ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 170 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
तम्हा णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदु मा किंचि । (170)
सो तेण वीदारागो भवियो भवसायरं तरदि ॥180॥
अर्थ:
इसलिए मोक्षाभिलाषी सर्वत्र किंचित् भी राग न करे । इससे वह वीतरागी भव्य भवसागर को तिर जाता है / पार कर जाता है ।
समय-व्याख्या:
साक्षान्मोक्षमार्गसारसूचनद्वारेण शास्त्रतात्पर्योपसंहारोऽयम् ।
साक्षान्मोक्षमार्गपुरस्सरो हि वीतरागत्वम् । ततः खल्वर्हदादिगतमपि रागं चन्दननग-सङ्गतमग्निमिव सुरलोकादिक्लेशप्राप्त्याऽत्यन्तमन्तर्दाहाय कल्पमानमाकलय्य साक्षान्मोक्षकामो महाजनः समस्तविषयमपि रागमुत्सृज्यात्यन्तवीतरागो भूत्वा समुच्छलज्ज्वलद्दुःखसौख्यकल्लोलं कर्माग्नितप्तकलकलोदभारप्राग्भारभयङ्करं भवसागरमुत्तीर्य, शुद्धस्वरूपपरमामृतसमुद्रमध्यास्य सद्यो निर्वाति ॥
अलं विस्तरेण । स्वस्ति साक्षान्मोक्षमार्गसारत्वेन शास्त्रतात्पर्यभूताय वीतराग-त्वायेति । द्विविधं किल तात्पर्यम् - सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यञ्चेति । तत्र सूत्रतात्पर्यंप्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् । शास्त्रतात्पर्यं त्विदं प्रतिपाद्यते । अस्य खलु पारमेश्वरस्यशास्त्रस्य, सकलपुरुषार्थसारभूतमोक्षतत्त्वप्रतिपत्तिहेतोः पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यस्वरूपप्रतिपादनेनोपदर्शितसमस्तवस्तुस्वभावस्य, नवपदार्थप्रपञ्चसूचनाविष्कृतबन्धमोक्षसम्बन्धिबन्ध-मोक्षायतनबन्धमोक्षविकल्पस्य, सम्यगावेदितनिश्चयव्यवहाररूपमोक्षमार्गस्य, साक्षान्मोक्ष-कारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति ।तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये,न पुनरन्यथा । व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयःसुखेनैवावतरन्ति तीर्थं प्राथमिकाः । तथाहि — इदं श्रद्धेयमिदमश्रद्धेयमयं श्रद्धातेदंश्रद्धानमिदं ज्ञेयमिदमज्ञेयमयं ज्ञातेदं ज्ञानमिदं चरणीयमिदमचरणीयमयं चरितेदं चरणमिति कर्तव्याकर्तव्यकर्तृकर्मविभागावलोकनोल्लसितपेशलोत्साहाः शनैःशनैर्मोह-मल्लमुन्मूलयन्तः, कदाचिदज्ञानान्मदप्रमादतन्त्रतया शिथिलितात्माधिकारस्यात्मनो न्यायपथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः, पुनः पुनः दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चित्ताः सन्ततोद्यताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानचारित्रैरधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्यसाधनभावस्य रजकशिलातलस्फ ाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहितोषपरिष्वङ्ग-मलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शन-ज्ञानचारित्रसमाहितत्वरूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्डाडम्बरनिस्तरङ्गपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूत्रयन्तः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य, साक्षान्मोक्षमनुभवन्तीति ।