क्षेत्र ऋद्धि
From जैनकोष
क्षेत्र ऋद्धि निर्देश
अक्षीण महानस व अक्षीण महालय ऋद्धि के लक्षण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०८९-१०९१
लाभंतरायकम्मक्खउवसमसंजुदए जीए फुडं। मुणिभुत्तमसेसमण्णं धामत्थं पियं ज कं पि ।१०८९। तद्दिवसे खज्जंतं खंधावारेण चक्कवट्टिस्स। झिज्जइ न लवेण वि सा अक्खीणमहाणसा रिद्धो ।१०९०। जीए चउधणुमाणे समचउरसालयम्मि णरतिरिया। मंतियसंखेज्जा सा अक्खीणमहालया रिद्धी ।१०९१।
= लाभान्तरायकर्म के क्षयोपशम से संयुक्त जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के आहार से शेष, भोजनशाला में रखे हुए अन्न में से जिस किसी भी प्रिय वस्तु को यदि उस दिन चक्रवर्ती का सम्पूर्ण कटक भी खावे तो भी वह लेशमात्र क्षीण नहीं होता है, वह `अक्षीणमहानसिक' ऋद्धि है ।१०८९-१०९९। जिस ऋद्धि से समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्र में असंख्यात मनुष्य तिर्यंच समा जाते हैं, वह `अक्षीण महालय' ऋद्धि है ।
१०९०। (राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०४/९); (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४२/१०१/८/केवल अक्षीण महानस का निर्देश है, अक्षीण महालय का नहीं); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२८/१)
अधिक जानकारी के लिये देखें ऋद्धि - 9।