ज्ञान: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | | ||
<p class="HindiText">ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पाँच प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्वरूप मानता है, इसी से मिथ्याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्यक्त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान वास्तव में सम्यक् मिथ्या नहीं होता, | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पाँच प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्वरूप मानता है, इसी से मिथ्याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्यक्त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान वास्तव में सम्यक् मिथ्या नहीं होता, परंतु सम्यक्त्व या मिथ्यात्व के सहकारीपने से सम्यक् मिथ्या नाम पाता है। सम्यग्ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसको प्रगट करने में निमित्तभूत आगमज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है। तहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में मोक्ष का कारण है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1 | ज्ञान सामान्य ]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1.1 | भेद व लक्षण]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान सामान्य का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.1.1 | ज्ञान सामान्य का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> भूतार्थ ग्रहण का नाम ज्ञान है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.1.2 | भूतार्थ ग्रहण का नाम ज्ञान है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भूतार्थ ग्राहक कैसे है?<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.1.3 | मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भूतार्थ ग्राहक कैसे है?]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> अनेक अपेक्षाओं से ज्ञान के भेद।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.1.4 | अनेक अपेक्षाओं से ज्ञान के भेद।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> क्षायिक व क्षयोपशमिक रूप भेद–(देखें [[ क्षय | <li class="HindiText"> क्षायिक व क्षयोपशमिक रूप भेद–(देखें [[ क्षय ]] व देखें [[ क्षयोपशम ]])<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सम्यक् व मिथ्यारूप भेद–देखें [[ ज्ञान# | <li class="HindiText"> सम्यक् व मिथ्यारूप भेद–देखें [[ ज्ञान#3.1.1 | ज्ञान-3.1.1]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> स्वभाव विभाव तथा कारण-कार्य ज्ञान–देखें [[ उपयोग#I.1 | उपयोग - I.1]]।<br /> | <li class="HindiText"> स्वभाव विभाव तथा कारण-कार्य ज्ञान–देखें [[ उपयोग#I.1 | उपयोग - I.1]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> स्वार्थ व | <li class="HindiText"> स्वार्थ व परार्थ ज्ञान–देखें [[ प्रमाण#1 | प्रमाण - 1 ]]व अनुमान/1।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रत्यक्ष परोक्ष व मति श्रुतादि ज्ञान–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | <li class="HindiText"> [[प्रत्यक्ष]], [[परोक्ष]] व [[मतिज्ञान| मति]] श्रुतादि ज्ञान–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> धारावाहिक ज्ञान–देखें [[ श्रुतज्ञान#I.1 | श्रुतज्ञान - I.1]]।<br /> | <li class="HindiText"> धारावाहिक ज्ञान–देखें [[ श्रुतज्ञान#I.1 | श्रुतज्ञान - I.1]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1.2 | ज्ञान निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान व दर्शन | <li class="HindiText"> ज्ञान व दर्शन संबंधी चर्चा– देखें [[ दर्शन_उपयोग_2| दर्शन उपयोग -2]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान की सत्ता | <li class="HindiText">[[ #1.2.1 | ज्ञान की सत्ता इंद्रियों से निरपेक्ष है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र तीनों कथंचित् ज्ञानरूप हैं–देखें [[ मोक्षमार्ग#3.3 | मोक्षमार्ग - 3.3]]।<br /> | <li class="HindiText"> श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र तीनों कथंचित् ज्ञानरूप हैं–देखें [[ मोक्षमार्ग#3.3 | मोक्षमार्ग - 3.3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> श्रद्धान व ज्ञान में | <li class="HindiText"> श्रद्धान व ज्ञान में अंतर–देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.4 | सम्यग्दर्शन - I.4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रज्ञा व ज्ञान में | <li class="HindiText"> प्रज्ञा व ज्ञान में अंतर–देखें [[ ऋद्धि#2.7.3 | ऋद्धि - 2.7.3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान व उपयोग में | <li class="HindiText"> ज्ञान व उपयोग में अंतर–देखें [[ उपयोग#I.2 | उपयोग - I.2]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञानोपयोग साकार है–देखें [[ आकार#1.5 | आकार - 1.5]]।<br /> | <li class="HindiText"> ज्ञानोपयोग साकार है–देखें [[ आकार#1.5 | आकार - 1.5]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान की तरतमता सहेतुक है–देखें [[ कर्म#3.2 | कर्म - 3.2]]।<br /> | <li class="HindiText"> ज्ञान की तरतमता सहेतुक है–देखें [[ कर्म#3.2 | कर्म - 3.2]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञानोपयोग में ही उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्धि | <li class="HindiText"> ज्ञानोपयोग में ही उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्धि संभव है–देखें [[ विशुद्धि ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> क्षायोपशमिक ज्ञान कथंचित् मूर्तिक है–देखें [[ मूर्त#7 | मूर्त - 7]]।<br /> | <li class="HindiText"> क्षायोपशमिक ज्ञान कथंचित् मूर्तिक है–देखें [[ मूर्त#7 | मूर्त - 7]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान का ज्ञेयार्थ परिणमन | <li class="HindiText"> ज्ञान का ज्ञेयार्थ परिणमन संबंधी–देखें [[ केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान - 6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान का ज्ञेयरूप परिणमन का तात्पर्य–देखें [[ कारक#2.5 | कारक - 2.5]]।<br /> | <li class="HindiText"> ज्ञान का ज्ञेयरूप परिणमन का तात्पर्य–देखें [[ कारक#2.5 | कारक - 2.5]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1.3 | ज्ञान का स्वपरप्रकाशपना]]</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> स्वपरप्रकाशकपने की अपेक्षा ज्ञान का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.3.1 | स्वपरप्रकाशकपने की अपेक्षा ज्ञान का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.3.2 | स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.3.3 | प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">निश्चय व व्यवहार दोनों ज्ञान कथंचित् स्वपरप्रकाशक है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.3.4 | निश्चय व व्यवहार दोनों ज्ञान कथंचित् स्वपरप्रकाशक है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> ज्ञान के स्व-प्रकाशकत्व में हेतु।