मोक्ष व मुक्तजीव निर्देश: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">मोक्ष व मुक्तजीव निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">अर्हंत व सिद्ध में कथंचित् भेदाभेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 1/46/2 </span><span class="SanskritText"> सिद्धानामर्हतां च को भेद इति चेन्न, नष्टानष्टकर्माणः सिद्धाः नष्टघातिकर्माणोऽर्हंत इति तयोर्भेदः । नष्टेषु घातिकर्मस्वाविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न गुणकृतस्तयोर्भेद इति चेन्न, अघातिकर्मोदयसत्त्वोपलंभात् । तानि शुक्लध्यानाग्निनार्धदग्धत्वात्संत्यपि न स्वकार्यकर्तृणीति चेन्न, पिंडनिपाताभावान्यथानुपपत्ति: आयुष्यादिशेषकर्मोदयास्तित्वसिद्धेः । तत्कार्यस्य चतुरशीतिलक्षयोन्यात्मकस्य जातिजरामरणोपलक्षितस्य संसारस्यासत्त्वात्तेपामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच्च न तयोर्गुणकृतो भेद इति चेन्न, आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबंधकयोः सत्त्वात् । नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाशप्रसंगात् । सुखमपि न गुणस्तत एव । न वेदनीयोदयो दुःखजनकः केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् । किंतु सलेपनिर्लेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् । </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong> सिद्ध और अर्हंतों में क्या भेद है ? <strong>उत्तर−</strong> आठ कर्मों को नष्ट करने वाले सिद्ध होते हैं और चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले अरिहंत होते हैं । यही दोनों में भेद है । <strong>प्रश्न−</strong>चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर अरिहंतों की आत्मा के समस्त गुण प्रगट हो जाते हैं, इसलिए सिद्ध और अरिहंत परमेष्ठी में गुणकृत भेद नहीं हो सकता है ? <strong>उत्तर−</strong> ऐसा नहीं है, क्योंकि अरिहंतों के अघातिया कर्मों का उदय और सत्त्व दोनों पाये जाते हैं, अतएव इन दोनों परमेष्ठियों में गुणकृत भेद भी है । <strong>प्रश्न−</strong> वे अघातिया कर्म शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा अधजले से हो जाने के कारण उदय और सत्त्वरूप से विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं ? <strong>उत्तर−</strong> ऐसा भी नहीं है, क्योंकि शरीर के पतन का अभाव अन्यथा सिद्ध नहीं होता है, इसलिए अरिहंतों के आयु आदि शेष कर्मों के उदय और सत्त्व की (अर्थात् उनके कार्य की) सिद्धि हो जाती है । <strong>प्रश्न−</strong> कर्मों का कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप जन्म, जरा और मरण से युक्त संसार है । वह, अघातिया कर्मों के रहने पर अरिहंत परमेष्ठी के नहीं पाया जाता है । तथा अघातिया कर्म, आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात करने में समर्थ भी नहीं हैं । इसलिए अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी में गुणकृत भेद मानना ठीक नहीं है ? <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबंधक आयुकर्म का उदय और सुख गुण का प्रतिबंधक वेदनीय कर्म का उदय अरिहंतों के पाया जाता है, इसलिए अरिहंत और सिद्धों में गुणकृत भेद मानना ही चाहिए । <strong>प्रश्न−</strong> ऊर्ध्वगमन आत्मा का गुण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसके अभाव में आत्मा का भी अभाव मानना पड़ेगा । इसी कारण से सुख भी आत्मा का गुण नहीं है । दूसरे वेदनीय कर्म का उदय दुःख को भी उत्पन्न नहीं करता है, अन्यथा केवली भगवान् के केवलीपना बन नहीं सकता ? <strong>उत्तर−</strong> यदि ऐसा है तो रहो अर्थात् यदि उन दोनों में गुणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होओ, क्योंकि वह न्यायसंगत है । फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा और देश भेद की अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है । <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/4/117/13 </span><span class="SanskritText">जिनाः कर्तारः व्रजंति गच्छंति । कुत्र गच्छंति । परलोकशब्दवाच्ये परमात्मध्याने न तु कायमोक्षे चेति । </span>=<span class="HindiText"> जिनेंद्र भगवान् परलोक में जाते हैं अर्थात् ‘परलोक’ इस शब्द के वाच्यभूत परमात्मध्यान में जाते हैं, काय के मोक्षरूप परलोक में नहीं । <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> मुक्त जीव निश्चय से स्व में ही रहते हैं; सिद्धालय में रहना व्यवहार से है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/176/ कलश 294</span> <span class="SanskritText">लोकस्याग्रे व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः, स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते ।294। </span>= <span class="HindiText">देवाधिदेव व्यवहार से लोक के अग्र में सुस्थित हैं और निश्चय से निज आत्मा में ज्यों के त्यों अत्यंत अविचल रूप से रहते हैं । <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> अपुनरागमन संबंधी शंका- समाधान</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/17 </span><span class="PrakritText">भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि ।... ।17। </span>= <span class="HindiText">उस सिद्ध भगवान् के विनाश रहित तो उत्पाद है और उत्पाद रहित विनाश है । (विशेष दे. [[ उत्पादव्ययध्रौव्य#3.10 | उत्पादव्ययध्रौव्य 3.10 ]] )। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/10/4/4-8/642-27 </span><span class="SanskritText">बंधस्याव्यवस्था अश्वादिवदिति चेत्; न; मिथ्यादर्शनाद्युच्छेदे कार्यकारणनिवृत्तेः ।4 । पुनर्बंधप्रसंगो जानतः पश्यतश्च कारुण्यादिति चेत्; न; सर्वास्रवपरिक्षयात् ।5 ।....भक्तिस्नेहकृपास्पृहादीनां रागविकल्पत्वाद्वीतरागे न ते संतीति । अकस्मादिति चेत्; अनिर्मोक्षप्रसंगः ।6 ।....मुक्तिप्राप्त्यनंतरमेव बंधोपपत्तेः । स्थानवत्वात्पात इति चेत्; न; अनास्रवत्वात् ।7 ।...आस्रवतो हि पानपात्रस्याधःपतनं दृश्यते, न चास्रवो मुक्तस्यास्ति । गौरवाभावाच्च ।8 ।...यस्य हि स्थानवत्त्वं पातकारणं तस्य सर्वेषां पदार्थानां पातः स्यात् स्थानवत्त्वाविशेषात् । </span> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/10/2/3/641/6 पर उद्धृत</span>- <span class="SanskritText">‘दग्धे बीजे यथाऽत्यंतं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः । </span>= | |||
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<li class="HindiText"> जैसे | <li class="HindiText"><span></span><strong>प्रश्न−</strong> जैसे घोड़ा एक बंधन से छूटकर भी फिर दूसरे बंधन से बँध जाता है, उस तरह जीव भी एक बार मुक्त होने के पश्चात् पुनः बँध जायेगा ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि उसके मिथ्यादर्शनादि कारणों का उच्छेद होने से बंधनरूप कार्य का सर्वथा अभाव हो जाता है ।4 । <strong>प्रश्न−</strong>समस्त जगत् को जानते व देखते रहने से उनको करुणा, भक्ति आदि उत्पन्न हो जायेंगे, जिसके कारण उनको बंध का प्रसंग प्राप्त होता है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि समस्त आस्रवों का परिक्षय हो जाने से उनको भक्ति, स्नेह, कृपा और स्पृहा आदि जागृत नहीं होते हैं । वे वीतराग हैं, इसलिए जगत् के संपूर्ण प्राणियों को देखते हुए भी उनको करुणा आदि नहीं होती है ।5। <strong>प्रश्न−</strong>अकस्मात् ही यदि बंध हो जाये तो ? <strong>उत्तर−</strong>तब तो किसी जीव को कभी मोक्ष ही नहीं हो सकता, क्योंकि तब तो मुक्ति हो जाने के पश्चात् भी उसे निष्कारण ही बंध हो जायेगा ।6। <strong>प्रश्न−</strong>स्थानवाले होने से उनका पतन हो जायेगा ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि उनके आस्रवों का अभाव है । आस्रव वाले ही पानपात्र का अथवा गुरुत्व (भार) युक्त ही ताड़ फल आदि का पतन देखा जाता है। परंतु मुक्त जीव के न तो आस्रव है और न ही गुरुत्व है।