पद्मपुराण - पर्व 106: Difference between revisions
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<p>तदनंतर वहाँ से च्युत होकर महापुर नामक श्रेष्ठ नगर में जैनधर्म के श्रद्धालु मेरु नामक सेठ की धारिणी नामक स्त्री से पद्मरुचि नामक पुत्र हुआ ॥38॥<span id="36" /> उसी नगर में एक छत्रच्छाय नाम का राजा रहता था। उसकी श्रीदत्ता नाम की स्त्री थी जो कि रानी के गुणों की मानो पिटारी ही थी ॥36॥<span id="40" /> किसी एक दिन पद्मरुचि घोड़े पर चढ़ा अपने गोकुल की ओर आ रहा था, सो मार्ग में उसने पृथिवी पर पड़ा एक बूढ़ा बैल देखा ॥40॥<span id="41" /> सुगंधित वस्त्र तथा माला आदि को धारण करने वाला पद्मरुचि घोड़े से उतर कर दयालु होता हुआ आदरपूर्वक उस बैल के पास गया ॥41॥<span id="42" /> पद्मरुचि ने उसके कान में पंचनमस्कार मंत्र का जाप सुनाया । सो जब पद्मरुचि उसके कान में पंचनमस्कार मंत्र का जप दे रहा था तभी उस मंत्र को सुनती हुई बैल की आत्मा उस शरीर से बाहर निकल गई अर्थात् नमस्कार मंत्र सुनते-सुनते उसके प्राण निकल गये ॥42॥<span id="43" /> मंत्र के प्रभाव से जिसके कर्मों का जाल कुछ कम हो गया था ऐसा वह बैल, उसी नगर के राजा छत्रच्छाय की श्रीदत्ता नाम की रानी के पुत्र हुआ । यतश्च छत्रच्छाय के पुत्र नहीं था इसलिए वह उसके उत्पन्न होनेपर बहुत संतुष्ट हुआ ॥43॥<span id="44" /> नगर में बहुत भारी संपदा खर्च कर अत्यधिक शोभा की गई तथा बाजों से जो बहरा हो रहा था ऐसा महान् उत्सव किया गया ॥44॥<span id="45" /><span id="46" /> </p> | <p>तदनंतर वहाँ से च्युत होकर महापुर नामक श्रेष्ठ नगर में जैनधर्म के श्रद्धालु मेरु नामक सेठ की धारिणी नामक स्त्री से पद्मरुचि नामक पुत्र हुआ ॥38॥<span id="36" /> उसी नगर में एक छत्रच्छाय नाम का राजा रहता था। उसकी श्रीदत्ता नाम की स्त्री थी जो कि रानी के गुणों की मानो पिटारी ही थी ॥36॥<span id="40" /> किसी एक दिन पद्मरुचि घोड़े पर चढ़ा अपने गोकुल की ओर आ रहा था, सो मार्ग में उसने पृथिवी पर पड़ा एक बूढ़ा बैल देखा ॥40॥<span id="41" /> सुगंधित वस्त्र तथा माला आदि को धारण करने वाला पद्मरुचि घोड़े से उतर कर दयालु होता हुआ आदरपूर्वक उस बैल के पास गया ॥41॥<span id="42" /> पद्मरुचि ने उसके कान में पंचनमस्कार मंत्र का जाप सुनाया । सो जब पद्मरुचि उसके कान में पंचनमस्कार मंत्र का जप दे रहा था तभी उस मंत्र को सुनती हुई बैल की आत्मा उस शरीर से बाहर निकल गई अर्थात् नमस्कार मंत्र सुनते-सुनते उसके प्राण निकल गये ॥42॥<span id="43" /> मंत्र के प्रभाव से जिसके कर्मों का जाल कुछ कम हो गया था ऐसा वह बैल, उसी नगर के राजा छत्रच्छाय की श्रीदत्ता नाम की रानी के पुत्र हुआ । यतश्च छत्रच्छाय के पुत्र नहीं था इसलिए वह उसके उत्पन्न होनेपर बहुत संतुष्ट हुआ ॥43॥<span id="44" /> नगर में बहुत भारी संपदा खर्च कर अत्यधिक शोभा की गई तथा बाजों से जो बहरा हो रहा था ऐसा महान् उत्सव किया गया ॥44॥<span id="45" /><span id="46" /> </p> | ||
<p>तदनंतर कर्मों के संस्कार से उसे अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। बैल पर्याय में बोझा ढोना, शीत तथा आतप आदि से उत्पन्न दारुण दुःख उसने भोगे थे तथा जो उसे पंचनमस्कार मंत्र श्रवण करने का अवसर मिला था । वह सब उसकी स्मृतिपटल में झूलने लगा। महासुंदर चेष्टाओं को धारण करता हुआ वह, जब बालकालीन क्रीड़ाओं में आसक्त रहता था तब भी मन में पंचनमस्कार मंत्र के श्रवण का सदा ध्यान रखता था ॥45-46।।<span id="47" /> किसी एक दिन वह विहार करता हुआ उस स्थान पर पहुंचा जहाँ उस बैल का मरण हुआ था। उसने एक-एक कर अपने घूमने के सब स्थानों को पहिचान लिया ॥47॥<span id="48" /></p> | <p>तदनंतर कर्मों के संस्कार से उसे अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। बैल पर्याय में बोझा ढोना, शीत तथा आतप आदि से उत्पन्न दारुण दुःख उसने भोगे थे तथा जो उसे पंचनमस्कार मंत्र श्रवण करने का अवसर मिला था । वह सब उसकी स्मृतिपटल में झूलने लगा। महासुंदर चेष्टाओं को धारण करता हुआ वह, जब बालकालीन क्रीड़ाओं में आसक्त रहता था तब भी मन में पंचनमस्कार मंत्र के श्रवण का सदा ध्यान रखता था ॥45-46।।<span id="47" /> किसी एक दिन वह विहार करता हुआ उस स्थान पर पहुंचा जहाँ उस बैल का मरण हुआ था। उसने एक-एक कर अपने घूमने के सब स्थानों को पहिचान लिया ॥47॥<span id="48" /></p> | ||
<p>तदनंतर वृषभध्वज नाम को धारण करने वाला वह राजकुमार हाथी से उतर कर दुःखित चित्त होता हुआ इच्छानुसार बहुत देर तक बैल के मरने को उस भूमि को देखता रहा ॥48॥<span id="49" /> समाधि मरण रूपी रत्न के दाता तथा उत्तम चेष्टाओं से सहित उस बुद्धिमान पद्मरुचि को जब वह नहीं देख सका तब उसने उसके देखने के लिए योग्य उपाय का विचार किया ॥49॥<span id="50" /> अथानंतर उसने उसी स्थान पर कैलास के शिखर के समान एक जिनमंदिर बनवाया, उसमें चित्रपट आदि पर महापुरुषों के चरित तथा पुराण लिखवाये ॥50॥<span id="81" /><span id="51" /> उसी मंदिर के द्वार पर उसने अपने पूर्वभव के चित्र से चित्रित एक चित्रपट लगवा दिया तथा उसकी परीक्षा करने के लिए चतुर मनुष्य उसके समीप खड़े कर दिये ॥51॥<span id="52" /><span id="53" /> तदनंतर वंदना की इच्छा करता हुआ पद्मरुचि एक दिन उस मंदिर में आया और हर्षित चित्त होता हुआ उस चित्र को देखने लगा। तदनंतर आश्चर्यचकित हो उसी चित्र पर नेत्र | <p>तदनंतर वृषभध्वज नाम को धारण करने वाला वह राजकुमार हाथी से उतर कर दुःखित चित्त होता हुआ इच्छानुसार बहुत देर तक बैल के मरने को उस भूमि को देखता रहा ॥48॥<span id="49" /> समाधि मरण रूपी रत्न के दाता तथा उत्तम चेष्टाओं से सहित उस बुद्धिमान पद्मरुचि को जब वह नहीं देख सका तब उसने उसके देखने के लिए योग्य उपाय का विचार किया ॥49॥<span id="50" /> अथानंतर उसने उसी स्थान पर कैलास के शिखर के समान एक जिनमंदिर बनवाया, उसमें चित्रपट आदि पर महापुरुषों के चरित तथा पुराण लिखवाये ॥50॥<span id="81" /><span id="51" /> उसी मंदिर के द्वार पर उसने अपने पूर्वभव के चित्र से चित्रित एक चित्रपट लगवा दिया तथा उसकी परीक्षा करने के लिए चतुर मनुष्य उसके समीप खड़े कर दिये ॥51॥<span id="52" /><span id="53" /> तदनंतर वंदना की इच्छा करता हुआ पद्मरुचि एक दिन उस मंदिर में आया और हर्षित चित्त होता हुआ उस चित्र को देखने लगा। तदनंतर आश्चर्यचकित हो उसी चित्र पर नेत्र गड़ाकर ज्यों ही वह उसे देखता है कि वृषभध्वज राजकुमार के सेवकों ने उसे उसका समाचार सुना दिया ॥52-53॥<span id="54" /> तदनंतर विशाल संपदा से सहित राजपुत्र, इष्ट के समागम की इच्छा करता हुआ उत्तम हाथी पर सवार हो वहाँ आया ॥54॥<span id="55" /> हाथी से उतर कर उसने जिन मंदिर में प्रवेश किया और वहाँ बड़ी तल्लीनता के साथ उस चित्रपट को देखते हुए धारिणीसुत पद्मरुचि को देखा ॥55॥<span id="16" /> जिसके नेत्र, मुख तथा हाथों के संचार से अत्यधिक आश्चर्य सूचित हो रहा था ऐसे उस पद्मरुचि को पहिचान कर वृषभध्वज ने उसके चरणों में नमस्कार किया ॥16॥<span id="57" /></p> | ||
<p>पद्मरुचि ने उसके लिए बैल के दुःखपूर्ण मरण का समाचार कहा जिसे सुन कर उत्फुल्ल लोचनों को धारण करने वाला राजपुत्र बोला कि वह बैल मैं ही हूँ ॥57॥<span id="58" /><span id="59" /> जिस प्रकार उत्तम शिष्य गुरु की पूजा कर संतुष्ट होता है उसी प्रकार वृषभध्वज राजकुमार भी शीघ्रता से पद्मरुचि की पूजा कर संतुष्ट हुआ। पूजा के बाद राजपुत्र ने पद्मरुचि से कहा कि मृत्यु के संकट से परिपूर्ण उस काल में आप मेरे प्रियबंधु के समान समाधि प्राप्त कराने के लिए आये थे ॥58-59॥<span id="60" /> उस समय तुमने दयालु होकर जो समाधिरूपी अमृत का संबल मेरे लिए दिया था देखो, उसी से तृप्त होकर मैं इस भव को प्राप्त हुआ हूँ ॥60॥<span id="61" /> तुमने जो मेरा भला किया है वह न माता करती है, न पिता करता है, न सगा भाई करता है, न परिवार के अन्य लोग करते हैं और न देव ही करते हैं ॥61॥<span id="62" /> तुमने जो मुझे पंचनमस्कार मंत्र श्रवण का दान दिया था उसका मूल्य यद्यपि मैं नहीं देखता तथापि आपमें जो मेरी परम भक्ति है वही यह चेष्टा करा रही है ॥62॥<span id="63" /> हे नाथ ! मुझे आज्ञा दो । मैं आपका क्या करूँ ? हे पुरुषोत्तम ! आज्ञा देकर मुझ भक्त को अनुगृहीत करो ॥63।।<span id="64" /> तुम यह समस्त राज्य ले लो, मैं तुम्हारा दास रहूँगा। अभिलषित कार्य में इस शरीर को नियुक्त कीजिए ॥64॥<span id="65" /> इत्यादि उत्तम शब्दों के साथ-साथ उन दोनों में परम प्रेम हो गया, दोनों को ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, वह राज्य दोनों का सम्मिलित राज्य हुआ और दोनों का संयोग चिर संयोग हो गया ॥65॥<span id="66" /> जिनका अनुराग ऊपर ही ऊपर न रहकर हड्डी तथा मज्जा तक पहुँच गया था ऐसे वे दोनों श्रावक के व्रत से सहित हुए। स्थिर चित्त के धारण करने वाले उन दोनों ने पृथिवी पर अनेक जिनमंदिर और जिनबिंब बनवाये ॥66॥<span id="67" /> सफेद कमल की बोड़ियों के समान स्तूपों से सैकड़ों बार पृथिवी को अलंकृत किया ॥67॥<span id="68" /></p> | <p>पद्मरुचि ने उसके लिए बैल के दुःखपूर्ण मरण का समाचार कहा जिसे सुन कर उत्फुल्ल लोचनों को धारण करने वाला राजपुत्र बोला कि वह बैल मैं ही हूँ ॥57॥<span id="58" /><span id="59" /> जिस प्रकार उत्तम शिष्य गुरु की पूजा कर संतुष्ट होता है उसी प्रकार वृषभध्वज राजकुमार भी शीघ्रता से पद्मरुचि की पूजा कर संतुष्ट हुआ। पूजा के बाद राजपुत्र ने पद्मरुचि से कहा कि मृत्यु के संकट से परिपूर्ण उस काल में आप मेरे प्रियबंधु के समान समाधि प्राप्त कराने के लिए आये थे ॥58-59॥<span id="60" /> उस समय तुमने दयालु होकर जो समाधिरूपी अमृत का संबल मेरे लिए दिया था देखो, उसी से तृप्त होकर मैं इस भव को प्राप्त हुआ हूँ ॥60॥<span id="61" /> तुमने जो मेरा भला किया है वह न माता करती है, न पिता करता है, न सगा भाई करता है, न परिवार के अन्य लोग करते हैं और न देव ही करते हैं ॥61॥<span id="62" /> तुमने जो मुझे पंचनमस्कार मंत्र श्रवण का दान दिया था उसका मूल्य यद्यपि मैं नहीं देखता तथापि आपमें जो मेरी परम भक्ति है वही यह चेष्टा करा रही है ॥62॥<span id="63" /> हे नाथ ! मुझे आज्ञा दो । मैं आपका क्या करूँ ? हे पुरुषोत्तम ! आज्ञा देकर मुझ भक्त को अनुगृहीत करो ॥63।।<span id="64" /> तुम यह समस्त राज्य ले लो, मैं तुम्हारा दास रहूँगा। अभिलषित कार्य में इस शरीर को नियुक्त कीजिए ॥64॥<span id="65" /> इत्यादि उत्तम शब्दों के साथ-साथ उन दोनों में परम प्रेम हो गया, दोनों को ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, वह राज्य दोनों का सम्मिलित राज्य हुआ और दोनों का संयोग चिर संयोग हो गया ॥65॥<span id="66" /> जिनका अनुराग ऊपर ही ऊपर न रहकर हड्डी तथा मज्जा तक पहुँच गया था ऐसे वे दोनों श्रावक के व्रत से सहित हुए। स्थिर चित्त के धारण करने वाले उन दोनों ने पृथिवी पर अनेक जिनमंदिर और जिनबिंब बनवाये ॥66॥<span id="67" /> सफेद कमल की बोड़ियों के समान स्तूपों से सैकड़ों बार पृथिवी को अलंकृत किया ॥67॥<span id="68" /></p> | ||