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.3.5 | ज्ञान के स्व-प्रकाशकत्व में हेतु।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान के पर-प्रकाशकत्व की सिद्धि।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.3.6 | ज्ञान के पर-प्रकाशकत्व की सिद्धि।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">ज्ञान व दर्शन दोनों | <li class="HindiText">ज्ञान व दर्शन दोनों संबंधी स्वपरप्रकाशकत्व में हेतु व समन्वय।–देखें [[ दर्शन_उपयोग_2| दर्शन उपयोग - 2 ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> निश्चय से स्वप्रकाशक और व्यवहार से परप्रकाशक कहने का समन्वय–देखें [[ केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान - 6]]।<br /> | <li class="HindiText"> निश्चय से स्वप्रकाशक और व्यवहार से परप्रकाशक कहने का समन्वय–देखें [[ केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान - 6]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1.4 | ज्ञान के पाँचों भेदों संबंधी]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान के पाँचों भेद पर्याय हैं।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.1 | ज्ञान के पाँचों भेद पर्याय हैं।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पाँचों भेद ज्ञानसामान्य के अंश है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.2 | पाँचों भेद ज्ञानसामान्य के अंश है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> पाँचों का ज्ञानसामान्य के अंश होने में शंका।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.3 | पाँचों का ज्ञानसामान्य के अंश होने में शंका।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> मति आदि ज्ञान केवलज्ञान के अंश है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.4 | मति आदि ज्ञान केवलज्ञान के अंश है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> मति आदि का केवलज्ञान के अंश होने में विधि साधक शंका समाधान।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.5 | मति आदि का केवलज्ञान के अंश होने में विधि साधक शंका समाधान।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मति आदि ज्ञान केवलज्ञान के अंश नहीं हैं।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.6 | मति आदि ज्ञान केवलज्ञान के अंश नहीं हैं।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मति आदि का केवलज्ञान के अंश होने व न होने का समन्वय।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.7 | मति आदि का केवलज्ञान के अंश होने व न होने का समन्वय।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सामान्य ज्ञान केवलज्ञान के बराबर है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.8 | सामान्य ज्ञान केवलज्ञान के बराबर है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पाँचों ज्ञानों को जानने का प्रयोजन।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.9 | पाँचों ज्ञानों को जानने का प्रयोजन।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पाँचों ज्ञानों का स्वामित्व।<br /> | <li class="HindiText">[[ #1.4.10 | पाँचों ज्ञानों का स्वामित्व।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> एक जीव में युगपत् | <li class="HindiText">[[ #1.4.11 | एक जीव में युगपत् संभव ज्ञान।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान मार्गणा में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम–देखें [[ मार्गणा ]]।<br /> | <li class="HindiText"> ज्ञान मार्गणा में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम–देखें [[मार्गणा#6 | मार्गणा- 6 ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान मार्गणा में गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि के स्वामित्व विषयक 20 प्ररूपणाएँ–देखें [[ सत् ]]।<br /> | <li class="HindiText"> ज्ञान मार्गणा में गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि के स्वामित्व विषयक 20 प्ररूपणाएँ–देखें [[ सत् ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञानमार्गणा | <li class="HindiText"> ज्ञानमार्गणा संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कौन ज्ञान से मरकर कहाँ उत्पन्न हो ऐसी गति अगति प्ररूपणा–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]।<br /> | <li class="HindiText"> कौन ज्ञान से मरकर कहाँ उत्पन्न हो ऐसी गति अगति प्ररूपणा–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ #2 | भेद व अभेद ज्ञान ]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #2.1 | भेद व अभेद ज्ञान निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> भेद ज्ञान का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText">[[ #2.1.1 | भेद ज्ञान का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अभेद ज्ञान का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText">[[ #2.1.2 | अभेद ज्ञान का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> भेद ज्ञान का तात्पर्य षट्कारकी निषेध।<br /> | <li class="HindiText">[[ #2.1.3 | भेद ज्ञान का तात्पर्य षट्कारकी निषेध।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> भेद ज्ञान का प्रयोजन।–देखें [[ ज्ञान# | <li class="HindiText"> भेद ज्ञान का प्रयोजन।–देखें [[ ज्ञान#4.3.1 | ज्ञान - 4.3.1]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> स्वभाव भेद से ही भेद ज्ञान की सिद्धि है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #2.1.4 | स्वभाव भेद से ही भेद ज्ञान की सिद्धि है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> संज्ञा लक्षण प्रयोजन की अपेक्षा अभेद में भी भेद।<br /> | <li class="HindiText">[[ #2.1.5 | संज्ञा लक्षण प्रयोजन की अपेक्षा अभेद में भी भेद।]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #3 | सम्यक मिथ्या ज्ञान ]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #3.1 | भेद व लक्षण]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> सम्यक् व मिथ्या की अपेक्षा ज्ञान के भेद।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.1.1 | सम्यक् व मिथ्या की अपेक्षा ज्ञान के भेद।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सम्यग्ज्ञान का लक्षण। (चार अपेक्षाओं से)।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.1.2 | सम्यग्ज्ञान का लक्षण। (चार अपेक्षाओं से)।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मिथ्याज्ञान सामान्य का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.1.3 | मिथ्याज्ञान सामान्य का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #3.2 | सम्यक् व मिथ्याज्ञान निर्देश]]</strong> | ||