8। यदि मात्र स्थान वाले होने से पतन होवे तो आकाश आदि सभी पदार्थों का पतन हो जाना चाहिए, क्योंकि स्थानवत्त्व की अपेक्षा सब समान हैं। </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> दूसरी बात यह भी है, कि जैसे बीज के पूर्णतया जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मबीज के दग्ध हो जाने पर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। <span class="GRef">( तत्त्वसार/8/7 )</span>; <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/29/328/28 पर उद्धृत)</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1, 5, 310/477/5 </span><span class="PrakritText"> ण च ते संसारे णिवदंति णट्ठासवत्तादो।</span> = <span class="HindiText"></span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"> कर्मास्रवों के नष्ट हो जाने से वे संसार में पुनः लौटकर नहीं आते। </span><br /> | ||
<span class="GRef">योगसार अमितगति/अधिकार/श्लोक</span> −<span class="SanskritText">न निर्वृतः सुखीभवतः पुनरायाति संसृतिं। सुखदं हि पदं हित्वा दुःखदं कः प्रपद्यते। (7/18)। युज्यते रजसा नात्मा भूयोऽपि विरजीकृतः। पृथक्कृतं कुत: स्वर्णं पुनः कीटेन युज्यते। (9-53)।</span> = </li> | |||
<li class="HindiText"> जो आत्मा मोक्ष अवस्था को प्राप्त होकर निराकुलतामय सुख का अनुभव कर चुका वह पुनः संसार में लौटकर नहीं आता, क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष होगा जो सुखदायी स्थान को | <li class="HindiText"> जो आत्मा मोक्ष अवस्था को प्राप्त होकर निराकुलतामय सुख का अनुभव कर चुका वह पुनः संसार में लौटकर नहीं आता, क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष होगा जो सुखदायी स्थान को छोड़कर दुःखदायी स्थान में आकर रहेगा। (18)।</li> | ||
<li class="HindiText"> जिस प्रकार एक बार कीट से नियुक्त किया गया स्वर्ण पुनः कीट युक्त नहीं होता है, उसी प्रकार जो आत्मा एक बार कर्मों से रहित हो चुका है, वह पुनः कर्मों से संयुक्त नहीं होता।53। <br /> | <li class="HindiText"> जिस प्रकार एक बार कीट से नियुक्त किया गया स्वर्ण पुनः कीट युक्त नहीं होता है, उसी प्रकार जो आत्मा एक बार कर्मों से रहित हो चुका है, वह पुनः कर्मों से संयुक्त नहीं होता।53। <br /> | ||
देखें [[ मोक्ष#6.5 | मोक्ष - 6.5]] | देखें [[ मोक्ष#6.5 | मोक्ष - 6.5, 6.6 ]] - पुनरागमन का अभाव मानने से मोक्षस्थान में जीवों की भीड़ हो जावेगी अथवा यह संसार जीवों से रिक्त हो जायेगा ऐसी आशंकाओं को भी यहाँ स्थान नहीं है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद से निकलते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/197/441/15 </span><span class="SanskritText">कदाचिदष्टसमयाधिकषण्मासाभ्यंतरे चतुर्गतिजीवराशितो निर्गतेषु अष्टोत्तरषट्शतजीवेषु मुक्तिंगतेषु तावंतो जीवा नित्यनिगोदभवं त्यक्त्वा चतुर्गतिभवं प्राप्नुवंतीत्ययमर्थः। </span>= <span class="HindiText">कदाचित् आठ समय अधिक छह मास में चतुर्गति जीव राशि में से निकलकर 608 जीव मोक्ष जाते हैं और उतने ही जीव (उतने ही समय में) नित्य निगोद भव को छोड़कर चतुर्गतिरूप भव को प्राप्त होते हैं। (और भी देखें [[ मोक्ष#4.11 | मोक्ष - 4.11]])। <br /> | |||
देखें [[ मार्गणा ]](सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम है)। </span><br /> | देखें [[ मार्गणा#6 | मार्गणा 6]](सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम है)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/29/331/13 पर उद्धृत </span> - <span class="SanskritText">सिज्झंति जत्तिया खलु इह संववहारजीवरासीओ। एंति अणाइवस्सइ रासीओ तत्तिआ तम्मि।2। इति वचनाद्। यावंतश्च यतो मुक्तिं गच्छंति जीवास्तावांतोऽनादि निगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छंति।</span> =<span class="HindiText"> जितने जीव व्यवहार राशि से निकलकर मोक्ष जाते हैं, उतने ही अनादि वनस्पतिराशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते हैं। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> जीव मुक्त हो गया है इसके चिह्न</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> जीव मुक्त हो गया है इसके चिह्न</strong> <br /> | ||
