अर्हंत: Difference between revisions
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Latest revision as of 18:48, 24 November 2024
जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमात्मा बन जाता है। उस परमात्मा की दो अवस्थाएँ हैं - एक शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था, और दूसरी शरीर रहित देह मुक्त अवस्था। पहली अवस्था को यहाँ अर्हंत और दूसरी अवस्था को सिद्ध कहा जाता है। अर्हंत भी दो प्रकार के होते हैं - तीर्थंकर व सामान्य। विशेष पुण्य सहित अर्हंत जिनके की कल्याणक महोत्सव मनाये जाते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं, और शेष सर्व सामान्य अर्हंत कहलाते हैं। केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञत्व युक्त होने के कारण इन्हें केवली भी कहते हैं।
- अर्हंत का लक्षण
- पूजा के महत्त्व से अर्हंत व्यपदेश
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 505,562अरिहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए ॥505॥ अरिहंति वंदणणमंसणाणि अरिहंति पूयसक्कारं। अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण उच्चंति ॥562॥
= जो नमस्कार करने योग्य हैं, पूजा के योग्य हैं, और देवों में उत्तम हैं, वे अर्हंत हैं ॥505॥ वंदना और नमस्कार के योग्य हैं, पूजा और सत्कार के योग्य हैं, मोक्ष जाने के योग्य हैं इस कारण से अर्हंत कहे जाते हैं ॥562॥
धवला पुस्तक 1/1,1,1/44/6अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हंतः।
= अतिशय पूजा के योग्य होने से अर्हंत संज्ञा प्राप्त होती है।
(महापुराण सर्ग संख्या 33/186) (नयचक्र वृहद्/272) (चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 1/31/5)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/211/1पंचमहाकल्याणरूपां पूजामर्हति योग्यो भवति तेन कारणेन अर्हन् भण्यते।
= पंच महाकल्याणक रूप पूजा के योग्य होते हैं, इस कारण अर्हन् कहलाते हैं।
- कर्मों आदि के हनन करने से अर्हंत हैं
बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 30जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च। हतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥30॥
= जरा और व्याधि अर जन्ममरण, चार गति विषै गमन, पुण्य और पाप इन दोषनिके उपजाने वाले कर्म हैं। तिनिका नाश करि अर केवलज्ञान मई हुआ होय सो अरहंत हैं।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 505,561रजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चदे ॥505॥ जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति। हंता अरिं च जम्मं अरहंता तेण वुच्चंति ॥561॥
= अरि अर्थात् मोह कर्म, रज अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म और अनंतराय कर्म इन चार के हनन करनेवाले हैं। इसलिए `अरि' का प्रथमाक्षर `अ', `रज' का प्रथमाक्षर `र' लेकर उसके आगे हनन का वाचक `हंत' शब्द जोड़ देने पर अर्हंत बनता है ॥505॥ क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों को जीत लेने के कारण `जिन' हैं और कर्म शत्रुओं व संसार के नाशक होने के कारण अर्हंत कहलाते हैं ॥561॥
धवला पुस्तक 1/1,1,1/42/9अरिहननादरिहंता। अशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्बा दरिर्मोहः।...रजोहननाद्वा अरिहंता। ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव... ...वस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबंधकत्वाद्रजांसि।..रहस्याभावाद्वा अरिहंता। रहस्यमंतरायः तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टबीजवन्निशक्तोकृताघातिकर्मणो हननादरिहंता।
