पद्मपुराण - पर्व 119: Difference between revisions
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<span id="1" /><span id="2" /><div class="G_HindiText"> <p>एक सौ उन्नीसवां पर्व</p> | <span id="1" /><span id="2" /><div class="G_HindiText"> <p>एक सौ उन्नीसवां पर्व</p> | ||
<p>अथानंतर शत्रुघ्न के हितकारी और दृढ़ निश्चयपूर्ण वचन सुनकर राम क्षणभर के लिए विचार में पड़ गये । तदनंतर मन से विचार कर अनंगलवण के पुत्र को समीप में बैठा देख उन्होंने उसी के लिए परम ऋद्धि से युक्त राज्यपद प्रदान किया ॥1-2॥<span id="3" /> जो पिता के समान गुण और.. क्रियाओं से युक्त था, तथा जिसे समस्त सामंत प्रणाम करते थे ऐसा वह अनंतलवण भी कुल का, भार उठाने वाला हुआ ॥3॥<span id="4" /> परम प्रतिष्ठा को प्राप्त एवं उत्कट अनुराग और प्रताप को धारण करने वाले अनंतलवण ने विजय बलभद्र के समान पृथिवीतल के समस्त मंगल प्राप्त किये ॥4॥<span id="5" /> विभीषण ने लंका का राज्य अपने पुत्र सुभूषण के लिए दिया और सुग्रीव ने भी अपना राज्य अंगद के पुत्र के लिए प्रदान किया ॥5॥<span id="6" /> </p> | <p>अथानंतर शत्रुघ्न के हितकारी और दृढ़ निश्चयपूर्ण वचन सुनकर राम क्षणभर के लिए विचार में पड़ गये । तदनंतर मन से विचार कर अनंगलवण के पुत्र को समीप में बैठा देख उन्होंने उसी के लिए परम ऋद्धि से युक्त राज्यपद प्रदान किया ॥1-2॥<span id="3" /> जो पिता के समान गुण और.. क्रियाओं से युक्त था, तथा जिसे समस्त सामंत प्रणाम करते थे ऐसा वह अनंतलवण भी कुल का, भार उठाने वाला हुआ ॥3॥<span id="4" /> परम प्रतिष्ठा को प्राप्त एवं उत्कट अनुराग और प्रताप को धारण करने वाले अनंतलवण ने विजय बलभद्र के समान पृथिवीतल के समस्त मंगल प्राप्त किये ॥4॥<span id="5" /> विभीषण ने लंका का राज्य अपने पुत्र सुभूषण के लिए दिया और सुग्रीव ने भी अपना राज्य अंगद के पुत्र के लिए प्रदान किया ॥5॥<span id="6" /> </p> | ||
<p> तदनंतर जिस प्रकार पहले भरत ने राज्य छोड़ दिया था उसी प्रकार | <p> तदनंतर जिस प्रकार पहले भरत ने राज्य छोड़ दिया था उसी प्रकार राम ने राज्य को विष मिले अन्न के समान अथवा अपराधी स्त्री के समान देखकर छोड़ दिया ॥6॥<span id="7" /><span id="8" /> जो जन्म-मरण से भयभीत थे तथा जो शिथिलीभूत कर्म कलंक को धारणकर रहे थे ऐसे श्रीराम ने भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के द्वारा प्रदर्शित आत्म-कल्याण का एक वही मार्ग चुना जो कि मोक्ष का कारण था, सुर-असुरों के द्वारा नमस्कृत था, साधक मुनियों के द्वारा सेवित था तथा जिसमें माध्यस्थ्य भाव रूप गुण का उदय होता था ॥7-8।।<span id="9" /> बोधि को पाकर क्लेश भाव से निकले राम, मेघ-मंडल से निर्गत सूर्य के समान अत्यधिक देदीप्यमान हो रहे थे ।।9।।<span id="10" /> </p> | ||
<p> अथानंतर राम सभा में विराजमान थे उसी समय अर्हद̖दास नाम का एक सेठ उनके दर्शन करने के लिए आया था, सो राम ने उससे समस्त मुनिसंघ की कुशल पूछी ॥10॥<span id="11" /> सेठ ने उत्तर दिया कि हे महाराज ! आपके इस कष्ट से पृथिवीतल पर मुनि भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं ॥11॥<span id="12" /> उसी समय मुनिसुव्रत भगवान की वंश-परंपरा को धारण करने वाले निबंध आत्मा के धारक, आकाशगामी भगवान् सुव्रत नामक मुनि राम की दशा जान वहाँ आये ॥12॥<span id="13" /></p> | <p> अथानंतर राम सभा में विराजमान थे उसी समय अर्हद̖दास नाम का एक सेठ उनके दर्शन करने के लिए आया था, सो राम ने उससे समस्त मुनिसंघ की कुशल पूछी ॥10॥<span id="11" /> सेठ ने उत्तर दिया कि हे महाराज ! आपके इस कष्ट से पृथिवीतल पर मुनि भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं ॥11॥<span id="12" /> उसी समय मुनिसुव्रत भगवान की वंश-परंपरा को धारण करने वाले निबंध आत्मा के धारक, आकाशगामी भगवान् सुव्रत नामक मुनि राम की दशा जान वहाँ आये ॥12॥<span id="13" /></p> | ||
