ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 45
From जैनकोष
अथानंतर किसी दिन यादवों के भानेज महापराक्रमी, राजा पांडु के पुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन, महाबलवान् भीमसेन, नकुल और सहदेव ये पांचों पांडव द्वारिकापुरी आये ॥1-2॥ इसी बीच महाराजा श्रेणिक ने हाथ जोड़कर गौतम गणधर से पूछा कि हे भगवन् ! पांडु और पांडव किसके वंश में उत्पन्न हुए हैं ? ॥3॥ गौतम स्वामी ने कहा कि पांडु और पांडव कुरुवंश में हुए हैं जिसमें कि शांति, कुंथु और अर ये तीन तीर्थंकर हुए हैं ॥4॥ हे मगधेश्वर ! अब मैं प्रारंभ से लेकर चतुर्वर्ग की सेवा करने वाले कुरुवंशी राजाओं के कुछ नाम कहता हूँ सुनो ॥5॥
शोभा में देवकुरु-उत्तरकुरु की तुलना करने वाले कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में जो आभूषण स्वरूप श्रेयान् और सोमप्रभ नाम के दो राजा हुए थे वे कुरुवंश के तिलक थे, भगवान वृषभदेव के समकालीन थे और दान तीर्थ के नायक थे ॥6-7॥ उनमें सोमप्रभ के जयकुमार नाम का पुत्र हुआ । वह जयकुमार ही आगे चलकर भरतचक्रवर्ती के द्वारा मेघस्वर इस नाम से संबोधित किया गया ꠰꠰8॥ जयकुमार से कुरु पुत्र हुआ । कुरु के कुरुचंद्र, कुरुचंद्र के शुभंकर और शुभंकर के धृतिकर पुत्र हुआ ॥9॥
तदनंतर कालक्रम से अनेक करोड़ राजा और अनेक सागर प्रमाण तीर्थंकरों का अंतराल काल व्यतीत हो जाने पर धृतिदेव, धृतिकर, गंगदेव, धृतिमित्र, धृतिक्षेम, सुव्रत, वात, मंदर, श्रीचंद्र और सुप्रतिष्ठ आदि सैकड़ों राजा हुए । तदनंतर धृतपन, धृतेंद्र, धृतवीय, प्रतिष्ठित आदि राजाओं के हो चुकने पर धृतिदृष्टि, धृतिद्युति, धृतिकर, प्रीतिकर आदि हुए ॥10-13 ॥ तत्पश्चात् भ्रमरघोष, हरिघोष, हरिध्वज, सूर्यघोष, सुतेजस्, पृथु और इभवाहन आदि राजा हुए । तदनंतर विजय, महाराज और जयराज हुए॥14-15 ॥ इनके पश्चात् उसी वंश में चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार हुए जो रूपपाश से खिंचकर आये हुए देवों के द्वारा संबोधित हो दीक्षित हो गये थे ॥16॥ सनत्कुमार के सुकुमार नाम का पुत्र हुआ । उसके बाद वरकुमार,विश्व, वैश्वानर, विश्वकेतु और बृहद̖ध्वज नामक राजा हुए । तदनंतर विश्वसेन राजा हुए । जिनकी स्त्री का नाम ऐरा था । इन्हीं के पंचम चक्रवर्ती और सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ हुए ॥17-18॥ इनके पश्चात् नारायण, नरहरि, प्रशांति, शांतिवर्धन, शांतिचंद्र, शशांकांक और कुरु राजा हुए ॥19॥ इत्यादि राजाओं के व्यतीत होनेपर इसी वंश में सूर्य नामक राजा हुए जिनकी स्त्री का नाम श्रीमती था । उन दोनों के भगवान् कुंथुनाथ उत्पन्न हुए जो तीर्थंकर भी थे और चक्रवर्ती भी थे ॥20॥ तदनंतर क्रम-क्रम से बहुत राजाओं के व्यतीत हो जाने पर सुदर्शन नामक राजा हुए जिनकी स्त्री का नाम मित्रा था । इन्हीं दोनों के सप्तम चक्रवर्ती अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ हुए ॥21-22॥ उनके बाद सुचारु, चारु, चारु रूप और चारपन राजा हुए । तदनंतर अन्य राजाओं के हो चुकने पर इसी वंश में पद्ममाल, सुभौम और पद्मरथ राजा हुए । उनके बाद महापद्म चक्रवर्ती हुए । उनके विष्णु और पद्म नामक दो पुत्र हुए ॥23-24॥ तदनंतरः सुपद्म, पद्मदेव, कुलकीर्ति, कीर्ति, सुकीर्ति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वसु, सुवसु, श्रीवसु, । वसुंधर, वसुरथ, इंद्रवीय, चित्र, विचित्र, वीर्य, विचित्र, विचित्रवीर्य, चित्ररथ, महारथ, धृत रथ, वृषानंत, वृषध्वज, श्रीव्रत, व्रतधर्मा, धृत, धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पारशर, शरद्वीप, द्वीप, द्वीपायन, सुशांति, शांतिभद्र, शांतिषेण, योजनगंधा राजपुत्री के भर्ता शंतनु और शंतनु के राजा धृतव्यास पुत्र हुए ॥ 