<p>तदनंतर मरण के समय समाधि की आराधना कर वृषभध्वज ईशान स्वर्ग में पुण्य कर्म का फल भोगने वाला देव हुआ ॥68॥<span id="69" /> उस देव के नयनों की कांति देवांगनाओं के नयन कमलों को विकसित करने वाली थी, तथा क्रीड़ा करते समय ध्यान करते ही उसके समस्त मनोरथ पूर्ण हो जाते थे ॥69॥<span id="70" /> इधर पद्मरुचि भी आयु के अंत में समाधिमरण प्राप्त कर ईशान स्वर्ग में ही सुंदर वैमानिक देव हुआ ॥70।।<span id="71" /><span id="72" /> तदनंतर पद्मरुचि का जीव वहाँ से चय कर पश्चिम विदेह क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर नंद्यावर्त नगर के राजा नंदीश्वर की कनकाभा रानी से नयनानंद नाम का पुत्र हुआ। वहाँ उसने चिरकाल तक विद्याधर राजा की विशाल लक्ष्मी का उपभोग किया ॥71-72॥<span id="73" /> तदनंतर मुनि-दीक्षा ले अत्यंत विकट तप किया और अंत में समाधिमरण प्राप्त कर माहेंद्र स्वर्ग प्राप्त किया ॥73॥<span id="74" /> वहाँ उसने पुण्यरूपी लता के महाफल के समान पंचेंद्रियों के विषय द्वार से अत्यंत सुंदर मनोहर सुख प्राप्त किया ॥74।।<span id="75" /> </p> | <p>तदनंतर मरण के समय समाधि की आराधना कर वृषभध्वज ईशान स्वर्ग में पुण्य कर्म का फल भोगने वाला देव हुआ ॥68॥<span id="69" /> उस देव के नयनों की कांति देवांगनाओं के नयन कमलों को विकसित करने वाली थी, तथा क्रीड़ा करते समय ध्यान करते ही उसके समस्त मनोरथ पूर्ण हो जाते थे ॥69॥<span id="70" /> इधर पद्मरुचि भी आयु के अंत में समाधिमरण प्राप्त कर ईशान स्वर्ग में ही सुंदर वैमानिक देव हुआ ॥70।।<span id="71" /><span id="72" /> तदनंतर पद्मरुचि का जीव वहाँ से चय कर पश्चिम विदेह क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर नंद्यावर्त नगर के राजा नंदीश्वर की कनकाभा रानी से नयनानंद नाम का पुत्र हुआ। वहाँ उसने चिरकाल तक विद्याधर राजा की विशाल लक्ष्मी का उपभोग किया ॥71-72॥<span id="73" /> तदनंतर मुनि-दीक्षा ले अत्यंत विकट तप किया और अंत में समाधिमरण प्राप्त कर माहेंद्र स्वर्ग प्राप्त किया ॥73॥<span id="74" /> वहाँ उसने पुण्यरूपी लता के महाफल के समान पंचेंद्रियों के विषय द्वार से अत्यंत सुंदर मनोहर सुख प्राप्त किया ॥74।।<span id="75" /> </p> | ||
<p>तदनंतर वहाँ से च्युत होकर मेरु पर्वत के पश्चिम दिग्भाग में स्थित क्षेमपुरी नगरी में श्रीचंद्र नाम का प्रसिद्ध राजपुत्र हुआ ॥75॥<span id="76" /> वहाँ उसकी माता का नाम पद्मावती और पिता का नाम विपुलवाहन था। वह वहाँ स्वर्ग में भोगे हुए कर्म का जो निःस्यंद शेष रहा था उसी का मानो उपभोग करता था ॥76।।<span id="77" /> उसके पुण्य प्रभाव से उसका खजाना, देश तथा सैन्य बल सब ओर से प्रतिदिन परम वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ॥77॥<span id="78" /> वह श्रीचंद्र, एक ग्राम के स्थानापन्न, नाना खानों से सहित विशाल पृथिवी का प्रिया के समान महाप्रीति से पालन करता था ॥78।।<span id=" | <p>तदनंतर वहाँ से च्युत होकर मेरु पर्वत के पश्चिम दिग्भाग में स्थित क्षेमपुरी नगरी में श्रीचंद्र नाम का प्रसिद्ध राजपुत्र हुआ ॥75॥<span id="76" /> वहाँ उसकी माता का नाम पद्मावती और पिता का नाम विपुलवाहन था। वह वहाँ स्वर्ग में भोगे हुए कर्म का जो निःस्यंद शेष रहा था उसी का मानो उपभोग करता था ॥76।।<span id="77" /> उसके पुण्य प्रभाव से उसका खजाना, देश तथा सैन्य बल सब ओर से प्रतिदिन परम वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ॥77॥<span id="78" /> वह श्रीचंद्र, एक ग्राम के स्थानापन्न, नाना खानों से सहित विशाल पृथिवी का प्रिया के समान महाप्रीति से पालन करता था ॥78।।<span id="79" /> वहाँ वह हाव भाव से मनोज्ञ स्त्रियों के द्वारा लालित होता हुआ देवांगनाओं से सहित देवेंद्र के समान क्रीड़ा करता था ॥79॥<span id="80" /> दोदुंदुक देव के समान महान् ऐश्वर्य को प्राप्त हुए उस श्रीचंद्र के कई हजार वर्ष एक क्षण के समान व्यतीत हो गये ॥80॥</p> | ||
<p><span id="81" />अथानंतर किसी समय व्रत समिति और गुप्ति से श्रेष्ठ एवं बहुत भारी संघ से आवृत समाधिगुप्त नामक मुनिराज उस नगर में आये ।।81॥<span id="82" /> 'मुनिराज आकर उद्यान में ठहरे हैं ।' यह जानकर मुनि की वंदना करने के लिए नगर के सब लोग हर्षपूर्वक बात-चीत करते हुए उद्यान में गये ॥82॥<span id="83" /><span id="84" /> भक्तिपूर्वक स्तुति करने वाले जनसमूह का मेघमंडल के समान जो भारी शब्द हो रहा था उसे कान लगाकर श्रीचंद्र ने सुना और निकटवर्ती लोगों से पूछा कि यह महासागर के समान किसका शब्द सुनाई दे रहा है ? जिन लोगों से राजा ने पूछा था वे उस शब्द का कारण नहीं जानते थे इसलिए उन्होंने मंत्री को राजा के निकट कर दिया ।।83-84॥<span id="85" /> तब राजा ने मंत्री से कहा कि मालूम करो यह किसका शब्द है ? इसके उत्तर में मंत्री ने जाकर तथा सब समाचार जानकर वापिस आ निवेदन किया कि उद्यान में मुनिराज आये हैं ॥85॥</p> | |||
<p><span id="86" />तदनंतर जिसके नेत्र खिले हुए कमल के समान सुशोभित हो रहे थे तथा जिसके हर्ष के रोमांच उठ आये थे ऐसा राजा श्रीचंद्र अपनी स्त्री के साथ मुनि वंदना के लिए चला ॥86॥<span id="87" /> वहाँ प्रसन्न मुखचंद्र के धारक मुनिराज के दर्शन कर राजा ने शीघ्रता से शिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया और उसके बाद वह विनयपूर्वक पृथिवी पर बैठ गया ।।87।।<span id="88" /> भव्यरूपी कमलों में प्रधान राजा श्रीचंद्र को मुनिरूपी सूर्य के दर्शन होनेपर अपने आप अनुभव में आने योग्य कोई अद्भुत महाप्रेम उत्पन्न हुआ ॥88॥<span id="89" /></p> | |||
<p>तत्पश्चात् परम गंभीर और सर्व शास्त्रों के विशारद मुनिराज ने उस अपार जनसमूह के लिए तत्त्वों का उपदेश दिया ।।89।।<span id="90" /> उन्होंने कहा कि अवांतर अनेक भेदों से सहित तथा संसार सागर से तारने वाला धर्म, अनगार और सागार के भेद से दो प्रकार का है ।।90॥<span id="91" /> वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनिराज ने अनुयोग द्वार से वर्णन करते हुए कहा कि अनुयोग के 1 प्रथमानुयोग 2 करणानुयोग 3 चरणानुयोग और 4 द्रव्यानुयोग के भेद से चार भेद हैं ॥91॥<span id="92" /><span id="93" /> तदनंतर उन्होंने अन्य मत-मतांतरों की आलोचना करने वाली आक्षेपणी कथा की । फिर स्वकीय तत्त्व का निरूपण करने में निपुण निक्षेपणी कथा की। तदनंतर संसार से भय उत्पन्न करने वाली संवेजनी कथा की और उसके बाद भोगों से वैराग्य उत्पन्न करने वाली पुण्यवर्धक निवेदनी कथा की ॥92-93॥<span id="94" /> उन्होंने कहा कि कर्मयोग से संसार में दौड़ लगाने वाले इस प्राणी को मोक्षमार्ग की प्राप्ति बड़े कष्ट से होती है ॥94।।<span id="95" /> यह संसार विनाशी होने के कारण संध्या, बबूले, फेन, तरंग, बिजली और इंद्रधनुष के समान है । इसमें कुछ भी सार नहीं है ॥95॥<span id="96" /> यह प्राणी नरक अथवा तिर्यंचगति में एकांत रूप से दुःख ही प्राप्त करता है और मनुष्य तथा देवों के सुख में यह तृप्त नहीं होता है ॥96॥<span id="97" /> जो इंद्र संबंधी भोग-संपदाओं से तृप्त नहीं हुआ वह म<u>नु</u>ष्यों के क्षुद्र भोगों से कैसे तृप्त हो सकता है ? ॥97।।<span id="98" /> जिस प्रकार निर्धन मनुष्य किसी तरह दुर्लभ खजाना पाकर यदि प्रमाद करता है तो उसका वह खजाना व्यर्थ चला जाता है। इसी प्रकार यह प्राणी किसी तरह दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर विषय स्वाद के लोभ में पड़ यदि प्रमाद करता है तो उसकी मनुष्य पर्याय व्यर्थ चली जाती है ॥98॥<span id="99" /> सूखे ईंधन से अग्नि की तृप्ति क्या है ? नदियों के जल से समुद्र की तृप्ति क्या है ? और विषयों के आस्वाद-संबंधी सुख से संसारी प्राणी की तृप्ति क्या है ? ॥99॥<span id="100" /> जल में डूबते हुए खिन्न मनुष्य के समान विषय रूपी आमिष से मोहित हुआ चतुर मनुष्य भी मोहांधीकृत चित्त होकर मंदता को प्राप्त हो जाता है ॥100॥<span id="101" /> सूर्य तो दिन में ही तपता है पर काम रात-दिन तपता रहता है । सूर्य का आवरण तो है पर काम का आवरण नहीं है ।।101।।<span id="102" /> संसार में अरहट की घटी के समान निरंतर कर्मों से उत्पन्न होने वाला जो जन्म, जरा और मृत्यु संबंधी दुःख है वह स्मरण आते ही भय देने वाला है ।।102॥<span id="103" /> जिस प्रकार अजंगम यंत्र जंगम प्राणी के द्वारा घुमाया जाता है उसी प्रकार यह अनित्य तथा बीभत्स शरीर भी चेतन द्वारा घुमाया जाता है । इस शरीर में जो स्नेह है वह मोह के कारण ही है ।।103।।<span id="104" /> यह मनुष्य जन्म पानी के बबूले के समान निःसार है ऐसा जानकर कुलीन मनुष्य विरक्त हो जिन प्रतिपादित मार्ग को प्राप्त होते हैं ॥104।।<span id="105" /> जो उत्साह रूपी कवच से आच्छादित हैं, निश्चय रूपी घोड़े पर सवार हैं और ध्यानरूपी खड्ग को धारण करने वाले हैं ऐसे धीर वीर मनुष्य सुगति के प्रति प्रस्थान करते हैं ॥105॥<span id="106" /> हे मानवो! शरीर जुदा है और मैं जुदा हूँ ऐसा विचार कर निश्चय करो तथा शरीर में स्नेह छोड़कर धर्म करो ॥106॥<span id="107" /> जिन्हें सुख-दुःखादि समान हैं, जो स्वजन और परजनों में समान हैं तथा राग-द्वेष आदि से रहित हैं ऐसे मुनि ही पुरुषोत्तम हैं ॥107।।<span id="108" /> उन्हीं मुनियों ने अपने शुक्ल-ध्यान रूपी नेत्र के द्वारा दुःख रूपी वन्य पशुओं से व्याप्त इस अत्यंत विशाल समस्त कर्मरूपी अटवी को भस्म किया है ॥108।।