अथ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाध्यसाधनभावावलोकनेना-ऽनवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्धानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतसः, प्रभूतश्रुत-संस्काराधिरोपितविचित्रविकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तयः, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपः-प्रवृत्तिरूपकर्मकाण्डोड्डमराचलिताः, कदाचित्किञ्चिद्रोचमानाः, कदाचित्किञ्चिद्विकल्पयन्तः, कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः; दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्तः, कदाचित्संविजमानाः, कदाचिदनुकम्पमानाः, कदाचिदास्तिक्यमुद्वहन्तः, शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामूढदृष्टितानां व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकराः, उपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनां भावयमाना वारंवारमभिवर्धितोत्साहा; ज्ञानाचरणाय स्वाध्यायकालमवलोकयन्तो, बहुधा विनयं प्रपञ्चयन्तः, प्रविहितदुर्धरोपधानाः, सुष्ठु बहुमानमातन्वन्तो, निह्नवापत्तिं नितरां निवारयन्तोऽर्थव्यञ्जनतदुभयशुद्धौ नितान्तसावधानाः; चारित्राचरणाय हिंसानृतस्तेया-ब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरतिरूपेषु पञ्चमहाव्रतेषु तन्निष्ठवृत्तयः, सम्यग्योगनिग्रहलक्षणासु गुप्तिषु नितान्तं गृहीतोद्योगा, ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्वत्यन्त-निवेशितप्रयत्नाः; तपआचरणायानशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त-शय्यासनकायक्लेशेष्वभीक्ष्णमुत्सहमानाः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यान-परिकराङ्कुशितस्वान्ता; वीर्याचरणाय कर्मकाण्डे सर्वशक्त्या व्याप्रियमाणाः; कर्म-चेतनाप्रधानत्वाद्दूरनिवारिताऽशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्तशुभकर्मप्रवृत्तयः, सकल-क्रियाकाण्डाडम्बरोत्तीर्णदर्शनज्ञानचारित्रैक्यपरिणतिरूपां ज्ञानचेतनां मनागप्यसम्भावयन्तः,प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तयः, सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति । उक्तञ्च --
((चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा ।
चरणकरणस्स सारंणिच्छयसुद्धं ण जाणंति ॥))
येऽत्र केवलनिश्चयावलम्बिनः सकलक्रियाकर्मकाण्डाडम्बरविरक्तबुद्धयोऽर्धमीलित-विलोचनपुटाः किमपि स्वबुद्धयावलोक्य यथासुखमासते, ते खल्ववधीरितभिन्न-साध्यसाधनभावा अभिन्नसाध्यसाधनभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमद-भरालसचेतसो मत्ता इव, मूर्च्छिता इव, सुषुप्ता इव, प्रभूतघृतसितोपलपायसासादित-सौहित्या इव, समुल्बणबलसञ्जनितजाडया इव, दारुणमनोभ्रंशविहितमोहा इव, मुद्रितविशिष्टचैतन्या वनस्पतय इव, मौनीन्द्रीं कर्मचेतनां पुण्यबन्धभयेनानवलम्बमाना अनासादितपरमनैष्कर्म्यरूपज्ञानचेतनाविश्रान्तयो व्यक्ताव्यक्तप्रमादतन्त्रा अरमागतकर्मफल-चेतनाप्रधानप्रवृत्तयो वनस्पतय इव केवलं पापमेव बध्नन्ति । उक्तञ्च --
((णिच्छयमालंबंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता ।
