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| <div class="G_HindiText"> <p>पद्म पुराण - प्रथम पर्व</p>
| | [[ ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 1#50 | पद्मपुराण पर्व 1, श्लोक 50]] |
| <p>चिदानंद चैतन्य के गुण अनंत उर धार।</p>
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| <p> भाषा पद्मपुराण की भापुँ श्रुति अनुसार।। -दौलतरामजी</p>
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| <p>जो स्वयं कृतकृत्य हैं, जिनके प्रसाद से भव्यजीवों के मनोरथ पूर्ण होते हैं, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्रतिपादन करनेवाले हैं, जिनके चरणकमलों की किरणरूपी केशर इंद्रों के मुकुटों से आश्लिष्ट हो रही है तथा जो तीनों लोकों में मंगलस्वरूप हैं ऐसे महावीर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ।।1-2।।<span id="3" /> जो योगी थे, समस्त विद्याओं के विधाता और स्वयंभू थे ऐसे अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ जिनेंद्र को नमस्कार करता हूँ ।।3।।<span id="4" /> जिन्होंने समस्त अंतरंग और बहिरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है ऐसे अजितनाथ भगवान तथा जिनसे शम अर्थात् सुख प्राप्त होता है, ऐसे सार्थक नाम को धारण करनेवाले शंभवनाथ भगवान् को नमस्कार करता हूँ ।।4।।<span id="5" /> समस्त संसार को आनंदित करनेवाले अभिनंदन भगवान् को एवं सम्यग्ज्ञान के धारक और अन्य मत-मतांतरों का निराकरण करनेवाले सुमतिनाथ जितेंद्र को नमस्कार करता हूँ ।।5।।<span id="6" /> उदित होते हुए सूर्य की किरणों से व्याप्त कमलों के समूह के समान कांति को धारण करनेवाले पदमप्रभ भगवान् को तथा जिनकी पसली अत्यंत सुंदर थीं] ऐसे सर्वज्ञ सुपार्श्व नाथ जिनेंद्र को नमस्कार करता हूँ ।।6।।<span id="7" /> जिनके शरीर की प्रभा शरद् ऋतु के पूर्ण चंद्रमा के समान थी, ऐसे अत्यंत श्रेष्ठ चंद्रप्रभ स्वामी को और जिनके दाँत फूले हुए कुंद पुष्प के समान कांति के धारक थे, ऐसे पुष्पदंत भगवान् को नमस्कार करता हूँ ।।7।।<span id="8" /> जो शीतल अर्थात् शांतिदायक ध्यान के देनेवाले थे ऐसे शीतलनाथ जितेंद्र को तथा जो कल्याण रूप थे एवं भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देते थे ऐसे श्रेयांसनाथ भगवान् को नमस्कार करता हूँ ।।8।।<span id="9" /> जो सज्जनों के स्वामी थे एवं कुबेर के द्वारा पूज्य थे ऐसे वासुपूज्य भगवान् को और संसार के मूलकारण मिष्या दर्शन आदि मलों से बहुत दूर रहनेवाले श्रीविमलनाथ भगवान् को नमस्कार करता हूँ ।।9।।<span id="10" /> जो अनंत ज्ञान को धारण करते थे तथा जिनका दर्शन अत्यंत सुंदर था ऐसे अनंतनाथ जिनेंद्रको, धर्म के स्थायी आधार धर्मनाथ स्वामी को और शांति के द्वारा ही शत्रुओं को जीतनेवाले शांतिनाथ तीर्थंकर को नमस्कार करता हूँ ।।10।।<span id="11" /> </p>