<span id="109" /></p> | <p>तत्पश्चात् परम गंभीर और सर्व शास्त्रों के विशारद मुनिराज ने उस अपार जनसमूह के लिए तत्त्वों का उपदेश दिया ।।89।।<span id="90" /> उन्होंने कहा कि अवांतर अनेक भेदों से सहित तथा संसार सागर से तारने वाला धर्म, अनगार और सागार के भेद से दो प्रकार का है ।।90॥<span id="91" /> वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनिराज ने अनुयोग द्वार से वर्णन करते हुए कहा कि अनुयोग के 1 प्रथमानुयोग 2 करणानुयोग 3 चरणानुयोग और 4 द्रव्यानुयोग के भेद से चार भेद हैं ॥91॥<span id="92" /><span id="93" /> तदनंतर उन्होंने अन्य मत-मतांतरों की आलोचना करने वाली आक्षेपणी कथा की । फिर स्वकीय तत्त्व का निरूपण करने में निपुण निक्षेपणी कथा की। तदनंतर संसार से भय उत्पन्न करने वाली संवेजनी कथा की और उसके बाद भोगों से वैराग्य उत्पन्न करने वाली पुण्यवर्धक निवेदनी कथा की ॥92-93॥<span id="94" /> उन्होंने कहा कि कर्मयोग से संसार में दौड़ लगाने वाले इस प्राणी को मोक्षमार्ग की प्राप्ति बड़े कष्ट से होती है ॥94।।<span id="95" /> यह संसार विनाशी होने के कारण संध्या, बबूले, फेन, तरंग, बिजली और इंद्रधनुष के समान है । इसमें कुछ भी सार नहीं है ॥95॥<span id="96" /> यह प्राणी नरक अथवा तिर्यंचगति में एकांत रूप से दुःख ही प्राप्त करता है और मनुष्य तथा देवों के सुख में यह तृप्त नहीं होता है ॥96॥<span id="97" /> जो इंद्र संबंधी भोग-संपदाओं से तृप्त नहीं हुआ वह म<u>नु</u>ष्यों के क्षुद्र भोगों से कैसे तृप्त हो सकता है ? ॥97।।<span id="98" /> जिस प्रकार निर्धन मनुष्य किसी तरह दुर्लभ खजाना पाकर यदि प्रमाद करता है तो उसका वह खजाना व्यर्थ चला जाता है। इसी प्रकार यह प्राणी किसी तरह दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर विषय स्वाद के लोभ में पड़ यदि प्रमाद करता है तो उसकी मनुष्य पर्याय व्यर्थ चली जाती है ॥98॥<span id="99" /> सूखे ईंधन से अग्नि की तृप्ति क्या है ? नदियों के जल से समुद्र की तृप्ति क्या है ? और विषयों के आस्वाद-संबंधी सुख से संसारी प्राणी की तृप्ति क्या है ? ॥99॥<span id="100" /> जल में डूबते हुए खिन्न मनुष्य के समान विषय रूपी आमिष से मोहित हुआ चतुर मनुष्य भी मोहांधीकृत चित्त होकर मंदता को प्राप्त हो जाता है ॥100॥<span id="101" /> सूर्य तो दिन में ही तपता है पर काम रात-दिन तपता रहता है । सूर्य का आवरण तो है पर काम का आवरण नहीं है ।।101।।<span id="102" /> संसार में अरहट की घटी के समान निरंतर कर्मों से उत्पन्न होने वाला जो जन्म, जरा और मृत्यु संबंधी दुःख है वह स्मरण आते ही भय देने वाला है ।।102॥<span id="103" /> जिस प्रकार अजंगम यंत्र जंगम प्राणी के द्वारा घुमाया जाता है उसी प्रकार यह अनित्य तथा बीभत्स शरीर भी चेतन द्वारा घुमाया जाता है । इस शरीर में जो स्नेह है वह मोह के कारण ही है ।।103।।<span id="104" /> यह मनुष्य जन्म पानी के बबूले के समान निःसार है ऐसा जानकर कुलीन मनुष्य विरक्त हो जिन प्रतिपादित मार्ग को प्राप्त होते हैं ॥104।।<span id="105" /> जो उत्साह रूपी कवच से आच्छादित हैं, निश्चय रूपी घोड़े पर सवार हैं और ध्यानरूपी खड्ग को धारण करने वाले हैं ऐसे धीर वीर मनुष्य सुगति के प्रति प्रस्थान करते हैं ॥105॥<span id="106" /> हे मानवो! शरीर जुदा है और मैं जुदा हूँ ऐसा विचार कर निश्चय करो तथा शरीर में स्नेह छोड़कर धर्म करो ॥106॥<span id="107" /> जिन्हें सुख-दुःखादि समान हैं, जो स्वजन और परजनों में समान हैं तथा राग-द्वेष आदि से रहित हैं ऐसे मुनि ही पुरुषोत्तम हैं ॥107।।<span id="108" /> उन्हीं मुनियों ने अपने शुक्ल-ध्यान रूपी नेत्र के द्वारा दुःख रूपी वन्य पशुओं से व्याप्त इस अत्यंत विशाल समस्त कर्मरूपी अटवी को भस्म किया है ॥108।।<span id="109" /></p> | ||
<p>इस प्रकार मुनिराज का उपदेश सुन कर श्रीचंद्र विषयास्वाद-संबंधी सुख से पराङ्मुख हो रत्नत्रय को प्राप्त हो गया ।।109॥<span id="110" /> फलस्वरूप उस उदारचेता ने धृतिकांत नामक पुत्र के लिए राज्य देकर समाधिगुप्त मुनिराज के समीप मुनिदीक्षा धारण कर ली ॥110॥<span id="111" /> अब वे श्रीचंद्रमुनि समीचीन भावना से सहित थे, त्रियोग संबंधी शुद्धि को धारण करते थे, समितियों और गुप्तियों से सहित थे तथा राग-द्वेष से विमुख थे ॥111॥<span id="112" /> रत्नत्रय रूपी उत्तम अलंकारों से युक्त थे, क्षमा आदि गुणों से सहित थे, जिन-शासन से ओत-प्रोत थे, श्रमण थे और उत्तम समाधान से युक्त थे ॥112॥<span id="113" /> पंच महाव्रतों के धारक थे, प्राणियों की रक्षा करने वाले थे, सात भयों से निर्मुक्त थे तथा उत्तम धैर्य से सहित थे ॥113।।<span id="114" /> ईर्यासमिति पूर्वक उत्तम विहार करने में तत्पर थे, परीषहों के समूह को सहन करने वाले थे, मुनि थे, तथा बेला, तेला और पक्षोपवासादि करने के बाद पारणा करते थे ॥114॥<span id="115" /> ध्यान और स्वाध्याय में निरंतर लीन रहते थे; ममता रहित थे, इंद्रियों को तीव्रता से जीतने वाले थे, उनके कार्य निदान अर्थात् आगामी भोगाकांक्षा से रहित होते थे, वे परम शांत थे और जिन शासन के परम स्नेही थे ॥115।।<span id="116" /> अहिंसक आचरण करने में कुशल थे, मुनिसंघ पर अनुग्रह करने में तत्पर थे, और बाल की अनीमात्र परिग्रह में भी इच्छा से रहित थे ॥116।।<span id="117" /> स्नान के अभाव में उनका शरीर मल से सुशोभित था, वे आसक्ति से रहित थे, दिगंबर थे, गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक ही ठहरते थे ॥117।।<span id="118" /> पर्वत की गुफाओं, नदियों के तट अथवा बाग-बगीचों में ही उनका उत्तम निवास होता था, उन्होंने शरीर से ममता छोड़ दी थी, वे स्थिर थे, मौनी थे, विद्वान थे और सम्यक् तप में तत्पर थे ॥118॥<span id="119" /> इत्यादि गुणों से सहित श्रीचंद्रमुनि कामरूपी पंजर को जर्जर-जीर्ण-शीर्ण कर तथा समाधिमरण प्राप्त कर ब्रह्मस्वर्ग के इंद्र हुए ॥119॥<span id="120" /></p> | <p>इस प्रकार मुनिराज का उपदेश सुन कर श्रीचंद्र विषयास्वाद-संबंधी सुख से पराङ्मुख हो रत्नत्रय को प्राप्त हो गया ।।109॥<span id="110" /> फलस्वरूप उस उदारचेता ने धृतिकांत नामक पुत्र के लिए राज्य देकर समाधिगुप्त मुनिराज के समीप मुनिदीक्षा धारण कर ली ॥110॥<span id="111" /> अब वे श्रीचंद्रमुनि समीचीन भावना से सहित थे, त्रियोग संबंधी शुद्धि को धारण करते थे, समितियों और गुप्तियों से सहित थे तथा राग-द्वेष से विमुख थे ॥111॥<span id="112" /> रत्नत्रय रूपी उत्तम अलंकारों से युक्त थे, क्षमा आदि गुणों से सहित थे, जिन-शासन से ओत-प्रोत थे, श्रमण थे और उत्तम समाधान से युक्त थे ॥112॥<span id="113" /> पंच महाव्रतों के धारक थे, प्राणियों की रक्षा करने वाले थे, सात भयों से निर्मुक्त थे तथा उत्तम धैर्य से सहित थे ॥113।।<span id="114" /> ईर्यासमिति पूर्वक उत्तम विहार करने में तत्पर थे, परीषहों के समूह को सहन करने वाले थे, मुनि थे, तथा बेला, तेला और पक्षोपवासादि करने के बाद पारणा करते थे ॥114॥<span id="115" /> ध्यान और स्वाध्याय में निरंतर लीन रहते थे; ममता रहित थे, इंद्रियों को तीव्रता से जीतने वाले थे, उनके कार्य निदान अर्थात् आगामी भोगाकांक्षा से रहित होते थे, वे परम शांत थे और जिन शासन के परम स्नेही थे ॥115।।<span id="116" /> अहिंसक आचरण करने में कुशल थे, मुनिसंघ पर अनुग्रह करने में तत्पर थे, और बाल की अनीमात्र परिग्रह में भी इच्छा से रहित थे ॥116।।<span id="117" /> स्नान के अभाव में उनका शरीर मल से सुशोभित था, वे आसक्ति से रहित थे, दिगंबर थे, गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक ही ठहरते थे ॥117।।<span id="118" /> पर्वत की गुफाओं, नदियों के तट अथवा बाग-बगीचों में ही उनका उत्तम निवास होता था, उन्होंने शरीर से ममता छोड़ दी थी, वे स्थिर थे, मौनी थे, विद्वान थे और सम्यक् तप में तत्पर थे ॥118॥<span id="119" /> इत्यादि गुणों से सहित श्रीचंद्रमुनि कामरूपी पंजर को जर्जर-जीर्ण-शीर्ण कर तथा समाधिमरण प्राप्त कर ब्रह्मस्वर्ग के इंद्र हुए ॥119॥<span id="120" /></p> | ||
<p>वहाँ वे उत्तम विमान में श्री, कीर्ति, धृति और कांति को प्राप्त थे, चूड़ामणि के द्वारा प्रकाश करने वाले थे, तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे ॥120।।<span id="121" /> यद्यपि ध्यान करते ही उत्पन्न होने वाली परम ऋद्धि से क्रीड़ा करते थे तथापि अहमिंद्रदेव के समान अथवा भरत चक्रवर्ती के समान निर्लिप्त हो रहते थे ॥121॥॥<span id="122" /> नंदन वन आदि स्थानों में उत्तम संपदाओं से युक्त सौधर्म आदि इंद्र जब उनकी ओर देखते थे तब उन जैसा वैभव प्राप्त करने के लिए उत्कंठित हो जाते थे ॥122।।<span id="123" /> देवांगनाओं के नेत्रों को उत्सव प्रदान करने वाले वे ब्रह्मेंद्र, मणि तथा सुवर्ण से निर्मित एवं मोतियों की जाली से सुशोभित सुंदर विमान में रमण करते थे ॥123॥<span id="124" /> | <p>वहाँ वे उत्तम विमान में श्री, कीर्ति, धृति और कांति को प्राप्त थे, चूड़ामणि के द्वारा प्रकाश करने वाले थे, तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे ॥120।।<span id="121" /> यद्यपि ध्यान करते ही उत्पन्न होने वाली परम ऋद्धि से क्रीड़ा करते थे तथापि अहमिंद्रदेव के समान अथवा भरत चक्रवर्ती के समान निर्लिप्त हो रहते थे ॥121॥॥<span id="122" /> नंदन वन आदि स्थानों में उत्तम संपदाओं से युक्त सौधर्म आदि इंद्र जब उनकी ओर देखते थे तब उन जैसा वैभव प्राप्त करने के लिए उत्कंठित हो जाते थे ॥122।।<span id="123" /> देवांगनाओं के नेत्रों को उत्सव प्रदान करने वाले वे ब्रह्मेंद्र, मणि तथा सुवर्ण से निर्मित एवं मोतियों की जाली से सुशोभित सुंदर विमान में रमण करते थे ॥123॥</p> | ||
