पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 126-128 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । (126)
परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥136॥
गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । (127)
तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो व ॥137॥
जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । (128)
इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥138॥
अर्थ:
वास्तव में जो संसारस्थ जीव है, उससे ही परिणाम होता है; परिणाम से कर्म, कर्मोदय के कारण गतियों में गमन होता है ।
गति प्राप्त के देह है, देह से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं, उनसे विषयों का ग्रहण होता है, उनसे राग या द्वेष होता है ।
ये भाव संसार-चक्र में जीव के अनादि-अनन्त या अनादि-सान्त होते रहते हैं ऐसा जिनवरों ने कहा है ।
समय-व्याख्या:
उक्तौ मूलपदार्थौ । अथ संयोगपरिणामनिर्वृत्तेतरसप्तपदार्थानामुपोद्घातार्थं जीवपुद्गल-कर्मचक्रमनुवर्ण्यते -
इह हि संसारिणो जीवादनादिबन्धनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामो भवति । परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म । कर्मणो नारकादिगतिषु गतिः । गत्यधि-गमनाद्देहः । देहादिन्द्रियाणि । इन्द्रियेभ्यो विषयग्रहणम् । विषयग्रहणाद्रागद्वेषौ ।रागद्वेषाभ्यां पुनः स्निग्धः परिणामः । परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म । कर्मणःपुनर्नारकादिगतिषु गतिः । गत्यधिगमनात्पुनर्देहः । देहात्पुनरिन्द्रियाणि । इन्द्रियेभ्यःपुनर्विषयग्रहणम् । विषयग्रहणात्पुना रागद्वेषौ । रागद्वेषाभ्यां पुनरपि स्निग्धः परिणामः ।एवमिदमन्योन्यकार्यकारणभूतजीवपुद्गलपरिणामात्मकं कर्मजालं संसारचक्रे जीवस्यानाद्यनिधनं अनादिसनिधनं वा चक्रवत्परिवर्तते । तदत्र पुद्गलपरिणामनिमित्तो जीवपरिणामो जीव-परिणामनिमित्तः पुद्गलपरिणामश्च वक्ष्यमाणपदार्थबीजत्वेन संप्रधारणीय इति ॥१२६-१२८॥
समय-व्याख्या हिंदी :
इस लोक में संसारी जीव से अनादि बन्धन रूप उपाधि के वश स्निग्ध परिणाम होता है, परिणाम से पुद्गल-परिणामात्मक कर्म, कर्म से नरकादि गतियों में गमन, गति की प्राप्ति से देह, देह से इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से विषयग्रहण, विषयग्रहण से रागद्वेष, रागद्वेष से फ़िर स्निग्ध परिणाम, परिणाम से फ़िर पुद्गल-परिणामात्मक कर्म, कर्म से फ़िर नरकादि गतियों में गमन, गति की प्राप्ति से फ़िर देह, देह से फ़िर इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से फ़िर विषय-ग्रहण, विषय-ग्रहण से फ़िर राग-द्वेष, राग-द्वेष से फ़िर पुनः स्निग्ध परिणाम । इस प्रकार यह अन्योन्य १कार्य-कारण-भूत जीव-परिणामात्मक और पुद्गल-परिणामात्मक कर्म-जाल संसार-चक्र में जीव को अनादि-अनन्त-रूप से अथवा अनादि-सान्त-रूप से चक्र की भाँति पुनः-पुनः होते रहते हैं ।
इस प्रकार यहाँ (ऐसा कहा कि), पुद्गल-परिणाम जिनका निमित्त है ऐसे जीव-परिणाम और जीव-परिणाम जिनका निमित्त है ऐसे पुद्गल-परिणाम अब आगे कहे जाने वाले (पुण्यादि सात) पदार्थों के बीज-रूप अवधारना ॥१२६-१२८॥
अब पुण्य-पाप पदार्थ का व्याख्यान है।
१कार्य अर्थात नैमित्तिक, और कारण अर्थात निमित्त। (जीव-परिणामात्मक कर्म और पुद्गल-परिणामात्मक कर्म परस्पर कार्य-कारण-भूत अर्थात नैमित्तिक-निमित्तभूत हैं। वे कर्म किसी जीव को अनादि-अनन्त और किसी जीव को अनादि-सान्त होते हैं।)