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<p>तदनंतर रात व्यतीत होने पर जब सूर्योदय हो चुका तब रामने मुनियों को नमस्कार कर निर्ग्रंथ दीक्षा देने की प्रार्थना की ॥19॥<span id="20" /> उन्होंने कहा कि हे योगिराज! जिसके समस्त पाप दूर हो गये हैं तथा राग-द्वेष का परिहार हो चुका है ऐसा मैं आपके प्रसाद से विधिपूर्वक विहार करने के लिए उत्कंठित हूँ ॥20॥<span id="21" /> इसके उत्तर में मुनिसंघ के स्वामी ने कहा कि हे राजन् ! तुमने बहुत अच्छा विचार किया, विनाश से नष्ट हो जाने वाले इस समस्त परिकर से क्या प्रयोजन है? ॥21॥<span id="22" /> सनातन, निराबाध तथा उत्तम अतिशय से युक्त सुख को देने वाले जिनधर्म में अवगाहन करने की जो तुम्हारी भावना है वह बहुत उत्तम है ॥22॥<span id="23" /> मुनिराज के इस प्रकार कहने पर संसार की वस्तुओं में विराग रखने वाले रामने उन्हें उस प्रकार प्रदक्षिणा दी जिस प्रकार कि सूर्य सुमेरु पर्वत की देता है ॥23॥<span id="24" /><span id="25" /><span id="26" /><span id="27" /> जिन्हें महाबोधि उत्पन्न हुई थी, जो महासंवेग रूपी कवच को धारण कर रहे थे और जो कमर कसकर बड़े धैर्य के साथ कोका क्षय करने के लिए उद्यत हुए थे ऐसे श्री राम आशारूपी पाश को छोड़कर, स्नेहरूपी पिंजड़े को जलाकर, बी रूपी सांकल को तोड़कर, मोह का घमंड चूर कर, और आहार, कुंडल, मुकुट तथा वस्त्र को छोड़कर पर्यंकासन से विराजमान हो गये । उनका हृदय परमार्थ के चिंतन में लग रहा था, उनके शरीर पर मल का पुंज लग रहा था, और उन्होंने श्वेत कमल के समान सुकुमार अंगुलियों के द्वारा शिर के बाल उखाड़ कर फेंक दिये थे ॥24-27।।<span id="28" /> जिनका सब परिग्रह छूट गया था ऐसे राम उस समय राहु के चंगुल से छूटे हुए सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे ॥28॥<span id="29" /> जो शीलव्रत के घर थे, उत्तम गुप्तियों से सुरक्षित थे, पंच समितियों को प्राप्त थे और पाँच महाव्रतों की सेवा करते थे ॥29।।<span id="30" /> छह काम के जीवों की रक्षा करने में तत्पर थे, मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति रूप तीन प्रकार के दंड को नष्ट करने वाले थे, सप्त भय से रहित थे, आठ प्रकार के मद को नष्ट करने वाले थे ॥30।।<span id="31" /> जिनका वक्षस्थल श्रीवत्स के चिह्न से अलंकृत था, गुणरूपी आभूषणों के धारण करने में जिनका मन लगा था और जो मुक्तिरूपी तत्त्व प्राप्त करने में सुदृढ़ थे ऐसे राम उत्तम श्रमण हो गये ।।31।।<span id="32" /> जिनका शरीर दिख नहीं रहा था ऐसे देवों ने देव दुंदुभि बजाई, तथा भक्ति प्रकट करने में तत्पर पवित्र भावना के धारक देवों ने दिव्य पुष्पों की वर्षा की ॥32॥<span id="33" /> उस समय श्री राम के गृहस्थावस्था रूपी महापाप से निष्क्रांत होनेपर कल्याणकारी मित्र कृतांतवक्त्र और जटायु के जीवरूप देवों ने महान् उत्सव किया ॥33॥<span id="34" /><span id="35" /><span id="36" /> वहाँ श्री राम के दीक्षित होनेपर राजाओं सहित समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर आश्चर्य से चकित चित्त हो इस प्रकार विचार करने लगे कि देवों ने भी जिनका कल्याण किया ऐसे राम देव जहाँ इस प्रकार की दुस्त्यज विभूति को छोड़कर मुनि हो गये वहाँ हम लोगों के पास छोड़ने के योग्य प्रलोभन है ही क्या ? जिसके कारण हम व्रत की इच्छा से रहित हैं ॥34-36॥<span id="37" /> इस प्रकार विचारकर तथा हृदय में अपनी आसक्ति पर दुःख प्रकट कर संवेग से भरे अनेकों लोग घर के बंधन से निकल भागे ॥37॥