इष्टोपदेश - श्लोक 43: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रति।</strong></p> | ||
< | <p><strong>यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति।।43।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>उपयोगानुसारिणी वासना</strong>―जो जीव जहाँ रहता है उसकी वही प्रीति हो जाती है और जहाँ प्रीति हो जाती है वहाँ ही वह रमता है फिर वह अपने रम्य पद से अतिरिक्त अन्यत्र कही नहीं जाता है। आत्मा में एक चारित्रगुण है। वस्तुतः आत्मा में गुण भेद है नहीं, किंतु आत्मा यथार्थ जैसा है उसका प्रतिबोध करने के लिए जो कुछ विशेषताएँ कही जाती है उनको ही भेद कहा करते हैं। वैसे तो किसी पदार्थ का नाम तक भी नहीं है। किसी का नाम लेकर बतावो, जो नाम लोगे वह किसी विशेषता का प्रतिपादन करने वाला होगा।</p> | ||
<p | <p><strong>वस्तु के यथार्थ परिपूर्ण स्वरूप की अवक्तव्यता</strong>―भैया ! शुद्ध नाम किसी का है ही नहीं। व्यावहारिक चीजों का नाम लेकर बतावो आप कहेंगे चौकी। चौकी नाम है ही नहीं। जिसमें चार कोने होते हैं उसे चौकी कहते हैं यो इसकी विशेषता बतायी है, चौकी नाम नहीं है। घड़ा जो यंत्र में मशीन में घड़ा जाय उसका नाम घड़ा है। शुद्ध नाम नहीं है। शुद्धनाम के मायने यह है कि उसमें विशेषका वर्णन करने वाला मर्म न हो। चटाई―चट आई सो चटाई। यह भी उसके गुणका नाम है, उसका नाम नहीं है। सब विशेषतावों के शब्द है। दरी―देर से आए तो दरी यह भी उसके गुणका नाम है उसका नाम नहीं है। किवार―किसीको वारे अर्थात् रोक दे उसका नाम किवार। यह भी शुद्ध नाम नहीं ।क्षत―जिसको खूब पीटा जाय उसका नाम क्षत है, यह भी शुद्ध नाम नहीं है। जीव―जो प्राणों से जीवे सो जीव। यह भी शुद्ध नाम कहाँ रहा? आत्मा―जो निरंतर जानता रहे उसका नाम है आत्मा। कहाँ रहा उसका नाम विशेषता बतायी है। ब्रह्म―जो अपने गुणो को बढ़ाने की और रहा करे उसका नाम ब्रह्म है।</p> | ||
<p | <p><strong>वस्तुकी अभेदरूपता</strong>―वस्तुका गुणभेद नहीं है। प्रत्येक पदार्थ जिस स्वरूपका है उस ही स्वरूप है, लेकिन प्रतिबोध किया कराया तो जा सकता है। उसका प्रतिबोध व्यवहार से, भेदवादसे ही किया जा सकता है। व्यवहार ही अर्थ भेद है। जो किसी चीज का भेदकर दे उसका नाम व्यवहार है। तो आत्मा एकस्वभावी है, पर उसकी विशेषताएँ जब बतायी जाती है तो कहा जाता है कि यह जानता है इसमें ज्ञानगुण है। यह कही न कही रमता है, यह चारित्रगुण है। जीव में यह प्रकृति पड़ी है कि वह किसी न किसी और रमा करे। सिद्ध हो, परमात्मा हो, योगी हो, श्रावक हो, कीड़ा मकोड़ा हो, जो भी चेतन है उसमें यह परिणति है कि कही न कही रमा करे। अब जहाँ औपाधिकता लगी है वहाँ परभावमें लगेगा। जहाँ निरुपाधिता प्रकट होती है वहाँ शुद्ध स्वभाव में रमेगा, पर रमनेकी इसमें प्रकृति पड़ी है।</p> | ||
<p | <p><strong>बहिर्मुखता का संकट</strong>―यह जीव अपने उपयोग से जहाँ रहता हुआ ठहरता है उसका उस ही में प्रेम हो जाता है। इस जीव पर सबसे बड़ी विपदा है बहिर्मुखता की। यह जीव अपने आनंदधाम निज स्वरूप में विश्राम न लेकर बाह्य परतत्त्वोंमें, परपदार्थों में जो रुचि रखता है, परपदार्थों से मेरा हित है, बड़प्पन है ऐसी जो प्रतीति रखता है उसके जीव पर महासंकट है, परंतु मोही प्राणी मोह में इस संकट को ही श्रृंगार समझते हैं। पागलपन इसी को ही तो कहते हे कि दुनिया तो हँसे ओर यह उस ही में राजी रहे। ज्ञानी जन तो हँसे, जो पागल नहीं है वे तो मजाक करें अर्थात् उन्हें हेय आचरण से देखें और एक पागल उस धुन में ही मस्त रहे। यहाँ जितने भी मोहमत्त जीव है वे सब उन्मत्त ही तो है। जो ज्ञानी पुरुष है, विवेकी है वे इसकी मोह बुद्धि पर हास्य करते हैं। कहाँ रम गया है, कहाँ भूल पड़ गयी है, और यह मोही पुरुष उन ही विषयों में रमता है। क्या करे यह मोही प्राणी जब उस निर्मोहताका आनंद ही नहीं मिल सका, अपने आपमें ज्ञानका पुरुषार्थ हीन ही कर पा रहा है तो यह कही न कही तो रमेगा ही। रमेगा विषयों में तो वह विषयों में ही प्रीति रखेगा। और उन विषयों के सिवाय अन्य जगह जायगा नहीं। इसे ज्ञान ध्यान तप आदि शुभ प्रसंग भी नहीं सूझेंगे।</p> | ||