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| <p>जिन्होंने कुंथु आदि समस्त प्राणियों के लिए हित का निरूपण किया था ऐसे कुंथुनाथ भगवान् को और समस्त दुःखों से मुक्ति पाकर जिन्होंने अनंत सुख प्राप्त किया था ऐसे अरनाथ जिनेंद्र को नमस्कार करता हूँ ।।11।।<span id="12" /> जो संसार को नष्ट करने के लिए अद्वितीय मल्ल थे, ऐसे मलरहित मल्लिनाथ भगवान् को और जिन्हें समस्त लोग प्रणाम करते थे तथा सुर-असुर सभी के गुरु थे ऐसे नमिनाथ स्वामी को नमस्कार करता हूँ ।।12।।<span id="13" /> जो बहुत भारी अरिष्ट अर्थात् दु:खसमूह को नष्ट करने के लिए नेमि अर्थात् चक्रधारा के समान थे साथ ही अतिशय कांति के धारक थे ऐसे अरिष्टनेमि नामक बाईसवें तीर्थंकर को तथा जिनके समीप में धरणेंद्र आकर बैठा था साथ हीं जो समस्त प्रजा के स्वामी थे ऐसे पार्श्वनाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ ।।13।।<span id="14" /> जो उत्तम व्रतों का उपदेश देनेवाले थे, जिन्होंने क्षुधा, तृषा आदि दोष नष्ट कर दिये थे और जिनके तीर्थ में पद्म अर्थात् कथानायक रामचंद्रजी का शुभ चरित उत्पन्न हुआ था ऐसे मुनि-सुव्रतनाथ भगवान् को नमस्कार करता हूँ ।।14।।<span id="15" /> इनके सिवाय महाभाग्यशाली गणधरों आदि को लेकर अन्यान्य मुनिराजों को मन, वचन, काय से बार-बार प्रणाम करता हूँ ।।15।।<span id="16" /><span id="17" /><span id="18" /></p>
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| <p>इस प्रकार प्रणाम कर मैं उन रामचंद्रजी का चरित्र कहूँगा जिनका कि वक्षःस्थल पद्मा अर्थात् लक्ष्मी अथवा पद्म नामक चिह्न से अलिंगित था, जिनका मुख प्रकुल्लित कमल के समान था, जो विशाल पुण्य के धारक थे, बुद्धिमान् थे, अनंत गुणों के गृहस्वरूप थे और उदार-उत्कृष्ट चेष्टाओं के धारक थे। उनका चरित्र कहने में यद्यपि श्रुत्रकेवली ही समर्थ हैं तो भी आचार्य परंपरा के उपदेश से आये हुए उस उत्कृष्ट चरित्र को मेरे जैसे क्षुद्र पुरुष भी कर रहे हैं सो उसका कारण स्पष्ट ही है ।।16-18।।<span id="19" /> मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा संचरित मार्ग में हरिण भी चले जाते है तथा जिनके आगे बड़े बड़े योद्धा चल रहे हों ऐसे साधारण योद्धा भी युद्ध में प्रवेश करते ही हैं ।।19।।<span id="20" /> सूर्य के द्वारा प्रकाशित पदार्थो को साधारण मनुष्य सुखपूर्वक देख लेते हैं और सुई के अग्रभाग से बिदारे हुए मणि में सूत अनायास ही प्रवेश कर लेता है ।।20।।<span id="21" /> </p>
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| <p>रामचंद्रजी का जो चरित्र विद्वानों की परंपरा से चला आ रहा है उसे पूछने के लिए मेरी बुद्धि भक्ति से प्रेरित होकर ही उद्यत हुई है ।।21।।<span id="22" /> विशिष्ट पुरुषों के चिंतवन से तत्काल जो महान् पुण्य प्राप्त होता है उसी के द्वारा रक्षित होकर मेरी वाणी सुंदरता को प्राप्त हुई है ।।22।।<span id="23" /> जिस पुरुष की वाणी में अकार आदि अक्षर तो व्यक्त है पर जो सत्पुरुषों की कथा को प्राप्त नहीं करायी गयी है उसकी वह वाणी निष्फल है और केवल पाप-संचय का ही कारण है ।।23।।