<span id="38" /> </p> | <p>तदनंतर रात व्यतीत होने पर जब सूर्योदय हो चुका तब रामने मुनियों को नमस्कार कर निर्ग्रंथ दीक्षा देने की प्रार्थना की ॥19॥<span id="20" /> उन्होंने कहा कि हे योगिराज! जिसके समस्त पाप दूर हो गये हैं तथा राग-द्वेष का परिहार हो चुका है ऐसा मैं आपके प्रसाद से विधिपूर्वक विहार करने के लिए उत्कंठित हूँ ॥20॥<span id="21" /> इसके उत्तर में मुनिसंघ के स्वामी ने कहा कि हे राजन् ! तुमने बहुत अच्छा विचार किया, विनाश से नष्ट हो जाने वाले इस समस्त परिकर से क्या प्रयोजन है? ॥21॥<span id="22" /> सनातन, निराबाध तथा उत्तम अतिशय से युक्त सुख को देने वाले जिनधर्म में अवगाहन करने की जो तुम्हारी भावना है वह बहुत उत्तम है ॥22॥<span id="23" /> मुनिराज के इस प्रकार कहने पर संसार की वस्तुओं में विराग रखने वाले रामने उन्हें उस प्रकार प्रदक्षिणा दी जिस प्रकार कि सूर्य सुमेरु पर्वत की देता है ॥23॥<span id="24" /><span id="25" /><span id="26" /><span id="27" /> जिन्हें महाबोधि उत्पन्न हुई थी, जो महासंवेग रूपी कवच को धारण कर रहे थे और जो कमर कसकर बड़े धैर्य के साथ कोका क्षय करने के लिए उद्यत हुए थे ऐसे श्री राम आशारूपी पाश को छोड़कर, स्नेहरूपी पिंजड़े को जलाकर, बी रूपी सांकल को तोड़कर, मोह का घमंड चूर कर, और आहार, कुंडल, मुकुट तथा वस्त्र को छोड़कर पर्यंकासन से विराजमान हो गये । उनका हृदय परमार्थ के चिंतन में लग रहा था, उनके शरीर पर मल का पुंज लग रहा था, और उन्होंने श्वेत कमल के समान सुकुमार अंगुलियों के द्वारा शिर के बाल उखाड़ कर फेंक दिये थे ॥24-27।।<span id="28" /> जिनका सब परिग्रह छूट गया था ऐसे राम उस समय राहु के चंगुल से छूटे हुए सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे ॥28॥<span id="29" /> जो शीलव्रत के घर थे, उत्तम गुप्तियों से सुरक्षित थे, पंच समितियों को प्राप्त थे और पाँच महाव्रतों की सेवा करते थे ॥29।।<span id="30" /> छह काम के जीवों की रक्षा करने में तत्पर थे, मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति रूप तीन प्रकार के दंड को नष्ट करने वाले थे, सप्त भय से रहित थे, आठ प्रकार के मद को नष्ट करने वाले थे ॥30।।<span id="31" /> जिनका वक्षस्थल श्रीवत्स के चिह्न से अलंकृत था, गुणरूपी आभूषणों के धारण करने में जिनका मन लगा था और जो मुक्तिरूपी तत्त्व प्राप्त करने में सुदृढ़ थे ऐसे राम उत्तम श्रमण हो गये ।।31।।<span id="32" /> जिनका शरीर दिख नहीं रहा था ऐसे देवों ने देव दुंदुभि बजाई, तथा भक्ति प्रकट करने में तत्पर पवित्र भावना के धारक देवों ने दिव्य पुष्पों की वर्षा की ॥32॥<span id="33" /> उस समय श्री राम के गृहस्थावस्था रूपी महापाप से निष्क्रांत होनेपर कल्याणकारी मित्र कृतांतवक्त्र और जटायु के जीवरूप देवों ने महान् उत्सव किया ॥33॥<span id="34" /><span id="35" /><span id="36" /> वहाँ श्री राम के दीक्षित होनेपर राजाओं सहित समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर आश्चर्य से चकित चित्त हो इस प्रकार विचार करने लगे कि देवों ने भी जिनका कल्याण किया ऐसे राम देव जहाँ इस प्रकार की दुस्त्यज विभूति को छोड़कर मुनि हो गये वहाँ हम लोगों के पास छोड़ने के योग्य प्रलोभन है ही क्या ? जिसके कारण हम व्रत की इच्छा से रहित हैं ॥34-36॥<span id="37" /> इस प्रकार विचारकर तथा हृदय में अपनी आसक्ति पर दुःख प्रकट कर संवेग से भरे अनेकों लोग घर के बंधन से निकल भागे ॥37॥<span id="38" /> </p> | ||
