धर्मध्यान: Difference between revisions
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<li class="HindiText" name="5.3" id="5.3"><strong> पंचमकाल में अध्यात्मध्यान का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव</strong> </span><br /> | <li class="HindiText" name="5.3" id="5.3"><strong> पंचमकाल में अध्यात्मध्यान का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/343 </span><span class="PrakritGatha">मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव वीयरायसामग्गी। तम्हा सुद्धचरित्ता पंचमकाले वि देसदो अत्थि।343।</span>=<span class="HindiText">सराग की भाँति वीतरागता की सामग्री जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होती है। इसलिए पंचमकाल में भी शुद्धचरित्र कहा गया है। (और भी देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]] | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/343 </span><span class="PrakritGatha">मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव वीयरायसामग्गी। तम्हा सुद्धचरित्ता पंचमकाले वि देसदो अत्थि।343।</span>=<span class="HindiText">सराग की भाँति वीतरागता की सामग्री जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होती है। इसलिए पंचमकाल में भी शुद्धचरित्र कहा गया है। (और भी देखें [[ अनुभव#5.2 | अनुभव - 5.2]])। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/154/ </span> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/154 / क.264 </span><span class="SanskritText">असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले, न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननयजिननाथस्य भवति। अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवन्निर्मलधियां, निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।264।</span>=<span class="HindiText">असार संसार में, पाप से भरपूर कलिकाल का विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथ के मार्ग में मुक्ति नहीं है। इसलिए इस काल में अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिए निर्मल बुद्धि वाले भवभय का नाश करने वाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धा को अंगीकृत करते हैं। <br /> | ||
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<li class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong> परंतु इस काल में ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं है</strong></span><br /> | <li class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong> परंतु इस काल में ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/76 </span><span class="PrakritGatha">भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावट्ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।76।</span>=<span class="HindiText">भरतक्षेत्र में दु:षमकाल अर्थात् पंचमकाल में भी आत्मस्वभावस्थित साधु को धर्मध्यान होता है। जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है। (<span class="GRef"> रयणसार/60 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/82 </span>)।</span><br /> | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/76 </span><span class="PrakritGatha">भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावट्ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।76।</span>=<span class="HindiText">भरतक्षेत्र में दु:षमकाल अर्थात् पंचमकाल में भी आत्मस्वभावस्थित साधु को धर्मध्यान होता है। जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है। (<span class="GRef"> रयणसार/60 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/82 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/4/37 </span><span class="SanskritText">दु:षमत्वादयं काल: कार्यसिद्धेर्न साधकम् । इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्धयानं निषिध्यते।37।</span>=<span class="HindiText">कोई-कोई साधु ऐसा कहकर अपने तथा पर के ध्यान का निषेध करते हैं कि इस दु:षमा पंचमकाल में ध्यान | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/4/37 </span><span class="SanskritText">दु:षमत्वादयं काल: कार्यसिद्धेर्न साधकम् । इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्धयानं निषिध्यते।37।</span>=<span class="HindiText">कोई-कोई साधु ऐसा कहकर अपने तथा पर के ध्यान का निषेध करते हैं कि इस दु:षमा पंचमकाल में ध्यान की योग्यता किसी के भी नहीं है। (उन अज्ञानियों के ध्यान की सिद्धि कैसे हो सकती है ?)।<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> पंचमकाल में शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य संभव है</strong></span><br /> | <li class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> पंचमकाल में शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य संभव है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/83 </span><span class="SanskritGatha">अत्रेदानीं निषेधंति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा:। धर्मध्यानं पुन: प्राहु: श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ।83। </span>=<span class="HindiText">यहाँ (भरतक्षेत्र में) इस (पंचम) काल में जिनेंद्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं परंतु श्रेणी से पूर्ववर्तियों के धर्मध्यान बतलाते हैं। | <span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/83 </span><span class="SanskritGatha">अत्रेदानीं निषेधंति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा:। धर्मध्यानं पुन: प्राहु: श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ।83। </span>=<span class="HindiText">यहाँ (भरतक्षेत्र में) इस (पंचम) काल में जिनेंद्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं परंतु श्रेणी से पूर्ववर्तियों के धर्मध्यान बतलाते हैं। <span class="GRef"> (द्रव्यसंग्रह टीका/57/231/11) (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/146/211/17)। </span><br /> | ||
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<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/55-56 </span><span class="PrakritGatha">जं किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लद्धूण य एयत्तं तदाहु तं णिच्छयं झाणं।55। मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाणं।56।</span>=<span class="HindiText">ध्येय में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी भी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्ति होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय होता है।55। हे भव्य पुरुषो ! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो, अर्थात् काय, वचन व मन तीनों की प्रवृत्ति को रोको; जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में स्थिर होवे। आत्मा में लीन होना परमध्यान है।56।</span><br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/55-56 </span><span class="PrakritGatha">जं किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लद्धूण य एयत्तं तदाहु तं णिच्छयं झाणं।55। मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाणं।56।</span>=<span class="HindiText">ध्येय में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी भी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्ति होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय होता है।55। हे भव्य पुरुषो ! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो, अर्थात् काय, वचन व मन तीनों की प्रवृत्ति को रोको; जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में स्थिर होवे। आत्मा में लीन होना परमध्यान है।56।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/482 </span><span class="PrakritGatha">वज्जिय-सयल-वियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरुंधंतो। जं चिंतदि साणं दे तं धम्मं उत्तमं ज्झाणं।482।</span>=<span class="HindiText">सकल विकल्पों को छोड़कर और आत्मस्वरूप में मन को रोककर आनंदसहित जो चिंतन होता है वही उत्तम धर्मध्यान है।</span><br /> | <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/482 </span><span class="PrakritGatha">वज्जिय-सयल-वियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरुंधंतो। जं चिंतदि साणं दे तं धम्मं उत्तमं ज्झाणं।482।</span>=<span class="HindiText">सकल विकल्पों को छोड़कर और आत्मस्वरूप में मन को रोककर आनंदसहित जो चिंतन होता है वही उत्तम धर्मध्यान है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/ </span>श्लो.नं./भावार्थ‒<span class="SanskritText">निश्चयादधुना स्वात्मालंबनं तन्निरुच्यते।141। पूर्वं श्रुतेन संस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्तत:। तत्रैकाग्य्रं समासाद्य न किंचिदपि चिंतयेत् ।144।</span>=<span class="HindiText">अब निश्चयनय से स्वात्मलंबन स्वरूपध्यान का निरूपण करते हैं।141। श्रुत के द्वारा आत्मा में आत्मसंस्कार को आरोपित करके, तथा उसमें ही एकाग्रता को प्राप्त होकर अन्य कुछ भी चिंतवन न करे।144। शरीर और मैं अन्य-अन्य हैं।149। मैं सदा सत्, चित्, ज्ञाता, द्रष्टा, उदासीन, देह परिमाण व आकाशवत् अमूर्तिक हूँ।153। दृष्ट जगत् न इष्ट है न द्विष्ट किंतु उपेक्ष्य है।157। इस प्रकार अपने आत्मा को अन्य शरीरादिक से भिन्न करके अन्य कुछ भी चिंतवन न करे।159। यह चिंताभाव तुच्छाभाव रूप नहीं है, बल्कि समतारूप आत्मा के स्वसंवेदनरूप है।160। | <span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/ </span>श्लो.नं./भावार्थ‒<span class="SanskritText">निश्चयादधुना स्वात्मालंबनं तन्निरुच्यते।141। पूर्वं श्रुतेन संस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्तत:। तत्रैकाग्य्रं समासाद्य न किंचिदपि चिंतयेत् ।144।</span>=<span class="HindiText">अब निश्चयनय से स्वात्मलंबन स्वरूपध्यान का निरूपण करते हैं।141। श्रुत के द्वारा आत्मा में आत्मसंस्कार को आरोपित करके, तथा उसमें ही एकाग्रता को प्राप्त होकर अन्य कुछ भी चिंतवन न करे।144। शरीर और मैं अन्य-अन्य हैं।149। मैं सदा सत्, चित्, ज्ञाता, द्रष्टा, उदासीन, देह परिमाण व आकाशवत् अमूर्तिक हूँ।153। दृष्ट जगत् न इष्ट है न द्विष्ट किंतु उपेक्ष्य है।157। इस प्रकार अपने आत्मा को अन्य शरीरादिक से भिन्न करके अन्य कुछ भी चिंतवन न करे।159। यह चिंताभाव तुच्छाभाव रूप नहीं है, बल्कि समतारूप आत्मा के स्वसंवेदनरूप है।160। <span class="GRef"> (ज्ञानार्णव/31/20-37)। </span><br /> | ||
द्रव्य संग्रह टीका/48/204/11 में अनंत ज्ञानादि का धारक तथा अनंत सुखरूप हूँ, इत्यादि भावना अंतरंग धर्मध्यान है। | द्रव्य संग्रह टीका/48/204/11 में अनंत ज्ञानादि का धारक तथा अनंत सुखरूप हूँ, इत्यादि भावना अंतरंग धर्मध्यान है। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150-151/218/1)। </span><br /> | ||
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<li class="HindiText" name="6.2" id="6.2"><strong> व्यवहार धर्मध्यान का लक्षण</strong></span><br /> | <li class="HindiText" name="6.2" id="6.2"><strong> व्यवहार धर्मध्यान का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/141 </span><span class="SanskritText">व्यवहारनयादेवं ध्यानमुक्तं पराश्रयम् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार व्यवहार नय से पराश्रित धर्मध्यान का लक्षण कहा है। (अर्थात् धर्मध्यान | <span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/141 </span><span class="SanskritText">व्यवहारनयादेवं ध्यानमुक्तं पराश्रयम् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार व्यवहार नय से पराश्रित धर्मध्यान का लक्षण कहा है। (अर्थात् धर्मध्यान सामान्य व उसके आज्ञा अपाय विचय आदि भेद सब व्यवहार ध्यान में गर्भित हैं।)<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="6.3" id="6.3"><strong> निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं</strong> </span><br /> | <li class="HindiText" name="6.3" id="6.3"><strong> निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/193-194 </span><span class="PrakritGatha">देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाधसत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगअप्पगो अप्पा।193। जो एवं जाणित्ताज्झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। साकारोऽनाकार: क्षपयति स मोहदुर्ग्रंथिम् ।194।</span>=<span class="HindiText">शरीर, धन, सुख, दु:ख अथवा शत्रु, मित्रजन से सब ही जीव के कुछ नहीं हैं, ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है।193। जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या अनाकार, मोहदुर्ग्रंथि का क्षय करता है।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/193-194 </span><span class="PrakritGatha">देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाधसत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगअप्पगो अप्पा।193। जो एवं जाणित्ताज्झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। साकारोऽनाकार: क्षपयति स मोहदुर्ग्रंथिम् ।194।</span>=<span class="HindiText">शरीर, धन, सुख, दु:ख अथवा शत्रु, मित्रजन से सब ही जीव के कुछ नहीं हैं, ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है।193। जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या अनाकार, मोहदुर्ग्रंथि का क्षय करता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/9/21,40 </span><span class="PrakritGatha">दंसणणाणसमग्गं ज्झाणं णो अण्णदव्वसंसत्तं। जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स।21। ज्झाणे जदि णियआदा णाणादो णावभासदे जस्स। ज्झाणं होदि ण तं पुण जाण पमादो, हु मोहमुच्छा वा।40।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध स्वभाव से सहित साधु का दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण ध्यान निर्जरा का कारण होता है, अन्य द्रव्यों से संसक्त वह निर्जरा का कारण नहीं होता।21। जिस जीव के ध्यान में यदि ज्ञान से निज आत्मा का प्रतिभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है। उसे प्रमाद, मोह अथवा मूर्च्छा ही जानना चाहिए।40। | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/9/21,40 </span><span class="PrakritGatha">दंसणणाणसमग्गं ज्झाणं णो अण्णदव्वसंसत्तं। जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स।21। ज्झाणे जदि णियआदा णाणादो णावभासदे जस्स। ज्झाणं होदि ण तं पुण जाण पमादो, हु मोहमुच्छा वा।40।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध स्वभाव से सहित साधु का दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण ध्यान निर्जरा का कारण होता है, अन्य द्रव्यों से संसक्त वह निर्जरा का कारण नहीं होता।21। जिस जीव के ध्यान में यदि ज्ञान से निज आत्मा का प्रतिभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है। उसे प्रमाद, मोह अथवा मूर्च्छा ही जानना चाहिए।40। <span class="GRef"> (तत्त्वानुशासन/169) </span></span><br /> | ||