देखें [[ सल्लेखना#6.3.4 | सल्लेखना - 6.3.4 ]](क्षपक के मृत शरीर का मस्तक व | देखें [[ सल्लेखना#6.3.4 | सल्लेखना - 6.3.4 ]](क्षपक के मृत शरीर का मस्तक व दंतपंक्ति यदि पक्षीगण ले जाकर पर्वत के शिक्षर पर डाल दें तो इस पर से यह बात जानी जाती है कि वह जीव मुक्त हो गया है।) <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> सिद्धों को जानने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मूल/1/26<span class="PrakritGatha"> जहेउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिं णिवसइ देउ। तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ।26।</span> = <span class="HindiText">जैसा कार्य समयसार स्वरूप निर्मल ज्ञानमयी देव सिद्धलोक में रहते हैं, वैसा ही कारण समयसार स्वरूप परब्रह्म शरीर में निवास करता है। अतः हे प्रभाकर भट्ट ! तू सिद्ध भगवान् और अपने में भेद मत कर। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/1/25/30/1 </span><span class="SanskritText">तदेव मुक्तजीवसदृशं स्वशुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः। </span>= <span class="HindiText">वह मुक्त जीव सदृश स्वशुद्धात्मस्वरूप कारणसमयसार ही उपादेय है, ऐसा भावार्थ है। </span></li> | |||
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Latest revision as of 21:54, 25 November 2024
- मोक्ष व मुक्तजीव निर्देश
- अर्हंत व सिद्ध में कथंचित् भेदाभेद
धवला 1/1, 1, 1/46/2 सिद्धानामर्हतां च को भेद इति चेन्न, नष्टानष्टकर्माणः सिद्धाः नष्टघातिकर्माणोऽर्हंत इति तयोर्भेदः । नष्टेषु घातिकर्मस्वाविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न गुणकृतस्तयोर्भेद इति चेन्न, अघातिकर्मोदयसत्त्वोपलंभात् । तानि शुक्लध्यानाग्निनार्धदग्धत्वात्संत्यपि न स्वकार्यकर्तृणीति चेन्न, पिंडनिपाताभावान्यथानुपपत्ति: आयुष्यादिशेषकर्मोदयास्तित्वसिद्धेः । तत्कार्यस्य चतुरशीतिलक्षयोन्यात्मकस्य जातिजरामरणोपलक्षितस्य संसारस्यासत्त्वात्तेपामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच्च न तयोर्गुणकृतो भेद इति चेन्न, आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबंधकयोः सत्त्वात् । नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाशप्रसंगात् । सुखमपि न गुणस्तत एव । न वेदनीयोदयो दुःखजनकः केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् । किंतु सलेपनिर्लेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् । = प्रश्न− सिद्ध और अर्हंतों में क्या भेद है ? उत्तर− आठ कर्मों को नष्ट करने वाले सिद्ध होते हैं और चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले अरिहंत होते हैं । यही दोनों में भेद है । प्रश्न−चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर अरिहंतों की आत्मा के समस्त गुण प्रगट हो जाते हैं, इसलिए सिद्ध और अरिहंत परमेष्ठी में गुणकृत भेद नहीं हो सकता है ? उत्तर− ऐसा नहीं है, क्योंकि अरिहंतों के अघातिया कर्मों का उदय और सत्त्व दोनों पाये जाते हैं, अतएव इन दोनों परमेष्ठियों में गुणकृत भेद भी है । प्रश्न− वे अघातिया कर्म शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा अधजले से हो जाने के कारण उदय और सत्त्वरूप से विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं ? उत्तर− ऐसा भी नहीं है, क्योंकि शरीर के पतन का अभाव अन्यथा सिद्ध नहीं होता है, इसलिए अरिहंतों के आयु आदि शेष कर्मों के उदय और सत्त्व की (अर्थात् उनके कार्य की) सिद्धि हो जाती है । प्रश्न− कर्मों का कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप जन्म, जरा