25-31॥ तदनंतर धृतधर्मा, धृतोदय, धृततेज, धृतयश, धृतमान और धृत हुए । धृत के धृतराज नामक पुत्र हुआ । उसकी अंबिका, अंबालिका और अंबा नाम की तीन स्त्रियाँ थीं जो उच्चकुल में उत्पन्न हुई थीं ॥32-33॥ उनमें अंबिका से धृतराष्ट्र,अंबालिका से पांडु और अंबा से ज्ञानी श्रेष्ठ विदुर ये तीन पुत्र हुए ॥34॥ भीष्म भी शंतनु के ही वंश में उत्पन्न हुए थे । धृतराज के भाई रुक्मण उनके पिता थे और पवित्र बुद्धि को धारण करने वाली राजपुत्री गंगा उनकी माता थी ॥35॥ राजा धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र थे जो नय-पौरुष से युक्त तथा परस्पर एक दूसरे के हित करने में तत्पर थे ॥36॥ राजा पांडु की स्त्री का नाम कुंती था, जिस समय राजा पांडु ने गंधर्व विवाह कर कुंती से कन्या अवस्था में संभोग किया था उस समय कर्ण उत्पन्न हुए थे और विवाह करने के बाद युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम ये तीन पुत्र हुए ॥37॥ इन्हीं पांडु को माद्री नाम की दूसरी स्त्री थी उससे नकुल और सहदेव ये दो पुत्र उत्पन्न हुए । ये दोनों ही पुत्र कुल के तिलक स्वरूप थे और पर्वत के समान स्थिर थे । युधिष्ठिर को आदि लेकर तीन तथा नकुल और सहदेव ये पाँच पांडव कहलाते थे ॥38॥ जब राजा पांडु और रानी माद्री जिन-धर्म के प्रसाद से स्वर्गवासी हो गये तब पांडव और दुर्योधनादि धृतराष्ट्र राज्य-विषय को लेकर एक दूसरे के विरोधी हो गये ॥39॥ जब इनका विरोध बढ़ने लगा तब भीष्म, विदुर, द्रोण, मंत्री शकुनि तथा दुर्योधन के मित्र शशरोम आदि ने मध्यस्थ बनकर कौरवों के राज्य के बराबर दो भाग कर दिये । एक भाग युधिष्ठिर आदि पाँच पांडवों को मिला और दूसरा भाग दुर्योधन आदि सौ कौरवों को प्राप्त हुआ ॥40-41॥
इधर दुर्योधन की कर्ण के साथ उत्तम मित्रता हो गयी और जरासंध के साथ स्थिर बैठकें होने लगीं ॥42॥ द्रोणाचार्य धनुर्विद्या में अत्यंत निपुण थे और वे मध्यस्थ-भाव से पांडवों तथा कौरवों के लिए भार्गवाचार्य का काम करते थे अर्थात् दोनों को समान रूप से धनुर्विद्या का उपदेश देते थे ॥43॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! द्रोणाचार्य की शिष्य और आचार्यों की परंपरा तो प्रसिद्ध है अतः उसे छोड़ भार्गवाचार्य की वंश परंपरा का वर्णन करता हूँ उसे सुन ॥44॥ भार्गव का प्रथम शिष्य आत्रेय था, उसका शिष्य कौथुमि पुत्र था, कौथुमि का अमरावर्त, अमरा वर्त का सित, सित का वामदेव, वामदेव का कपिष्ठल, कपिष्ठल का जगत्स्थामा, जगत्स्थामा का सरवर, सरवर का शरासन, शरासन का रावण, रावण का विद्रावण और विद्रावण का पुत्र द्रोणाचार्य था जो समस्त भार्गव वंशियों के द्वारा वंदित था-सब लोग उसे नमस्कार करते थे ॥45-47॥ द्रोणाचार्य को अश्विनी नामक स्त्री से अश्वत्थामा नामक पुत्र हुआ था । यह अश्वत्थामा बड़ा धनुर्धारी था और युद्ध में एक अर्जुन ही उसका प्रतिस्पर्धी था― अर्जुन ही उसकी बराबरी कर सकता था अन्य नहीं ॥48॥