<p | <p><strong>धर्मपालन की निष्पक्ष पद्धति</strong>―आत्मा का हित, आत्माका धर्म, जिसको पालन करने से नियम से शांति प्राप्त होगी वह धर्म कही बाहर न मिलेगा। कोई निष्पक्ष बुद्धि से एक शांति का ही उद्देश्य ले-ले और विशुद्ध धर्मपालन करने की ठान ले तो वह सब कुछ अपने ज्ञानस्वरूपका निर्णय कर सकता है। कभी यह धोखा हो कि सभी लोग अपने-अपने मजहब की गाते हैं,कहाँ जाकर हम धर्म की बात सीखे? जिस कुल में जो उत्पन्न हुआ है वह उस ही धर्म की गाता है। जो जिस कुल में, धर्ममें उत्पन्न हुआ वह रूढ़ि वश उसी धर्म और कुल की गाता है पर कहाँ है धर्म, किस उपाय से शांतिका मार्ग मिल सकेगा? संदेह हो गया हो और संदेह लायक बात भी है। अपने-अपने पक्ष की ही सब गाते हैं,संदेह होना किसी हद तक उचित ही है। ऐसी स्थिति में एक काम करे। जिस कुल में, जिस धर्म में आप उत्पन्न हुए है उसकी भी बात कुछ मत सोचे, जो कोई दूसरे धर्मकी बात सुनाता हो उनको भी मत सुने। पर इतनी ईमानदारी अवश्य रक्खे, इतना निर्णय कर ले कि इस लोक में जो समागम मिले हैं धन वैभव, स्वजन, मित्रजन, ये सब भिन्न है और असार है, इतना निर्णय तो पूर्ण कर ले। इसमें किसी मजहब की बात नहीं आयी, यह तो एक देखी और अनुभव की हुई बात है।</p> | ||
<p | <p><strong>उदासीनतामें अंतस्तत्त्वका सुगम दर्शन</strong>―धन, कुटुंब, घर, इज्जत, ये सब चीजें चंद दिनों की बातें है, मायामयी है। सदा रहना नहीं है, मरने पर ये साथ निभाते नहीं है और जीवों के भी ऐसे अनुभव हे कि जो कुछ मिला है वह सिद्धि करने वाला नहीं है। इन सब अनुभवों के आधार पर इतना निर्णय कर लें कि समस्त परपदार्थ मेरे हितरूप नहीं है, न्यारे है, उनका परिणमन मुझमें हो ही नहीं पाता। ऐसा निर्णय करने के बाद किसी भी धर्म, किसी भी पक्ष मजहब की बात न सुनकर बस आराम से कुछ क्षण के लिए बैठ जाएँ। कुछ नहीं किसी की सुनना है, सब अपनी-अपनी गाते हैं। हम कहाँ सच्चाई ढूँढने के लिए दिमाग लगाएँ? इस कारण समस्त परको उपयोग से हटाकर विश्राम पाये तो परमतत्त्व स्वयं दृष्ट हो जायगा।</p> | ||
<p | <p><strong>दुर्लभ अल्प जीवनका सदुपयोग</strong>―भैया ! जीवन थोड़ा है, कुछ वर्षों की जिंदगी है। हम बड़े-बड़े शास्त्रसिद्धांतों को जाने तो 10-5 वर्ष तो भाषा सीखने में ही लगेंगे, और फिर एकसे एक बड़ेधुरंधर शब्द शास्त्र के विद्वान पड़े है। उनमें भी कोई कुछ अर्थ लगाते हैं,कोई कुछ अर्थ लगाते हैं,कोई कुछ। तो हमें किसी की नहीं सुनना है, किसी की नहीं मानना है, परम विश्राम से बैठे, ईमानदारी में रंच भी बाधा मत डालें। समस्त परद्रव्य भिन्न है, कोई मेरा अहित नहीं कर सकते। इस निर्णय को रंच भी न भूलें। यदि किसी परपदार्थमें हितबुद्धि की तो अपने आपके बल से धर्म का पता लगाने का कोरा ढोंग ही हैं। इतना निर्णय हो तब अपने आप स्वयं के विश्राम से स्वयं में वह ज्ञानज्योति प्रकट होगी जो निष्पक्ष सब समाधानों को हल कर देगी।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानमयकी अनुभूतिमें आनंदविकास</strong>―न होता यह मैं ज्ञानमय तो जान कहाँ से लेता? जो पदार्थ ज्ञानमय नहीं है वह कदाचित् जान ही नहीं सकता है। ऐसा कोई भी उदाहरण दो कि अमुक पदार्थ ह तो ज्ञानरहित, पर जान रहा है। नहीं उदाहरण दे सकते। जो ज्ञानमय है, ज्ञानघन है वही जाननहार बन सकता है। यह मैं आत्मा ज्ञानमय हूं और ज्ञान करना है यथार्थ धर्म का। तो जिसके जानने का स्वभाव है वह जानेगा ही, वही बात जो यथार्थ है, हाँ रागद्वेष मोहका पुट होगा, श्रद्धा विपरीत होगी तो यह ज्ञानकला विफल हो जायगी पर श्रद्धा यर्थाथ हो, परपदार्थों से अलगाव हो तो यह ज्ञान सही काम करेगा, तब अपने आपके ज्ञान द्वारा ही यह ज्ञानस्वरूपका अभ्यास करने लगेगा, और उस स्थिति में अद्भूत आनंद प्रकट होगा।</p> | ||