णासंति चरणकरणं बाहरि-चरणालसाकेई ॥))
ये तु पुनरपुनर्भवाय नित्यविहितोद्योगमहाभागा भगवन्तो निश्चयव्यवहारयो-रन्यतरानवलम्बनेनात्यन्तमध्यस्थीभूताः शुद्धचैतन्यरूपात्मतत्त्वविश्रान्तिविरचनोन्मुखाः प्रमादोदयानुवृत्तिनिवर्तिकां क्रियाकाण्डपरिणतिं माहात्म्यान्निवारयन्तोऽत्यन्त-मुदासीना यथाशक्त्याऽऽत्मानमात्मनाऽऽत्मनि सञ्चेतयमाना नित्योपयुक्ता निवसन्ति, ते खलु स्वतत्त्वविश्रान्त्यनुसारेण क्रमेण कर्माणि सन्न्यसन्तोऽत्यन्तनिष्प्रमादा नितान्तनिष्कम्पमूर्तयो वनस्पतिभिरुपमीयमाना अपि दूरनिरस्तकर्मफ लानुभूतयः कर्मानुभूति-निरुत्सुकाः केवलज्ञानानुभूतिसमुपजाततात्त्विकानन्दनिर्भरतरास्तरसा संसारसमुद्रमुत्तीर्य शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतस्य भोक्तारो भवन्तीति ॥१७०॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, साक्षात्मोक्ष-मार्ग के सार-सूचन द्वारा शास्त्र तात्पर्य-रूप उपसंहार है (अर्थात् यहाँ साक्षात मोक्ष-मार्ग का सार क्या है उसके कथन द्वारा शास्त्र का तात्पर्य कहने रूप उपसंहार किया है) ।
साक्षात मोक्ष-मार्ग में अग्रसर सचमुच वीतरागता है । इसलिए वास्तव में, १अर्हंतादिगत राग को भी, चंदनवृक्ष संगत अग्नि की भाँति, देवलोकादि के क्लेश की प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अन्तर्दाह का कारण समझकर, साक्षात् मोक्ष का अभिलाषी महाजन सभी की ओर से राग को छोड्कर, अत्यन्त वीतराग होकर, जिसमें उबलती हुई दुःखसुख की कल्लोल ऊछलती है और जो कर्माग्नि द्वारा तप्त, खलबलाते जलसमूह की अतिशयता से भयंकर है ऐसे भवसागर को पार उतरकर, शुद्ध-स्वरूप परमामृत समुद्र को अवगाहकर, शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है । -विस्तार से बस हो । जयवन्त वर्ते वीतरागता जो कि साक्षात-मोक्ष-मार्ग का सार होने से शास्त्र तात्पर्य-भूत है ।
तात्पर्य द्विविध होता है: २सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । उसमें, सूत्र-तात्पर्य प्रत्येक सूत्र में (प्रत्येक गाथा में) प्रतिपादित किया गया है, और शास्त्र-तात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है: - सर्व ३पुरुषार्थों में सारभूत ऐसे मोक्षतत्त्व का प्रतिपादन करने के लिये जिसमें पंचास्तिकाय और षड़द्रव्य के स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा समस्त वस्तु का स्वभाव दर्शाया गया है, नव पदार्थ के विस्तृत कथन द्वारा जिसमें बन्ध-मोक्ष के सम्बन्धी (स्वामी), बन्ध-मोक्ष के आयतन (स्थान) और बन्ध -मोक्ष के विकल्प (भेद) प्रगट किए गए हैं, निश्चय-व्यवहार-रूप मोक्ष-मार्ग का जिसमें सम्यक् निरूपण किया गया है तथा साक्षात मोक्ष के कारणभूत परम-वीतराग-पने में जिसका समस्त हृदय स्थित है ऐसे इस सचमुच ४पारमेश्वर शास्त्र का, परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है । सो इस वीतरागपने का व्यवहार-निश्चय के ५अविरोध द्वारा ही अनुसरण किया जाए तो इष्ट सिद्धि होती है, परन्तु अन्यथा नहीं (अर्थात् व्यवहार और निश्चय की सुसंगतता रहे इस प्रकार वीतरागपने का अनुसरण किया जाए तभी इच्छित की सिद्धि होती है, अन्य प्रकार से नहीं होती ।)