तदनंतर अर्जुन के प्रताप और विज्ञान से ईर्ष्या रखने वाले दुर्योधन आदि कौरव संधि में दोष लगाने के लिए उद्यत हो गये अर्थात् अर्जुन के लोकोत्तर प्रताप और अनुपम सूझ-बूझ से ईर्ष्या कर कौरव लोग राज्य के विषय में पहले जो संधि हो चुकी थी उसमें दोष लगाने लगे ॥49॥ वे कहने लगे कि कौरवों के आधे राज्य को एक ओर तो सिर्फ पांच-पांडव भोगते हैं और एक ओर आधे राज्य को हम सौ भाई भोगते हैं-इससे बढ़कर अन्यायपूर्ण कार्य और क्या होगा ? ॥50॥ दुर्योधनादिक का यह विचार पांडवों ने भी सुना । पांडवों में युधिष्ठिर शांतिप्रिय व्यक्ति थे अतः उन्होंने इस ओर कुछ ध्यान नहीं दिया परंतु शेष चार पांडव प्रसन्न तथा गंभीर होने पर भी उस तरह क्षोभ को प्राप्त हो गये जिस तरह कि प्रचंड वायु से चारों दिशाओं के चार समुद्र क्षोभ को प्राप्त हो जाते हैं ॥51॥ अर्जुन रूपी मेघ यह कहता हुआ उठकर खड़ा हो गया कि मैं उठते हुए इस शत्रुरूपी पर्वत को बाणरूपी जल की धारा से अभी हाल आच्छादित किये देता हूँ परंतु युधिष्ठिररूपी वायु ने उसे शांत कर दिया ॥52॥ भीमरूपी भुजंग यह कहकर उठ खड़ा हुआ कि मैं सौ के सौ हिस्सेदारों को अपनी दृष्टि से अभी भस्म किये देता है परंतु बड़े भाई युधिष्ठिर ने उसे मंत्र के द्वारा शांत कर दिया ॥53॥ नकुल भी, नकुल (नेवला) के समान शत्रुरूपी सर्पों के संतापदायी कुल का अंत करने के लिए उद्यम करने लगा परंतु अग्रज-युधिष्ठिर ने उसे अपने भुजरूपी पिंजरे में कैद कर रोक रखा ॥54॥ और सहदेवरूपी दावानल यह कहता हुआ देदीप्यमान होने लगा कि मैं शत्रुरूपी वनखंड को अभी हाल भस्म किये देता हूँ परंतु बड़े भाई युधिष्ठिररूपी मेघ ने उसे शांत कर दिया ॥55॥
तदनंतर सब पांडव शांतचित्त होकर रहने लगे । कुछ दिनों बाद जब वे गहरी नींद में सो रहे थे तब कौरवों ने उनके घर में आग लगवा दी ॥56॥ सहसा उनकी नींद खुल गयी और पांचों के पांच पांडव माता को साथ ले सुरंग से निकलकर निर्भय हो कहीं चले गये ॥57॥ इस घटना से जनता का दुर्योधन के प्रति विद्वेष उमड़ पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि पाप में अनुराग रखने वाले किस पुरुष पर सज्जनों को विद्वेष नहीं होता ? अर्थात् सभी पर होता है ॥58॥ तदनंतर कुटुंब के लोगों ने समझा कि पांडव तो इसी आग में भस्म हो चुके हैं इसीलिए वे मरणोत्तर काल होने वाली क्रियाओं को कर निश्चिंत-जैसे होकर रहने लगे ॥59॥
इधर महाबुद्धिमान् पांडव गंगा नदी को पार कर तथा वेष बदलकर पूर्व दिशा की ओर गये ॥60॥ माता कुंती धीरे-धीरे चल पाती थी इसलिए वे उसकी चाल के अनुसार इच्छापूर्वक सुख से धीरे-धीरे चलते हुए उस कौशिक नाम की नगरी में पहुंचे जहाँ वर्ण नाम का राजा रहता था ॥61॥ राजा वर्ण की स्त्री का नाम प्रभावती था और उससे उसके कुसुमकोमला नाम को पुत्री उत्पन्न हुई थी । पांडवों पर लोगों का अधिक अनुराग था इसलिए कुसुमकोमला ने भी उनका नाम सुना तथा उन्हें देखा ॥62॥ वह भाग्यशालिनी सुंदर कन्यारूपी कुमुदिनी, युधिष्ठिररूपी चंद्रमा को देखने से परम विकास को प्राप्त हो गयी ॥63 ॥ जो युधिष्ठिर की प्रिय स्त्री होने वाली थी ऐसी कन्या कुसुमकोमला उन्हें देख मन में विचार करने लगी कि इस जन्म में मेरे यही उत्तम पति हों ॥64॥ कन्या के अभिप्राय को जानकर युधिष्ठिर के भी प्रेमरूपी बंधन समुत्पन्न हो गया और वे इशारे से विवाह की आशा दिखा आगे चले गये ॥65॥ कुसुमकोमला उनके पुनः समागम की प्रतीक्षा करती हुई कन्याजनों के योग्य विनोदों से समय बिताने लगी ॥66॥
