स्थिति निषेक रचना: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(9 intermediate revisions by 4 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText"><strong>स्थिति निषेक रचना</strong></p> | <p class="HindiText" id="3"><strong>3.स्थिति निषेक रचना</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1"><strong>1. निषेक रचना ही कर्मों की स्थिति है</strong></p> | <p class="HindiText" id="3.1"><strong>1. निषेक रचना ही कर्मों की स्थिति है</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-7,43/200/10 </span><span class="PrakritText">ठिदिबंधे णिसेयविरयणा परूविदा। ण सा पदेसेहि विणा संभवदि, विरोहादो। तदो तत्तो चेव पदेसबंधो वि सिद्धो।</span> = <span class="HindiText">स्थिति बंध में निषेकों की रचना प्ररूपण की गयी है। वह निषेक रचना प्रदेशों के बिना संभव नहीं है, क्योंकि, प्रदेशों के बिना निषेक रचना मानने में विरोध आता है। इसलिए निषेक रचना से प्रदेश बंध भी सिद्ध होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2"><strong>2. स्थिति | <p class="HindiText" id="3.2"><strong>2. स्थिति बंध में निषेकों का त्रिकोण रचना संबंधी नियम</strong></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/920-921/1104 </span><span class="PrakritText">आबाहं बोलाविय पढमणिसेगम्मि देय बहुगं तु। तत्तो विसेसहीणं विदियस्सादिमणिसेओत्ति।920। बिदिये विदियणिसेगे हाणी पुव्विल्लहाणि अद्धं तु। एवं गुणहाणिं पडि हाणी अद्धद्धयं होदि।921।</span> = <span class="HindiText">कर्मों की स्थिति में आबाधा काल के पीछे पहले समय प्रथम गुणहानि के प्रथम निषेक में बहुत द्रव्य दिया जाता है। उसके ऊपर दूसरी गुणहानि का प्रथम निषेक पर्यंत एक-एक चय घटता-घटता द्रव्य दिया जाता है।920। दूसरी गुणहानि के दूसरे निषेक उस ही के पहले निषेक से एक चय घटता द्रव्य जानना। जो पहिली गुणहानि में निषेक-निषेक प्रति हानि रूप चय था, तिसतैं दूसरी गुणहानि में हानि रूप चय का प्रमाण आधा जानना। इस प्रकार ऊपर-ऊपर गुणहानि प्रति हानिरूप चय का प्रमाण आधा-आधा जानना।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/940/1139 </span><span class="PrakritText">उक्कस्सट्ठिदिबधे सयलबाहा हु सव्वठिदिरयणा। तक्काले दीसदि तो धोधो बंधट्ठिदीणं च।</span> = <span class="HindiText">विवक्षित प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बंध होने पर उसी काल में उत्कृष्ट स्थिति की आबाधा और सब स्थिति की रचना भी देखी जाती है। इस कारण उस स्थिति के अंत के निषेक से नीचे-नीचे प्रथम निषेक पर्यंत स्थिति बंध रूप स्थितियों की एक-एक समय हीनता देखनी चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="3"><strong>3. कर्म व नोकर्म की निषेक रचना | <p class="HindiText" id="3.3"><strong>3. कर्म व नोकर्म की निषेक रचना संबंधी विशेष सूची</strong></p> | ||
<p class="HindiText">1. चौदह जीवसमासों में मूल प्रकृतियों की | <p class="HindiText">1. चौदह जीवसमासों में मूल प्रकृतियों की अंतरोपनिधा परंपरोपनिधा की अपेक्षा पूर्णस्थिति में निषेक रचना =<span class="GRef">(महाबंध 2/5-16/6-12)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText">2. उपरोक्त विषय उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा ( | <p class="HindiText">2. उपरोक्त विषय उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा <span class="GRef">((महाबंध 2/19-28/228-229)</span>।</p> | ||
<p class="HindiText">3. नोकर्म के निषेकों की समुत्कीर्तना ( | <p class="HindiText">3. नोकर्म के निषेकों की समुत्कीर्तना <span class="GRef">( षट्खंडागम/2/5,6/ सूत्र /246-248/331)।</span></p> | ||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 19: | Line 19: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: स]] | [[Category: स]] | ||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 22:36, 17 November 2023
3.स्थिति निषेक रचना
1. निषेक रचना ही कर्मों की स्थिति है
धवला 6/1,9-7,43/200/10 ठिदिबंधे णिसेयविरयणा परूविदा। ण सा पदेसेहि विणा संभवदि, विरोहादो। तदो तत्तो चेव पदेसबंधो वि सिद्धो। = स्थिति बंध में निषेकों की रचना प्ररूपण की गयी है। वह निषेक रचना प्रदेशों के बिना संभव नहीं है, क्योंकि, प्रदेशों के बिना निषेक रचना मानने में विरोध आता है। इसलिए निषेक रचना से प्रदेश बंध भी सिद्ध होता है।
2. स्थिति बंध में निषेकों का त्रिकोण रचना संबंधी नियम
गोम्मटसार कर्मकांड/920-921/1104 आबाहं बोलाविय पढमणिसेगम्मि देय बहुगं तु। तत्तो विसेसहीणं विदियस्सादिमणिसेओत्ति।920। बिदिये विदियणिसेगे हाणी पुव्विल्लहाणि अद्धं तु। एवं गुणहाणिं पडि हाणी अद्धद्धयं होदि।921। = कर्मों की स्थिति में आबाधा काल के पीछे पहले समय प्रथम गुणहानि के प्रथम निषेक में बहुत द्रव्य दिया जाता है। उसके ऊपर दूसरी गुणहानि का प्रथम निषेक पर्यंत एक-एक चय घटता-घटता द्रव्य दिया जाता है।920। दूसरी गुणहानि के दूसरे निषेक उस ही के पहले निषेक से एक चय घटता द्रव्य जानना। जो पहिली गुणहानि में निषेक-निषेक प्रति हानि रूप चय था, तिसतैं दूसरी गुणहानि में हानि रूप चय का प्रमाण आधा जानना। इस प्रकार ऊपर-ऊपर गुणहानि प्रति हानिरूप चय का प्रमाण आधा-आधा जानना।
गोम्मटसार कर्मकांड/940/1139 उक्कस्सट्ठिदिबधे सयलबाहा हु सव्वठिदिरयणा। तक्काले दीसदि तो धोधो बंधट्ठिदीणं च। = विवक्षित प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बंध होने पर उसी काल में उत्कृष्ट स्थिति की आबाधा और सब स्थिति की रचना भी देखी जाती है। इस कारण उस स्थिति के अंत के निषेक से नीचे-नीचे प्रथम निषेक पर्यंत स्थिति बंध रूप स्थितियों की एक-एक समय हीनता देखनी चाहिए।
3. कर्म व नोकर्म की निषेक रचना संबंधी विशेष सूची
1. चौदह जीवसमासों में मूल प्रकृतियों की अंतरोपनिधा परंपरोपनिधा की अपेक्षा पूर्णस्थिति में निषेक रचना =(महाबंध 2/5-16/6-12)।
2. उपरोक्त विषय उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा ((महाबंध 2/19-28/228-229)।
3. नोकर्म के निषेकों की समुत्कीर्तना ( षट्खंडागम/2/5,6/ सूत्र /246-248/331)।