अनुप्रेक्षा: Difference between revisions
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/2/409</span> <p class="SanskritText">शरीरादीनां स्वभावानुचिंतनमनुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/2/409</span> <p class="SanskritText">शरीरादीनां स्वभावानुचिंतनमनुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 8/2,4/591/34)</span></p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/25/443</span> <p class="SanskritText">अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/25/443</span> <p class="SanskritText">अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= जाने हुए अर्थ का मन में अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जाने हुए अर्थ का मन में अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/25,3/624)</span> <span class="GRef">(तत्त्वार्थसार अधिकार 7/20)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 153/3)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 7/86/715)</span>।</p> | ||
धवला पुस्तक 9/4,1,55/263/1 <p class="PrakritText">कम्मणिज्जरणट्ठमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्खणा णाम। </p> | धवला पुस्तक 9/4,1,55/263/1 <p class="PrakritText">कम्मणिज्जरणट्ठमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्खणा णाम। </p> | ||
<p class="HindiText">= कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूप से हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षा है।</p> | <p class="HindiText">= कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूप से हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षा है।</p> | ||
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<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7</span> <p class="SanskritText">अनित्याशरणसंसारे कत्वांयत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः ॥7॥ </p> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7</span> <p class="SanskritText">अनित्याशरणसंसारे कत्वांयत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः ॥7॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं। </p> | <p class="HindiText">= अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( बारसाणुवेक्खा गाथा 2)</span> <span class="GRef">(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 692)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 1,7/14/40/14)</span> <span class="GRef">( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/43-44)</span> <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/101)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1715/1547</span> <p class="PrakritText">अद्धुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधि च चिंतिज्ज॥ </p> | <span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1715/1547</span> <p class="PrakritText">अद्धुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधि च चिंतिज्ज॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाओं को भी चिंतन करना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाओं को भी चिंतन करना चाहिए।</p> | ||
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<p class="HindiText">2. व्यवहार</p> | <p class="HindiText">2. व्यवहार</p> | ||
<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 6</span> <p class="PrakritText">जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घ। भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥6॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 6</span> <p class="PrakritText">जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घ। भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥6॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= जब क्षीर नीर वत जीव के साथ निबद्ध यह शरीर ही शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगपभोग के कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं। | <p class="HindiText">= जब क्षीर नीर वत जीव के साथ निबद्ध यह शरीर ही शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगपभोग के कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं। <span class="GRef">(भूधरकृत 12 भावनाएँ)</span> <span class="GRef">(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/413</span><p class="SanskritText"> इमानि शरीरेंद्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जलबुद्बुद्वदनवस्थितस्वभावानिगर्भादिष्ववस्थाविशेषेषुसदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचिंत्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिंतनमनुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/413</span><p class="SanskritText"> इमानि शरीरेंद्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जलबुद्बुद्वदनवस्थितस्वभावानिगर्भादिष्ववस्थाविशेषेषुसदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचिंत्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिंतनमनुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= ये समुदाय रूप शरीर, इंद्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुद्बुद्के समान अनवस्थित स्वभाव वाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होने वाले संयोगों से विपरीत स्वभाव वाले होते हैं। मोह वश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिंतन करना '''अनित्यानुप्रेक्षा''' है। </p> | <p class="HindiText">= ये समुदाय रूप शरीर, इंद्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुद्बुद्के समान अनवस्थित स्वभाव वाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होने वाले संयोगों से विपरीत स्वभाव वाले होते हैं। मोह वश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिंतन करना '''अनित्यानुप्रेक्षा''' है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1716-1728/1543)</span> <span class="GRef">(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 693-694)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/9)</span> <span class="GRef">( पद्मनंदी पंचविंशतिका/3 संपूर्ण)</span> <span class="GRef">( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/45)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 178/1)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/58-59/609)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.4"><strong>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा – </strong></p> | <p class="HindiText" id="1.4"><strong>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा – </strong></p> | ||
<p class="HindiText">1. निश्चय</p> | <p class="HindiText">1. निश्चय</p> | ||
<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 13</span> <p class="PrakritText">अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होइ बाहिरं दव्वं। णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥23॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 13</span> <p class="PrakritText">अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होइ बाहिरं दव्वं। णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥23॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपने से जुदा हैं और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिंतवन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपने से जुदा हैं और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिंतवन करना चाहिए। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(समयसार / मूल या टीका गाथा 27, 38)</span> <span class="GRef">( समयसार / कलश /5)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 </span><p class="SanskritText">शरीरादंयत्वचिंतनमंयत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बंधं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादंयोऽहमैंद्रियकं शरीरमतींद्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यंतवच्छरीरमनाद्यंतोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमंग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 </span><p class="SanskritText">शरीरादंयत्वचिंतनमंयत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बंधं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादंयोऽहमैंद्रियकं शरीरमतींद्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यंतवच्छरीरमनाद्यंतोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमंग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। </p> | ||
<p class="HindiText">= शरीर से अन्यत्व का चिंतन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बंध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐंद्रियक है, मैं अतींद्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । शरीर आदि अंत वाला है और मैं अनाद्यनंत हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती। </p> | <p class="HindiText">= शरीर से अन्यत्व का चिंतन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बंध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐंद्रियक है, मैं अतींद्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । शरीर आदि अंत वाला है और मैं अनाद्यनंत हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1754)</span> <span class="GRef">(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 700/702)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/31)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 170/4)</span> <span class="GRef">(पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/49/210)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/66-67/6/9)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29</span> <p class="SanskritText">अन्यत्वं चतुर्धाव्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालंबनेन। आत्मा जीव इति नामभेदः, काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेदः, जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति द्रव्यभेदः, एकस्मिन्नपि द्रव्यै बालो युवा मनुष्यो देव इति भावभेदः। तत्र बंधं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्यत्वम्। </p> | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29</span> <p class="SanskritText">अन्यत्वं चतुर्धाव्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालंबनेन। आत्मा जीव इति नामभेदः, काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेदः, जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति द्रव्यभेदः, एकस्मिन्नपि द्रव्यै बालो युवा मनुष्यो देव इति भावभेदः। तत्र बंधं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्यत्वम्। </p> | ||
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<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108</span> <p class="SanskritText">देहबंधुजनसुवर्णाद्यर्थेंद्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि....निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि। तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। ...इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा....॥ </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108</span> <p class="SanskritText">देहबंधुजनसुवर्णाद्यर्थेंद्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि....निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि। तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। ...इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा....॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= देह, बंधुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इंद्रिय सुख आदि कर्मों के आधीन होने से विनश्वर हैं। निश्चय नय से निज परमात्म पदार्थ से अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= देह, बंधुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इंद्रिय सुख आदि कर्मों के आधीन होने से विनश्वर हैं। निश्चय नय से निज परमात्म पदार्थ से अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1755-1767/1547)</span> <span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 4)</span> <span class="GRef">(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)</span>।</p><br> | ||
<p class="HindiText" id="1.5"><strong>5. अशरणानुप्रेक्षा – </strong></p> | <p class="HindiText" id="1.5"><strong>5. अशरणानुप्रेक्षा – </strong></p> | ||
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<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 11 </span><p class="PrakritText">जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥11॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 11 </span><p class="PrakritText">जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥11॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदि से आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तव में जो कर्मों की बंध, उदय और सत्ता अवस्था से जुदा है, वह आत्मा ही इस संसार में शरण है। अर्थात् संसार में अपने आत्मा के सिवाय अपना और कोई रक्षा करने वाला नहीं है। यह स्वयं ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादि के कष्टों से बच सकता है। </p> | <p class="HindiText">= जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदि से आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तव में जो कर्मों की बंध, उदय और सत्ता अवस्था से जुदा है, वह आत्मा ही इस संसार में शरण है। अर्थात् संसार में अपने आत्मा के सिवाय अपना और कोई रक्षा करने वाला नहीं है। यह स्वयं ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादि के कष्टों से बच सकता है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31)</span> <span class="GRef">( समयसार / मूल या टीका गाथा 74)</span></p><br> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 30</span><p class="PrakritText"> दंसणणाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 30</span><p class="PrakritText"> दंसणणाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= हे भव्य! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शरण हैं। परम श्रद्धा के साथ उन्हीं का सेवन कर। संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है। </p> | <p class="HindiText">= हे भव्य! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शरण हैं। परम श्रद्धा के साथ उन्हीं का सेवन कर। संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1746)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102-103</span><p class="SanskritText"> अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरंगसहकारिकारणभूतं पंचपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेंद्रचक्रवर्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमंत्राज्ञाप्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवंतीति विज्ञेयम्। तद्विज्ञाय भागाकांक्षारूपनिदानबंधादिनिरालंबने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलंबने स्वशुद्धात्मन्येवालंबनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणगतवज्रपंजरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता। </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102-103</span><p class="SanskritText"> अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरंगसहकारिकारणभूतं पंचपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेंद्रचक्रवर्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमंत्राज्ञाप्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवंतीति विज्ञेयम्। तद्विज्ञाय भागाकांक्षारूपनिदानबंधादिनिरालंबने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलंबने स्वशुद्धात्मन्येवालंबनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणगतवज्रपंजरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता। </p> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 </span><p class="SanskritText">यथा-मृगशावस्यैकांते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जंतोः शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवांतरमनुगच्छंति। संविभक्तसुखदुःखा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायंते। बांधवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयंति। अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिंचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414 </span><p class="SanskritText">यथा-मृगशावस्यैकांते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जंतोः शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवांतरमनुगच्छंति। संविभक्तसुखदुःखा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायंते। बांधवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयंति। अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिंचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= जैसे हिरण के बच्चे को अकेले में भूखे मांस के अभिलाषी व बलवान् व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए का कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढ़ापा, मरण, पीड़ा इत्यादि विपत्ति के बीच में भ्रमते हुए जीव का कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते तांई सहाय करने वाला होता है न कि कष्ट आने पर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोक को नहीं जाता है। सुख-दुःख में भागी मित्र भी मरण समय में रक्षा नहीं करते हैं। इकट्ठे हुए कुटुंबी रोग ग्रसित का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बड़े समुद्र में तरणे का उपाय होता है। कालकरि ग्रहण किये हुए का इंद्रादिक भी शरण नहीं होते हैं। इसलिए भवरूपी विपत्ति में वा कष्ट में धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिंतवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जैसे हिरण के बच्चे को अकेले में भूखे मांस के अभिलाषी व बलवान् व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए का कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढ़ापा, मरण, पीड़ा इत्यादि विपत्ति के बीच में भ्रमते हुए जीव का कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते तांई सहाय करने वाला होता है न कि कष्ट आने पर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोक को नहीं जाता है। सुख-दुःख में भागी मित्र भी मरण समय में रक्षा नहीं करते हैं। इकट्ठे हुए कुटुंबी रोग ग्रसित का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बड़े समुद्र में तरणे का उपाय होता है। कालकरि ग्रहण किये हुए का इंद्रादिक भी शरण नहीं होते हैं। इसलिए भवरूपी विपत्ति में वा कष्ट में धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिंतवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 695-697)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,2/600/15)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 178/4)</span> <span class="GRef">( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/46)</span> <span class="GRef">( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/60-61/612)</span> <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा /35/103)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.6"><strong>6. अशुचित्वानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | <p class="HindiText" id="1.6"><strong>6. अशुचित्वानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | ||
