क्षेत्र परिवर्तन: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(One intermediate revision by one other user not shown) | |||
Line 3: | Line 3: | ||
<p> <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/991/20</span> <span class="SanskritText">स्वक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते - कश्चिज्जीव: सूक्ष्मनिगोदजघन्यावगाहनेनोत्पन्न: स्वस्थितिं जीवित्वा मृत: पुन: प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्न:। एवं द्वयादिप्रदेशोत्तरक्रमेण महामत्स्यावगाहनपर्यंता: संख्यातघनांगुलप्रमितावगाहनविकल्पा: तेनैव जीवेन यावत्स्वीकृता: तत् सर्वं समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तनं भवति।</span> =<span class="HindiText">स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं - कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया की जघन्य अवगाहना से उत्पन्न हुआ, और अपनी आयु प्रमाण जीवित रहकर मर गया। फिर वही जीव एक प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न हुआ। एक-एक प्रदेश अधिक की अवगाहनाओं को क्रम से धारण करते - करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत संख्यात घनांगुल प्रमाण अवगाहना के विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है उतने काल के समुदाय को '''स्वक्षेत्र परिवर्तन''' कहते हैं।</span></p> | <p> <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/991/20</span> <span class="SanskritText">स्वक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते - कश्चिज्जीव: सूक्ष्मनिगोदजघन्यावगाहनेनोत्पन्न: स्वस्थितिं जीवित्वा मृत: पुन: प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्न:। एवं द्वयादिप्रदेशोत्तरक्रमेण महामत्स्यावगाहनपर्यंता: संख्यातघनांगुलप्रमितावगाहनविकल्पा: तेनैव जीवेन यावत्स्वीकृता: तत् सर्वं समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तनं भवति।</span> =<span class="HindiText">स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं - कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया की जघन्य अवगाहना से उत्पन्न हुआ, और अपनी आयु प्रमाण जीवित रहकर मर गया। फिर वही जीव एक प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न हुआ। एक-एक प्रदेश अधिक की अवगाहनाओं को क्रम से धारण करते - करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत संख्यात घनांगुल प्रमाण अवगाहना के विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है उतने काल के समुदाय को '''स्वक्षेत्र परिवर्तन''' कहते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2">2. '''पर क्षेत्र'''</p> | <p class="HindiText" id="2">2. '''पर क्षेत्र'''</p> | ||
<p> <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/2/10/165/13 </span> <span class="SanskritText">क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते - सूक्ष्मनिगोदजीवोऽपर्याप्तक: सर्वजघन्यप्रदेशशरीरी लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्ये कृत्वोत्पन्न: क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृत:। स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथाविस्तथा चतुरित्येवं यावद् घनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीती भवति यावत्तावत्क्षेत्रपरिवर्तनम् ।</span>=<span class="HindiText">जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है, ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकजीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण काल तक जीवित रहकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्म क्षेत्र बनाया। इस प्रकार सब मिलकर एक '''क्षेत्रपरिवर्तन''' होता है। | <p> <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/2/10/165/13 </span> <span class="SanskritText">क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते - सूक्ष्मनिगोदजीवोऽपर्याप्तक: सर्वजघन्यप्रदेशशरीरी लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्ये कृत्वोत्पन्न: क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृत:। स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथाविस्तथा चतुरित्येवं यावद् घनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीती भवति यावत्तावत्क्षेत्रपरिवर्तनम् ।</span>=<span class="HindiText">जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है, ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकजीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण काल तक जीवित रहकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्म क्षेत्र बनाया। इस प्रकार सब मिलकर एक '''क्षेत्रपरिवर्तन''' होता है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/992/2)</span>।</span></p> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें [[ संसार#2.4 | संसार - 2.4]]। | ||
<noinclude> | <noinclude> |
Latest revision as of 22:20, 17 November 2023
क्षेत्र परिवर्तन निर्देश
1. स्वक्षेत्र
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/991/20 स्वक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते - कश्चिज्जीव: सूक्ष्मनिगोदजघन्यावगाहनेनोत्पन्न: स्वस्थितिं जीवित्वा मृत: पुन: प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्न:। एवं द्वयादिप्रदेशोत्तरक्रमेण महामत्स्यावगाहनपर्यंता: संख्यातघनांगुलप्रमितावगाहनविकल्पा: तेनैव जीवेन यावत्स्वीकृता: तत् सर्वं समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तनं भवति। =स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं - कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया की जघन्य अवगाहना से उत्पन्न हुआ, और अपनी आयु प्रमाण जीवित रहकर मर गया। फिर वही जीव एक प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न हुआ। एक-एक प्रदेश अधिक की अवगाहनाओं को क्रम से धारण करते - करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत संख्यात घनांगुल प्रमाण अवगाहना के विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है उतने काल के समुदाय को स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
2. पर क्षेत्र
सर्वार्थसिद्धि/2/10/165/13 क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते - सूक्ष्मनिगोदजीवोऽपर्याप्तक: सर्वजघन्यप्रदेशशरीरी लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्ये कृत्वोत्पन्न: क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृत:। स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथाविस्तथा चतुरित्येवं यावद् घनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीती भवति यावत्तावत्क्षेत्रपरिवर्तनम् ।=जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है, ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकजीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण काल तक जीवित रहकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्म क्षेत्र बनाया। इस प्रकार सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/560/992/2)।
अधिक जानकारी के लिये देखें संसार - 2.4।