<p><span id="124" />श्री सकलभूषण केवली कहते हैं कि हे विभीषण ! श्रीचंद्र के जीव ब्रह्मेंद्र की जो विभूति थी उसे बृहस्पति भी सौ वर्ष में भी नहीं कह सकता ॥124॥<span id="125" /> जिनशासन अमूल्य रत्न है, अनुपम रहस्य है तथा तीनों लोकों में प्रकट है परंतु मोही जीव इसे नहीं जानते ॥12॥<span id="126" /> मुनिधर्म तथा जिनेंद्रदेव के उत्तम माहात्म्य को जानकर भी मिथ्या अभिमान में चूर रहने वाले मनुष्य धर्म से विमुख रहते हैं ॥126।।<span id="127" /> जो बालक अर्थात् अज्ञानी इस लोकसंबंधी सुख के लिए मिथ्यामत में प्रीति करता है वह अपना ध्यान रखता हुआ भी उसका वह अहित करता है जिसे शत्रु भी नहीं करते ॥127।।<span id="128" /> कर्म बंध की विचित्रता होने से सभी लोग रत्नत्रय के धारक नहीं हो जाते । कितने ही लोग उसे प्राप्त कर भी दूसरे के चक्र में पड़कर पुनः छोड़ देते हैं ।।128॥<span id="129" /> हे भव्यजनो ! अनेक खोटे मनुष्यों के द्वारा गृहीत एवं बहुत दोषों से सहित निंदित धर्म में रमण मत करो। अपने चित् स्वरूप के साथ बंधुता का काम करो ।।129।।<span id="130" /> जिनशासन को छोड़कर अन्यत्र दुःख से मुक्ति नहीं है इसलिए हे भव्यजनो ! अनन्यचित्त हो निरंतर जिनभगवान की अर्चा करो ॥130।<span id="131" /> इस प्रकार देव से उत्तम मनुष्य पर्याय और मनुष्य से उत्तम देवपर्याय को प्राप्त करने वाले धनदत्त का वर्णन किया ॥131।।<span id="132" /> अब संक्षेप से कर्मों की विचित्रता के कारण विविधरूपता को धारण करने वाले, वसुदत्तादि के भ्रमण का वर्णन करता हूँ ॥132॥<span id="133" /> </p> | |||
<p>अथानंतर मृणालकुंड नामक नगर में प्रतापवान् तथा यश से उज्ज्वल विजयसेन नाम का राजा रहता था । रत्नचूला उसकी स्त्री थी ॥133।।<span id="134" /> उन दोनों के वज्रकंबु नाम का पुत्र था और हेमवती उसकी स्त्री थी। उन दोनों के पृथिवीतल पर प्रसिद्ध शंभु नाम का पुत्र था ॥134।।<span id="135" /> उसके श्रीभूति नाम का परमतत्त्वदर्शी पुरोहित था और उसकी स्त्री के योग्य गुणों से सहित सरस्वती नाम की स्त्री थी ॥135।।<span id="136" /> पहले जिस गुणवती का उल्लेख कर आये हैं वह समीचीन धर्म से रहित हो कर्मों के प्रभाव से तिर्यंच योनि में चिरकाल तक भ्रमण करती रही ॥136।।<span id="137" /> वह मोह, निंदा, स्त्री संबंधी निदान तथा अपवाद आदि के कारण बार-बार तीव्र दुःख से युक्त स्त्रीपर्याय को प्राप्त करती रही ॥137।।<span id="138" /> तदनंतर साधुओं का अवर्णवाद करने के कारण वह दुःखमयी अवस्था से दुखी होती हुई गंगा नदी के तट पर हथिनी हुई ॥138।।<span id="139" /> वहाँ वह बहुत भारी कीचड़ में फंस गई जिससे उसका शरीर एकदम पराधीन होकर अचल हो गया। वह धीरे-धीरे स-स शब्द | <p>अथानंतर मृणालकुंड नामक नगर में प्रतापवान् तथा यश से उज्ज्वल विजयसेन नाम का राजा रहता था । रत्नचूला उसकी स्त्री थी ॥133।।<span id="134" /> उन दोनों के वज्रकंबु नाम का पुत्र था और हेमवती उसकी स्त्री थी। उन दोनों के पृथिवीतल पर प्रसिद्ध शंभु नाम का पुत्र था ॥134।।<span id="135" /> उसके श्रीभूति नाम का परमतत्त्वदर्शी पुरोहित था और उसकी स्त्री के योग्य गुणों से सहित सरस्वती नाम की स्त्री थी ॥135।।<span id="136" /> पहले जिस गुणवती का उल्लेख कर आये हैं वह समीचीन धर्म से रहित हो कर्मों के प्रभाव से तिर्यंच योनि में चिरकाल तक भ्रमण करती रही ॥136।।<span id="137" /> वह मोह, निंदा, स्त्री संबंधी निदान तथा अपवाद आदि के कारण बार-बार तीव्र दुःख से युक्त स्त्रीपर्याय को प्राप्त करती रही ॥137।।<span id="138" /> तदनंतर साधुओं का अवर्णवाद करने के कारण वह दुःखमयी अवस्था से दुखी होती हुई गंगा नदी के तट पर हथिनी हुई ॥138।।<span id="139" /> वहाँ वह बहुत भारी कीचड़ में फंस गई जिससे उसका शरीर एकदम पराधीन होकर अचल हो गया। वह धीरे-धीरे स-स शब्द छोड़ने लगी तथा नेत्र बंदकर मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हुई ॥139॥<span id="140" /> तदनंतर उसे मरती देख तरंगवेग नामक दयालु विद्याधर ने उसे कान में नमस्कार मंत्र का जाप सुनाया ॥140।<span id="141" /> उस मंत्र के प्रभाव से उसकी कषाय मंद पड़ गई, उसने उसी स्थान का क्षेत्र संन्यास धारण किया तथा उक्त विद्याधर ने उसे प्रत्याख्यान-संयम दिया। इन सब कारणों के मिलने से वह श्रीभूति नामक पुरोहित के वेदवती नाम की पुत्री हुई ॥141।।<span id="142" /> एक बार भिक्षा के लिए घर में प्रविष्ट मुनि को देखकर उसने उनकी हँसी की तब पिता ने उसे समझाया जिससे वह श्राविका हो गई ॥142॥<span id="143" /> वेदवती परम सुंदरी कन्या थी अतः उसे प्राप्त करने के लिए पृथिवीतल के राजा अत्यंत उत्कंठित थे और उनमें शंभु विशेष रूपसे उत्कंठित था ॥143॥<span id="144" /> पुरोहित की यह प्रतिज्ञा थी कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि पुरुष संपत्ति में कुबेर के समान हो तथापि उसके लिए यह कन्या नहीं दूंगा ॥144॥<span id="145" /> इस प्रतिज्ञा से शंभु बहुत कुपित हुआ और उसने रात्रि में सोते हुए पुरोहित को मार डाला । पुरोहित मरकर जिनधर्म के प्रसाद से देव हुआ ॥145॥<span id="146" /> </p> | ||
<p> तदनंतर जो साक्षात् देवता के समान जान पड़ती थी ऐसी इस वेदवती को उसकी इच्छा न रहने पर भी शंभु अपने अधिकार से बलात् विवाहने के लिए उद्यत हुआ ॥146॥<span id="147" /> साक्षात् रति के समान शोभायमान उस वेदवती का शंभु ने काम के द्वारा संतप्त मन से आलिंगन किया। चुंबन किया और उसके साथ बलात् मैथुन किया ।।147॥<span id="148" /><span id="149" /><span id="150" /><span id="151" /> तदनंतर जो अत्यंत कुपित थी, अग्निशिखा के समान तीक्ष्ण थी, जिसका हृदय विरक्त था, शरीर काँप रहा था, जो अपने शील के नाश और पिता के वध से तीव्र दुःख धारण कर रही थी तथा जिसके नेत्र लाल-लाल थे ऐसी उस वेदवती ने शंभु से कहा कि अरे पापी ! नीच पुरुष! तूने पिता को मारकर बलात् मेरे साथ काम सेवन किया है, इसलिए मैं तेरे वध के लिए ही आगामी पर्याय में उत्पन्न होऊँगी। यद्यपि मेरे पिता परलोक चले गये हैं तथापि मैं उनकी इच्छा नष्ट नहीं करूँगी । मिथ्यादृष्टि पुरुष को चाहने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है ॥148-151।।<span id="152" /> </p> | <p> तदनंतर जो साक्षात् देवता के समान जान पड़ती थी ऐसी इस वेदवती को उसकी इच्छा न रहने पर भी शंभु अपने अधिकार से बलात् विवाहने के लिए उद्यत हुआ ॥146॥<span id="147" /> साक्षात् रति के समान शोभायमान उस वेदवती का शंभु ने काम के द्वारा संतप्त मन से आलिंगन किया। चुंबन किया और उसके साथ बलात् मैथुन किया ।।147॥<span id="148" /><span id="149" /><span id="150" /><span id="151" /> तदनंतर जो अत्यंत कुपित थी, अग्निशिखा के समान तीक्ष्ण थी, जिसका हृदय विरक्त था, शरीर काँप रहा था, जो अपने शील के नाश और पिता के वध से तीव्र दुःख धारण कर रही थी तथा जिसके नेत्र लाल-लाल थे ऐसी उस वेदवती ने शंभु से कहा कि अरे पापी ! नीच पुरुष! तूने पिता को मारकर बलात् मेरे साथ काम सेवन किया है, इसलिए मैं तेरे वध के लिए ही आगामी पर्याय में उत्पन्न होऊँगी। यद्यपि मेरे पिता परलोक चले गये हैं तथापि मैं उनकी इच्छा नष्ट नहीं करूँगी । मिथ्यादृष्टि पुरुष को चाहने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है ॥148-151।।<span id="152" /> </p> | ||
<p>तदनंतर उस बाला ने शीघ्र ही हरिकांता नामक आर्यिका के पास जाकर दीक्षा ले अत्यंत कठिन तपश्चरण किया ॥152॥<span id="153" /> लोंच करने के बाद उसके शिर पर रूखे बाल निकल आये थे, तपके कारण उसका शरीर ऐसा सूख गया था मानो मांस उसमें है ही नहीं और हड्डी तथा नसों का समूह स्पष्ट दिखाई देने लगा था ॥153।।<span id="154" /> आयु के अंत में मरण कर वह ब्रह्मस्वर्ग गई । वहाँ पुण्योदय से प्राप्त हुए देवों के सुख का उपभोग करने लगी ॥154॥<span id="155" /> वेदवती से रहित शंभु, संसार में एकदम हीनता को प्राप्त हो गया । उसके भाई-बंधु, दासी-दास तथा लक्ष्मी आदि सब छूट गये और वह दुर्बुद्धि उन्मत्त अवस्था को प्राप्त हो गया ॥155।।<span id="156" /> वह झूठ-मूठ के अभिमान में चूर हो रहा था तथा जिनेंद्र भगवान् के वचनों से पराङ्मुख रहता था। वह मुनियों को देख उनकी हँसी उड़ाता तथा उनके प्रति दुष्ट वचन कहता था ॥156।।<span id="157" /> इस प्रकार मधु मांस और मदिरा ही जिसका आहार था तथा जो पाप की अनुमोदना करने में उद्यत रहता था ऐसा शंभु तीव्र दुःख देने वाले नरक और तिर्यंचगति में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ॥157॥<span id="158" /></p> | <p>तदनंतर उस बाला ने शीघ्र ही हरिकांता नामक आर्यिका के पास जाकर दीक्षा ले अत्यंत कठिन तपश्चरण किया ॥152॥<span id="153" /> लोंच करने के बाद उसके शिर पर रूखे बाल निकल आये थे, तपके कारण उसका शरीर ऐसा सूख गया था मानो मांस उसमें है ही नहीं और हड्डी तथा नसों का समूह स्पष्ट दिखाई देने लगा था ॥153।।<span id="154" /> आयु के अंत में मरण कर वह ब्रह्मस्वर्ग गई । वहाँ पुण्योदय से प्राप्त हुए देवों के सुख का उपभोग करने लगी ॥154॥<span id="155" /> वेदवती से रहित शंभु, संसार में एकदम हीनता को प्राप्त हो गया । उसके भाई-बंधु, दासी-दास तथा लक्ष्मी आदि सब छूट गये और वह दुर्बुद्धि उन्मत्त अवस्था को प्राप्त हो गया ॥155।।<span id="156" /> वह झूठ-मूठ के अभिमान में चूर हो रहा था तथा जिनेंद्र भगवान् के वचनों से पराङ्मुख रहता था। वह मुनियों को देख उनकी हँसी उड़ाता तथा उनके प्रति दुष्ट वचन कहता था ॥156।।<span id="157" /> इस प्रकार मधु मांस और मदिरा ही जिसका आहार था तथा जो पाप की अनुमोदना करने में उद्यत रहता था ऐसा शंभु तीव्र दुःख देने वाले नरक और तिर्यंचगति में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ॥157॥<span id="158" /></p> | ||
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Latest revision as of 13:34, 13 July 2024
एक सौ छठवां पर्व
अथानंतर जो विद्याधरों में प्रधान था, राम की भक्ति ही जिसका आभूषण थी, और जो हस्तयुगलरूपी महाकमलों से सुशोभित मस्तक को धारण कर रहा था ऐसे बुद्धिमान विभीषण ने निर्भय तेजरूपी आभूषण से सहित एवं निर्ग्रंथ मुनियों में प्रधान उन सकलभूषण केवली को नमस्कार कर पूछा कि ॥1-2।। हे भगवन् ! इन राम ने भवांतर में ऐसा कौन-सा पुण्य किया था जिसके फलस्वरूप ये इस प्रकार के माहात्म्य को प्राप्त हुए हैं।॥3॥ जब ये दंडकवन में रह गये थे तब इनकी पतिव्रता पत्नी सीता को किस संस्कार दोष से रावण ने हरा था ।।4।। रावण धर्म, अर्थ, काम और मोक्षविषयक समस्त शास्त्रों का अच्छा जानकार था, कृत्य-अकृत्य के विवेक को जानता था और धर्म-अधर्म के विषय में पंडित था। इस प्रकार यद्यपि वह प्रधान गुणों से संपन्न था तथापि मोह के वशीभूत हो वह किस कारण परस्त्री के लोभरूपी अग्नि में पतंगपने को प्राप्त हुआ था ? ॥5-6।। भाई के पक्ष में अत्यंत आसक्त लक्ष्मण ने वनचारी होकर संग्राम में उसे कैसे मार दिया ॥7॥ रावण वैसा बलवान्, विद्याधरों का राजा और अनेक अद्भुत कार्यों का कर्ता होकर भी इस प्रकार के मरण को कैसे प्राप्त हो गया ? ॥8॥