= `अरि' अर्थात् शत्रुओं का नाश करने से अरिहंत यह संज्ञा प्राप्त होती है। समस्त दुखों की प्राप्ति का निमित्त कारण होने से मोह को अरि कहते हैं।...अथवा रज अर्थात् आवरण कर्मों का नाश करने से `अरिहंत' यह संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण रज की भाँति वस्तु विषयक बोध और अनुभव के प्रतिबंधक होने से रज कहलाते हैं।...अथवा रहस्य के अभाव से भी अरिहंत संज्ञा प्राप्त होती है। रहस्य अंतराय कर्म को कहते हैं। अंतराय कर्म का नाश शेष तीन उपरोक्त कर्मों के नाश का अविनाभावी है, और अंतराय कर्म के नाश होने पर शेष चार अघातिया कर्म भी भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं।
(नयचक्रवृहद् गाथा 272), (भगवती आराधना/विजयोदयी टीका/46/153/12) (महापुराण सर्ग संख्या 33/186) (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/210/9), ( चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 1/31)।
धवला पुस्तक 8/3,41/89/2.``खविदघादिकम्मा केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठा अरहंता णाम। अधवा, णिट्ठविदट्ठकम्माणं घाइदघादिकम्माणं च अरहंतेत्ति सण्णा, अरिहणणं पदिदोण्हं भेदाभावादो।
= जिन्होंने घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान के द्वारा संपूर्ण पदार्थों को देख लिया है वे अरहंत हैं। अथवा आठों कर्मों को दूर कर देने वाले और घातिया कर्मों को नष्ट कर देने वालों का नाम अरहंत है। क्योंकि कर्म शत्रु के विनाश के प्रति दोनों में कोई भेद नहीं है। (अर्थात् अर्हत व सिद्ध जिन दोनों ही अरहंत हैं)।
- पूजा के महत्त्व से अर्हंत व्यपदेश
- अर्हंत के भेद
सत्तास्वरूप/38सात प्रकार के अर्हंत होते हैं। पाँच, तीन व दो कल्याणकयुक्त (देखो तीर्थंकर 1 ); सातिशय केवली अर्थात् गंधकुटी युक्त केवली, सामान्य केवली अर्थात् मूक केवली, उत्सर्ग केवली, और अंतकृत् केवली। और भी देखें केवली - 1।
- भगवान में 18 दोषों के अभाव का निर्देश
नियमसार / मूल या टीका गाथा 6``छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंताजरारुजामिच्चू। स्वेदं खेदं मदो रइ विम्हियणिद्दाजणुव्वेगो ॥6॥
= 1. क्षुधा, 2. तृषा, 3. भय, 4. रोष (क्रोध), 5. राग, 6. मोह, 7. चिंता, 8. जरा, 9. रो, 10. मृत्यु, 11. स्वेद, 12. खेद, 13. मद, 14. रति, 15. विस्मय, 16. निद्रा, 17. जन्म और 18. उद्वेग (अरति-ये अठारह दोष हैं)
( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/85-87) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/210)।
- भगवान के 46 गुण
चार अनंत चतुष्टय, 34 अतिशय और आठ प्रतिहार्य, ये भगवान के 46 गुण हैं।
- भगवान के अनंत चतुष्टय
अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य-ये चार अनंत चतुष्टय कहलाते हैं-विशेष देखें चतुष्टय - 7 ।
- चौतीस अतिशयों के नाम निर्देश
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/896-914/ केवल भाषार्थ- जन्म के 10 अतिशय
- स्वेदरहितता;
- निर्मल शरीरता;
- दूध के समान धवल रुधिर;
- वज्रऋषभनाराच संहनन;
- समचतुरस्र शरीर संस्थान;
- अनुपम रूप;
- नृपचंपक के समान उत्तम गंध को धारण करना;
- 1008 उत्तम लक्षणों का धारण;
- अनंत बल;
- हित मित एवं मधुर भाषण; ये स्वाभाविक अतिशय के 10 भेद हैं जो तीर्थंकरों के जन्म ग्रहण से ही उत्पन्न हो जाते हैं। ॥896-898॥
- केवलज्ञान के 11 अतिशय
- अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता;
- आकाशगमन;
- हिंसा का अभाव;
- भोजन का अभाव नहीं;
- उपसर्ग का अभाव;