तदनंतर जो स्वभाव से ही सुंदर आकार के धारक थे ऐसे वे पांचों भाई ब्राह्मण का वेष रख, मनुष्यों के चित्त को हरते हुए आगे चले ॥67॥ वे सब महापुण्यशाली जीव थे इसलिए उस अज्ञातवास के समय भी उन्हें मनोहर आसन, शयन और भोजन सुखपूर्वक अचिंतितरूप से प्राप्त होते रहते थे ॥68॥ तत्पश्चात् वे तापस के वेष में श्लेष्मांतक नामक वन में पहुंचे वहाँ तापसों के सुंदर तपोवन में उन्होंने विश्राम किया और तापसों ने उनका अच्छा सत्कार किया ॥69॥ उस आश्रम में वसुंधरपुर के राजा विंध्यसेन की वसंत सुंदरी नाम की पुत्री, जो कि नर्मदा नामक स्त्री से उत्पन्न हुई थी रहती थी ॥70॥ यह कन्या गुरुजनों ने युधिष्ठिर के लिए पहले ही दे रखी थी परंतु जब उनके जल जाने का समाचार सुना तब वह अपने पूर्वकृत कर्म की निंदा करती हुई इस इच्छा से कि ‘उन प्राणनाथ का दर्शन इस जन्म में न हो सका तो जंमांतर में हो’, तपस्वियों के उस आश्रम में तप करने लगी थी ॥71-72꠰꠰ वह अतिशयरूप और लावण्य की धारक थी, सुंदर स्वच्छ साड़ी से सुशोभित थी, सिर पर जटाएँ रखाये हुई थी और स्निग्ध कांति से सहित थी इसलिए पायों को धारण करने वाली स्निग्ध छाया से सहित वटवृक्ष की शाखा के समान सुशोभित हो रही थी ॥73॥ वह तापसी कानों तक लंबे नेत्र, सुंदर ओठ, मुखरूपी चंद्रमा एवं नितंब और स्तनों के भार से सबका मन हरती थी ॥74॥ वह समस्त तापसों के द्वारा पूज्य थी, चंद्रमा की कला के समान कृश तथा निर्मल थी और अपने आवास से उस तपोवन को पवित्र करती थी ॥75॥ मधुर वचन बोलने वाली उस तापसी ने तापसों के योग्य वृत्ति से पांडवों का अतिथि-सत्कार किया तथा उनकी भूख-प्यास और मार्ग की थकावट को दूर किया ॥76॥
एक दिन कुंती ने बड़े प्रेम से उससे पूछा कि हे कमल के समान कोमलांगी बेटी ! तुझे नयी अवस्था में ही वैराग्य किस कारण से हो गया है जिससे तूने यह कठिन व्रत धारण कर रखा है ? ॥77॥ इस प्रकार स्नेह के साथ पूछी जाने पर मृगनेत्री राज पुत्री मनोहर वाणी से उनका मन हरती हुई बोली कि हे पूज्ये ! आपने ठीक पूछा है, मेरे वैराग्य का कारण सुनिए क्योंकि सज्जन पुरुष बताये हुए मन के दुःख को दूर कर देते हैं ॥ 78-79॥ मेरे गुरुजनों ने मुझे स्वभाव से उत्तम चेष्टा के धारक पांडवों के बड़े भाई युधिष्ठिर के लिए पहले ही दे रखा था ॥80॥ परंतु मेरे पाप के प्रभाव से माता और भाइयों के साथ उनके विषय का जो समाचार लोगों से सुना है उसका स्मरण भी नहीं किया जा सकता ॥81॥ मेरा पतिदाह के दुःख से मरा है इसलिए मुझे भी उसी मार्ग से मरना युक्त था परंतु मैं शक्तिहीन होने के कारण उस मार्ग से मर नहीं सकी इसलिए तपस्या करने लगी हूँ ॥ 82॥
तापसी के वचन सुन उसे होनहार पुत्र वधू जान सौम्य स्वभाव की धारक कुंती ने कहा कि हे भद्रे ! तूने बहुत उत्तम किया जो प्राणों की रक्षा की ॥83॥ मित्रजन, मित्रजन के विषय में कुछ अन्य विचार करते हैं और भाग्य उससे विपरीत कुछ अन्य ही कार्य कर देता है इसलिए दीर्घदर्शिता की आकांक्षा की जाती है ॥84॥ हे कल्याणि ! प्राण कल्याण के कारण हैं इसलिए मेरे कहने से तू तपस्या करती हुई भी इन्हें अवश्य धारण कर । यदि जीवित रहेगी तो कल्याण को अवश्य प्राप्त करेगी ॥85॥ पांडु के प्रथम पुत्र― युधिष्ठिर ने भी माता कुंती के ही वचनों का अनुवाद किया― वही बात कही और अणुव्रत शीलव्रत तथा गुणव्रतों से युक्त धर्म का उपदेश दिया ॥86॥ उस समय युधिष्ठिर तथा कन्या का, मन में प्रीति उत्पन्न करने वाला जो परस्पर वार्तालाप हुआ था उससे कन्या ने मन में यह समझा अर्थात् यह शंका उसके मन में उत्पन्न हुई कि क्या यह राजाओं के लक्षणों से युक्त वही युधिष्ठिर हैं जो दया से युक्त हो माता के साथ यहाँ मुझे अत्यधिक उपदेश दे रहे हैं ? मेरे पुण्य अथवा गणनीय आदरणीय तप से ही यहाँ प्रकट हुए हैं । ये दृढ़ प्रतिज्ञ और उद्यमी प्रिय कुमार यहाँ बिना किसी आघात से चिर काल तक जीवित रहें ॥ 87-89॥
