ध्याता
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
धर्म व शुक्लध्यानों को ध्याने वाले योगी को ध्याता कहते हैं। उसी की विशेषताओं का परिचय यहाँ दिया गया है।
- प्रशस्त ध्याता में ज्ञान संबंधी नियम व स्पष्टीकरण
- प्रशस्त ध्यानसामान्य योग्य ध्याता
- ध्याता न होने योग्य व्यक्ति
- धर्मध्यान के योग्य ध्याता
- शुक्लध्यान योग्य ध्याता
- ध्याताओं के उत्तम आदि भेद निर्देश
- अन्य संबंधित विषय
- प्रशस्त ध्याता में ज्ञान संबंधी नियम व स्पष्टीकरण
तत्त्वार्थसूत्र/9/37 शुक्ले चाद्ये पूर्वविद:।37।
सर्वार्थसिद्धि/9/37/453/4 आद्ये शुक्लध्याने पूर्वविदो भवत: श्रुतकेवलिन इत्यर्थ:। (नेतरस्य ( राजवार्तिक )) चशब्देन धर्म्यमपि समुच्चीयते। =शुक्लध्यान के भेदों में से आदि के दो शुक्लध्यान (पृथक्त्व व एकत्व वितर्कवीचार) पूर्वविद् अर्थात् श्रुतकेवली के होते हैं अन्य के नहीं।
सूत्र में दिये गये ‘च’ शब्द से धर्म्यध्यान का भी समुच्चय होता है। (अर्थात् शुक्लध्यान तो पूर्वविद् को ही होता है परंतु धर्मध्यान पूर्वविद् को भी होता है और अल्पश्रुत को भी।) ( राजवार्तिक/9/37/1/632/30 )
धवला 13/5,4,26/64/6 चउदस्सपुव्वहरो वा [दस] णवपुव्वहरो वा, णाणेण विणा अणवगय-णवपयत्थस्स झाणाणुववत्तीदो। ...चोद्दस-दस-णवपुव्वेहिं विणा थोवेण वि गंथेण णवपयत्थावगमोवलंभादो। ण, थोवेण गंथेण णिस्सेसमवगंतुं बीजबुद्धिमुणिणो मोत्तूण अण्णेसिमुवायाभावादो।...ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोवलिंगभूदस्स सुदत्तविरोहादो। थोवदव्वसुदेण अवगयासेस-णवपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणाभावेण मोक्खाभावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्झाणं होदि तो खवगसेडिउवसमसेडिणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि। चोद्दस-दस-णवपुव्व-हरा पुण धम्मसुक्कज्झाणं दोण्णं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। तेण तेसिं चेव एत्थ णिद्देसो कदो।=जो चौदह पूर्वों को धारण करने वाला होता है, वह ध्याता होता है, क्योंकि इतना ज्ञान हुए बिना, जिसने नौ पदार्थों को भली प्रकार नहीं जाना है, उसके ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? प्रश्न‒चौदह, दस और नौ पूर्वों के बिना स्तोकग्रंथ से भी नौ पदार्थ विषयक ज्ञान देखा जाता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि स्तोक ग्रंथ से बीजबुद्धि मुनि ही पूरा जान सकते हैं, उनके सिवा दूसरे मुनियों को जानने का कोई साधन नहीं है। (अर्थात् जो बीजबुद्धि नहीं है वे बिना श्रुत के पदार्थों का ज्ञान करने को समर्थ नहीं है) और द्रव्यश्रुत का यहाँ अधिकार नहीं है। क्योंकि ज्ञान के उपलिंगभूत पुद्गल के विकारस्वरूप जड़ वस्तु को श्रुत (ज्ञान) मानने में विरोध आता है। प्रश्न‒स्तोक द्रव्यश्रुत से नौ पदार्थों को पूरी तरह जानकर शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियों के ध्यान नहीं मानने से मोक्ष का अभाव प्राप्त होता है? उत्तर‒स्तोक ज्ञान से यदि ध्यान होता है तो वह क्षपक व उपशमश्रेणी के अयोग्य धर्मध्यान ही होता है (धवलाकार पृथक्त्व वितर्कवीचार को धर्मध्यान मानते हैं‒देखें धर्मध्यान - 2.4-5) परंतु चौदह, दस और नौ पूर्वों के धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानों के स्वामी होते हैं। क्योंकि ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। इसलिए उन्हीं का यहाँ निर्देश किया गया है।