<p> शत्रुघ्न भी रागरूपी पाश को छेदकर, द्वेषरूपी वैरी को नष्ट कर तथा समस्त परिग्रह से निर्मुक्त हो श्रमण हो गया ॥38॥<span id="39" /> तदनंतर विभीषण, सुग्रीव, नील, चंद्रनख, नल, क्रव्य तथा विराधित आदि अनेक विद्याधर राजा भी बाहर निकले ॥39॥<span id="40" /> जिन विद्याधरों ने विद्या का परित्यागकर दीक्षा धारण की थी उनमें से कितने ही लोगों को पुनः चारणऋद्धि उत्पन्न हो गई थी ॥40॥<span id="41" /><span id="42" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस समय राम के दीक्षा लेने पर कुछ अधिक सोलह हजार साधु हुए और सत्ताईस हजार प्रमुख प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक साध्वी के पास आर्यिका हुई ॥41-42॥<span id="43" /></p> | <p> शत्रुघ्न भी रागरूपी पाश को छेदकर, द्वेषरूपी वैरी को नष्ट कर तथा समस्त परिग्रह से निर्मुक्त हो श्रमण हो गया ॥38॥<span id="39" /> तदनंतर विभीषण, सुग्रीव, नील, चंद्रनख, नल, क्रव्य तथा विराधित आदि अनेक विद्याधर राजा भी बाहर निकले ॥39॥<span id="40" /> जिन विद्याधरों ने विद्या का परित्यागकर दीक्षा धारण की थी उनमें से कितने ही लोगों को पुनः चारणऋद्धि उत्पन्न हो गई थी ॥40॥<span id="41" /><span id="42" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस समय राम के दीक्षा लेने पर कुछ अधिक सोलह हजार साधु हुए और सत्ताईस हजार प्रमुख प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक साध्वी के पास आर्यिका हुई ॥41-42॥<span id="43" /></p> | ||
<p>अथानंतर गुरु की आज्ञा पाकर श्रीराम निर्ग्रंथ मुनि,सुख-दुःखादि के द्वंद्व को दूर कर एकाकी विहार को प्राप्त हुए ॥43॥<span id="44" /> वे रात्रि के समय पहाड़ों की उन गुफाओं में निवास करते थे जो चंचल चित्त मनुष्यों के लिए भय उत्पन्न करने वाले थे तथा जहाँ क्रूर हिंसक जंतुओं के शब्द व्याप्त हो रहे थे ॥44।।<span id="45" /> उत्तम योग के धारक एवं योग्य विधि का पालन करने वाले उन मुनि को उसी रात में अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ॥45।।<span id="46" /> उस अवधिज्ञान के प्रभाव से वे समस्त रूपी जगत् को हथेली पर रखे हुए निर्मल स्फटिक के समान ज्यों-का-त्यों देखने लगे ॥46॥<span id="47" /> उस अवधिज्ञान के द्वारा उन्होंने यह भी जान लिया कि लक्ष्मण परभव में कहाँ गया परंतु यतश्च उनका मन सब प्रकार के बंधन तोड़ चुका था इसलिए विकार को प्राप्त नहीं हुआ ॥47॥<span id="48" /> वे सोचने लगे कि देखो, जिसके सौ वर्ष कुमार अवस्था में, तीन सौ वर्ष मंडलेश्वर अवस्था में और चालीस वर्ष दिग्विजय में व्यतीत हुए ॥48।।<span id="49" /> जिसने ग्यारह हजार पाँच सौ साठ वर्ष तक साम्राज्य पद का सेवन किया ॥49॥<span id="50" /> और जिसने पच्चीस कम बारह हजार वर्ष भोगीपना प्राप्त कर व्यतीत किये वह लक्ष्मण अंत में भोगों से तप्त न होकर नीचे गया ॥50॥<span id="51" /> लक्ष्मण के मरण में उन दोनों देवों का कोई दोष नहीं है, यथार्थ में भाई की मृत्यु के बहाने उसका वह काल ही आ पहुँचा था ॥51॥<span id="52" /> जिसका चित्त मोह के आधीन था ऐसे मेरे तथा उसके वसुदत्त को आदि लेकर अनेक प्रकार के नाना जन्म साथ-साथ बीत चुके हैं ॥52।।<span id="53" /> इस प्रकार व्रत और शील के पर्वत तथा उत्तम धैर्य को धारण करने वाले पद्ममुनि ने समस्त बीती बात जान ली ॥53॥<span id="54" /> वे पद्ममुनि उत्तम लेश्या से युक्त, गंभीर, गुणों के सागर, उदार हृदय एवं मुक्ति रूपी लक्ष्मी के प्राप्त करने में तत्पर थे ॥54॥<span id="55" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मैं यहाँ आये हुए तुम सब लोगों से भी कहता हूँ कि तुम लोग उसी मार्ग में रमण करो जिसमें कि रघूत्तम― राममुनि रमण करते थे ॥55॥<span id="56" /> जिन-शासन में शक्ति और भक्तिपूर्वक प्रवृत्त रहने वाले मनुष्य, जिस समस्त प्रयोजन की प्राप्ति होती है ऐसे मुक्तिपद के निकटवर्ती जन्म को प्राप्त होते हैं ॥56।।<span id="57" /> हे भव्य जनो! तुम सब जिनवाणी रूपी महारत्नों के खजाने को पाकर कुलिंगियों के दुःखदायी समस्त शास्त्रों का परित्याग करो ॥