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<li class="HindiText"> सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का नाम निर्देश।</li> | <li class="HindiText">[[ #3.2.1 | सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का नाम निर्देश।]]</li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> आठ अंगों के लक्षण आदि।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | <li class="HindiText"> आठ अंगों के लक्षण आदि।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">सम्यग्ज्ञान के अतिचार–देखें [[ आगम#1 | आगम - 1]]।<br /> | <li class="HindiText">सम्यग्ज्ञान के अतिचार–देखें [[ आगम#1.8 | आगम - 1.8]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li class="HindiText">सम्यग्ज्ञान की भावनाएँ।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.2 | सम्यग्ज्ञान की भावनाएँ।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> पाँचों ज्ञानों में सम्यक् मिथ्यापने का नियम।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.3 | पाँचों ज्ञानों में सम्यक् मिथ्यापने का नियम।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.4 | सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्दर्शन भी कथंचित् ज्ञानपूर्वक होता है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.5 | सम्यग्दर्शन भी कथंचित् ज्ञानपूर्वक होता है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान की व्याप्ति है पर ज्ञान के साथ सम्यग्दर्शन की नहीं।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.6 | सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान की व्याप्ति है पर ज्ञान के साथ सम्यग्दर्शन की नहीं।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सम्यक्त्व हो जाने पर पूर्व का ही मिथ्याज्ञान सम्यक् हो जाता है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.7 | सम्यक्त्व हो जाने पर पूर्व का ही मिथ्याज्ञान सम्यक् हो जाता है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहलाता है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.8 | वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहलाता है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि का शास्त्रज्ञान भी मिथ्या है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.9 | मिथ्यादृष्टि का शास्त्रज्ञान भी मिथ्या है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि का ठीक-ठीक जानना भी मिथ्या है।–देखें [[ | <li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि का ठीक-ठीक जानना भी मिथ्या है।–देखें [[ #3.2.9 | ऊपर नं - 8]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्ज्ञान में भी कदाचित् संशयादि–देखें [[ नि:शंकित ]]।<br /> | <li class="HindiText"> सम्यग्ज्ञान में भी कदाचित् संशयादि–देखें [[ नि:शंकित ]]।<br /> | ||
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</ul> | </ul> | ||
<ol start="10"> | <ol start="10"> | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्दृष्टि का कुशास्त्रज्ञान भी कथंचित् सम्यक् है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.10 | सम्यग्दृष्टि का कुशास्त्रज्ञान भी कथंचित् सम्यक् है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<ol start="11"> | <ol start="11"> | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्ज्ञान को ही ज्ञान संज्ञा है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.2.11 | सम्यग्ज्ञान को ही ज्ञान संज्ञा है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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Line 276: | Line 277: | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्र ज्ञान–देखें [[ मिश्र#7 | मिश्र - 7]]।<br /> | <li class="HindiText"> सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्र ज्ञान–देखें [[ मिश्र#7 | मिश्र - 7]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> ज्ञानदान | <li class="HindiText"> ज्ञानदान संबंधी विषय–देखें [[ उपदेश#3 | उपदेश - 3]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> रत्नत्रय में कथंचित् भेद व अभेद–देखें [[ मोक्षमार्ग#2 | मोक्षमार्ग - 2]],3।<br /> | <li class="HindiText"> रत्नत्रय में कथंचित् भेद व अभेद–देखें [[ मोक्षमार्ग#2 | मोक्षमार्ग - 2]],3।<br /> | ||
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</li> | </li> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में | <li class="HindiText">सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अंतर–देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.4 | सम्यग्दर्शन - I.4]]। </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<li class="HindiText"><strong>सम्यक् व मिथ्याज्ञान | <li class="HindiText"><strong>[[ #3.3 | सम्यक् व मिथ्याज्ञान संबंधी शंका समाधान व समन्वय]]</strong><br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ol> | <ol> | ||
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<li class="HindiText"> तीनों अज्ञानों में कौन-कौन सा मिथ्यात्व घटित होता है?<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.3.1 | तीनों अज्ञानों में कौन-कौन सा मिथ्यात्व घटित होता है?]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> अज्ञान कहने से क्या ज्ञान का अभाव इष्ट है?<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.3.2 | अज्ञान कहने से क्या ज्ञान का अभाव इष्ट है?]]<br /> | ||
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<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li class="HindiText"> मिथ्याज्ञान की अज्ञान संज्ञा कैसे है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.3.3 | मिथ्याज्ञान की अज्ञान संज्ञा कैसे है।]]<br /> | ||
