दिग्व्रत: Difference between revisions
From जैनकोष
Jyoti Sethi (talk | contribs) |
|||
(4 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 2: | Line 2: | ||
== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><strong class="HindiText" name="1" id="1">दिग्व्रत का लक्षण</strong> <br><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 68 | रत्नकरंड श्रावकाचार/68]] [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 69 | -69]] </span><span class="SanskritText"> दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि। इति संकल्पो दिग्व्रतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै।68। मकराकरसरिदटवीगिरिजनपदयोजनानि मर्यादा:। प्राहुर्दिशा: दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि।69। </span>=<span class="HindiText">मरण पर्यंत सूक्ष्म पापों की विनिवृत्ति के लिए दशों दिशाओं का परिमाण करके इससे बाहर मैं नहीं जाऊँगा इस प्रकार संकल्प करना या निश्चय कर लेना सो दिग्व्रत है।68। दशों दिशाओं के त्याग में प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समुद्र, नदी, पर्वत, देश और योजन पर्यंत की मर्यादा कहते हैं।69। | <li><strong class="HindiText" name="1" id="1">दिग्व्रत का लक्षण</strong> <br><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 68 | रत्नकरंड श्रावकाचार/68]] [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 69 | -69]] </span><span class="SanskritText"> दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि। इति संकल्पो दिग्व्रतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै।68। मकराकरसरिदटवीगिरिजनपदयोजनानि मर्यादा:। प्राहुर्दिशा: दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि।69। </span>=<span class="HindiText">मरण पर्यंत सूक्ष्म पापों की विनिवृत्ति के लिए दशों दिशाओं का परिमाण करके इससे बाहर मैं नहीं जाऊँगा इस प्रकार संकल्प करना या निश्चय कर लेना सो दिग्व्रत है।68। दशों दिशाओं के त्याग में प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समुद्र, नदी, पर्वत, देश और योजन पर्यंत की मर्यादा कहते हैं।69। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/10 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/7/21/16/548/26 )</span>; <span class="GRef">( सागार धर्मामृत/5/2 )</span>; <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/342 )</span>। </span><br><span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/214 </span><span class="PrakritText">पुव्वुत्तर-दक्खिण-पच्छिमासु काऊण जोयणपमाणं। परदो गमणनियत्तो दिसि विदिसि गुणव्वयं पढमं।</span> =<span class="HindiText">पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में योजनों का प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशओं में गमन नहीं करना यह प्रथम दिग्व्रत नाम का गुणव्रत है।214। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> दिग्व्रत के पाँच अतिचार</strong></span><br> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/30 </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वाधर्स्तिग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यंतराधानानि।30।</span> =<span class="HindiText">ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि औ स्मृत्यंतराधान ये दिग्विरति व्रत के पाँच अतिचार हैं।