पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 169 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 11: | Line 11: | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 170 - समय-व्याख्या | अगला पृष्ठ ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 170 - समय-व्याख्या | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र गाथा 169 - तात्पर्य-वृत्ति | इसी गाथा की तात्पर्य-वृत्ति टीका]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 169 - तात्पर्य-वृत्ति | इसी गाथा की तात्पर्य-वृत्ति टीका]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - समय-व्याख्या अनुक्रमणिका | समय-व्याख्या अनुक्रमणिका ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - समय-व्याख्या अनुक्रमणिका | समय-व्याख्या अनुक्रमणिका ]] |
Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
अरहंतसिद्धचेदियपवयणभत्तो परेण णियमेण । (169)
जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि ॥179॥
अर्थ:
अरहन्त, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन का भक्त होता हुआ जो उत्कृष्टरूप से तप:कर्म करता है, वह नियम से सुरलोक को प्राप्त होता है ।
समय-व्याख्या:
अर्हदादिभक्तिमात्ररागजनितसाक्षान्मोक्षस्यान्तरायद्योतनमेतत् ।
यः खल्वर्हदादिभक्तिविधेयबुद्धिः सन् परमसंयमप्रधानमतितीव्रं तपस्तप्यते, सतावन्मात्ररागकलिकलङ्कितस्वान्तः साक्षान्मोक्षस्यान्तरायीभूतं विषयविषद्रुमामोदमोहितान्तरङ्गं स्वर्गलोकं समासाद्य, सुचिरं रागाङ्गारैः पच्यमानोऽन्तस्ताम्यतीति ॥१६९॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, मात्र अर्हंतादि की भक्ति जितने राग से उत्पन्न होनेवाला जो साक्षात् मोक्ष का अंतराय, उसका प्रकाशन है ।
जो (जीव) वास्तव में अर्हंतादि की भक्ति के आधीन बुद्धिवाला वर्तता हुआ १परमसंयमप्रधान अतितीव्र तप तपता है, वह (जीव), मात्र उतने राग-रूप क्लेश से जिसका निज अंतःकरण कलंकित (मलिन) है ऐसा वर्तता हुआ, विषय-विष-वृक्ष के २आमोद से जहाँ अन्तरंग (अंतःकरण) मोहित होता है ऐसे स्वर्गलोक को -- जो कि साक्षात् मोक्ष को अन्तराय-भूत है उसे सम्प्राप्त करके, सुचिरकाल- पर्यंत (बहुत लम्बे काल तक) राग-रूपी अंगारों से दह्यमान हुआ अन्तर में संतप्त (दुःखी, व्यथित) होता है ॥१६९॥
१परमसंयमप्रधान = उत्कृष्ट संयम जिसमें मुख्य हो ऐसा ।
२आमोद = (१) सुगंध; (२) मौज ।