और मरण से युक्त संसार है । वह, अघातिया कर्मों के रहने पर अरिहंत परमेष्ठी के नहीं पाया जाता है । तथा अघातिया कर्म, आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात करने में समर्थ भी नहीं हैं । इसलिए अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी में गुणकृत भेद मानना ठीक नहीं है ? उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबंधक आयुकर्म का उदय और सुख गुण का प्रतिबंधक वेदनीय कर्म का उदय अरिहंतों के पाया जाता है, इसलिए अरिहंत और सिद्धों में गुणकृत भेद मानना ही चाहिए । प्रश्न− ऊर्ध्वगमन आत्मा का गुण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसके अभाव में आत्मा का भी अभाव मानना पड़ेगा । इसी कारण से सुख भी आत्मा का गुण नहीं है । दूसरे वेदनीय कर्म का उदय दुःख को भी उत्पन्न नहीं करता है, अन्यथा केवली भगवान् के केवलीपना बन नहीं सकता ? उत्तर− यदि ऐसा है तो रहो अर्थात् यदि उन दोनों में गुणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होओ, क्योंकि वह न्यायसंगत है । फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा और देश भेद की अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है ।
- वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष है
परमात्मप्रकाश टीका/2/4/117/13 जिनाः कर्तारः व्रजंति गच्छंति । कुत्र गच्छंति । परलोकशब्दवाच्ये परमात्मध्याने न तु कायमोक्षे चेति । = जिनेंद्र भगवान् परलोक में जाते हैं अर्थात् ‘परलोक’ इस शब्द के वाच्यभूत परमात्मध्यान में जाते हैं, काय के मोक्षरूप परलोक में नहीं ।
- मुक्त जीव निश्चय से स्व में ही रहते हैं; सिद्धालय में रहना व्यवहार से है
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/176/ कलश 294 लोकस्याग्रे व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः, स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते ।294। = देवाधिदेव व्यवहार से लोक के अग्र में सुस्थित हैं और निश्चय से निज आत्मा में ज्यों के त्यों अत्यंत अविचल रूप से रहते हैं ।
- अपुनरागमन संबंधी शंका- समाधान
प्रवचनसार/17 भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि ।... ।17। = उस सिद्ध भगवान् के विनाश रहित तो उत्पाद है और उत्पाद रहित विनाश है । (विशेष दे. उत्पादव्ययध्रौव्य 3.10 )।
राजवार्तिक/10/4/4-8/642-27 बंधस्याव्यवस्था अश्वादिवदिति चेत्; न; मिथ्यादर्शनाद्युच्छेदे कार्यकारणनिवृत्तेः ।4 । पुनर्बंधप्रसंगो जानतः पश्यतश्च कारुण्यादिति चेत्; न; सर्वास्रवपरिक्षयात् ।5 ।....भक्तिस्नेहकृपास्पृहादीनां रागविकल्पत्वाद्वीतरागे न ते संतीति । अकस्मादिति चेत्; अनिर्मोक्षप्रसंगः ।6 ।....मुक्तिप्राप्त्यनंतरमेव बंधोपपत्तेः । स्थानवत्वात्पात इति चेत्; न; अनास्रवत्वात् ।7 ।...आस्रवतो हि पानपात्रस्याधःपतनं दृश्यते, न चास्रवो मुक्तस्यास्ति । गौरवाभावाच्च ।8 ।...यस्य हि स्थानवत्त्वं पातकारणं तस्य सर्वेषां पदार्थानां पातः स्यात् स्थानवत्त्वाविशेषात् । राजवार्तिक/10/2/3/641/6 पर उद्धृत- ‘दग्धे बीजे यथाऽत्यंतं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः । =- प्रश्न− जैसे घोड़ा एक बंधन से छूटकर भी फिर दूसरे बंधन से बँध जाता है, उस तरह जीव भी एक बार मुक्त होने के पश्चात् पुनः बँध जायेगा ? उत्तर−नहीं, क्योंकि उसके मिथ्यादर्शनादि कारणों का उच्छेद होने से बंधनरूप कार्य का सर्वथा अभाव हो जाता है ।4 । प्रश्न−समस्त जगत् को जानते व देखते रहने से उनको करुणा, भक्ति आदि उत्पन्न हो जायेंगे, जिसके कारण उनको बंध का प्रसंग प्राप्त होता है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि समस्त आस्रवों का परिक्षय हो जाने से उनको भक्ति, स्नेह, कृपा और स्पृहा आदि जागृत नहीं होते हैं । वे वीतराग हैं, इसलिए जगत् के संपूर्ण प्राणियों को देखते हुए भी उनको करुणा आदि नहीं होती है ।5। प्रश्न−अकस्मात् ही यदि बंध हो जाये तो ? उत्तर−तब तो किसी जीव को कभी मोक्ष ही नहीं हो सकता, क्योंकि तब तो मुक्ति हो जाने के पश्चात् भी उसे निष्कारण ही बंध हो जायेगा ।6। प्रश्न−स्थानवाले होने से उनका पतन हो जायेगा ? उत्तर−नहीं, क्योंकि उनके आस्रवों का अभाव है । आस्रव वाले ही पानपात्र का अथवा गुरुत्व (भार) युक्त ही ताड़ फल आदि का पतन देखा जाता है। परंतु मुक्त जीव के न तो आस्रव है और न ही गुरुत्व है।8। यदि मात्र स्थान वाले होने से पतन होवे तो आकाश आदि सभी पदार्थों का पतन हो जाना चाहिए, क्योंकि स्थानवत्त्व की अपेक्षा सब समान हैं।