आराधनासार/83<span class="SanskritGatha"> यावद्विकल्प: कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं, चिंता वा भावनाथवा।83।</span>=<span class="HindiText">जब तक ध्यानयुक्त योगी को किसी प्रकार का भी विकल्प उत्पन्न होता रहता है, तब तक उसे शून्य ध्यान नहीं है, या तो चिंता है या भावना है। (और भी देखें [[ धर्म्यध्यान#3.1 | धर्म्यध्यान - 3.1]])</span><br /> | आराधनासार/83<span class="SanskritGatha"> यावद्विकल्प: कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं, चिंता वा भावनाथवा।83।</span>=<span class="HindiText">जब तक ध्यानयुक्त योगी को किसी प्रकार का भी विकल्प उत्पन्न होता रहता है, तब तक उसे शून्य ध्यान नहीं है, या तो चिंता है या भावना है। (और भी देखें [[ धर्म्यध्यान#3.1 | धर्म्यध्यान - 3.1]])</span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/28/19 </span><span class="SanskritGatha">अविक्षिप्तं यदा चेत: स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत् । मनस्तदैव निर्विघ्ना ध्यानसिद्धिरुदाहृता।19।</span>=<span class="HindiText">जिस समय मुनि का चित्त क्षोभरहित हो आत्मस्वरूप के सम्मुख होता है, उस काल ही ध्यान की सिद्धि निर्विघ्न होती है।</span><br /> | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/28/19 </span><span class="SanskritGatha">अविक्षिप्तं यदा चेत: स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत् । मनस्तदैव निर्विघ्ना ध्यानसिद्धिरुदाहृता।19।</span>=<span class="HindiText">जिस समय मुनि का चित्त क्षोभरहित हो आत्मस्वरूप के सम्मुख होता है, उस काल ही ध्यान की सिद्धि निर्विघ्न होती है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/194 </span><span class="SanskritText">अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्ते: शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनंतशक्तिचिंमात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मत्व होता है, इसलिए अनंत | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/194 </span><span class="SanskritText">अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्ते: शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनंतशक्तिचिंमात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मत्व होता है, इसलिए अनंत शक्ति वाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतन लक्षण ध्यान होता है।<span class="GRef"> (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/196), (नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/119) </span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/243 </span><span class="SanskritText">यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति।...तथाभूतश्च बध्यत एव न तु मुच्यते।</span>=<span class="HindiText">जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र को नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है और ऐसा होता हुआ बंध को ही प्राप्त होता है, परंतु मुक्त नहीं होता।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/243 </span><span class="SanskritText">यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति।...तथाभूतश्च बध्यत एव न तु मुच्यते।</span>=<span class="HindiText">जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र को नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है और ऐसा होता हुआ बंध को ही प्राप्त होता है, परंतु मुक्त नहीं होता।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/144, </span><span class="SanskritText">य: खलु...व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणत: अत एव चरणकरणप्रधान, ...किंतु स निरपेक्षतपोधन: साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयत: परमातत्त्वविश्रांतरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अत: परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त:।</span>=<span class="HindiText">जो वास्तव में व्यावहारिक धर्मध्यान में परिणत रहता है, इसलिए चरणकरणप्रधान है; किंतु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यककर्म को, निश्चय से परमात्मतत्त्व में विश्रांतिरूप निश्चयधर्मध्यान को तथा शुक्लध्यान को नहीं जानता; इसलिए परद्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है।<br /> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/144, </span><span class="SanskritText">य: खलु...व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणत: अत एव चरणकरणप्रधान, ...किंतु स निरपेक्षतपोधन: साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयत: परमातत्त्वविश्रांतरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अत: परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त:।</span>=<span class="HindiText">जो वास्तव में व्यावहारिक धर्मध्यान में परिणत रहता है, इसलिए चरणकरणप्रधान है; किंतु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यककर्म को, निश्चय से परमात्मतत्त्व में विश्रांतिरूप निश्चयधर्मध्यान को तथा शुक्लध्यान को नहीं जानता; इसलिए परद्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है।<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="6.5" id="6.5"><strong> व्यवहार ध्यान निश्चय का साधन है</strong></span><br /> | <li class="HindiText" name="6.5" id="6.5"><strong> व्यवहार ध्यान निश्चय का साधन है</strong></span><br /> | ||
द्रव्य-संग्रह/टीका/49/209/4 <span class="SanskritText">निश्चयध्यानस्य परंपरया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम् ।</span>=<span class="HindiText">निश्चयध्यान का परंपरा से कारणभूत जो शुभोपयोग लक्षण व्यवहारध्यान है। (द्रव्य संग्रह/टीका/53/221/2)<br /> | द्रव्य-संग्रह/टीका/49/209/4 <span class="SanskritText">निश्चयध्यानस्य परंपरया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम् ।</span>=<span class="HindiText">निश्चयध्यान का परंपरा से कारणभूत जो शुभोपयोग लक्षण व्यवहारध्यान है। <span class="GRef">(द्रव्य संग्रह/टीका/53/221/2) </span><br /> | ||
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<li class="HindiText" name="6.6" id="6.6"><strong> निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्यसाधकपने का समन्वय</strong></span><br /> | <li class="HindiText" name="6.6" id="6.6"><strong> निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्यसाधकपने का समन्वय</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/22/67 </span><span class="PrakritGatha"> विसमं हि समारोहइ दव्वालंवणो जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तहा झाणवरं समारुहइ।22।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार कोई पुरुष नसैनी (सीढ़ी) आदि द्रव्य के आलंबन से विषमभूमि पर भी आरोहण करता है, उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि के आलंबन से उत्तम ध्यान को प्राप्त होता है। <span class="GRef"> (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1877/1681/12) </span></span><br /> | <span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/22/67 </span><span class="PrakritGatha"> विसमं हि समारोहइ दव्वालंवणो जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तहा झाणवरं समारुहइ।22।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार कोई पुरुष नसैनी (सीढ़ी) आदि द्रव्य के आलंबन से विषमभूमि पर भी आरोहण करता है, उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि के आलंबन से उत्तम ध्यान को प्राप्त होता है। <span class="GRef"> (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1877/1681/12) </span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/33/2,4 </span><span class="SanskritGatha">अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम् ।2। अलक्ष्यं लक्ष्यसंबंधात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिंतयेत् । सालंबाच्च निरालंबं तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा।4।</span>=<span class="HindiText">आत्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर, अपने में जोड़ता हुआ भी अविद्या की वासना से विवश है आत्मा जिनका, उनका चित्त स्थिरता को नहीं धारण करता है।2। तब लक्ष्य के संबंध से अलक्ष्य को अर्थात् इंद्रियगोचर के संबंध से इंद्रियातीत पदार्थों को तथा स्थूल के आलंबन से सूक्ष्म को चिंतवन करता है। इस प्रकार सालंब ध्यान से | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/33/2,4 </span><span class="SanskritGatha">अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम् ।2। अलक्ष्यं लक्ष्यसंबंधात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिंतयेत् । सालंबाच्च निरालंबं तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा।4।</span>=<span class="HindiText">आत्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर, अपने में जोड़ता हुआ भी अविद्या की वासना से विवश है आत्मा जिनका, उनका चित्त स्थिरता को नहीं धारण करता है।2। तब लक्ष्य के संबंध से अलक्ष्य को अर्थात् इंद्रियगोचर के संबंध से इंद्रियातीत पदार्थों को तथा स्थूल के आलंबन से सूक्ष्म को चिंतवन करता है। इस प्रकार सालंब ध्यान से निरालंब के साथ तन्मय हो जाता है।4। (और भी देखें [[ चारित्र#7.10 | चारित्र - 7.10]])</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/152/220/9 </span><span class="SanskritText">अयमत्र भावार्थ:‒प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थं विषयाभिलाषरूपध्यानवंचनार्थं च परंपरया मुक्तिकारणं पंचपरमेष्ठयादिपरद्रव्यं ध्येयं भवति, दृढतरध्यानाभ्यासेन चित्ते स्थिरे जाते सति निजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयं।...इति परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो न कर्तव्य:।</span>=<span class="HindiText">प्राथमिक जनों को चित्त स्थिर करने के लिए तथा विषयाभिलाषरूप दुर्ध्यान से बचने के लिए परंपरा मुक्ति के कारणभूत पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय होते हैं। तथा दृढतर ध्यान के अभ्यास द्वारा चित्त के स्थिर हो जाने पर निजशुद्ध आत्मस्वरूप ही ध्येय होता है। ऐसा भावार्थ है। इस प्रकार परस्पर सापेक्ष निश्चय व्यवहारनयों के द्वारा साध्यसाधक भाव को जानकर ध्येय के विषय में विवाद नहीं करना चाहिए। <span class="GRef"> (द्रव्यसंग्रह/टीका/55/223/12), (परमात्मप्रकाश टीका/2/33/154/2) </span></span><br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/152/220/9 </span><span class="SanskritText">अयमत्र भावार्थ:‒प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थं विषयाभिलाषरूपध्यानवंचनार्थं च परंपरया मुक्तिकारणं पंचपरमेष्ठयादिपरद्रव्यं ध्येयं भवति, दृढतरध्यानाभ्यासेन चित्ते स्थिरे जाते सति निजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयं।...इति परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो न कर्तव्य:।</span>=<span class="HindiText">प्राथमिक जनों को चित्त स्थिर करने के लिए तथा विषयाभिलाषरूप दुर्ध्यान से बचने के लिए परंपरा मुक्ति के कारणभूत पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय होते हैं। तथा दृढतर ध्यान के अभ्यास द्वारा चित्त के स्थिर हो जाने पर निजशुद्ध आत्मस्वरूप ही ध्येय होता है। ऐसा भावार्थ है। इस प्रकार परस्पर सापेक्ष निश्चय व्यवहारनयों के द्वारा साध्यसाधक भाव को जानकर ध्येय के विषय में विवाद नहीं करना चाहिए। <span class="GRef"> (द्रव्यसंग्रह/टीका/55/223/12), (परमात्मप्रकाश टीका/2/33/154/2) </span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150/217/14 </span><span class="SanskritText">यदायं जीव:...सरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा पंचपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण पराश्रितधर्म्यध्यानबहिरंगसहकारित्वेनानंतज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टयादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये क्वापि गुणस्थाने दर्शनमोहक्षयेणक्षायिक सम्यक्त्वं कृत्वा तदनंतरमपूर्वकरणादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुषनिर्मलविवेकज्यातिरूपप्रथमशुक्लध्यानमनुभूय...मोहक्षपणं कृत्वा...भावमोक्षं प्राप्नोति।</span>=<span class="HindiText">अनादिकाल से अशुद्ध हुआ यह जीव सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी आदि की भक्ति आदि रूप से पराश्रित धर्म्यध्यान के बहिरंग सहकारीपने से ‘मैं अनंत ज्ञानादि स्वरूप हूँ’ ऐसे आत्माश्रित धर्मध्यान को प्राप्त होता है, तत्पश्चात् आगम कथित क्रम से असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत पर्यंत चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में दर्शनमोह का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। तदनंतर अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में प्रकृति व पुरुष (कर्म व जीव) संबंधी निर्मल विवेक ज्यातिरूप प्रथम शुक्लध्यान का अनुभव करने के द्वारा वीतराग चारित्र को प्राप्त करके मोह का क्षय करता है, और अंत में भावमोक्ष प्राप्त कर लेता है।<br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150/217/14 </span><span class="SanskritText">यदायं जीव:...सरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा पंचपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण पराश्रितधर्म्यध्यानबहिरंगसहकारित्वेनानंतज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टयादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये क्वापि गुणस्थाने दर्शनमोहक्षयेणक्षायिक सम्यक्त्वं कृत्वा तदनंतरमपूर्वकरणादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुषनिर्मलविवेकज्यातिरूपप्रथमशुक्लध्यानमनुभूय...मोहक्षपणं कृत्वा...भावमोक्षं प्राप्नोति।