(उपरोक्त बात विशेष समझाई जाती है: -)
अनादि काल से भेदवासित बुद्धि होने के कारण प्राथमिक जीव व्यवहारनय से ६भिन्न साध्यसाधनभाव का अवलम्बन लेकर ७सुख से तीर्थ का प्रारम्भ करते हैं (अर्थात् सुगमता से मोक्षमार्ग की प्रारम्भ भूमिका का सेवन करते हैं) । जैसे कि
- यह श्रद्धेय (श्रद्धा करने योग्य) है,
- यह अश्रद्धेय है,
- यह श्रद्धा करने वाला है और
- यह श्रद्धान है;
- यह ज्ञेय (जाननेयोग्य) है,
- यह अज्ञेय है,
- यह ज्ञाता है और
- यह ज्ञान है;
- यह आचरणीय (आचरण करने योग्य) है,
- यह अनाचरणीय है,
- यह आचरण करने वाला है और
- यह आचरण है;
- कर्तव्य (करने योग्य),
- अकर्तव्य,
- कर्ता और
- कर्मरूप विभागों के अवलोकन द्वारा जिन्हें कोमल उत्साह उल्लसित होता है
(अब केवलव्यवहारावलम्बी / अज्ञानी जीवों को प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता है :-)
परन्तु जो केवल-व्यवहारावलम्बी (मात्र व्यवहार का अवलम्बन करने वाले) हैं वे वास्तव में ९भिन्न-साध्य-साधन-भाव के अवलोकन द्वारा निरन्तर अत्यन्त खेद पाते हुए,
- पुनःपुन: धर्मादि के श्रद्धानरूप अध्यवसान में उनका चित्त लगता रहने से,
- बहुत श्रुत के (द्रव्यश्रुत के) संस्कारों से उठने वाले विचित्र (अनेक प्रकार के) विकल्पों के जाल द्वारा उनकी चैतन्यवृत्ति चित्र-विचित्र होती है इसलिए और
- समस्त यति आचार के समुदायरूप तप में प्रवर्तन-रूप कर्म-काण्ड की धमाल में वे अचलित रहते हैं
- कभी किसी को (किसी विषय की) रुचि करते हैं,
- कभी किसी के (किसी विषय के) विकल्प करते हैं और
- कभी कुछ आचरण करते हैं;
१५चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कावावारा ।
चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणति ॥
(अर्थात् जो चरणपरिणामप्रधान है और स्वसमयरूप परमार्थ में व्यापाररहित हैं, ये चरणपरिणाम का सार जो निश्चयशुद्ध / आत्मा उसे नहीं जानते ।)१६
(अब केवल-निश्चयावलम्बी / अज्ञानी जीवों का प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता है -)
अब, जो केवल-निश्चयावलम्बी हैं, सकल क्रिया-कर्मकाण्ड के आडम्बर में विरक्त बुद्धि वाले वर्तते हुए, आँखों को अध-मुन्दा रखकर कुछ भी स्वबुद्धि से अवलोक कर १७यथासुख रहते हैं (अर्थात् स्व-मति-कल्पना से कुछ भी भास की कल्पना करके इच्छानुसार जैसे सुख उत्पन्न हो वैसे - रहते हैं,) वास्तव में १८भिन्न-साध्य-साधन-भाव को तिरस्कारते हुए, अभिन्न-साध्य-साधन-भाव को उपलब्ध नहीं करते हुए, अंतराल में ही (शुभ तथा शुद्ध के अतिरिक्त शेष तीसरी अशुभ दशा में ही), प्रमाद मदिरा के मद से भरे हुए आलसी चित्तवाले वर्तते हुए, मत्त (उन्मत्त) जैसे, मूर्छित जैसे, सुषुप्त जैसे, बहुत घी-शक्कर खीर खाकर तृप्ति को प्राप्त हुए (तृप्त हुए) हों ऐसे, मोटे शरीर के कारण जडता (मंदता, निष्क्रियता) उत्पन्न हुई हो ऐसे, दारुण बुद्धि-भ्रंश से मूढता हो गई हो ऐसे, जिसका विशिष्ट चैतन्य मुँद गया है ऐसी वनस्पति जैसे, मुनींद्र की कर्म-चेतना को २०पुण्यबंध के भय से नहीं अवलम्बते हुए और परम नैष्कर्म्य-रूप ज्ञान-चेतना में विश्रांति को प्राप्त नहीं होते हुए, (मात्र) व्यक्त-अव्यक्त प्रमाद के आधीन वर्तते हुए, प्राप्त हुए हलके (निकृष्ट) कर्म-फल की चेतना के प्रधानपने वाली प्रवृत्ति जिसे वर्तती है ऐसी वनस्पति की भाँति, केवल पाप को ही बाँधते है । कहा भी है कि:
२१णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता ।
णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई ॥
(अर्थात् निश्चय का अवलम्बन लेने वाले परन्तु निश्चय से निश्चय को नहीं जानने वाले कई जीव बा्ह्य चरण में आलसी वर्तते हुए चरणपरिणाम का नाश करते हैं ।)२२
(अब निश्चय-व्यवहार दोनों का २३सुमेल रहे इस प्रकार भूमिकानुसार प्रवर्तन करने वाले ज्ञानी जीवों का प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता है: )
- परन्तु जो, अपुनर्भव के (मोक्ष के) लिये नित्य उद्योग करने वाले २३महाभाग भगवन्तों, निश्चय-व्यवहार में से किसी २४एक का ही अवलम्बन नहीं लेने से (केवल-निश्चयावलम्बी या केवल-व्यवहारावलम्बी नहीं होने से) अत्यन्त मध्यस्थ वर्तते हुए, शुद्ध-चैतन्य-रूप आत्म-तत्त्व में विश्रांति के २५विरचन की अभिमुख (उन्मुख) वर्तते हुए, प्रमाद के उदय का अनुसरण करती हुई वृत्ति का निवर्तन करने वाली (टालने वाली) क्रिया-काण्ड-परिणति को माहात्म्य में से वारते हुए (शुभ क्रियाकाण्डपरिणति हठ रहित सहजरूप से भूमिकानुसार वर्तती होने पर भी अतरंग में उसे माहात्म्य नहीं देते हुए), अत्यन्त उदासीन वर्तते हुए, यथाशक्ति आत्मा को आत्मा से आत्मा में संचेतते (अनुभवते) हुए नित्य-उपयु्क्त रहते हैं, वे (वे महाभाग भगवन्तों), वास्तव में स्वतत्व में विश्रांति के अनुसार क्रमश: कर्म का संन्यास करते हुए (स्वतत्त्व में स्थिरता होती जाये तदनुसार शुभ भावों को छोड़ते हुए), अत्यन्त निष्प्रमाद वर्तते हुए, अत्यन्त निष्कंपमूर्ति होने से जिन्हें वनस्पति की उपमा दी जाती है तथापि जिन्होंने कर्म-फलानुभूति अत्यन्त निरस्त (नष्ट) की है ऐसे, कर्मानुभूति के प्रति निरुत्सुक वर्तते हुए, केवल (मात्र) ज्ञानानुभूति से उत्पन्न हुए तत्त्विक आनन्द से अत्यन्त भरपूर वर्तते हुए, शीघ्र संसार-समुद्र को पार उतरकर, शब्द-ब्रह्म के शाश्वत फल के (निर्वाण-सुख के) भोक्ता होते हैं ॥१७०॥
१अर्हंतादिगत राग = अर्हंतादि की ओर का राग; अर्हंतादि विषयक राग; अर्हंतादि का राग । (जिस प्रकार चंदनवृक्ष की अग्नि भी उग्ररूप से जलाती है, उसी प्रकार अर्हंतादि का राग भी देवलोकादि के क्लेश की प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अन्तरंग जलन का कारण होता है । )
२प्रत्येक गाथासूत्र का तात्पर्य सो सूत्रतात्पर्य है और सम्पूर्ण शास्त्र का तात्पर्य सो शास्त्र तात्पर्य है ।
३पुरुषार्थ = पुरुष-अर्थ; पुरुष-प्रयोजन । (पुरुषार्थ के चार विभाग किए जाते हैं: धर्म अर्थ, काम और मोक्ष; परन्तु सर्व पुरुष-अर्थों में मोक्ष ही सारभूत (तात्त्विक) पुरुष-अर्थ है ।)
४पारमेश्वर = परमेश्वर के; जिनभगवान के; भागवत; दैवी; पवित्र ।