- दूसरी बात यह भी है, कि जैसे बीज के पूर्णतया जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मबीज के दग्ध हो जाने पर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। ( तत्त्वसार/8/7 ); ( स्याद्वादमंजरी/29/328/28 पर उद्धृत)।
धवला 4/1, 5, 310/477/5 ण च ते संसारे णिवदंति णट्ठासवत्तादो। = - कर्मास्रवों के नष्ट हो जाने से वे संसार में पुनः लौटकर नहीं आते।
योगसार अमितगति/अधिकार/श्लोक −न निर्वृतः सुखीभवतः पुनरायाति संसृतिं। सुखदं हि पदं हित्वा दुःखदं कः प्रपद्यते। (7/18)। युज्यते रजसा नात्मा भूयोऽपि विरजीकृतः। पृथक्कृतं कुत: स्वर्णं पुनः कीटेन युज्यते। (9-53)। = - जो आत्मा मोक्ष अवस्था को प्राप्त होकर निराकुलतामय सुख का अनुभव कर चुका वह पुनः संसार में लौटकर नहीं आता, क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष होगा जो सुखदायी स्थान को छोड़कर दुःखदायी स्थान में आकर रहेगा। (18)।
- जिस प्रकार एक बार कीट से नियुक्त किया गया स्वर्ण पुनः कीट युक्त नहीं होता है, उसी प्रकार जो आत्मा एक बार कर्मों से रहित हो चुका है, वह पुनः कर्मों से संयुक्त नहीं होता।53।
देखें मोक्ष - 6.5, 6.6 - पुनरागमन का अभाव मानने से मोक्षस्थान में जीवों की भीड़ हो जावेगी अथवा यह संसार जीवों से रिक्त हो जायेगा ऐसी आशंकाओं को भी यहाँ स्थान नहीं है।
- जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद से निकलते हैं
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/197/441/15 कदाचिदष्टसमयाधिकषण्मासाभ्यंतरे चतुर्गतिजीवराशितो निर्गतेषु अष्टोत्तरषट्शतजीवेषु मुक्तिंगतेषु तावंतो जीवा नित्यनिगोदभवं त्यक्त्वा चतुर्गतिभवं प्राप्नुवंतीत्ययमर्थः। = कदाचित् आठ समय अधिक छह मास में चतुर्गति जीव राशि में से निकलकर 608 जीव मोक्ष जाते हैं और उतने ही जीव (उतने ही समय में) नित्य निगोद भव को छोड़कर चतुर्गतिरूप भव को प्राप्त होते हैं। (और भी देखें मोक्ष - 4.11)।
देखें मार्गणा 6(सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम है)।
स्याद्वादमंजरी/29/331/13 पर उद्धृत - सिज्झंति जत्तिया खलु इह संववहारजीवरासीओ। एंति अणाइवस्सइ रासीओ तत्तिआ तम्मि।2। इति वचनाद्। यावंतश्च यतो मुक्तिं गच्छंति जीवास्तावांतोऽनादि निगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छंति। = जितने जीव व्यवहार राशि से निकलकर मोक्ष जाते हैं, उतने ही अनादि वनस्पतिराशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते हैं।
- जीव मुक्त हो गया है इसके चिह्न
देखें सल्लेखना - 6.3.4 (क्षपक के मृत शरीर का मस्तक व दंतपंक्ति यदि पक्षीगण ले जाकर पर्वत के शिक्षर पर डाल दें तो इस पर से यह बात जानी जाती है कि वह जीव मुक्त हो गया है।)
- सिद्धों को जानने का प्रयोजन
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/26 जहेउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिं णिवसइ देउ। तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ।26। = जैसा कार्य समयसार स्वरूप निर्मल ज्ञानमयी देव सिद्धलोक में रहते हैं, वैसा ही कारण समयसार स्वरूप परब्रह्म शरीर में निवास करता है। अतः हे प्रभाकर भट्ट ! तू सिद्ध भगवान् और अपने में भेद मत कर।
परमात्मप्रकाश टीका/1/25/30/1 तदेव मुक्तजीवसदृशं स्वशुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः। = वह मुक्त जीव सदृश स्वशुद्धात्मस्वरूप कारणसमयसार ही उपादेय है, ऐसा भावार्थ है।
- अर्हंत व सिद्ध में कथंचित् भेदाभेद