30। </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 73 | रत्नकरंड श्रावकाचार/73]] </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाता: क्षेत्रवृद्धिरवधीनां। विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशा: पंच मंयंते।73। </span>=<span class="HindiText">अज्ञान व प्रमाद से ऊपर की, नीचे की तथा विदिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन करना, क्षेत्र की मर्यादा बढ़ा लेना और की हुई मर्यादाओं को भूल जाना, ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार माने गये हैं। </span></li> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/30 </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वाधर्स्तिग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यंतराधानानि।30।</span> =<span class="HindiText">ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि औ स्मृत्यंतराधान ये दिग्विरति व्रत के पाँच अतिचार हैं।30। </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 73 | रत्नकरंड श्रावकाचार/73]] </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाता: क्षेत्रवृद्धिरवधीनां। विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशा: पंच मंयंते।73। </span>=<span class="HindiText">अज्ञान व प्रमाद से ऊपर की, नीचे की तथा विदिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन करना, क्षेत्र की मर्यादा बढ़ा लेना और की हुई मर्यादाओं को भूल जाना, ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार माने गये हैं। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> परिग्रह परिमाण व्रत और क्षेत्रवृद्धि अतिचार में अंतर</strong> </span><br> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/30/5-6/555/21 </span><span class="SanskritText">अभिगृहीताया दिशो लोभावेशादाधिक्याभिप्तंधि: क्षेत्रवृद्धि:।5। ...स्यादेतत् – इच्छापरिणामे पंचमेऽणुव्रते अस्यांतर्भावात् पुनर्ग्रहणं पुनरुक्तमिति, तेन्न; किं कारणम् । तस्यान्याधिकरणत्वात् । इच्छापरिणामं क्षेत्रवास्त्वादिविषयम् इदं पुन: दिग्विरमणमन्यार्थम् । अस्यां दिशि लाभे जीवितलाभे च मरणमतोऽन्यत्र लाभेऽपि न गमनमिति, न तु दिशि क्षेत्रादिष्विव परिग्रहबुद्धयात्मसात्करणात् परिणामकरणमस्ति, ततोऽर्थविशेषोऽस्यावसेय:। </span>=<span class="HindiText">लोभ आदि के कारण स्वीकृत मर्यादा का बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है। <strong>प्रश्न</strong>–इच्छा परिमाण नामक पाँचवें अणुव्रत में इसका अंतर्भाव हो जाने के कारण इनका पुन: ग्रहण करना पुनरुक्त है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा, नहीं है, क्योंकि, उसका अधिकरण अन्य है। इच्छा परिमाण क्षेत्र, वास्तु आदि विषयक है, परंतु यह दिशा विरमण उससे अन्य है। इस दिशा में लाभ होगा अन्यत्र लाभ नहीं होगा और लाभालाभ से जीवन-मरण की समस्या जुटी है फिर भी स्वीकृत दिशा मर्यादा से आगे लाभ होने पर भी गमन नहीं करना दिग्विरति है। दिशाओं का क्षेत्र वास्तु आदि की तरह परिग्रह बुद्धि से अपने आधीन करके प्रमाण नहीं किया जाता। इसलिए इन दोनों में भेद जानने योग्य है।</span></li> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/7/30/5-6/555/21 </span><span class="SanskritText">अभिगृहीताया दिशो लोभावेशादाधिक्याभिप्तंधि: क्षेत्रवृद्धि:।5। ...