<p | <p><strong>मनोविनयसे आनंदका उद्यम</strong>―जो आनंद ज्ञानानुभूतिमें होता है वह आनंद भोजन पानकी समृद्धि में नहीं मिलता, क्योंकि उस प्रसंग में विकल्पजाल निरंतर बने रहते हैं। एक ग्रास मुँह में से नीचे गया, झट दूसरे ग्रास की कल्पना हो उठती है, यह कल्पनावों की मशीन बहुत तेजी से चलती रहती है। एक क्षणमेंही कितनी ही कल्पनाएँ कर डालते हैं और यह उपयोग कितनी जगह दौड़ आता है, बडी तीव्र गति है इस मन की। इस मनका नाम किसी ने अश्व रक्खा है। अश्व उसे कहते हैं जो आशु गमन करे, जो शीघ्र गमन करे। नाम किसी का कही नहीं है। इस मनका नाम अश्व है। किसी जमाने में लोगों ने अलंकार में मनोविजयका नाम अश्वमेघ यज्ञ रख दिया होगा, इस मनको वशमें करके जहाँ एक आध क्षण विश्राम लिया जाता है तो उसे बड़ा अद्भुत आनंद प्रकट होता है। बस उसमें सब निर्णय हो जाता है कि हमको क्या करना है? शांति के लिए बस ज्ञाताद्रष्टा रहना, रागद्वेष रहित बनना, यही एक धर्मका पालन है।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानियों का आराध्य</strong>―भैया ! अब सुनिये व्यवहार की बात। हम किसे पूजे, किसे माने? अरे जो अपूर्व ज्ञानप्रकाश और शुद्धआनंद का अनुभव किया था, यह तो करना है ना, यही तो धर्म है ना, यह बात जहाँ सातिशय प्रकट हो वही इसका आराध्य हुआ, कहाँ झंझट रहा, नाम पर दृष्टि मत दो, स्वरूप पर दृष्टि दो। नाम के लिए चाहे जिन कहो, चाहे शिव कहो, ईश्वर कहो, ब्रह्मा कहो, विष्णु बुद्ध, हरि, हर इत्यादि कुछ भी कहो, ये सब स्वरूप के नाम है। स्वरूप जहाँ सातिशय ज्ञान और सातिशय आनंद को पाये वही हमारा आदर्श है। हमें क्या चाहिए? वही जो अभी अनुभवन में लाया था। परपदार्थ से दृष्टि हटाकर क्षणिक विश्राम लेकर जो हमने अनुभव किया था वही मुझे चाहिए। इतनी अध्यात्मदृष्टि न रहेगी तो बाहर में यह अनुभवी पुरुष उस ही स्वरूप की शरण जायगा जहाँ यह शुद्ध पूर्ण प्रकट हुआ है और शुद्ध आनंद पूर्व विकसित हुआ है। बस नाम की दृष्टि तो छोड़ दो और स्वरूप को ग्रहण करलो।</p> | ||
<p | <p><strong>व्यवहारभक्ति में आश्रयका प्रयोजन</strong>―व्यवहार मेंनाम का आश्रय इसलिए लिया जाता है कि हम कुछ जाने तो सही कि ऐसा भी कोई हो सका है क्या? या हम ही कोरी कल्पना बना रहे हैं,उसके निर्णय के लिए नाम लिया जाता है, ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, रामचंद्र, महावीर, हनुमान, लेते जावो नाम, जो-जो भी निर्वाण पदको प्राप्त हुए उनका नाम किस लिए लेते हैं,यह कर्म देखने के लिए कि हम ऐसा बन सकते हैं यह कोरी गप्प तो नहीं हे। ये-ये लोग निर्वाण को प्राप्त हुए है―ऐसा अपने में निर्णय बनाने के लिए नाम लिया जाता है, पर नाम में स्वरूप नहीं है, स्वरूप तो स्वरूप के आधार में है जो पुरुष इस स्वरूप में बसता है, अपने उपयोग को टिकाता है वह इस स्वरूप में ही प्रेम करेगा, वही-वही सर्वत्र उसे दिखेगा। कामी पुरुष को सर्वत्र कामिनी और रूप और ऐसे ही विषय दिखते हैं क्योंकि उसका उपयोग उसी में बस रहा है। तो योगियों को दर्शन सर्वत्र उस योग-योग का ही होता है।</p> | ||
