकार है । यहाँ पर वर्ण शब्द का अर्थ यश ऐसा माना जाता है । जैसे-यश की कामना से देता है ।
देखें निक्षेप - 5.9 (चित्रित मनुष्य तुरंग आदि आकार वर्ण कहे जाते हैं ।)
- वर्ण नामकर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/11 यद्धेतुको वर्णविभागस्तद्वर्णनाम । = जिसके निमित्त से वर्ण में विभाग होता है, वह वर्ण नामकर्म है । ( राजवार्तिक/8/11/10/577/17 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/29/13 ) ।
धवला 6/1, 9-1, 28/55/1 जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे वण्णणिप्फत्ती होदि, तस्स कम्मक्खंधस्स वण्णसण्णा । एदस्स कम्मस्साभावे अणियदवण्णं सरीररं होज्ज । ण च एवं, भमर-कलयंठी-हंस-बलायादिसु सुणियदवण्णुवलंभा । = जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में वर्ण की उत्पत्ति होती है, उस कर्मस्कंध की ‘वर्ण’ यह संज्ञा है । इस कर्म के अभाव में अनियत वर्ण वाला शरीर हो जायेगा । किंतु, ऐसा देखा नहीं जाता । क्योंकि भौंरा, कोयल, हंस और बगुला आदि में सुनिश्चित वर्ण पाये जाते हैं । ( धवला 13/5, 5, 101/364/6 ) । - वर्ण व वर्ण नामकर्म के भेद
षट्खण्डागम 6/1, 9-1/सूत्र 37/74 जं तं वण्णणामकम्मं तं पंचविहं, किण्हवण्णणामं णीलवण्णणामं रुहिरवण्णणामं हालिद्दवण्णणामं सुक्किलवण्णणामं चेदि ।37। = जो वर्ण नामकर्म है, वह पाँच प्रकार का है-कृष्णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रुधिरवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्लवर्ण नामकर्म । (षट्खण्डागम/13/5/सूत्र 110/370); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/47/30 ); ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/12 ); ( राजवार्तिक/8/11/10/577/18 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/32 /26/1; 33/29/13 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/5/33/294/2 स पंचविधः; कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् । = काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद सेवर्ण पाँच प्रकार का है । ( राजवार्तिक/5/23/10/485/3 ); (पंचसंग्रह प्राकृत टीका/1/21/26/1); द्रव्यसंग्रह टीका 7/ 19/9 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/479/885/15 ) ।
- नामकर्मों के वर्णादि सकारण हैं या निष्कारण
धवला 6/1, 9-1, 28/57/4 वण्ण-गंध-रस-फासकम्माणं वण्ण गंध-रस-पासा सकारणा णिक्कारणा वा । पढमपक्खे अणवत्था । विदियपक्खे सेसणोकम्म-गंध-रस-फासा वि णिक्कारणा होंतु, विसेसाभावा । एत्थ परिहारो उच्चदे-ण पढमे पक्खे उत्तदोसो, अणब्भुवगमादो । ण विदियपक्खदोसो वि, कालदव्वं व दुस्सहावत्तदो एदेसिमुभयत्थ वावारवि-रोहाभावा । = प्रश्न - वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नामकर्मों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श सकारण होते हैं, या निष्कारण । प्रथम पक्ष में अनवस्था दोष आता है । (क्योंकि जिस अन्य कर्म के कारण ये कर्म वर्णादिमान होंगे, वह स्वयं किसी अन्य ही कर्म के निमित्त से वर्णादिमान होगा) । द्वितीय पक्ष के मानने पर शेष नोकर्मों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी निष्कारण होने चाहिए (अर्थात् उन्हें वर्णादिमान करने के लिए वर्णादि नामकर्मों का निमित्त मानना व्यर्थ है), क्योंकि दोनों में कोई भेद नहीं हैं? उत्तर - यहाँ पर उक्त शंका का परिहार कहते हैं - प्रथम पक्ष में कहा गया अनवस्थादोष तो प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वैसा माना नहीं गया है । (अर्थात् वर्णादि नाम कर्मों को वर्णादिमान करने के लिए अन्य वर्णादि कर्म माने नहीं गये हैं ।) न द्वितीय पक्ष में दिया गया दोष भी प्राप्त होता है, क्योंकि कालद्रव्य के समान द्विस्वभावी होने से इन वर्णादिक के उभयत्र व्यापार करने में कोई विरोध नहीं है । (अर्थात् जिस प्रकार काल द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभावी होता हुआ अन्य द्रव्यों के भी परिणमन में कारण होता है उसी प्रकार वर्णादि नाम कर्म स्वयं वर्णादिमान होते हुए ही नोकर्मभूत शरीरों के वर्णादि में कारण होते हैं ।) ।