स्यादेतत् – इच्छापरिणामे पंचमेऽणुव्रते अस्यांतर्भावात् पुनर्ग्रहणं पुनरुक्तमिति, तेन्न; किं कारणम् । तस्यान्याधिकरणत्वात् । इच्छापरिणामं क्षेत्रवास्त्वादिविषयम् इदं पुन: दिग्विरमणमन्यार्थम् । अस्यां दिशि लाभे जीवितलाभे च मरणमतोऽन्यत्र लाभेऽपि न गमनमिति, न तु दिशि क्षेत्रादिष्विव परिग्रहबुद्धयात्मसात्करणात् परिणामकरणमस्ति, ततोऽर्थविशेषोऽस्यावसेय:। </span>=<span class="HindiText">लोभ आदि के कारण स्वीकृत मर्यादा का बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है। <strong>प्रश्न</strong>–इच्छा परिमाण नामक पाँचवें अणुव्रत में इसका अंतर्भाव हो जाने के कारण इनका पुन: ग्रहण करना पुनरुक्त है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा, नहीं है, क्योंकि, उसका अधिकरण अन्य है। इच्छा परिमाण क्षेत्र, वास्तु आदि विषयक है, परंतु यह दिशा विरमण उससे अन्य है। इस दिशा में लाभ होगा अन्यत्र लाभ नहीं होगा और लाभालाभ से जीवन-मरण की समस्या जुटी है फिर भी स्वीकृत दिशा मर्यादा से आगे लाभ होने पर भी गमन नहीं करना दिग्विरति है। दिशाओं का क्षेत्र वास्तु आदि की तरह परिग्रह बुद्धि से अपने आधीन करके प्रमाण नहीं किया जाता। इसलिए इन दोनों में भेद जानने योग्य है।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> दिग्व्रत व देशव्रत में अंतर–</strong>देखें [[ देशव्रत#3 | देशव्रत - 3 ]]। </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> दिग्व्रत का प्रयोजन व महत्त्व </strong></span><br><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 70 | रत्नकरंड श्रावकाचार/70]] [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 71 | -71]] </span><span class="SanskritText">अवधेर्वहिरणुपापप्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयताम् । पंचमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यंते।70। प्रत्याख्यानतनुत्वांमंदतराश्च चरणमोहपरिणामा:। सत्त्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यते।71। </span>=<span class="HindiText">मर्यादा से बाहर सूक्ष्म पापों की निवृत्ति (त्याग) होने से दिग्व्रतधारियों के अणुव्रत पंच महाव्रतों की सदृशता को प्राप्त होते हैं।70। प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ के मंद होने से अतिशय मंदरूप चारित्र मोहनीय परिणाम महाव्रत की कल्पना को उत्पन्न करते हैं अर्थात् महाव्रत सरीखे प्रतीत होते हैं। और वे परिणाम बड़े कष्ट से जानने में आने योग्य हैं। अर्थात् वे कषाय परिणाम इतने सूक्ष्म होते हैं कि उनका अस्तित्व भी कठिनता से प्रतीत होता है।71।</span> <span class="GRef"> राजवार्तिक/7/21/17-19/548/29 </span><span class="SanskritText">अगमनेऽपि तदंतरावस्थितप्राणिवधाभ्यनुज्ञानं प्रसक्तम् अन्यथा वा दिक्परिमाणमनर्थकमिति; तन्न, किं कारणम् । निवृत्त्यर्थत्वात् । कात्स्न्र्येन निर्वृतिं कर्तुमशक्नुवत: शक्त्या प्राणिवधविरतिं प्रत्यागूर्णस्यात्र प्राणयात्रा भवतुवा मा वा भूत् । सत्यपि प्रयोजनभूयस्त्वे परिमितदिगवधेर्बहिर्नास्कंत्स्यामिति प्रणिधानान्न दोष:। प्रवृद्वेच्छस्य आत्मनस्तस्यां दिशि विना यत्नात् मणिरत्नादिलाभोऽस्तीत्येवम् । अन्येन प्रोत्साहितस्यापि मणिरत्नादिसंप्राप्तितृष्णाप्राकाम्यनिरोध: कथं तंत्रितो भवेदिति दिग्विरति: श्रेयसी। अहिंसाद्यणुव्रतंधारिणोऽप्यस्य परिमिताद्दिगवधेर्बहिर्मनोवाक्काययोगै: कृतकारितानुमतविकल्पै: हिंसादिसर्वसावद्यनिवृत्तिरिति महाव्रतत्वमवसेयम् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(परिमाणित) दिशाओं के (बाहर) भाग में गमन न करने पर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादा के कारण पापबंध होता है। इसलिए दिशाओं का परिमाण अनर्थक हो जायेगा ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि दिग्विरति का उद्देश्य निवृत्ति प्रधान होने से बाह्य क्षेत्र में हिंसादि की निवृत्ति करने के कारण कोई दोष नहीं है। जो पूर्णरूप से हिंसादि की निवृत्ति करने में असमर्थ है पर उस सकलविरति के