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<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li class="HindiText"> मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है?<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.3.4 | मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है?]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> मिथ्याज्ञान दर्शाने का प्रयोजन।<br /> | <li class="HindiText">[[ #3.3.5 | मिथ्याज्ञान दर्शाने का प्रयोजन।]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #4 | निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान ]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #4.1 | निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> निश्चयज्ञान का माहात्म्य।<br /> | <li class="HindiText">[[ #4.1.1 | निश्चयज्ञान का माहात्म्य।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> भेद विज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #4.1.2 | भेद विज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अभेद ज्ञान या | <li class="HindiText">[[ #4.1.3 | अभेद ज्ञान या इंद्रियज्ञान अज्ञान है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> आत्मज्ञान के बिना सर्व आगमज्ञान व्यर्थ है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #4.1.4 | आत्मज्ञान के बिना सर्व आगमज्ञान व्यर्थ है।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> निश्चयज्ञान के अपर नाम–देखें [[ मोक्षमार्ग#2 | मोक्षमार्ग - 2]] | <li class="HindiText"> निश्चयज्ञान के अपर नाम–देखें [[ मोक्षमार्ग#2.5 | मोक्षमार्ग - 2/5]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> स्वसंवेदन ज्ञान या शुद्धात्मानुभूति–देखें [[ अनुभव ]]।<br /> | <li class="HindiText"> स्वसंवेदन ज्ञान या शुद्धात्मानुभूति–देखें [[ अनुभव ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #4.2 | व्यवहार सम्यग्ज्ञान निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">व्यवहारज्ञान निश्चयज्ञान का साधन है तथा इसका कारण।<br /> | <li class="HindiText">[[ #4.2.1 | व्यवहारज्ञान निश्चयज्ञान का साधन है तथा इसका कारण।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> आगमज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहना उपचार है।<br /> | <li class="HindiText">[[ #4.2.2 | आगमज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहना उपचार है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> व्यवहार ज्ञान प्राप्ति का प्रयोजन।<br /> | <li class="HindiText">[[ #4.2.3 | व्यवहार ज्ञान प्राप्ति का प्रयोजन।]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #4.3 | निश्चय व्यवहार ज्ञान समन्वय]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> निश्चयज्ञान का कारण प्रयोजन।<br /> | <li class="HindiText">[[ #4.3.1 | निश्चयज्ञान का कारण प्रयोजन।]]<br /> | ||
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<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li class="HindiText"> निश्चय व्यवहार ज्ञान का समन्वय।</li> | <li class="HindiText">[[ #4.3.2 | निश्चय व्यवहार ज्ञान का समन्वय।]]</li> | ||
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<p> </p> | <p> </p> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> ज्ञान सामान्य</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> भेद व लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> ज्ञान का सामान्य लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/6/1 </span><span class="SanskritText"> जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानम् ।</span><span class="HindiText">=जो जानता है वह ज्ञान है (कर्तृसाधन); जिसके द्वारा जाना जाय सो ज्ञान है (करण साधन); जानना मात्र ज्ञान है (भाव साधन)। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/1/24/9/1;26/9/12 )</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,115/353/10 )</span>; <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/16/215/27 )</span>।<br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/5/5/1 </span><span class="SanskritText"> एवंभूतनयवक्तव्यवशात् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणतात्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् ।</span><span class="HindiText">=एवंभूतनय की दृष्टि में ज्ञानक्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है, क्योंकि, वह ज्ञानस्वभावी है।<br /> | |||
देखें [[ आकार#1.5 | आकार - 1.5 ]]साकारोपयोग का नाम ज्ञान है।<br /> | देखें [[ आकार#1.5 | आकार - 1.5 ]]साकारोपयोग का नाम ज्ञान है।<br /> | ||
देखें [[ विकल्प#2 | विकल्प - 2 ]]सविकल्प उपयोग का नाम ज्ञान है।<br /> | देखें [[ विकल्प#2 | विकल्प - 2 ]]सविकल्प उपयोग का नाम ज्ञान है।<br /> | ||
देखें [[ दर्शन#1.3 | दर्शन - 1.3 ]]बाह्य चित्प्रकाश का तथा विशेष ग्रहण का नाम ज्ञान है।<br /> | देखें [[ दर्शन#1.3 | दर्शन - 1.3 ]]बाह्य चित्प्रकाश का तथा विशेष ग्रहण का नाम ज्ञान है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> भूतार्थ ग्रहण का नाम ज्ञान है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/142/3 </span><span class="SanskritText"> भूतार्थप्रकाशनं ज्ञानम् ।...अथवा सद्भाव विनिश्चयोपलंभकं ज्ञानम् ।... शुद्धनयविवक्षायां तत्त्वार्थोपलंभकं ज्ञानम् ।...द्रव्यगुणपर्यायाननेन जानातीति ज्ञानम् ।</span>= | |||
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<li | <li class="HindiText"> सत्यार्थ का प्रकाश करने वाली शक्ति विशेष का नाम ज्ञान है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText">अथवा सद्भाव अर्थात् वस्तुस्वरूप का निश्चय करने वाले धर्म को ज्ञान कहते हैं। शुद्धनय की विवक्षा में वस्तुस्वरूप का उपलंभ करने वाले धर्म को ही ज्ञान कहा है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> जिसके द्वारा द्रव्य गुण पर्यायों को जानते हैं उसे ज्ञान कहते हैं। (पं.7/2,1,3/7/2)।<br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/16/221/28 </span></span><span class="SanskritText">सम्यगवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संवित् ।</span><span class="HindiText">=जिससे यथार्थ रीति से वस्तु जानी जाय उसे संवित् (ज्ञान) कहते हैं। <br /> | |||
देखें [[ ज्ञान#III.2.11 | ज्ञान - III.2.11 ]]सम्यग्ज्ञान को ही ज्ञान संज्ञा है। <br /> | देखें [[ ज्ञान#III.2.11 | ज्ञान - III.2.11 ]]सम्यग्ज्ञान को ही ज्ञान संज्ञा है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भूतार्थ ग्राहक कैसे हो सकता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/142/3 </span><span class="SanskritText">मिथ्यादृष्टिनां कथं भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, सम्यङ्मिथ्यादृष्टिनां प्रकाशस्य समानतोपलंभात् । कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न (देखें [[ ज्ञान#III.3.3 | ज्ञान - III.3.3]])–विपर्यय: कथं भूतार्थ प्रकाशकमिति चेन्न, चंद्रमस्युपलभ्यमानद्वित्वस्यांयत्र सत्त्वस्तस्य भूतत्वोपपत्ते:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>=मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान भूतार्थ प्रकाशक कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के प्रकाश में समानता पायी जाती है। <strong>प्रश्न</strong>—यदि दोनों के प्रकाश में समानता पायी जाती है तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर</strong>–(देखें [[ #3.2.8 | वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहलाता है ]]) <strong>प्रश्न</strong>–(मिथ्यादृष्टि का ज्ञान विपर्यय होता है) वह सत्यार्थ का प्रकाशक कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, चंद्रमा में पाये जानेवाले द्वित्व का दूसरे पदार्थों में सत्त्व पाया जाता है। इसलिए उस ज्ञान में भूतार्थता बन जाती है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.4" id="1.1.4">अनेक प्रकार से ज्ञान के भेद</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.4.1" id="1.1.4.1"> ज्ञान मार्गणा की अपेक्षा आठ भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/1/1,1/ सूत्र 115/353</span><span class="PrakritText"> णाणाणुवादेण अत्थि मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी चेदि।