महापुराण/21/101-102 स चतुर्दशपूर्वज्ञो दशपूर्वधरोऽपि वा। नवपूर्वधरो वा स्याद् ध्याता संपूर्णलक्षण:।101। श्रुतेन विकलेनापि स्याद् ध्याता सामग्रीं प्राप्य पुष्कलाम् । क्षपकोपशमश्रेण्यो: उत्कृष्टं ध्यानमृच्छति।104।=यदि ध्यान करने वाला मुनि चौदह पूर्व का, या दश पूर्व का, या नौ पूर्व का जानने वाला हो तो वह ध्याता संपूर्ण लक्षणों से युक्त कहलाता है।101। इसके सिवाय अल्पश्रुतज्ञानी अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पहले पहले धर्मध्यान धारण करने वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है।102।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/10/22/11 ननु तर्हि स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली भवति। तन्न; यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूपं स्वसंवेदनज्ञानं तादृशमिदानीं नास्ति किंतु धर्मध्यानयोग्यमस्तीति। =प्रश्न‒स्वसंवेदनज्ञान के बल से इस काल में भी श्रुतकेवली होने चाहिए ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि जिस प्रकार का शुक्लध्यान रूप स्वसंवेदन पूर्वपुरुषों के होता था, उस प्रकार का इस काल में नहीं होता। केवल धर्मध्यान योग्य होता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/57/232/9 यथोक्तं दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुन: पंचसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकसारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति।=तथा जो ऐसा कहा है, कि ‘दश तथा चौदह पूर्व तक श्रुतज्ञान से ध्यान होता है, वह उत्सर्ग वचन हैं। अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रतिपादन करने वाले सारभूतश्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/146/212/9 ); (और भी देखें श्रुतकेवली )
- प्रशस्त ध्यानसामान्य योग्य ध्याता
धवला 13/5,4,26/64/6 तत्थ उत्तमसंघडणो ओघवलो ओघसूरो चोहस्सपुव्वहरो वा (दस) णवपुव्वहरो वा।=जो उत्तम संहननवाला, निसर्ग से बलशाली और शूर, तथा चौदह या दस या नौ पूर्व को धारण करने वाला होता है वह ध्याता है। ( महापुराण/21/85 )
महापुराण/21/86-87 दोरोत्सारितदुर्ध्यानो दुर्लेश्या: परिवर्जयन् । लेश्याविशुद्धिमालंब्य भावयन्नप्रमत्तताम् ।86। प्रज्ञापारमितो योगी ध्याता स्याद्धीबलान्वित:। सूत्रार्थालंबनो धीर: सोढाशेषपरीषह:।87। अपि चोद्भूतसंवेग: प्राप्तनिर्वेदभावन:। वैराग्यभावनोत्कर्षात् पश्यन् भोगानतर्प्तकान् ।88। सम्यग्ज्ञानभावनापास्तमिथ्याज्ञानतमोघन:। विशुद्धदर्शनापोढगाढमिथ्यात्वशल्यक:।89।=आर्त व रौद्र ध्यानों से दूर, अशुभ लेश्याओं से रहित, लेश्याओं की विशुद्धता से अवलंबित, अप्रमत्त अवस्था की भावना भाने वाला।86। बुद्धि के पार को प्राप्त, योगी, बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलंबी, धीर वीर, समस्त परीषहों को सहने वाला।87। संसार से भयभीत, वैराग्य भावनाएँ भानेवाला, वैराग्य के कारण भोगोपभोग की सामग्री को अतृप्तिकर देखता हुआ।88। सम्यग्ज्ञान की भावना से मिथ्याज्ञानरूपी गाढ़ अंधकार को नष्ट करने वाला, तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्या शल्य को दूर भगाने वाला, मुनि ध्याता होता है।89। (देखें ध्याता - 4 तत्त्वानुशासन )