<p | <p><strong>आशयके अनुसार दर्शन</strong>―जो पुरुष ईमानदार है, सत्य बर्ताव और सत्य आशय रखता है उसे दूसरे जीव के प्रति यह छली है अथवा किसी को पीडा करने वाले विचारका है, इस प्रकार विश्वास नहीं होता है। सहज तो नहीं होता है। कोई घटना आ जाय ऐसी तब वह ख्याल करता है, ओह! यह ठीक कह रहा था, यह ऐसा ही है। जो धूर्त है, झूठा हे , दगाबाज है उसे और लोगो पर ये सच्चे है ऐसा विश्वास नहीं होता है। सहज नहीं होता। बहुत दिन रम जाय, रह जाय, घटनाएं घटे तो यह विश्वास करता है। जो जिस भाव में रहता हुआ ठहरता है वह उस भाव में ही प्रीति करता है। विषयों में रमनेवाले व्यामोही पुरुष की विषयों में ही प्रीति रहती है और विषयों से अतिरिक्त कोई धार्मिक प्रसंग मिल जाए तो वहाँ घबड़ाहट पैदा होती है। कभी-कभी पूजा और विषयों से अतिरिक्त कोई धार्मिक प्रसंग मिल जाय ता वहाँ घबडाहट पैदा होती है। कभी-कभी पूजा करने में, दर्शन करने में कितने उद्वेग रहते है? झट बोले, जल्दी करे, क्योंकि उपयोग दूसरी जगह रम रहा है। यहाँ मन नहीं लगता है और ज्ञानी जीवको व्यवसाय, दुकान, व्यवहार इनमें मन नहीं लगता है। यह जल्दी समय निकल जाय, दर्शनका, प्रवचन का, वाचन का, जल्दी छुट्टी मिले इसके लिए अज्ञानी अपनी तरस बनाता है। जो जहाँ रहता है उसको उसहीमें प्रीति होती है। यही देखा―जो मनुष्य जिस नगर में, जिस शहर में, जिस गाँव में रहता है उसका प्रेम वहाँ के मकान आदि से हो जाता है। जिस टूटे फूटे मकान में रह रहे हैं,उसकी एक-एक इंच भूमि और भींतये सब कितने प्रिय लग रहे हैं,और पास ही में किसी की अट्टालिका खड़ी है तो उससे प्रीति नहीं रहती । यह सब उपयोग में बसनेकी बात प्रभाव है।</p> | ||
<p | <p><strong>आत्मीयकी प्रियता</strong>―किसी सेठने एक नई नौकरानी रक्खी, सेठानी का लड़का एक स्कूल में पढ़ता था, उस नौकरानी का लड़का भी उसी स्कूल में पढ़ता था। सेठानी रोज दोपहर को खाने को एक डिब्बेमें कुछ सामान रखकर अपने लड़केको दे देती थी पर एक दिन देना भूल गयी। सो सेठानी ने नौकरानी से खाने का सामान लड़के को दे आने के लिए कहा। वह बोली कि मैं अभी तुम्हारे लड़के को नहीं पहिचानती तो सेठानी अभिमान में आकर बोली कि हमारे लड़के को क्या पहिचानना है? जो लड़का सब लड़कों में सुंदर हो वही हमारा लड़का है। संभव है कि ऐसा ही रहा हो । वह नौकरानी वह सामान लेकर स्कूल पहुंची तो वहाँ उसे अपने लड़के से सुंदर कोई लड़का न दिखा। सो उसने अपने ही बच्चे को सारी मिठाई खिला दी और घर वापिस आ गई। शाम को जब वह लड़का घर आया तो माँ से बोला कि आज तुमने हमें खाने को कुछ भी नहीं भेजा, सो माँ कहती है कि मैने नौकरानी के हाथ भेजा तो था। नौकरानी को बुलाकर पूछा कि हमारे बच्चे को खाने को सामान नहीं दिया था क्या ? तो नौकरानी बोली कि दिया तो था। तुमने ही तो कहा था कि स्कूल में जो सबसे अच्छा बच्चा हो, वही हमारा बच्चा है, सो मुझे तो सबसे अच्छा बच्चा मेरा ही दिखा तो उसी को मिठाई देकर मैं चली आयी। यही है सब मोहियों की दशा।</p> | ||
<p | <p><strong>बाधक से मधुर भाषण बाधकता के विलय का कारण</strong>―अरे तुम ही हमारी शरण हो, तुम ही सबसे प्यारे हो, ऐसे दो चार शब्द ही तो बोल देना है, फिर तो जी जान लगाकर वह आपकी सेवा करेगा। कितनी मोह की विचित्र लीला है? इतने पर भी इतना नहीं किया जा सकता है कि मधुर शब्द बोल दे। मधुर वचन बोलने में सर्वत्र आनंद ही आनंद मिलेगा, संकट न रहेंगे, लेकिन जिस पर मोह है उसके प्रति तो मधुर वचन बोले जा सकते हैं और जहाँ मोह नहीं है वहाँ मधुर वचन बोलना कुछ कठिन हो जाता है और जिन्हें अपने विषयसाधनों में बाधक मान लिया उनके प्रति तो मधुर बोल-बोल ही नहीं सकेत। यदि उनसे भी मधुर वचन बोल ले तो बाधक बाधकता को त्यागकर साधक बन सकते हैं,पर इतना इस मोही पुरुष से नहीं हो पाता है।</p> | ||
<p | <p><strong>अध्यात्मरमण का कारण</strong>―प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि जो जहाँ ठहरता है वह उस ही में प्रीति करता है, और उनमें ही सुख की कल्पना करके बार-बार भक्ति का यत्न करता है और आनंदधाम जो निजस्वरूप है उसकी और झांक कर भी नहीं देखता है। लेकिन जब दृष्टि बदल जाती है, अध्यात्म में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है तब बाह्य पदार्थों से हटकर एक निज शुद्ध स्वरूप की और ही रति हो जाती है। तब चिंतन और मनन के अभ्यास के बाद सहज शुद्ध आनंद का अनुभव होने लगता है। अब उसे बाह्यपदार्थ रंच भी रुचिकर नहीं रहते हैं। क्या वजह है कि यह योगी अपने मे ही रम रहा है और बाहर में नहीं रमना चाहता? इस प्रश्न का उत्तर इस श्लोक में दिया है। जिसे अपने स्वरूप में ही रति है वह वही रहकर आनंद पाया करता है।</p> | ||