तदनंतर केवली भगवान् की वाणी ने कहा कि इस संसार में राम-लक्ष्मण का रावण के साथ अनेक जन्म से उत्कट वैर चला आता था ।।9।। जो इस प्रकार है―इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में एकक्षेत्र नाम का नगर था उसमें नयदत्त नाम का एक वणिक रहता था जो कि साधारण धन का स्वामी था। उसकी सुनंदा नाम की स्त्री से एक धनदत्त नाम का पुत्र था जो कि राम का जीव था, दूसरा वसुदत्त नाम का पुत्र था जो कि लक्ष्मण का जीव था। एक यज्ञवलि नाम का ब्राह्मण वसुदेव का मित्र था सो तुम-विभीषण का जीव था ॥10-11।। उसी नगर में एक सागरदत्त नामक दूसरा वणिक रहता था, उसकी स्त्री का नाम रत्नप्रभा था और दोनों के एक गुणवती नाम की पुत्री थी जो कि सीता की जीव थी ॥12॥ वह गुणवती, रूप, यौवन, लावण्य, कांति और उत्तम विभ्रम से युक्त थी । सुंदर चित्त को धारण करने वाली उस गुणवती का एक गुणवान् नाम का छोटा भाई था जो कि भामंडल का जीव था ॥13॥ जब गुणवती युवावस्था को प्राप्त हुई तब पिता का अभिप्राय जानकर कुल की इच्छा करने वाले बुद्धिमान गुणवान् ने प्रसन्न होकर उसे नयदत्त के पुत्र धनदत्त के लिए देना निश्चित कर दिया ॥14॥ उसी नगरी में एक श्रीकांत नाम का दूसरा वणिक् पुत्र था जो अत्यंत धनाढ्य था तथा गुणवती के रूप से अपहृतचित्त होने के कारण निरंतर उसकी इच्छा करता था। यह श्रीकांत रावण का जीव था ॥15॥ गुणवती की माता क्षुद्र हृदय वाली थी, इसलिए वह धन की अल्पता के कारण धनदत्त के ऊपर अवज्ञा का भाव रख श्रीकांत को गुणवती देने के लिए उद्यत हो गई। तदनंतर धनदत्त का छोटा भाई वसुदत्त यह चेष्टा जान यज्ञवलि के उपदेश से श्रीकांत को मारने के लिए उद्यत हुआ।।16-17॥ एक दिन वह रात्रि के सघन अंधकार में तलवार उठा चुपके-चुपके पद रखता हुआ नीलवस्त्र से अवगुंठित हो श्रीकांत के घर गया सो वह घर के उद्यान में प्रमादसहित बैठा था जिससे वसुदत्त ने जाकर उस पर प्रहार किया। बदले में श्रीकांत ने भी उस पर तलवार से प्रहार किया ॥18-19॥ इस तरह परस्पर के घात से दोनों मरे और मरकर विंध्याचल की महाअटवी में मृग हुए ॥20॥ दुर्जन मनुष्यों ने धनदत्त के लिए कुमारी का लेना मना कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि दुर्जन किसी कारण के बिना ही क्रोध करते हैं फिर उपदेश मिलने पर तो कहना ही क्या है ? ॥21॥ भाई के कुमरण और कुमारी के नहीं मिलने से धनदत्त बहुत दु:खी हुआ जिससे वह घर से निकलकर आकुल होता हुआ अनेक देशों में भ्रमण करता रहा ॥22॥ इधर जिसे दूसरा वर इष्ट नहीं था ऐसी गुणवती धनदत्त की प्राप्ति नहीं होने से बहुत दुःखी हुई । वह अपने घर में अन्न देने के कार्य में नियुक्त की गई अर्थात् घर में सबके लिए भोजन परोसने का काम उसे सौंपा गया ।।23।। वह अपने मिथ्यादृष्टि स्वभाव के कारण निर्ग्रंथ मुनि को देखकर उनसे सदा द्वेष करती थी, उनके प्रति ईर्ष्या रखती थी, उन्हें गाली देती थी तथा उनका तिरस्कार भी करती थी ॥24॥ कर्मबंध के अनुरूप जिसकी आत्मा सदा मिथ्यादर्शन में आसक्त रहती थी ऐसी वह अतिदुष्टा जिनशासन का बिलकुल ही श्रद्धान नहीं करती थी ॥25॥
तदनंतर आयु समाप्त होने पर आर्तध्यान से मर कर वह उसी अटवी में मृगी हुई जिसमें कि वे श्रीकांत और वसुदत्त के जीव मृग हुए थे ॥26॥ पूर्व संस्कार के दोष से उसी मृगी के लिए दोनों फिर लड़े और परस्पर एक दूसरे को मार कर शूकर अवस्था को प्राप्त हुए ॥27॥ तदनंतर वे दोनों हाथी, भैंसा, बैल, वानर, चीता, भेड़िया और कृष्ण मृग हुए तथा सभी पर्यायों में एक दूसरे को मार कर मरे ॥28॥ पाप कार्य में तत्पर रहने वाले वे दोनों जल में, स्थल में जहाँ भी उत्पन्न होते थे वहीं बैर का अनुसरण करने में तत्पर रहते थे और उसी प्रकार परस्पर एक दूसरे को मार कर मरते थे ॥29॥
अथानंतर मार्ग के खेद से थका अत्यंत दुःखी धनदत्त, एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर मुनियों के आश्रम में पहुँचा ॥30॥ वह प्यासा था इसलिए उसने मुनियों से कहा कि मैं बहुत दुःखी हो रहा हूँ अतः मुझे पानी दीजिए। आप लोग पुण्य करना अच्छा समझते हैं ।।31।। उनमें से एक मुनि ने सांत्वना देते हुए मधुर शब्द कहे कि रात्रि में अमृत पीना भी उचित नहीं है फिर पानी की तो बात ही क्या है ? ॥32॥ हे वत्स ! जब नेत्र अपना व्यापार छोड़ देते हैं, जो पाप की प्रवृत्ति होने से अत्यंत दारुण है, जो नहीं दिखने वाले सूक्ष्म जंतुओं से सहित है, तथा जब सूर्य का अभाव हो जाता है ऐसे समय भोजन मत कर ॥33॥ हे भद्र ! तुझे दुःखी होने पर भी असमय में नहीं खाना चाहिए । तू दुःखरूपी गंभीर पानी से भरे हुए संसार-सागर में मत पड़ ॥32॥ तदनंतर मुनिराज की पुण्य कथा से वह शांत हो गया, उसका चित्त दया से आलिंगित हो उठा और इनके फलस्वरूप वह अणुव्रत का धारी हो गया। यतश्च वह अल्पशक्ति का धारक था इसलिए महाव्रती नहीं बन सका ॥35॥ तदनंतर आयु का अंत आने पर मरण को प्राप्त हो वह सौधर्म स्वर्ग में मुकुट, कुंडल, बाजूबंद, हार, मुद्रा और अंगद से सुशोभित उत्तम देव हुआ ।।36॥ वहाँ वह पूर्व पुण्योदय के कारण देवांगनाओं के सुख से लालित था, अप्सराओं के बड़े भारी परिवार से सहित था तथा इंद्र के समान आनंद से समय व्यतीत करता था ॥37॥
तदनंतर वहाँ से च्युत होकर महापुर नामक श्रेष्ठ नगर में जैनधर्म के श्रद्धालु मेरु नामक सेठ की धारिणी नामक स्त्री से पद्मरुचि नामक पुत्र हुआ ॥38॥ उसी नगर में एक छत्रच्छाय नाम का राजा रहता था। उसकी श्रीदत्ता नाम की स्त्री थी जो कि रानी के गुणों की मानो पिटारी ही थी ॥36॥ किसी एक दिन पद्मरुचि घोड़े पर चढ़ा अपने गोकुल की ओर आ रहा था, सो मार्ग में उसने पृथिवी पर पड़ा एक बूढ़ा बैल देखा ॥40॥ सुगंधित वस्त्र तथा माला आदि को धारण करने वाला पद्मरुचि घोड़े से उतर कर दयालु होता हुआ आदरपूर्वक उस बैल के पास गया ॥41॥ पद्मरुचि ने उसके कान में पंचनमस्कार मंत्र का जाप सुनाया । सो जब पद्मरुचि उसके कान में पंचनमस्कार मंत्र का जप दे रहा था तभी उस मंत्र को सुनती हुई बैल की आत्मा उस शरीर से बाहर निकल गई अर्थात् नमस्कार मंत्र सुनते-सुनते उसके प्राण निकल गये ॥42॥ मंत्र के प्रभाव से जिसके कर्मों का जाल कुछ कम हो गया था ऐसा वह बैल, उसी नगर के राजा छत्रच्छाय की श्रीदत्ता नाम की रानी के पुत्र हुआ । यतश्च छत्रच्छाय के पुत्र नहीं था इसलिए वह उसके उत्पन्न होनेपर बहुत संतुष्ट हुआ ॥43॥ नगर में बहुत भारी संपदा खर्च कर अत्यधिक शोभा की गई तथा बाजों से जो बहरा हो रहा था ऐसा महान् उत्सव किया गया ॥44॥
तदनंतर कर्मों के संस्कार से उसे अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। बैल पर्याय में बोझा ढोना, शीत तथा आतप आदि से उत्पन्न दारुण दुःख उसने भोगे थे तथा जो उसे पंचनमस्कार मंत्र श्रवण करने का अवसर मिला था । वह सब उसकी स्मृतिपटल में झूलने लगा। महासुंदर चेष्टाओं को धारण करता हुआ वह, जब बालकालीन क्रीड़ाओं में आसक्त रहता था तब भी मन में पंचनमस्कार मंत्र के श्रवण का सदा ध्यान रखता था ॥45-46।। किसी एक दिन वह विहार करता हुआ उस स्थान पर पहुंचा जहाँ उस बैल का मरण हुआ था। उसने एक-एक कर अपने घूमने के सब स्थानों को पहिचान लिया ॥47॥
तदनंतर वृषभध्वज नाम को धारण करने वाला वह राजकुमार हाथी से उतर कर दुःखित चित्त होता हुआ इच्छानुसार बहुत देर तक बैल के मरने को उस भूमि को देखता रहा ॥48॥ समाधि मरण रूपी रत्न के दाता तथा उत्तम चेष्टाओं से सहित उस बुद्धिमान पद्मरुचि को जब वह नहीं देख सका तब उसने उसके देखने के लिए योग्य उपाय का विचार किया ॥49॥ अथानंतर उसने उसी स्थान पर कैलास के शिखर के समान एक जिनमंदिर बनवाया, उसमें चित्रपट आदि पर महापुरुषों के चरित तथा पुराण लिखवाये ॥50॥ उसी मंदिर के द्वार पर उसने अपने पूर्वभव के चित्र से चित्रित एक चित्रपट लगवा दिया तथा उसकी परीक्षा करने के लिए चतुर मनुष्य उसके समीप खड़े कर दिये ॥51॥ तदनंतर वंदना की इच्छा करता हुआ पद्मरुचि एक दिन उस मंदिर में आया और हर्षित चित्त होता हुआ उस चित्र को देखने लगा। तदनंतर आश्चर्यचकित हो उसी चित्र पर नेत्र गड़ाकर ज्यों ही वह उसे देखता है कि वृषभध्वज राजकुमार के सेवकों ने उसे उसका समाचार सुना दिया ॥52-53॥ तदनंतर विशाल संपदा से सहित राजपुत्र, इष्ट के समागम की इच्छा करता हुआ उत्तम हाथी पर सवार हो वहाँ आया ॥54॥ हाथी से उतर कर उसने जिन मंदिर में प्रवेश किया और वहाँ बड़ी तल्लीनता के साथ उस चित्रपट को देखते हुए धारिणीसुत पद्मरुचि को देखा ॥55॥ जिसके नेत्र, मुख तथा हाथों के संचार से अत्यधिक आश्चर्य सूचित हो रहा था ऐसे उस पद्मरुचि को पहिचान कर वृषभध्वज ने उसके चरणों में नमस्कार किया ॥16॥
पद्मरुचि ने उसके लिए बैल के दुःखपूर्ण मरण का समाचार कहा जिसे सुन कर उत्फुल्ल लोचनों को धारण करने वाला राजपुत्र बोला कि वह बैल मैं ही हूँ ॥57॥ जिस प्रकार उत्तम शिष्य गुरु की पूजा कर संतुष्ट होता है उसी प्रकार वृषभध्वज राजकुमार भी शीघ्रता से पद्मरुचि की पूजा कर संतुष्ट हुआ। पूजा के बाद राजपुत्र ने पद्मरुचि से कहा कि मृत्यु के संकट से परिपूर्ण उस काल में आप मेरे प्रियबंधु के समान समाधि प्राप्त कराने के लिए आये थे ॥58-59॥ उस समय तुमने दयालु होकर जो समाधिरूपी अमृत का संबल मेरे लिए दिया था देखो, उसी से तृप्त होकर मैं इस भव को प्राप्त हुआ हूँ ॥60॥ तुमने जो मेरा भला किया है वह न माता करती है, न पिता करता है, न सगा भाई करता है, न परिवार के अन्य लोग करते हैं और न देव ही करते हैं ॥61॥ तुमने जो मुझे पंचनमस्कार मंत्र श्रवण का दान दिया था उसका मूल्य यद्यपि मैं नहीं देखता तथापि आपमें जो मेरी परम भक्ति है वही यह चेष्टा करा रही है ॥62॥ हे नाथ ! मुझे आज्ञा दो । मैं आपका क्या करूँ ? हे पुरुषोत्तम ! आज्ञा देकर मुझ भक्त को अनुगृहीत करो ॥63।। तुम यह समस्त राज्य ले लो, मैं तुम्हारा दास रहूँगा। अभिलषित कार्य में इस शरीर को नियुक्त कीजिए ॥64॥ इत्यादि उत्तम शब्दों के साथ-साथ उन दोनों में परम प्रेम हो गया, दोनों को ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, वह राज्य दोनों का सम्मिलित राज्य हुआ और दोनों का संयोग चिर संयोग हो गया ॥65॥ जिनका अनुराग ऊपर ही ऊपर न रहकर हड्डी तथा मज्जा तक पहुँच गया था ऐसे वे दोनों श्रावक के व्रत से सहित हुए। स्थिर चित्त के धारण करने वाले उन दोनों ने पृथिवी पर अनेक जिनमंदिर और जिनबिंब बनवाये ॥66॥ सफेद कमल की बोड़ियों के समान स्तूपों से सैकड़ों बार पृथिवी को अलंकृत किया ॥67॥