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<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 46 </span><p class="PrakritText">देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥46॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 46 </span><p class="PrakritText">देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥46॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= वास्तव में आत्मा देह से जुदा है, कर्मों से रहित है, अनंत सुखों का घर है, इसलिए शुद्ध है, इस प्रकार निरंतर भावना करते रहना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= वास्तव में आत्मा देह से जुदा है, कर्मों से रहित है, अनंत सुखों का घर है, इसलिए शुद्ध है, इस प्रकार निरंतर भावना करते रहना चाहिए। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 18)</span> <span class="GRef">(श्रीमद् कृत 12 भावनाएँ)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/109</span> <p class="SanskritText">सप्तधातुमयत्वेन तथा नास्रिकादिनवरंध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। ...निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः। ...`ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। ...विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगंगादितीर्थे स्नानादिकम्। ...इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता। </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/109</span> <p class="SanskritText">सप्तधातुमयत्वेन तथा नास्रिकादिनवरंध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। ...निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः। ...`ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। ...विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगंगादितीर्थे स्नानादिकम्। ...इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/16 </span><p class="SanskritText">शरीरमिदमत्यंताशुचियोनिशुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वंमात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यंदिस्रोतोबिलमंगारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात। स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य। सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यंतिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/16 </span><p class="SanskritText">शरीरमिदमत्यंताशुचियोनिशुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वंमात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यंदिस्रोतोबिलमंगारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात। स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य। सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यंतिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= यह शरीर अत्यंत अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणित रूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि के प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्र से आच्छादित है। अति दुर्गंधित रस को बहाने वाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन, धूप, मालिश और सुगंधित माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किंतु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदि जीव की आत्यंतिक शुद्धि को प्रगट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूप से चिंतन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= यह शरीर अत्यंत अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणित रूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि के प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्र से आच्छादित है। अति दुर्गंधित रस को बहाने वाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन, धूप, मालिश और सुगंधित माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किंतु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदि जीव की आत्यंतिक शुद्धि को प्रगट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूप से चिंतन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1816-1820)</span> <span class="GRef">( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 37-42)</span> <span class="GRef">( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 720-723)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 190/6)</span> <span class="GRef">(पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/50)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/68-69)</span> <span class="GRef"> समयसार नाटक 4</span> <span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 6)</span> <span class="GRef">(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)</span> (और भी देखो अशुचि के भेद)।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.7"><strong>7. आस्रवानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | <p class="HindiText" id="1.7"><strong>7. आस्रवानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | ||
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<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 60</span> <p class="PrakritText">पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मक्कं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥60॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 60</span> <p class="PrakritText">पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मक्कं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥60॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= पूर्वोक्त आस्रव मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नय से जीव के नहीं होते हैं। इसलिए निरंतर ही आत्मा के द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित चिंतवन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= पूर्वोक्त आस्रव मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नय से जीव के नहीं होते हैं। इसलिए निरंतर ही आत्मा के द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित चिंतवन करना चाहिए। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(समयसार / मूल या टीका गाथा 51)</span> <span class="GRef">(समयसार / आत्मख्याति गाथा 178/कलश 120)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText">2. व्यवहार</p> | <p class="HindiText">2. व्यवहार</p> | ||
<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 59</span> <p class="PrakritText">पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥59॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 59</span> <p class="PrakritText">पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥59॥ </p> | ||
Line 172: | Line 172: | ||
<p class="HindiText">= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इंद्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इंद्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोक में, वध, बंध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करती हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिंतवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। </p><br> | <p class="HindiText">= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इंद्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इंद्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोक में, वध, बंध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करती हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिंतवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। </p><br> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1821-1835)</span> <span class="GRef">(समयसार / मूल या टीका गाथा 164-165)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/22)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 193/2)</span> <span class="GRef">(पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/51)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/70-71)</span> <span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 7)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110</span> <p class="SanskritText"> इंद्रियाणि....कषाया....पंचाव्रतानि....पंचविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिंतनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति। </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110</span> <p class="SanskritText"> इंद्रियाणि....कषाया....पंचाव्रतानि....पंचविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिंतनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति। </p> | ||
<p class="HindiText">= पाँच इंद्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्म जल के प्रवेश हो जाने पर संसार समुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिंतवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= पाँच इंद्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्म जल के प्रवेश हो जाने पर संसार समुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिंतवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।</p> | ||
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<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 20</span> <p class="PrakritText">एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो। सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥20॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 20</span> <p class="PrakritText">एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो। सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥20॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= मैं अकेला हूँ, ममता रहित हूँ, शुद्ध हूँ, और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्ध एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरंतर चिंतवन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= मैं अकेला हूँ, ममता रहित हूँ, शुद्ध हूँ, और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्ध एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरंतर चिंतवन करना चाहिए। </p> | ||
<p><span class="GRef">समयसार / मूल या टीका गाथा 73</span> | <p><span class="GRef">समयसार / मूल या टीका गाथा 73</span> <span class="GRef">(सामायिक पाठ अमितगति 27)</span> <span class="GRef">( समयसार नाटक/33)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 43/107</span> <p class="SanskritText">निश्चयेन.....केवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम्।....न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम्।....निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी न च पुत्रकलत्रादि। ....स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थ न च सुवर्णाद्यर्थाः.....स्वभावात्मसुखमेवैक सुखं न चाकुलत्वोत्पादेंद्रियसुखमिति। ......स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति।....एवं एकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरंतरं निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या। इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता। </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 43/107</span> <p class="SanskritText">निश्चयेन.....केवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम्।....न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम्।....निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी न च पुत्रकलत्रादि। ....स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थ न च सुवर्णाद्यर्थाः.....स्वभावात्मसुखमेवैक सुखं न चाकुलत्वोत्पादेंद्रियसुखमिति। ......स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति।....एवं एकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरंतरं निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या। इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
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<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 14</span> <p class="PrakritText">एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दोहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥14॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 14</span> <p class="PrakritText">एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दोहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥14॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बांधता है, अकेला ही अनादि संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है। </p> | <p class="HindiText">= यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बांधता है, अकेला ही अनादि संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 699)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415</span> <p class="SanskritText">जन्मजरामरणावृत्तिमहादुःखानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वःपरो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम्। एक एव म्रिये। न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति। बंधुमित्राणि श्मशानं नातिवर्तंते धर्म एव मे सहायः सदा अनपायीति चिंतनमेकत्वानुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415</span> <p class="SanskritText">जन्मजरामरणावृत्तिमहादुःखानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वःपरो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम्। एक एव म्रिये। न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति। बंधुमित्राणि श्मशानं नातिवर्तंते धर्म एव मे सहायः सदा अनपायीति चिंतनमेकत्वानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= जन्म, जरा, मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याधि जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता। बंधु और मित्र श्मशान से आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़ने वाला सदाकाल सहायक है। इस प्रकार चिंतवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जन्म, जरा, मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याधि जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता। बंधु और मित्र श्मशान से आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़ने वाला सदाकाल सहायक है। इस प्रकार चिंतवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( भगवती आराधना 1747-1751)</span> <span class="GRef">( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 698)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 187/2)</span> <span class="GRef">(पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/48 तथा संपूर्ण अधिकार स. 4, श्लोक सं. 29)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/64-65)</span> <span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 3)</span> <span class="GRef">(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.9"><strong>9. धर्मानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | <p class="HindiText" id="1.9"><strong>9. धर्मानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | ||
Line 209: | Line 209: | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419</span> <p class="SanskritText">अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूलः। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालंबनः। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमंति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवंतः। अस्य पुनः प्रतिलंभे विविधभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिंतनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419</span> <p class="SanskritText">अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूलः। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालंबनः। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमंति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवंतः। अस्य पुनः प्रतिलंभे विविधभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिंतनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= जिनेंद्रदेव ने जो अहिंसा लक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलंबन है। इसकी प्राप्ति नहीं होने से दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसार में परिभ्रमण करते हैं। परंतु इसका लाभ होने पर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिंतन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जिनेंद्रदेव ने जो अहिंसा लक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलंबन है। इसकी प्राप्ति नहीं होने से दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसार में परिभ्रमण करते हैं। परंतु इसका लाभ होने पर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिंतन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1857-1865)</span> <span class="GRef">( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 750-754)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/3)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 201/2)</span> <span class="GRef">(पंद्मनन्दि पंचविंशतिका.6/56)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/80/633)</span> <span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 12)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/145</span> <p class="SanskritText">चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये....दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा....विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानंतसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिंतामणिरिति।....इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा गता। </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/145</span> <p class="SanskritText">चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये....दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा....विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानंतसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिंतामणिरिति।....इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