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रति।
यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति।।43।।
उपयोगानुसारिणी वासना―जो जीव जहाँ रहता है उसकी वही प्रीति हो जाती है और जहाँ प्रीति हो जाती है वहाँ ही वह रमता है फिर वह अपने रम्य पद से अतिरिक्त अन्यत्र कही नहीं जाता है। आत्मा में एक चारित्रगुण है। वस्तुतः आत्मा में गुण भेद है नहीं, किंतु आत्मा यथार्थ जैसा है उसका प्रतिबोध करने के लिए जो कुछ विशेषताएँ कही जाती है उनको ही भेद कहा करते हैं। वैसे तो किसी पदार्थ का नाम तक भी नहीं है। किसी का नाम लेकर बतावो, जो नाम लोगे वह किसी विशेषता का प्रतिपादन करने वाला होगा।
वस्तु के यथार्थ परिपूर्ण स्वरूप की अवक्तव्यता―भैया ! शुद्ध नाम किसी का है ही नहीं। व्यावहारिक चीजों का नाम लेकर बतावो आप कहेंगे चौकी। चौकी नाम है ही नहीं। जिसमें चार कोने होते हैं उसे चौकी कहते हैं यो इसकी विशेषता बतायी है, चौकी नाम नहीं है। घड़ा जो यंत्र में मशीन में घड़ा जाय उसका नाम घड़ा है। शुद्ध नाम नहीं है। शुद्धनाम के मायने यह है कि उसमें विशेषका वर्णन करने वाला मर्म न हो। चटाई―चट आई सो चटाई। यह भी उसके गुणका नाम है, उसका नाम नहीं है। सब विशेषतावों के शब्द है। दरी―देर से आए तो दरी यह भी उसके गुणका नाम है उसका नाम नहीं है। किवार―किसीको वारे अर्थात् रोक दे उसका नाम किवार। यह भी शुद्ध नाम नहीं ।क्षत―जिसको खूब पीटा जाय उसका नाम क्षत है, यह भी शुद्ध नाम नहीं है। जीव―जो प्राणों से जीवे सो जीव। यह भी शुद्ध नाम कहाँ रहा? आत्मा―जो निरंतर जानता रहे उसका नाम है आत्मा। कहाँ रहा उसका नाम विशेषता बतायी है। ब्रह्म―जो अपने गुणो को बढ़ाने की और रहा करे उसका नाम ब्रह्म है।
वस्तुकी अभेदरूपता―वस्तुका गुणभेद नहीं है। प्रत्येक पदार्थ जिस स्वरूपका है उस ही स्वरूप है, लेकिन प्रतिबोध किया कराया तो जा सकता है। उसका प्रतिबोध व्यवहार से, भेदवादसे ही किया जा सकता है। व्यवहार ही अर्थ भेद है। जो किसी चीज का भेदकर दे उसका नाम व्यवहार है। तो आत्मा एकस्वभावी है, पर उसकी विशेषताएँ जब बतायी जाती है तो कहा जाता है कि यह जानता है इसमें ज्ञानगुण है। यह कही न कही रमता है, यह चारित्रगुण है। जीव में यह प्रकृति पड़ी है कि वह किसी न किसी और रमा करे। सिद्ध हो, परमात्मा हो, योगी हो, श्रावक हो, कीड़ा मकोड़ा हो, जो भी चेतन है उसमें यह परिणति है कि कही न कही रमा करे। अब जहाँ औपाधिकता लगी है वहाँ परभावमें लगेगा। जहाँ निरुपाधिता प्रकट होती है वहाँ शुद्ध स्वभाव में रमेगा, पर रमनेकी इसमें प्रकृति पड़ी है।
बहिर्मुखता का संकट―यह जीव अपने उपयोग से जहाँ रहता हुआ ठहरता है उसका उस ही में प्रेम हो जाता है। इस जीव पर सबसे बड़ी विपदा है बहिर्मुखता की। यह जीव अपने आनंदधाम निज स्वरूप में विश्राम न लेकर बाह्य परतत्त्वोंमें, परपदार्थों में जो रुचि रखता है, परपदार्थों से मेरा हित है, बड़प्पन है ऐसी जो प्रतीति रखता है उसके जीव पर महासंकट है, परंतु मोही प्राणी मोह में इस संकट को ही श्रृंगार समझते हैं। पागलपन इसी को ही तो कहते हे कि दुनिया तो हँसे ओर यह उस ही में राजी रहे। ज्ञानी जन तो हँसे, जो पागल नहीं है वे तो मजाक करें अर्थात् उन्हें हेय आचरण से देखें और एक पागल उस धुन में ही मस्त रहे। यहाँ जितने भी मोहमत्त जीव है वे सब उन्मत्त ही तो है। जो ज्ञानी पुरुष है, विवेकी है वे इसकी मोह बुद्धि पर हास्य करते हैं। कहाँ रम गया है, कहाँ भूल पड़ गयी है, और यह मोही पुरुष उन ही विषयों में रमता है। क्या करे यह मोही प्राणी जब उस निर्मोहताका आनंद ही नहीं मिल सका, अपने आपमें ज्ञानका पुरुषार्थ हीन ही कर पा रहा है तो यह कही न कही तो रमेगा ही। रमेगा विषयों में तो वह विषयों में ही प्रीति रखेगा। और उन विषयों के सिवाय अन्य जगह जायगा नहीं। इसे ज्ञान ध्यान तप आदि शुभ प्रसंग भी नहीं सूझेंगे।