तदनंतर मरण के समय समाधि की आराधना कर वृषभध्वज ईशान स्वर्ग में पुण्य कर्म का फल भोगने वाला देव हुआ ॥68॥ उस देव के नयनों की कांति देवांगनाओं के नयन कमलों को विकसित करने वाली थी, तथा क्रीड़ा करते समय ध्यान करते ही उसके समस्त मनोरथ पूर्ण हो जाते थे ॥69॥ इधर पद्मरुचि भी आयु के अंत में समाधिमरण प्राप्त कर ईशान स्वर्ग में ही सुंदर वैमानिक देव हुआ ॥70।। तदनंतर पद्मरुचि का जीव वहाँ से चय कर पश्चिम विदेह क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर नंद्यावर्त नगर के राजा नंदीश्वर की कनकाभा रानी से नयनानंद नाम का पुत्र हुआ। वहाँ उसने चिरकाल तक विद्याधर राजा की विशाल लक्ष्मी का उपभोग किया ॥71-72॥ तदनंतर मुनि-दीक्षा ले अत्यंत विकट तप किया और अंत में समाधिमरण प्राप्त कर माहेंद्र स्वर्ग प्राप्त किया ॥73॥ वहाँ उसने पुण्यरूपी लता के महाफल के समान पंचेंद्रियों के विषय द्वार से अत्यंत सुंदर मनोहर सुख प्राप्त किया ॥74।।
तदनंतर वहाँ से च्युत होकर मेरु पर्वत के पश्चिम दिग्भाग में स्थित क्षेमपुरी नगरी में श्रीचंद्र नाम का प्रसिद्ध राजपुत्र हुआ ॥75॥ वहाँ उसकी माता का नाम पद्मावती और पिता का नाम विपुलवाहन था। वह वहाँ स्वर्ग में भोगे हुए कर्म का जो निःस्यंद शेष रहा था उसी का मानो उपभोग करता था ॥76।। उसके पुण्य प्रभाव से उसका खजाना, देश तथा सैन्य बल सब ओर से प्रतिदिन परम वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ॥77॥ वह श्रीचंद्र, एक ग्राम के स्थानापन्न, नाना खानों से सहित विशाल पृथिवी का प्रिया के समान महाप्रीति से पालन करता था ॥78।। वहाँ वह हाव भाव से मनोज्ञ स्त्रियों के द्वारा लालित होता हुआ देवांगनाओं से सहित देवेंद्र के समान क्रीड़ा करता था ॥79॥ दोदुंदुक देव के समान महान् ऐश्वर्य को प्राप्त हुए उस श्रीचंद्र के कई हजार वर्ष एक क्षण के समान व्यतीत हो गये ॥80॥
अथानंतर किसी समय व्रत समिति और गुप्ति से श्रेष्ठ एवं बहुत भारी संघ से आवृत समाधिगुप्त नामक मुनिराज उस नगर में आये ।।81॥ 'मुनिराज आकर उद्यान में ठहरे हैं ।' यह जानकर मुनि की वंदना करने के लिए नगर के सब लोग हर्षपूर्वक बात-चीत करते हुए उद्यान में गये ॥82॥ भक्तिपूर्वक स्तुति करने वाले जनसमूह का मेघमंडल के समान जो भारी शब्द हो रहा था उसे कान लगाकर श्रीचंद्र ने सुना और निकटवर्ती लोगों से पूछा कि यह महासागर के समान किसका शब्द सुनाई दे रहा है ? जिन लोगों से राजा ने पूछा था वे उस शब्द का कारण नहीं जानते थे इसलिए उन्होंने मंत्री को राजा के निकट कर दिया ।।83-84॥ तब राजा ने मंत्री से कहा कि मालूम करो यह किसका शब्द है ? इसके उत्तर में मंत्री ने जाकर तथा सब समाचार जानकर वापिस आ निवेदन किया कि उद्यान में मुनिराज आये हैं ॥85॥
तदनंतर जिसके नेत्र खिले हुए कमल के समान सुशोभित हो रहे थे तथा जिसके हर्ष के रोमांच उठ आये थे ऐसा राजा श्रीचंद्र अपनी स्त्री के साथ मुनि वंदना के लिए चला ॥86॥ वहाँ प्रसन्न मुखचंद्र के धारक मुनिराज के दर्शन कर राजा ने शीघ्रता से शिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया और उसके बाद वह विनयपूर्वक पृथिवी पर बैठ गया ।।87।। भव्यरूपी कमलों में प्रधान राजा श्रीचंद्र को मुनिरूपी सूर्य के दर्शन होनेपर अपने आप अनुभव में आने योग्य कोई अद्भुत महाप्रेम उत्पन्न हुआ ॥88॥
तत्पश्चात् परम गंभीर और सर्व शास्त्रों के विशारद मुनिराज ने उस अपार जनसमूह के लिए तत्त्वों का उपदेश दिया ।।89।। उन्होंने कहा कि अवांतर अनेक भेदों से सहित तथा संसार सागर से तारने वाला धर्म, अनगार और सागार के भेद से दो प्रकार का है ।।90॥ वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनिराज ने अनुयोग द्वार से वर्णन करते हुए कहा कि अनुयोग के 1 प्रथमानुयोग 2 करणानुयोग 3 चरणानुयोग और 4 द्रव्यानुयोग के भेद से चार भेद हैं ॥91॥ तदनंतर उन्होंने अन्य मत-मतांतरों की आलोचना करने वाली आक्षेपणी कथा की । फिर स्वकीय तत्त्व का निरूपण करने में निपुण निक्षेपणी कथा की। तदनंतर संसार से भय उत्पन्न करने वाली संवेजनी कथा की और उसके बाद भोगों से वैराग्य उत्पन्न करने वाली पुण्यवर्धक निवेदनी कथा की ॥92-93॥ उन्होंने कहा कि कर्मयोग से संसार में दौड़ लगाने वाले इस प्राणी को मोक्षमार्ग की प्राप्ति बड़े कष्ट से होती है ॥94।। यह संसार विनाशी होने के कारण संध्या, बबूले, फेन, तरंग, बिजली और इंद्रधनुष के समान है । इसमें कुछ भी सार नहीं है ॥95॥ यह प्राणी नरक अथवा तिर्यंचगति में एकांत रूप से दुःख ही प्राप्त करता है और मनुष्य तथा देवों के सुख में यह तृप्त नहीं होता है ॥96॥ जो इंद्र संबंधी भोग-संपदाओं से तृप्त नहीं हुआ वह मनुष्यों के क्षुद्र भोगों से कैसे तृप्त हो सकता है ? ॥97।। जिस प्रकार निर्धन मनुष्य किसी तरह दुर्लभ खजाना पाकर यदि प्रमाद करता है तो उसका वह खजाना व्यर्थ चला जाता है। इसी प्रकार यह प्राणी किसी तरह दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर विषय स्वाद के लोभ में पड़ यदि प्रमाद करता है तो उसकी मनुष्य पर्याय व्यर्थ चली जाती है ॥98॥ सूखे ईंधन से अग्नि की तृप्ति क्या है ? नदियों के जल से समुद्र की तृप्ति क्या है ? और विषयों के आस्वाद-संबंधी सुख से संसारी प्राणी की तृप्ति क्या है ? ॥99॥ जल में डूबते हुए खिन्न मनुष्य के समान विषय रूपी आमिष से मोहित हुआ चतुर मनुष्य भी मोहांधीकृत चित्त होकर मंदता को प्राप्त हो जाता है ॥100॥ सूर्य तो दिन में ही तपता है पर काम रात-दिन तपता रहता है । सूर्य का आवरण तो है पर काम का आवरण नहीं है ।।101।। संसार में अरहट की घटी के समान निरंतर कर्मों से उत्पन्न होने वाला जो जन्म, जरा और मृत्यु संबंधी दुःख है वह स्मरण आते ही भय देने वाला है ।।102॥ जिस प्रकार अजंगम यंत्र जंगम प्राणी के द्वारा घुमाया जाता है उसी प्रकार यह अनित्य तथा बीभत्स शरीर भी चेतन द्वारा घुमाया जाता है । इस शरीर में जो स्नेह है वह मोह के कारण ही है ।।103।। यह मनुष्य जन्म पानी के बबूले के समान निःसार है ऐसा जानकर कुलीन मनुष्य विरक्त हो जिन प्रतिपादित मार्ग को प्राप्त होते हैं ॥104।। जो उत्साह रूपी कवच से आच्छादित हैं, निश्चय रूपी घोड़े पर सवार हैं और ध्यानरूपी खड्ग को धारण करने वाले हैं ऐसे धीर वीर मनुष्य सुगति के प्रति प्रस्थान करते हैं ॥105॥ हे मानवो! शरीर जुदा है और मैं जुदा हूँ ऐसा विचार कर निश्चय करो तथा शरीर में स्नेह छोड़कर धर्म करो ॥106॥ जिन्हें सुख-दुःखादि समान हैं, जो स्वजन और परजनों में समान हैं तथा राग-द्वेष आदि से रहित हैं ऐसे मुनि ही पुरुषोत्तम हैं ॥107।। उन्हीं मुनियों ने अपने शुक्ल-ध्यान रूपी नेत्र के द्वारा दुःख रूपी वन्य पशुओं से व्याप्त इस अत्यंत विशाल समस्त कर्मरूपी अटवी को भस्म किया है ॥108।।
इस प्रकार मुनिराज का उपदेश सुन कर श्रीचंद्र विषयास्वाद-संबंधी सुख से पराङ्मुख हो रत्नत्रय को प्राप्त हो गया ।।109॥ फलस्वरूप उस उदारचेता ने धृतिकांत नामक पुत्र के लिए राज्य देकर समाधिगुप्त मुनिराज के समीप मुनिदीक्षा धारण कर ली ॥110॥ अब वे श्रीचंद्रमुनि समीचीन भावना से सहित थे, त्रियोग संबंधी शुद्धि को धारण करते थे, समितियों और गुप्तियों से सहित थे तथा राग-द्वेष से विमुख थे ॥111॥ रत्नत्रय रूपी उत्तम अलंकारों से युक्त थे, क्षमा आदि गुणों से सहित थे, जिन-शासन से ओत-प्रोत थे, श्रमण थे और उत्तम समाधान से युक्त थे ॥112॥ पंच महाव्रतों के धारक थे, प्राणियों की रक्षा करने वाले थे, सात भयों से निर्मुक्त थे तथा उत्तम धैर्य से सहित थे ॥113।। ईर्यासमिति पूर्वक उत्तम विहार करने में तत्पर थे, परीषहों के समूह को सहन करने वाले थे, मुनि थे, तथा बेला, तेला और पक्षोपवासादि करने के बाद पारणा करते थे ॥114॥ ध्यान और स्वाध्याय में निरंतर लीन रहते थे; ममता रहित थे, इंद्रियों को तीव्रता से जीतने वाले थे, उनके कार्य निदान अर्थात् आगामी भोगाकांक्षा से रहित होते थे, वे परम शांत थे और जिन शासन के परम स्नेही थे ॥115।। अहिंसक आचरण करने में कुशल थे, मुनिसंघ पर अनुग्रह करने में तत्पर थे, और बाल की अनीमात्र परिग्रह में भी इच्छा से रहित थे ॥116।। स्नान के अभाव में उनका शरीर मल से सुशोभित था, वे आसक्ति से रहित थे, दिगंबर थे, गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक ही ठहरते थे ॥117।। पर्वत की गुफाओं, नदियों के तट अथवा बाग-बगीचों में ही उनका उत्तम निवास होता था, उन्होंने शरीर से ममता छोड़ दी थी, वे स्थिर थे, मौनी थे, विद्वान थे और सम्यक् तप में तत्पर थे ॥118॥ इत्यादि गुणों से सहित श्रीचंद्रमुनि कामरूपी पंजर को जर्जर-जीर्ण-शीर्ण कर तथा समाधिमरण प्राप्त कर ब्रह्मस्वर्ग के इंद्र हुए ॥119॥
वहाँ वे उत्तम विमान में श्री, कीर्ति, धृति और कांति को प्राप्त थे, चूड़ामणि के द्वारा प्रकाश करने वाले थे, तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे ॥120।। यद्यपि ध्यान करते ही उत्पन्न होने वाली परम ऋद्धि से क्रीड़ा करते थे तथापि अहमिंद्रदेव के समान अथवा भरत चक्रवर्ती के समान निर्लिप्त हो रहते थे ॥121॥॥ नंदन वन आदि स्थानों में उत्तम संपदाओं से युक्त सौधर्म आदि इंद्र जब उनकी ओर देखते थे तब उन जैसा वैभव प्राप्त करने के लिए उत्कंठित हो जाते थे ॥122।। देवांगनाओं के नेत्रों को उत्सव प्रदान करने वाले वे ब्रह्मेंद्र, मणि तथा सुवर्ण से निर्मित एवं मोतियों की जाली से सुशोभित सुंदर विमान में रमण करते थे ॥123॥
