पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 3 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
समवाओ पंचण्हं समयमिणं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
सो चेव हवदि लोगो तत्तो अमओ अलोयक्खं ॥3॥
अर्थ:
पाँच अस्तिकायों का समवायरूप समय जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है, वही लोक है तथा उससे आगे असीम अलोक नामक आकाश है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब पूर्वार्ध गाथा से समय शब्द के शब्द-ज्ञान और अर्थ-रूपता से तीन भेदों का कथन तथा उत्तरार्ध से लोकालोक का विभाग प्रतिपादित करता हैं -- ऐसा अभिप्राय मन में धारण कर यह गाथा कहते हैं; इसीप्रकार आगे भी कही जानेवाली विवक्षित-अविवक्षित गाथाओं के लिए मन में धारण कर अथवा इस गाथा के आगे यह ही गाथा उचित है, ऐसा निश्चय कर यह गाथा प्रतिपादित करते हैं; इसप्रकार इस क्रम से पातनिका का लक्षण यथा सम्भव सर्वत्र जानना चाहिए--
[समवाओ पंचण्हं] जीवादि पाँच अर्थों / पदार्थों का समूह [समयमिणं] यह समय है ऐसा [जिणवरेहिं पण्णत्तं] जिनवर ने कहा है। [सो चेव हवदि] और वहाँ पाँचों का समूह है । वह क्या है? [लोगो] वह लोक है। [तत्तो] उन पाँचों जीवादि अर्थों के समवाय से बहिर्भूत [अमिओ] अमित / अप्रमाण / असीम अथवा [अमओ] अकृत्रिम / किसी के द्वारा नहीं बनाया गया और न मात्र लोक अपितु [अलोयक्खं] अलोक है नाम जिसका वह अलोकाकाश है। [अलोय खं] (पाठन्तर भी मिलता है) ऐसे भिन्न पदपाठान्तर में अलोकाकाश है। अलोकखु इस शब्द का क्या अर्थ है? ख अर्थात् शुद्ध / मात्र; मात्र आकाश अलोकख शब्द का अर्थ है, यह संग्रह वाक्य है। वह इसप्रकार --
पूर्वोक्त समय शब्द का ही शब्द, ज्ञान और अर्थ के भेद से तीन प्रकार का व्याख्यान करते हैं । जीवादि पाँच अस्तिकायों का प्रतिपादक वर्ण-पद-वाक्य रूप वाद / पाठ शब्दसमय है, उसे ही द्रव्य आगम कहते हैं। मिथ्यात्व के उदय का अभाव होने पर उन्हीं पाँचों का संशय, विमोह, विभ्रम से रहित सम्यक् अवाय, बोध, निर्णय, निश्चय होना ज्ञानसमय है; इसे ही पदार्थों की जानकारी-मय भाव-श्रुतरूप भावागम कहते हैं। उस द्रव्यागम-रूप शब्द-समय से वाच्य / कहने योग्य, भावश्रुत रूपज्ञान समय से परिच्छेद्य / जानने योग्य पाँच अस्तिकायों का समूह अर्थ-समय कहलाता है। उनमें से शब्द-समय के माध्यम से ज्ञान-मय की प्रसिद्धि के लिए यहाँ अर्थ-समय का व्याख्यान प्रारंभ किया जा रहा है।
वह अर्थसमय भी लोक कहलाता है। वह लोक कैसे / क्यों कहलाता है? जो कुछ भी पाँचों इन्द्रियों के विषय-योग्य दिखाई देता है वह पुद्गलास्तिकाय है। जो कुछ भी चेतनारूप है वह जीवास्तिकाय है। उन जीव और पुद्गलों की गति में निमित्त बनने के लक्षणवाला धर्म; स्थिति में निमित्त बनने के लक्षणवाला अधर्म; अवगाहन लक्षणवाला आकाश और वर्तना लक्षणवाला काल, जितने क्षेत्र में है वह लोक है। वैसा ही कहा भी है 'जहाँ जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं / दिखाई देते हैं, वह लोक है। उससे बहिर्भूत अनन्त मात्र आकाश अलोक है' -- यह इस गाथा का अर्थ है ॥३॥