धर्मपालन की निष्पक्ष पद्धति―आत्मा का हित, आत्माका धर्म, जिसको पालन करने से नियम से शांति प्राप्त होगी वह धर्म कही बाहर न मिलेगा। कोई निष्पक्ष बुद्धि से एक शांति का ही उद्देश्य ले-ले और विशुद्ध धर्मपालन करने की ठान ले तो वह सब कुछ अपने ज्ञानस्वरूपका निर्णय कर सकता है। कभी यह धोखा हो कि सभी लोग अपने-अपने मजहब की गाते हैं,कहाँ जाकर हम धर्म की बात सीखे? जिस कुल में जो उत्पन्न हुआ है वह उस ही धर्म की गाता है। जो जिस कुल में, धर्ममें उत्पन्न हुआ वह रूढ़ि वश उसी धर्म और कुल की गाता है पर कहाँ है धर्म, किस उपाय से शांतिका मार्ग मिल सकेगा? संदेह हो गया हो और संदेह लायक बात भी है। अपने-अपने पक्ष की ही सब गाते हैं,संदेह होना किसी हद तक उचित ही है। ऐसी स्थिति में एक काम करे। जिस कुल में, जिस धर्म में आप उत्पन्न हुए है उसकी भी बात कुछ मत सोचे, जो कोई दूसरे धर्मकी बात सुनाता हो उनको भी मत सुने। पर इतनी ईमानदारी अवश्य रक्खे, इतना निर्णय कर ले कि इस लोक में जो समागम मिले हैं धन वैभव, स्वजन, मित्रजन, ये सब भिन्न है और असार है, इतना निर्णय तो पूर्ण कर ले। इसमें किसी मजहब की बात नहीं आयी, यह तो एक देखी और अनुभव की हुई बात है।
उदासीनतामें अंतस्तत्त्वका सुगम दर्शन―धन, कुटुंब, घर, इज्जत, ये सब चीजें चंद दिनों की बातें है, मायामयी है। सदा रहना नहीं है, मरने पर ये साथ निभाते नहीं है और जीवों के भी ऐसे अनुभव हे कि जो कुछ मिला है वह सिद्धि करने वाला नहीं है। इन सब अनुभवों के आधार पर इतना निर्णय कर लें कि समस्त परपदार्थ मेरे हितरूप नहीं है, न्यारे है, उनका परिणमन मुझमें हो ही नहीं पाता। ऐसा निर्णय करने के बाद किसी भी धर्म, किसी भी पक्ष मजहब की बात न सुनकर बस आराम से कुछ क्षण के लिए बैठ जाएँ। कुछ नहीं किसी की सुनना है, सब अपनी-अपनी गाते हैं। हम कहाँ सच्चाई ढूँढने के लिए दिमाग लगाएँ? इस कारण समस्त परको उपयोग से हटाकर विश्राम पाये तो परमतत्त्व स्वयं दृष्ट हो जायगा।
दुर्लभ अल्प जीवनका सदुपयोग―भैया ! जीवन थोड़ा है, कुछ वर्षों की जिंदगी है। हम बड़े-बड़े शास्त्रसिद्धांतों को जाने तो 10-5 वर्ष तो भाषा सीखने में ही लगेंगे, और फिर एकसे एक बड़ेधुरंधर शब्द शास्त्र के विद्वान पड़े है। उनमें भी कोई कुछ अर्थ लगाते हैं,कोई कुछ अर्थ लगाते हैं,कोई कुछ। तो हमें किसी की नहीं सुनना है, किसी की नहीं मानना है, परम विश्राम से बैठे, ईमानदारी में रंच भी बाधा मत डालें। समस्त परद्रव्य भिन्न है, कोई मेरा अहित नहीं कर सकते। इस निर्णय को रंच भी न भूलें। यदि किसी परपदार्थमें हितबुद्धि की तो अपने आपके बल से धर्म का पता लगाने का कोरा ढोंग ही हैं। इतना निर्णय हो तब अपने आप स्वयं के विश्राम से स्वयं में वह ज्ञानज्योति प्रकट होगी जो निष्पक्ष सब समाधानों को हल कर देगी।
ज्ञानमयकी अनुभूतिमें आनंदविकास―न होता यह मैं ज्ञानमय तो जान कहाँ से लेता? जो पदार्थ ज्ञानमय नहीं है वह कदाचित् जान ही नहीं सकता है। ऐसा कोई भी उदाहरण दो कि अमुक पदार्थ ह तो ज्ञानरहित, पर जान रहा है। नहीं उदाहरण दे सकते। जो ज्ञानमय है, ज्ञानघन है वही जाननहार बन सकता है। यह मैं आत्मा ज्ञानमय हूं और ज्ञान करना है यथार्थ धर्म का। तो जिसके जानने का स्वभाव है वह जानेगा ही, वही बात जो यथार्थ है, हाँ रागद्वेष मोहका पुट होगा, श्रद्धा विपरीत होगी तो यह ज्ञानकला विफल हो जायगी पर श्रद्धा यर्थाथ हो, परपदार्थों से अलगाव हो तो यह ज्ञान सही काम करेगा, तब अपने आपके ज्ञान द्वारा ही यह ज्ञानस्वरूपका अभ्यास करने लगेगा, और उस स्थिति में अद्भूत आनंद प्रकट होगा।
