योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 73: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- शरीरिणां अवस्थानं लोक-असंख्येयभागादौ (भवति) । (संसारी जीवानां) अंशा: दीपानां इव विसर्प-संहारौ कुर्वते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- शरीरधारी संसारीजीव की व्यापकता लोकाकाश के असंख्येय भागादिकों में अर्थात् लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में होती है । संसारी जीवों के प्रदेश शरीर के आकारानुसार दीपकों के प्रकाश के समान संकोच-विस्तार करते रहते हैं । </p> | ||
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संसारी जीवों की लोकाकाश में व्यापकता -
लोकासंख्येयभागादाववस्थानं शरीरिणाम् ।
अंशा विसर्प-संहारौ दीपानामिव कुर्वते ।।७३।।
अन्वय :- शरीरिणां अवस्थानं लोक-असंख्येयभागादौ (भवति) । (संसारी जीवानां) अंशा: दीपानां इव विसर्प-संहारौ कुर्वते ।
सरलार्थ :- शरीरधारी संसारीजीव की व्यापकता लोकाकाश के असंख्येय भागादिकों में अर्थात् लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में होती है । संसारी जीवों के प्रदेश शरीर के आकारानुसार दीपकों के प्रकाश के समान संकोच-विस्तार करते रहते हैं ।