<span id="24" /> महापुरुषों का कीर्तन करने से विज्ञान वृद्धि को प्राप्त होता है, निर्मल यश फैलता है और पाप दूर चला जाता है ।।24।।<span id="25" /> जीवों का यह शरीर रोगों से भरा हुआ है तथा अल्प काल तक ही ठहरने वाला है परंतु सत्पुरुषों की कथा से जो यश उत्पन्न होता है वह जबतक सूर्य, चंद्रमा और तारे रहेंगे तब तक रहता है ।।25।।<span id="26" /> इसलिए आत्मज्ञानी पुरुष को सब प्रकार का प्रयत्न कर महापुरुषों के कीर्तन से अपना शरीर स्थायी बनाना चाहिए अर्थात् यश प्राप्त करना चाहिए ।।26।।<span id="27" /> जो मनुष्य सज्जनों को आनंद देने वाली मनोहारिणी कथा करता है वह दोनों लोकों का फल प्राप्त कर लेता है ।।27।।<span id="28" /> मनुष्य के जो कान सत्पुरुषों की कथा का श्रवण करते हैं, मैं उन्हें ही कान मानता हूँ बाकी तो विदूषक के कानों के समान केवल कानों का आकार ही धारण करते हैं ।।28।।<span id="29" /> सत्पुरुषों की चेष्टा को वर्णन करने वाले वर्ण- अक्षर जिस मस्तक में घूमते हैं वही वास्तव में मस्तक है बाकी तो नारियल के करंक- कड़े आवरण के समान हैं ।।29।।<span id="30" /> जो जिह्वा सत्पुरुषों के कीर्तन रूपी अमृत का आस्वाद लेने में लीन है मैं उन्हें ही जिह्वा मानता हूँ बाकी तो दुर्वचनों को कहनेवाली छुरी का मानो फलक ही है ।।30।।<span id="31" /> श्रेष्ठ ओंठ वे ही हैं जो कि सत्पुरुषों का कीर्तन करने में लगे रहते हैं बाकी तो शंबूक नामक जंतु के मुख से मुक्त जोंक के पृष्ठ के समान ही हैं ।।31।।<span id="32" /> दाँत वही हैं जो कि शांत पुरुषों की कथा के समागम मे से सदा रंजित रहते हैं- उसी में लगे रहते हैं बाकी तो कफ निकलने के द्वार को रोकने वाले मानो आवरण ही हैं ।।32।।<span id="33" /> मुख वही है जो कल्याण की प्राप्ति का प्रमुख कारण है और श्रेष्ठ पुरुषों की कथा कहने में सदा अनुरक्त रहता है बाकी तो मल से भरा एवं दंत रूपी कीड़ों से व्याप्त मानो गड्ढा ही है ।।33।।<span id="34" /> जो मनुष्य कल्याणकारी वचन कहता अथवा सुनता है, वास्तव में वही मनुष्य है बाकी तो शिल्पकार के द्वारा बनाने हुए मनुष्य के पुतले के समान हैं ।।34।।<span id="35" /> </p>
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| <p>जिस प्रकार दूध और पानी के समूह में से हंस समस्त दूध को ग्रहण कर लेता है उसी प्रकार सत्पुरुष गुण और दोषों के समूह में से गुणों को ही ग्रहण करते हैं ।।35।।<span id="36" /> और जिस प्रकार काक हाथियों के गंडस्थल से मुक्ताफलों को छोड्कर केवल मांस ही ग्रहण करते हैं उसी प्रकार दुर्जन गुण और दोषों के समूह में से केवल दोषों को ही ग्रहण करते हैं ।।36।।<span id="37" /> जिस प्रकार उलूक पक्षी सूर्य की मूर्ति को तमालपत्र के समान काली-काली ही देखते हैं उसी प्रकार दुष्ट पुरुष निर्दोष रचना को भी दोषयुक्त ही देखते हैं ।।37।।<span id="38" /> जिस प्रकार किसी सरोवर में जल आने के द्वार पर लगी हुई जाली जल को तो नहीं रोकती किंतु कूड़ा-कर्कट को रोक लेती है उसीप्रकार दुष्ट मनुष्य गुणों को तो नहीं रोक पाते किंतु कूड़ा-कर्कट के समान दोषों को ही रोककर धारण करते हैं ।।