श्री सकलभूषण केवली कहते हैं कि हे विभीषण ! श्रीचंद्र के जीव ब्रह्मेंद्र की जो विभूति थी उसे बृहस्पति भी सौ वर्ष में भी नहीं कह सकता ॥124॥ जिनशासन अमूल्य रत्न है, अनुपम रहस्य है तथा तीनों लोकों में प्रकट है परंतु मोही जीव इसे नहीं जानते ॥12॥ मुनिधर्म तथा जिनेंद्रदेव के उत्तम माहात्म्य को जानकर भी मिथ्या अभिमान में चूर रहने वाले मनुष्य धर्म से विमुख रहते हैं ॥126।। जो बालक अर्थात् अज्ञानी इस लोकसंबंधी सुख के लिए मिथ्यामत में प्रीति करता है वह अपना ध्यान रखता हुआ भी उसका वह अहित करता है जिसे शत्रु भी नहीं करते ॥127।। कर्म बंध की विचित्रता होने से सभी लोग रत्नत्रय के धारक नहीं हो जाते । कितने ही लोग उसे प्राप्त कर भी दूसरे के चक्र में पड़कर पुनः छोड़ देते हैं ।।128॥ हे भव्यजनो ! अनेक खोटे मनुष्यों के द्वारा गृहीत एवं बहुत दोषों से सहित निंदित धर्म में रमण मत करो। अपने चित् स्वरूप के साथ बंधुता का काम करो ।।129।। जिनशासन को छोड़कर अन्यत्र दुःख से मुक्ति नहीं है इसलिए हे भव्यजनो ! अनन्यचित्त हो निरंतर जिनभगवान की अर्चा करो ॥130। इस प्रकार देव से उत्तम मनुष्य पर्याय और मनुष्य से उत्तम देवपर्याय को प्राप्त करने वाले धनदत्त का वर्णन किया ॥131।। अब संक्षेप से कर्मों की विचित्रता के कारण विविधरूपता को धारण करने वाले, वसुदत्तादि के भ्रमण का वर्णन करता हूँ ॥132॥
अथानंतर मृणालकुंड नामक नगर में प्रतापवान् तथा यश से उज्ज्वल विजयसेन नाम का राजा रहता था । रत्नचूला उसकी स्त्री थी ॥133।। उन दोनों के वज्रकंबु नाम का पुत्र था और हेमवती उसकी स्त्री थी। उन दोनों के पृथिवीतल पर प्रसिद्ध शंभु नाम का पुत्र था ॥134।। उसके श्रीभूति नाम का परमतत्त्वदर्शी पुरोहित था और उसकी स्त्री के योग्य गुणों से सहित सरस्वती नाम की स्त्री थी ॥135।। पहले जिस गुणवती का उल्लेख कर आये हैं वह समीचीन धर्म से रहित हो कर्मों के प्रभाव से तिर्यंच योनि में चिरकाल तक भ्रमण करती रही ॥136।। वह मोह, निंदा, स्त्री संबंधी निदान तथा अपवाद आदि के कारण बार-बार तीव्र दुःख से युक्त स्त्रीपर्याय को प्राप्त करती रही ॥137।। तदनंतर साधुओं का अवर्णवाद करने के कारण वह दुःखमयी अवस्था से दुखी होती हुई गंगा नदी के तट पर हथिनी हुई ॥138।। वहाँ वह बहुत भारी कीचड़ में फंस गई जिससे उसका शरीर एकदम पराधीन होकर अचल हो गया। वह धीरे-धीरे स-स शब्द छोड़ने लगी तथा नेत्र बंदकर मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हुई ॥139॥ तदनंतर उसे मरती देख तरंगवेग नामक दयालु विद्याधर ने उसे कान में नमस्कार मंत्र का जाप सुनाया ॥140। उस मंत्र के प्रभाव से उसकी कषाय मंद पड़ गई, उसने उसी स्थान का क्षेत्र संन्यास धारण किया तथा उक्त विद्याधर ने उसे प्रत्याख्यान-संयम दिया। इन सब कारणों के मिलने से वह श्रीभूति नामक पुरोहित के वेदवती नाम की पुत्री हुई ॥141।। एक बार भिक्षा के लिए घर में प्रविष्ट मुनि को देखकर उसने उनकी हँसी की तब पिता ने उसे समझाया जिससे वह श्राविका हो गई ॥142॥ वेदवती परम सुंदरी कन्या थी अतः उसे प्राप्त करने के लिए पृथिवीतल के राजा अत्यंत उत्कंठित थे और उनमें शंभु विशेष रूपसे उत्कंठित था ॥143॥ पुरोहित की यह प्रतिज्ञा थी कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि पुरुष संपत्ति में कुबेर के समान हो तथापि उसके लिए यह कन्या नहीं दूंगा ॥144॥ इस प्रतिज्ञा से शंभु बहुत कुपित हुआ और उसने रात्रि में सोते हुए पुरोहित को मार डाला । पुरोहित मरकर जिनधर्म के प्रसाद से देव हुआ ॥145॥
तदनंतर जो साक्षात् देवता के समान जान पड़ती थी ऐसी इस वेदवती को उसकी इच्छा न रहने पर भी शंभु अपने अधिकार से बलात् विवाहने के लिए उद्यत हुआ ॥146॥ साक्षात् रति के समान शोभायमान उस वेदवती का शंभु ने काम के द्वारा संतप्त मन से आलिंगन किया। चुंबन किया और उसके साथ बलात् मैथुन किया ।।147॥ तदनंतर जो अत्यंत कुपित थी, अग्निशिखा के समान तीक्ष्ण थी, जिसका हृदय विरक्त था, शरीर काँप रहा था, जो अपने शील के नाश और पिता के वध से तीव्र दुःख धारण कर रही थी तथा जिसके नेत्र लाल-लाल थे ऐसी उस वेदवती ने शंभु से कहा कि अरे पापी ! नीच पुरुष! तूने पिता को मारकर बलात् मेरे साथ काम सेवन किया है, इसलिए मैं तेरे वध के लिए ही आगामी पर्याय में उत्पन्न होऊँगी। यद्यपि मेरे पिता परलोक चले गये हैं तथापि मैं उनकी इच्छा नष्ट नहीं करूँगी । मिथ्यादृष्टि पुरुष को चाहने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है ॥148-151।।
तदनंतर उस बाला ने शीघ्र ही हरिकांता नामक आर्यिका के पास जाकर दीक्षा ले अत्यंत कठिन तपश्चरण किया ॥152॥ लोंच करने के बाद उसके शिर पर रूखे बाल निकल आये थे, तपके कारण उसका शरीर ऐसा सूख गया था मानो मांस उसमें है ही नहीं और हड्डी तथा नसों का समूह स्पष्ट दिखाई देने लगा था ॥153।। आयु के अंत में मरण कर वह ब्रह्मस्वर्ग गई । वहाँ पुण्योदय से प्राप्त हुए देवों के सुख का उपभोग करने लगी ॥154॥ वेदवती से रहित शंभु, संसार में एकदम हीनता को प्राप्त हो गया । उसके भाई-बंधु, दासी-दास तथा लक्ष्मी आदि सब छूट गये और वह दुर्बुद्धि उन्मत्त अवस्था को प्राप्त हो गया ॥155।। वह झूठ-मूठ के अभिमान में चूर हो रहा था तथा जिनेंद्र भगवान् के वचनों से पराङ्मुख रहता था। वह मुनियों को देख उनकी हँसी उड़ाता तथा उनके प्रति दुष्ट वचन कहता था ॥156।। इस प्रकार मधु मांस और मदिरा ही जिसका आहार था तथा जो पाप की अनुमोदना करने में उद्यत रहता था ऐसा शंभु तीव्र दुःख देने वाले नरक और तिर्यंचगति में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ॥157॥
अथानंतर दुःखदायी पाप कर्म का कुछ उपशम होने से वह कुशध्वज ब्राह्मण की सावित्री नामक स्त्री में पुत्र उत्पन्न हुआ ॥158॥ प्रभासकुंद उसका नाम था । फिर अत्यंत दुर्लभ रत्नत्रय को पाकर उसने विचित्रसेन मुनि के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥159॥ जिसने रति, काम, गर्व, क्रोध तथा मत्सर को छोड़ दिया था, जो दयालु था तथा इंद्रियों को जीतने वाला था ऐसे उस प्रभासकुंद ने निर्विकार होकर तपश्चरण किया ॥160।। वह दो दिन, तीन दिन तथा एक पक्ष आदि के उपवास करता था, उसकी सब प्रकार की इच्छाएँ छूट गई थीं, जहाँ सूर्य अस्त हो जाता था वहीं वह शून्य वन आदि में ठहर जाता था ।।161।। गुण और शील से संपन्न था, परीषहों को सहन करने वाला था, ग्रीष्मऋतु में आतापनयोग धारण करने में तत्पर रहता था, मलरूपी कंचुक से सहित था, वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे मेघों के द्वारा छोड़े हुए जल से भीगता रहता था और हेमंतऋतु में बर्फरूपी वस्त्र से आवृत होकर नदियों के तट पर स्थित रहता था, इत्यादि क्रियाओं से युक्त हुआ वह प्रभासकुंद किसी समय उस सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर की वंदना करने के लिए गया जो कि स्मृति में आते ही पाप का नाश करने वाला था ॥162-164॥ यद्यपि वह शांत था तथापि उसने वहाँ आकाश में कनकप्रभ नामक विद्याधर की विभूति देख निदान किया कि मुझे वैभव से रहित मुक्तिपद की आवश्यकता नहीं है । यदि मेरे तप में कुछ माहात्म्य है तो मैं ऐसा ऐश्वर्य प्राप्त करूँ ॥165-166॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो पापकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मूर्खता तो देखो कि उसने त्रिलोकी मूल्य रत्न को शाक की एक मुट्ठी में बेच दिया ॥167॥ अथवा ठीक है क्योंकि कर्मों के प्रभाव से अभ्युदय के समय मनुष्य के सद्बुद्धि उत्पन्न होती है और विपरीत समय में सद्बुद्धि नष्ट हो जाती है । इस संसार में कौन क्या कर सकता है ? ॥168।।
तदनंतर जिसकी आत्मा निदान से दूषित हो चुकी थी ऐसा प्रभासकुंद, अत्यंत विकट तप कर सनत्कुमार स्वर्ग में आरूढ़ हुआ और वहाँ भोगों का उपभोग करने लगा ॥169॥ तत्पश्चात् भोगों के स्मरण करने में जिसका मन लग रहा था ऐसा वह देव अवशिष्ट पुण्य के प्रभाववश वहाँ से च्युत हो लंका नगरी में राजा रत्नश्रवा और उनकी रानी कैकसी के रावण नाम का पुत्र हआ। वहाँ वह निदान के अनुसार उस महान ऐश्वर्य को प्राप्त हआ जिसकी क्रियाएँ अत्यंत विलास पूर्ण थीं, जिसमें बड़े-बड़े आश्चर्य के काम किये गये थे तथा जिसने प्रताप से समस्त लोक को व्याप्त कर रक्खा था ॥170-171॥
तदनंतर श्रीचंद्र का जीव, जो ब्रह्मलोक में इंद्र हुआ था वहाँ दश सागर प्रमाण काल तक रह कर च्युत हो दशरथ का पुत्र राम हुआ। उसकी माता का नाम अपराजिता था। पूर्व पुण्य के अवशिष्ट रहने से इस संसार में विभूति, रूप और पराक्रम से राम की तुलना करने वाला पुरुष दुर्लभ था ॥172-173॥ पहले जो धनदत्त था वही चंद्रमा के समान यश से संसार को व्याप्त करने वाला मनोहर राम हुआ है ॥174॥ पहले जो वसुदत्त था फिर श्रीभूति ब्राह्मण हुआ वही क्रम से लक्ष्मी रूपी लता के आधार के लिए वृक्ष स्वरूप नारायण पद का धारी यह लक्ष्मण हुआ है ।।175।। पहले जो श्रीकांत था वही क्रम-क्रम से शंभु हुआ फिर प्रभासकुंद हुआ और अब रावण हुआ था ॥176।। वह रावण कि जिसने भरतक्षेत्र के संपूर्ण तीन खंड अंगुलियों के बीच में दबे हुए के समान अपने वश कर लिये थे ॥177॥ जो पहले गुणवती थी फिर क्रम से श्रीभूति पुरोहित की वेदवती पुत्री हुई थी वही अब क्रम से राजा जनक की सीता नाम की पुत्री हुई है॥178।। यह सीता बलदेव-राम की विनयवती पत्नी है, शील का खजाना है तथा इंद्र की इंद्राणी के समान सुंदर चेष्टाओं को धारण करने वाली है ।।179। उस समय जो गुणवती का भाई गुणवान था वही यह राम का परममित्र भामंडल हुआ है ॥180॥ ब्रह्मलोक में निवास करने वाली गुणवती का जीव अमृतमती देवी जिस समय च्युत हुई थी उसी समय कुंडलमंडित भी च्युत हुआ था सो इन दोनों का जनक की रानी विदेहा के गर्भ में समागम हुआ। यह बहिन-भाई का जोड़ा अत्यंत मनोहर तथा निर्दोष था ॥181-182॥ जो पहले यज्ञवलि ब्राह्मण था वह तू विभीषण हुआ है और जो वृषभकेतु था वह यह वानर की ध्वजा से युक्त सुग्रीव हुआ है॥183॥ इस प्रकार तुम सभी पूर्व प्रीति से तथा पुण्य के प्रभाव से पुण्यकर्मा राम के साथ प्रीति रखने वाले हुए हो ॥184॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इसके बाद विभीषण ने सकलभूषण केवली से बालि के पूर्वभव पूछे सो केवली ने जो निरूपण किया उसे मैं कहता हूँ सो सुन ॥185॥