प्रति आदरशील है वह श्रावक जीवन निर्वाह हो या न हो, अनेक प्रयोजन होने पर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादा को नहीं लांघता अत: हिंसा निवृत्ति होने से वह व्रती है। किसी परिग्रही व्यक्ति को ‘इस दिशा में अमुक जगह जाने पर बिना प्रयत्न के मणि-मोती आदि उपलब्ध होते हैं,’ इस प्रकार प्रोत्साहित करने पर भी दिग्व्रत के कारण बाहर जाने की और मणि-मोती आदि की सहज प्राप्ति की लालसा का निरोध होने से दिग्व्रत श्रेयस्कर है। अहिंसाणुव्रती भी परिमित दिशाओं से बाहर मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना सभी प्रकारों के द्वारा हिंसादि सर्व सावद्यों से विरक्त होता है। अत: वहाँ उसके महाव्रत ही माना जाता है।</span><br> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/10 </span><span class="SanskritText"> ततो बहिस्त्रसस्थावरव्यपरोपणनिवृत्तेर्महाव्रतत्वमवसेयम् । तत्र लाभे सत्यपि परिणामस्य निवृत्तेर्लोभनिरासश्च कृतो भवति। </span>=<span class="HindiText">उस (दिग्व्रत में की गयी) मर्यादा के बाहर त्रस और स्थावर हिंसा का त्याग हो जाने से उतने अंश में महाव्रत होता है। और मर्यादा के बाहर उसमें परिणाम न रहने के कारण लोभ का त्याग हो जाता है। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/10 </span><span class="SanskritText"> ततो बहिस्त्रसस्थावरव्यपरोपणनिवृत्तेर्महाव्रतत्वमवसेयम् । तत्र लाभे सत्यपि परिणामस्य निवृत्तेर्लोभनिरासश्च कृतो भवति। </span>=<span class="HindiText">उस (दिग्व्रत में की गयी) मर्यादा के बाहर त्रस और स्थावर हिंसा का त्याग हो जाने से उतने अंश में महाव्रत होता है। और मर्यादा के बाहर उसमें परिणाम न रहने के कारण लोभ का त्याग हो जाता है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/7/21/15-19/548); (पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/उ./138); (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/241)।</span></span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 25: | Line 25: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p> प्रथम गुणव्रत-दिशाओं और विदिशाओं में प्रसिद्ध ग्राम, नगर आदि नामों द्वारा की हुई मर्यादा का पालन । इसके पाँच अतिचार है― अधोव्यतिक्रम― लोभवश नीचे की सीमा का उल्लंघन करना,</p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> प्रथम गुणव्रत-दिशाओं और विदिशाओं में प्रसिद्ध ग्राम, नगर आदि नामों द्वारा की हुई मर्यादा का पालन । इसके पाँच अतिचार है― अधोव्यतिक्रम― लोभवश नीचे की सीमा का उल्लंघन करना,</p> | ||
<p>तिर्यग्व्यतिक्रम-समान धरातल की सीमा का उल्लंघन करना, ऊर्ध्व व्यतिक्रम-ऊपर की सीमा का उल्लंघन करना, | <p>तिर्यग्व्यतिक्रम-समान धरातल की सीमा का उल्लंघन करना, ऊर्ध्व व्यतिक्रम-ऊपर की सीमा का उल्लंघन करना, स्मृत्यन्तराधान― ली हुई सीमा को भूलकर अन्य सीमा का स्मरण रखना और क्षेत्रवृद्धि-मर्यादित क्षेत्र की सीमा बढ़ा लेना । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#198|पद्मपुराण - 14.198]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#144|हरिवंशपुराण - 58.144]],177, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.48 </span></p> | ||
</div> | </div> | ||
Latest revision as of 06:15, 7 February 2024
सिद्धांतकोष से
- दिग्व्रत का लक्षण