38।।<span id="39" /> सज्जन और दुर्जन का ऐसा स्वभाव ही है यह विचारकर सत्पुरुष स्वार्थ- आत्मप्रयोजन को लेकर ही कथा की रचना करने में प्रवृत्त होते हैं ।।39।।<span id="40" /> उत्तम कथा के सुनने से मनुष्यों की जो सुख उत्पन्न होता है वही बुद्धिमान् मनुष्यों का स्वार्थ- आत्मप्रयोजन कहलाता है तथा यही पुण्योपार्जन का कारण होता है ।।40।।<span id="41" /><span id="42" /> </p>
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| <p>श्री वर्धमान जिनेंद्र के द्वारा कहा हुआ यह अर्थ इंद्रभूति नामक गौतम गणधर को प्रास हुआ। फिर धारिणी के पुत्र सुधर्माचार्य को प्राप्त हुआ, फिर प्रभव को प्राप्त हुआ, फिर कीर्तिधर आचार्य को प्राप्त हुआ। उनके अनंतर उत्तरवाग्मी मुनि को प्राप्त हुआ। तदनंतर उनका लिखा प्राप्त कर यह रविषेणाचार्य का प्रयत्न प्रकट हुआ है ।।41-42।।<span id="43" /><span id="44" /> इस पुराण में निन्नलिखित सात अधिकार हैं- (1) लोकस्थिति, (2) वंशों की उत्पत्ति, (3) वन के लिए प्रस्थान, (4) युद्ध, (5) लवणांकुश की उत्पत्ति, (6) भवांतर निरूपण और (7) रामचंद्रजी का निर्वाण। ये सातों ही अधिकार अनेक प्रकार के सुंदर-सुंदर पर्वों से सहित हैं ।।43-44।।<span id="45" /><span id="46" /><span id="47" /> रामचंद्रजी की कथा का संबंध बतलाने के लिए भगवान् महावीर स्वामी की भी संक्षिप्त कथा कहूँगा जो इस प्रकार है।</p>
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| <p>एक वार कुशाग्र पर्वत- विपुलाचल के शिखरपर भगवान् महावीर स्वामी समवसरण सहित आकर विराजमान हुए। जिसमें राजा श्रेणिक ने जाकर इंद्रभूति गणधर से प्रश्न किया। उस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सर्वप्रथम युगों का वर्णन किया। फिर कुलकरों की उत्पत्ति का वर्णन हुआ। अकस्मात् दु:ख के कारण देखने से जगत के जीवों को भय उत्पन्न हुआ, इसका वर्णन किया ।।45-47।।<span id="48" /> भगवान् ऋषभदेव की उत्पत्ति, सुमेरु पर्वतपर उनका अभिषेक और लोक की पीड़ा को नष्ट करने वाला उनका विविध प्रकार का उपदेश बताया गया ।।48।।<span id="49" /> भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा धारण की, उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, उनका लोकोत्तर ऐश्वर्य प्रकट हुआ, सब इंद्रों का आगमन हुआ और भगवान् को मोक्ष सुख का समागम हुआ ।।49।।<span id="50" /> भरत के साथ बाहुबली का बहुत भारी युद्ध हुआ, ब्राह्मणों की उत्पत्ति और मिथ्याधर्म को फैलानेवाले कुतीर्थियों का आविर्भाव हुआ ।।50।।<span id="51" /><span id="52" /> </p>