<p class="HindiText">= चौरासी लाख योनियों में दुःखों को सहते हुए भ्रमण करते इस जीव को जब इस प्रकार के पूर्वोक्त धर्म की प्राप्ति होती है तब वह विविध प्रकार के अभ्युदय सुखों को पाकर, तदनंतर अभेद रत्नत्रय की भावना के बल से अक्षयानंत सुखादि गुणों का स्थानभूत अर्हंतपद और सिद्ध पद को प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रस का रसायन है, धर्म ही निधियों का भंडार है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म ही चिंतामणि है....इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई। </p> | <p class="HindiText">= चौरासी लाख योनियों में दुःखों को सहते हुए भ्रमण करते इस जीव को जब इस प्रकार के पूर्वोक्त धर्म की प्राप्ति होती है तब वह विविध प्रकार के अभ्युदय सुखों को पाकर, तदनंतर अभेद रत्नत्रय की भावना के बल से अक्षयानंत सुखादि गुणों का स्थानभूत अर्हंतपद और सिद्ध पद को प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रस का रसायन है, धर्म ही निधियों का भंडार है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म ही चिंतामणि है....इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.10"><strong>10. निर्जरानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | <p class="HindiText" id="1.10"><strong>10. निर्जरानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | ||
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<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/112</span> <p class="SanskritText">निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैर्वर्त्तत इति। ....इति निर्जरानुप्रेक्षा गता। </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/112</span> <p class="SanskritText">निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैर्वर्त्तत इति। ....इति निर्जरानुप्रेक्षा गता। </p> | ||
<p class="HindiText">= निज परमात्मानुभूति के बल से निर्जरा करने के लिए दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षादि रूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई। </p> | <p class="HindiText">= निज परमात्मानुभूति के बल से निर्जरा करने के लिए दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षादि रूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(समयसार / आत्मख्याति गाथा 193 उत्थानिका रूप कलश, 133)</span></p><br> | ||
<p class="HindiText">2. व्यवहार</p> | <p class="HindiText">2. व्यवहार</p> | ||
<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 67</span> <p class="PrakritText">सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा। चादुगदीण पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥67॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 67</span> <p class="PrakritText">सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा। चादुगदीण पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥67॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= उपरोक्त निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियों के होती है। </p> | <p class="HindiText">= उपरोक्त निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियों के होती है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 10)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/417 </span><p class="SanskritText">निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम्। सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबंधा। परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबंधा निरनुबंधा चेति। इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुपेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/417 </span><p class="SanskritText">निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम्। सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबंधा। परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबंधा निरनुबंधा चेति। इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुपेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= वेदना विपाक का नाम निर्जरा है, यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, वह अकुशलानुबंधा है। तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबंधा और निरनुबंधा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषों का चिंतवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= वेदना विपाक का नाम निर्जरा है, यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, वह अकुशलानुबंधा है। तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबंधा और निरनुबंधा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषों का चिंतवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1845-1856)</span> <span class="GRef">( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 744-749)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/11)</span> <span class="GRef">( पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/53 )</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/74-75/627)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.11"><strong>11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | <p class="HindiText" id="1.11"><strong>11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/418</span> <p class="SanskritText">एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवा सिद्धानामनंतगुणाः। एवं सर्वलोको निरंतरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेंद्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पंचेंद्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः। तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेंद्रियसंपंनोरोगत्वांयुत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि। सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलंभो यदि न स्याद् व्यर्थं जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेवं कृच्छुलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रंजनं भस्मार्थं चंदनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधिर्दुरवापः। तस्मिन् सति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिंतनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/418</span> <p class="SanskritText">एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवा सिद्धानामनंतगुणाः। एवं सर्वलोको निरंतरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेंद्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पंचेंद्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः। तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेंद्रियसंपंनोरोगत्वांयुत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि। सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलंभो यदि न स्याद् व्यर्थं जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेवं कृच्छुलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रंजनं भस्मार्थं चंदनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधिर्दुरवापः। तस्मिन् सति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिंतनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनंत गुणे जीव हैं। इस प्रकार के स्थावर जीवों से सर्वलोक निरंतर भरा हुआ है। अतः इस लोक में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुका के समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेंद्रिय जीवों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेंद्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहे पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इंद्रिय, संपत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जाने पर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषय सुखमें रममाण होना भस्म के लिए चंदन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषय सुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनंत गुणे जीव हैं। इस प्रकार के स्थावर जीवों से सर्वलोक निरंतर भरा हुआ है। अतः इस लोक में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुका के समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेंद्रिय जीवों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेंद्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहे पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इंद्रिय, संपत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जाने पर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषय सुखमें रममाण होना भस्म के लिए चंदन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषय सुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1866-1873)</span> <span class="GRef">(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 755-762)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 198/4)</span> <span class="GRef">(पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/55)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/78-79/631)</span> <span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 11)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/144</span> <p class="SanskritText">कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति आर्यत्वतत्त्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिर्दुर्लभः। तस्मात्स एव निरंतरं भावनीयः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवांतरप्रापणं समाधिरिति। एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता॥ </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/144</span> <p class="SanskritText">कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति आर्यत्वतत्त्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिर्दुर्लभः। तस्मात्स एव निरंतरं भावनीयः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवांतरप्रापणं समाधिरिति। एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता॥ </p> | ||
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<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 42 </span><p class="PrakritText">असुहेण णिरयतिरियं सुहउपजोगेग दिविजणरसोक्ख। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥42॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 42 </span><p class="PrakritText">असुहेण णिरयतिरियं सुहउपजोगेग दिविजणरसोक्ख। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥42॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= यह जीव अशुभ विचारों से नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभ विचारों से देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध विचारों से मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावना का चिंतन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= यह जीव अशुभ विचारों से नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभ विचारों से देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध विचारों से मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावना का चिंतन करना चाहिए। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 76, 77, 88)</span> <span class="GRef">(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1798/1614/18 </span><p class="SanskritText">यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते।...सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात्। </p> | <span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1798/1614/18 </span><p class="SanskritText">यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते।...सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात्। </p> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 </span><p class="SanskritText">लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। समंतादनंतस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। तत्स्वभावानुचिंतनं लोकानुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418 </span><p class="SanskritText">लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। समंतादनंतस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। तत्स्वभावानुचिंतनं लोकानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= लोक का आकार व प्रकृति आदि की विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारों ओर से अनंत अलोकाकाश के बहुमध्य देश में स्थित लोक के आकारादिक्की विधि कह दी गयी। इसके स्वभाव का अनुचिंतन करना लोकानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= लोक का आकार व प्रकृति आदि की विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारों ओर से अनंत अलोकाकाश के बहुमध्य देश में स्थित लोक के आकारादिक्की विधि कह दी गयी। इसके स्वभाव का अनुचिंतन करना लोकानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 711-714)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 196/4)</span> <span class="GRef">(पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/54)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/76-77)</span> <span class="GRef">(भूधरकृत भावना सं. 5)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.13"><strong>13. संवरानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | <p class="HindiText" id="1.13"><strong>13. संवरानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | ||
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<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 65</span> <p class="PrakritText">जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥65॥ </p> | <span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 65</span> <p class="PrakritText">जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥65॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= शुद्ध निश्चय नय से जीव के संवर ही नहीं है इसलिए संवर के विकल्प से रहित आत्मा का निरंतर चिंतवन करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= शुद्ध निश्चय नय से जीव के संवर ही नहीं है इसलिए संवर के विकल्प से रहित आत्मा का निरंतर चिंतवन करना चाहिए। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( समयसार / 181/कलश 127)</span></p><br> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/111</span> <p class="SanskritText">अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते-यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झंपने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति। तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इंद्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झंपने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनंतगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोति। एवं संवरगतगुणानुचिंतनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या। </p> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/111</span> <p class="SanskritText">अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते-यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झंपने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति। तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इंद्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झंपने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनंतगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोति। एवं संवरगतगुणानुचिंतनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या। </p> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417</span> <p class="SanskritText">यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात्स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशांतरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबंधः इति सवरगुणानुचिंतनं संवरानुप्रेक्षा। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417</span> <p class="SanskritText">यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात्स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशांतरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबंधः इति सवरगुणानुचिंतनं संवरानुप्रेक्षा। </p> | ||
<p class="HindiText">= जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं रुके रहने पर क्रम से झिरे हुए जल से उसके व्याप्त होने पर उसके आश्रय पर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यंभावी है और छिद्र के रुके रहने पर निरुपद्रव रूप से अभिलषित देशांतर का प्राप्त होना अवश्यंभावी है। उसी प्रकार कर्मागम द्वार के रुके होने पर कल्याण का प्रतिबंध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिंतवन करना संवरानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं रुके रहने पर क्रम से झिरे हुए जल से उसके व्याप्त होने पर उसके आश्रय पर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यंभावी है और छिद्र के रुके रहने पर निरुपद्रव रूप से अभिलषित देशांतर का प्राप्त होना अवश्यंभावी है। उसी प्रकार कर्मागम द्वार के रुके होने पर कल्याण का प्रतिबंध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिंतवन करना संवरानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1836-1844)</span> <span class="GRef">( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 738-743)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/32)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 196/2)</span> <span class="GRef">(पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/52)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/72-73)</span> <span class="GRef">(भूधरकृत 12 भावनाएँ)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText" id="1.14"><strong>14. संसारानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | <p class="HindiText" id="1.14"><strong>14. संसारानुप्रेक्षा – </strong></p><br> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415</span> <p class="SanskritText">कर्मविपाकवशादात्मनो भवांतरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पंचविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयंत्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रंगे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिंतनमनुप्रेक्षा </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415</span> <p class="SanskritText">कर्मविपाकवशादात्मनो भवांतरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पंचविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयंत्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रंगे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिंतनमनुप्रेक्षा </p> | ||
