ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 120
From जैनकोष
एक सौ बीसवां पर्व
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस तरह योगी बलदेव के गुणों का वर्णन करने के लिए एक करोड़ जिह्वाओं की विक्रिया करने वाला धरणेंद्र भी समर्थ नहीं है ॥1॥ तदनंतर पाँच दिन का उपवास कर धीर वीर महातपस्वी योगी राम पारणा करने के लिए विधिपूर्वक-ईर्यासमिति से चार हाथ पृथिवी देखते हुए नंदस्थली नगरी में गये ॥2।। वे राम अपनी दीप्ति से ऐसे जान पड़ते थे मानो तरुण सूर्य ही हों, स्थिरता से ऐसे लगते थे मानो दूसरा पर्वत ही हों, शांत स्वभाव के कारण ऐसे जान पढ़ते थे मानो सूर्य के अगम्य दूसरा चंद्रमा ही हों, उनका हृदय धवल स्फटिक के समान शुद्ध था, वे पुरुषों में श्रेष्ठ थे, ऐसे जान पड़ते थे मानो मूर्तिधारी धर्म ही हों, अथवा तीन लोक के जीवों का अनुराग ही हों, अथवा सब जीवों का आनंद एकरूपता को प्राप्त होकर स्थिति हुआ हो, वे महाकांति के प्रवाह से पृथिवी को तर कर रहे थे, और आकाश को सफेद कमलों के समूह से पूर्ण कर रहे थे। ऐसे श्रीराम को देख नगरी के समस्त लोग क्षोभ को प्राप्त हो गये ॥3-6॥
लोग परस्पर कहने लगे कि अहो ! आश्चर्य देखो, अहो आश्चर्य देखो जो पहले कभी देखने में नहीं आया ऐसा यह लोकोत्तर आकार देखो ॥7॥ यह कोई अत्यंत सुंदर महावृषभ यहाँ आ रहा है, अथवा जिसकी दोनों लंबी भुजाएँ नीचे लटक रही हैं ऐसा यह कोई अद्भुत मनुष्य रूपी मंदराचल है ॥8॥ अहो, इनका धैर्य धन्य है, सत्त्व-पराक्रम धन्य है, रूप धन्य है, कांति धन्य है, शांति धन्य है, मुक्ति धन्य है और गति धन्य है ॥9॥ जो एक युग प्रमाण अंतर पर बड़ी सावधानी से अपनी शांत दृष्टि रखता है ऐसा यह कौन मनोहर पुरुष यहाँ कहाँ से आ रहा है ॥10॥ उदार पुण्य को प्राप्त हुए इसके द्वारा कौन-सा कुल मंडित हुआ है― यह किस कुल का अलंकार है ? और आहार ग्रहणकर किस पर अनुग्रह करता है ? ॥11॥ इस संसार में इंद्र के समान ऐसा दूसरा रूप कहाँ हो सकता है? अरे ! जिनका पराक्रम रूपी पर्वत क्षोभ रहित है ऐसे ये पुरुषोत्तम राम हैं ॥12॥ आओ-आओ इन्हें देखकर अपने चित्त, दृष्टि, जन्म, कर्म, बुद्धि, शरीर और चरित को सार्थक करो। इस प्रकार श्रीराम के दर्शन में लगे हुए नगरवासी लोगों का बहुत भारी आश्चर्य से भरा सुंदर कोलाहल पूर्ण शब्द उठ खड़ा हुआ ॥13-14॥
तदनंतर नगरी में राम के प्रवेश करते ही समयानुकूल चेष्टा करने वाले नर-नारियों के समूह से नगर के लंबे-चौड़े मार्ग भर गये ॥15॥ नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों से परिपूर्ण पात्र जिनके हाथ में थे तथा जो जल की भारी धारण कर रही थी ऐसी उत्सुकता से भरी अनेक उत्तम स्त्रियां खड़ी हो गई ॥16॥ अनेकों मनुष्य पूर्ण तैयारी के साथ मनोज्ञ जल से भरे पूर्ण कलश ले-लेकर आ पहुँचे ॥17॥ 'हे स्वामिन् ! यहाँ आइए, हे स्वामिन् ! यहाँ ठहरिए, हे मुनिराज ! प्रसन्नतापूर्वक यहाँ विराजिए' इत्यादि उत्तमोत्तम शब्द चारों ओर फैल गये ॥18॥ हृदय में हर्ष के नहीं समाने पर जिनके शरीर में रोमांच निकल रहे थे ऐसे कितने ही लोग जोर-जोर से अस्पष्ट सिंहनाद कर रहे थे ॥19॥ हे मुनींद्र ! जय हो, हे पुण्य के पर्वत ! वृद्धिंगत होओ तथा समृद्धिमान होओ' इस प्रकार के पुनरुक्त वचनों से आकाश भर गया था।॥20॥ 'शीघ्र ही बर्तन लाओ, स्थाल को जल्दी देखो, सुवर्ण की थाली जल्दी लाओ, दूध लाओ, गन्ना लाओ, दही पास में रक्खो, चाँदी के उत्तम बर्तन में शीघ्र ही खीर रक्खो, शीघ्र ही खड़ी शक्कर मिश्री लाओ, इस बर्तन में कपूर से सुवासित शीतल जल भरो, शीघ्र ही पुड़ियों का समूह लाओ, कलश में शीघ्र ही विधिपूर्वक उत्तम शिखरिणी रखो, अरी, चतुरे! हर्षपूर्वक उत्तम बड़े-बड़े लड्डू दे' इत्यादि कुलांगनाओं और पुरुषों के शब्दों से वह नगर तन्मय हो गया ॥21-25॥ उस समय उस नगर में लोग इतने संभ्रम में पड़े हुए थे कि भारी जरूरत के कार्य को भी लोभ नहीं मानते थे और न कोई बच्चों को ही देखते थे ॥26।। सकड़ी गलियों में बड़े वेग से आने वाले कितने ही लोगों ने हाथों में बर्तन लेकर खड़े हुए मनुष्य गिरा दिये ॥27।।