</span>=<span class="HindiText">अनादिकाल से अशुद्ध हुआ यह जीव सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी आदि की भक्ति आदि रूप से पराश्रित धर्म्यध्यान के बहिरंग सहकारीपने से ‘मैं अनंत ज्ञानादि स्वरूप हूँ’ ऐसे आत्माश्रित धर्मध्यान को प्राप्त होता है, तत्पश्चात् आगम कथित क्रम से असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत पर्यंत चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में दर्शनमोह का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। तदनंतर अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में प्रकृति व पुरुष (कर्म व जीव) संबंधी निर्मल विवेक ज्यातिरूप प्रथम शुक्लध्यान का अनुभव करने के द्वारा वीतराग चारित्र को प्राप्त करके मोह का क्षय करता है, और अंत में भावमोक्ष प्राप्त कर लेता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="6.8" id="6.8"><strong> निरीहभाव से किया गया सभी उपयोग एक आत्म उपयोग ही है</strong> </span><br /> | <li class="HindiText" name="6.8" id="6.8"><strong> निरीहभाव से किया गया सभी उपयोग एक आत्म उपयोग ही है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/861-865 </span><span class="SanskritText">अस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदय:। आत्मपरोभयाकारभावश्च प्रदीपवत् ।761। निर्विशेषाद्यथात्मानमिव ज्ञेयमवैति च। तथा मूर्तानमूर्तांश्च धर्मादीनवगच्छति।862। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि। पर स्मिन्नुपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि।863। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोऽपि नोत्कर्षाय स वस्तुत:। उपयुक्त: परत्रापि नापकर्षाय तत्त्वत:।864। तस्मात् स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया। मासीदसि महाप्राज्ञ: सार्थमर्थमवैहि भो:।865।</span> =<span class="HindiText">निजमहिमा से ही ज्ञान प्रदीपवत् स्व, पर व उभय का युगपत् अवभासक है।861। वह किसी प्रकार का भी भेदभाव न करके अपनी तरह ही अपने विषयभूत मूर्त व अमूर्त धर्म अधर्मादि द्रव्यों को भी जानता है।862। अत: केवलनिजात्मोपयोगी अथवा परपदार्थोपयोगी ही न होकर निश्चय से वह उभयविषयोपयोगी है।863। उस सम्यग्दृष्टि को स्व में उपयुक्त होने से कुछ उत्कर्ष (विशेष संवर निर्जरा) और पर में उपयुक्त होने से कुछ अपकर्ष (बंध) होता हो, ऐसा नहीं है।864। इसलिए परपदार्थों के साथ अभिन्नता देखकर तुम दु:खी मत होओ। प्रयोजनभूत अर्थ को समझो। और भी देखें [[ ध्यान#4.5 | ध्यान - 4.5 ]](अर्हंत का ध्यान वास्तव में | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/861-865 </span><span class="SanskritText">अस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदय:। आत्मपरोभयाकारभावश्च प्रदीपवत् ।761। निर्विशेषाद्यथात्मानमिव ज्ञेयमवैति च। तथा मूर्तानमूर्तांश्च धर्मादीनवगच्छति।862। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि। पर स्मिन्नुपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि।863। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोऽपि नोत्कर्षाय स वस्तुत:। उपयुक्त: परत्रापि नापकर्षाय तत्त्वत:।864। तस्मात् स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया। मासीदसि महाप्राज्ञ: सार्थमर्थमवैहि भो:।865।</span> =<span class="HindiText">निजमहिमा से ही ज्ञान प्रदीपवत् स्व, पर व उभय का युगपत् अवभासक है।861। वह किसी प्रकार का भी भेदभाव न करके अपनी तरह ही अपने विषयभूत मूर्त व अमूर्त धर्म अधर्मादि द्रव्यों को भी जानता है।862। अत: केवलनिजात्मोपयोगी अथवा परपदार्थोपयोगी ही न होकर निश्चय से वह उभयविषयोपयोगी है।863। उस सम्यग्दृष्टि को स्व में उपयुक्त होने से कुछ उत्कर्ष (विशेष संवर निर्जरा) और पर में उपयुक्त होने से कुछ अपकर्ष (बंध) होता हो, ऐसा नहीं है।864। इसलिए परपदार्थों के साथ अभिन्नता देखकर तुम दु:खी मत होओ। प्रयोजनभूत अर्थ को समझो। और भी देखें [[ ध्यान#4.5 | ध्यान - 4.5 ]](अर्हंत का ध्यान वास्तव में तद्गुणपूर्ण आत्मा का ध्यान ही है)। </span></li> | ||
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Latest revision as of 21:24, 31 October 2024
सिद्धांतकोष से
मन को एकाग्र करना ध्यान है। वैसे तो किसी न किसी विषय में हर समय ही मन अटका रहने के कारण व्यक्ति को कोई न कोई ध्यान बना ही रहता है, परंतु राग-द्वेष मूलक होने से श्रेयोमार्ग में वे सब अनिष्ट हैं। साधक साम्यता का अभ्यास करने के लिए जिस ध्यान को ध्याता है वह धर्मध्यान है। अभ्यास दशा समाप्त हो जाने पर पूर्ण ज्ञातादृष्टा भावरूप शुक्लध्यान हो जाता है। इसलिए किसी अपेक्षा धर्म व शुक्ल दोनों ध्यान समान है। धर्मध्यान दो प्रकार का है-बाह्य व आध्यात्मिक। वचन व काय पर से सर्व प्रत्यक्ष होने रूप बाह्य और मानसिक चिंतवनरूप आध्यात्मिक है। वह आध्यात्मिक भी आज्ञा, अपाय आदि के चिंतवन के भेद से दस भेदरूप है। ये दसों भेद जैसा कि उनके लक्षणों पर से प्रगट है, आज्ञा, अपाय, विपाक व संस्थान इन चार में गर्भित हो जाते हैं‒उपाय विचय तो अपाय में समा जाता है और जीव, अजीव, भव, विराग व हेतु विचय-संस्थान विचय में समा जाते हैं। तहाँ इन सबको भी दो में गर्भित किया जा सकता है‒व्यवहार व निश्चय। आज्ञा, अपाय व विपाक तो परावलंब ही होने से व्यवहार ही है पर संस्थानविचय चार भेदरूप है‒पिंडस्थ (शरीराकृति का चिंतवन); पदस्थ (मंत्राक्षरों का चिंतवन), रूपस्थ (पुरुषाकार आत्मा का चिंतवन) और रूपातीत अर्थात् मात्र ज्ञाता द्रष्टाभाव। यहाँ पहले तीन धर्मध्यानरूप हैं और अंतिम शुक्लध्यानरूप। पहले तीनों में ‘पिंडस्थ’ व ‘पदस्थ’ तो परावलंबी होने से व्यवहार है और ‘रूपस्थ’ स्वालंबी होने से निश्चय है। निश्चय ध्यान ही वास्तविक है पर व्यवहार भी उसका साधन होने से इष्ट है।
- धर्मध्यान व उसके भेदों का सामान्य निर्देश
- धर्मध्यान सामान्य के लक्षण।
- धर्म से युक्त ध्यान
- शास्त्र, स्वाध्याय व तत्त्व चिंतवन
- रत्नत्रय व संयम आदि में चित्त को लगाना
- परमेष्ठी आदि की भक्ति
- धर्मध्यान के चिह्न
- धर्मध्यान योग्य सामग्री
- धर्मध्यान योग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र, पीठ व दिशा।‒देखें कृतिकर्म - 3
- धर्मध्यान योग्य काल।‒देखें ध्यान - 3
- धर्मध्यान की विधि।‒देखें ध्यान - 3
- धर्मध्यान संबंधी धारणाएँ‒देखें पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती
- धर्मध्यान के भेद आज्ञा, अपाय आदि व बाह्य आध्यात्मिक आदि
- आज्ञा, विचय आदि 10 ध्यानों के लक्षण
- संस्थानविचय धर्मध्यान का स्वरूप
- संस्थान विचय के पिंडस्थ आदि भेदों का निर्देश
- पिंडस्थ आदि ध्यान।‒देखें पिंडस्थ ध्यान, पदस्थ ध्यान, रूपस्थ ध्यान, रूपातीत ध्यान
- धर्मध्यान सामान्य के लक्षण।
- धर्मध्यान में सम्यक्त्व व भावों आदि का निर्देश
- धर्मध्यान में आवश्यक ज्ञान की सीमा।‒देखें ध्याता - 1
- धर्मध्यान योग्य ध्याता।‒देखें ध्याता - 2, ध्याता - 4
- सम्यग्दृष्टि को ही संभव है।‒देखें ध्याता - 2, ध्याता - 4
- साधु व श्रावक को निश्चय ध्यान का कथंचित् विधि, निषेध।‒देखें अनुभव - 5
- धर्मध्यान में आवश्यक ज्ञान की सीमा।‒देखें ध्याता - 1
- धर्मध्यान में संहनन संबंधी चर्चा।‒देखें संहनन ।
- धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादि में अंतर
- ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिंता में अंतर।
- अथवा अनुप्रेक्षादि को अपायविचय में गर्भित समझना चाहिए।
- ध्यान व कायोत्सर्ग में अंतर।
- माला जपना आदि ध्यान नहीं है।
- प्राणायाम, समाधि आदि ध्यान नहीं।‒देखें प्राणायाम - 6।
- धर्मध्यान का फल पुण्य व मोक्ष तथा उसका समन्वय
- धर्मध्यान का महिमा।–देखें ध्यान - 2
- एक ही धर्मध्यान से मोहनीय का उपशम व क्षय दोनों कैसे संभव है?
- पुण्यास्रव व मोक्ष दोनों होने का समन्वय।
- पर पदार्थों के चिंतवन से कर्मक्षय कैसे संभव है?
- पंचमकाल में भी धर्मध्यान की सफलता
- यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता?
- यदि इस काल में मोक्ष नहीं तो ध्यान करने से क्या प्रयोजन।
- पंचम काल में भी अध्यात्म ध्यान का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव।
- परंतु इस काल में भी ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं है।
- पंचमकाल में शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य संभव है।
- निश्चय-व्यवहार धर्मध्यान निर्देश
- साधु व श्रावक के योग्य शुद्धोपयोग।‒देखें अनुभव ।
- निश्चय धर्मध्यान योग्य ध्येय व भावनाएँ।‒देखें ध्येय ।
- बाह्य व आध्यात्मिक ध्यान के लक्षण।‒देखें धर्मध्यान - 1।
- व्यवहार ध्यान योग्य अनेकों ध्येय।‒देखें ध्येय ।
- सब ध्येयों में आत्मा प्रधान है।‒देखें ध्येय ।
- परम ध्यान के अपर नाम।‒देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
- निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं।
- व्यवहारध्यान कथंचित् अज्ञान है।
- व्यवहारध्यान निश्चय का साधन है।
- निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्य साधकपने का समन्वय।
- निश्चय व व्यवहार ध्यान में ‘निश्चय’ शब्द की आंशिक प्रवृत्ति।
- निरीह भाव से किया गया सभी उपयोग एक आत्मोपयोग ही है।
- सविकल्प अवस्था से निर्विकल्पावस्था में चढ़ने का क्रम।‒देखें धर्म - 6.4।
- धर्मध्यान व उसके भेदों का सामान्य निर्देश
- धर्मध्यान सामान्य का लक्षण
- धर्म से युक्त ध्यान
भगवती आराधना/1709/1541 धम्मस्स लक्खणंसे अज्जक्लहुगत्तमद्दवोवसमा। उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे।1709। =जिससे धर्म का परिज्ञान होता है वह धर्मध्यान का लक्षण समझना चाहिए। आर्जव, लघुत्व, मार्दव और उपदेश ये इसके लक्षण हैं। (मूल आराधना /679)
सर्वार्थसिद्धि/9/28/445/11 धर्मो व्याख्यात:। धर्मादनपेत धर्म्यम् । =धर्म का व्याख्यान पहले कर आये हैं (उत्तम क्षमादि लक्षणवाला धर्म है) जो धर्म से युक्त होता है वह धर्म्य है। (सर्वार्थसिद्धि/9/36/450/4); (राजवार्तिक/9/28/3/627/30); (राजवार्तिक/9/36/11/632/11); (महापुराण/21/133); (तत्त्वानुशासन/54); (भावपाहुड़ टीका/78/226/17) ।
नोट—यहाँ धर्म के अनेकों लक्षणों के लिए (देखो धर्म - 1) उन सभी प्रकार के धर्मों से युक्त प्रवृत्ति का नाम धर्मध्यान है, ऐसा समझना चाहिए। इस लक्षण की सिद्धि के लिए‒देखो ( धर्मध्यान - 4.5.2)।
- शास्त्र, स्वाध्याय व तत्त्व चिंतवन
रयणसार/मूल/97 पावारंभणिवित्ती पुण्णारंभपउत्तिकरणं पि। णाण धम्मज्झाणं जिणभणियं सव्वजीवाणं।97। =पाप कार्य की निवृत्ति और पुण्य कार्यों में प्रवृत्ति का मूलकारण एक सम्यग्ज्ञान है, इसलिए मुमुक्षु जीवों के लिए सम्यग्ज्ञान (जिनागमाभ्यास-गाथा 98) ही धर्मध्यान श्री जिनेंद्रदेव ने कहा है।
भगवती आराधना/1710 आलंबणं च वायण पुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अविसुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ।1710। =वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और परिवर्तन ये स्वाध्याय के भेद हैं। ये भेद धर्मध्यान के आधार भी हैं। इस धर्मध्यान के साथ अनुप्रेक्षाओं का अविरोध है। ( भगवती आराधना/1875/1680 ); ( धवला 13/5,4,26/गाथा 21/67 ); ( तत्त्वानुशासन/81 )।
ज्ञानसार/17 जीवादयो ये पदार्था: ध्यातव्या: ते यथास्थिता: चैव। धर्मध्यानं भणितं रागद्वेषौप्रमुच्य... ।17। =राग द्वेष को त्यागकर अर्थात् साम्यभाव से जीवादि पदार्थों का, वे जैसे-जैसे अपने स्वरूप में स्थित हैं, वैसे-वैसे ध्यान या चिंतवन करना धर्मध्यान कहा गया है।
ज्ञानार्णव/3/29 पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलंबनात् । चिंतनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते।29।=पुण्यरूप आशय के वश से तथा शुद्धलेश्या के अवलंबन से और वस्तु के यथार्थ स्वरूप चिंतवन से उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त कहलाता है। (ज्ञानार्णव/25/18)
- रत्नत्रय व संयम आदि में चित्त को लगाना
मूलाचार/678-680 दंसणणाणचरित्ते उवओगे संजमे विउस्सगो। पचक्खाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु।678। विज्जाचरणमहव्वदसमाधिगुणबंभचेरछक्काए। खमणिग्गह अज्जवमद्दवमुत्ती विणए च सद्दहणे।679। एवंगुणो महत्थो मणसंकल्पो पसत्थ वीसत्थो। संकप्पोत्ति वियाणह जिणसासणसम्मदं सव्वं।680।=दर्शन-ज्ञान-चारित्र में, उपयोग में, संयम में, कायोत्सर्ग में, शुभ योग में, धर्मध्यान में, समिति में, द्वादशांग में, भिक्षाशुद्धि में, महाव्रतों में, संन्यास में, गुण में, ब्रह्मचर्य में, पृथिवी आदि छह काय जीवों की रक्षा में, क्षमा में, इंद्रिय निग्रह में, आर्जव में, मार्दव में, सब परिग्रह त्याग में, विनय में, श्रद्धान में; इन सबमें जो मन का परिणाम है, वह कर्मक्षय का कारण है, सबके विश्वास योग्य है। इस प्रकार जिनशासन में माना गया सब संकल्प है; उसको तुम शुभ ध्यान जानो।
- परमेष्ठी आदि की भक्ति
द्रव्यसंग्रह टीका/48/205/3 पंचपरमेष्ठिभक्त्यादितदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरंगधर्मध्यानं भवति।=पंच परमेष्ठी की भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभानुष्ठान (पूजा, दान, अभ्युत्थान, विनय आदि) बहिरंग धर्मध्यान होता है। (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150/217/16)
- धर्म से युक्त ध्यान
- धर्मध्यान के चिह्न
धवला 13/5,4,26/गाथा 54-55/76 आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जं जिणप्पणीयाणं। भावाणं सद्दहणं धम्मज्भाणस्स तल्लिगं।54। जिणसाहु-गुणक्कित्तण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णा। सुद सीलसंजमरदा धम्मज्झाणे मुणेयव्वा।55।=आगम, उपदेश और जिनाज्ञा के अनुसार निसर्ग से जो जिन भगवान् के द्वारा कहे गये पदार्थों का श्रद्धान होता है वह धर्मध्यान का लिंग है।54। जिन और साधु के गुणों का कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय-दानसंपन्नता, श्रुत, शील और संयम में रत होना, ये सब बातें धर्मध्यान में होती हैं।55।
महापुराण/21/159-161 प्रसन्नचित्तता धर्मसंवेग: शुभयोगता सुश्रुतत्वं समाधानं आज्ञाधिगमजा: रुचि:।159। भवंत्येतानि लिंगानि धर्म्यस्यांतर्गतानि वै। सानुप्रेक्षाश्च पूर्वोक्ता विविधा: शुभभावना:।160। बाह्यं च लिंगमंगानां संनिवेश: पुरोदित:। प्रसन्नवक्त्रता सौम्या दृष्टिश्चेत्यादि लक्ष्यताम् ।161।=प्रसन्नचित्त रहना, धर्म से प्रेम करना, शुभयोग रखना, उत्तम शास्त्रों का अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना और शास्त्राज्ञा तथा स्वकीय ज्ञान से एक प्रकार की विशेष रुचि (प्रतीति अथवा श्रद्धा) उत्पन्न होना, ये धर्मध्यान के बाह्य चिह्न हैं, और अनुप्रेक्षाएँ तथा पहले कही हुई अनेक प्रकार की शुभ भावनाएँ उसके अंतरंग चिह्न हैं।159-160। पहले कहा हुआ अंगों का सन्निवेश होना, अर्थात् पहले जिन पर्यंकादि आसनों का वर्णन कर चुके हैं (देखें कृतिकर्म ) उन आसनों को धारण करना, मुख की प्रसन्नता होना, और दृष्टि का सौम्य होना आदि सब भी धर्मध्यान के बाह्य चिह्न समझने चाहिए।
ज्ञानार्णव/41/15-1 में उद्धृत- अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गंध: शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् । कांति: प्रसाद: स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्ते: प्रथमं हि चिह्नम् ।1। =विषय लंपटता का न होना शरीर नीरोग होना, निष्ठुरता का न होना, शरीर में से शुभ गंध आना, मलमूत्र का अल्प होना, शरीर की कांति शक्तिहीन न होना, चित्त की प्रसन्नता, शब्दों का उच्चारण सौम्य होना–ये चिह्न योग की प्रवृत्ति करने वाले के अर्थात् ध्यान करने वाले के प्रारंभ दशा में होते हैं। (विशेष देखें ध्याता )।
