वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 42
From जैनकोष
किमिदं कीदृशं कस्य कस्मात्क्वेत्यविशेषयन्।
स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायणः।।42।।
एकांत अंतस्तत्त्व की उपलब्धि―कुछ पूर्व के श्लोकों में यह दर्शाया था कि जो लोक में उत्तम तत्त्व है, सारभूत वस्तु हे वह निज एकांत में ही प्रकट होती है। निज एकांत का अर्थ है जिस चित्त में रागद्वेष का क्षोभ नही है। ऐसे सर्व विविक्त एक इस धर्मी आत्मा में ही उस तत्त्व का उद्भव होता है। जो लोक में सर्वोत्तम और शरणभूत है अपने आप में ही वह तत्त्व है जिसके दर्शन होने पर संसार के समस्त संकट टल जाते हैं। एक इस अंतस्तत्त्व के मिले बिना चाहे कितनी ही संपदा का संचय हो जाय किंतु संसार के संकट दूर नही हो सकते हैं जिसको बाह्य पदार्थों की चाह है उस पर ही संकट है और जिसे किसी प्रकार की वांछा नही है वहाँ कोई संकट नही है।
ज्ञानी के अंतरंग में साहस―ज्ञानी पुरुष में इतना महान साहस होता है कि कैसी भी परिस्थिति आए सर्व परिस्थितियों में मेरा कही भी रंच बिगाड़ नही है। अरे लोक विभूति के कम होने से अथवा न होने से इन मायामय पुरुषों ने तो कुछ सम्मान न किया, अथवा कुछ निंदा भरी बात कह दी तो इसमें मेरा क्या नुक्सान हो गया? मैं तो आनंदमय ज्ञानस्वरूप तत्त्व हूं, ऐसा निर्णय करके ज्ञानी के अंतः में महान् साहस होता है। जिस तत्त्व के दर्शन में यह साहस और संकटो का विनाश हो जाता है, उस तत्त्व के दर्शन के लिए, उस तत्त्व के अभ्यास के लिए अनुरोध किया गया था।
विषयोंकी अरुचिकर व स्वसंवेदन―ज्यों-ज्यों यह ज्ञानप्रकाशमात्र आत्मतत्त्व अपने उपयोग में समाता जाता है त्यों-त्यों स्थिति होती है कि ये सुलभ भी विषय उसको रुचिकर नही होते हैं,और विषयों का अरुचिकर होना और ज्ञानप्रकाशका बढ़ना―इन दोनों में होड़ लग जाती है। यह वैराग्य भी इस ज्ञान से आगे-आगे बढ़ता है और यह ज्ञान वैराग्य के आगे-आगे बढ़ता है। इस अभीष्ट होड़के कारण इस योगी के उपयोग में यह सारा जगत इंद्रजाल की तरह शांत हो जाता है। ये केवल एक आत्मलाभकी इच्छा रहती है, अन्यत्र उसे पछतावा होता है, ऐसी लगन जिसे लगी हो मोक्षमार्ग उसे मिलता है। केवल बातों से गपोड़ों से शांति तो नही मिल सकती है। कोई एक बाबू साहब मानो बंबई जा रहे थे। तो पड़ौसी सेठानी, बहुवें आ आकर बाबूजीसे कहती है कि हमारे मुन्ना को एक खेलने का जहाज ला देना, कोई कहती है कि हमारे मुन्ना को खेलने की रेलगाड़ी ला देना। बहुतों ने बहुत बातें कही। एक गरीब बुढ़िया आयी दो पैसे लेकर। बाबूजी को पैसे देकर बोली कि दो पैसा का मेरे मुन्ने को खेलने का मिट्टी का खिलौना ला देना। तो बाबू जी कहते हैं कि बुढ़िया मां मुन्ना तेरा ही खिलौना खेलेगा, और तो सब गप्पें करके चली गयी। तो ऐसे ही जो शांति का मार्ग है उस मार्ग में गुप्त रहकर कुछ बढ़ता जाय तो उसको ही शांति प्राप्ति होगी, केवल बातों से तो नही। चित्त में कीर्ति और यश की वांछा हो, बड़ा धनी होने की वांछा हो, अचेतन असार तत्वों मे उपयोग रम रहा हो वहाँ शांति का दर्शन नही हो सकता है।
अंतस्तत्त्वके लाभकी स्पृहा―यह योगी केवल एक आत्मालाभमें ही स्पृहा रखता है, यह एकांत आत्मतत्त्व को चाहता है और बाह्य में एकांत स्थान को चाहता है। यहाँ कुछ भी बाह्य प्रयोग क्रियाकांड बोलचाल आना जाना कुछ भी नही चाहता है। उसने अपने उपयोग में आत्मतत्त्वको स्थिर किया है, ऐसे योगी की कहानी आज इस श्लोक में कही जा रही है कि वे योगी अंतरंग में क्या किया करते है?