राग, द्वेष आदि दुःखों के समूह से भरे हुए इस चतुर्गति रूप संसार में वृंदावन के बीच एक कृष्णमृग रहता था । ॥186॥ आयु के अंत के समय वह मृग मुनियों के स्वाध्याय का शब्द सुन ऐरावत क्षेत्र के दितिनामा नगर में उत्तम मनुष्य पर्याय को प्राप्त हुआ ॥187॥ वहाँ सम्यग्दृष्टि तथा उत्तम चेष्टाओं को धारण करने वाला विहीत नाम का पुरुष इसका पिता था और शिवमति इसकी माता थी। उन दोनों के यह मेघदत्त नाम का पुत्र हुआ था ॥188॥ मेघदत्त अणुव्रत का धारी था, जिनेंद्रदेव की पूजा करने में सदा उद्यत रहता था और जिन-चैत्यालयों की वंदना करने वाला था। आयु के अंत में समाधिमरण कर वह ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ॥189॥ जंबूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में विजयावती नगरी के समीप एक मत्तकोकिल नाम का उत्तम ग्राम है जिसमें निरंतर उत्सव होता रहता है तथा जो नगर के समान सुंदर है। उस ग्राम का स्वामी कांतशोक था तथा रत्नाकिनी उसकी स्त्री थी। मेघदत्त का जीव ऐशान स्वर्ग से च्युत होकर उन्हीं दोनों के सुप्रभ नाम का सुंदर पुत्र हुआ। यह सुप्रभ अनेक बंधुजनों से सहित था तथा शुभ आचार ही उसे प्रिय था ॥190-192।। उसने संसार में दुर्लभ जिनमतानुगामी रत्नत्रय को पाकर संयतनामा महामुनि के पास जिन-दीक्षा धारण कर ली ।।193।। इस प्रकार उदार अभिप्राय और विशाल हृदय को धारण करने वाले सुप्रभ मुनि ने कई हजार वर्ष तक विधिपूर्वक कठिन तपश्चरण किया ।।194॥ वे सुप्रभ मुनि नाना ऋद्धियों से सहित होनेपर भी गर्व को प्राप्त नहीं हुए थे तथा संयोगजन्य भावों में उन्होंने सब ममता छोड़ दी थी ।।195।। तदनंतर जिन्हें कषाय की उपशम अवस्था में होने वाला शुक्लध्यान का प्रथम भेद प्रकट हुआ था ऐसे वे महामुनि सिद्ध अवस्था को अवश्य प्राप्त होते परंतु आयु अधिक नहीं थी इसलिए उसी उपशांत दशा में मरणकर सर्वार्थसिद्धि गये ॥196।। वहाँ तैंतीस सागर तक महासुख भोगकर वे बालिनाम के प्रतापी विद्याधरों के राजा हुए ।।197॥ जिन्होंने किष्किंध पर्वत पर विविध सामग्री से युक्त राज्य प्राप्त किया था, महागुणवान् सुग्रीव जिनका भाई है। लंकाधिपति रावण के साथ विरोध होने पर भी जो इस सुग्रीव के ऊपर राज्य लक्ष्मी छोड़ जीवदया के अर्थ दीक्षित हो गये थे, तथा गर्ववश रावण के द्वारा उठाये हुए कैलास को जिन्होंने साधु अवस्था में अपनी सामर्थ्य से केवल पैर का अंगूठा दबा कर छुड़वा दिया था। वही बालि मुनि उत्कृष्ट ध्यान के तेज से संसार रूपी वन को भस्म कर तीन लोक के अग्रभाग पर आरूढ़ हो आत्मा के निज स्वरूप में स्थिति को प्राप्त हुए हैं ॥198-201॥
श्रीकांत और वसुदत्त ने महावैर के कारण अनेक भवों में परस्पर एक दूसरे का वध किया है ।।202।। पहले वेदवती की पर्याय में रावण का जीव सीता के साथ संबंध करना चाहता था उसी संस्कार से उसने रावण की पर्याय में सीता का हरण किया ॥203॥ जब रावण शंभु था तब उसने कामी होकर वेदवती की प्राप्ति के लिए वेदों के जानने वाले, उत्तम सम्यग्दृष्टि श्रीभूति ब्राह्मण की हत्या की थी ॥204।। वह श्रीभूति स्वर्ग गया वहाँ से च्युत होकर प्रतिष्ठ नगर में पुनर्वसु विद्याधर हुआ सो शोकवश निदान सहित तपकर सानत्कुमार स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। तदनंतर वहाँ से च्युत हो दशरथ का पुत्र तथा राम का छोटा भाई परम स्नेही लक्ष्मण नाम का चक्रधर हुआ ॥205-206।। इस वीर लक्ष्मण ने, नहीं छूटने वाले पूर्व वैर के कारण ही शंभु का जीव जो दशानन हुआ था उसे मारा है ॥207॥ यतश्च पूर्वभव में सीता के जीव को रावण के जीव के द्वारा भाई के वियोग का दुःख उठाना पड़ा था इसलिए सीता रावण के क्षय में निमित्त हुई है ॥208॥ लक्ष्मण ने भूमिगोचरी होने पर भी समुद्र को पारकर पूर्व पर्याय में अपना घात करने वाले रावण को मारा है ॥209।। राक्षसों की लक्ष्मीरूपी रात्रि को सुशोभित करने के लिए चंद्रमा स्वरूप रावण को मारकर लक्ष्मण ने इस सागर सहित समस्त पृथिवी पर अपना अधिकार किया है ।।210॥ सकलभूषण केवली कहते हैं कि कहाँ तो वैसा शूर-वीर और कहाँ ऐसी गति ? यह कर्मों का ही माहात्म्य है कि असंभव वस्तु भी प्राप्त हो जाती है ॥211।। इस प्रकार वध्य और घातक जीवों में पुनः पुनः बदली होती रहती है अर्थात् पहली पर्याय में जो वध्य होता है वह आगामी पर्याय में उसका घातक होता है और पहली पर्याय में जो घातक होता है वह आगामी पर्याय में वध्य होता है । संसारी जीवों की ऐसी ही स्थिति है ॥212॥ कहाँ तो स्वर्ग में उत्तम भोग और कहाँ नरक में तीव्र दुःख ? अहो ! कर्मों की बड़ी विपरीत चेष्टा है ॥213।। जिस प्रकार परम स्वादिष्ट अन्न की महाराशि विष से दूषित हो जाती है, उसी प्रकार परम उत्कृष्ट तप भी निदान से दूषित हो जाता है ।।214॥ निदान अर्थात् भोगाकांक्षा के लिए तप को दूषित करना ऐसा है जैसा कि कल्पवृक्ष काटकर कोदों के खेत की बाड़ी लगाना अथवा अमृत सींचकर विषवृक्ष को बढ़ाना अथवा सूत के लिए उत्तम मणियों की माला का चूर्ण करना अथवा अंगार के लिए गोशीर्ष चंदन का जलाना ॥215-216।। संसार में स्त्री समस्त दोषों की महाखान है। ऐसा कौन निंदित कार्य है जो उसके लिए नहीं किया जाता हो ? ॥217॥ किया हुआ कर्म लौटकर अवश्य फल देता है उसे भुवनत्रय में अन्यथा करने के लिए कौन समर्थ है? ॥218।। जब धर्म धारण करने वाले मनुष्य भी इस गति को प्राप्त होते हैं तब धर्महीन मनुष्यों की बात ही क्या है ? ॥219।। जो मुनिपद धारण करके भी साध्य पदार्थों के विषय में मत्सर भाव रखते हैं ऐसे संज्वलन कषाय के धारक मुनियों को उग्र तपश्चरण करने पर भी शिव अर्थात् मोक्ष अथवा वास्तविक कल्याण की प्राप्ति नहीं होती ॥220॥ जिस मिथ्यादृष्टि के न शम अर्थात् शांति है, न तप है और न संयम है उस दुरात्मा के पास संसार-सागर से उतरने का उपाय क्या है ? ॥221।। जहाँ वायु के द्वारा मदोन्मत्त हाथी हरण किये जाते हैं वहाँ स्थल में रहने वाले खरगोश तो पहले ही हरे जाते हैं ।।222।। इस प्रकार परम दुःखों का ऐसा कारण जानकर हे आत्महित के इच्छुक भव्य जनो ! किसी के साथ वैर का संबंध मत रक्खो ॥223॥
जिससे पापबंध हो ऐसा एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिए । देखो, शब्द मात्र से सीता को कैसा अपवाद प्राप्त हुआ ? ॥224।। इसकी कथा इस प्रकार है कि जब सीता वेदवती की पर्याय में थी तब एक मंडलिक नाम का ग्राम था। उस ग्राम में एक सुदर्शन नामक मुनि आये। मुनि को उद्यान में आया देख लोग उनकी वंदना के लिए गये । वंदना कर जब सब लोग चले गये तब उनके पास एक सुदर्शना नाम की आर्यिका जो कि मुनि की बहिन थी बैठी रही और मुनि उसे सद्वचन कहते रहे । वेदवती ने उस उत्तम साध्वी-आर्यिका के साथ मुनि को देखा । तदनंतर अपने आपको सम्यग्दृष्टि बताने में तत्पर वेदवती ने गाँव के लोगों से कहा कि हाँ, आप लोग ऐसे साधु के अवश्य दर्शन करो और उन्हें अच्छा बतलाओ। मैंने उन साधु को एकांत में एक सुंदर स्त्री के साथ बैठा देखा है। वेदवती की यह बात किन्हीं ने मानी और जो विवेकी थे ऐसे किन्हीं लोगों ने नहीं मानी ॥225-228।। इस प्रकरण से लोगों ने मुनि का अनादर किया। तथा मुनि ने यह प्रतिज्ञा ली कि जब तक यह अपवाद दूर न होगा तब तक आहार के लिए नहीं निकलूंगा । इस अपवाद से वेदवती का मुख फूल गया तब उसने नगरदेवता की प्रेरणा पा मुनि से कहा कि मुझ पापिनी ने आपके विषय में झूठ कहा है। इस तरह मुनि से क्षमा कराकर उसने अन्य लोगों को भी विश्वास दिलाया। इस प्रकार वेदवती की पर्याय में सीता ने उन बहिन-भाई के युगल की झूठी निंदा की थी इसलिए इस पर्याय में यह इस प्रकार के मिथ्या अपवाद को प्राप्त हुई है ॥229-231।। यदि यथार्थ दोष भी देखा हो तो जिनमत के अवलंबी को नहीं कहना चाहिए और कोई दूसरा कहता भी हो तो उसे सब प्रकार से रोकना चाहिए ॥232॥ फिर लोक में विद्वेष फैलाने वाले शासन संबंधी दोष को जो कहता है वह दुःख पाकर चिरकाल तक संसार में भटकता रहता है ॥233॥ किये हुए दोष को भी प्रयत्नपूर्वक छिपाना यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न का बड़ा भारी गुण है ॥234॥ अज्ञान अथवा मत्सर भाव से भी जो किसी के मिथ्या दोष को प्रकाशित करता है वह मनुष्य जिनमार्ग से बिलकुल ही बाहर स्थित है ।।235।।
इस प्रकार सकलभूषण केवली का अत्यधिक आश्चर्य से भरा हुआ उपदेश सुनकर समस्त सुर असुर और मनुष्य परम विस्मय को प्राप्त हुए ॥236॥ लक्ष्मण और रावण के सुदृढ़ वैर को जानकर समस्त सभा महादुःख और भय से सिहर उठी तथा निर्वैर हो गई। अर्थात् सभा के सब लोगों ने वैरभाव छोड़ दिया ।।237॥ मुनि संसार से भयभीत हो गये, देव लोग परम चिंता को प्राप्त हुए, राजा उद्वेग को प्राप्त हुए और कितने ही लोग प्रतिबुद्ध हो गये ।।238।। अपनी वक्तृत्व-शक्ति का अभिमान रखने वाले कितने ही लोग अहंकार का भार छोड शांत हो गये। जो कर्मोदय से कठिन थे अर्थात चारित्रमोह के तीव्रोदय से जो चारित्र धारण करने के लिए असमर्थ थे उन्होंने केवल सम्यग्दर्शन प्राप्त किया ॥239॥ कर्मों की दुष्टता के भार से जो क्षणभर के लिए मूर्च्छित हो गई थी ऐसी सभा 'हा हा, धिक चित्रम्' आदि शब्द कहती हुई साँसें भरने लगी ॥240॥ मनुष्य, असुर और देव हाथ जोड़ मस्तक से लगा मुनिराज को प्रणाम कर विभीषण की प्रशंसा करने लगे कि हे भद्र ! आपके आश्रय से ही मुनिराज के चरणों का प्रसाद प्राप्त हुआ है और उससे हम लोग इस उत्तम ज्ञानवर्धक पुण्य चरित को सुन सके हैं ॥241-242॥
तदनंतर हर्ष से भरे एवं अपने-अपने परिकर से सहित समस्त नरेंद्र सुरेंद्र और मुनींद्र सर्वज्ञदेव की स्तुति करने लगे ॥243॥ कि हे सकलभूषण ! भगवन् ! आपके द्वारा ये तीनों लोक भूषित हुए हैं इसलिए आपका यह 'सकलभूषण' नाम सार्थक है॥244॥ ज्ञान और दर्शन में वर्तमान तथा उपमा से रहित आपकी यह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी संसार की अन्य समस्त लक्ष्मियों का तिरस्कार कर अत्यधिक सुशोभित हो रही है ॥245।। अनाथ, अध्रुव, दीन तथा जन्म जरा मृत्यु के वशीभूत हुआ यह संसार अनादि काल से क्लेश उठा रहा है पर आज आपके प्रसाद से जिनप्रदर्शित उत्तम आत्मपद को प्राप्त हुआ है ॥246॥ हे केवलिन् ! हे कृतकृत्य ! जो नाना प्रकार के रोग, बुढ़ापा; वियोग तथा मरण से उत्पन्न होने वाले परम दुःख को प्राप्त हैं, जो शिकारी के द्वारा डराये हुए मृगसमूह की उपमा को प्राप्त हैं तथा कठिनाई से छूटने योग्य दारुण एवं अशुभ महाकर्मों से जिनकी आत्मा अवरुद्ध है― घिरी हुई हैं ऐसे हम लोगों के लिए शीघ्र ही कर्मों का क्षय प्रदान कीजिए ॥247॥ हे नाथ ! विषयरूपी अंधकार से व्याप्त संसार-वास में भूले हुए प्राणियों के आप दीपक हो, मोक्षप्राप्ति की इच्छारूप तीव्र प्यास से पीड़ित मनुष्यों के लिए सरोवर हो, कर्म समूहरूपी वन को जलाने के लिए अग्नि हो, तथा व्याकुलचित्त एवं नाना दुःखरूपी महातुषार के पड़ने से कंपित पुरुषों के लिए सूर्य हो ॥248॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराण में परिवर्ग सहित रामदेव के पूर्वभवों का वर्णन करने वाला एक सौ छठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥106॥