युधिष्ठिर आदि पांडव जब वहाँ से जाने लगे तब उस कन्या ने आप शिष्ट जनों का फिर से दर्शन प्राप्त हो यह कह मधुर वार्तालाप से उनका सम्मान किया । वे चले गये और कन्या युधिष्ठिर की प्राप्ति की आशा से उसी तपोवन में रहने लगी ॥90॥ इधर जब राजा समुद्रविजय ने सुना कि दुर्योधन ने हमारी बहन तथा भानजों को महल में जलाकर मार डाला है तब वे कुपित हो कौरवों को मारने के लिए आये ॥91॥ तदनंतर महान् आदर से युक्त जरासंध ने स्वयं आकर यादवों और कौरवों के बीच संधि करा दी । संधि कराकर जरासंध अपनी राजधानी को चला गया ॥92॥
इधर पांडव तापसों का वेष छोड़ सामान्य ब्राह्मण के वेष में विचरण करने लगे और माता कुंती के साथ चलते-चलते सब ईहापुर नामक उत्तम नगर में पहुंचे ॥93॥ वहाँ एक भ्रमर के समान काला भृंगराक्षस नाम का महाभयंकर नरभोजी राक्षस मनुष्यों को दुःखी कर रहा था सो भीमसेन ने उसे नष्ट कर वहाँ के निवासियों का भय दूर किया ॥94॥ जिनका भय नष्ट हो गया था ऐसे प्रजा के लोगों ने माता सहित पांडवों का खूब सत्कार किया । तदनंतर इच्छानुसार चलते हुए वे त्रिशृंग नामक महानगर में पहुंचे ॥95॥ वहाँ क्रूरकर्मा मनुष्यों के लिए तीव्र दंड देने वाला प्रचंडवाहन नाम का राजा था । उसकी विमलप्रभा नाम की प्रिय स्त्री थी ॥96॥ उन दोनों के दश पुत्रियां थीं जो सब की सब रूप के अतिशय से युक्त, पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली और कलाओं में पारंगत थीं ॥97॥ उनके नाम थे― 1 गुणप्रभा, 2 सुप्रभा, 3 ह्री, 4 श्री, 5 रति, 6 पद्मा, 7 इंदीवरा, 8 विश्वा, 9 आचर्या और 10 अशोका । इनमें गुणप्रभा ज्येष्ठ थी ॥98॥ ये सभी कन्याएं पहले युधिष्ठिर के लिए प्रदान की गयी थीं परंतु बाद में उनका अन्यथा समाचार प्राप्त कर वे अणुव्रतों को धारण करने वाली श्राविकाएं बन गयी थीं ॥99 ॥ उसी त्रिशृंगपुर में एक प्रियमित्र नाम का सेठ रहता था जो बहुत भारी धनी तथा पुरुषों के अंतर को समझने वाला था । पांडवों को विशिष्ट पुरुष समझ उसने उनका बहुत सत्कार किया ॥100॥ उसकी सोमिनी नाम की स्त्री थी और उससे उसके स्वरूप तथा सौंदर्य से नेत्रों को आनंद देने वाली नयनसुंदरी नाम की कन्या हुई थी ॥101॥ यह कन्या वीर युधिष्ठिर के लिए पहले ही दे दी गयी थी इसलिए वह भी पूर्वोक्त राजपुत्रियों के समान अणुव्रत धारण कर रहती थी ॥102॥ राजा प्रचंडवाहन और अपनी स्त्रीसहित सेठ प्रियमित्र, ब्राह्मण वेषधारी पांडवों को महापुरुष समझते थे इसलिए ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर के लिए वे सब कन्याएँ देना चाहते थे ॥103 ॥ परंतु कन्याओं ने अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि युधिष्ठिर भले ही परलोक चले गये हों पर इस भव में वे ही मेरे पति हैं अन्य नहीं । इस निश्चय से उन्होंने ब्राह्मण वेषधारी युधिष्ठिर को अन्य पुरुष समझ स्वीकृत नहीं किया ॥104॥ तदनंतर सुमेरु के समान स्थिरचित्त के धारक वे सब पांडव उस नगर से भी चल दिये और चलते-चलते चंपापुरी में पहुँचे जहाँ महाराजा कर्ण राज्य करते थे ॥105 ॥ वहाँ एक मदोन्मत्त बड़ा हाथी नगर में उपद्रव मचा रहा था सो कुशल भीम ने क्रीड़ा कर उसे मदरहित कर दिया । भीम की यह वीरता देख कर्ण को क्षोभ उत्पन्न हुआ ॥106॥ वहाँ से चलकर वे इंद्रपुर के समान सुंदर वैदिशपुर पहुंचे । उस समय वहाँ का राजा वृषध्वज था और युवराज दृढ़ायुध था ॥107॥ राजा वृषध्वज की रानी का नाम दिशावली था और उसके दिशानंदा नाम की पुत्री थी । दिशाओं की विशुद्धता के समान दिशानंदा को सुंदरता समस्त दिशाओं में प्रसिद्ध थी ॥108॥ एक दिन गंभीर स्वर और गंभीर दृष्टि को धारण करने वाले, नेत्र प्रिय रूपवान् भीम भिक्षा की अभिलाषा से राजमहल में गये । वहाँ राजा वृषध्वज ने उन्हें देखा ॥109॥ देखते ही उसने समझ लिया कि यह कोई महापुरुष है इसलिए वह कन्या दिशानंदा को लेकर अपने अंतःपुर के साथ भीम के आगे खड़ा हो गया और इस प्रकार के मधुर वचन कहने लगा ॥110 ॥ हे श्रीमन् ! यह कन्या ही आपके लिए अनुरूप भिक्षा है इसलिए इसे स्वीकृत कीजिए, पाणिग्रहण के लिए हाथ पसारिए ॥111॥ भीम ने कहा कि अहा ! यह भिक्षा तो अपूर्व रही, इस समय ऐसी भिक्षा स्वीकृत करने के लिए मैं स्वतंत्र नहीं हूँ । उक्त उत्तर दे भीम ने अपने आवास स्थान पर आकर युधिष्ठिर आदि के लिए यह समाचार सुनाया ॥112॥ तदनंतर ये सब इस नगर में डेढ़ मास तक रहे । उसके बाद क्रीड़ाओं के प्रदान करने में निपुण नर्मदा नदी को पार कर विंध्याचल में प्रविष्ट हुए ॥113 ॥ विंध्याचल के बीच संध्या के आकार का एक अंतरद्वीप था । उसके संध्याकार नामक नगर में हिडिंब वंश में उत्पन्न राजा सिंहघोष रहता था ॥114॥ उसकी सुदर्शना नाम की स्त्री थी और उससे हृदयसुंदरी नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी । त्रिकूटाचल का स्वामी मेघवेग उस हृदय सुंदरी को चाहता था और उसके निमित्त उसने राजा सिंहघोष से याचना भी की थी परंतु वह उसे प्राप्त नहीं कर सका ॥115 ॥ हृदयसुंदरी के विषय में निमित्तज्ञानियों ने यह कहा था कि विंध्याचल पर गदाविद्या को सिद्ध करने वाले विद्याधर को जो मारेगा वही हृदयसुंदरी का पति होगा ॥116 ॥ भीम ने विंध्याचल पर जाकर देखा कि एक विद्याधर वृक्ष की कोटर में बैठकर गदा को सिद्ध कर रहा है । देखते ही भीम ने वह गदा हाथ में ले ली और उसी के प्रहार से उस वृक्ष को एक साथ गिरा दिया ॥117॥ तदनंतर भीम का हृदयसुंदरी के साथ समागम हुआ । हिडिंब वंशी राजा सिंहघोष के साथ पांडवों का यह संबंध महान् हर्ष का कारण हुआ ॥118॥
तदनंतर महान् अभ्युदय को धारण करने वाले पांडव दक्षिण के नाना देशों में बिहार कर हस्तिनापुर जाने के लिए उद्यत हुए ॥119॥ मार्ग के वश चलते-चलते वे सब, स्वर्ग के प्रतिबिंब को धारण करने वाली माकंदी नगरी पहुँचे । उस समय सुंदर शरीर से सुशोभित पांडव देवों के विभ्रम को धारण कर रहे थे― देवों के समान जान पड़ते थे ॥120॥ वहाँ का राजा द्रुपद था, उसकी स्त्री का नाम भोगवती था और उन दोनों के धृष्टद्युम्न आदि पुत्र थे जो एक से एक बढ़कर बलवान् थे ॥121 ॥ राजा द्रुपद की एक द्रौपदी नाम की पुत्री भी थी जिसका शरीर रूप, लावण्य, सौभाग्य तथा अनेक कलाओं से अलंकृत था एवं जो अपने सौंदर्य के विषय में सानी नहीं रखती थी ॥122॥ कामदेव ने सब राजपुत्रों को उसके लिए पागल-सा बना दिया था इसलिए वे नाना प्रकार के उपहार हाथ में ले उसकी याचना करते थे ॥123 ॥ तद किस-किससे बुराई की जाये यह विचार दाक्षिण्य-भंग से भयभीत राजा द्रुपद ने कन्या की इच्छा रखने वाले सब राजकुमारों को चंद्रक यंत्र का वेध करने के लिए आमंत्रित किया ॥ 124॥ इस पृथिवी पर द्रौपदीरूप ग्रह के वशीभूत हुए कर्ण, दुर्योधन आदि जितने राजा थे उन सबका झुंड माकंदी नगरी में इकट्ठा हो गया ॥ 125 ॥ उसी समय सुरेंद्रवर्धन नाम का एक विद्याधर राजा अपनी पुत्री के योग्य वर खोजने के लिए वहाँ आया और उसने राजा द्रुपद की आज्ञा से गांडीव नामक धनुष को वर की परीक्षा का साधन निश्चित किया ॥126 ॥ उस समय यह घोषणा की गयी कि जो अत्यंत भयंकर गांडीव धनुष को गोल करने एवं राधावेध (चंद्रकवेध) में समर्थ होगा वही द्रौपदी का पति होगा ॥127 ॥ इस घोषणा को सुनकर वहाँ जो द्रोण तथा कर्ण आदि राजा आये थे वे सब गोलाकार हो धनुष के चारों ओर खड़े हो गये ॥128 ꠰। परंतु सती स्त्री के समान देवों से अधिष्ठित उस धनुष-यष्टिको देखना भी उनके लिए अशक्य था फिर छूना और खींचना तो दूर रहा ॥129 ॥