<p class="HindiText">= कर्म विपाक के वश से आत्मा को भवांतर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूप से व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटि लाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्म यंत्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिंतन करना संसारानुप्रेक्षा है। </p> | <p class="HindiText">= कर्म विपाक के वश से आत्मा को भवांतर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूप से व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटि लाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्म यंत्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिंतन करना संसारानुप्रेक्षा है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1768-1797)</span> <span class="GRef">(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 703-710)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7, 3/600-601)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ /186/5)</span> <span class="GRef">(पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/47)</span> <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 6/62-65)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/600/28</span> <p class="SanskritText">चतुर्विधात्मावस्था:-संसारः असंसारः नोसंसारः तत्त्रितयव्यपायश्चेति। तत्र संसारश्चतमृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम्। अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा। नोसंसारः सयोगकेवलिनः चतुर्गतिभ्रमणाभावात् असंसारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसारः इति। अयोगकेवलिनः तत्त्रितयव्यपायः। अभव्यत्वसामान्यापेक्षया संसारोऽनाद्यनंतः, भव्यविशेषापेक्षया अनादिपर्यवसानः। (नोसंसारो जघंयेनांतर्मुहूर्तः, उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिलक्षः सादिः सपर्यवसानः संसारो जघंयेनांतर्मुहूर्तः उत्कृष्टेनार्धपुद्गलपरावर्तनकालः स च संसारो द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात् पंचविधो॥ ( चारित्रसार पृष्ठ )। </p> | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/600/28</span> <p class="SanskritText">चतुर्विधात्मावस्था:-संसारः असंसारः नोसंसारः तत्त्रितयव्यपायश्चेति। तत्र संसारश्चतमृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम्। अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा। नोसंसारः सयोगकेवलिनः चतुर्गतिभ्रमणाभावात् असंसारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसारः इति। अयोगकेवलिनः तत्त्रितयव्यपायः। अभव्यत्वसामान्यापेक्षया संसारोऽनाद्यनंतः, भव्यविशेषापेक्षया अनादिपर्यवसानः। (नोसंसारो जघंयेनांतर्मुहूर्तः, उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिलक्षः सादिः सपर्यवसानः संसारो जघंयेनांतर्मुहूर्तः उत्कृष्टेनार्धपुद्गलपरावर्तनकालः स च संसारो द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात् पंचविधो॥ ( चारित्रसार पृष्ठ )। </p> | ||
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<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/12</span> <p class="SanskritText">जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥ </p> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/12</span> <p class="SanskritText">जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( ज्ञानार्णव अधिकार 27/4)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 21/99</span> <p class="SanskritText">विषयेष्वनभिष्वंगः कायतत्त्वानुचिंतनम्। जगत्स्वभावचिंत्येति वैराग्यस्थैर्यभावनाः ॥99॥ </p> | <span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 21/99</span> <p class="SanskritText">विषयेष्वनभिष्वंगः कायतत्त्वानुचिंतनम्। जगत्स्वभावचिंत्येति वैराग्यस्थैर्यभावनाः ॥99॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= विषयों में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूप का बार-बार चिंतवन करना और जगत् के स्वभाव का चिंतवन करना ये वैराग्य को स्थिर रखनेवाली भावनाएँ हैं।</p><br> | <p class="HindiText">= विषयों में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूप का बार-बार चिंतवन करना और जगत् के स्वभाव का चिंतवन करना ये वैराग्य को स्थिर रखनेवाली भावनाएँ हैं।</p><br> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्य भव्यस्य चिंतयतस्तेष्वभिष्वंगाभावाद् भुक्तोज्झितगंधमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्य भव्यस्य चिंतयतस्तेष्वभिष्वंगाभावाद् भुक्तोज्झितगंधमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करने वाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोग कर छोड़े हुए गंध और माला आदि के समान वियोग काल में भी संताप नहीं होता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करने वाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोग कर छोड़े हुए गंध और माला आदि के समान वियोग काल में भी संताप नहीं होता है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/600/12)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 22</span><p class="PrakritText"> चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥22॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 22</span><p class="PrakritText"> चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥22॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= हे भव्य जीवो! समस्त विषयों को क्षण भंगुर जानकर महामोह को त्यागो और मन को विषयों के सुख से रहित करो, जिससे उत्तम सुख की प्राप्ति हो। </p> | <p class="HindiText">= हे भव्य जीवो! समस्त विषयों को क्षण भंगुर जानकर महामोह को त्यागो और मन को विषयों के सुख से रहित करो, जिससे उत्तम सुख की प्राप्ति हो। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 178/2)</span></p><br> | ||
<p class="HindiText" id="4.4"><strong>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन</strong></p> | <p class="HindiText" id="4.4"><strong>4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन</strong></p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416</span> <p class="SanskritText">इत्येवं ह्यस्य मनःसमादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वकवैराग्यप्रकर्षे सति आत्यंतिकस्य मोक्षसुखवस्यावाप्तिर्भवति। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416</span> <p class="SanskritText">इत्येवं ह्यस्य मनःसमादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वकवैराग्यप्रकर्षे सति आत्यंतिकस्य मोक्षसुखवस्यावाप्तिर्भवति। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार मन को समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान को भावना पूर्वक वैराग्य की वृद्धि होने पर आत्यंतिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार मन को समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान को भावना पूर्वक वैराग्य की वृद्धि होने पर आत्यंतिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/602/3)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 190/4)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 82</span> <p class="PrakritText">जो जाणिऊण देह जोव-सरूवाद दु, तच्चदोभिण्णं। अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं। </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 82</span> <p class="PrakritText">जो जाणिऊण देह जोव-सरूवाद दु, तच्चदोभिण्णं। अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं। </p> | ||
<p class="HindiText">= जो आत्मस्वरूप को यथार्थ में शरीर से भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है। </p> | <p class="HindiText">= जो आत्मस्वरूप को यथार्थ में शरीर से भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 18/2)</span>।</p><br> | ||
<p class="HindiText" id="4.5"><strong>5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन</strong></p> | <p class="HindiText" id="4.5"><strong>5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन</strong></p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीतिभृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो भवति। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीतिभृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो भवति। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारण भूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान् अर्हंत सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारण भूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान् अर्हंत सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/25)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31</span> <p class="PrakritText">अप्पाणं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31</span> <p class="PrakritText">अप्पाणं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= आत्मा को उत्तम क्षमादि भावों से युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र कषाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है। </p> | <p class="HindiText">= आत्मा को उत्तम क्षमादि भावों से युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र कषाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 180/2)</span>।</p><br> | ||
<p class="HindiText" id="4.6"><strong>6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन</strong></p> | <p class="HindiText" id="4.6"><strong>6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन</strong></p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416</span><p class="SanskritText"> एवं ह्यस्य संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416</span><p class="SanskritText"> एवं ह्यस्य संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विघ्न होकर जन्मोदधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विघ्न होकर जन्मोदधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/17)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 192/6)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 87</span> <p class="PrakritText">जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स। </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 87</span> <p class="PrakritText">जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स। </p> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्य चिंतयतः क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत्सवृतात्मनो न भवंति। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्य चिंतयतः क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत्सवृतात्मनो न भवंति। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतन करनेवाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याण रूप बुद्धि का त्याग नहीं होता तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतन करनेवाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याण रूप बुद्धि का त्याग नहीं होता तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602/30)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 195/5)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा /मूल/94 </span><p class="PrakritText">एदे मोहय-भावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव अणुवेहणं तस्स ॥94॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा /मूल/94 </span><p class="PrakritText">एदे मोहय-भावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव अणुवेहणं तस्स ॥94॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= जो मुनि साम्यभाव में लीन होता हुआ, मोह कर्म के उदय से होने वाले इन पूर्वोक्त भावों को त्यागने के योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आस्रवानुप्रेक्षा है।</p><br> | <p class="HindiText">= जो मुनि साम्यभाव में लीन होता हुआ, मोह कर्म के उदय से होने वाले इन पूर्वोक्त भावों को त्यागने के योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आस्रवानुप्रेक्षा है।</p><br> | ||
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<p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबंध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबंध नहीं होता इसलिए निःसंगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है। </p><br> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबंध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबंध नहीं होता इसलिए निःसंगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है। </p><br> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601/27)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 188/3)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 79 </span><p class="PrakritText">सव्वायरेण जाणह एक्कं जीवं सरीरदो भिन्नं। जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥79॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 79 </span><p class="PrakritText">सव्वायरेण जाणह एक्कं जीवं सरीरदो भिन्नं। जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥79॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो। उस जीव के जान लेने पर क्षण भर में ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।</p><br> | <p class="HindiText">= पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो। उस जीव के जान लेने पर क्षण भर में ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।</p><br> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419</span><p class="SanskritText"> एवं ह्यन्य चिंतयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419</span><p class="SanskritText"> एवं ह्यन्य चिंतयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करने वाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करने वाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/4)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 201/3)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 437</span> <p class="PrakritText">इय पच्चक्खं पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ॥437॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 437</span> <p class="PrakritText">इय पच्चक्खं पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ॥437॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्म का आचरण करो और पाप से दूर हो रहो।</p><br> | <p class="HindiText">= हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्म का आचरण करो और पाप से दूर हो रहो।</p><br> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्यानुस्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्यानुस्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करने वाले इसकी कर्म निर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करने वाले इसकी कर्म निर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/603/3)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 197/2)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 114</span> <p class="PrakritText">जो समसोक्ख-णिलीणो बारंबारं सरेइ अप्पाणं। इदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥114॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 114</span> <p class="PrakritText">जो समसोक्ख-णिलीणो बारंबारं सरेइ अप्पाणं। इदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥114॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= जो मुनि समता-रस में लीन हुआ, बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इंद्रिय और कषाय जीतने वाले उसी के उत्कृष्ट निर्जरा होती है।</p><br> | <p class="HindiText">= जो मुनि समता-रस में लीन हुआ, बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इंद्रिय और कषाय जीतने वाले उसी के उत्कृष्ट निर्जरा होती है।</p><br> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्य भावयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवति। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्य भावयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवति। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी प्रमाद नहीं होता। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी प्रमाद नहीं होता। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603/22)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 301</span> <p class="PrakritText">इय सव्व-दुलह दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च। मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥301॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 301</span> <p class="PrakritText">इय सव्व-दुलह दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च। मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥301॥ </p> | ||