ज्ञानी की कृतिकी जिज्ञासा―यहाँ जीवों को करने-करने की आदत पड़ी है इसलिए यह ज्ञानी में भी करनेका ज्ञान करना चाहता है कि ये योगी क्या किया करते हैं इसका समाधान करने से पहिले थोड़ा यह बतायें कि यह अध्यात्मयोगी संत जो इस तत्त्व के अभ्यास में उद्यत हुआ है इस योगाभासमें प्राक् पदवीमें क्या-क्या निर्णय अपने समयमें बनाया था? जिस आत्मतत्त्वकी उसे लगन लगी है वह आत्मतत्त्व क्या है? वह आत्मतत्त्व रागद्वेष आदिक वासनावों से रहित केवल जाननहार रहनेरूप जो ज्ञानप्रकाश है यह आत्मतत्त्व है। यह ज्ञान प्रकाशरूप आत्मतत्त्व निर्विकल्प निराकुल निर्वाध है जिसमें कोई प्रकार का संकट नही है ऐसा शुद्ध प्रकाश है। यह प्रकाश इस आत्मा में ही अभिन्न रूपसे प्रकट हुआ है। इसका स्वामी कोई दूसरा नही है और न इसका प्रकाश किसी दूसरे के आधीन है। यह तत्त्व इस आत्मामें ही प्रकट हुआ, ऐसे उस ज्ञानामृतका बहुत-बहुत उपयोग लगाकर योगी पान किया करता था। इसके फलमें अब पूर्ण अभ्यस्त हुआ है। अब ये योगी क्या किया करता है उसके संबंध में जिज्ञासुका प्रश्न है।
कर्तृत्वबुद्धि का रोग―करना, करना यही तो एक संसार का रोग है। यह जिज्ञासु रोग की बात पूछ रहा है कि इस समय कौनसा रोग है, अर्थात यह क्या करता है, जगत के जीव करने के रोग में दुःखी है। सब बीमार है, कौनसी बीमारी लगी है? सबको निरखो किसी भी गाँव नगर शहर में नंबर 1 के घर से लेकर अंत के नंबर के घर तक देख आवो, सभी कुछ न कुछ बीमार हो रहे हैं,कुछ न कुछ करनेका संकल्प बना हुआ है। ये करने के आशय की बीमारी का दुःख भागते जा रहे हैं। क्या उस ही रोग की बात को यह जिज्ञासु पूछ रहा है? कोई एक रूई धुनने वाला था। वह विदेश किसी कारण गया था। वहां से पानी के जहाज से आ रहा था। तो उस जहाज में मुसाफिर एक ही कोई था और एक यह स्वयं, किंतु सारे जहाज में रूई लदी हुई थी। हजारों मन रूई देखकर उस धुनिया के दिल में बड़ी चोट पहुंची। हाय यह सारी रूई हमको ही धुननी पड़ेगी। बस उसके सिर दर्द शुरू हो गया, घर पहुंचते-पहुंचते तेज बुखार हो गया, कराहने लगा। डाक्टर आए, पर वहां कोई बीमारी हो तो वह ठीक हो। वह तो मानसिक कल्पना का रोग था। एक चतुर वैद्य आया, उसने पूछा―बाबा जी कहां से तुम बीमार हुए? बोला हम विदेश से पानी के जहाज से आ रहे थे, बस वही रास्ते मे बीमार हो गए।.... अच्छा उसमें कौन-कौन था?....था तो कोई नही (बड़ी गहरी सांस लेकर कहा) बोला―एक ही मुसाफिर था, मगर उसमे हजारों मन रूई लदी हुई थी। उसकी आह भरी आवाज को सुनकर वह सब जान गया। बोला―अरे तुम उस जहाज से आए, वह तो आगे किसी बंदरगाह पर पहुंचकर आग लग जाने से जलकर भस्म हो गया। जहाज और रूई सब कुछ खत्म हो गया। इतनी बात सुनते ही वह चंगा हो गया। तो सब करने के रोग के बीमार है।
