ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 164 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभीत्तिसंपण्णों । (164)
बंधदि पुण्णं बहुसो ण दु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥174॥
अर्थ:
अरहन्त, सिद्ध, चैत्य (प्रतिमा), प्रवचन (जिनवाणी), मुनिगण, ज्ञान के प्रति भक्ति सम्पन्न जीव बहुत पुण्य बाँधता है; परंतु वह कर्म का क्षय नहीं करता है ।
समय-व्याख्या:
उक्तशुद्धसम्प्रयोगस्य कथञ्चिद्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिरासोऽयम् ।
अर्हदादिभक्तिसम्पन्नः कथञ्चिच्छुद्धसम्प्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छु-भोपयोगतामजहत् बहुशः पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते । ततः सर्वत्ररागकणिकाऽपि परिहरणीया परसमयप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादिति ॥१६४॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ, पूर्वोक्त शुद्ध-सम्प्रयोग को १कथंचित् बंधहेतुपना होने से उसका मोक्ष-मार्गपना २निरस्त किया है (अर्थात् ज्ञानी को वर्तता हुआ शुद्ध-सम्प्रयोग निश्चय से बंध-हेतु-भूत होने के कारण यह मोक्ष-मार्ग नहीं है ऐसा यहाँ दर्शाया है) । अर्हंतादि के प्रति भक्ति-सम्पन्न जीव, कथंचित् ३'शुद्ध-सम्प्रयोगवाला' होने पर भी, ४रागलव जीवित (विद्यमान) होने से 'शुभोपयोगीपने' को नहीं छोडता हुआ, बहुत पुण्य बांधता है, परन्तु वास्तव में सकल कर्म का क्षय नहीं करता । इसलिये सर्वत्र राग की कणिका भी परिहरने योग्य है, क्योंकि वह परसमयप्रवृत्ति का कारण है ॥१६४॥
१कथंचित = किसी प्रकार; किसी अपेक्षा से (अर्थात निश्चय-नय की अपेक्षा से) ।
२निरस्त करना = खंडित करना; निकाल देना; निषिद्ध करना ।
३सिद्धि के निमित्त-भूत ऐसे जो अहन्तादि उनके प्रति भक्तिभाव को पहले शुद्ध-सम्प्रयोग कहा गया है । उसमें 'शुद्ध ' शब्द होने पर भी 'शुभ' उपयोगरूप रागभाव है । ( 'शुभ ' ऐसे अर्थ में जिस प्रकार 'विशुद्ध' शब्द कदाचित् प्रयोग होता है उसी प्रकार यहाँ 'शुद्ध' शब्द का प्रयोग हुआ है । )
४रागलव = किंचित राग; अल्प राग ।