मनोविनयसे आनंदका उद्यम―जो आनंद ज्ञानानुभूतिमें होता है वह आनंद भोजन पानकी समृद्धि में नहीं मिलता, क्योंकि उस प्रसंग में विकल्पजाल निरंतर बने रहते हैं। एक ग्रास मुँह में से नीचे गया, झट दूसरे ग्रास की कल्पना हो उठती है, यह कल्पनावों की मशीन बहुत तेजी से चलती रहती है। एक क्षणमेंही कितनी ही कल्पनाएँ कर डालते हैं और यह उपयोग कितनी जगह दौड़ आता है, बडी तीव्र गति है इस मन की। इस मनका नाम किसी ने अश्व रक्खा है। अश्व उसे कहते हैं जो आशु गमन करे, जो शीघ्र गमन करे। नाम किसी का कही नहीं है। इस मनका नाम अश्व है। किसी जमाने में लोगों ने अलंकार में मनोविजयका नाम अश्वमेघ यज्ञ रख दिया होगा, इस मनको वशमें करके जहाँ एक आध क्षण विश्राम लिया जाता है तो उसे बड़ा अद्भुत आनंद प्रकट होता है। बस उसमें सब निर्णय हो जाता है कि हमको क्या करना है? शांति के लिए बस ज्ञाताद्रष्टा रहना, रागद्वेष रहित बनना, यही एक धर्मका पालन है।
ज्ञानियों का आराध्य―भैया ! अब सुनिये व्यवहार की बात। हम किसे पूजे, किसे माने? अरे जो अपूर्व ज्ञानप्रकाश और शुद्धआनंद का अनुभव किया था, यह तो करना है ना, यही तो धर्म है ना, यह बात जहाँ सातिशय प्रकट हो वही इसका आराध्य हुआ, कहाँ झंझट रहा, नाम पर दृष्टि मत दो, स्वरूप पर दृष्टि दो। नाम के लिए चाहे जिन कहो, चाहे शिव कहो, ईश्वर कहो, ब्रह्मा कहो, विष्णु बुद्ध, हरि, हर इत्यादि कुछ भी कहो, ये सब स्वरूप के नाम है। स्वरूप जहाँ सातिशय ज्ञान और सातिशय आनंद को पाये वही हमारा आदर्श है। हमें क्या चाहिए? वही जो अभी अनुभवन में लाया था। परपदार्थ से दृष्टि हटाकर क्षणिक विश्राम लेकर जो हमने अनुभव किया था वही मुझे चाहिए। इतनी अध्यात्मदृष्टि न रहेगी तो बाहर में यह अनुभवी पुरुष उस ही स्वरूप की शरण जायगा जहाँ यह शुद्ध पूर्ण प्रकट हुआ है और शुद्ध आनंद पूर्व विकसित हुआ है। बस नाम की दृष्टि तो छोड़ दो और स्वरूप को ग्रहण करलो।
व्यवहारभक्ति में आश्रयका प्रयोजन―व्यवहार मेंनाम का आश्रय इसलिए लिया जाता है कि हम कुछ जाने तो सही कि ऐसा भी कोई हो सका है क्या? या हम ही कोरी कल्पना बना रहे हैं,उसके निर्णय के लिए नाम लिया जाता है, ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, रामचंद्र, महावीर, हनुमान, लेते जावो नाम, जो-जो भी निर्वाण पदको प्राप्त हुए उनका नाम किस लिए लेते हैं,यह कर्म देखने के लिए कि हम ऐसा बन सकते हैं यह कोरी गप्प तो नहीं हे। ये-ये लोग निर्वाण को प्राप्त हुए है―ऐसा अपने में निर्णय बनाने के लिए नाम लिया जाता है, पर नाम में स्वरूप नहीं है, स्वरूप तो स्वरूप के आधार में है जो पुरुष इस स्वरूप में बसता है, अपने उपयोग को टिकाता है वह इस स्वरूप में ही प्रेम करेगा, वही-वही सर्वत्र उसे दिखेगा। कामी पुरुष को सर्वत्र कामिनी और रूप और ऐसे ही विषय दिखते हैं क्योंकि उसका उपयोग उसी में बस रहा है। तो योगियों को दर्शन सर्वत्र उस योग-योग का ही होता है।
आशयके अनुसार दर्शन―जो पुरुष ईमानदार है, सत्य बर्ताव और सत्य आशय रखता है उसे दूसरे जीव के प्रति यह छली है अथवा किसी को पीडा करने वाले विचारका है, इस प्रकार विश्वास नहीं होता है। सहज तो नहीं होता है। कोई घटना आ जाय ऐसी तब वह ख्याल करता है, ओह! यह ठीक कह रहा था, यह ऐसा ही है। जो धूर्त है, झूठा हे , दगाबाज है उसे और लोगो पर ये सच्चे है ऐसा विश्वास नहीं होता है। सहज नहीं होता। बहुत दिन रम जाय, रह जाय, घटनाएं घटे तो यह विश्वास करता है। जो जिस भाव में रहता हुआ ठहरता है वह उस भाव में ही प्रीति करता है। विषयों में रमनेवाले व्यामोही पुरुष की विषयों में ही प्रीति रहती है और विषयों से अतिरिक्त कोई