Line 439: | Line 439: | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवति। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवति। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार लोकस्वरूप विचारने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार लोकस्वरूप विचारने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603/6)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 198/3)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 283 </span><p class="PrakritText">एवं लोयसहां जो झायदि उवसमेक्क-सब्भावो। सो खविय कम्म पंजं तिल्लोय-सिहामणी होदि ॥283॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 283 </span><p class="PrakritText">एवं लोयसहां जो झायदि उवसमेक्क-सब्भावो। सो खविय कम्म पंजं तिल्लोय-सिहामणी होदि ॥283॥ </p> | ||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्य भावयतः संसारदुःखभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय प्रयतते। </p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415</span> <p class="SanskritText">एवं ह्यस्य भावयतः संसारदुःखभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय प्रयतते। </p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करते हुए संसार के दुःख के भय से उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है। </p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार चिंतवन करते हुए संसार के दुःख के भय से उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है। </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/601/17)</span>।</p><br> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 73</span> <p class="PrakritText">इय संसारं जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊणं। तं झायह स-सरूवं संसरणं जेण णासेइ ॥73॥ </p> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 73</span> <p class="PrakritText">इय संसारं जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊणं। तं झायह स-सरूवं संसरणं जेण णासेइ ॥73॥ </p> | ||
Line 471: | Line 471: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1">(1) वैराग्य वृद्धि में सहायक बारह भावनाएँ । वे ये हैं—अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । <span class="GRef"> महापुराण 36.159-160, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 14.237-239, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.130, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 25.74-123, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.2-4 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) वैराग्य वृद्धि में सहायक बारह भावनाएँ । वे ये हैं—अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । <span class="GRef"> महापुराण 36.159-160, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#237|पद्मपुराण - 14.237-239]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#130|हरिवंशपुराण - 2.130]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 25.74-123, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11.2-4 </span></p> | ||
<p id="2">(2) स्वाध्याय तप का तीसरा भेद-ज्ञान का मन से अभ्यास अथवा चिंतन करना । देखें [[ स्वाध्याय ]]</p> | <p id="2" class="HindiText">(2) स्वाध्याय तप का तीसरा भेद-ज्ञान का मन से अभ्यास अथवा चिंतन करना । देखें [[ स्वाध्याय ]]</p> | ||
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Latest revision as of 17:15, 18 February 2024
सिद्धांतकोष से
किसी बात को पुनः-पुनः चिंतवन करते रहना अनुप्रेक्षा है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की वृद्धि के अर्थ बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का कथन जैनागम में प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्य भावनाएँ भी कहते हैं। इनके भाने से व्यक्ति शरीर व भोगों से निर्विघ्न होकर साम्य भाव में स्थिति पा सकता है।
1. भेद व लक्षण
1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण
3. अनित्यानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
5. अशरणानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
6. अशुचित्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
7. आस्रवानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
8. एकत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
9. धर्मानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
10. निर्जरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
12. लोकानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
2. अनुप्रेक्षा निर्देश
1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं
2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षा में अंतर
• धर्म ध्यान व अनुप्रेक्षा में अंतर - देखें धर्मध्यान - 3।
3. आस्रव, संवर, निर्जरा-इन भावनाओं की सार्थकता
4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ
• ध्यान में भाने योग्य कुछ भावनाएँ - देखें ध्येय ।
3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन
1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल
2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन
3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन
8. एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन
11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
1. भेद व लक्षण
1. अनुप्रेक्षा सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7
स्वाख्यातत्वानुचिंतनमनुप्रेक्षा।
= बारह प्रकार से कहे गये तत्त्व का पुनः पुनः चिंतन करना अनुप्रेक्षा है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/2/409
शरीरादीनां स्वभावानुचिंतनमनुप्रेक्षा।
= शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिंतन करना अनुप्रेक्षा है।
(राजवार्तिक अध्याय 8/2,4/591/34)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/25/443
अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा।
= जाने हुए अर्थ का मन में अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/25,3/624) (तत्त्वार्थसार अधिकार 7/20) ( चारित्रसार पृष्ठ 153/3) (अनगार धर्मामृत अधिकार 7/86/715)।
धवला पुस्तक 9/4,1,55/263/1
कम्मणिज्जरणट्ठमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्खणा णाम।
= कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूप से हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षा है।
धवला पुस्तक 14/5,6,14/9/5
सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिंतणमणुपेहणं णाम।
= सुने हुए अर्थ का श्रुत के अनुसार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है।
2. अनुप्रेक्षा के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7
अनित्याशरणसंसारे कत्वांयत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः ॥7॥
= अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं।
( बारसाणुवेक्खा गाथा 2) (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 692) (राजवार्तिक अध्याय 1,7/14/40/14) ( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/43-44) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/101)।
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1715/1547
अद्धुवमसरणमेगत्तमण्णत्तसंसारलोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधि च चिंतिज्ज॥
= अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाओं को भी चिंतन करना चाहिए।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29
अन्यत्वं चतुर्धा व्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालंबनेन।
= अन्यत्व नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के आश्रय से चार प्रकार का है।
3. अनित्यानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 7
परमट्ठेण दु आदा देवासुरमणुवरायविविहेहिं। वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदभिदि चितये णिच्च ॥7॥
= शुद्ध निश्चयनय से आत्मा का स्वरूप सदैव इस तरह चिंतवन करना चाहिए कि यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि के विकल्पों से रहित है। अर्थात् इसमें देवादिक भेद नहीं हैं - ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहने वाला है।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/7
उपात्तानुपात्तद्रव्यसंयोगव्यभिचारस्वाभावोऽनित्यत्वम्।
= उपात्त और अनुपात्त द्रव्य संयोगों का व्यभिचारी स्वभाव अनित्य है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102
तत्सर्वमध्रुवमिति भावयितव्यम्। तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशमविनश्वरमात्मान भावयति तादृशमेवाक्षयानंतसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति। इत्यध्रुवानुप्रेक्षा मता।
= (धन स्त्री आदि) सो सब अनित्य हैं, इस प्रकार चिंतवन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के उन स्त्री आदि के वियोग होने पर भी जूठे भोजनों के समान ममत्व नहीं होता। उनमें ममत्व का अभाव होने से अविनाशी निज परमात्मा का ही भेद, अभेद रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है। जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय, अनंत सुख स्वभाव वाली मुक्त आत्मा को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार अध्रुव भावना है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 6
जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घ। भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥6॥
= जब क्षीर नीर वत जीव के साथ निबद्ध यह शरीर ही शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगपभोग के कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं। (भूधरकृत 12 भावनाएँ) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/413
इमानि शरीरेंद्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जलबुद्बुद्वदनवस्थितस्वभावानिगर्भादिष्ववस्थाविशेषेषुसदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचिंत्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिंतनमनुप्रेक्षा।
= ये समुदाय रूप शरीर, इंद्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुद्बुद्के समान अनवस्थित स्वभाव वाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होने वाले संयोगों से विपरीत स्वभाव वाले होते हैं। मोह वश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिंतन करना अनित्यानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1716-1728/1543) (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 693-694) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/9) ( पद्मनंदी पंचविंशतिका/3 संपूर्ण) ( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/45) (चारित्रसार पृष्ठ 178/1) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/58-59/609)।
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 13
अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होइ बाहिरं दव्वं। णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥23॥
= शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपने से जुदा हैं और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिंतवन करना चाहिए।
(समयसार / मूल या टीका गाथा 27, 38) ( समयसार / कलश /5)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415
शरीरादंयत्वचिंतनमंयत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बंधं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादंयोऽहमैंद्रियकं शरीरमतींद्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यंतवच्छरीरमनाद्यंतोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमंग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते।
= शरीर से अन्यत्व का चिंतन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बंध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐंद्रियक है, मैं अतींद्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । शरीर आदि अंत वाला है और मैं अनाद्यनंत हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1754) (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 700/702) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/31) ( चारित्रसार पृष्ठ 170/4) (पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/49/210) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/66-67/6/9)।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/601/29
अन्यत्वं चतुर्धाव्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालंबनेन। आत्मा जीव इति नामभेदः, काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेदः, जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति द्रव्यभेदः, एकस्मिन्नपि द्रव्यै बालो युवा मनुष्यो देव इति भावभेदः। तत्र बंधं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्यत्वम्।
= नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के अवलंबन भेद से अन्यत्व चार प्रकार का है। आत्मा जीव इत्यादि तो नाम भेद या नामों में अन्यत्व है, काष्ठ आदि की प्रतिमाओं में भेद सो स्थापना अन्यत्व है, जीव-अजीव आदि सो द्रव्यों में अन्यत्व है और एक ही द्रव्य में बाल और युवा, मनुष्य या दैव आदिक भेद सो भावों से अन्यत्व है। बंध रूप से एक होते हुए भी लक्षण रूप से इन सब में भेद होना सो अन्यत्व है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 21
मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥
= माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बंधुजनों का समूह अपने कार्य के वश संबंध रखता है, परंतु यथार्थ में जीव का इनसे कोई संबंध नहीं है। अर्थात् ये सब जीव से जुदे हैं।
धम्मपद/5/3
पुत्ता मत्थि धन मत्थि इदि बालो विहंजति। अत्ता हि अत्तनो नत्थि कतो पुत्तो कतो धनं॥
= मेरे पुत्र हैं, मेरा धन है ऐसा अज्ञानीजन कहते हैं। इस संसार में जब शरीर ही अपना नहीं तब पुत्र धनादि कैसे अपने हो सकते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108
देहबंधुजनसुवर्णाद्यर्थेंद्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि....निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि। तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। ...इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा....॥
= देह, बंधुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इंद्रिय सुख आदि कर्मों के आधीन होने से विनश्वर हैं। निश्चय नय से निज परमात्म पदार्थ से अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1755-1767/1547) (भूधरकृत भावना सं. 4) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
5. अशरणानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 11
जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥11॥
= जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदि से आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तव में जो कर्मों की बंध, उदय और सत्ता अवस्था से जुदा है, वह आत्मा ही इस संसार में शरण है। अर्थात् संसार में अपने आत्मा के सिवाय अपना और कोई रक्षा करने वाला नहीं है। यह स्वयं ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादि के कष्टों से बच सकता है।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31) ( समयसार / मूल या टीका गाथा 74)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 30
दंसणणाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥
= हे भव्य! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शरण हैं। परम श्रद्धा के साथ उन्हीं का सेवन कर। संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1746)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/102-103
अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरंगसहकारिकारणभूतं पंचपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेंद्रचक्रवर्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमंत्राज्ञाप्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवंतीति विज्ञेयम्। तद्विज्ञाय भागाकांक्षारूपनिदानबंधादिनिरालंबने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलंबने स्वशुद्धात्मन्येवालंबनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणगतवज्रपंजरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता।
= निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो शुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारी कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, यह दोनों शरण हैं। उनसे भिन्न जो देव, इंद्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भहरा, मणि, मंत्र-तंत्र, आज्ञा, महल और औषध आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरणादि के समय शरणभूत नहीं होते जैसे महावन में व्याघ्र द्वारा पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा समुद्र में जहाज से छूटे पक्षी को कोई शरण नहीं है। अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर आगामी भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध आदि का अवलंबन न लेकर तथा स्वानुभव से उत्पन्न सुख रूप अमृत का धारक निज शुद्धात्मा का ही अवलंबन करके, उस शुद्धात्मा की भावना करता है। जैसी आत्मा को यह शरणभूत भाता है वैसे ही सदा शरणभूत, शरण में आये हुए के लिए वज्र के पिंजरे के समान, निज शुद्धात्मा को प्राप्त होता है। इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ।
2. व्यवहार
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1729
णासदि मदि उदिण्णे कम्मेण य तस्स दीसदि उवाओ। अमदंपि विसं सच्छं तणं पि णीयं विहुंति अरी।
= कर्म का उदय आने पर विचार युक्त बुद्धि नष्ट होती है, अवग्रह इत्यादि रूप मतिज्ञान और आप्त के उपदेश से प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान इन दोनों से मनुष्य प्राणी हित और अहित का स्वरूप जान लेता है। अन्य उपाय से हिताहित नहीं जाना जाता है। असाता वेदनीय कर्म के उदय से अमृत भी विष होता है और तृण भी छुरी का काम देता है, बंधु भी शत्रु हो जाते हैं।
(विस्तार देखें भगवती आराधना मूल या टीका गाथा 1729-1745)
बारसाणुवेक्खा गाथा 8
मणिमतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ। जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥8॥
= मरते समय प्राणियों को तीनों लोकों में मणि, मंत्र, औषध, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएँ, वे कोई भी शरण नहीं है अर्थात् ये सब उन्हें मरने से नहीं बचा सकते।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414
यथा-मृगशावस्यैकांते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जंतोः शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवांतरमनुगच्छंति। संविभक्तसुखदुःखा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायंते। बांधवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयंति। अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिंचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा।
= जैसे हिरण के बच्चे को अकेले में भूखे मांस के अभिलाषी व बलवान् व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए का कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढ़ापा, मरण, पीड़ा इत्यादि विपत्ति के बीच में भ्रमते हुए जीव का कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते तांई सहाय करने वाला होता है न कि कष्ट आने पर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोक को नहीं जाता है। सुख-दुःख में भागी मित्र भी मरण समय में रक्षा नहीं करते हैं। इकट्ठे हुए कुटुंबी रोग ग्रसित का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बड़े समुद्र में तरणे का उपाय होता है। कालकरि ग्रहण किये हुए का इंद्रादिक भी शरण नहीं होते हैं। इसलिए भवरूपी विपत्ति में वा कष्ट में धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिंतवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 695-697) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,2/600/15) (चारित्रसार पृष्ठ 178/4) ( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/46) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 6/60-61/612) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा /35/103)।