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| <p>इक्ष्वाकु आदि वंशों की उत्पत्ति, उनकी प्रशंसा का निरूपण, विद्याधरों की उत्पत्ति तथा उनके वंश में विद्युद्दंष्ट्र विद्याधर के द्वारा संजयंत मुनि को उपसर्ग हुआ। मुनिराज उपसर्ग सह केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इस घटना से धरणेंद्र को विद्युद्दंष्ट्र के प्रति बहुत क्षोभ उत्पन्न हुआ जिससे उसने उसकी विद्याएँ छीन लीं तथा उसे बहुत भारी तर्जना दी ।।51-52।।<span id="53" /><span id="54" /> तदनंतर श्री अजितनाथ भगवान का जन्म, पूर्णमेघ विद्याधर और उसकी पुत्री के सुख का वर्णन, विद्याधर कुमार का भगवान् अजितनाथ की शरण में आना, राक्षस द्वीप के स्वामी व्यंतर देव का आना तथा प्रसन्न होकर पूर्णमेघ के लिए राक्षस द्वीप का देना, सगर चक्रवर्ती का उत्पन्न होना, पुत्रों का मरण सुन उसके दुःख से उन्होंने दीक्षाधारण की तथा निर्वाण प्राप्त किया ।।53-54।।<span id="55" /> पूर्णमेघ के वंश में महारक्ष का जन्म तथा वानर वंशी विद्याधरों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन ।।55।।<span id="56" /> विद्युत्केश विद्याधर का चरित्र, तदनंतर उदधिविक्रम और अमरविक्रम विद्याधर का कथन, वानर-वंशियों में किष्किंध और अंधक नामक विद्याधरों का जन्म लेना, भीमा का विद्याधरी का संगम होना ।।56।।<span id="57" /><span id="58" /> विजयसिंह के वध से अशनिवेग को क्रोध उत्पन्न होना, अंधक का मारा जाना और वानरवंशियों का मधुपर्वत के शिखरपर किष्किंधपुर नामक नगर बसाकर उसमें निवास करना। सुकेशी के पुत्र आदि को लंका की प्राप्ति होना ।।57-58।।<span id="59" /><span id="60" /> विनीत विद्याधर के वध से माली को बहुत भारी संपदा का प्राप्त होना, विजयार्ध पर्वत के दक्षिणभाग संबंधी रथनूपर नगर में समस्त विद्याधरों के अधिपति इंद्र नामक विद्याधर का जन्म लेना, माली का मारा जाना और वैश्रवण का उत्पन्न होना ।।59-60।।<span id="61" /> </p>
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| <p>सुमाली के पुत्र रत्नश्रवा का पुष्पांतक नामक नगर बसाना, कैकसी के साथ उसका संयोग होना और केकसी का शुभ स्वप्नों का देखना ।।61।।<span id="62" /> रावण का उत्पन्न होना और विद्याओं का साधन करना, अनावृत नामक देव को क्षोभ होना तथा सुमाली का आगमन होना ।।62।।<span id="63" /> रावण को मंदोदरी की प्राप्ति होना, साथ ही अन्य अनेक कन्याओं का अवलोकन होना और भानुकर्ण की चेष्टाओं से वैश्रवण का कुपित होना ।।63।।<span id="64" /> पक्ष और राक्षस नामक विद्याधरों का संग्राम, वैश्रवण का तप धारण करना, रावण का लंका में आना और श्रेष्ठ चैत्यालयों का अवलोकन करना ।।64।।<span id="65" /> पापों को नष्ट करने वाला हरिषेण चक्रवर्ती का माहात्म्य, त्रिलोकमंडन हाथी का अवलोकन ।।65।।<span id="66" /> यम नामक लोकपाल को अपने स्थान से च्युत करना तथा वानरवंशी राजा सूर्यरज को किष्किंधापुर का संगम करना। तदनंतर रावण की बहन शूर्पणखा को खर-दुषण द्वारा हर ले जाना और उसी के साथ विवाह देना और खरदूषण का पाताल लंका जाना ।।66।।<span id="67" /> चंद्रोदर का युद्ध में मारा जाना और उसके वियोग से उसकी रानी अनुराधा को बहुत दुख उठाना, चंद्रोदर के पुत्र विराधित का नगर से भ्रष्ट होना तथा सुग्रीव को राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति होना ।।67।।