- अन्य संबंधित विषय
- शरीर के वर्ण - देखें लेश्या ।
- वायु आदिक में वर्ण गुण की सिद्धि - देखें पुद्गल - 10 ।
- वर्णनामकर्म के बंध उदय सत्त्व - देखें वह वह नाम ।
- शरीर के वर्ण - देखें लेश्या ।
पुराणकोष से
(1) शरीर-स्वर का एक भेद । हरिवंशपुराण - 19.148
(2) पदगत-गांधर्व की एक विधि । हरिवंशपुराण - 19.149
(3) वीणा का एक स्वर । हरिवंशपुराण - 19.147
(4) कौशिक नगरी का राजा । इसकी रानी प्रभावती और पुत्री कुसुमकोमला थी । पांडवपुराण में इस राजा की रानी प्रभाकरी तथा पुत्री कमला बतायी गयी है । हरिवंशपुराण - 45.61-62, पांडवपुराण 13. 4-7
(5) एक जाति भेद । आरंभ में मात्र एक मनुष्य जाति ही थी । कालांतर में आजीविका भेद से वह चार भार भागों में विभाजित हुई― ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इनमें व्रतों से सुसंस्कृत मनुष्य ब्राह्मण, शस्त्र से आजीविका करने वाले क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धनार्जन करने वाले वैश्य और निम्नवृत्ति से आजीविका करने वाले शूद्र कहे गये । चारों वर्णों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों को आदि तीर्थंकर वृषभदेव ने सृजा था । उन्होने शूद्र वर्ण को दो भागों में विभाजित किया था । जो वर्ण स्पृश्य माना गया था उसे इन्होंने ‘‘कारू’’ संज्ञा दी और जिस वर्ण के लोग अस्पृश्य माने गये उन्होंने ‘‘अकारू’’ कहा है तथा इनका प्रजा से दूर गाँव के बाहर रहना बताया है । ब्राह्मण वर्ण इनके बाद सृजित हुआ । चक्रवर्ती भरतेश ने राजाओं को साक्षीपूर्वक अच्छे व्रत धारण करने वाले उत्तम मनुष्यों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण बनाया था । भरतेश ने दिग्विजय के पश्चात् परोपकार में अपना धन खर्च करने की बुद्धि से महामह पूजोत्सव किया था । सद्व्रतियों की परीक्षा के लिए उन्होने इस उत्सव में सभी को निमंत्रित किया । इधर अपने प्रांगण में अंकुर, फल और पुष्प बिलवा दिये । जो बिना सोचे-समझे अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में आये, भरतेश ने उन्हें पृथक कर दिया और जो अंकुरों पर पैर रखने के भय से लौटने लगे थे उन्हें दूसरे मार्ग से लाकर उन्होने उनका सम्मान किया । उन्होंने उन्हें प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञोपवीत से चिह्नित किया तथा पूजा, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन छ: प्रकार की विशुद्धि-वृत्ति के कारण उन्हें द्विज संज्ञा दी । भरतेश का सम्मान पाकर इस वर्ण में अभिमान जागा । वे अपने को महान् समझकर पृथिवीतल पर याचना करते हुए विचरण करने लगे । अपने मंत्री से इनके भविष्य में भ्रष्टाचारी होने की संभावना सुनकर चक्रवर्ती भरतेश इन्हें मारने के लिए उद्यत हुए, किंतु ये सब वृषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे, जिससे वृषभदेव द्वारा रोके जाने पर भरतेश इनका वध नहीं कर सके । ऊपर जिन चार वर्णों का उल्लेख किया गया है उनमें जिनकी जाति और गोत्र आदि कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं वे तीन वर्ण हैं― ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का विच्छेद नहीं होता परंतु भरत में तथा ऐरावतक्षेत्र में चतुर्थ काल में ही इन वर्णों की परंपरा चलती है अन्य कालों में नहीं । भोगभूमि में ऐसा कोई वर्ण भेद नहीं होता । वहाँ पुरुष स्त्री को आर्या तथा स्त्री पुरुष को आर्य कहती है । असि-मसि आदि छ: कर्म भी वहाँ नहीं होते और न वहाँ सेव्य सेवक का संबंध होता है । अपने वर्ण अथवा नीचे के वर्णों की कन्या का ग्रहण करना वर्ण व्यवस्था में उचित माना गया है । महापुराण 16.183-186, 247, 38.5-50, 40.221, 42.3-4, 12-13, 74.491-495, पद्मपुराण - 4.111-112, हरिवंशपुराण - 7.102-103, 9. 39