पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 164 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभीत्तिसंपण्णों । (164)
बंधदि पुण्णं बहुसो ण दु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥174॥
अर्थ:
अरहन्त, सिद्ध, चैत्य (प्रतिमा), प्रवचन (जिनवाणी), मुनिगण, ज्ञान के प्रति भक्ति सम्पन्न जीव बहुत पुण्य बाँधता है; परंतु वह कर्म का क्षय नहीं करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अरहन्त, सिद्ध, चैत्य (अरहन्तादि की प्रतिमा), प्रवचन (जिनवाणी), गण / मुनिगण, ज्ञान में भक्ति से सम्पन्न जीव बहुश: प्रचुर मात्रा में [हु] स्पष्ट-रूप से पुण्य बाँधता है; सो वह [ण कम्मक्खयं कुणदि] कर्म का क्षय नहीं करता है ।
यहाँ निरास्रवमय शुद्ध निजात्मा की संवित्ति से मोक्ष होता है, इस कारण पराश्रित परिणाम से मोक्ष होने का निषेध किया गया है; -- ऐसा सूत्रार्थ है ॥१७४॥