<span id="68" /><span id="69" /> बालि का दीक्षा लेना, रावण का कैलास पर्वत को उठाना, सुग्रीव को सुतारा की प्राप्ति होना, सुतारा की प्राप्ति न होने से साहसगति विद्याधर को संताप का होना तथा रावण का विजयार्ध पर्वतपर जाना ।।68-69।।<span id="70" /> राजा अनरण्य और सहस्ररश्मि का विरक्त होना, रावण के द्वारा यज्ञ का नाश हुआ उसका वर्णन, मधु के पूर्वभवों का व्याख्यान और रावण की पुत्री उपरंभा का मधु के साथ अभिभाषण ।।70।।<span id="71" /> </p>
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| <p>रावण को विधा का लाभ होना, इंद्र की राज्यलक्ष्मी का क्षय होना, रावण का सुमेरु पर्वत पर जाना और वहाँ से वापस लौटना ।।71।।<span id="72" /> अनंतवीर्य मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न होना, रावण का उनके समक्ष यह नियम ग्रहण करना कि जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे नहीं चाहूँगा, तदनंतर वानरवंशी महात्मा हनुमान के जन्म का वर्णन ।।72।।<span id="73" /> कैलास पर्वत पर अंजना के पिता राजा महेंद्र का पवनंजय के पिता राजा प्रह्लाद से यह भाषण होना कि हमारी पुत्री का तुम्हारे पुत्र से संबंध हो, पवनंजय के साथ अंजना का विवाह, पवनंजय का कुपित होना। तदनंतर चकवा-चकवी का वियोग देख प्रसन्न होना, अंजना के गर्भ रहना और सासु द्वारा उसका घर से निकाला जाना ।।73।।<span id="74" /> मुनिराज के द्वारा हनुमान के पूर्वजन्म का कथन होना, गुफा में हनुमान का जन्म होना और अंजना के मामा प्रतिसूर्य के द्वारा अंजना तथा हनुमान को हनुरुह द्वीप में ले जाना ।।74।।<span id="75" /> तदनंतर पवनंजय का भूताटवी में प्रवेश, वहाँ उसका हाथी देख प्रतिसूर्य विद्याधर का आगमन और अंजना को देखने का पवनंजय को बहुत भारी हर्ष हुआ इसका वर्णन ।।75।।<span id="76" /> हनुमान के द्वारा रावण को सहायता की प्राप्ति तथा वरुण के साथ अत्यंत भयंकर युद्ध होना। रावण के महान् राज्य का वर्णन तथा तीर्थकरों की ऊंचाई और अंतराल आदि का निरूपण ।।76।।<span id="77" /> बलभद्र, नारायण और उनके शत्रु प्रतिनारायण आदि की छह खंडों में होनेवाली चेष्टाओं का वर्णन, राजा दशरथ की उत्पत्ति और कैकयी को वरदान देने का कथन ।।77।।<span id="78" /> राजा दशरथ के राम, लक्ष्मण, शत्रुध्न और भरत का जन्म होना, राजा जनक के सीता की उत्पत्ति और भामंडल के हरण से उसकी माता को शोक उत्पन्न होना ।।।78।।<span id="79" /> नारद के द्वारा चित्र में लिखी सीता को देख भाई भामंडल को मोह उत्पन्न होना, सीता के स्वयंवर का वृत्तांत और स्वयंवर में धनुषरत्न का प्रकट होना ।।79।।<span id="80" /> सर्वभूतशरण्य नामक मुनिराज के पास राजा दशरथ का दीक्षा लेना, सीता को देखकर भामंडल को अन्य भवों का ज्ञान होना ।।80।।<span id="81" /> </p>