५छठवें गुणस्थान में मुनियोग्य शुद्धपरिणति का निरन्तर होना तथा महाव्रतादि सम्बन्धी शुभभावों का यथायोग्यरूपसे होना वह निश्चय-व्यवहार के अविरोध का (सुमेल का) उदाहरण है । पाँचवे गुणस्थान में उस गुणस्थान के योग्य शुद्धपरिणति निरन्तर होना तथा देशव्रतादि सम्बन्धी शुभभावों का यथा-योग्यरूप से होना वह भी निश्चय-व्यवहार के अविरोध का उदाहरण है ।
६मोक्षमार्ग प्राप्त ज्ञानी जीवों को प्राथमिक भूमिका में, साध्य तो परिपूर्ण शुद्धतारूप से परिणत आत्मा है और उसका साधन व्यवहारनय से (आंशिक शुद्धि के साथ-साथ रहनेवाले) भेदरत्नत्रयरूप परावलम्बी विकल्प कहे जाते है । इस प्रकार उन जीवों को व्यवहारनय से साध्य और साधन भिन्न प्रकार के कहे गए हैं । (निश्चयनय से साध्य और साधन अभिन्न होते हैं।)
७सुख से = सुगमता से; सहजरूप से; कठिनाई बिना । (जिन्होंने द्रव्यार्थिक-नय के विषयभूत शुद्धात्मस्वरूप के श्रद्धानादि किए हैं ऐसे सम्यग्ज्ञानी जीवों को तीर्थसेवन की प्राथमिक दशा में (-मोक्षमार्ग सेवन की प्रारंभिक भूमिका में) आंशिक शुद्धि के साथ-साथ श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र सम्बन्धी परावलम्बी विकल्प (भेद-रत्नत्रय) होते हैं, क्योंकि अनादि काल से जीवों को जो भेद-वासना से वासित परिणति चली आ रही है उसका तुरन्त ही सर्वथा नाश होना कठिन है ।)
८व्यवहार-श्रद्धानज्ञानचारित्र के विषय आत्मा से भिन्न हैं; क्योंकि व्यवहार श्रद्धान का विषय नव पदार्थ है, व्यवहारज्ञान का विषय अंग-पूर्व है और व्यवहारचारित्र का विषय आचारादिसूत्र कथित मुनि-आचार है ।
९जिस प्रकार धोबी पाषाणशिला, पानी और साबुन द्वारा मलिन वस्त्र की शुद्धि करता जाता है, उसी प्रकार प्राक्पदवीस्थित ज्ञानी जीव भेदरत्नत्रय द्वारा अपने आत्मा में संस्कार को आरोपण करके उसकी थोडी-थोडी शुद्धि करता जाता है ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है । परमार्थ ऐसा है कि उस भेदरत्नत्रयवाले ज्ञानी जीव को शुभ भावों के साथ जो शुद्धात्मस्वरूप का आंशिक आलम्बन वर्तता है वही उग्र होते-होते विशेष शुद्धि करता जाता है । इसलिए वास्तव में तो, शुद्धात्मस्वरूप का आलम्बन करना ही शुद्धि प्रगट करने का साधन है और उस आलम्बन की उग्रता करना ही शुद्धि की वृद्धि करने का साधन है । साथ रहे हुए शुभभावों का शुद्धि की वृद्धि का साधन कहना वह तो मात्र उपचारकथन है । शुद्धि की वृद्धि के उपचरितसाधनपने का आरोप भी उसी जीव के शुभभावों में आ सकता है कि जिस जीव ने शुद्धि की वृद्धि का यथार्थ साधन (-शुद्धात्मस्वरूप का यथोचित आलम्बन) प्रगट किया हो ।
१०वास्तव में साध्य और साधन अभिन्न होते हैं । जहाँ साध्य और साधन भिन्न कहे जायें वहाँ 'यह सत्यार्थ निरूपण नहीं है किन्तु व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण किया है' -ऐसा समझना चाहिये । केवलव्यवहारावलम्बी जीव इस बात की गहराई से श्रद्धा न करते हुए अर्थात 'वास्तव में शुभभावरूप साधन से ही शुद्धभावरूप साध्य प्राप्त होगा' ऐसी श्रद्धा का गहराई से सेवन करते हुए निरन्तर अत्यन्त खेद प्राप्त करते हैं । (विशेष के लिए २३० वें पृष्ठ का पाँचवीं और २३१ वें पृष्ठ का तीसरा तथा चौथा पद टिप्पण देखें ।)