57॥<span id="58" /> जिनकी आत्मा खोटे शास्त्रों से मोहित हो रही है तथा जो कपट सहित कलुषित क्रिया करते है ऐसे मनुष्य जंमांधों की तरह कल्याण मार्ग को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं ॥58॥<span id="59" /><span id="60" /> कितने ही | <p>अथानंतर गुरु की आज्ञा पाकर श्रीराम निर्ग्रंथ मुनि,सुख-दुःखादि के द्वंद्व को दूर कर एकाकी विहार को प्राप्त हुए ॥43॥<span id="44" /> वे रात्रि के समय पहाड़ों की उन गुफाओं में निवास करते थे जो चंचल चित्त मनुष्यों के लिए भय उत्पन्न करने वाले थे तथा जहाँ क्रूर हिंसक जंतुओं के शब्द व्याप्त हो रहे थे ॥44।।<span id="45" /> उत्तम योग के धारक एवं योग्य विधि का पालन करने वाले उन मुनि को उसी रात में अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ॥45।।<span id="46" /> उस अवधिज्ञान के प्रभाव से वे समस्त रूपी जगत् को हथेली पर रखे हुए निर्मल स्फटिक के समान ज्यों-का-त्यों देखने लगे ॥46॥<span id="47" /> उस अवधिज्ञान के द्वारा उन्होंने यह भी जान लिया कि लक्ष्मण परभव में कहाँ गया परंतु यतश्च उनका मन सब प्रकार के बंधन तोड़ चुका था इसलिए विकार को प्राप्त नहीं हुआ ॥47॥<span id="48" /> वे सोचने लगे कि देखो, जिसके सौ वर्ष कुमार अवस्था में, तीन सौ वर्ष मंडलेश्वर अवस्था में और चालीस वर्ष दिग्विजय में व्यतीत हुए ॥48।।<span id="49" /> जिसने ग्यारह हजार पाँच सौ साठ वर्ष तक साम्राज्य पद का सेवन किया ॥49॥<span id="50" /> और जिसने पच्चीस कम बारह हजार वर्ष भोगीपना प्राप्त कर व्यतीत किये वह लक्ष्मण अंत में भोगों से तप्त न होकर नीचे गया ॥50॥<span id="51" /> लक्ष्मण के मरण में उन दोनों देवों का कोई दोष नहीं है, यथार्थ में भाई की मृत्यु के बहाने उसका वह काल ही आ पहुँचा था ॥51॥<span id="52" /> जिसका चित्त मोह के आधीन था ऐसे मेरे तथा उसके वसुदत्त को आदि लेकर अनेक प्रकार के नाना जन्म साथ-साथ बीत चुके हैं ॥52।।<span id="53" /> इस प्रकार व्रत और शील के पर्वत तथा उत्तम धैर्य को धारण करने वाले पद्ममुनि ने समस्त बीती बात जान ली ॥53॥<span id="54" /> वे पद्ममुनि उत्तम लेश्या से युक्त, गंभीर, गुणों के सागर, उदार हृदय एवं मुक्ति रूपी लक्ष्मी के प्राप्त करने में तत्पर थे ॥54॥<span id="55" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मैं यहाँ आये हुए तुम सब लोगों से भी कहता हूँ कि तुम लोग उसी मार्ग में रमण करो जिसमें कि रघूत्तम― राममुनि रमण करते थे ॥55॥<span id="56" /> जिन-शासन में शक्ति और भक्तिपूर्वक प्रवृत्त रहने वाले मनुष्य, जिस समस्त प्रयोजन की प्राप्ति होती है ऐसे मुक्तिपद के निकटवर्ती जन्म को प्राप्त होते हैं ॥56।।<span id="57" /> हे भव्य जनो! तुम सब जिनवाणी रूपी महारत्नों के खजाने को पाकर कुलिंगियों के दुःखदायी समस्त शास्त्रों का परित्याग करो ॥57॥<span id="58" /> जिनकी आत्मा खोटे शास्त्रों से मोहित हो रही है तथा जो कपट सहित कलुषित क्रिया करते है ऐसे मनुष्य जंमांधों की तरह कल्याण मार्ग को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं ॥58॥<span id="59" /><span id="60" /> कितने ही शक्तिहीन बकवादी मनुष्य नाना उपकरणों को साधन समझ 'इनके ग्रहण में दोष नहीं है।' ऐसा कहकर उन्हें ग्रहण करते हैं सो वे कुलिंगी हैं । मूर्ख मनुष्य उन्हें व्यर्थ ही आगे करते हैं वे खिन्न शरीर होते हुए बोझा ढोने वालों के समान भार को धारण करते हैं ॥59-60॥<span id="61" /><span id="62" /> वास्तव में ऋषि वे ही हैं जिनकी परिग्रह में और उसको याचना में बुद्धि नहीं है। इसलिए उत्तम गुणों के धारक निर्मल निर्ग्रंथ साधुओं की ही विद्वज्जनों की सेवा करनी चाहिए। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे भव्य जनो ! इस तरह बलदेव का चरित सुनकर तथा संसारके कारणभूत समस्त उत्तम भोगों का त्याग. कर यत्नपूर्वक संसारवर्धक भावों से शिथिल होओ जिससे फिर कष्टरूपी सूर्य के संताप को प्राप्त न हो सको ॥61-62॥<span id="119" /> </p> | ||