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| <p>कैकयी के वरदान के कारण भरत को राज्य मिलना और सीता, राम तथा लक्ष्मण का दक्षिण दिशा की ओर जाना ।।81।।<span id="82" /> वज्रकर्ण का चरित्र, लक्ष्मण को कल्याणमाला स्त्री लाभ होना, रुद्रभूति को वश में करना और बालखिल्य को छुड़ाना ।।82।।<span id="84" /><span id="82" /> अरुण ग्राम में श्रीराम का आना, वहां देवों के द्वारा बसायी हुई रामपुरी नगरी में रहना, लक्ष्मण का वनमाला के साथ समागम होना और अतिवीर्य की उन्नति का वर्णन ।।82।।<span id="84" /><span id="82" /></p>
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| <p> तदनंतर लक्ष्मण को जितपद्मा की प्राप्ति होना, कुलभूषण और देशभूषण मुनि का चरित्र, श्रीराम ने वंशस्थल पर्वतपर जिनमंदिर बनवाये उनका वर्णन ।।84।।<span id="85" /> जटायु पक्षी को व्रतप्राप्ति, पात्रदान के फल की महिमा, बड़े-बड़े हाथियों से जुते रथपर राम-लक्ष्मण आदि का आरूढ़ होना तथा शंबूक का मारा जाना ।।85।।<span id="86" /> शूर्पणखा का वृत्तांत, खर-दूषण के साथ श्रीराम के युद्ध का वर्णन, सीता के वियोग से राम को बहुत भारी शोक का होना ।।86।।<span id="87" /> विराधित नामक विद्याध:र का आगमन, खरदूषण का मरण, रावण के द्वारा रत्नजटी विद्याधर की विद्याओं का छेदा जाना तथा सुग्रीव का राम के साथ समागम होना ।।87।।<span id="88" /> सुग्रीव के निमित्त राम ने साहसगति को मारा, रत्नवती ने सीता का सब वृत्तांत राम से कहा, राम ने आकाशमार्ग से लंकापर चढ़ाई की, विभीषण राम से आकर मिला और राम तथा लक्ष्मण को सिंहवाहिनी, गरुडवाहिनी विद्याओं की प्राप्ति हुई ।।88।।<span id="89" /> इंद्रजित्, कुंभकर्ण और मेघनाद का नागपाश से बाँधा जाना, लक्ष्मण को शक्ति लगना और विशल्या के द्वारा शल्यरहित होना ।।89।।<span id="90" /> बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने के लिए रावण का शांतिनाथ भगवान के मंदिर में प्रवेश कर स्तुति करना, राम के कटक के विद्याधर कुमारों का लंकापर आकमण करना, देवों के प्रभाव से विद्याधर कुमारों का पीछे कटक में वापस आना ।।90।।<span id="91" /> </p>
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| <p>लक्ष्मण को चक्ररत्न की प्राप्ति होना, रावण का मारा जाना, उसकी स्त्रियों का विलाप करना तथा केवली का आगमन ।।91।।<span id="92" /> इंद्रजित् आदि का दीक्षा लेना, राम का सीता के साथ समागम होना, नारद का आना और श्रीराम का अयोध्या में वापस आकर प्रवेश करना ।।92।।<span id="93" /> भरत और त्रिलोकमंडन हाथी के पूर्वभव का वर्णन, भरत का वैराग्य, राम तथा लक्ष्मण के राज्य का विस्तार ।।93।।<span id="94" /> जिसका वक्षःस्थल राजलक्ष्मी से आलिंगित हो रहा था ऐसे लक्ष्मण के लिए मनोरमा की प्राप्ति होना, युद्ध में मधु और लवण का मारा जाना ।।94।।<span id="95" /> अनेक देशो के साथ मथुरा नगरी में धरणेंद्र के कोप से मरी रोग का उपसर्ग और सप्तर्षियों के प्रभाव से उसका दूर होना, सीता को घर से निकालना तथा उसके विलाप का वर्णन ।।95।।<span id="96" /> राजा वज्रजंघ के द्वारा सीता की रक्षा होना, लवणांकुश का जन्म लेना, बड़े होनेपर लवणांकुश के द्वारा अन्य राजाओं का पराभव होकर वज्रजंघ के राज्य का विस्तार किया जाना और अंत में उनका अपने पिता रामचंद्रजी के साथ युद्ध होना ।।