श्रेयान्: Difference between revisions
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<p id="2">(2) पुरुषोत्तम नारायण के पूर्वभव के दीक्षागुरु । पद्मपुराण 20. 216</p> | <p id="2" class="HindiText">(2) पुरुषोत्तम नारायण के पूर्वभव के दीक्षागुरु । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#216|पद्मपुराण - 20.216]] </span></p> | ||
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<p id="4">(4) कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर के कुरुवंशी राजा सोमप्रभ के भाई । वृषभदेव को देखकर इन्हें पूर्वभव में अपने द्वारा दिये गये आहार दान का स्मरण हो आया था । इससे ये विधिपूर्वक वृषभदेव के लिए इक्षु रस का आहार दे सके थे । आहारदान देने की प्रवृत्ति का | <p id="4" class="HindiText">(4) कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर के कुरुवंशी राजा सोमप्रभ के भाई । वृषभदेव को देखकर इन्हें पूर्वभव में अपने द्वारा दिये गये आहार दान का स्मरण हो आया था । इससे ये विधिपूर्वक वृषभदेव के लिए इक्षु रस का आहार दे सके थे । आहारदान देने की प्रवृत्ति का शुभारंभ इन्हीं ने किया था । अंत में ये दीक्षा लेकर वृषभदेव के गणधर हुए । दसवें पूर्वभव में ये वनश्री, नौवें में निर्नामिका, आठवें में स्वयंप्रभा देवी, सातवें में श्रीमती, छठे में भोगभूमि की आर्या, पाँचवें में स्वयंप्रभ दैव, चौथे में केशव, तीसरे में अच्युत स्वर्ग के इंद्र, दूसरे में धनदत्त, प्रथम पूर्वभव में अहमिंद्र हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 6. 60, 8. 33, 185-188, 9.186, 10. 171-172, 186, 11. 14, 20. 30-31, 78-81, 88, 128, 24.174, 43. 52, 47. 360-362, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_9#158|हरिवंशपुराण - 9.158]], 45. 6-7 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:25, 27 November 2023
(1) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25. 209
(2) पुरुषोत्तम नारायण के पूर्वभव के दीक्षागुरु । पद्मपुराण - 20.216
(3) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं ग्यारहवें तीर्थंकर । इनका अपर नाम श्रेयस था । पद्मपुराण -5. 214, हरिवंशपुराण - 1.13, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-106 देखें श्रेयांसनाथ
(4) कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर के कुरुवंशी राजा सोमप्रभ के भाई । वृषभदेव को देखकर इन्हें पूर्वभव में अपने द्वारा दिये गये आहार दान का स्मरण हो आया था । इससे ये विधिपूर्वक वृषभदेव के लिए इक्षु रस का आहार दे सके थे । आहारदान देने की प्रवृत्ति का शुभारंभ इन्हीं ने किया था । अंत में ये दीक्षा लेकर वृषभदेव के गणधर हुए । दसवें पूर्वभव में ये वनश्री, नौवें में निर्नामिका, आठवें में स्वयंप्रभा देवी, सातवें में श्रीमती, छठे में भोगभूमि की आर्या, पाँचवें में स्वयंप्रभ दैव, चौथे में केशव, तीसरे में अच्युत स्वर्ग के इंद्र, दूसरे में धनदत्त, प्रथम पूर्वभव में अहमिंद्र हुए थे । महापुराण 6. 60, 8. 33, 185-188, 9.186, 10. 171-172, 186, 11. 14, 20. 30-31, 78-81, 88, 128, 24.174, 43. 52, 47. 360-362, हरिवंशपुराण - 9.158, 45. 6-7