धार्मिक प्रसंग मिल जाए तो वहाँ घबड़ाहट पैदा होती है। कभी-कभी पूजा और विषयों से अतिरिक्त कोई धार्मिक प्रसंग मिल जाय ता वहाँ घबडाहट पैदा होती है। कभी-कभी पूजा करने में, दर्शन करने में कितने उद्वेग रहते है? झट बोले, जल्दी करे, क्योंकि उपयोग दूसरी जगह रम रहा है। यहाँ मन नहीं लगता है और ज्ञानी जीवको व्यवसाय, दुकान, व्यवहार इनमें मन नहीं लगता है। यह जल्दी समय निकल जाय, दर्शनका, प्रवचन का, वाचन का, जल्दी छुट्टी मिले इसके लिए अज्ञानी अपनी तरस बनाता है। जो जहाँ रहता है उसको उसहीमें प्रीति होती है। यही देखा―जो मनुष्य जिस नगर में, जिस शहर में, जिस गाँव में रहता है उसका प्रेम वहाँ के मकान आदि से हो जाता है। जिस टूटे फूटे मकान में रह रहे हैं,उसकी एक-एक इंच भूमि और भींतये सब कितने प्रिय लग रहे हैं,और पास ही में किसी की अट्टालिका खड़ी है तो उससे प्रीति नहीं रहती । यह सब उपयोग में बसनेकी बात प्रभाव है।
आत्मीयकी प्रियता―किसी सेठने एक नई नौकरानी रक्खी, सेठानी का लड़का एक स्कूल में पढ़ता था, उस नौकरानी का लड़का भी उसी स्कूल में पढ़ता था। सेठानी रोज दोपहर को खाने को एक डिब्बेमें कुछ सामान रखकर अपने लड़केको दे देती थी पर एक दिन देना भूल गयी। सो सेठानी ने नौकरानी से खाने का सामान लड़के को दे आने के लिए कहा। वह बोली कि मैं अभी तुम्हारे लड़के को नहीं पहिचानती तो सेठानी अभिमान में आकर बोली कि हमारे लड़के को क्या पहिचानना है? जो लड़का सब लड़कों में सुंदर हो वही हमारा लड़का है। संभव है कि ऐसा ही रहा हो । वह नौकरानी वह सामान लेकर स्कूल पहुंची तो वहाँ उसे अपने लड़के से सुंदर कोई लड़का न दिखा। सो उसने अपने ही बच्चे को सारी मिठाई खिला दी और घर वापिस आ गई। शाम को जब वह लड़का घर आया तो माँ से बोला कि आज तुमने हमें खाने को कुछ भी नहीं भेजा, सो माँ कहती है कि मैने नौकरानी के हाथ भेजा तो था। नौकरानी को बुलाकर पूछा कि हमारे बच्चे को खाने को सामान नहीं दिया था क्या ? तो नौकरानी बोली कि दिया तो था। तुमने ही तो कहा था कि स्कूल में जो सबसे अच्छा बच्चा हो, वही हमारा बच्चा है, सो मुझे तो सबसे अच्छा बच्चा मेरा ही दिखा तो उसी को मिठाई देकर मैं चली आयी। यही है सब मोहियों की दशा।
बाधक से मधुर भाषण बाधकता के विलय का कारण―अरे तुम ही हमारी शरण हो, तुम ही सबसे प्यारे हो, ऐसे दो चार शब्द ही तो बोल देना है, फिर तो जी जान लगाकर वह आपकी सेवा करेगा। कितनी मोह की विचित्र लीला है? इतने पर भी इतना नहीं किया जा सकता है कि मधुर शब्द बोल दे। मधुर वचन बोलने में सर्वत्र आनंद ही आनंद मिलेगा, संकट न रहेंगे, लेकिन जिस पर मोह है उसके प्रति तो मधुर वचन बोले जा सकते हैं और जहाँ मोह नहीं है वहाँ मधुर वचन बोलना कुछ कठिन हो जाता है और जिन्हें अपने विषयसाधनों में बाधक मान लिया उनके प्रति तो मधुर बोल-बोल ही नहीं सकेत। यदि उनसे भी मधुर वचन बोल ले तो बाधक बाधकता को त्यागकर साधक बन सकते हैं,पर इतना इस मोही पुरुष से नहीं हो पाता है।
अध्यात्मरमण का कारण―प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि जो जहाँ ठहरता है वह उस ही में प्रीति करता है, और उनमें ही सुख की कल्पना करके बार-बार भक्ति का यत्न करता है और आनंदधाम जो निजस्वरूप है उसकी और झांक कर भी नहीं देखता है। लेकिन जब दृष्टि बदल जाती है, अध्यात्म में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है तब बाह्य पदार्थों से हटकर एक निज शुद्ध स्वरूप की और ही रति हो जाती है। तब चिंतन और मनन के अभ्यास के बाद सहज शुद्ध आनंद का अनुभव होने लगता है। अब उसे बाह्यपदार्थ रंच भी रुचिकर नहीं रहते हैं। क्या वजह है कि यह योगी अपने मे ही रम रहा है और बाहर में नहीं रमना चाहता? इस प्रश्न का उत्तर इस श्लोक में दिया है। जिसे अपने स्वरूप में ही रति है वह वही रहकर आनंद पाया करता है।