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानमार्गणा के अनुवाद से मत्यज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी (मतिज्ञानी), श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीव होते हैं। <span class="GRef">(मूलाचार/228)</span> <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/41 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/7/11/604/8 )</span> <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/42 )</span>।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.4.2" id="1.1.4.2">प्रत्यक्ष परोक्ष की अपेक्षा भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,115/ पृष्ठ /पंक्ति </span><span class="SanskritText">तदपि ज्ञानं द्विविधम् प्रत्यक्षं परोक्षमिति। परोक्षं द्विविधम्, मति: श्रुतमिति। (353/12)। प्रत्यक्षं त्रिविधम्, अवधिज्ञानं, मन:पर्ययज्ञानं, केवलज्ञानमिति। (358/1)।</span> =<span class="HindiText">वह ज्ञान दो प्रकार का है–प्रत्यक्ष और परोक्ष। परोक्ष के दो भेद हैं–मतिज्ञान व श्रुतज्ञान। प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं–अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। (विशेष देखो [[ प्रमाण#1 | प्रमाण 1 ]] तथा प्रत्यक्ष व परोक्ष)।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.4.3" id="1.1.4.3"> निक्षेपों की अपेक्षा भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/184/7 </span><span class="PrakritText"> णामट्ठवणादव्वभावभेएण चउव्विहं णाणं।</span>=<span class="HindiText">नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से ज्ञान चार प्रकार का है–(विशेष देखें [[ निक्षेप ]])।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.4.4" id="1.1.4.4"> विभिन्न अपेक्षाओं से भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/6/5/34/29 </span><span class="SanskritText">चैतन्यशक्तेर्द्वावकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च। <br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/7/14/41/2 </span>सामान्यादेकं ज्ञानम् प्रत्यक्षपरोक्षभेदाद् द्विधा, द्रव्यगुणपर्यायविषयभेदात्विधा नामादिविकल्पाच्चतुधा, मत्यादिभेदात् पंचधा इत्येवं संख्येयासंख्येयानंतविकल्पं च भवति ज्ञेयाकारपरिणतिभेदात् ।=</span><span class="HindiText">चैतन्य शक्ति के दो आकार हैं–ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार।...सामान्यरूप से ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है, द्रव्य गुण पर्याय रूप विषयभेद से तीन प्रकार का है। नामादि निक्षेपों के भेद से चार प्रकार का है। मति आदि की अपेक्षा पाँच प्रकार का है। इस प्रकार ज्ञेयाकार परिणति के भेद से संख्यात असंख्यात व अनंत विकल्प होते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/5 </span><span class="SanskritText"> संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति।</span>=<span class="HindiText">संक्षेप से हेय व उपादेय भेदों से व्यवहार ज्ञान दो प्रकार का है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> ज्ञान निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">ज्ञान की सत्ता इंद्रियों से निरपेक्ष है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1,1/34/49/4 </span><span class="PrakritText"> करणजणिदत्तादो णेदं णाणं केवलणाणमिदि चे; ण; करणवावारादो पुव्वं णाणाभावेण जीवाभावप्पसंगादो। अत्थि तत्थणाणसामण्णं ण णाणविसेसो तेण जीवाभावो ण होदि त्ति चे; ण; तब्भावलक्खणसामण्णादो पुधभूदणाणविसेसाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इंद्रियों से उत्पन्न होने के कारण मतिज्ञान आदि को केवलज्ञान (के अंश–देखें [[ आगे ज्ञान#I.4 | आगे ज्ञान - I.4]]) नहीं कहा जा सकता ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि यदि ज्ञान इंद्रियों से ही पैदा होता है, ऐसा मान लिया जाये, तो इंद्रिय व्यापार के पहिले जीव के गुणस्वरूप ज्ञान का अभाव हो जाने से गुणी जीव के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। <strong>प्रश्न</strong>–इंद्रिय व्यापार के पहिले जीव में ज्ञानसामान्य रहता है, ज्ञानविशेष नहीं, अत: जीव का अभाव नहीं प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, तद्भाव लक्षण सामान्य से अर्थात् ज्ञानसामान्य से ज्ञानविशेष पृथग्भूत नहीं पाया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-1/54/3 </span><span class="PrakritText">जीवदव्वस्स इंदिएहिंतो उप्पत्ती मा होउ णाम, किंतु तत्तो णाणमुप्पज्जदि त्ति चे; ण; जीववदिरित्तणाणाभावेण जीवस्स वि उप्पत्तिप्पसंगादो। होदु च; ण; अणेयंतप्पयस्य जीवदव्वस्स पत्तजच्चंतरभावस्स णाणदंसणलक्खणस्स एअंतवाइविसईकय-उप्पाय-वयधुत्ताणमभावादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>इंद्रियों से जीव द्रव्य की उत्पत्ति मत होओ, किंतु उनसे ज्ञान की उत्पत्ति होती है, यह अवश्य मान्य है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जीव से अतिरिक्त ज्ञान नहीं पाया जाता है, इसलिए इंद्रियों से ज्ञानी की उत्पत्ति मान लेने पर उनसे जीव की भी उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि यह प्रसंग प्राप्त होता है तो होओ ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि अनेकांतात्मक जात्यंतर भाव को प्राप्त और ज्ञानदर्शन लक्षणवाले जीव में एकांतवादियों द्वारा माने गये सर्वथा उत्पाद व्यय व ध्रुवत्व का अभाव है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> ज्ञान का स्वपर प्रकाशकपना</strong><br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> स्वपर प्रकाशकपने की अपेक्षा ज्ञान का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/124 </span><span class="SanskritText">स्वपरविभागेनावस्थिते विश्वं विकल्पस्तदाकारावभासनं। यस्तु मुकुरुहृदयाभाग इव युगपदवभासमानस्वपराकारार्थविकल्पस्तद् ज्ञानं।</span>=<span class="HindiText">स्व पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व ‘अर्थ’ है। उसके आकारों का अवभासन ‘विकल्प’ है। और दर्पण के निजविस्तार की भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ‘ज्ञान’ है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/541 )</span> <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/391/837 )</span>। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/10/98/4 </span><span class="SanskritText"> यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतु: स्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स एव, न प्रकाशांतरं मृग्यं तथा प्रमाणमपीति अवश्यं चैतदभ्युपगंतव्यम् ।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार घटादि पदार्थों के प्रकाश करने में दीपक हेतु है, और अपने स्वरूप के प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशांतर नहीं ढूँढना पड़ता। उसी प्रकार प्रमाण भी है, यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/10/2/49/23 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">परीक्षामुख/1/1</span><span class="SanskritText"> स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं/1/।</span>=<span class="HindiText">स्व व अपूर्व (पहिले से जिसका निश्चय न हो ऐसे) पदार्थ का निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है। </span><br /><span class="GRef">(सिद्धि विनिश्चय/मूल 1/3/12)</span><span class="SanskritText">प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार–स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् ।</span>=<span class="HindiText">स्व-पर व्यवसायी ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">न्याय दीपिका/1/28/22</span><span class="SanskritText"> तस्मात्स्वपरावभासनसमर्थं सविकल्पकमगृहीतग्राहकं सम्यग्ज्ञानमेवाज्ञानमर्थे निवर्तयत्प्रमाणमित्यार्हतं मतम् ।</span><span class="HindiText">=अत: यही निष्कर्ष निकला कि अपने तथा पर का प्रकाश करने वाला सविकल्पक और अपूर्वार्थग्राही सम्यग्ज्ञान ही पदार्थों के अज्ञान को दूर करने में समर्थ है। इसलिए वही प्रमाण है। इस तरह जैन मत सिद्ध हुआ।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/10/13/50/32 </span><span class="SanskritText">तत: सिद्धमेतत्–प्रमेयम् नियमात् प्रमेयम्, प्रमाणं तु स्यात्प्रमाणं स्यात्प्रमेयम् इति।</span>=<span class="HindiText">निष्कर्ष यह है कि ‘प्रमेय’ नियम से प्रमेय ही है, किंतु ‘प्रमाण’ प्रमाण भी है और प्रमेय भी। विशेष देखें [[ प्रमाण#4 | प्रमाण - 4]]।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4"> निश्चय व व्यवहार दोनों ज्ञान कथंचित् स्वपर प्रकाशक हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159 </span><span class="SanskritText">अत्र ज्ञानिन: स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्तम् ।...पराश्रितो व्यवहार: इति वचनात् ।...ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्व-परप्रकाशकत्वं प्रदीपवत् । घटादिप्रमिते: प्रकाशो दीपस्तावद्भिन्नावपि स्वयं प्रकाशस्वरूपत्वात् स्वं परं च प्रकाशयति। आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परं ज्योति:स्वरूपत्वात् स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति।....अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभावनिरतत्वात् स्वाश्रितो निश्चय: इति वचनात् । सहजज्ञानं तावत् आत्मन: सकाशात् संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति। अत: कारणात् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानाति।</span>=<span class="HindiText">यहाँ ज्ञानी को स्व-पर स्वरूप का प्रकाशकपना कथंचित् कहा है। ‘पराश्रितो व्यवहार:’ ऐसा वचन होने से...इस ज्ञान का धर्म तो, दीपक की भाँति स्वपर प्रकाशकपना है। घटादि की प्रमिति से प्रकाश व दीपक दोनों कथंचित् भिन्न होने पर भी स्वयं प्रकाश स्वरूप होने से स्व और पर को प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योति स्वरूप होने से व्यवहार से त्रिलोक और त्रिकाल रूप पर को तथा स्वयं प्रकाश स्वरूप आत्मा को प्रकाशित करता है। अब ‘स्वाश्रितो निश्चय:’ ऐसा वचन होने से सतत निरुपरागनिरंजन स्वभाव में लीनता के कारण निश्चय पक्ष से भी स्वपरप्रकाशकपना है ही। (वह इस प्रकार) सहजज्ञान आत्मा से संज्ञा लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा भिन्न जाना जाता है, तथापि वस्तुवृत्ति से भिन्न नहीं है। इस कारण से यह आत्मगत दर्शन सुख चारित्रादि गुणों को जानता है और स्वात्मा को अर्थात् कारण परमात्मा के स्वरूप को भी जानता है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/397-399 )</span> (और भी देखें [[ अनुभव ]]/4/1)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/पूर्वार्ध/665-666 </span> <span class="SanskritText">विधिपूर्व: प्रतिषेध: प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयो:। मैत्री प्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम् ।665। अयमर्थोऽर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वतस्तस्य। एकविकल्पो नयसादुभयविकल्प: प्रमाणमिति बोध:।666।</span>=<span class="HindiText">विधि पूर्वक प्रतिषेध और प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है, किंतु इन दोनों नयों की मैत्री प्रमाण है। अथवा स्वपर व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है।665। सारांश यह है कि निश्चय करके अर्थ के आकार रूप होना जो ज्ञान है वह प्रमाण का स्वयंसिद्ध लक्षण है। तथा एक (स्व् या पर के) विकल्पात्मक ज्ञान नयाधीन है और उभयविकल्पात्मक प्रमाणाधीन है। देखें [[ दर्शन#2.6 | दर्शन - 2.6]]-ज्ञान व दर्शन दोनों स्वपर प्रकाशक हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.5" id="1.3.5">ज्ञान के स्व प्रकाशकत्व में हेतु</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/10/98/6 </span><span class="SanskritText">प्रमेयवत्प्रमाणस्य प्रमाणांतरपरिकल्पनायां स्वाधिगमाभावात् स्मृत्यभाव:। तदभावाद्व्यवहारलोप: स्याद् ।</span>=<span class="HindiText">यदि प्रमेय के समान प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्व का ज्ञान नहीं होने से स्मृति का अभाव हो जाता है। और स्मृति का अभाव हो जाने से व्यवहार का लोप हो जाता है।</span><br /> | |||