- धर्मध्यान योग्य सामग्री
द्रव्यसंग्रह टीका/57/229/3 में उद्धृत– ‘तथा चोक्तं–’वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रंथ्यं समचित्तता। परीषहजयश्चेति पंचैते ध्यानहेतव:। =सो ही कहा है कि–वैराग्य, तत्त्वों का ज्ञान, परिग्रहत्याग, साम्यभाव और परीषहजय ये पाँच ध्यान के कारण हैं।
तत्त्वानुशासन/75,218 संगत्याग: कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्रीध्यानजन्मनि।75। ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेश: श्रद्धानं सदाभ्यास: स्थिरं मन:।218। =परिग्रह त्याग, कषायनिग्रह, व्रतधारण, इंद्रिय व मनोविजय, ये सब ध्यान की उत्पत्ति में सहायभूत सामग्री हैं।75। गुरूपदेश, श्रद्धान, निरंतर अभ्यास और मन की स्थिरता, ये चार ध्यान की सिद्धि के मुख्य कारण हैं। ( ज्ञानार्णव/3/15-25 )।
देखें ध्यान - 3 (धर्मध्यान के योग्य उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप सामग्री विशेष)।
- धर्मध्यान के भेद
- आज्ञा, अपाय, विचय आदि ध्यान
तत्त्वार्थसूत्र/9/36 आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ।36। =आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान, इनकी विचारणा के लिए मन को एकाग्र करना धर्म्यध्यान है। (भगवती आराधना/1708/1536); (मूल आराधना /398); (ज्ञानार्णव/33/5); (धवला 13/5,4,26/70/12); (महापुराण/21/134); (ज्ञानार्णव/33/5); (तत्त्वानुशासन/98); (द्रव्यसंग्रह टीका/48/202/3); (भावपाहुड़ टीका/119/269/24); (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/480/366/4)।
राजवार्तिक/1/7/14/40/16 धर्मध्यानं दशविधम् । चारित्रसार/172/4 स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकम् । तद्दशविधं अपायविचयं, उपायविचयं, जीवविचयं, अजीवविचयं, विपाकविचयं, विरागविचयं, भवविचयं, संस्थानविचयं, आज्ञाविचयं, हेतुविचयं चेति। =आध्यात्मिक धर्मध्यान दश प्रकार का है–अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय। (हरिवंशपुराण/56/38-50), (भावपाहुड़ टीका 119/270/2)।
- निश्चय व्यवहार या बाह्य व आध्यात्मिक आदि भेद
चारित्रसार/172/3 धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम् ।=धर्म्यध्यान बाह्य और आध्यात्मिक के भेद से दो प्रकार का है। ( हरिवंशपुराण/56/36 )।
तत्त्वानुशासन/47-49/96 मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानमिह द्विधा।47। ध्यानान्यपि त्रिधा।48। उत्तमम् ...जघन्यं...मध्यमम् ।49। निश्चयाद् व्यवहारच्च ध्यानं द्विविधमागमे।...।96।=मुख्य और उपचार के भेद से धर्म्यध्यान दो प्रकार का है।47। अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है।49। अथवा निश्चय व व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है।96।
- आज्ञा, अपाय, विचय आदि ध्यान
- आज्ञा विचय आदि ध्यानों के लक्षण
- अजीव विचय
हरिवंशपुराण/56/44 द्रव्याणामप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् । स्वभावचिंतनं धर्म्यमजीवविचयं मतम् ।44। =धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिंतवन करना, सो अजीव विचय नाम का धर्म्यध्यान है।44।
- 2-3. अपाय व उपाय विचय
भगवती आराधना/1712/1544 कल्लाणपावगाण उपाये विचिणादि जिणमदमुवेच्च। विचिणादि व अवाए जीवाण सुभे य असुभे य।1712। =जिनमत को प्राप्त कर कल्याण करने वाले जो उपाय हैं उनका चिंतवन करता है, अथवा जीवों के जो शुभाशुभ भाव होते हैं, उनसे अपाय का चिंतवन करता है। (मूल आराधना /400); (धवला 13/5,4,26/गाथा 40/72)।
धवला 13/5,4,26/गाथा 39/72 रागद्दोसकसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाणं। इहपरलोगावाए ज्झाएज्जो वज्जपरिवज्जी।39। =पाप को त्याग करने वाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीवों के इहलोक और परलोक से अपाय का चिंतवन करे।
सर्वार्थसिद्धि/9/36/449/11 जात्यंधवंमिथ्यादृष्टय: सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद्विमुखमोक्षार्थिन सम्यङ्मार्गापरिज्ञानात् सुदूरमेवापयंतीति संमार्गापयाचिंतनमपायविचय:। अथवा–मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्य: कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचय:। =मिथ्यादृष्टि जीव जंमांध पुरुष के समान सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्ग का परिज्ञान न होने से वे मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से ही त्याग देते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का चिंतवन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। अथवा–ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरंतर चिंतन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। (राजवार्तिक/9/36/6-7/630/16); (महापुराण/21/141-142); (भगवती आराधना/वि/1708/1536/18); (तत्त्वसार/7/41); (ज्ञानार्णव/34/1-17)।
हरिवंशपुराण/56/39-41 संसारहेतव: प्रायस्त्रियोगानां प्रवृत्तय:। अपायो वर्जनं तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् ।39। चिंताप्रबंधसंबंध: शुभलेश्यानुरंजित:। अपायविचयाख्यं तत्प्रथमं धर्म्यमभीप्सितम् ।40। उपायविचयं तासां पुण्यानामात्मसात्क्रिया। उपाय: स कथं मे स्यादिति संकल्पसंतति:।41। =मन, वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति ही, प्राय: संसार का कारण है सो इन प्रवृत्तियों का मेरे अपाय अर्थात् त्याग किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार शुभलेश्या से अनुरंजित जो चिंता का प्रबंध है वह अपायविचय नाम का प्रथम धर्म्यध्यान माना गया है।39-40। पुण्य रूप योगप्रवृत्तियों को अपने आधीन करना उपाय कहलाता है, वह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार के संकल्पों की जो संतति है वह उपाय विचय नाम का दूसरा धर्म्यध्यान है।41। (चारित्रसार/173/3); (भगवती आराधना/वि/1708/1536/17); (द्रव्यसंग्रह टीका/48/202/9)।
- आज्ञाविचय
भगवती आराधना/1711/1543 पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाए दव्वमण्णे य। आणागब्भे भावे आणाविचएण विचिणादि। =पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, काल, द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं, उनका यह आज्ञाविचय ध्यान के द्वारा चिंतवन करता है। (मूलाचार/399); (धवला 13/5,4,26/गाथा 38/71); (महापुराण/21/135-140)।
धवला 13/5,4,26/गाथा 35-37/71 तत्थमइदुब्वलेण य। तव्विजाइरियविरहदो वा वि। णेयगहत्तणेण य णाणावरदिएणं च।35। हेदूदाहरणासंभवे य सरिंसुट्टठुज्जाणबुज्झेज्जो। सव्वणुसयमवितत्थं तहाविहं चिंतए मदिमं।36। अणुवगहपराग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा। जियरायदोसमोहा ण अण्णहावाइणो तेण।37। =मति की दुर्बलता होने से, अध्यात्म विद्या के जानकार आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय की गहनता होने से, ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता होने से, और हेतु तथा उदाहरण संभव न होने से, नदी और सुखोद्यान आदि चिंतवन करने योग्य स्थान में मतिमान् ध्याता ‘सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है’ ऐसा चिंतवन करे।35-36। यत: जगत् में श्रेष्ठ जिनभगवान्, जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवों का भी अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं, और उन्होंने राग-द्वेष और मोह पर विजय प्राप्त कर ली है, इसलिए वे अन्यथा वादी नहीं हो सकते।37।
सर्वार्थसिद्धि/9/36/449/6 उपदेष्टुरभावांमंदबुद्धित्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टांतोपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेदं नान्यथावादिनो जिना:’ इति गहनपदार्थश्रद्धानादर्थावधारणमाज्ञाविचय:। अथवा स्वयं विदितपदार्थ तत्त्वस्रू सत: परं प्रति पिपादयिषो: स्वसिद्धांताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थं तर्कनयप्रमाणयोजनपर: स्मृतिसमन्वहार: सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते।449।=उपदेष्टा आचार्यों का अभाव होने से, स्वयं मंदबुद्धि होने से, कर्मों का उदय होने से और पदार्थों के सूक्ष्म होने से, तथा तत्त्व के समर्थन में हेतु तथा दृष्टांत का अभाव होने से, सर्वज्ञप्रणीत आगम को प्रमाण करके, ‘यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते’, इस प्रकार गहनपदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। अथवा स्वयं पदार्थों के रहस्य को जानता है, और दूसरों के प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्वसिद्धांत के अविरोध द्वारा तत्त्व का समर्थन करने के लिए, उसके जो तर्क नय और प्रमाण की योजनारूप निरंतर चिंतन होता है, वह सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से आज्ञाविचय कहा जाता है। (राजवार्तिक/9/36/4-5/630/8); (हरिवंशपुराण/56/49); (चारित्रसार/201/5); (तत्त्वसार/7/40); (ज्ञानार्णव/33/6-22); (द्रव्यसंग्रह टीका/48/202/6)।
- जीवविचय
हरिवंशपुराण/56/42-43 अनादिनिधना जीवा द्रव्यार्थादन्यथान्यथा। असंख्येयप्रदेशास्ते स्वोपयोगत्वलक्षणा: ।42। अचेतनोपकरणा: स्वकृतोचितभोगिन:। इत्यादिचेतनाध्यानं यज्जीवविचयं हि तत् । =द्रव्यार्थिकनय से जीव अनादि निधन है, और पर्यायार्थिक नय से सादिसनिधन है, असंख्यात प्रदेशी है, उपयोग लक्षणस्वरूप है, शरीररूप अचेतन उपकरण से युक्त है, और अपने द्वारा किये गये कर्म के फल को भोगते हैं...इत्यादि रूप से जीव का जो ध्यान करना है वह जीवविचय नाम का तीसरा धर्मध्यान है। ( चारित्रसार/173/5 )
- भवविचय
हरिवंशपुराण/56/47 प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् । दु:खात्मेत्यादिचिंता तु भवादिविचयं पुन:।47।=चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों को मरने के बाद जो पर्याय होती है वह भव कहलाता है। यह भव दु:खरूप है। इस प्रकार चिंतवन करना सो भवविचय नाम का सातवाँ धर्मध्यान है।( चारित्रसार/176/1 )
- विपाकविचय
भगवती आराधना/1713/1545 एयाणेयभवगदं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं। उदओदीरण संकमबंधे मोक्खं च विचिणादि।=जीवों को जो एक और अनेक भव में पुण्य और पापकर्म का फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, संक्रमण, बंध और मोक्ष का चिंतवन करता है। (मूलाचार/401); ( धवला 13/5,4,26/गाथा 42/72 ); ( सर्वार्थसिद्धि/9/36/450/2 ); ( राजवार्तिक/9/36/8-9/630-632 में विस्तृत कथन ), ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1708/1536/21 ); ( महापुराण/21/143-147 ); ( तत्त्वसार/7/42 ); ( ज्ञानार्णव/35/1-31 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/202/10 )।
हरिवंशपुराण/56/45 यच्चतुर्विधबंधस्य कर्मणोऽष्टविधस्य तु विपाकचितनं धर्म्यं विपाकविचयं विदु:।45। =ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकार के बंधों के विपाक फल का विचार करना, सो विपाक विचय नामका पाँचवा धर्मध्यान है।( चारित्रसार/174/2 )।
- विराग विचय
हरिवंशपुराण/56/46 शरीरमशुचिर्भोगा किंपाकफलपाकिन:। विरागबुद्धिरित्यादि विरागवियं स्मृतम् ।46। =शरीर अपवित्र है और भोग किंपाकफल के समान तदात्व मनोहर हैं, इसलिए इनसे विरक्तबुद्धि का होना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि चिंतन करना विरागविचय नाम का छठा धर्म्यध्यान है। ( चारित्रसार/171/1 )।
- संस्थान विचय
(देखो आगे पृथक् शीर्षक)
- हेतु विचय
हरिवंशपुराण/56/50 तर्कानुसारिण: पुंस: स्याद्वादप्रक्रियाश्रयात् । सन्मार्गाश्रयणध्यानं यद्धेतुविचयं हि तत् ।50। =और तर्क का अनुसरण करने वाले पुरुष स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेते हुए समीचीन मार्ग का आश्रय करते हैं, इस प्रकार चिंतवन करना सो हेतुविचय नामका दसवाँ धर्म्यध्यान है। ( चारित्रसार/202/3 )
- अजीव विचय
- संस्थानविचय धर्मध्यान का स्वरूप
धवला 13/5,4,26/गाथा 43-50/72/13 तिण्णं लोगाणं संठाणपमाणाआउयादिचिंतणं संठाणविचयं णाम चउत्थं धम्मज्झाणं। एत्थ गाहाओ—जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाइं। उप्पादट्ठिदिभंगादिपज्यपा जे य दव्वाणं।43। पंचत्थिकायमइयं लोयमणाइणिहणं जिणक्खादं। णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागदिं।44। खिदिवलयदीवसायरणयरविमाणभवणादिसंठाणं। वोमादि पडिट्ठाणं णिययं लोगटि्ठदिविहाणं।45। उवजोगलक्खणमणाइणिहणमत्थंतरं सरीरादो। जीवमरूविं कारिं भोइं य सयस्स कम्मस्स।46। तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं। वसणसयसावमीणं मोहावत्तं महाभीमं।47। णाणमयकण्णहारं वरचारित्तमयमहापोयं। संसारसागरमणोरपारमसुहं विचिंतेज्जो।48। सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसब्भावं।49। ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादि चिंतणापरमो। होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणे किह व पुव्वं।50।=- तीन लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयु आदि का चिंतवन करना संस्थान विचय नाम का चौथा धर्म ध्यान है। ( सर्वार्थसिद्धि/9/36/450/3 ); ( राजवार्तिक/9/36/10/632/9 ); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1708/1536/23 ); ( तत्त्वसार/7/43 ); ( ज्ञानार्णव/36/184-186 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/203/2 )।
- जिनदेव के द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहने का स्थान, भेद, प्रमाण उनकी उत्पाद स्थिति और व्यय आदिरूप पर्यायों का चिंतवन करना।43। पंचास्तिकाय का चिंतवन करना।44। (देखें पीछेजीव अजीव विचय के लक्षण)।
- अधोलोक आदि भागरूप से तीन प्रकार के (अधो, मध्य व ऊर्ध्व) लोक का, तथा पृथिवी, वलय, द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदि के संस्थानों (आकारों) का एवं उसका आकाश में प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेद का चिंतवन करे।44-45। ( भगवती आराधना/1714/1545 ) (मूलाचार/402); ( हरिवंशपुराण/56/480 ); ( महापुराण/21/148-150 ); ( ज्ञानार्णव/36/1-10,82-90 ); (विशेष देखें लोक )
- जीव उपयोग लक्षणवाला है, अनादिनिधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है, तथा अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है।46। ( महापुराण/21/151 ) (और देखें पीछे जीव विचय का लक्षण )
- उस जीव के कर्म से उत्पन्न हुआ जन्म, मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकड़ों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य हैं; मोहरूपी आवर्त हैं, और अत्यंत भयंकर है, ज्ञानरूपी कर्णधार है, उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत है। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनंत (आध्यात्मिक) संसार का चिंतवन करे।47-48। ( महापुराण/21/152-153 )
- बहुत कहने से क्या लाभ, यह जितना जीवादि पदार्थों का विस्तार कहा है, उस सबसे युक्त और सर्व नय समूह मय समय सद्भाव का (द्वादशांग मय सकल श्रुत का) ध्यान करे।49। ( महापुराण/21/154 )
- ऐसा ध्यान करके उसके अंत में मुनि निरंतर अनित्यादि भावनाओं के चिंतवन में तत्पर होता है। जिससे वह पहले की भाँति धर्मध्यान में सुभावित चित्त होता है।50। ( भगवती आराधना/1714/1545 ); (मूलाचार/402); ( चारित्रसार/177/1 ); (विराग विचय का लक्षणी) नोट—(अनुप्रेक्षाओं के भेद व लक्षण‒देखें अनुप्रेक्षा ) ज्ञानार्णव/36/श्लो.नं.