रत्नकरंड श्रावकाचार/68 -69 दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि। इति संकल्पो दिग्व्रतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै।68। मकराकरसरिदटवीगिरिजनपदयोजनानि मर्यादा:। प्राहुर्दिशा: दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि।69। =मरण पर्यंत सूक्ष्म पापों की विनिवृत्ति के लिए दशों दिशाओं का परिमाण करके इससे बाहर मैं नहीं जाऊँगा इस प्रकार संकल्प करना या निश्चय कर लेना सो दिग्व्रत है।68। दशों दिशाओं के त्याग में प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समुद्र, नदी, पर्वत, देश और योजन पर्यंत की मर्यादा कहते हैं।69। ( सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/10 ); ( राजवार्तिक/7/21/16/548/26 ); ( सागार धर्मामृत/5/2 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/342 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/214 पुव्वुत्तर-दक्खिण-पच्छिमासु काऊण जोयणपमाणं। परदो गमणनियत्तो दिसि विदिसि गुणव्वयं पढमं। =पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में योजनों का प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशओं में गमन नहीं करना यह प्रथम दिग्व्रत नाम का गुणव्रत है।214। - दिग्व्रत के पाँच अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र/7/30 ऊर्ध्वाधर्स्तिग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यंतराधानानि।30। =ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि औ स्मृत्यंतराधान ये दिग्विरति व्रत के पाँच अतिचार हैं।30। रत्नकरंड श्रावकाचार/73 ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाता: क्षेत्रवृद्धिरवधीनां। विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशा: पंच मंयंते।73। =अज्ञान व प्रमाद से ऊपर की, नीचे की तथा विदिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन करना, क्षेत्र की मर्यादा बढ़ा लेना और की हुई मर्यादाओं को भूल जाना, ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार माने गये हैं। - परिग्रह परिमाण व्रत और क्षेत्रवृद्धि अतिचार में अंतर
राजवार्तिक/7/30/5-6/555/21 अभिगृहीताया दिशो लोभावेशादाधिक्याभिप्तंधि: क्षेत्रवृद्धि:।5। ...स्यादेतत् – इच्छापरिणामे पंचमेऽणुव्रते अस्यांतर्भावात् पुनर्ग्रहणं पुनरुक्तमिति, तेन्न; किं कारणम् । तस्यान्याधिकरणत्वात् । इच्छापरिणामं क्षेत्रवास्त्वादिविषयम् इदं पुन: दिग्विरमणमन्यार्थम् । अस्यां दिशि लाभे जीवितलाभे च मरणमतोऽन्यत्र लाभेऽपि न गमनमिति, न तु दिशि क्षेत्रादिष्विव परिग्रहबुद्धयात्मसात्करणात् परिणामकरणमस्ति, ततोऽर्थविशेषोऽस्यावसेय:। =लोभ आदि के कारण स्वीकृत मर्यादा का बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है। प्रश्न–इच्छा परिमाण नामक पाँचवें अणुव्रत में इसका अंतर्भाव हो जाने के कारण इनका पुन: ग्रहण करना पुनरुक्त है ? उत्तर–ऐसा, नहीं है, क्योंकि, उसका अधिकरण अन्य है। इच्छा परिमाण क्षेत्र, वास्तु आदि विषयक है, परंतु यह दिशा विरमण उससे अन्य है। इस दिशा में लाभ होगा अन्यत्र लाभ नहीं होगा और लाभालाभ से जीवन-मरण की समस्या जुटी है फिर भी स्वीकृत दिशा मर्यादा से आगे लाभ होने पर भी गमन नहीं करना दिग्विरति है। दिशाओं का क्षेत्र वास्तु आदि की तरह परिग्रह बुद्धि से अपने आधीन करके प्रमाण नहीं किया जाता। इसलिए इन दोनों में भेद जानने योग्य है।
- दिग्व्रत व देशव्रत में अंतर–देखें देशव्रत - 3 ।
- दिग्व्रत का प्रयोजन व महत्त्व