6. अशुचित्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 46
देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥46॥
= वास्तव में आत्मा देह से जुदा है, कर्मों से रहित है, अनंत सुखों का घर है, इसलिए शुद्ध है, इस प्रकार निरंतर भावना करते रहना चाहिए।
( मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 18) (श्रीमद् कृत 12 भावनाएँ)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/109
सप्तधातुमयत्वेन तथा नास्रिकादिनवरंध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। ...निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः। ...`ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। ...विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगंगादितीर्थे स्नानादिकम्। ...इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता।
= अपवित्र होने से, सात धातुमय होने से, नाकादि नौ छिद्र द्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र विष्टा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होने से ही यह देह अशुचि नहीं है, किंतु यह शरीर स्वरूप से भी अशुचि है और अशुचि मल आदि का उत्पादक होने से अशुचि है.....निश्चय से अपने आप पवित्र होने से यह परमात्मा (आत्मा) ही शुचि या पवित्र है।....`ब्रह्मचारी सदा शुचि' इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों (आत्मा ही में चर्या करने वाले मुनि) के ही पवित्रता है। जो काम क्रोधादि में लीन जीव हैं उनके जल स्नान आदि करने पर भी पवित्रता नहीं है।....आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगादि तीर्थ में स्नान करना नहीं।....इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का कथन हुआ।
2. व्यवहार
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1813-1815
असुहा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं। एओ चेव सुभी णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥1813॥ इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं। अत्थो अणत्थमूलं महाभयं सुत्तिपडिपंथो ॥1814॥ कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उबधो लोए दुक्खावहा य ण य हुंति ते सुलहा ॥1815॥
= अर्थ व काम पुरुषार्थ तथा सर्व मनुष्यों का देह अशुभ है। एक धर्म ही शुभ है और सर्व सौख्यों का दाता है ॥1813॥ इस लोक और परलोक के दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्य को भोगने पड़ते हैं। अर्थ पुरुषार्थ के वश होकर पुरुष अन्याय करता है, चोरी करता है और राजा से दंडित होता है और परलोक में नरक में नाना दुःखों का अनुभव लेता है, इसलिए अर्थ अर्थात् धन अनर्थ का कारण है। महाभय का कारण है, मोक्ष प्राप्ति के लिए यह अर्गला के समान प्रतिबंध करता है ॥1814॥ यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीर से उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हल्की होती है, इसकी सेवा से आत्मा दुर्गति में दुःख पाती है, यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है। और प्राप्त होने में कठिन है।
बारसाणुवेक्खा गाथा 44
दुग्गंध वीभत्वं कलिमलभरिवं अचेयणा सुत्तं। सडणपडणसहावं देह इदि चिंतये णिच्चं ॥4॥
= यह देह दुर्गंधमय है, डरावनी है, मलमूत्र से भरी हुई है, जड़ है, मूर्तीक है और क्षीण होने वाली है तथा विनाशीक स्वभाववाली है। इस तरह निरंतर इसका विचार करते रहना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/16
शरीरमिदमत्यंताशुचियोनिशुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वंमात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यंदिस्रोतोबिलमंगारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात। स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य। सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यंतिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा।
= यह शरीर अत्यंत अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणित रूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि के प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्र से आच्छादित है। अति दुर्गंधित रस को बहाने वाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन, धूप, मालिश और सुगंधित माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किंतु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदि जीव की आत्यंतिक शुद्धि को प्रगट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूप से चिंतन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1816-1820) ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 37-42) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 720-723) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602) ( चारित्रसार पृष्ठ 190/6) (पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/50) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/68-69) समयसार नाटक 4 (भूधरकृत भावना सं. 6) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ) (और भी देखो अशुचि के भेद)।
7. आस्रवानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 60
पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मक्कं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥60॥
= पूर्वोक्त आस्रव मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नय से जीव के नहीं होते हैं। इसलिए निरंतर ही आत्मा के द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित चिंतवन करना चाहिए।
(समयसार / मूल या टीका गाथा 51) (समयसार / आत्मख्याति गाथा 178/कलश 120)।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 59
पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥59॥
= कर्मों का आस्रव करने वाली क्रिया से परंपरा से भी निर्वाण नहीं हो सकता है। इसलिए संसार में भटकने वाले आस्रव को बुरा समझना चाहिए।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 730
धिद्धी मोहस्स सदा जेण हिदत्थेण मोहिदो संतो। णवि बुज्झदि जिणवयणं हिदसिवसुहकारणं मग्गं ॥730॥
= मोह को सदा काल धिक्कार हो, धिक्कार हो; क्योंकि हृदय में रहने वाले जिस मोह से मोहित हुआ यह जीव हितकारी मोक्ष सुख का कारण ऐसे जिन वचन को नहीं पहचानता।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419
आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रीतोवेगतीक्ष्णा इंद्रियकषायाव्रतादयः तत्रेंद्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतंगहरिणादीन् व्यसनार्णवमगाहयंति तथा कषायोदयोऽपीह वधबंधापयशःपरिक्लेशादीं जनयंति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयंतीत्येवमास्रवदोषानुचिंतनमास्रवानुप्रेक्षा
= आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इंद्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इंद्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोक में, वध, बंध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करती हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिंतवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1821-1835) (समयसार / मूल या टीका गाथा 164-165) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 193/2) (पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 6/51) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/70-71) (भूधरकृत भावना सं. 7)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/110
इंद्रियाणि....कषाया....पंचाव्रतानि....पंचविंशतिक्रिया....रूपास्रवाणां....द्वारैः...... कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति। न च....मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति। एवमास्रवगतदोषानुचिंतनमास्रवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति।
= पाँच इंद्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आस्रवों के द्वारों से कर्म जल के प्रवेश हो जाने पर संसार समुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तन की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार आस्रव के दोषों का पुनः-पुनः चिंतवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।
8. एकत्वानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1752-1753
जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइयो। सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ ॥1752॥ बद्धस्स बंधणे व ण रागो देहम्मि होइ णाणिस्स। धिससरिसेसु ण रागो अत्थेसु महाभयेसु तहा ॥1753॥
= सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात् रत्नत्रय रूप धर्म जो इस जीव ने धारण किया था वही लोक में इसका कल्याण करने वाला सहायक होता है ॥1752॥ रज्जू आदि से बंधा हुआ पुरुष जिस प्रकार उन रज्जू आदि बंधनों में राग नहीं करता है, वैसे ही ज्ञानी जनों के शरीर में स्नेह नहीं होता है। तथा इसी प्रकार विष के समान दुःखद व महाभय प्रदायी अर्थ में अर्थात् धन में भी राग नहीं होता है ॥1753॥
बारसाणुवेक्खा गाथा 20
एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो। सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥20॥
= मैं अकेला हूँ, ममता रहित हूँ, शुद्ध हूँ, और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्ध एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरंतर चिंतवन करना चाहिए।
समयसार / मूल या टीका गाथा 73 (सामायिक पाठ अमितगति 27) ( समयसार नाटक/33)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 43/107
निश्चयेन.....केवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम्।....न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम्।....निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी न च पुत्रकलत्रादि। ....स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थ न च सुवर्णाद्यर्थाः.....स्वभावात्मसुखमेवैक सुखं न चाकुलत्वोत्पादेंद्रियसुखमिति। ......स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति।....एवं एकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरंतरं निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या। इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता।
= निश्चय से केवलज्ञान ही एक सहज या स्वाभाविक शरीर है, सप्तधातुमयी यह औदारिक शरीर नहीं। निजात्म तत्त्व ही एक सदा शाश्वत व परम हितकारी है, पुत्र कलत्रादि नहीं। स्वशुद्धात्म पदार्थ ही एक अविनश्वर व परम हितकारी परम धन है, सुवर्णादि रूप धन नहीं। स्वभावात्म सुख ही एक सुख है, आकुलता उत्पादक इंद्रिय सुख नहीं। स्वशुद्धात्मा ही एक सहायी है। इस प्रकार एकत्व भावना का फल जानकर निरंतर शुद्धात्मा में एकत्व भावना करनी चाहिए। इस प्रकार एकत्व भावना कही गयी।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 14
एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दोहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥14॥
= यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बांधता है, अकेला ही अनादि संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है।
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 699)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415
जन्मजरामरणावृत्तिमहादुःखानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वःपरो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम्। एक एव म्रिये। न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति। बंधुमित्राणि श्मशानं नातिवर्तंते धर्म एव मे सहायः सदा अनपायीति चिंतनमेकत्वानुप्रेक्षा।
= जन्म, जरा, मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याधि जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता। बंधु और मित्र श्मशान से आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़ने वाला सदाकाल सहायक है। इस प्रकार चिंतवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना 1747-1751) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 698) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601) ( चारित्रसार पृष्ठ 187/2) (पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/48 तथा संपूर्ण अधिकार स. 4, श्लोक सं. 29) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/64-65) (भूधरकृत भावना सं. 3) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
9. धर्मानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 82
णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झस्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिच्चं ॥82॥
= जीव निश्चय नय से सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और मुनि धर्म से बिलकुल जुदा है, इसलिए राग-द्वेष रहित परिणामों से शुद्ध स्वरूप आत्मा ही सदा ध्यान करना चाहिए।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,10/603/23
उक्तानि जीवस्थानानि गुणस्थानानि च, तेषां गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु स्वतत्त्वविचारणालक्षणो धर्मः जिनशासने स्वाख्यातः॥
= पूर्वोक्त जीवस्थानों व गुणस्थानों का उन गति आदि मार्गणास्थानों में अन्वेषण करते हुए स्वतत्त्व को विचारणा लक्षण वाला धर्म जिनशासन में भली प्रकार कहा गया है।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 68,81
एयारसदसभेय धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ॥68॥ सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जोवो। सो ण य वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतये णिच्चं ॥81॥
= उत्तम सुख में लीन जिनदेव ने कहा है कि श्रावकों और मुनियों का धर्म जो कि सम्यक्त्व सहित होता है, क्रम से ग्यारह प्रकार का और दस प्रकार का है ॥68॥ जो जीव श्रावक धर्म को छोड़कर मुनियों के धर्म का आचरण करता है, वह मोक्ष को नहीं छोड़ता है, इस प्रकार धर्म भावना का नित्य ही चिंतन करते रहना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419
अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूलः। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालंबनः। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमंति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवंतः। अस्य पुनः प्रतिलंभे विविधभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिंतनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा।
= जिनेंद्रदेव ने जो अहिंसा लक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलंबन है। इसकी प्राप्ति नहीं होने से दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसार में परिभ्रमण करते हैं। परंतु इसका लाभ होने पर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिंतन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है।
( भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1857-1865) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 750-754) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/2) (पंद्मनन्दि पंचविंशतिका.6/56) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/80/633) (भूधरकृत भावना सं. 12)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/145
चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये....दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा....विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानंतसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिंतामणिरिति।....इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा गता।
= चौरासी लाख योनियों में दुःखों को सहते हुए भ्रमण करते इस जीव को जब इस प्रकार के पूर्वोक्त धर्म की प्राप्ति होती है तब वह विविध प्रकार के अभ्युदय सुखों को पाकर, तदनंतर अभेद रत्नत्रय की भावना के बल से अक्षयानंत सुखादि गुणों का स्थानभूत अर्हंतपद और सिद्ध पद को प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रस का रसायन है, धर्म ही निधियों का भंडार है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म ही चिंतामणि है....इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
(श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
10. निर्जरानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
समयसार / मूल या टीका गाथा 198
उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं। ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ॥198॥
= कर्मों के उदय का रस जिनेश्वर देव ने अनेक प्रकार का कहा है। वे कर्म विपाक से हुए भाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो एक ज्ञायक भाव स्वरूप हूँ।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/112
निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैर्वर्त्तत इति। ....इति निर्जरानुप्रेक्षा गता।
= निज परमात्मानुभूति के बल से निर्जरा करने के लिए दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षादि रूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
(समयसार / आत्मख्याति गाथा 193 उत्थानिका रूप कलश, 133)
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 67
सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा। चादुगदीण पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥67॥
= उपरोक्त निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियों के होती है।
(भूधरकृत भावना सं. 10)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/417
निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम्। सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबंधा। परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबंधा निरनुबंधा चेति। इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुपेक्षा।
= वेदना विपाक का नाम निर्जरा है, यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, वह अकुशलानुबंधा है। तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबंधा और निरनुबंधा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषों का चिंतवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1845-1856) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 744-749) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/11) ( पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/53 ) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/74-75/627)।
11. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 83-84
उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स। चिंता हवेइ बोही अच्चंतं दुल्लहं होदि ॥83॥ कम्मुदयजपज्जाया हेयं खाओवसमियणाणं खु। सगदव्वमुवादेयं णिच्छयदो होदि सण्णाणं ॥84॥
= जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय की चिंता करने को अत्यंत दुर्लभबोधि भावना कहते हैं, क्योंकि बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञान का पाना अत्यंत कठिन है ॥83॥ अशुद्ध निश्चयनय से क्षायोपशमिक ज्ञान कर्मों के उदय से, जो कि परद्रव्य है, उत्पन्न होता है, इसलिए हेय अर्थात् त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वद्रव्य है, अर्थात् आत्मा का निज स्वभाव है, इसलिए उपादेय है ॥84॥
2. व्यवहार
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/418
एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवा सिद्धानामनंतगुणाः। एवं सर्वलोको निरंतरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेंद्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पंचेंद्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः। तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेंद्रियसंपंनोरोगत्वांयुत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि। सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलंभो यदि न स्याद् व्यर्थं जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेवं कृच्छुलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रंजनं भस्मार्थं चंदनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधिर्दुरवापः। तस्मिन् सति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिंतनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा।
= एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनंत गुणे जीव हैं। इस प्रकार के स्थावर जीवों से सर्वलोक निरंतर भरा हुआ है। अतः इस लोक में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुका के समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेंद्रिय जीवों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेंद्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहे पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इंद्रिय, संपत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जाने पर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषय सुखमें रममाण होना भस्म के लिए चंदन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषय सुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1866-1873) (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 755-762) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603) (चारित्रसार पृष्ठ 198/4) (पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/55) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/78-79/631) (भूधरकृत भावना सं. 11)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/144
कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति आर्यत्वतत्त्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिर्दुर्लभः। तस्मात्स एव निरंतरं भावनीयः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवांतरप्रापणं समाधिरिति। एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता॥
= यदि काकतालीय न्याय से इन मनुष्य गति, आर्यत्व, तत्त्व श्रवणादि सबकी लब्धि हो जाये तो भी इनकी प्राप्ति रूप जो ज्ञान है, उसमें फलभूत जो शुद्धात्मा के ज्ञान स्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान रूप परम समाधि है, वह दुर्लभ है। ....इसलिए उसको ही निरंतर भावना करनी चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाता है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकों को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना सो समाधि है। ऐसा संक्षेप से बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुआ।
12. लोकानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 42
असुहेण णिरयतिरियं सुहउपजोगेग दिविजणरसोक्ख। सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥42॥
= यह जीव अशुभ विचारों से नरक तथा तिर्यंच गति पाता है, शुभ विचारों से देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध विचारों से मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावना का चिंतन करना चाहिए।
(भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 76, 77, 88) (श्रीमद्कृत 12 भावनाएँ)।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1798/1614/18
यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते।...सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात्।
= यद्यपि (नाम, स्थापनादि विकल्पों से) लोक के अनेक भेद हैं तथापि यहाँ लोक शब्द से जीव द्रव्य लोक ही ग्राह्य है क्योंकि जीव के धर्म प्रवृत्ति का यहाँ क्रम कहा गया है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/143
आदिमध्यांतमुक्ते शुद्धबुद्धैकस्वभावे परमात्मनि सकलविमलकेवलज्ञानलोचनादर्शे बिंबानीव शुद्धात्मादिपदार्थां लोक्यंते दृश्यंते ज्ञायंते परिच्छिद्यंते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः। ....इति....निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकसुखामृतस्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा।
= आदि, मध्य तथा अंत रहित शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव तथा परमात्म में पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिंबों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्धात्मादि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं। इस कारण वह शुद्धात्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोक वाले निज शुद्ध परमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चय लोक है।...इस प्रकार....निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमाह्लाद सुखरूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है।
2. व्यवहार
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 715-719
तत्थणुवहंति जीवा सकम्मणिव्वत्तियं सुहं दुक्खं। जम्मणमरणपुणव्भवमणतभवसायरे भीमे ॥715॥ आदा य होदि धूदा धूदा मादूत्तणं पुण उवेदि। पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे ॥716॥ होऊण तेयसत्ताधिओ दु बलविरियरूवसंपण्णो। जादो बच्चवरे किमिधिगत्थु संसारवासस्स ॥717॥ घिब्भक्दु लोगधम्मं देवाविय सूरवदीय महधीया। भोत्तूण य सुहमतुलं पुणरवि दुक्खावहा होंति ॥718॥ णाऊण लोगसारं णिस्सारं दीहगमणसंसारं। लोगग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥719॥
= इस लोक में ये जीव अपने कर्मों से उपार्जन किये सुख-दुःख को भोगते हैं और भयंकर इस भवसागर में जन्म-मरण को बारंबार अनुभव करते हैं ॥715॥ इस संसार में माता है, वह पुत्री हो जाती है, पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है ॥716॥ प्रताप सुंदरता से अधिक बल वीर्य युक्त इनसे परिपूर्ण राजा भी कर्म वश अशुचि (मैले) स्थान में लट होता है। इसलिए ऐसे संसार में रहने को धिक्कार हो ॥717॥ इस प्रकार लोक के स्वभाव को धिक्कार हो जिससे कि देव और महान् ऋद्धिवाले इंद्र अनुपम सुख को भोग कर पश्चात् दुख भोगने वाले होते हैं ॥718॥ इस प्रकार लोक को निस्सार (तुच्छ) जानकर तथा उस संसार को अनंत जानकर अनंत सुख का स्थान ऐसे मोक्ष का यत्न से ध्यान कर ॥719॥
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1798, 1812
आहिंडय पुरिसस्स व इमस्स णीया तहिं होंति। सव्वे वि इमो पत्तो संबंधे सव्वजीवेहिं ॥1798॥ विज्जू वि चंचलं फेणदुव्वलं बाधिमहियमच्चुहदं। णाणी किह पेच्छंतो रमेज्ज दुक्खुद्धुदं लोगं ॥1812॥
= एक देश से दूसरे देश को जाने वाले पुरुष के समान इस जीव को सर्व जग में बंधु लाभ होता है, अमुक जीव के साथ इसका पिता पुत्र वगैरह रूप से संबंध नहीं हुआ ऐसा काल ही नहीं था, अतः सर्व जीव इसके संबंधी हैं ॥1798॥ यह जगत् बिजली के समान चंचल है, समुद्र के फेन के समान बलहीन है, व्याधि और मृत्यु से पीड़ित हुआ है। ज्ञानी पुरुष इसे दुःखों से भरा हुआ देखकर उसमें कैसी प्रीति करते हैं अर्थात् ज्ञानी इस लोक से प्रेम नहीं करते। इसके ऊपर माध्यस्थभाव रखते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418
लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। समंतादनंतस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिर्व्याख्यातः। तत्स्वभावानुचिंतनं लोकानुप्रेक्षा।
= लोक का आकार व प्रकृति आदि की विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारों ओर से अनंत अलोकाकाश के बहुमध्य देश में स्थित लोक के आकारादिक्की विधि कह दी गयी। इसके स्वभाव का अनुचिंतन करना लोकानुप्रेक्षा है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 711-714) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603) (चारित्रसार पृष्ठ 196/4) (पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/54) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/76-77) (भूधरकृत भावना सं. 5)।
13. संवरानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 65
जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥65॥
= शुद्ध निश्चय नय से जीव के संवर ही नहीं है इसलिए संवर के विकल्प से रहित आत्मा का निरंतर चिंतवन करना चाहिए।
( समयसार / 181/कलश 127)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/111
अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते-यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झंपने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति। तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इंद्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झंपने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनंतगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोति। एवं संवरगतगुणानुचिंतनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या।
= अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं। वही समुद्र का जहाज अपने छेदों के बंद हो जाने से जल के न घुसने से निर्विघ्न वेलापत्तन को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार जीवरूपी जहाज़ अपने शुद्ध आत्म ज्ञान के बल से इंद्रिय आदि आस्रव छिद्रों के मुँह बंद हो जाने पर कर्मरूपी जल न घुसने से केवलज्ञानादि अनंत गुण रत्नों से पूर्ण मुक्तिरूपी वेलापत्तन को निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है। ऐसे संवर के गुणों के चिंतवन रूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 63,64
सुहजोगेण पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥ सुद्धुपजोगेण पुणो धम्म सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणो ति विचिंतये णिच्चं ॥64॥
= मन, वचन, काय को शुभ प्रवृत्तियों से अशुभोपयोग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है ॥63॥ इसके पश्चात् शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरंतर विचारते रहना चाहिए ॥64॥
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417
यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात्स्रुतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशांतरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबंधः इति सवरगुणानुचिंतनं संवरानुप्रेक्षा।
= जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं रुके रहने पर क्रम से झिरे हुए जल से उसके व्याप्त होने पर उसके आश्रय पर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यंभावी है और छिद्र के रुके रहने पर निरुपद्रव रूप से अभिलषित देशांतर का प्राप्त होना अवश्यंभावी है। उसी प्रकार कर्मागम द्वार के रुके होने पर कल्याण का प्रतिबंध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिंतवन करना संवरानुप्रेक्षा है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1836-1844) ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 738-743) (राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/32) ( चारित्रसार पृष्ठ 196/2) (पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/52) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/72-73) (भूधरकृत 12 भावनाएँ)।
14. संसारानुप्रेक्षा –
1. निश्चय
बारसाणुवेक्खा गाथा 37
कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे। जीवस्स ण संसारो णिच्चयणयकम्मणिम्मुक्को ॥37॥
= यद्यपि यह जीव कर्म के निमित्त से संसार रूपी बड़े भारी वन में भटकता रहता है, परंतु निश्चय नय से यह कर्म से रहित है और इसीलिए इसका भ्रमण रूप संसार से कोई संबंध नहीं है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/105
एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पंचप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिविनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किंतु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिवशेन संसारविनाशकनिजनिरंजनपरमात्मनि एव भावनां करोति। ततश्च यादृशमेव परमात्मनं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनंतकालं तिष्ठतीति। ....इति संसारानुप्रेक्षा गता।
= इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार को चिंतवन करते हुए इस जीव के, संसार रहित निज शुद्धात्म ज्ञान का नाश करनेवाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं जाता, किंतु वह संसारातीत सुख के अनुभव में लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाले निज निरंजन परमात्मा में भावना करता है। तदनंतर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्ष में अनंत काल तक रहता है। इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा समाप्त हुई।
2. व्यवहार
बारसाणुवेक्खा गाथा 24
पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे। जिणमग्गमपेछंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ॥25॥
= यह जीव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग और भय से भरे हुए पाँच प्रकार के संसार में अनादि काल से भटक रहा है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415
कर्मविपाकवशादात्मनो भवांतरावाप्ति संसारः। सपुरस्तात्पंचविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयंत्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रंगे। अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसारस्वभावचिंतनमनुप्रेक्षा
= कर्म विपाक के वश से आत्मा को भवांतर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूप से व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटि लाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्म यंत्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिंतन करना संसारानुप्रेक्षा है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1768-1797) (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 703-710) (राजवार्तिक अध्याय 9/7, 3/600-601) (चारित्रसार पृष्ठ /186/5) (पद्मनंदी पंचविंशतिका/6/47) (अनगार धर्मामृत अधिकार 6/62-65)।
राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/600/28
चतुर्विधात्मावस्था:-संसारः असंसारः नोसंसारः तत्त्रितयव्यपायश्चेति। तत्र संसारश्चतमृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम्। अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा। नोसंसारः सयोगकेवलिनः चतुर्गतिभ्रमणाभावात् असंसारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसारः इति। अयोगकेवलिनः तत्त्रितयव्यपायः। अभव्यत्वसामान्यापेक्षया संसारोऽनाद्यनंतः, भव्यविशेषापेक्षया अनादिपर्यवसानः। (नोसंसारो जघंयेनांतर्मुहूर्तः, उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिलक्षः सादिः सपर्यवसानः संसारो जघंयेनांतर्मुहूर्तः उत्कृष्टेनार्धपुद्गलपरावर्तनकालः स च संसारो द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात् पंचविधो॥ ( चारित्रसार पृष्ठ )।
= आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं - संसार, असंसार, नोसंसार और तीनों से विलक्षण। अनेक योनि वाली चार गतियों में भ्रमण करना संसार है। शिवपद के परमामृत सुख में प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गति में भ्रमण न होने से और मोक्ष की प्राप्ति न होने से सयोग केवली की जीवन मुक्ति अवस्था ईषत् संसार या नोसंसार है। अयोग केवली इन तीनों से विलक्षण हैं। अभव्य तथा भव्य सामान्य की दृष्टि से संसार अनादि-अनंत है। भव्य विशेष की अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नोसंसार सादि और सांत है। असंसार सादि अनंत है। त्रितय विलक्षण का काल अंतर्मुहूर्त है। नोसंसार का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन एक लाख क्रोड़ पूर्व है। सादि सांत संसार का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल है। ऐसा वह संसार, द्रव्य, क्षेत्र काल, भव व भाव के भेद से पाँच प्रकार का है।
श्रीमद्राजचंद्र - बहु पुण्य केरा पुंज पी शुभ देह मानव नो मल्यो। तोये अरे भव चक्रनो आंटो नहीं एके टलो।...रे आत्म तारो। आत्म तारो॥ शीघ्र एने ओणखो। सर्वात्म मां समदृष्टि द्यों आ वचनने हृदय लखो। = बहुत पुण्य के उदय से यह मानव की उत्तम देह मिली, परंतु फिर भी भव चक्र में किंचित् हानि न कर सका। अरे! अब शीघ्र अपनी आत्मा को पहिचानकर सर्व आत्माओं को समदृष्टि से देख, इस वचन को हृदय में रख।
(विशेष दे.- संसार 3 में पंच परिवर्तन)
2. अनुप्रेक्षा निर्देश
1. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन सब अवसरों पर आवश्यक नहीं
अनगार धर्मामृत अधिकार 6/82/634
इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽध्रुवादिष्वद्धा यत्किंचिदंतःकरणकरणजिद्वेत्ति यः स्वं स्वयं स्वे। उच्चैरुच्चैः यदाशाधरभवविधुरांभोधिपाराप्तिराजत्कार्तार्थ्यः पूतकीर्तिः प्रतपति स परैः स्वैर्गुणैर्लोकमूर्ध्नि॥
= परमागम ही हैं नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अध्रुवादि बारह अनुप्रेक्षाओं में से यथा रुचि एक अनेक अथवा सभी का तत्त्वतः हृदय में ध्यान करता है वह मन और इंद्रिय दोनों पर विजय प्राप्त करके आत्मा ही में स्वयं अनुभव करने लगता है। तथा जहाँ पर चक्रवर्ती तीर्थंकरादि उन्नतोन्नत पदों को प्राप्त करने की अभिलाषा लगी हुई है ऐसे संसार के दुःख समुद्र से पार पहुँच कर कृतकृत्यता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनों को धारण करके जीवन्मुक्त बनकर अंत में अपने सम्यग्दर्शनादि उत्कृष्ट गुणों द्वारा तीन लोक के ऊपर प्रदीप्त होता है।
2. एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षा में अंतर
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/108
एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवंतीति निषेधरूपेण। इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव।
= एकत्व अनुप्रेक्षा में तो `मैं अकेला हूँ' इत्यादि प्रकार से विधि रूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में `देह आदि पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं' इत्यादि निषेध रूप से वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओं में विधि निषेध रूप का ही अंतर है। तात्पर्य दोनों का एक ही है।
3. आस्रव, संवर, निर्जरा इन भावनाओं की सार्थकता
राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602
आस्रवसंवरनिर्जराग्रहणमनर्थकमुक्तत्वादिति चेत्, नतद्गुणदोषान्वेषणपरत्वात् ॥7॥
= प्रश्न - आस्रव संवर और निर्जरा का कथन पहले प्रकरणों में हो चुका है अतः यहाँ अनुप्रेक्षा प्रकरण में इनका ग्रहण करना निरर्थक है?