96।।<span id="97" /> सर्वभूषण मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त होने ने उपलक्ष्य में देवों का आना, अग्निपरीक्षा द्वारा सीता का अपवाद दूर होना, विभीषण के भवांतरों का निरूपण ।।97।।<span id="98" /> कृतांतवक्र सेनापति का तप लेना, स्वयंवर में राम और लक्ष्मण के पुत्रों में क्षोभ होना, लक्ष्मण के पुत्रों का दीक्षा धारण करना और विद्युत्पात से भामंडल का दुर्मरण होना ।।98।।<span id="99" /> हनुमान का दीक्षा लेना, लक्ष्मण का मरण होना, राम के पुत्रों का तप धारण करना और भाई के वियोग से राम को बहुत भारी शोक का उत्पन्न होना ।।99।।<span id="100" /> पूर्वभव के मित्र देव के द्वारा उत्पादित प्रतिबोध से राम का दीक्षा लेना, केवलज्ञान प्राप्त होना और निर्वाणपद की प्राप्ति करना ।।100।।<span id="101" /> </p>
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| <p>हे सत्पुरुषो! रामचंद्र का यह चरित्र मोक्षपदरूपी मंदिर की प्राप्ति के लिए सीढ़ी के समान है तथा सुखदायक है इसलिए इस सब चरित्र को तुम मन स्थिर कर सुनो ।।101।।<span id="102" /> जो मनुष्य श्रीराम आदि श्रेष्ठ मुनियों का ध्यान करते हैं और उनके प्रति अतिशय भक्ति भाव से, नम्रीभूत हृदय से प्रमोद की धारणा करते हैं उनका चिरसंचित पाप-कर्म हजार टूक होकर नाश को प्राप्त होता है। फिर जो उनके चंद्रमा के समान उज्ज्वल समस्त चरित्र को सुनते हैं उनका तो कहना ही क्या है? ।।102।।<span id="103" /> आचार्य रविषेण कहते हैं कि इस तरह यह चरित्र उन्हीं इंद्रभूति गणधर के द्वारा किया हुआ है और पाप उत्पन्न करनेवाला यह अशुभ कर्म उन्हीं के द्वारा नष्ट किया गया है, इसलिए हे विवेकशाली चतुर पुरुषो, प्राचीन पुरुषों के द्वारा सेवित इस परम पवित्र चरित्र की तुम सब शक्ति के अनुसार सेवा करो- इसका पठन-पाठन करो क्योंकि जब सूर्य के द्वारा समीचीन मार्ग प्रकट कर दिया जाता है तब ऐसा कौन भली दृष्टि का धारक होगा जो स्खलित होगा- चूककर नीचे गिरेगा ।।103।।<span id="1" /></p>
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| <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य निर्मित पद्म चरित में वर्णनीय विषयों का संक्षेप में निरूपण करनेवाला प्रथम पर्व पूर्ण हुआ ।।1।।</p>
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| | [[ ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 3#25 | पद्मपुराण पर्व 3, श्लोक 25]] |
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| | [[ ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 3#51 | हरिवंश पुराण सर्ग 3, श्लोक 51]] |
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| [[ ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 2 | अगला पृष्ठ ]] | | [[ ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 40#11 | हरिवंश पुराण सर्ग 40, श्लोक 11]] |
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