<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध तथा रविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराण में बलदेव की दीक्षा का वर्णन करने वाला एक सौ उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥119॥</p> | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध तथा रविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराण में बलदेव की दीक्षा का वर्णन करने वाला एक सौ उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥119॥</p> | ||
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Latest revision as of 22:06, 25 June 2024
एक सौ उन्नीसवां पर्व
अथानंतर शत्रुघ्न के हितकारी और दृढ़ निश्चयपूर्ण वचन सुनकर राम क्षणभर के लिए विचार में पड़ गये । तदनंतर मन से विचार कर अनंगलवण के पुत्र को समीप में बैठा देख उन्होंने उसी के लिए परम ऋद्धि से युक्त राज्यपद प्रदान किया ॥1-2॥ जो पिता के समान गुण और.. क्रियाओं से युक्त था, तथा जिसे समस्त सामंत प्रणाम करते थे ऐसा वह अनंतलवण भी कुल का, भार उठाने वाला हुआ ॥3॥ परम प्रतिष्ठा को प्राप्त एवं उत्कट अनुराग और प्रताप को धारण करने वाले अनंतलवण ने विजय बलभद्र के समान पृथिवीतल के समस्त मंगल प्राप्त किये ॥4॥ विभीषण ने लंका का राज्य अपने पुत्र सुभूषण के लिए दिया और सुग्रीव ने भी अपना राज्य अंगद के पुत्र के लिए प्रदान किया ॥5॥
तदनंतर जिस प्रकार पहले भरत ने राज्य छोड़ दिया था उसी प्रकार राम ने राज्य को विष मिले अन्न के समान अथवा अपराधी स्त्री के समान देखकर छोड़ दिया ॥6॥ जो जन्म-मरण से भयभीत थे तथा जो शिथिलीभूत कर्म कलंक को धारणकर रहे थे ऐसे श्रीराम ने भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के द्वारा प्रदर्शित आत्म-कल्याण का एक वही मार्ग चुना जो कि मोक्ष का कारण था, सुर-असुरों के द्वारा नमस्कृत था, साधक मुनियों के द्वारा सेवित था तथा जिसमें माध्यस्थ्य भाव रूप गुण का उदय होता था ॥7-8।। बोधि को पाकर क्लेश भाव से निकले राम, मेघ-मंडल से निर्गत सूर्य के समान अत्यधिक देदीप्यमान हो रहे थे ।।9।।
अथानंतर राम सभा में विराजमान थे उसी समय अर्हद̖दास नाम का एक सेठ उनके दर्शन करने के लिए आया था, सो राम ने उससे समस्त मुनिसंघ की कुशल पूछी ॥10॥ सेठ ने उत्तर दिया कि हे महाराज ! आपके इस कष्ट से पृथिवीतल पर मुनि भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं ॥11॥ उसी समय मुनिसुव्रत भगवान की वंश-परंपरा को धारण करने वाले निबंध आत्मा के धारक, आकाशगामी भगवान् सुव्रत नामक मुनि राम की दशा जान वहाँ आये ॥12॥
मुनि आये हैं यह सुन अत्यधिक हर्ष के कारण जिन्हें रोमांच निकल आये थे तथा जिनके नेत्र फूल गये थे ऐसे श्रीराम मुनि के समीप गये ॥13।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जिस प्रकार पहले विजय बलभद्र स्वर्ण कुंभ नामक मुनिराज के समीप गये थे उसी प्रकार भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजाओं के द्वारा सेवित एवं महाभ्युदय के धारक राम सुभक्ति के साथ सुव्रत मुनि के पास पहुँचे । गुणों के श्रेष्ठ हजारों निर्ग्रंथ जिनकी पूजा कर रहे थे ऐसे उन मुनि के पास जाकर रामने हाथ जोड़ शिर से नमस्कार किया ॥14-15॥ मुक्ति के कारणभूत उन उत्तम महात्मा के दर्शन कर रामने अपने आपको ऐसा जाना मानो अमृत के सागर में ही निमग्न हो गया होऊँ ।16।। जिस प्रकार पहले महापद्म चक्रवर्ती ने मुनिसुव्रत भगवान की परम महिमा की थी उसी प्रकार श्रद्धा से भरे श्रीमान् रामने उन सुव्रत नामक मुनिराज की परम महिमा की ॥17॥ सब प्रकार के आदर करने में योग देने वाले विद्याधरों ने भी ध्वजा तोरण अर्घदान तथा संगीत आदि को उत्कृष्ट व्यवस्था की थी ॥18॥