कर्तृत्वबुद्धि के रोगकी चिकित्साकी चर्चा―भैया ! कर्तृत्वबुद्धि के रोग से पैर एक जगह नही थम जाते हैं,चित्त एक जगह नही लग पाता है, जगत के जीव में पक्षपात मच गया है, यह मेरा है, यह गैर है, ये कितनी प्रकार की बीमारियां उत्पन्न हो गई है। इन सबका कारण कर्तृत्व का आशय है। मैं करता हूं तो यह होता है, मैं न करूँ तो कैसे होगा? यह नही विदित है कि यदि हम ने करेंगे तो ये पदार्थ अपने परिणमते रहने के द्रव्यत्व को त्याग देंगे क्या? खैर जिज्ञासु को अधिकार है कैसा भी प्रश्न पूछे। उस प्रश्न का उत्तर यहाँ दिया जा रहा है कि यह योगी तो अपने उपयोग को जोड़ रहा है और कुछ नही कर रहा हे। तो जिज्ञासु मानो पुनः पूछता है कि क्या वह योगी अपने बारे में सूनसान है, कुछ अपने आपका चिंतन और भान ही नही कर रहा है क्या? उत्तर इसी का दिया गया है पूर्व पाद में कि यह अनुभव में आने वाला तत्त्व क्या है, कैसा है, किसका है, कहाँ से आया, कहाँ पर है, इस प्रकार का कोई भी विकल्प वहाँ नही मच रहा है, और इसी कारण वह अपने देह को भी नही जान रहा है।
अनात्मतत्त्वके परिज्ञानकी अनपेक्षा―जिस पुरुष को भेदविज्ञानका उपयोग हो रहा है वह जिससे अपने को भिन्न करता है उस हेय तत्त्व को फिर भी जानता तो है भेदविज्ञान अध्यात्ममार्गमें पहुंचने की सीढ़ी है जो लोकव्यवहार में चतुर होते हैं वे यह कहते हैं कि अपने खिलाफ यदि किसी ने कुछ कह दिया या कुछ छपा दिया उसका यदि कुछ प्रत्युत्तर दे तो इसका कोई अर्थ यह है कि उसने उस निंदा करनेका महत्त्व आंका और लोग यह समझेंगे कि कोई बात है तब तो इसे उत्तर देना पड़ा। बुद्धिमान पुरुष उसकी और दृष्टि भी नही करते हैं। यह मैं शरीर से न्यारा हूं, ऐसा सोचते हुए यदि शरीर तक ज्ञान में आए, अथवा कोई परद्रव्य ज्ञान में आए तो यह उन्नति की चीज नही है। मैं शरीर से न्यारा हूं। जिससे न्यारा तुम अपने को सोचते हो उनकी वखत तो हमने पहिले कर ली है। यह अध्यात्म मार्ग में चलाने वाले के प्राक्पदवीकी बात कही जा रही है। होता सबके ऐसा है जो शांतिके मार्ग में बढ़ते हैं। भेदविज्ञान उनके अनिवार्य है, लेकिन भेदविज्ञान की करते रहना, जपते रहना इतना ही कर्तव्य है क्या? नही। इससे आगे अभेद उपासना का कर्तव्य है जहाँ यह ही प्रतीत न हो रहा हो, विकल्प ही न मचता हो कि यह देह है, ये कर्म है, ये विभाव है, इनसे मुझे न्यारा होना चाहिए।
उपयोगमें परवस्तुका अमूल्य―कोई धर्मात्मा श्रावक और श्राविका थे। दोनों किसी गाँव को जा रहे थे। आगे पुरुष था, पीछे स्त्री थी। पुरुष आध फर्लांग आगे चल रहा था, उसे रास्तेमें धूल भरी सड़क पर अशर्फियों का एक ढेरदिखा, किसी की गिर गई होगी। उसे देखकर वह पुरुष यो सोचता है कि इसे धूल से ढक दे। यदि स्त्री को यह दिख जायगा तो, कही लालच न आ जाय, सो उस अशर्फियों को धूल से ढांकने लगा। इतने मे स्त्री आ गयी, बोली यह क्या कर रहे हो? तो पुरुष बोला कि मैं इन अशर्फियों को धूल से ढांक रहा हूं। क्यों? इसलिए कि कही तुम्हारे चित्तमें इनको देखकर लालच न आ जाय? स्त्री बोली―अरे तुम भी बड़ी मूढ़ताका काम कर रहे हो, इस धूल पर धूल क्यों डाल रहे हो। उस स्त्रीके चित्त में वह धन धूल था, उस पुरुष के उपयोग में अशर्फी है और स्त्रीके चित्तमे धूल है तो इसमें तो स्त्री का वैराग्य बड़ा हुआ।