- सबकी ओर मुख करके स्थित होना;
- छाया रहितता;
- निर्निमेष दृष्टि;
- विद्याओं की ईशता;
- सजीव होते हुए भी नख और रोमों का समान रहना;
- अठारह महा भाषा तथा सात सौ क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि। इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए ये महान आश्चर्यजनक 11 अतिशय तीर्थंकरों के केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर प्रगट होते हैं ॥899-906॥
- देवकृत 13 अतिशय
- तीर्थंकरों के महात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्रफूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है;
- कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है;
- जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्रीभाव से रहने लगते हैं;
- उतनी भूमि दर्पणतल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है;
- सौधर्म इंद्र की आज्ञा से मेघकुमारदेव सुगंधित जल की वर्षा करते हैं;
- देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्यकों रचते हैं;
- सब जीवों को नित्य आनंद उत्पन्न होता है;
- वायुकुमारदेव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है;
- कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से पूर्ण हो जाते है;
- आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है;
- संपूर्ण जीवों को रोग आदि की बाधायें नहीं होती हैं;
- यक्षेंद्रों के मस्तकों पर स्थिर और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है;
- तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में (व विदिशाओं में) छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ, और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं ॥907-914॥
( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/93-114) (दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 35/28)
- जन्म के 10 अतिशय
- इतने ही नहीं और भी अनंतों अतिशय होते हैं
स्याद्वादमंजरी श्लोक 1/8/4यथा निशीथचूर्णों भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्रसंख्याबाह्यलक्षणसंख्याया उपलक्षणत्वेनांतरंगलक्षणानां सत्त्वादीनामानंत्यमुक्तम्। एवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरितत्वमविरुद्धम्।
= जिस प्रकार `निशीथ चूर्णि' नामक ग्रंथ में श्री अर्हंत भगवान के 1008 बाह्य लक्षणों को उपलक्षण मानकर सत्त्वादि अंत रंग लक्षणों को अनंत कहा गया है, उसी प्रकार उपलक्षण से अतिशयों को परिमित मान कर के भी उन्हें अनंत कहा जा सकता है। इसमें कोई शास्त्र विरोध नहीं है।
- भगवान के 8 प्रातिहार्य
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/915-927/ भावार्थ -1. अशोक वृक्ष; 2. तीन छत्र; 3. रत्नखचित सिंहासन; 4. भक्ति युक्त गणों द्वारा वेष्टित रहना; 5. दुंदुभि नाद; 6. पुष्पवृष्टि; 7. प्रभामंडल; 8. चौसठ चमरयुक्तता
( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/122-130)
• अष्टमंगल द्रव्यों के नाम - देखें चैत्य - 1.11।
• अर्हंत को जटाओं का सद्भाव व असद्भाव - देखें केशलोंच - 4
• अर्हंतों का वीतराग शरीर - देखें चैत्य - 1.12।
• अर्हंतों के मृत शरीर संबंधी कुछ धारणाएँ-देखें मोक्ष - 5।
• अर्हंतों का विहार व दिव्य ध्वनि - देखें विहार - 2, दिव्यध्वनि।
• भगवान के 1008 नाम - महापुराण/25/100-217 ।
- भगवान के 1008 लक्षण