तदनंतर जब सब परास्त हो गये तब द्रौपदी के होनहार पति एवं सदा सरल प्रकृति को धारण करने वाले अर्जुन ने उस धनुष-यष्टि को देखकर तथा छूकर ऐसा खींचा कि वह सती स्त्री के समान इनके वशीभूत हो गयी ॥130॥ जब अर्जुन ने खींचकर उस पर डोरी चढ़ायी और उसका आस्फालन किया तो उसके प्रचंड शब्द में कर्ण आदि राजाओं के नेत्र फिर गये तथा कान बहरे हो गये ॥131॥ तीक्ष्ण आकृति के धारक पार्थ को देखकर कर्ण आदि के मन में यह तर्क उत्पन्न हुआ कि क्या स्वाभाविक ऐश्वर्य को धारण करने वाला अर्जुन अपने भाइयों के साथ मरकर यहाँ पुनः उत्पन्न हुआ है ? ॥132॥ अर्जुन के सिवाय अन्य सामान्य धनुर्धारी का ऐसा खड़ा होना कहाँ संभव है ? अहा ! इसकी दृष्टि, इसकी मुट्ठी और इसकी चतुराई― सभी आश्चर्यकारी हैं ॥ 133 ॥ उधर राजा लोग ऐसा विचार कर रहे थे इधर अत्यंत चतुर अर्जुन डोरी पर बाण रख झट से चलते हुए चक्र पर चढ़ गया और राजाओं के देखते-देखते उसने शीघ्र ही चंद्रकवेध नाम का लक्ष्य बेध दिया ॥134 ॥ उसी समय द्रौपदी ने शीघ्र ही आकर वर की इच्छा से अर्जुन की झु की हुई सुंदर ग्रीवा में अपने दोनों कर-कमलों से माला डाल दी ॥135 ॥ उस समय जोरदार वायु चल रही थी इसलिए वह माला टूटकर साथ खड़े हुए पांचों पांडवों के शरीर पर जा पड़ी ॥136 ॥ इसलिए विवेकहीन किसी चपल मनुष्य ने जोर-जोर से यह वचन कहना शुरू कर दिया कि इसने पांच कुमारों को वरा है ॥137॥ जिस प्रकार किसी सुगंधित, ऊंचे एवं फलों से युक्त वृक्ष पर लिपटी फूली लता सुशोभित होती है उसी प्रकार अर्जुन के समीप खड़ी द्रौपदी सुशोभित हो रही थी ॥138॥ तदनंतर कुशल अर्जुन नूपुरों के निश्चल बंधन से युक्त उस द्रौपदी को अनीतिज्ञ राजाओं के आगे से उनके देखते-देखते माता कुंती के पास ले चला ॥139 ॥ युद्ध करने के लिए उत्सुक राजाओं को यद्यपि नीति चतुर राजा द्रुपद ने रो का था तथापि कितने ही राजा जबर्दस्ती अर्जुन के पीछे लग गये ॥ 140 ॥ परंतु अर्जुन, भीम और धृष्टद्युम्न इन तीनों धनुर्धारियों ने उन्हें दूर से ही रोक दिया । ऐसा रो का कि न आगे न पीछे कहीं एक डग भी रखने के लिए समर्थ नहीं हो सके ॥ 141॥
तदनंतर धृष्टद्युम्न के रथ पर आरूढ़ अर्जुन ने अपने नाम से चिह्नित एवं समस्त संबंधों को सूचित करने वाला बाण द्रोणाचार्य की गोद में फेंका ॥142॥ द्रोण, अश्वत्थामा, भीष्म और विदुर ने जब उस समस्त संबंधों को सूचित करने वाले बाण को बाँचा तो उसने सबको परम हर्ष प्रदान किया ॥143 ॥ पांडवों का समागम होने पर राजा द्रुपद, कुटुंबी जन, तथा द्रोणाचार्य आदि को जो महान् सुख उत्पन्न हुआ था उससे शंख और बाजों के शब्द होने लगे ॥144॥ परम आनंद को देने वाले भाइयों के इस समागम पर दुर्योधन आदि ने भी ऊपरी स्नेह दिखाया और पांचों पांडवों का अभिनंदन किया ॥145॥ जिस प्रकार स्नेह तेल के समूह से भारी दीपिका किसी के पाणिग्रहण― हाथ में धारण करने से अत्यधिक देदीप्यमान होने लगती है उसी प्रकार स्नेह― प्रेम के भार से भरी द्रौपदी, पाणिग्रहण― विवाह के योग से अर्जुन के द्वारा धारण की हुई अत्यधिक देदीप्यमान होने लगी ॥