- (नरक के दु:खों का चिंतवन करे)।11-81। (विशेष देखो नरक) (भव विचय का लक्षण)
- (स्वर्ग सुख तथा देवेंद्रों के वैभव आदि का चिंतवन।90-182। (विशेष देखें स्वर्ग )
- (सिद्धलोक का तथा सिद्धों के स्वरूप का चिंतवन करे।183।
- (अंत में कर्ममल से रहित अपनी निर्मल आत्मा का चिंतवन करे)।185।
- संस्थान विचय के पिंडस्थ आदि भेदों का निर्देश
ज्ञानार्णव/37/1 तथा भाषाकार की उत्थानिका‒पिंडस्थं च पदस्थं च स्वरूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करै:।1। =इस संस्थान विचय नाम धर्मध्यान में चार भेद कहे हैं, उनका वर्णन किया जाता है‒जो भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य के समान योगीश्वर हैं उन्होंने ध्यान को पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार प्रकार का कहा है। ( भावपाहुड़ टीका/86/236/13 )
द्रव्यसंग्रह टीका/48/205/3 में उद्धृत —पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिंडस्थं स्वात्मचिंतनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनम् ।
द्रव्यसंग्रह टीका/49/209/7 पदस्थपिंडस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति।=मंत्रवाक्यों में स्थिति पदस्थ, निजात्मा का चिंतवन पिंडस्थ, सर्वचिद्रूप का चिंतवन रूपस्थ और निरंजन का (त्रिकाली शुद्धात्मा का) ध्यान रूपातीत है। ( भावपाहुड़ टीका/86/236 पर उद्धृत) पदस्थ, पिंडस्थ व रूपस्थ में अर्हंत सर्वज्ञ ध्येय होते हैं। नोट‒उपरोक्त चार भेदों में पिंडस्थ ध्यान तो अर्हंत भगवान् की शरीराकृति का विचार करता है, पदस्थ ध्यान पंचपरमेष्ठी के वाचक अक्षरों व मंत्रों का अनेक प्रकार से विचार करता है, रूपस्थ ध्यान निज आत्मा का पुरुषाकाररूप से विचार करता है और रूपातीत ध्यान विचार व चिंतवन से अतीत मात्र ज्ञाता द्रष्टा रूप से ज्ञान का भवन है (देखें उन उनके लक्षण व विशेष ) तहाँ पहिले तीन ध्यान तो धर्मध्यान में गर्भित हैं और चौथा ध्यान पूर्ण निर्विकल्प होने से शुक्लध्यान रूप है (देखें शुक्लध्यान ) इस प्रकार संस्थान विचय धर्मध्यान का विषय बहुत व्यापक है।
- बाह्य व आध्यात्मिक ध्यान का लक्षण
हरिवंशपुराण/56/36-38 लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्याध्यात्मिकभेदत:। सूत्रार्थमार्गणं शीलं गुणमालानुरागिता।36। जंभाजृंभाक्षुतोद्गारप्राणापानादिमंदता। निभृतात्मव्रतात्मत्वं तत्र बाह्यं प्रकीर्तितम् ।37। दशधाऽऽध्यात्मिकं धर्म्यमपायविचयादिकम् ।...।38।=बाह्य और अभ्यंतर के भेद से धर्म्यध्यान का लक्षण दो प्रकार का है। शास्त्र के अर्थ की खोज करना, शीलव्रत का पालन करना, गुणों के समूह में अनुराग रखना, अँगड़ाई, जमुहाई, छींक, डकार और श्वासोच्छवास में मंदता होना, शरीर को निश्चल रखना तथा आत्मा को व्रतों से युक्त करना, यह धर्म्यध्यान का बाह्य लक्षण है। और आभ्यंतर लक्षण अपाय विचय आदि के भेद से दस प्रकार का है।
चारित्रसार/172/3 धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम् । तत्र परानुमेयं बाह्यं सूत्रार्थगवेषणं दृढव्रतशीलगुणानुरागानिभृतकरचरणवदनकायपरिस्पंदवाग्व्यापारं जृंभज्रंभोदारक्षवयुप्राणपातोद्रेकादिविरमणलक्षणं भवति। स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकम्, तदृशविधम्‒।=बाह्य और आभ्यंतर के भेद से धर्मध्यान दो प्रकार का है। जिसे अन्य लोग भी अनुमान से जान सकें उसे बाह्य धर्मध्यान कहते हैं। सूत्रों के अर्थ की गवेषणा (विचार व मनन), व्रतों को दृढ़ रखना, शील गुणों में अनुराग रखना, हाथ, पैर, मुँह, काय का परिस्पंदन और वचनव्यापार का बंद करना, जभाई, जंभाई के उद्गार प्रगट करना, छींकना तथा प्राण-अपान का उद्रेक आदि सब क्रियाओं का त्याग करना बाह्य धर्मध्यान है। जिसे केवल अपना आत्मा ही जान सके उसे आध्यात्मिक कहते हैं। वह आज्ञाविचय आदि के भेद से दस प्रकार का है।
- धर्मध्यान सामान्य का लक्षण
- धर्मध्यान में सम्यक्त्व व भावों आदि का निर्देश
- धर्मध्यान में विषय परिवर्तन निर्देश
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/196/262/9 अथ ध्यानसंतान: कथ्यते‒यत्रांतर्मुहूर्त्तपर्यंतं ध्यानं तदनंतरमंतर्मुहूर्तपर्यंते तत्त्वचिंता, पुनरप्यंतर्मुहूर्तपर्यंतं ध्यानम् । पुनरपि तत: चिंतेति प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवदंतर्मुहूर्तेऽंतमुहूर्ते गते सति परावर्तनमस्ति स ध्यानसंतानो भण्यते।=ध्यान की संतान बताते हैं‒जहाँ अंतर्मुहूर्तपर्यंत ध्यान होता है, तदनंतर अंतर्मुहूर्त पर्यंत तत्त्वचिंता होती है। पुन: अंतर्मुहूर्तपर्यंत ध्यान होता है, पुन: तत्त्वचिंता होती है। इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थान की भाँति अंतर्मुहूर्त में परावर्तन होता रहता है, उसे ही ध्यान की संतान कहते हैं। ( चारित्रसार/203/2 )।
- धर्मध्यान में संभव भाव व लेश्याएँ
धवला 13/5,4,26/53/76 होंति कम्मविसुद्धाओ लेस्साओ पीय पउमसुक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्वमंदादिभेयाओ।53। =धर्मध्यान को प्राप्त हुए जीव के तीव्र-मंद आदि भेदों को लिये हुए, क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती हैं। ( महापुराण/21/156 )।
चारित्रसार/203 सर्वमेतत् धर्मध्यानं पीतपद्मशुक्ललेश्या बलाधानम् ...परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिकभावम् ।=सर्व ही प्रकार के धर्मध्यान पीत, पद्म व शुक्ललेश्या के बल से होता हैं, तथा परोक्षज्ञानगोचर होने से क्षायोपशमिक हैं।( महापुराण/21/156-157 )
ज्ञानार्णव/41/14 धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरांतर्मुहूर्तकी। क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्लैव शाश्वती।14। =इस धर्मध्यान की स्थिति अंतर्मुहूर्त है, इसका भाव क्षायोपशमिक है और लेश्या सदा शुक्ल ही रहती है। (यहाँ धर्मध्यान के अंतिम पाये से अभिप्राय है)।
- वास्तविक धर्मध्यान मिथ्यादृष्टि को संभव नहीं
नयचक्र बृहद्/179 झाणस्स भावणाविय ण हु सो आराहओ हवे नियमा। जो ण विजाणइ वत्थुं पमाणणयणिच्छियं किच्चा।=जो प्रमाण व नय के द्वारा वस्तु का निश्चय करके उसे नहीं जानता, वह ध्यान की भावना के द्वारा भी आराधक नहीं हो सकता। ऐसा नियम है।
ज्ञानार्णव/6/4 ‘रत्नत्रयमनासाद्य य: साक्षाद्धयातुमिच्छति। खपुष्पै: कुरुते मूढ: स वंध्यासुतशेखरम् /4।
ज्ञानार्णव/4/18,30 दुर्दृशामपि न ध्यानसिद्धि: स्वप्नेऽपि जायते। गृह्णतां दृष्टिवैकल्याद्वस्तुजातं यदृच्छयो ।18। ध्यानतंत्रे निषेध्यंते नैते मिथ्यादृश: परम् । मुनयोऽपि जिनेशाज्ञाप्रत्यनीकाश्चलाशया:/30। =जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रय को प्राप्त न होकर ध्यान करना चाहता है, वह मूर्ख आकाश के फूलों से वंध्यापुत्र के लिए सेहरा बनाना चाहता है।4। दृष्टि की विकलता से वस्तु समूह को अपनी इच्छानुसार ग्रहण करने वाले मिथ्यादृष्टियों के ध्यान की सिद्धि स्वप्न में भी नहीं होती है।18। सिद्धांत में ध्यानमात्र केवल मिथ्यादृष्टियों के ही नहीं निषेधते हैं, किंतु जो जिनेंद्र भगवान् की आज्ञा के प्रतिकूल हैं तथा जिनका चित्त चलित है और जैन साधु कहाते हैं, उनके भी ध्यान का निषेध किया जाता है, क्योंकि उनके ध्यान की सिद्धि नहीं होती/30।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/209 नोपलब्धिरसिद्धास्य स्वादुसंवेदनात्स्वयम् । अन्यादेशस्य संस्कारमंतरेण सुदर्शनात् ।209। =संसारी जीवों के मैं सुखी-दु:खी इत्यादि रूप से सुख-दु:ख के स्वाद का अनुभव होने के कारण अशुद्धोपलब्धि असिद्ध नहीं है, क्योंकि उनके स्वयं ही दूसरी अपेक्षा का (स्वरूपसंवेदन का) संस्कार नहीं होता है।
- गुणस्थानों की अपेक्षा धर्मध्यान का स्वामित्व
सर्वार्थसिद्धि/9/36/450/5 धर्म्यध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् । तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति। सर्वार्थसिद्धि/9/37/453/6 श्रेण्यारोहणात्प्राग्धर्म्यं श्रेण्यो शुक्ले इति व्याख्याते। =- धर्मध्यान चार प्रकार का जानना चाहिए। यह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत जीवों के होता है। (राजवार्तिक/9/36/13/632/18; ज्ञानार्णव/28/28 ) =
- श्रेणी चढ़ने से पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं। (राजवार्तिक/9/37/2/633/3 )।
धवला 13/5,4,26/74/10 असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदपमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियट्टिसंजद-सुहुमसांपराइयखवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति जिणावएसादो। = - असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक व उपशामक अनिवृत्तिकरणसंयत, क्षपक व उपशामक सूक्ष्मसांपरायसंयत जीवों के धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिनदेव का उपदेश है। (इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान कषाय सहित जीवों के होता है और शुक्लध्यान उपशांत या क्षीणकषाय जीवों के) (सर्वार्थसिद्धि/9/37/453/4; राजवार्तिक/9/37/2/632/32 )
- धर्मध्यान के स्वामित्व संबंधी शंकाएँ
- मिथ्यादृष्टियों को भी तो धर्मध्यान देखा जाता है
राजवार्तिक/हिं/1/36/747 प्रश्न—मिथ्यादृष्टि अन्यमती तथा भद्रपरिणामी व्रत, शील, संयमादि तथा जीवनि की दया का अभिप्रायकरि तथा भगवान् की सामान्य भक्ति करि धर्मबुद्धितै चित्तकूं एकाग्रकरि चिंतवन करै है, तिनिके शुभ धर्मध्यान कहिये कि नाहीं? उत्तर—इहाँ मोक्षमार्ग का प्रकरण है। तातै जिस ध्यान तै कर्म की निर्जरा होय सो ही यहाँ गिणिये है। सो सम्यग्दृष्टि बिना कर्म की निर्जरा होय नाहीं। मिथ्यादृष्टि के शुभध्यान शुभबंध ही का कारण है। अनादि तै कई बार ऐसा ध्यानकरि शुभकर्म बांधे हैं, परंतु निर्जरा बिना मोक्षमार्ग नाहीं। तातै मिथ्यादृष्टि का ध्यान मोक्षमार्ग में सराह्य नाहीं। (रत्नकरंड श्रावकाचार/पण्डित सदासुखदास/पृष्ठ 316)
महापुराण/21/155 का भाषाकारकृत भावार्थ‒ धर्मध्यान को धारण करने के लिए कम से कम सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए। मंदकषायी मिथ्यादृष्टि जीवों के जो ध्यान होता है उसे शुभ भावना कहते हैं।
- प्रमत्तजनों को ध्यान कैसे संभव है
राजवार्तिक/9/36/13/632/17 कश्चिदाह‒धर्म्यमप्रमत्तसंयत्तस्यैवेति; तन्न; किं कारणम् । पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसंगात् । असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयत-प्रमत्तसंयतानामपि धर्मध्यानमिष्यते सम्यक्त्वप्रभवत्वात् ।=प्रश्न—धर्मध्यान तो अप्रमत्तसंयतों के ही होता है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से पहले के गुणस्थानों में धर्मध्यान का निषेध प्राप्त होता है। परंतु सम्यक्त्व के प्रभाव से असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतजनों में भी धर्मध्यान होना इष्ट है।
- कषाय रहित जीवों में ही ध्यान मानना चाहिए
राजवार्तिक/9/36/14/632/21 कश्चिदाह-उपशांतक्षीणकषाययोश्च धर्म्यध्यानं भवति न पूर्वेषामेवेति; तन्न; किं कारणम् । शुक्लभावप्रसंगात् । उपशांतक्षीणकषाययोर्हि शुक्लध्यानमिष्यते तस्याभाव: प्रसज्येत। =प्रश्न—उपशांत व क्षीणकषाय इन दो गुणस्थानों में धर्म्यध्यान होता, इससे पहिले गुणस्थानों में बिलकुल नहीं होता ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से शुक्लध्यान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। उपशांत व क्षीण कषायगुणस्थान में शुक्लध्यान होना इष्ट है।
- मिथ्यादृष्टियों को भी तो धर्मध्यान देखा जाता है
- धर्मध्यान में विषय परिवर्तन निर्देश
- धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादि में अंतर
- ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिंता में अंतर