इस प्रकार जिसमें लोगों के हृदय अत्यंत उन्नत थे तथा जिसमें हड़बड़ाहट के कारण विरुद्ध चेष्टाएँ की जा रही थीं ऐसा वह नगर सब ओर से उन्मत्त के समान हो गया था ॥28॥ लोगों के उस भारी कोलाहल और तेज के कारण हाथियों ने भी बाँधने के खंभे तोड़ डाले ॥29॥ उनकी कपोल पालियों में जो मदजल अधिक मात्रा में चिरकाल से सुरक्षित था वह गंडस्थल तथा कानों के विवरों से निकल-निकलकर पृथिवी को तर करने लगा ॥30॥ जिनके कान खड़े थे, जिनके नेत्रों की पुतलियाँ नेत्रों के मध्य में स्थित थीं, जिन्होंने घास खाना छोड़ दिया था, और जिनकी गरदन ऊपर की ओर उठ रही थी ऐसे घोड़े गंभीर हिनहिनाहट करते हुए भयभीत दशा में खड़े थे ॥31॥ जिन्होंने भयभीत होकर बंधन तोड़ दिये थे तथा जिनके पीछे-पीछे घबड़ाये हुए सईस दौड़ रहे थे ऐसे कितने ही घोड़ों ने मनुष्यों को व्याकुल कर दिया ॥32॥ इस प्रकार जब तक दान देने में तत्पर मनुष्य पारस्परिक महाक्षोभ से चंचल हो रहे थे तब तक क्षुभित सागर के समान उनका घोर शब्द सुनकर महल के भीतर स्थित प्रतिनंदी नाम का राजा कुछ रुष्ट हो सहसा क्षोभ को प्राप्त हुआ और 'यह क्या है।‘ इस प्रकार शब्द करता हुआ परिकर के साथ शीघ्र ही महल की छत पर चढ़ गया ॥33-35॥
तदनंतर महल की छत से लोगों के तिलक और कलंकरूपी पंक से रहित चंद्रमा के समान धवल कांति के धारक उन प्रधान साधु को देखकर राजा ने बहुत से वीरों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही जाकर तथा प्रीतिपूर्वक नमस्कार कर इन उत्तम मुनिराज को यहाँ मेरे पास ले आओ ।।36-37॥ 'स्वामी जो आज्ञा करें' इस प्रकार कह कर राजा के प्रधान पुरुष, लोगों की भीड़ को चीरते हुए उनके पास गये ॥38॥ और वहाँ जाकर हाथ जोड़ मस्तक से लगा मधुर वाणी से युक्त और उनकी कांति से हृत चित्त होते हुए इस प्रकार निवेदन करने लगे कि ॥39॥ हे भगवन् ! इच्छित वस्तु ग्रहण कीजिए' इस प्रकार हमारे स्वामी भक्तिपूर्वक प्रार्थना करते हैं सो उनके घर पधारिए ॥40॥ अन्य साधारण मनुष्यों के द्वारा निर्मित अपथ्य, विवर्ण और विरस भोजन से आपको क्या प्रयोजन है ॥41॥ हे महासाधो ! आओ प्रसन्नता करो, और इच्छानुसार निराकुलता पूर्वक अभिलषित आहार ग्रहण करो ।।42॥ ऐसा कहकर भिक्षा देने के लिए उद्यत उत्तम स्त्रियों को राजा के सिपाहियों ने दूर हटा दिया जिससे उनके चित्त विषाद युक्त हो गये ॥43॥ इस तरह उपचार की विधि से उत्पन्न हुआ अंतराय जानकर मुनिराज, राजा तथा नगरवासी दोनों के अन्न से विमुख हो गये ॥44॥ तदनंतर अत्यंत यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले मुनिराज जब नगरी से वापिस लौट गये तब लोगों में पहले की अपेक्षा अत्यधिक क्षोभ हो गया ॥45॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिन्होंने इंद्रिय संबंधी सुख का त्याग कर दिया था ऐसे मुनिराज ने समस्त मनुष्यों को उत्कंठा से व्याकुल हृदय कर सघन वन में चले गये और वहाँ उन्होंने रात्रि भर के लिए प्रतिमा योग धारण कर लिया अर्थात् सारी रात कायोत्सर्ग से खड़े रहे ॥46॥ सुंदर चेष्टाओं के धारक नेत्रों को हरण करने वाले तथा पुरुषों में सूर्य समान उन वैसे मुनिराज को देखने के बाद जब पुनः वियोग होता था तब तिर्यंच भी अत्यधिक अधीरता को प्राप्त हो जाते थे ।।47॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध श्री रविषेणाचार्य द्वारा प्रणीत पद्मपुराण में नगर के क्षोभ का वर्णन करने वाला एक सौ बीसवां पर्व समाप्त हुआ ॥120॥