तदनंतर रात व्यतीत होने पर जब सूर्योदय हो चुका तब रामने मुनियों को नमस्कार कर निर्ग्रंथ दीक्षा देने की प्रार्थना की ॥19॥ उन्होंने कहा कि हे योगिराज! जिसके समस्त पाप दूर हो गये हैं तथा राग-द्वेष का परिहार हो चुका है ऐसा मैं आपके प्रसाद से विधिपूर्वक विहार करने के लिए उत्कंठित हूँ ॥20॥ इसके उत्तर में मुनिसंघ के स्वामी ने कहा कि हे राजन् ! तुमने बहुत अच्छा विचार किया, विनाश से नष्ट हो जाने वाले इस समस्त परिकर से क्या प्रयोजन है? ॥21॥ सनातन, निराबाध तथा उत्तम अतिशय से युक्त सुख को देने वाले जिनधर्म में अवगाहन करने की जो तुम्हारी भावना है वह बहुत उत्तम है ॥22॥ मुनिराज के इस प्रकार कहने पर संसार की वस्तुओं में विराग रखने वाले रामने उन्हें उस प्रकार प्रदक्षिणा दी जिस प्रकार कि सूर्य सुमेरु पर्वत की देता है ॥23॥ जिन्हें महाबोधि उत्पन्न हुई थी, जो महासंवेग रूपी कवच को धारण कर रहे थे और जो कमर कसकर बड़े धैर्य के साथ कोका क्षय करने के लिए उद्यत हुए थे ऐसे श्री राम आशारूपी पाश को छोड़कर, स्नेहरूपी पिंजड़े को जलाकर, बी रूपी सांकल को तोड़कर, मोह का घमंड चूर कर, और आहार, कुंडल, मुकुट तथा वस्त्र को छोड़कर पर्यंकासन से विराजमान हो गये । उनका हृदय परमार्थ के चिंतन में लग रहा था, उनके शरीर पर मल का पुंज लग रहा था, और उन्होंने श्वेत कमल के समान सुकुमार अंगुलियों के द्वारा शिर के बाल उखाड़ कर फेंक दिये थे ॥24-27।। जिनका सब परिग्रह छूट गया था ऐसे राम उस समय राहु के चंगुल से छूटे हुए सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे ॥28॥ जो शीलव्रत के घर थे, उत्तम गुप्तियों से सुरक्षित थे, पंच समितियों को प्राप्त थे और पाँच महाव्रतों की सेवा करते थे ॥29।। छह काम के जीवों की रक्षा करने में तत्पर थे, मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति रूप तीन प्रकार के दंड को नष्ट करने वाले थे, सप्त भय से रहित थे, आठ प्रकार के मद को नष्ट करने वाले थे ॥30।। जिनका वक्षस्थल श्रीवत्स के चिह्न से अलंकृत था, गुणरूपी आभूषणों के धारण करने में जिनका मन लगा था और जो मुक्तिरूपी तत्त्व प्राप्त करने में सुदृढ़ थे ऐसे राम उत्तम श्रमण हो गये ।।31।। जिनका शरीर दिख नहीं रहा था ऐसे देवों ने देव दुंदुभि बजाई, तथा भक्ति प्रकट करने में तत्पर पवित्र भावना के धारक देवों ने दिव्य पुष्पों की वर्षा की ॥32॥ उस समय श्री राम के गृहस्थावस्था रूपी महापाप से निष्क्रांत होनेपर कल्याणकारी मित्र कृतांतवक्त्र और जटायु के जीवरूप देवों ने महान् उत्सव किया ॥33॥ वहाँ श्री राम के दीक्षित होनेपर राजाओं सहित समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर आश्चर्य से चकित चित्त हो इस प्रकार विचार करने लगे कि देवों ने भी जिनका कल्याण किया ऐसे राम देव जहाँ इस प्रकार की दुस्त्यज विभूति को छोड़कर मुनि हो गये वहाँ हम लोगों के पास छोड़ने के योग्य प्रलोभन है ही क्या ? जिसके कारण हम व्रत की इच्छा से रहित हैं ॥34-36॥ इस प्रकार विचारकर तथा हृदय में अपनी आसक्ति पर दुःख प्रकट कर संवेग से भरे अनेकों लोग घर के बंधन से निकल भागे ॥37॥
शत्रुघ्न भी रागरूपी पाश को छेदकर, द्वेषरूपी वैरी को नष्ट कर तथा समस्त परिग्रह से निर्मुक्त हो श्रमण हो गया ॥38॥ तदनंतर विभीषण, सुग्रीव, नील, चंद्रनख, नल, क्रव्य तथा विराधित आदि अनेक विद्याधर राजा भी बाहर निकले ॥39॥ जिन विद्याधरों ने विद्या का परित्यागकर दीक्षा धारण की थी उनमें से कितने ही लोगों को पुनः चारणऋद्धि उत्पन्न हो गई थी ॥40॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस समय राम के दीक्षा लेने पर कुछ अधिक सोलह हजार साधु हुए और सत्ताईस हजार प्रमुख प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक साध्वी के पास आर्यिका हुई ॥41-42॥