द्रव्यसंग्रह/57 तवसुदवदवं चेदा झाणरह धुरंधरो हवे जम्हा। तम्हा तत्तिय णिरदा तल्लद्धीए सदा होह।=क्योंकि तप व्रत और श्रुतज्ञान का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के लिए निरंतर तप श्रुत और व्रत में तत्पर होओ।
चारित्रसार/167/2 ध्याता...गुप्तेंद्रियश्च। =प्रशस्त ध्यान का ध्याता मन वचन काय को वश में रखने वाला होता है।
ज्ञानार्णव/4/6 मुमुक्षुर्जन्मनिर्विण्य: शांतचित्तो वशी स्थिर:। जिताक्ष: संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते।6।=मुमुक्षु हो, संसार से विरक्त हो, शांतचित्त हो, मन को वश करने वाला हो, शरीर व आसन जिसका स्थिर हो, जितेंद्रिय हो, चित्त संवरयुक्त हो (विषयों में विकल न हो), धीर हो, अर्थात् उपसर्ग आने पर न डिगे, ऐसे ध्याता की ही शास्त्रों में प्रशंसा की गयी है। ( महापुराण/21/90-95 ); ( ज्ञानार्णव/27/3 )
- ध्याता न होने योग्य व्यक्ति
ज्ञानार्णव/4/ श्लोक नं. केवल भावार्थ‒जो मायाचारी हो।32। मुनि होकर भी जो परिग्रहधारी हो।33। ख्याति लाभ पूजा के व्यापार में आसक्त हो।35। ‘नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली’ इस उपाख्यान को सत्य करने वाला हो।42। इंद्रियों का दास हो।43। विरागता को प्राप्त न हुआ हो।44। ऐसे साधुओं को ध्यान की प्राप्ति नहीं होती।
ज्ञानार्णव/4/62 एते पंडितमानिन: शमदमस्वाध्यायचिंतायुता:, रागादिग्रहबंचिता यतिगुणप्रध्वंसतृष्णानना:। व्याकृष्टा विषयैर्मदै: प्रमुदिता: शंकाभिरंगीकृता, न ध्यानं न विवेचनं न च तप: कर्तु वराका: क्षमा:।62।=जो पंडित तो नहीं है, परंतु अपने को पंडित मानते हैं, और शम, दम, स्वाध्याय से रहित तथा रागद्वेषादि पिशाचों से वंचित हैं, एवं मुनिपने के गुण नष्ट करके अपना मुँह काला करने वाले हैं, विषयों से आकर्षित, मदों से प्रसन्न, और शंका संदेह शल्यादि से ग्रस्त हों, ऐसे रंक पुरुष न ध्यान करने को समर्थ है, न भेदज्ञान करने को समर्थ हैं और न तप ही कर सकते हैं।
देखें मंत्र 1.3 ‒(मंत्र यंत्रादि की सिद्धि द्वारा वशीकरण आदि कार्यों की सिद्धि करने वालों को ध्यान की सिद्धि नहीं होती)
देखें धर्मध्यान - 2.3 (मिथ्यादृष्टियों को यथार्थ धर्म व शुक्लध्यान होना संभव नहीं है)
देखें अनुभव - 5.5 (साधु को ही निश्चयध्यान संभव है गृहस्थ को नहीं, क्योंकि प्रपंचग्रस्त होने के कारण उसका मन सदा चंचल रहता है।
- धर्मध्यान के योग्य ध्याता
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/479 धम्मे एयग्गमणो जो णवि वेदेदि पंचहा विसयं। वेरग्गमओ णाणी धम्मज्झाणं हवे तस्स।479।=जो ज्ञानी पुरुष धर्म में एकाग्रमन रहता है, और इंद्रियों के विषयों का अनुभव नहीं करता, उनसे सदा विरक्त रहता है, उसी के धर्मध्यान होता है। (देखें ध्याता - 2 में ज्ञानार्णव/4/6 )