उत्तर - नहीं, उनके दोष विचारने के लिए यहाँ उनका ग्रहण किया है।
4. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/12
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥
= संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।
( ज्ञानार्णव अधिकार 27/4)।
महापुराण सर्ग संख्या 21/99
विषयेष्वनभिष्वंगः कायतत्त्वानुचिंतनम्। जगत्स्वभावचिंत्येति वैराग्यस्थैर्यभावनाः ॥99॥
= विषयों में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूप का बार-बार चिंतवन करना और जगत् के स्वभाव का चिंतवन करना ये वैराग्य को स्थिर रखनेवाली भावनाएँ हैं।
3. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
1. अनुप्रेक्षा के साथ सम्यक्त्व का महत्त्व
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416
ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वके वैराग्यप्रकर्षे सति आत्यंतिकस्य मोक्षसुखस्यावाप्तिर्भवति।
= इससे (अर्थात् शरीर व आत्मा के भिन्न रूप समाधान से) तत्त्वज्ञान की भावना पूर्वक आत्यंतिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
2. अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभ भाव है
रयणसार गाथा 64-65
दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएसु। बंधणमुक्खे तक्कारणरूपे बारसणुवेक्खे ॥46॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मो दयाइसद्धम्मे। इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुभभावो ॥65॥
= पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नवपदार्थ, बंध, मोक्ष के कारण बारह भावना, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवों के भाव हैं वे शुभ भाव हैं।
बारसाणुवेक्खा गाथा 63
सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजं गस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥
= मन, वचन काय की शुभ प्रवृत्तियों से,अशुभ योग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 149
एवं व्रतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणां भावसंवरकारणभूतानां यद्व्याख्यानं कृतं, तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापास्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि। यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवंतीति ज्ञातव्यम्।
= इस प्रकार भाव संवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रय का साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग के वर्णन करने वाले जो वाक्य हैं वे पापास्रव के संवर में कारण जानने चाहिए। जो व्यवहार रत्नत्रय के साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
3. अंतरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवर का कारण है
तत्त्वार्थसार अधिकार 6/43/351
एवं भावयतः साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवरः ॥43॥
= इस प्रकार (अंतरंग सापेक्ष) बारह अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करने से साधु के धर्म का महान् उद्योत होता है। उससे वह निष्प्रमाद होता है, जिससे कि महान् संवर होता है।
4. अनुप्रेक्षा का कारण व प्रयोजन
1. अनुप्रेक्षा का माहात्म्य व फल
बारसाणुवेक्खा गाथा 89,90
मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणुवेक्खं। परिभविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥89॥ किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले। सेझंति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥90॥
= जो पुरुष इन बारह भावनाओं का चिंतन करके अनादि काल से आज तक मोक्ष को गये हैं उनको मैं मन, वचन, काय पूर्वक बारंबार नमस्कार करता हूँ ॥89॥ इस विषय में अधिक कहने की जरूरत नहीं है इतना ही बहुत है कि भूतकाल में जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए और जो आगे होंगे वे सब इन्हीं भावनाओं का चिंतवन करके ही हुए हैं। इसे भावनाओं का ही महत्त्व समझना चाहिए।
ज्ञानार्णव अधिकार 13/2/59
विध्याति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वांतम्। उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात्।
= इन द्वादश भावनाओं के निरंतर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा पर द्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अंधकार का विलय होकर ज्ञान रूप दीप का प्रकाश होता है।
पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/42
द्वादशापि सदा चिंत्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः। तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम् ॥42॥
= महात्मा पुरुषों को निरंतर बारहों अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करना चाहिए। कारण यह है कि उनकी भावना (चिंतन) कर्म के क्षय का कारण होती है।
2. अनुप्रेक्षा सामान्य का प्रयोजन
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1874/1679
इय आलंबणमणुपेहाओ धमस्स होंति ज्झाणस्स। ज्झायंताणविणस्सदि ज्झाणे आलंबणेहिं मुणी ॥1874॥
= धर्मध्यान में जो प्रवृत्ति करता है उसको ये द्वादशानुप्रेक्षा आधार रूप हैं, अनुप्रेक्षा के बल पर ध्याता धर्मध्यान में स्थिर रहता है, जो जिस वस्तु स्वरूप में एकाग्रचित्त होता है वह विस्मरण होने पर उससे चिगता है, परंतु बार-बार उसको एकाग्रता के लिए आलंबन मिल जावेगा तो वह नहीं चिगेगा।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/6/413
कस्मात्क्षमादीनयममलंबते नान्यथा प्रवर्तत इत्युच्यते यस्मात्तप्तायःपिंडवत्क्षमादिपरिणतेनात्महितैषिणा कर्तव्याः।
सर्वार्थसिद्धि /9/7/419
मध्ये अनुप्रेक्षावचनमुभयार्थम्। अनुप्रेक्षा हि भावयन्नुत्तमक्षमादींश्च प्रतिपालयति परीषहांश्च जेतुमुत्सहते।
= तपाये हुए लोहे के गोले के समान क्षमादि रूप से परिणत हुए आत्महित की इच्छा करने वालों को ये निम्न द्वादश अनुप्रेक्षा भानी चाहिए। बीच में अनुप्रेक्षाओं का कथन दोनों अर्थ के लिए हैं। क्योंकि अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करता हुआ यह जीव उत्तम क्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परिषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है।
3. अनित्यानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414
एवं ह्यस्य भव्यस्य चिंतयतस्तेष्वभिष्वंगाभावाद् भुक्तोज्झितगंधमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते।
= इस प्रकार विचार करने वाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोग कर छोड़े हुए गंध और माला आदि के समान वियोग काल में भी संताप नहीं होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/600/12)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 22
चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥22॥
= हे भव्य जीवो! समस्त विषयों को क्षण भंगुर जानकर महामोह को त्यागो और मन को विषयों के सुख से रहित करो, जिससे उत्तम सुख की प्राप्ति हो।
(चारित्रसार पृष्ठ 178/2)
4. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416
इत्येवं ह्यस्य मनःसमादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वकवैराग्यप्रकर्षे सति आत्यंतिकस्य मोक्षसुखवस्यावाप्तिर्भवति।
= इस प्रकार मन को समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान को भावना पूर्वक वैराग्य की वृद्धि होने पर आत्यंतिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,5/602/3) (चारित्रसार पृष्ठ 190/4)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 82
जो जाणिऊण देह जोव-सरूवाद दु, तच्चदोभिण्णं। अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं।
= जो आत्मस्वरूप को यथार्थ में शरीर से भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है।
(चारित्रसार पृष्ठ 18/2)।
5. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/414
एवं ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीतिभृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो भवति।
= इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारण भूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान् अर्हंत सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,1/600/25)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 31
अप्पाणं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥
= आत्मा को उत्तम क्षमादि भावों से युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र कषाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है।
(चारित्रसार पृष्ठ 180/2)।
6. अशुचि अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/416
एवं ह्यस्य संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते।
= इस प्रकार चिंतवन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विघ्न होकर जन्मोदधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,6/602/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 192/6)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 87
जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स।
= जो दूसरों के शरीर से विरक्त है और अपने शरीर से अनुराग नहीं करता है तथा आत्मध्यान में लीन रहता है उसके अशुचि भावना सफल है।
7. आस्रवानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417
एवं ह्यस्य चिंतयतः क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत्सवृतात्मनो न भवंति।
= इस प्रकार चिंतन करनेवाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याण रूप बुद्धि का त्याग नहीं होता तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/602/30) (चारित्रसार पृष्ठ 195/5)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा /मूल/94
एदे मोहय-भावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव अणुवेहणं तस्स ॥94॥
= जो मुनि साम्यभाव में लीन होता हुआ, मोह कर्म के उदय से होने वाले इन पूर्वोक्त भावों को त्यागने के योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आस्रवानुप्रेक्षा है।
8. एकत्वानुप्रेक्ष का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415
एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबंधो न भवति। परजनेषु च द्वेषानुबंधो नोपजायते। ततो निःसंगतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।
= इस प्रकार चिंतवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबंध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबंध नहीं होता इसलिए निःसंगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,4/601/27) ( चारित्रसार पृष्ठ 188/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 79
सव्वायरेण जाणह एक्कं जीवं सरीरदो भिन्नं। जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥79॥
= पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो। उस जीव के जान लेने पर क्षण भर में ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।
9. धर्मानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419
एवं ह्यन्य चिंतयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति।
= इस प्रकार चिंतवन करने वाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,11/607/4) (चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 437
इय पच्चक्खं पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ॥437॥
= हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्म का आचरण करो और पाप से दूर हो रहो।
10. निर्जरानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417
एवं ह्यस्यानुस्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति।
= इस प्रकार चिंतवन करने वाले इसकी कर्म निर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,7/603/3) ( चारित्रसार पृष्ठ 197/2)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 114
जो समसोक्ख-णिलीणो बारंबारं सरेइ अप्पाणं। इदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥114॥
= जो मुनि समता-रस में लीन हुआ, बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इंद्रिय और कषाय जीतने वाले उसी के उत्कृष्ट निर्जरा होती है।
11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/419
एवं ह्यस्य भावयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवति।
= इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी प्रमाद नहीं होता।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,9/603/22) ( चारित्रसार पृष्ठ 201/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 301
इय सव्व-दुलह दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च। मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥301॥
= इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को संसार की समस्त दुर्लभ वस्तुओं में भी दुर्लभ जानकर इन तीनों का अत्यंत आदर करो।
12. लोकानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/418
एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवति।
= इस प्रकार लोकस्वरूप विचारने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,8/603/6) (चारित्रसार पृष्ठ 198/3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 283
एवं लोयसहां जो झायदि उवसमेक्क-सब्भावो। सो खविय कम्म पंजं तिल्लोय-सिहामणी होदि ॥283॥
= जो पुरुष उपशम परिणामस्वरूप परिणत होकर इस प्रकार लोक के स्वरूप का ध्यान करता है वह कर्म पुंज को नष्ट करके उसी लोक का शिखामणि होता है।
13. संवारानुप्रेक्षा का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417
एवं ह्यस्य चिंतयतः संवरे नित्योद्यक्तता भवति। ततश्च निःश्रेयसपदप्राप्तिरिति।
= इस प्रकार चिंतवन करने वाले इस जीव के संवर में निरंतर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
14. संसारानुप्रेक्षा का प्रयोजन
बारसाणुवेक्खा गाथा 38
संसारमदिक्कंतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो। संसारदुहक्कंतो जीवो सो हेयमिदि विचितिज्जो ॥38॥
= जो जीव संसार से पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात् ध्यान करने योग्य है, ऐसा विचार करना चाहिए और जो संसार रूपी दुःखों से घिरा हुआ है वह हेय है ऐसा चिंतवन करना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415
एवं ह्यस्य भावयतः संसारदुःखभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति। निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय प्रयतते।
= इस प्रकार चिंतवन करते हुए संसार के दुःख के भय से उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/7,3/601/17)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 73
इय संसारं जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊणं। तं झायह स-सरूवं संसरणं जेण णासेइ ॥73॥
= इस प्रकार संसार को जानकर और सम्यक् व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायों से मोह को त्याग कर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकार के संसार-परिभ्रमण का नाश होता है।
पुराणकोष से
(1) वैराग्य वृद्धि में सहायक बारह भावनाएँ । वे ये हैं—अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । महापुराण 36.159-160, पद्मपुराण - 14.237-239, हरिवंशपुराण - 2.130, पांडवपुराण 25.74-123, वीरवर्द्धमान चरित्र 11.2-4
(2) स्वाध्याय तप का तीसरा भेद-ज्ञान का मन से अभ्यास अथवा चिंतन करना । देखें स्वाध्याय