महापुराण सर्ग संख्या 15/37-44/ केवल भाषार्थ -श्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, सफेद छत्र, सिंहासन, पताका, दो मीन, दो कुंभ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, बाण, धनुष, मेरु, इंद्र, देवगंगा, पुर, गोपुर, चंद्रमा, सूर्य, उत्तम घोड़ा, तालवृंत (पंखा), बाँसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमी वस्त्र, दुकान, कुंडल आदि लेकर चमकते हुए चित्र विचित्र आभूषण, फल सहित उपवन, पके हुए वृक्षोंसे सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वज्र, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूडामणि, महानिधियाँ, कल्पलता, सुवर्ण, जंबूद्वीप, गरुड़, नक्षत्र, तारे, राजमहल, सूर्यादि ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य और आठ मंगल द्रव्य आदि, इन्हें लेकर एकसौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यंजन भगवान के शरीर में विद्यमान थे। (इस प्रकार 108 लक्षण + 900 व्यंजन = 1008)
( दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 35/27)
• अर्हंत के चारित्र में कथंचित् मल का सद्भाव (देखें केवली - 2.सयोगी व अयोगी में अंतर)।
• सयोग केवली-देखें केवली ।
- सयोग केवली व अयोग केवली दोनों अर्हंत हैं
धवला पुस्तक /8/3,41/89/2खविदघादिकम्मा केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठा अरहंता णाम।
= जिन्होंने घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान के द्वारा संपूर्ण पदार्थों को देख लिया है वे अरहंत हैं। (अर्थात् सयोग व अयोग केवली दोनों ही अर्हंत संज्ञा को प्राप्त हैं।)
• सयोग व अयोग केवली में अंतर - देखें केवली-2 ।
- अर्हंतों की महिमा व विभूति
नियमसार / मूल या टीका गाथा 71घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया। चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति।
= घनघातिकर्म रहित, केवलज्ञानादि परमगुणों सहित, और चौंतीस अतिशय युक्त ऐसे अर्हंत होते हैं।
(क्रियाकलाप मुख्याधिकार संख्या /3-1/1)
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 7 में उद्धृत कुंदकुदाचार्यकी गाथा-``तेजो दिट्टी णाणं इड्ढो सोक्खं तहेव ईसरियं। तिहुवणपहाणदइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो।
= तेज (भामंडल), केवलदर्शन, केवलज्ञान, ऋद्धि (समवसरणादि) अनंत सौख्य, ऐश्वर्य, और त्रिभुवनप्रधानवल्लभपना - ऐसा जिनका माहात्म्य है, वे अर्हंत हैं।
बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 29दंसण अणंतणाणे मोक्खो णट्ठट्ठकम्मबंधेण। णिरुवमगुणमारूढो अरहंतो एरिसो होइ ॥29॥
= जाके दर्शन और ज्ञान ये तौ अनंत हैं, बहुरि नष्ट भया जो अष्ट कर्मनिका बंध ताकरि जाके मोक्ष है, निरुपम गुणोंपर जो आरूढ़ हैं ऐसे अर्हंत होते हैं।
(ब्र.सं./मू./50) (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 607)
धवला पुस्तक 1/1,1,1/23-25/45/ केवल भावार्थ -मोह, अज्ञान व विघ्न समूहको नष्ट कर दिया है ॥23॥ कामदेव विजेता, त्रिनेत्र द्वारा सकलार्थ व त्रिकालके ज्ञाता, मोह, राग, द्वेषरूप त्रिपुर दाहक तथा मुनि पति हैं ॥24॥ रत्नत्रयरूपा त्रिशूल द्वारा मोहरूपी अंधासुर के विजेता, आत्मस्वरूप निष्ठ, तथा दुर्नय का अंत करने वाले ॥25॥ ऐसे अर्हंत होते हैं।
तत्त्वानुशासन श्लोक 123-128 केवल भावार्थ -देवाधिदेव, घातिकर्म विनाशक अनंत चतुष्टय प्राप्त ॥123॥ आकाश तल में अंतरिक्ष विराजमान, परमौदारिक देहधारी ॥124॥ 34 अतिशय व अष्ट प्रातिहार्य युक्त तथा मनुष्य तिर्यंच व देवों द्वारा सेवित ॥125॥ पंचमहाकल्याणकयुक्त, केवलज्ञान द्वारा सकल तत्त्व दर्शक ॥126॥ समस्त लक्षणोंयुक्त उज्ज्वल शरीरधारी, अद्वितीय तेजवंत, परमात्मावस्था को प्राप्त ॥127-128॥ ऐसे अर्हंत होते हैं।