विकल्पसे अभीष्ट की हानि―भेदविज्ञान में, जिससे अपने आपको पृथक करने की बात कही जा रही है, वहाँ दो चीजें सामने है, किंतु अध्यात्मयोगीको यह गरज नही है कि मेरीनिगाह में किसी भी रूप में विरोधी तत्त्व याने परतत्त्व बना रहे। इस योगी के देहकी बात तो दूर जाने दो, जिस ज्ञानमय तत्त्व का अनुभवकर रहा है उस तत्त्व के संबंधमें भी यह क्या है, कैसा है, कहाँ से आया है, इतना भी विकल्प नही कर रहा है। विकल्प करने से आनंद में कमी आ जाती है। जैसे आपने कोई बढ़िया मिठाई खायी, मान लो हलुवा खाया ते उसके संबंध में यदि यह ख्याल आए कि यह ऐसे बना है, इतना घी पडा़ है, इतना मैदा पड़ा है, ऐसी बातों का ख्याल भी करता जाय और खाता भी जाय तो उसके खानें मे आनंद में कमी हो जायगी। बड़ी मेहनत से बनाया है तो चुपचाप एक तान होकर उसका स्वाद ले, बातें मत करे, बातें करने से उसके आनंद में कमी हो जायगी। बड़ेयोगाभ्यास से, जीवनभरके ज्ञानार्जन की साधना से, पुरुषों की निष्कपट सेवा से यह तत्त्वज्ञान इसने पाया है और आज यह निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्व अनुभवमें आ रहा है, आने दो, अब उसके संबंधमें कुछ विकल्प भी न करो, विकल्प करोगे तो आता हुआ यह अनुभव हट जायगा।
विकल्पों का उत्तरोत्तर शमन―यह योगी अपने अध्यात्मयोग में परायण होता हुआ, किसी भी प्रकारका विकल्प न करता हुआ, अपने देहको भी नही जान रहा है। इस जीवके कल्याणमार्गमें पहिले तो औपचारिक व्यवहारका आलंबन होता है। जब बचपन था तो यह मां के साथ मंदिरमें आकर जैसे मां सिर झुका दे वैसे ही सिर झुका देता था, उसे तब कुछ भी बोध न था। जब कुछ बड़ा हुआ, अक्षराभ्यास किया, सत्संग किया, ज्ञानकी बात सुननेमें आयी, अब कुछ-कुछ ज्ञानतत्त्वकी और बढ़ने लगा। अब इसे वस्तुस्वरूपका प्रतिबोध हुआ, भेदविज्ञान जगा। इसके पश्चात् जब इस ध्याता योगीके अपने आपमें अभेद ज्ञानानुभूति होती है तब उसके विकल्प समाप्त होते हैं। इससे पहिले विकल्प हुआ करते थे, जैसे-जैसे उसकी उन्नति होती गई विकल्पों का रूपक भी बदलता गया, पर समस्त विकल्प शांत हुए तो इस ज्ञानतत्त्वमें शांत हुए।
ज्ञानभावकी अभिरसमयता व परभावभिन्नता―जानने वाला यह ज्ञान इस ही जानने वाले ज्ञान के स्वरूप का ज्ञान करने लगे तब दूसरे वस्तु के छोड़ने को अवकाश कहाँ रहा? ज्ञान ही जानने वाला और ज्ञान ही जानने में आ रहा है तब वहाँ तीसरे की चर्चा कहाँ रही? ऐसी ज्ञानानुभूतिमें किसी भी प्रकार का विकल्प उदित नहीं होता है, वह तो निज शुद्ध आनंद रसका पान किया करता है। वहाँ ऐसे स्वभाव का अनुभव हो रहा है जिसको कहाँ से शुरू करके बताएँ? शुरू बात किसी भी तत्त्व की होगी बताने में, तो परका नाम लेकर ही हो सकेगा। जिस ज्ञानतत्त्वके अनुभव में सम्यग्दर्शन प्रकट होता है वह तत्त्व परभावों से भिन्न है, परपदार्थों से और परपदार्थों के निमित्त से जायमान रागादिक भावों से भिन्न है।