११तदुभय = उन दोनों (अर्थात अर्थ तथा व्यंजन दोनों)
१२परिकर = समूह; सामग्री ।
१३व्यापृत = रुके; गुँथे; मशगूल; मग्न ।
१४मंथर = मंद; जड; सुस्त।
१५इस गाथा की संस्कृत छाया इस प्रकार है:
चरणकरणप्रधाना: स्वसमयपरमार्थमुक्तव्यापारा: ।
चरणकरणस्य सारं निश्चयशुद्धं न जानन्ति ।
१६श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृति-टीका में व्यवहार-एकान्त का निम्नानुसार स्पष्टीकरण किया गया है:- जो कोई जीव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव वाले शुद्धात्म तत्त्व के सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप निश्चमोक्षमार्ग से निरपेक्ष केवलशुभानुष्ठानरूप व्यवहारनय को ही मोक्षमार्ग मानते हैं, वे उसके द्वारा देवलोकादि के क्लेश की परम्परा प्राप्त करते हुए संसार में परिभ्रमण करते हैं: किन्तु यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षण निश्चयमोक्षमार्ग को माने और निश्चयमोक्षमार्ग का अनुष्ठान करने की शक्ति के अभाव के कारण निश्चयसाधक शुभानुष्ठान करें, तो वे सराग सम्यग्दृष्टि हैं और परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं । -इस प्रकार व्यवहार-एकान्त के निराकरण की मुख्यता से दो वाक्य कहे गये ।
(यहाँ जो 'सराग सम्यग्दृष्टि' जीव कहे उन जीवों को सम्यग्दर्शन तो यथार्थ ही प्रगट हुआ है परन्तु चारित्र-अपेक्षा से उन्हें मुख्यत: राग विद्यमान होने से 'सराग सम्यग्दृष्टि' कहा है ऐसा समझना । और उन्हें जो शुभ अनुष्ठान है वह मात्र उपचार से ही 'निश्चयसाधक / निश्चय के साधनभूत कहा गया है ऐसा समझना ।)
१७यथासुख = इच्छानुसार; जैसे सुख उत्पन्न हो वैसे; यथेच्छरूप से । (जिन्हें द्रव्यार्थिकनय के / निश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मद्रव्य का सम्यक् श्रद्धान या अनुभव नहीं है तथा उसके लिए उत्सुकता या प्रयत्न नहीं है, ऐसा होने पर भी जो निज कल्पना से अपने में किंचित भास होने की कल्पना करके निश्चिंतरूप से स्वच्छंदपूर्वक वर्तते हैं । 'ज्ञानी मोक्षमार्गी जीवों को प्राथमिक दशा में आंशिक शुद्धि के साथ-साथ भूमिकानुसार शुभ भाव भी होते हैं' -इस बात की श्रद्धा नहीं करते, उन्हें यहाँ केवल निश्चयावलम्बी कहा है । )
१८मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवों को सविकल्प प्राथमिक दशा में (छठवें गुणस्थान तक) व्यवहारनय की अपेक्षा से भूमिकानुसार भिन्नसाध्यसाधनभाव होता हैं अर्थात भूमिकानुसार नव पदार्थो सम्बन्धी, अंगपूर्व सम्बन्धी और श्रावक-मुनि के आचार सम्बन्धी शुभ भाव होते हैं ।-यह बात केवलनिश्चयावलम्बी जीव नहीं मानता अर्थात (आंशिक शुद्धि के साथ की) शुभभाववाली प्राथमिक दशा को वे नहीं श्रद्धते और स्वयं अशुभ भावों में वर्तते होने पर भी अपने में उच्च शुद्ध दशा की कल्पना करके स्वच्छंदी रहते है ।
१९केवलनिश्चयावलम्बी जीव पुण्यबन्ध के भय से डरकर मंदकषायरूप शुभभाव नहीं करते और पापबन्ध के कारणभूत अशुभभावों का सेवन तो करते रहते हैं । इस प्रकार वे पापबन्ध ही करते हैं ।