भगवती आराधना/1710/1543 (देखें धर्मध्यान - 1/1/2)‒धर्मध्यान आधेय है और अनुप्रेक्षा उसका आधार है। अर्थात् धर्मध्यान करते समय अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन किया जाता है। ( भगवती आराधना/1714/1545 )।
धवला 13/5,4,26/गाथा 12/64 जं थिरमज्झवसाणं तं ज्झाणं जं चलंतयं चित्तं। तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता।12। =जो परिणामों की स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है, और जो चित्त का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना है वह या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है या चिंता है।12। ( महापुराण/21/9 )। (देखें शुक्लध्यान -1/4)।
राजवार्तिक/9/36/12/632/14 स्यादेतत्-अनुप्रेक्षा अपि धर्मध्यानेऽंतर्भवंतीति पृथगासामुपदेशोऽनर्थक इति; तन्न; किं कारणम् । ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पत्वात् । अनित्यादिविषयचिंतनं यदा ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षाव्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्रचिंतानिरोधस्तदा धर्म्यध्यानम् । =प्रश्न—अनुप्रेक्षाओं का भी ध्यान में ही अंतर्भाव हो जाता है, अत: उनका पृथक् व्यपदेश करना निरर्थक है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, ध्यान व अनुप्रेक्षा ये दोनों ज्ञानप्रवृत्ति के विकल्प है। जब अनित्यादि विषयों में बार-बार चिंतनधारा चालू रहती है तब वे ज्ञानरूप है और जब उनमें एकाग्र चिंतानिरोध होकर चिंतनधारा केंद्रित हो जाती है, तब वे ध्यान कहलाती हैं।
ज्ञानार्णव/25/16 एकाग्रचिंतानिरोधो यस्तद्धयानभावनापरा। अनुप्रेक्षार्थचिंता वा तज्झैरभ्युपगम्यते।16। =ज्ञान का एक ज्ञेय में निश्चल ठहरना ध्यान है और उससे भिन्न भावना है, जिसे विज्ञजन अनुप्रेक्षा या अर्थचिंता भी कहते हैं।
भावपाहुड़ टीका/78/229/1 एकस्मिन्निष्टे वस्तुनि निश्चला मतिर्ध्यानम् । आर्तरौद्रधर्मापेक्षया तु मतिश्चंचला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, चित्तं चिंतनं अनेकनययुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचनं वा कथ्यते न तु ध्यानम् ।=किसी एक इष्ट वस्तु में मति का निश्चल होना ध्यान है। आर्त, रौद्र और धर्मध्यान की अपेक्षा अर्थात् इन तीनों ध्यानों में मति चंचल रहती है उसे वास्तव में अशुभ या शुभ भावना कहना चाहिए। अनेक नययुक्त अर्थ का पुन:-पुन: चिंतन करना अनुप्रेक्षा, ख्यापन श्रुतज्ञान के पदों की आलोचना कहलाता है, ध्यान नहीं।
- अथवा अनुप्रेक्षादि को अपायविचय धर्मध्यान में गर्भित समझना चाहिए
महापुराण/21/142 तदपायप्रतिकारचिंतोपायानुचिंतनम् । अत्रैवांतर्गतं ध्येयं अनुप्रेक्षादिलक्षणम् ।142। =अथवा उन अपायों (दु:खों) के दूर करने की चिंता से उन्हें दूर करने वाले अनेक उपायों का चिंतवन करना भी अपायविचय कहलाता है। बारह अनुप्रेक्षा तथा दशधर्म आदि का चिंतवन करना इसी अपायविचय नाम के धर्मध्यान में शामिल समझना चाहिए।
- ध्यान व कायोत्सर्ग में अंतर
धवला 13/5,4,27/88/3 टि्ठयस्स णिसण्णस्स णिव्वण्णस्स वा साहुस्स कसाएहि सह देहपरिच्चागो काउसग्गो णाम। णेदं ज्झाणस्संतो णिवददि; बारहाणुवेक्खासु वावदचित्तस्स वि काओस्सग्गुववत्तीदो। एवं तवोकम्मं परूविदं।=स्थित या बैठे हुए कायोत्सर्ग करने वाले साधु का कषायों के साथ शरीर का त्याग करना कायोत्सर्ग नाम का तप:कर्म है। इसका ध्यान में अंतर्भाव नहीं होता, क्योंकि जिसका बारह अनुप्रेक्षाओं के चिंतवन में चित्त लगा हुआ है, उसके भी कायोत्सर्ग की उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार तप:कर्म का कथन समाप्त हुआ।
- माला जपना आदि ध्यान नहीं
राजवार्तिक/9/27/24/627/10 स्यान्मतं मात्रकालपरिगणनं ध्यानमिति: तन्न; किं कारणम् । ध्यानातिक्रमात् । मात्राभिर्यदि कालगणनं क्रियते ध्यानमेव न स्याद्वैयग्रयात् । =प्रश्न—समयमात्राओं का गिनना ध्यान है ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से ध्यान के लक्षण का अतिक्रमण हो जाता है, क्योंकि, इसमें एकाग्रता नहीं है। गिनती करने में व्यग्रता स्पष्ट ही है।
- धर्मध्यान व शुक्लध्यान में कथंचित् भेदाभेद
- विषय व स्थिरता आदि की अपेक्षा दोनों समान हैं
बा.अनु./64 सुद्धुवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स। तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं।64।=- शुद्धोपयोग से ही जीव को धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरंतर विचारते रहना चाहिए। (देखें मोक्षमार्ग - 2.4); ( तत्त्वानुशासन/180 )
धवला 13/5,4,26/74/1 जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ होदि तो सुक्कज्झाणेण णिव्विसएण होदव्वमिदि ? ण एस दोसो दोण्णं पि ज्झाणाणं विसयं पडिभेदाभावादो। जदि एवं तो दोण्णं ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे। कुदो। ...खज्जंतो वि...फाडिज्जंतो वि ...कवलिज्जंतो वि...लालिज्जंतओ वि जिस्से अवत्थाए ज्झेयादो ण चलदि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम। एसो वि त्थिरभावो उभयत्थ सरिसो, अण्णहाज्झाणभावाणुववत्तीदो त्ति। एत्थ परिहारो वुच्चदे‒सच्चं एदेहि दोहि विसरूवेहि दोण्णं ज्झाणाणं भेदाभावादो।=प्रश्न— - यदि समस्त समयसद्भाव (संस्थानविचय) धर्म्यध्यान का ही विषय है तो शुक्लध्यान का कोई विषय शेष नहीं रहता ? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों ही ध्यानों में विषय की अपेक्षा कोई भेद नहीं है। ( चारित्रसार/210/3 ) प्रश्न—यदि ऐसा है तो दोनों ही ध्यानों में अभेद प्राप्त होता है ? क्योंकि (व्याघ्रादि द्वारा) भक्षण किया गया भी, (करोतों द्वारा) फाड़ा गया भी, (दावानल द्वारा) ग्रसा गया भी, (अप्सराओं द्वारा) लालित किया गया भी, जो जिस अवस्था में ध्येय से चलायमान नहीं होता, वह जीव की अवस्था ध्यान कहलाती है। इस प्रकार का यह भाव दोनों ध्यानों में समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणाम की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? उत्तर—यह बात सत्य है, कि इन दोनों प्रकार के स्वरूपों की अपेक्षा दोनों ही ध्यानों में कोई भेद नहीं है।
महापुराण/21/131 साधारणमिदं ध्येयं ध्यानयोर्धर्म्यशुक्लयो:। =विषय की अपेक्षा तो अभी तक जिन ध्यान करने योग्य पदार्थों का (देखें धर्मध्यान सामान्य व विशेष के लक्षण ) वर्णन किया गया है, वे सब धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन दोनों ही ध्यानों के साधारण ध्येय हैं। ( तत्त्वानुशासन/180 )
- शुद्धोपयोग से ही जीव को धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरंतर विचारते रहना चाहिए। (देखें मोक्षमार्ग - 2.4); ( तत्त्वानुशासन/180 )
- स्वामी, स्थितिकाल, फल व विशुद्धि की अपेक्षा भेद है
धवला 13/5,4,26/75/8 तदो सकसायाकसायसामिभेदेण अचिरकालचिरकालावट्ठाणेण य दोण्णं ज्झाणाणं सिद्धो भेआ।
धवला 13/5,4,26/80/13 अट्ठावीसभेयभिण्णमोहणीयस्स सव्वुवसमावट्ठाणफलं पुधत्तविदक्कवीचारसुक्कज्झाणं। मोहसव्वुसमो पुण धम्मज्झाणफलं; सकासायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहुमसांपराइयस्स चरिमसमएं मोहणीयस्स सव्वुवसमुवलंभादो। तिण्णं घादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कअवीचारज्झाणं। मोहणीय विणासो पुण धम्मज्झाणफलं; सुहुसांपरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो।=-
सकषाय और अकषायरूप स्वामी के भेद से तथा‒ ( चारित्रसार/210/4 )। </l.>
अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थिति रहने के कारण इन दोनों ध्यानों का भेद सिद्ध है। ( चारित्रसार/210/4 )।</l.>
अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना हो जाने पर उसमें स्थित रखना पृथक्त्व-वितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान का फल है, परंतु मोहनीय का सर्वोपशमन करना धर्मध्यान का फल है। क्योंकि, कषायसहित धर्मध्यानी के सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान के अंतिम समय में मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना देखी जाती है।</l.>
तीन घातिकर्मों का समूलविनाश करना एकवितर्क अवीचार (शुक्ल) ध्यान का फल है, परंतु मोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान का फल है। क्योंकि, सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान के अंतिम समय में उसका विनाश देखा जाता है।
महापुराण/21/131 विशुद्धिस्वामिभेदात्तु तद्विशेषोऽवधार्यताम् ।=</l.> इन दोनों में स्वामी व विशुद्धि के भेद से परस्पर विशेषता समझनी चाहिए।( तत्त्वानुशासन/180 )
देखें धर्मध्यान - 4.5.3</l.> धर्मध्यान शुक्लध्यान का कारण है।
देखें समयसार ‒धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्य समयसार है।
</l.>
- विषय व स्थिरता आदि की अपेक्षा दोनों समान हैं
- ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिंता में अंतर
- धर्मध्यान का फल पुण्य व मोक्ष तथा उनका समन्वय
- धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य
धवला 13/5,4,26/56/77 होंति सुहासव संवर णिज्जरामरसुहाई विउलाइं। ज्झाणवरस्स फलाइं सुहाणुबंधीणि धम्मस्स।=उत्कृष्ट धर्मध्यान के शुभास्रव, संवर, निर्जरा, और देवों का सुख ये शुभानुबंधी विपुल फल होते हैं।
ज्ञानार्णव/41/16 अथावसाने स्वतनुं विहाय ध्यानेन संन्यस्तसमस्तसंगा:। ग्रैवेयकानुत्तरपुण्यवासे सर्वार्थसिद्धौ च भवंति भव्या:। =जो भव्य पुरुष इस पर्याय के अंत समय में समस्त परिग्रहों को छोड़कर धर्मध्यान से अपना शरीर छोड़ते हैं, वे पुरुष पुण्य के स्थानरूप ऐसे ग्रैवेयक व अनुत्तर विमानों में तथा सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होते हैं।
- धर्मध्यान का फल संवर निर्जरा व कर्मक्षय
धवला 13/5,4,26/26,57/68,77 णवकम्माणादाणं, पोराणवि णिज्जरासुहादाणं। चारित्तभावणाए ज्झाणमयत्तेण य समेइ।26। जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति। ज्झाणप्पवणोवहया तह कम्मघणा विलिज्जंति।57।=चारित्र भावना के बल से जो ध्यान में लीन है, उसके नूतन कर्मों का ग्रहण नहीं होता, पुराने कर्मों की निर्जरा होती है और शुभकर्मों का आस्रव होता है।26। ( धवला 13/5/4/26/56/77- देखें ऊपरवाला शीर्षक ) अथवा जैसे मेघपटल पवन से ताड़ित होकर क्षणमात्र में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही (धर्म्य) ध्यानरूपी पवन से उपहत्त होकर कर्ममेघ भी विलीन हो जाते हैं।57।
(देखें आगे धर्म्यध्यान - 6.3 में तिलोयपण्णत्ति ), (स्वभावसंसक्त मुनि का ध्यान निर्जरा का हेतु है।)
(देखें पीछे धर्म्यध्यान/3/5/2) ; (सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान के अंत में कर्मों की सर्वोपशमना तथा मोहनीय कर्म का क्षय धर्म्यध्यान का फल है।)
ज्ञानार्णव 22/12 ध्यानशुद्धिं, मन:शुद्धि: करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्त्यपि नि:शंकं कर्मजालानि देहिनाम् ।15।=मन की शुद्धता केवल ध्यान की शुद्धता को ही नहीं करती है, किंतु जीवों के कर्मजाल को भी नि:संदेह काटती है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/25 पर उद्धृत ‒एकाग्रचिंतनं ध्यानं फलं संवरनिर्जरे।=एकाग्र चिंतवन करना तो (धर्म्य) ध्यान है और संवर निर्जरा उसका फल है।
- धर्म्यध्यान का फल मोक्ष
तत्त्वार्थसूत्र/9/29 परे मोक्षहेतू।29।=अंत के दो ध्यान (धर्म्य व शुक्लध्यान) मोक्ष के हेतु हैं।
चारित्रसार/172/2 संसारलतामूलोच्छेदनहेतुभूतं प्रशस्तध्यानं। तद्द्विविधं, धर्म्यं शुक्लं चेति।=संसारलता के मूलोच्छेद का हेतुभूत प्रशस्त ध्यान है। वह दो प्रकार का है‒धर्म्य व शुक्ल।
- एक धर्मध्यान से मोहनीय के उपशम व क्षय दोनों होने का समन्वय