146॥ राजा लोग द्रौपदी और अर्जुन का विवाह-मंगल देखकर अपने-अपने स्थान पर चले गये और दुर्योधन भी पांडवों को साथ ले हस्तिनापुर पहुँच गया ॥147॥ दुर्योधनादि सौ भाई और पांडव आधे-आधे राज्य का विभाग कर पुनः पूर्व की भाँति रहने लगे ॥148॥ उज्ज्वल चारित्र के धारक युधिष्ठिर तथा भीमसेन ने पहले अज्ञातवास के समय अपने-अपने योग्य जिन कन्याओं को स्वीकृत करने का आश्वासन दिया था उन्हें बुलाकर तथा उनके साथ विवाह कर उन्हें सुखी किया ॥149 ॥ द्रौपदी अर्जुन की स्त्री थी, उसमें युधिष्ठिर और भीम की बहू-जैसी बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल उसे माता के समान मानते थे ॥150॥
द्रौपदी की भी पांडु के समान युधिष्ठिर और भीम में श्वसुर बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल इन दोनों देवरों में अर्जुन के प्रेम के अनुरूप उचित बुद्धि थी ॥151 ॥ गौतम-स्वामी कहते हैं कि जो अत्यंत शुद्ध आचार के धारक मनुष्यों की निंदा करने में तत्पर रहते हैं उनके उस निंदा से उत्पन्न हुए पाप का निवारण करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥152॥ दूसरे के विद्यमान दोष का कथन करना भी पाप का कारण है फिर अविद्यमान दोष के कथन करने की तो बात ही क्या है ? वह तो ऐसे पाप का कारण होता है जिसका फल कभी व्यर्थ नहीं जाता-अवश्य ही भोगना पड़ता है ॥ 153 ॥ साधारण से साधारण मनुष्यों में प्रीति के कारण यदि समानधनता होती है तो धन के विषय में ही होती है स्त्रियों में नहीं होती । फिर जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं उनकी तो बात ही क्या है ? ॥154॥ महापुरुषों की कोटि में स्थित पांडवों के मिथ्या दोष कथन करने वाले दुष्टों की जिह्वा के सौ खंड क्यों नहीं हो जाते ? ॥155॥ पाप का वक्ता और श्रोता जो इस लोक में उसका फल नहीं प्राप्त कर पाता है वह मानो परलोक में वृद्धि के लिए ही सुरक्षित रहता है ऐसा समझना चाहिए । भावार्थ― जिस पाप का फल वक्ता और श्रोता को इस जन्म में नहीं मिल पाता है उसका फल परभव में अवश्य मिलता है और ब्याज के साथ मिलता है ॥156 ॥ सद्बुद्धि से पुण्यरूप कथाओं का सुनना वक्ता और श्रोता के लिए जिस प्रकार कल्याण का कारण माना गया है उसी प्रकार पापरूप कथाओं का सुनना उनके लिए अकल्याण का कारण माना गया है ॥157॥ इसलिए असत्यरूप दोष से उद्धत वाणी को छोड़ो, और सत्य वचन से उत्पन्न उस निर्मलता का सेवन करो जो अपने यश से विशद है, गुणी मनुष्यों के प्राप्त करने में उद्यत है । इस लोक में विजय प्राप्त कराने वाली है और सर्वज्ञदेव के द्वारा निरूपित है ॥158॥ इस संसार में विपत्ति और पराभव के समय अच्छी तरह से आचरित अपना आचरण ही प्राणियों के लिए शरण है क्योंकि सदाचार का फल जो नीति और पौरुष है वह शत्रु के उस रोष को परिभूत कर देता है-दूर कर देता है ॥ 159॥ जो अग्नि की शिखावली से वर्धमान धर्म रूपी ग्रीष्म काल को नष्ट करने के लिए वर्षा ऋतु के समान है, दूसरों का निराकरण करने के लिए एक जिनागम है और नाना प्रकार के लाभों का भंडार है, ऐसा व्रतविधान, श्रुतरूपी अंजन की शलाका का प्रयोग करने वाले मनुष्यों के द्वारा अवश्य ही धारण करने योग्य है ॥160 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में कुरुवंश की उत्पत्ति, पांडव और धृतराष्ट्रों के समागम तथा अर्जुन को द्रौपदी के लाभ का वर्णन करने वाला पैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥45 ॥