लघीयस्त्रय/59<span class="SanskritText"> स्वहेतुजनितोऽप्यर्थ: परिछेद्य: स्वतो यथा। तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वत:।</span>=<span class="HindiText">अपने ही कारण से उत्पन्न होने वाले पदार्थ जिस प्रकार स्वत: ज्ञेय होते हैं, उसी प्रकार अपने कारण से उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी स्वत: ज्ञेयात्मक है। ( | <span class="GRef">लघीयस्त्रय/59</span><span class="SanskritText"> स्वहेतुजनितोऽप्यर्थ: परिछेद्य: स्वतो यथा। तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वत:।</span>=<span class="HindiText">अपने ही कारण से उत्पन्न होने वाले पदार्थ जिस प्रकार स्वत: ज्ञेय होते हैं, उसी प्रकार अपने कारण से उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी स्वत: ज्ञेयात्मक है। <span class="GRef">( न्यायविनिश्चय/1/3/68/15 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/1/6-7,10-12 </span><span class="SanskritText"> स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसाय:।6। अर्थस्येव तदुन्मुखतया।7। शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ।10। को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ।11। प्रदीपवत् ।12।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार पदार्थ की ओर झुकने पर पदार्थ का ज्ञान होता है, उसी प्रकार ज्ञान जिस समय अपनी ओर झुकता है तो उसे अपना भी प्रतिभास होता है। इसी को स्व व्यवसाय अर्थात् ज्ञान का जानना कहते हैं।6-7। जिस प्रकार घटपटादि शब्दों का उच्चारण न करने पर भी घटपटादि पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार ‘ज्ञान’ ऐसा शब्द न कहने पर भी ज्ञान का ज्ञान हो जाता है।10। घटपटादि पदार्थों का और अपना प्रकाशक होने से जैसा दीपक स्वपरप्रकाशक समझा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान भी घट पट आदि पदार्थों का और अपना जानने वाला है, इसलिए उसे भी स्वपरस्वरूप का जानने वाला समझना चाहिए। क्योंकि ऐसा कौन लौकिक व परीक्षक है जो ज्ञान से जाने पदार्थ को तो प्रत्यक्ष का विषय माने और स्वयं ज्ञान को प्रत्यक्ष का विषय न माने।11-12। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3.6" id="1.3.6"> ज्ञान के परप्रकाशकपने की सिद्धि</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/1/8-9 </span><span class="SanskritText"> घटमहमात्मना वेद्मि।8। कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीते।9।</span>=<span class="HindiText">मैं अपने द्वारा घट को जानता हूँ इस प्रतीति में कर्म की तरह कर्ता, करण व क्रिया की भी प्रतीति होती है। अर्थात् कर्मकारक जो ‘घट’ उसही की भाँति कर्ताकारक ‘मैं’ व ‘अपने द्वारा जानना’ रूप करण व क्रिया की पृथक् प्रतीति हो रही है। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> ज्ञान के पाँचों भेदों संबंधी</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.1" id="1.4.1">ज्ञान के पाँचों भेद पर्याय हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/37/1 </span><span class="SanskritText">पर्यायत्वात्केवलादीनां </span>=<span class="HindiText"> केवलज्ञानादि (पाँचों ज्ञान) पर्यायरूप हैं.... <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.2" id="1.4.2"> पाँचों भेद ज्ञानसामान्य के अंश हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/37/1 </span><span class="SanskritText"> पर्यायत्वात्केवलादीनां न स्थितिरिति चेन्न, अत्रुट्यज्ज्ञानसंतानापेक्षया तत्स्थैर्यस्य विरोधाभावात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवलज्ञानादि पर्यायरूप हैं, इसलिए आवृत अवस्था में उसका (केवलज्ञान का) सद्भाव नहीं बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कभी भी नहीं टूटने वाली ज्ञान संतान की (ज्ञान सामान्य की) अपेक्षा केवलज्ञान के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। (देखें [[ ज्ञान#I.4.7 | ज्ञान - I.4.7]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> [https://nikkyjain.github.io/jainDataBase/shastra/01_द्रव्यानुयोग/01_समयसार--कुन्दकुन्दाचार्य/html/220.html|target='_blank' समयसार/ आत्मख्याति/204</span>] <span class="SanskritText">यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थ: साक्षान्मोक्षोपाय:। न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिंदंति किंतु तेपीदमेवैकं पदमभिनंदंति।</span>=<span class="HindiText">यह ज्ञान (सामान्य) नामक एक पद परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है। यहाँ मतिज्ञानादि (ज्ञान के) भेद इस एक पद को नहीं भेदते किंतु वे भी इसी एक पद का अभिनंदन करते हैं। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/37/5 )</span>।<br /> | |||
<span class="GRef">ज्ञानबिंदु/पृष्ठ 1</span><br> | |||
<span class="HindiText">केवलज्ञानावरण पूर्ण ज्ञान को आवृत करने के अतिरिक्त मंद ज्ञान को उत्पन्न करने में भी कारण है। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.3" id="1.4.3">ज्ञान सामान्य के अंश होने संबंधी शंका</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,5/7/1 </span><span class="PrakritText">ण सव्वावयवेहि णाणस्सुवलंभो होदु त्ति वोत्तुं जुत्तं, आवरिदणाणभागाणमुवलंभविरोहा। आवरिदणाणभागा सावरणे जीवे किमत्थि आहो णत्थि त्ति।...दव्वट्ठियणए अवलंविज्जमाणे आवरिदणाणभागा सावरणे वि जीवे अत्थि जीवदव्वादो पुधभूदणाणाभावा, विज्जमाणणाणभागादो आवरिदणाणभागाणमभेदादो वा। आवरिदाणावरिदाणं कधमेगत्तमिदि चे ण, राहु-मेहेहि आवरिदाणावरिदसुज्जिंदुमंडलभागाणमेगत्तुवलंभा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि सर्व जीवों के ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध है, तो फिर सर्व अवयवों के साथ ज्ञान उपलंभ होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञान के भागों का उपलंभ मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>–आवरण युक्त जीव में आवरण किये गये ज्ञान के भाग हैं अथवा नहीं है (सत् हैं या असत् हैं)? <strong>उत्तर</strong>–द्रव्यार्थिक नय के अवलंबन करने पर आवरण किये गये ज्ञान के अंश सावरण जीव में भी होते हैं, क्योंकि, जीव से पृथग्भूत ज्ञान का अभाव है। अथवा विद्यमान ज्ञान के अंश से आवरण किये गये ज्ञान के अंशों का कोई भेद नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान के आवरण किये गये और आवरण नहीं किये गये अंशों के एकता कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, राहु और मेघों के द्वारा सूर्यमंडल चंद्रमंडल के आवरित और अनावरित भागों के एकता पायी जाती है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/6/4/5/571/4 )</span>। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.4" id="1.4.4"> मतिज्ञानादि भेद केवलज्ञान के अंश हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1,1/31/44/9 </span><span class="PrakritText">ण च केवलणाणमसिद्धं; केवलणाणस्स ससंवेयणपच्चक्खेण णिब्बाहेणुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText">यदि कहा जाय कि केवल ज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, स्वसंवेद्य प्रत्यक्ष के द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप ज्ञान की (मति आदि ज्ञानों की) निर्बाध रूप से उपलब्धि होती है।<br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1,1/37/56/7 </span><span class="PrakritText">केवलणाणसेसावयवाणमत्थित्त गम्मदे। तदो आवरिदावयवो सव्वपज्जवो पच्चक्खाणुमाविसओ होदूण सिद्धो।</span><span class="HindiText">=केवलज्ञान के प्रगट अंशों (मतिज्ञानादि) के अतिरिक्त शेष अवयवों का अस्तित्व जाना जाता है। अत: सर्व पर्याय रूप केवलज्ञान अवयवी जिसके कि प्रगट अंशों के अतिरिक्त शेष अवयव आवृत हैं, प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा सिद्ध है। अर्थात् उसके प्रगट अंश (मतिज्ञानादि) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा सिद्ध हैं और आवृत अंश अनुमान प्रमाण के द्वारा सिद्ध हैं।<br /> | |||