तत्त्वानुशासन/41-45 तत्रासन्नीभवन्मुक्ति: किंचिदासाद्य कारणम् । विरक्त: कामभोगेभ्यस्त्यक्त-सर्वपरिग्रह:।41। अभ्येत्य सम्यगाचार्यं दीक्षां जैनेश्वरीं श्रित:। तपोसंयमसंपन्न: प्रमादरहिताशय:।42। सम्यग्निर्णीतजीवादिध्येयवस्तुव्यवस्थिति:। आर्तरौद्रपरित्यागाल्लब्धचित्तप्रसक्तिक:।43। मुक्तलोकद्वयापेक्ष: सोढाऽशेषपरीषह:। अनुष्ठितक्रियायोगो ध्यानयोगे कृतोद्यम:।44। महासत्त्व: परित्यक्तदुर्लेश्याऽशुभभावना:। इतीदृग्लक्षणो ध्याता धर्मध्यानस्य संमत:।45। =धर्मध्यान का ध्याता इस प्रकार के लक्षणों वाला माना गया है‒जिसकी मुक्ति निकट आ रही हो, जो कोई भी कारण पाकर कामसेवा तथा इंद्रियभोगों से विरक्त हो गया हो, जिसने समस्त परिग्रह का त्याग किया हो, जिसने आचार्य के पास जाकर भले प्रकार जैनेश्वरी दीक्षा धारण की हो, जो जैनधर्म में दीक्षित होकर मुनि बना हो, जो तप और संयम से संपन्न हो, जिसका आश्रय प्रमाद रहित हो, जिसने जीवादि ध्येय वस्तु की व्यवस्थिति को भले प्रकार निर्णीत कर लिया हो, आर्त्त और रौद्र ध्यानों के त्याग से जिसने चित्त की प्रसन्नता प्राप्त की हो, जो इस लोक और परलोक दोनों की अपेक्षा से रहित हो, जिसने सभी परिषहों को सहन किया हो, जो क्रियायोग का अनुष्ठान किये हुए हो (सिद्धभक्ति आदि क्रियाओं के अनुष्ठान में तत्पर हो।) ध्यानयोग में जिसने उद्यम किया हो (ध्यान लगाने का अभ्यास किया हो) जो महासामर्थ्यवान हो, और जिसने अशुभ लेश्याओं तथा बुरी भावनाओं का त्याग किया हो। (ध्याता/2/में महापुराण )
और भी देखें धर्मध्यान - 1.2 जिनाज्ञा पर श्रद्धान करने वाला, साधु का गुण कीर्तन करने वाला, दान, श्रुत, शील, संयम में तत्पर, प्रसन्न चित्त, प्रेमी, शुभ योगी, शास्त्राभ्यासी, स्थिरचित्त, वैराग्य भावना में भाने वाला ये सब धर्मध्यानी के बाह्य व अंतरंग चिह्न हैं। शरीर की नीरोगता, विषय लंपटता व निष्ठुरता का अभाव, शुभ गंध, मलमूत्र अल्प होना, इत्यादि भी उसके बाह्य चिह्न है।
देखें धर्मध्यान - 1.3 वैराग्य, तत्त्वज्ञान, परिग्रह त्याग, परिषहजय, कषाय निग्रह आदि धर्मध्यान की सामग्री है।
- शुक्लध्यान योग्य ध्याता
धवला 13/5,4,26/गा.67-71/82 अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स होंति लिंगाइं। लिंगिज्जइ जेहि मुणी सुक्कज्झाणेवगयचित्तो।67। चालिज्जइ वीहेइ व धीरो ण परीसहोवसग्गेहि। सुहुमेसु ण सम्मुज्झइ भावेसु ण देवमायासु।68। देह विचित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोए। देहोबहिवोसग्गं णिस्संगो सव्वदो कुणदि।69। ण कसायसमुत्थेहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुक्खेहि। ईसाविसायसोगादिएहि झाणोवगयचित्तो।70। सीयायवादिएहि मि सारीरेहिं बहुप्पयारेहिं। णो बाहिज्जइ साहू झेयम्मि सुणिच्चलो संता।71।=अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यान के लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यान को प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है।67। वह धीर परिषहों और उपसर्गों से न तो चलायमान होता है और न डरता है, तथा वह सूक्ष्म भावों व देवमाया में भी मुग्ध नहीं होता है।