रत्नकरंड श्रावकाचार/70 -71 अवधेर्वहिरणुपापप्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयताम् । पंचमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यंते।70। प्रत्याख्यानतनुत्वांमंदतराश्च चरणमोहपरिणामा:। सत्त्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यते।71। =मर्यादा से बाहर सूक्ष्म पापों की निवृत्ति (त्याग) होने से दिग्व्रतधारियों के अणुव्रत पंच महाव्रतों की सदृशता को प्राप्त होते हैं।70। प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ के मंद होने से अतिशय मंदरूप चारित्र मोहनीय परिणाम महाव्रत की कल्पना को उत्पन्न करते हैं अर्थात् महाव्रत सरीखे प्रतीत होते हैं। और वे परिणाम बड़े कष्ट से जानने में आने योग्य हैं। अर्थात् वे कषाय परिणाम इतने सूक्ष्म होते हैं कि उनका अस्तित्व भी कठिनता से प्रतीत होता है।71। राजवार्तिक/7/21/17-19/548/29 अगमनेऽपि तदंतरावस्थितप्राणिवधाभ्यनुज्ञानं प्रसक्तम् अन्यथा वा दिक्परिमाणमनर्थकमिति; तन्न, किं कारणम् । निवृत्त्यर्थत्वात् । कात्स्न्र्येन निर्वृतिं कर्तुमशक्नुवत: शक्त्या प्राणिवधविरतिं प्रत्यागूर्णस्यात्र प्राणयात्रा भवतुवा मा वा भूत् । सत्यपि प्रयोजनभूयस्त्वे परिमितदिगवधेर्बहिर्नास्कंत्स्यामिति प्रणिधानान्न दोष:। प्रवृद्वेच्छस्य आत्मनस्तस्यां दिशि विना यत्नात् मणिरत्नादिलाभोऽस्तीत्येवम् । अन्येन प्रोत्साहितस्यापि मणिरत्नादिसंप्राप्तितृष्णाप्राकाम्यनिरोध: कथं तंत्रितो भवेदिति दिग्विरति: श्रेयसी। अहिंसाद्यणुव्रतंधारिणोऽप्यस्य परिमिताद्दिगवधेर्बहिर्मनोवाक्काययोगै: कृतकारितानुमतविकल्पै: हिंसादिसर्वसावद्यनिवृत्तिरिति महाव्रतत्वमवसेयम् । =प्रश्न–(परिमाणित) दिशाओं के (बाहर) भाग में गमन न करने पर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादा के कारण पापबंध होता है। इसलिए दिशाओं का परिमाण अनर्थक हो जायेगा ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि दिग्विरति का उद्देश्य निवृत्ति प्रधान होने से बाह्य क्षेत्र में हिंसादि की निवृत्ति करने के कारण कोई दोष नहीं है। जो पूर्णरूप से हिंसादि की निवृत्ति करने में असमर्थ है पर उस सकलविरति के प्रति आदरशील है वह श्रावक जीवन निर्वाह हो या न हो, अनेक प्रयोजन होने पर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादा को नहीं लांघता अत: हिंसा निवृत्ति होने से वह व्रती है। किसी परिग्रही व्यक्ति को ‘इस दिशा में अमुक जगह जाने पर बिना प्रयत्न के मणि-मोती आदि उपलब्ध होते हैं,’ इस प्रकार प्रोत्साहित करने पर भी दिग्व्रत के कारण बाहर जाने की और मणि-मोती आदि की सहज प्राप्ति की लालसा का निरोध होने से दिग्व्रत श्रेयस्कर है। अहिंसाणुव्रती भी परिमित दिशाओं से बाहर मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना सभी प्रकारों के द्वारा हिंसादि सर्व सावद्यों से विरक्त होता है। अत: वहाँ उसके महाव्रत ही माना जाता है।
सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/10 ततो बहिस्त्रसस्थावरव्यपरोपणनिवृत्तेर्महाव्रतत्वमवसेयम् । तत्र लाभे सत्यपि परिणामस्य निवृत्तेर्लोभनिरासश्च कृतो भवति। =उस (दिग्व्रत में की गयी) मर्यादा के बाहर त्रस और स्थावर हिंसा का त्याग हो जाने से उतने अंश में महाव्रत होता है। और मर्यादा के बाहर उसमें परिणाम न रहने के कारण लोभ का त्याग हो जाता है। (राजवार्तिक/7/21/15-19/548); (पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/उ./138); (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/241)।
पुराणकोष से
प्रथम गुणव्रत-दिशाओं और विदिशाओं में प्रसिद्ध ग्राम, नगर आदि नामों द्वारा की हुई मर्यादा का पालन । इसके पाँच अतिचार है― अधोव्यतिक्रम― लोभवश नीचे की सीमा का उल्लंघन करना,
तिर्यग्व्यतिक्रम-समान धरातल की सीमा का उल्लंघन करना, ऊर्ध्व व्यतिक्रम-ऊपर की सीमा का उल्लंघन करना, स्मृत्यन्तराधान― ली हुई सीमा को भूलकर अन्य सीमा का स्मरण रखना और क्षेत्रवृद्धि-मर्यादित क्षेत्र की सीमा बढ़ा लेना । पद्मपुराण - 14.198, हरिवंशपुराण - 58.144,177, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.48