धवला 13/5,4,26/81/3 मोहणीयस्स उवसमो जदि धम्मज्झाणफलो तो ण क्खदी, एयादो दोण्णं कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण धम्मज्झाणादो अणेयभेयभिण्णादो अणेयकज्जाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो।=प्रश्न‒मोहनीय कर्म का उपशम करना यदि धर्म्यध्यान का फल हो तो इसी से मोहनीय का क्षय नहीं हो सकता। क्योंकि एक कारण से दो कार्यों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि धर्म्यध्यान अनेक प्रकार का है। इसलिए उससे अनेक प्रकार के कार्यों की उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता।
- धर्म्यध्यान से पुण्यास्रव व मोक्ष दोनों होने का समन्वय
- साक्षात् नहीं परंपरा मोक्ष का कारण है
ज्ञानार्णव/3/32 शुभध्यानफलोद्भूतां श्रियं त्रिदशसंभवाम् । निर्विशंति नरा नाके क्रमाद्यांति परं पदम् ।32।=मनुष्य शुभध्यान के फल से उत्पन्न हुई स्वर्ग की लक्ष्मी को स्वर्ग में भोगते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त होते हैं। और भी देखें आगे धर्म्यध्यान - 5.2।
- अचरम शरीरियों को स्वर्ग और चरम शरीरियों को मोक्षप्रदायक है
धवला 13/5,4,26/77/1 किंफलमेदं धम्मज्झाणं। अक्खवएसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जरा फलं च। खवएसु पुण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च। अतएव धर्म्यादनपेतं धर्म्यध्यानमिति सिद्धम् ।=प्रश्न‒इस धर्म्यध्यान का क्या फल है ? उत्तर‒अक्षपक जीवों को (या अचरम शरीरियों को) देवपर्याय संबंधी विपुलसुख मिलना उसका फल है, और गुणश्रेणी में कर्मों की निर्जरा होना भी उसका फल है। तथा क्षपक जीवों के तो असंख्यात गुणश्रेणीरूप से कर्मप्रदेशों की निर्जरा होना और शुभकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना उसका फल है। अतएव जो धर्म से अनपेत है व धर्मध्यान है यह बात सिद्ध होती है।
तत्त्वानुशासन/197,224 ध्यातोऽर्हत्सिद्धरूपेण चरमांगस्य मुक्तये। तद्धयानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये।197। ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण त्रुट्यन्मोहस्य योगिन:। चरमांगस्य मुक्ति: स्यात्तदैवान्यस्य च क्रमात् ।224।=अर्हद्रूप अथवा सिद्धरूप से ध्यान किया गया (यह आत्मा) चरमशरीरी ध्याता के मुक्ति का और उससे भिन्न अन्य ध्याता के भुक्ति (भोग) का कारण बनता है, जिसने उस ध्यान से विशिष्ट पुण्य का उपार्जन किया है।197। ध्यान के अभ्यास की प्रकर्षता से मोह को नाश करने वाले चरमशरीरी योगी के तो उस भव में मुक्ति होती है और चरम शरीरी नहीं है उनके क्रम से मुक्ति होती है।224।
- क्योंकि मोक्ष का साक्षात् हेतुभूत शुक्लध्यान धर्म्यध्यान पूर्वक ही होता है
ज्ञानार्णव/42/3 अथ धर्म्यमतिक्रांत: शुद्धिं चात्यंतिकीं श्रित:। ध्यातुमारभते वीर: शुक्लमत्यंतनिर्मलम् ।3।=इस धर्म्यध्यान के अनंतर धर्म्यध्यान से अतिक्रांत होकर अत्यंत शुद्धता को प्राप्त हुआ धीर वीर मुनि अत्यंत निर्मल शुक्लध्यान के ध्यावने का प्रारंभ करता है। विशेष देखें धर्मध्यान - 6.6। (पंचास्तिका संग्रह /150)‒(देखें समयसार )‒धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्यसमयसार।
- साक्षात् नहीं परंपरा मोक्ष का कारण है
- परपदार्थों के चिंतवन से कर्मक्षय कैसे संभव है
धवला 13/5,4,26/70/4 कधं ते णिग्गुणा कम्मक्खयकारिणो। ण तेसिं रागादिणिरोहे णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो।=प्रश्न‒जब कि नौ पदार्थ निर्गुण होते हैं, अर्थात् अतिशय रहित होते हैं, ऐसी हालत में वे कर्मक्षय के कर्ता कैसे हो सकते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि वे रागादि के निरोध करने में निमित्तकारण हैं, इसलिए उन्हें कर्मक्षय का निमित्त मानने में विरोध नहीं आता। (अर्थात् उन जीवादि नौ पदार्थों के स्वभाव का चिंतवन करने से साम्यभाव जागृत होता है।)
- धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य
- पंचमकाल में भी धर्मध्यान की सफलता
- यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता
परमात्मप्रकाश टीका/1/97/92/4 यद्यंतर्मुहूर्तपरमात्मध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि इदानीं अस्माकं तद्धयानं कुर्वाणानां किं न भवति। परिहारमाहयादृशं तेषां प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति तादृशमिदानीं नास्तीति।=प्रश्न‒यदि अंतर्मुहूर्तमात्र परमात्मध्यान से मोक्ष होता है तो ध्यान करने वाले भी हमें आज वह क्यों नहीं होता ? उत्तर‒जिस प्रकार का शुक्लध्यान प्रथम संहनन वाले जीवों को होता है वैसा अब नहीं होता।
- यदि इस काल में मोक्ष नहीं तो ध्यान करने से क्या प्रयोजन
द्रव्यसंग्रह टीका/57/233/11 अथ मतं‒मोक्षार्थं ध्यानं क्रियते, न चाद्यकाले मोक्षोऽस्ति; ध्यानेन किं प्रयोजनम् । नैवं अद्यकालेऽपि परंपरया मोक्षोऽस्ति। कथमिति चेत्, स्वशुद्धात्मभावनाबलेन संसारस्थितिं स्तोकं कृत्वा देवलोकं गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावनां लब्ध्वा शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति। येऽपि भरतसगररामपांडवादयो मोक्षं गतास्तेऽपि पूर्वभवेऽभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थितिं स्तोकं कृत्वा पश्चान्मोक्षं गता:। तद्भवे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति।=प्रश्न‒मोक्ष के लिए ध्यान किया जाता है, और मोक्ष इस पंचमकाल में होता नहीं है, इस कारण ध्यान के करने से क्या प्रयोजन? उत्तर‒इस पंचमकाल में भी परंपरा से मोक्ष है। प्रश्न‒सो कैसे है? उत्तर‒ध्यानी पुरुष निज शुद्धात्मा की भावना के बल से संसार की स्थिति को अल्प करके स्वर्ग में जाता है। वहाँ से मनुष्यभव में आकर रत्नत्रय की भावना को प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्ष को चला जाता है। जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचंद्र तथा पांडव युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम आदि मोक्ष को गये हैं, उन्होंने भी पूर्वभव में अभेदरत्नत्रय की भावना से अपने संसार की स्थिति को घटा लिया था। इस कारण उसी भव में मोक्ष गये। उसी भव में सबको मोक्ष हो जाता हो, ऐसा नियम नहीं है। (और भी देखो/7/12)।
- पंचमकाल में अध्यात्मध्यान का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव
नयचक्र बृहद्/343 मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव वीयरायसामग्गी। तम्हा सुद्धचरित्ता पंचमकाले वि देसदो अत्थि।343।=सराग की भाँति वीतरागता की सामग्री जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होती है। इसलिए पंचमकाल में भी शुद्धचरित्र कहा गया है। (और भी देखें अनुभव - 5.2)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/154 / क.264 असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले, न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननयजिननाथस्य भवति। अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवन्निर्मलधियां, निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।264।=असार संसार में, पाप से भरपूर कलिकाल का विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथ के मार्ग में मुक्ति नहीं है। इसलिए इस काल में अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिए निर्मल बुद्धि वाले भवभय का नाश करने वाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धा को अंगीकृत करते हैं।
- परंतु इस काल में ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं है
मोक्षपाहुड़/76 भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावट्ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।76।=भरतक्षेत्र में दु:षमकाल अर्थात् पंचमकाल में भी आत्मस्वभावस्थित साधु को धर्मध्यान होता है। जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है। ( रयणसार/60 ); ( तत्त्वानुशासन/82 )।
ज्ञानार्णव/4/37 दु:षमत्वादयं काल: कार्यसिद्धेर्न साधकम् । इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्धयानं निषिध्यते।37।=कोई-कोई साधु ऐसा कहकर अपने तथा पर के ध्यान का निषेध करते हैं कि इस दु:षमा पंचमकाल में ध्यान की योग्यता किसी के भी नहीं है। (उन अज्ञानियों के ध्यान की सिद्धि कैसे हो सकती है ?)।
- पंचमकाल में शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य संभव है
तत्त्वानुशासन/83 अत्रेदानीं निषेधंति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा:। धर्मध्यानं पुन: प्राहु: श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ।83। =यहाँ (भरतक्षेत्र में) इस (पंचम) काल में जिनेंद्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं परंतु श्रेणी से पूर्ववर्तियों के धर्मध्यान बतलाते हैं। (द्रव्यसंग्रह टीका/57/231/11) (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/146/211/17)।
- यदि ध्यान से मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता
- निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश
- निश्चय धर्मध्यान का लक्षण
मोक्षपाहुड़/84 पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदसणसमग्गा। जो ज्झायदि सो जोई पावहरो भवदि णिद्दंदो’।84।=जो योगी शुद्धज्ञानदर्शन समग्र पुरुषाकार आत्मा को ध्याता है वह निर्द्वंद तथा पापों का विनाश करने वाला होता है।
द्रव्यसंग्रह/55-56 जं किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लद्धूण य एयत्तं तदाहु तं णिच्छयं झाणं।55। मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाणं।56।=ध्येय में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी भी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्ति होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय होता है।55। हे भव्य पुरुषो ! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो, अर्थात् काय, वचन व मन तीनों की प्रवृत्ति को रोको; जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में स्थिर होवे। आत्मा में लीन होना परमध्यान है।56।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/482 वज्जिय-सयल-वियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरुंधंतो। जं चिंतदि साणं दे तं धम्मं उत्तमं ज्झाणं।482।=सकल विकल्पों को छोड़कर और आत्मस्वरूप में मन को रोककर आनंदसहित जो चिंतन होता है वही उत्तम धर्मध्यान है।
तत्त्वानुशासन/ श्लो.नं./भावार्थ‒निश्चयादधुना स्वात्मालंबनं तन्निरुच्यते।141। पूर्वं श्रुतेन संस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्तत:। तत्रैकाग्य्रं समासाद्य न किंचिदपि चिंतयेत् ।144।=अब निश्चयनय से स्वात्मलंबन स्वरूपध्यान का निरूपण करते हैं।141। श्रुत के द्वारा आत्मा में आत्मसंस्कार को आरोपित करके, तथा उसमें ही एकाग्रता को प्राप्त होकर अन्य कुछ भी चिंतवन न करे।144। शरीर और मैं अन्य-अन्य हैं।149। मैं सदा सत्, चित्, ज्ञाता, द्रष्टा, उदासीन, देह परिमाण व आकाशवत् अमूर्तिक हूँ।153। दृष्ट जगत् न इष्ट है न द्विष्ट किंतु उपेक्ष्य है।157। इस प्रकार अपने आत्मा को अन्य शरीरादिक से भिन्न करके अन्य कुछ भी चिंतवन न करे।159। यह चिंताभाव तुच्छाभाव रूप नहीं है, बल्कि समतारूप आत्मा के स्वसंवेदनरूप है।160। (ज्ञानार्णव/31/20-37)।
द्रव्य संग्रह टीका/48/204/11 में अनंत ज्ञानादि का धारक तथा अनंत सुखरूप हूँ, इत्यादि भावना अंतरंग धर्मध्यान है। (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150-151/218/1)।
- व्यवहार धर्मध्यान का लक्षण
तत्त्वानुशासन/141 व्यवहारनयादेवं ध्यानमुक्तं पराश्रयम् ।=इस प्रकार व्यवहार नय से पराश्रित धर्मध्यान का लक्षण कहा है। (अर्थात् धर्मध्यान सामान्य व उसके आज्ञा अपाय विचय आदि भेद सब व्यवहार ध्यान में गर्भित हैं।)
- निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं
प्रवचनसार/193-194 देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाधसत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगअप्पगो अप्पा।193। जो एवं जाणित्ताज्झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। साकारोऽनाकार: क्षपयति स मोहदुर्ग्रंथिम् ।194।=शरीर, धन, सुख, दु:ख अथवा शत्रु, मित्रजन से सब ही जीव के कुछ नहीं हैं, ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है।193। जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या अनाकार, मोहदुर्ग्रंथि का क्षय करता है।
तिलोयपण्णत्ति/9/21,40 दंसणणाणसमग्गं ज्झाणं णो अण्णदव्वसंसत्तं। जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स।21। ज्झाणे जदि णियआदा णाणादो णावभासदे जस्स। ज्झाणं होदि ण तं पुण जाण पमादो, हु मोहमुच्छा वा।40।=शुद्ध स्वभाव से सहित साधु का दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण ध्यान निर्जरा का कारण होता है, अन्य द्रव्यों से संसक्त वह निर्जरा का कारण नहीं होता।21। जिस जीव के ध्यान में यदि ज्ञान से निज आत्मा का प्रतिभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है। उसे प्रमाद, मोह अथवा मूर्च्छा ही जानना चाहिए।40। (तत्त्वानुशासन/169)
आराधनासार/83 यावद्विकल्प: कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं, चिंता वा भावनाथवा।83।=जब तक ध्यानयुक्त योगी को किसी प्रकार का भी विकल्प उत्पन्न होता रहता है, तब तक उसे शून्य ध्यान नहीं है, या तो चिंता है या भावना है। (और भी देखें धर्म्यध्यान - 3.1)
ज्ञानार्णव/28/19 अविक्षिप्तं यदा चेत: स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत् । मनस्तदैव निर्विघ्ना ध्यानसिद्धिरुदाहृता।19।=जिस समय मुनि का चित्त क्षोभरहित हो आत्मस्वरूप के सम्मुख होता है, उस काल ही ध्यान की सिद्धि निर्विघ्न होती है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/194 अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्ते: शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनंतशक्तिचिंमात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् ।=इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मत्व होता है, इसलिए अनंत शक्ति वाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतन लक्षण ध्यान होता है। (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/196), (नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/119)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/243 यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति।...तथाभूतश्च बध्यत एव न तु मुच्यते।=जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र को नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है और ऐसा होता हुआ बंध को ही प्राप्त होता है, परंतु मुक्त नहीं होता।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/144, य: खलु...व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणत: अत एव चरणकरणप्रधान, ...किंतु स निरपेक्षतपोधन: साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयत: परमातत्त्वविश्रांतरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अत: परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त:।=जो वास्तव में व्यावहारिक धर्मध्यान में परिणत रहता है, इसलिए चरणकरणप्रधान है; किंतु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यककर्म को, निश्चय से परमात्मतत्त्व में विश्रांतिरूप निश्चयधर्मध्यान को तथा शुक्लध्यान को नहीं जानता; इसलिए परद्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है।
- व्यवहार ध्यान कथंचित् अज्ञान है
समयसार / आत्मख्याति/191 एतेन कर्मबंधविषयचिंताप्रबंधात्मकविशुद्धधर्मध्यानांधबुद्धयो बोध्यंते।= इस कथन से कर्मबंध में चिंताप्रबंधस्वरूप विशुद्ध धर्मध्यान से जिनकी बुद्धि अंधी है, उनको समझाया है।
- व्यवहार ध्यान निश्चय का साधन है
द्रव्य-संग्रह/टीका/49/209/4 निश्चयध्यानस्य परंपरया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम् ।=निश्चयध्यान का परंपरा से कारणभूत जो शुभोपयोग लक्षण व्यवहारध्यान है। (द्रव्य संग्रह/टीका/53/221/2)
- निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्यसाधकपने का समन्वय
धवला 13/5,4,26/22/67 विसमं हि समारोहइ दव्वालंवणो जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तहा झाणवरं समारुहइ।22।=जिस प्रकार कोई पुरुष नसैनी (सीढ़ी) आदि द्रव्य के आलंबन से विषमभूमि पर भी आरोहण करता है, उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि के आलंबन से उत्तम ध्यान को प्राप्त होता है। (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1877/1681/12)
ज्ञानार्णव/33/2,4 अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम् ।2। अलक्ष्यं लक्ष्यसंबंधात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिंतयेत् । सालंबाच्च निरालंबं तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा।4।=आत्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर, अपने में जोड़ता हुआ भी अविद्या की वासना से विवश है आत्मा जिनका, उनका चित्त स्थिरता को नहीं धारण करता है।2। तब लक्ष्य के संबंध से अलक्ष्य को अर्थात् इंद्रियगोचर के संबंध से इंद्रियातीत पदार्थों को तथा स्थूल के आलंबन से सूक्ष्म को चिंतवन करता है। इस प्रकार सालंब ध्यान से निरालंब के साथ तन्मय हो जाता है।4। (और भी देखें चारित्र - 7.10)
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/152/220/9 अयमत्र भावार्थ:‒प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थं विषयाभिलाषरूपध्यानवंचनार्थं च परंपरया मुक्तिकारणं पंचपरमेष्ठयादिपरद्रव्यं ध्येयं भवति, दृढतरध्यानाभ्यासेन चित्ते स्थिरे जाते सति निजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयं।...इति परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो न कर्तव्य:।=प्राथमिक जनों को चित्त स्थिर करने के लिए तथा विषयाभिलाषरूप दुर्ध्यान से बचने के लिए परंपरा मुक्ति के कारणभूत पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय होते हैं। तथा दृढतर ध्यान के अभ्यास द्वारा चित्त के स्थिर हो जाने पर निजशुद्ध आत्मस्वरूप ही ध्येय होता है। ऐसा भावार्थ है। इस प्रकार परस्पर सापेक्ष निश्चय व्यवहारनयों के द्वारा साध्यसाधक भाव को जानकर ध्येय के विषय में विवाद नहीं करना चाहिए। (द्रव्यसंग्रह/टीका/55/223/12), (परमात्मप्रकाश टीका/2/33/154/2)
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150/217/14 यदायं जीव:...सरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा पंचपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण पराश्रितधर्म्यध्यानबहिरंगसहकारित्वेनानंतज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टयादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये क्वापि गुणस्थाने दर्शनमोहक्षयेणक्षायिक सम्यक्त्वं कृत्वा तदनंतरमपूर्वकरणादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुषनिर्मलविवेकज्यातिरूपप्रथमशुक्लध्यानमनुभूय...मोहक्षपणं कृत्वा...भावमोक्षं प्राप्नोति।=अनादिकाल से अशुद्ध हुआ यह जीव सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी आदि की भक्ति आदि रूप से पराश्रित धर्म्यध्यान के बहिरंग सहकारीपने से ‘मैं अनंत ज्ञानादि स्वरूप हूँ’ ऐसे आत्माश्रित धर्मध्यान को प्राप्त होता है, तत्पश्चात् आगम कथित क्रम से असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत पर्यंत चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में दर्शनमोह का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। तदनंतर अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में प्रकृति व पुरुष (कर्म व जीव) संबंधी निर्मल विवेक ज्यातिरूप प्रथम शुक्लध्यान का अनुभव करने के द्वारा वीतराग चारित्र को प्राप्त करके मोह का क्षय करता है, और अंत में भावमोक्ष प्राप्त कर लेता है।
- निश्चय व व्यवहार ध्यान में निश्चय शब्द की आंशिक प्रवृत्ति
द्रव्यसंग्रह टीका/55-56/224/6 निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोग लक्षणविवक्षितैदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रे वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:।55। ‘मा चिट्ठह...।’ इदमेवात्मसुखरूपे तन्मयत्वं निश्चयेन परमुत्कृष्टध्यानं भवति।=’निश्चय’ शब्द से अभ्यास करने वाले पुरुष की अपेक्षा से व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए और जिसके ध्यान सिद्ध हो गया है उस पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेशशुद्ध निश्चय ग्रहण करना चाहिए। विशेष निश्चय आगे के सूत्र में कहा है, कि मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोककर आत्मा के सुखरूप में तन्मय हो जाना निश्चय से परम उत्कृष्ट ध्यान है। (विशेष देखें अनुभव - 5.7)
- निरीहभाव से किया गया सभी उपयोग एक आत्म उपयोग ही है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/861-865 अस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदय:। आत्मपरोभयाकारभावश्च प्रदीपवत् ।761। निर्विशेषाद्यथात्मानमिव ज्ञेयमवैति च। तथा मूर्तानमूर्तांश्च धर्मादीनवगच्छति।862। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि। पर स्मिन्नुपयुक्तो वा नोपयुक्त: स एव हि।863। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोऽपि नोत्कर्षाय स वस्तुत:। उपयुक्त: परत्रापि नापकर्षाय तत्त्वत:।864। तस्मात् स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया। मासीदसि महाप्राज्ञ: सार्थमर्थमवैहि भो:।865। =निजमहिमा से ही ज्ञान प्रदीपवत् स्व, पर व उभय का युगपत् अवभासक है।861। वह किसी प्रकार का भी भेदभाव न करके अपनी तरह ही अपने विषयभूत मूर्त व अमूर्त धर्म अधर्मादि द्रव्यों को भी जानता है।862। अत: केवलनिजात्मोपयोगी अथवा परपदार्थोपयोगी ही न होकर निश्चय से वह उभयविषयोपयोगी है।863। उस सम्यग्दृष्टि को स्व में उपयुक्त होने से कुछ उत्कर्ष (विशेष संवर निर्जरा) और पर में उपयुक्त होने से कुछ अपकर्ष (बंध) होता हो, ऐसा नहीं है।864। इसलिए परपदार्थों के साथ अभिन्नता देखकर तुम दु:खी मत होओ। प्रयोजनभूत अर्थ को समझो। और भी देखें ध्यान - 4.5 (अर्हंत का ध्यान वास्तव में तद्गुणपूर्ण आत्मा का ध्यान ही है)।
- निश्चय धर्मध्यान का लक्षण
पुराणकोष से
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त वस्तु के स्वरूप/स्वभाव ला चिंतन । मूलत: इसके चार भेद हैं― आज्ञाविचय अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । हरिवंशपुराण कार के अनुसार इसके दस भेद हैं― अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाक-विचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय । धर्मध्याता सम्यग्दृष्टि होता है । वह ज्ञान, वैराग्य, धैर्य और क्षमा से युक्त होता है । अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करता रहता है । उसके पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती है । यह ध्यान अप्रमत्त-अवस्था का अवलंबन कर अंतर्मुहूर्त मात्र स्थित रहता है । उक्त लेश्याओं के द्वारा वृद्धि को प्राप्त यह ध्यान चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान में भी होता है । अशुभ कर्मों की निर्जरा, स्वर्ग और परंपरा से अपवर्ग की प्राप्ति इसके फल है । इस ध्यान का ध्येय अर्हंतदेव होता है । इसके लिए जहाँ न अधिक गर्मी हो और न शीत हो ऐसे गुफा, नदी-तट, पर्वत, उद्यान और वन ऐसे स्थान अपेक्षित है । महापुराण 20. 208-210, 226-228,21.131-134, 155-163, 36.161 हरिवंशपुराण 56.36 -52 , वीरवर्द्धमान चरित्र 6.51-52