68। वह देह को अपने से भिन्न अनुभव करता है, इसी प्रकार सब तरह के संयोगों से अपनी आत्मा को भी भिन्न अनुभव करता है, तथा नि:संग हुआ वह सब प्रकार से देह व उपाधि का उत्सर्ग करता है।69। ध्यान में अपने चित्त को लीन करने वाला, वह कषायों से उत्पन्न हुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दु:खों से भी नहीं बाँधा जाता है।70। ध्येय में निश्चल हुआ वह साधु शीत व आतप आदि बहुत प्रकार की बाधाओं के द्वारा भी नहीं बाँधा जाता है।71।
तत्त्वानुशासन/35 वज्रसंहननोपेता: पूर्वश्रुतसमन्विता:। दध्यु: शुक्लमिहातीता: श्रेण्यारोहणक्षमा:।35।=वज्रऋषभ संहनन के धारक, पूर्वनामक श्रुतज्ञान से संयुक्त और उपशम व क्षपक दोनों श्रेणियों के आरोहण में समर्थ, ऐसे अतीत महापुरुषों ने इस भूमंडल पर शुक्लध्यान को ध्याया है। - ध्याताओं के उत्तम आदि भेद निर्देश
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/26 तत्त्वानुशासनध्यानग्रंथादौ कथितमार्गेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिधा ध्यातारो ध्यानानि च भवंति। तदपि कस्मात् । तत्रैवोक्तमास्ते द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपा ध्यानसामग्री जघन्यादिभेदेन त्रिधेति वचनात् । अथवातिसंक्षेपेण द्विधा ध्यातारो भवंति शुद्धात्मभावना प्रारंभका: पुरुषा: सूक्ष्मसविकल्पावस्थायां प्रारब्धयोगिनो भण्यंते, निर्विकल्पशुद्धात्मावस्थायां पुनर्निष्पन्नयोगिन इति संक्षेपेणाध्यात्मभाषया ध्यातृध्यानध्येयानि...ज्ञातव्या:।=तत्त्वानुशासन नामक ध्यानविषयक ग्रंथ के आदि में (देखें ध्यान - 3.1) कहे अनुसार ध्याता व ध्यान जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं क्योंकि वहाँ ही उनको द्रव्य क्षेत्र काल व भावरूप सामग्री की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार का बताया गया है। अथवा अतिसंक्षेप से कहें तो ध्याता दो प्रकार का है‒प्रारब्धयोगी और निष्पन्नयोगी। शुद्धात्मभावना को प्रारंभ करने वाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्पावस्था में प्रारब्धयोगी कहे जाते हैं। और निर्विकल्प शुद्धात्मावस्था में निष्पन्नयोगी कहे जाते हैं। इस प्रकार संक्षेप से अध्यात्मभाषा में ध्याता ध्यान व ध्येय जानने चाहिए। - अन्य संबंधित विषय
- पृथकत्व एकत्व वितर्क विचार आदि शुक्लध्यानों के ध्याता।‒देखें शुक्लध्यान III ।
- धर्म व शुक्लध्यान के ध्याताओं में संहनन संबंधी चर्चा।‒देखें संहनन ।
- चारों ध्यानों के ध्याताओं में भाव व लेश्या आदि।‒देखें वह वह नाम ।
- चारों ध्यानों का गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व।‒देखें वह वह नाम ।
- आर्त रौद्र ध्यानों के बाह्य चिह्न।‒देखें वह वह नाम ।
पुराणकोष से
ध्यान करने वाला मुनि । यह वज्रवृषभनाराचसंहनन शरीरधारी, तपस्वी, शास्त्राभ्यासी, आर्त और रौद्रध्यान तथा अशुभलेश्या से रहित होता है । यह राग-द्वेष और मोह को त्यागकर ज्ञान और वैराग्य की भावनाओं के चिंतन में रत रहता है । यह चौदह, दश अथवा नौ पूर्व का ज्ञाता और धर्मध्यानी होता है । यह ध्यान के समय चित्तवृत्ति को स्थिर रखता है । महापुराण 21.63, 85-102