अथानंतर गुरु की आज्ञा पाकर श्रीराम निर्ग्रंथ मुनि,सुख-दुःखादि के द्वंद्व को दूर कर एकाकी विहार को प्राप्त हुए ॥43॥ वे रात्रि के समय पहाड़ों की उन गुफाओं में निवास करते थे जो चंचल चित्त मनुष्यों के लिए भय उत्पन्न करने वाले थे तथा जहाँ क्रूर हिंसक जंतुओं के शब्द व्याप्त हो रहे थे ॥44।। उत्तम योग के धारक एवं योग्य विधि का पालन करने वाले उन मुनि को उसी रात में अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ॥45।। उस अवधिज्ञान के प्रभाव से वे समस्त रूपी जगत् को हथेली पर रखे हुए निर्मल स्फटिक के समान ज्यों-का-त्यों देखने लगे ॥46॥ उस अवधिज्ञान के द्वारा उन्होंने यह भी जान लिया कि लक्ष्मण परभव में कहाँ गया परंतु यतश्च उनका मन सब प्रकार के बंधन तोड़ चुका था इसलिए विकार को प्राप्त नहीं हुआ ॥47॥ वे सोचने लगे कि देखो, जिसके सौ वर्ष कुमार अवस्था में, तीन सौ वर्ष मंडलेश्वर अवस्था में और चालीस वर्ष दिग्विजय में व्यतीत हुए ॥48।। जिसने ग्यारह हजार पाँच सौ साठ वर्ष तक साम्राज्य पद का सेवन किया ॥49॥ और जिसने पच्चीस कम बारह हजार वर्ष भोगीपना प्राप्त कर व्यतीत किये वह लक्ष्मण अंत में भोगों से तप्त न होकर नीचे गया ॥50॥ लक्ष्मण के मरण में उन दोनों देवों का कोई दोष नहीं है, यथार्थ में भाई की मृत्यु के बहाने उसका वह काल ही आ पहुँचा था ॥51॥ जिसका चित्त मोह के आधीन था ऐसे मेरे तथा उसके वसुदत्त को आदि लेकर अनेक प्रकार के नाना जन्म साथ-साथ बीत चुके हैं ॥52।। इस प्रकार व्रत और शील के पर्वत तथा उत्तम धैर्य को धारण करने वाले पद्ममुनि ने समस्त बीती बात जान ली ॥53॥ वे पद्ममुनि उत्तम लेश्या से युक्त, गंभीर, गुणों के सागर, उदार हृदय एवं मुक्ति रूपी लक्ष्मी के प्राप्त करने में तत्पर थे ॥54॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मैं यहाँ आये हुए तुम सब लोगों से भी कहता हूँ कि तुम लोग उसी मार्ग में रमण करो जिसमें कि रघूत्तम― राममुनि रमण करते थे ॥55॥ जिन-शासन में शक्ति और भक्तिपूर्वक प्रवृत्त रहने वाले मनुष्य, जिस समस्त प्रयोजन की प्राप्ति होती है ऐसे मुक्तिपद के निकटवर्ती जन्म को प्राप्त होते हैं ॥56।। हे भव्य जनो! तुम सब जिनवाणी रूपी महारत्नों के खजाने को पाकर कुलिंगियों के दुःखदायी समस्त शास्त्रों का परित्याग करो ॥57॥ जिनकी आत्मा खोटे शास्त्रों से मोहित हो रही है तथा जो कपट सहित कलुषित क्रिया करते है ऐसे मनुष्य जंमांधों की तरह कल्याण मार्ग को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं ॥58॥ कितने ही शक्तिहीन बकवादी मनुष्य नाना उपकरणों को साधन समझ 'इनके ग्रहण में दोष नहीं है।' ऐसा कहकर उन्हें ग्रहण करते हैं सो वे कुलिंगी हैं । मूर्ख मनुष्य उन्हें व्यर्थ ही आगे करते हैं वे खिन्न शरीर होते हुए बोझा ढोने वालों के समान भार को धारण करते हैं ॥59-60॥ वास्तव में ऋषि वे ही हैं जिनकी परिग्रह में और उसको याचना में बुद्धि नहीं है। इसलिए उत्तम गुणों के धारक निर्मल निर्ग्रंथ साधुओं की ही विद्वज्जनों की सेवा करनी चाहिए। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे भव्य जनो ! इस तरह बलदेव का चरित सुनकर तथा संसारके कारणभूत समस्त उत्तम भोगों का त्याग. कर यत्नपूर्वक संसारवर्धक भावों से शिथिल होओ जिससे फिर कष्टरूपी सूर्य के संताप को प्राप्त न हो सको ॥61-62॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध तथा रविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराण में बलदेव की दीक्षा का वर्णन करने वाला एक सौ उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥119॥