आत्मतत्त्वकी परिपूर्णता―भैया ! यहाँ उस अनुभव में आए हुए ज्ञान तत्त्व की बात कही जा रही है, परसे भिन्न पर भावों से भिन्न है, इसमें यह न समझना कि जितना जो कुछ हम टूटा फूटा ज्ञान किया करते हैं उन ज्ञानों को तो मना नहीं किया, परपदार्थोंको मना किया और रागादिक भावोंको मना किया। अरे वह आत्मतत्त्व परिपूर्ण है जिसका अनुभव किया जाना है। यह हमारा ज्ञान तो अधूरा है, यह नहीं है वह तत्त्व, जिसका अध्यात्मयोगीके अनुभव हो रहा है।
आत्मतत्त्वकी आद्यंतविमुक्तता―यह अंतस्तत्त्व परभाव भिन्न है वह आपूर्ण है, इतने पर ये निर्णय मत कर बैठना कि जो पर नहीं है, परभाव नहीं है ओर पूरा है वह मेरा स्वरूप है। यो तो केवल ज्ञानादिक शुद्ध विकास भी मेरा स्वरूप बन जायेंगे। वे यद्यपि स्वरूप में एक तान हो जाते हैं और मेरे स्वरूप के शुद्ध विकास है, परंतु केवलज्ञान आदिक विकास सादि है, क्या उनके पहिले मैं न था? स्वरूप का निर्णय तो यथार्थ होना चाहिए, सो यह भी साथ में जानना कि वह आदि अंतरहित तत्त्व है जिसका आलंबन लिया जा रहा है शुद्धनय में।
आत्मतत्त्वका एकत्व व निर्विकल्पत्व―गुरुने शिष्य से पूछा―क्यों ठीक समझमें आ गया, यह शिष्य बोला―हाँ, वह परसे भिन्न है, परभावसे भिन्न है, परिपूर्ण है और शाश्वत है। ये ही तो है ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र, आनंद आदिक गुण। योगी समझता है कि नहीं-नहीं अभी तुमअनुभव के मार्ग से बिछुड़े जा रहे हो, वह इन नाना शक्तियों के रूप में नहीं है, वह तो एक स्वरूप है। शिष्य कहता है कि अब पहिचाना है कि ब्रह्म एक है। तो गुरु कहता है कि ब्रह्म एक है ऐसा ध्यान तू बनायगा तो तूने अपना आश्रय छोड़ दिया है। तू कही परक्षेत्रमें यह एक है ऐसा विकल्प मचायेगा, वहाँ भी इस ज्ञानतत्त्वका अनुभव नहीं है। समस्त विकल्पजालों को छोड़कर इस तत्त्व का तू अनुभवमात्र कर । इसके बारे में तू जीभ मत हिला। जहाँ कुछ भी जीभ हिलायी, प्रतिपादन करने को चला कि तेरा यह आनंद रसज्ञानानुभव सब विघट जायगा।
नयपक्षातीत स्वरूपानुभव―यह योगी योग में परायण होता हुआ अपने देह तक को भी नहीं जान रहा है। वह तो परम एकाग्रता से अपने अकिंचन शुद्धस्वरूप का ही अवलोकन कर रहा है। जो अपनी इच्छा से ही उछल रहे, जो अनेक विकल्पजाल तत्त्वज्ञानके संबंधों भी हो रहे हैं,जिससे नय पक्ष की कक्षा बढ़ रही है उनका ही उल्लंघन करके निज सहजस्वरूप को देखता है, जो सर्वत्र समतारससे भरा हुआ है, उसे जो प्राप्त करता है वह योगी है, धर्ममय है। अपनी समस्त शक्तियों इधर उधर न फैलाकर अपने आपके सहज स्वभाव में केंद्रित करके अपने उपयोग को एक चिन्मात्र स्वभाव में स्थिर कर देता है वहाँ हेय और उपादेय का कोई भी विकल्प उत्पन्न नहीं होता है।
उपयोगकी अंतर्मुखता एवं आनंद―जैसे यह उपयोग बाहर में जाया करता है वैसे ही इसको क्या अपने आपमें लाया नहीं जा सकता है? जो उपयोग बाहरी पदार्थों के जानने में सुभट बन रहा है वह क्या अपने आपके स्वरूप को जानने में समर्थ नहीं हो सकता है? परपदार्थों में हित बुद्धि को छोड़कर अपने आपमें विश्राम लेकर अपने को जाने तो वहाँ वीतराग भाव का रसास्वादन हो सकेगा। योगी इसी परमतत्त्व का निरंतर आनंद भोगता रहता है।