२०इस गाथा की संस्कृत छाया इस प्रकार है:
निश्चयमालम्बन्तो निश्चयतो निश्चयमजानन्त: ।
नाशयन्ति चरणकरणं बाह्यचरणालसा: केऽपि ॥
२१श्री जयसेनाचार्यदेवरचित टीकामें (व्यवहार-एकान्त का स्पष्टीकरण करने के पश्चात तुरन्त ही) निश्चय एकान्त का निम्नानुसार स्पष्टीकरण किया गया है:- और जो केवल निश्चयावलम्बी वर्तते हुए रागादि विकल्प रहित परम-समाधि-रूप शुद्ध आत्मा को उपलब्ध नहीं करते होने पर भी, मुनिको (व्यवहार से) आचरने-योग्य षड्-आवश्यकादि-रूप अनुष्ठान को तथा श्रावक को (व्यवहार से) आचरने योग्य दान-पूजादिरूप अनुष्ठान को दूषण देते हैं, वे भी उभय-भ्रष्ट वर्तते हुए, निश्चय-व्यवहार- अनुष्ठानयोग्य अवस्थांतर को नहीं जानते हुए पाप को ही बाँधते हैं (अर्थात केवल निश्चय-अनुष्ठानरूप शुद्ध अवस्था से भिन्न ऐसी जो निश्चय-अनु्ष्ठान और व्यवहार अनुष्ठानवाली मिश्र अवस्था उसे नहीं जानते हुए पाप को ही बाँधते हैं), परन्तु यदि शुद्धात्मानुष्ठानरूप मोक्षमार्ग को और उसके साधकभूत (व्यवहार-साधन-रूप) व्यवहार-मोक्ष-मार्ग को माने, तो भले चारित्रमोह के उदय के कारण शक्ति का अभाव होने से शुभ-अनुष्ठान रहित हों तथापि - यद्यपि वे शुद्धात्मभावना सापेक्ष शुभ-अनुष्ठानरत पुराषों जैसे नहीं हैं तथापि-सराग सम्यक्त्वादि द्वारा व्यवहार-सम्यग्दृष्टि है और परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं । -- इस प्रकार निश्चय-एकान्त के निराकरण की मुख्यता से दो वाक्य कहे गये । (यहाँ जिन जीवों को 'व्यवहारसम्यग्दृष्टि' कहा है वे उपचार से सम्यग्दृष्टि हैं ऐसा नहीं समझना । परन्तु वे वास्तव में सम्यग्दृष्टि हैं ऐसा समझना । उन्हें चारित्र-अपेक्षा से मुख्यत: रागादि विद्यमान होने से सराग सम्यक्त्व वाले कहकर 'व्यवहारसम्यग्दृष्टि' कहा है । श्री जयसेनाचार्य देव ने स्वयं ही १५०-१५१ वीं गाथा की टीका में कहा है कि - जब यह जीव आगमभाषा से कालादि लब्धिरूप और अध्यात्म-भाषा से शुद्धात्माभिमुख परिणामरूप स्व-संवेदन-ज्ञान को प्राप्त करता है तब प्रथम तो वह मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के उपशम और क्षयोपशम द्वारा सराग-सम्यग्दृष्टि होता है।)
२२निश्चय-व्यवहार के सुमेल की स्पष्टता के लिये पृष्ठ २५८ का पद टिप्पण देखे ।
२३महाभाग = महा पवित्र; महा गुणवान; महा भाग्यशाली ।
२४मोक्ष के लिये नित्य उद्यम करने वाले महापवित्र भगवंतों को (मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवों को) निरन्तर शुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषयभूत शुद्धात्मस्वरूप का सम्यक् अवलम्बन वर्तता होने से उन जीवों को उस अवलम्बन की तरतमतानुसार सविकल्प दशा में भूमिकानुसार शुद्धपरिणति तथा शुभपरिणति का यथोचित सुमेल (हठ रहित) होता है इसलिये वे जीव इस शास्त्र में (२५८ वें पृष्ठ पर) जिन्हें केवलनिश्चयावलम्बी कहा है ऐसे केवलनिश्चयावलम्बी नहीं हैं तथा (२५९ वें पृष्ठ पर) जिन्हें केवलव्यवहारावलम्बी कहा है ऐसे केवलव्यवहारावलम्बी नहीं हैं ।
२५विरचन = विशेष रुप से रचना; रचना ।