<span class="GRef">नंदि सूत्र/45</span> <span class="HindiText">केवलज्ञानावृत केवल या सामान्य ज्ञान की भेद-किरणें भी मत्यावरण, श्रुतावरण आदि आवरणों से चार भागों में विभाजित हो जाती है, जैसे मेघ आच्छादित सूर्य की किरणें चटाई आदि आवरणों से छोटे बड़े रूप हो जाती हैं। <span class="GRef">(ज्ञान बिंदु/पृष्ठ 1)</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.5" id="1.4.5"> मतिज्ञानादि का केवलज्ञान के अंश होने की विधि साधक शंका समाधान</strong><br /> | ||
देखें [[ ज्ञान#2.1 | ज्ञान - 2.1 ]] | देखें [[ ज्ञान#2.1 | ज्ञान - 2.1 ]]प्रश्न–इंद्रिय ज्ञान से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान आदि को केवलज्ञान के अंश नहीं कह सकते ? उत्तर–(ज्ञान सामान्य का अस्तित्व इंद्रियों की अपेक्षा नहीं करता।) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/37/4 </span><span class="SanskritText">रजोजुषां ज्ञानदर्शने न मंगलीभूतकेवलज्ञानदर्शनयोरवयवाविति चेन्न, ताभ्यां व्यतिरिक्तयोस्तयोरसत्त्वात् । मत्यादयोऽपि संतीति चेन्न तदवस्थानां मत्यादिव्यपदेशात् । तयो: केवलज्ञानदर्शांकुरयोर्मंगलत्वे मिथ्यादृष्टिरपि मंगलं तत्रापि तौ स्त इति चेद्भवतु तद्रूपतया मंगलं, न मिथ्यात्वादीनां मंगलम् ।...कथं पुनस्तज्ज्ञानदर्शनयोर्मंगलत्वमिति चेन्न.... पापक्षयकारित्वतस्तयोरुपपत्ते:।</span><span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–आवरण से युक्त जीवों के ज्ञान और दर्शन मंगलीभूत केवलज्ञान और केवलदर्शन के अवयव ही नहीं हो सकते हैं? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, केवलज्ञान और केवलदर्शन से भिन्न ज्ञान और दर्शन का सद्भाव नहीं पाया जाता। <strong>प्रश्न</strong>–उनसे अतिरिक्त भी ज्ञानादि तो पाये जाते हैं। इनका अभाव कैसे किया जा सकता है? <strong>उत्तर</strong>–उस (केवल) ज्ञान और दर्शन संबंधी अवस्थाओं की मतिज्ञानादि नाना संज्ञाएँ हैं। <strong>प्रश्न</strong>–केवलज्ञान के अंकुररूप छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन को मंगलरूप मान लेने पर मिथ्यादृष्टि जीव भी मंगल संज्ञा को प्राप्त होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीव में भी वे अंकुर विद्यमान हैं ? <strong>उत्तर</strong>–यदि ऐसा है तो भले ही मिथ्यादृष्टि जीव को ज्ञान और दर्शनरूप से मंगलपना प्राप्त हो, किंतु इतने से ही (उसके) मिथ्यात्व अविरति आदि को मंगलपना प्राप्त नहीं हो सकता है। <strong>प्रश्न</strong>–फिर मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान और दर्शन को मंगलपना कैसे है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानदर्शन की भाँति मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान और दर्शन में पाप का क्षयकारीपना पाया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,21/213/6 </span><span class="PrakritText">जीवो किं पंचणाणसहावो आहो केवलणाणसहावो त्ति।...जीवो केवलणाणसहावो चेव। ण च सेसावरणणाणमावरणिज्जाभावेण अभावो, केवलणाणवरणीएण आवरिदस्स वि केवलणाणस्स रूविदव्वाणं पच्चक्खग्गहणक्खमाणमवयवाणं संभवदंसणादो...एदेसिं चदुण्णं णाणाणं जामावारयं कम्मं तं मदिणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं च भण्णदे। तदो केवलणाणसहावे जीवे सते वि णाणावरणीयपंचभावो त्ति सिद्धं। केवलणाणावरणीयं किं सव्वघादी आहो देसघादो।...ण ताव केवलणाणावरणीयं देसघादो, किंतु सव्वघादो चेव; णिस्सेमावरिदकेवलणाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाणेण आवरिदे वि चदुण्णं णाणाण सतुवलंभादो। जीवम्मि एक्कं केवलणाणं, तं च णिस्सेसमावरिदं। कत्ता पुण चदुण्णं णाणाणं संभवो। ण, छारण्णच्छग्गीदो बप्फुप्पत्तीए इव सव्वघादिणा आवरणेण आवरिदकेवलणाणादो चदुण्णं णाणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जीव क्या पाँच ज्ञान स्वभाववाला है या केवलज्ञान स्वभाववाला है? <strong>उत्तर</strong>–जीव केवलज्ञान स्वभाववाला ही है। फिर भी ऐसा मानने पर आवरणीय शेष ज्ञानों का (स्वभाव रूप से) अभाव होने से उनके आवरण कर्मों का अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञानावरणीय के द्वारा आवृत हुए भी केवलज्ञान के (विषयभूत) रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष ग्रहण करने में समर्थ कुछ (मतिज्ञानादि) अवयवों की संभावना देखी जाती है।...इन चार ज्ञानों के जो जो आवरक कर्म हैं वे मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्म कहे जाते हैं। इसलिए केवलज्ञान स्वभाव जीव के रहने पर भी ज्ञानावरणीय देशघाती तो नहीं है, किंतु सर्वघाती ही है, क्योंकि वह केवलज्ञान का नि:शेष आवरण करता है। फिर भी जीव का अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञान के आवृत होने पर भी चार ज्ञानों का अस्तित्व उपलब्ध होता है। <strong>प्रश्न</strong>–जीव में एक केवलज्ञान है। उसे जब पूर्णतया आवृत कहते हो, तब फिर चार ज्ञानों का सद्भाव कैसे संभव हो सकता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि जिस प्रकार राख से ढकी हुई अग्नि से वाष्प की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार सर्वघाती आवरण के द्वारा केवलज्ञान के आवृत होने पर भी उसमें चार ज्ञानों की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.6" id="1.4.6"> मत्यादि ज्ञान केवलज्ञान के अंश नहीं हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,47/90/3 </span><span class="PrakritText">ण च छारेणोट्ठद्धग्गिविणिग्गयबप्फाए अग्गिववएसो अग्गिबुद्धि वा अग्गिववहारो वा अत्थि अणुवलंभादो। तदो णेदाणि णाणाणि केवलणाणं।</span>=<span class="HindiText">भस्म से ढकी हुई अग्नि (देखो ऊपरवाली शंका) से निकले हुए वाष्प को अग्नि नाम नहीं दिया जा सकता, न उसमें अग्नि की बुद्धि उत्पन्न होती है, और न अग्नि का व्यवहार ही, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। अतएव ये सब मति आदि ज्ञान केवलज्ञान नहीं हो सकते।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.7" id="1.4.7"> मत्यादि ज्ञानों का केवलज्ञान के अंश होने व न होने का समन्वय।</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,21/215/4 </span><span class="PrakritText">एदाणि चत्तारि वि णाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होंति, विगलाणं परोक्खाणं सक्खयाणं सवड्ढीणं सगलपच्चक्खक्खयवडि्ढहाणिविवज्जिदकेवलणाणस्स अवयवत्तविरोहादो। पुव्वं केवलणाणस्स चत्तारि वि णाणाणि अवयवा इदि उत्तं, तं कधं धडदे। ण, णाणसामण्णयवेक्खिय तदवयवत्तं पडि विरोहाभावादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ये चारों ही ज्ञान केवलज्ञान के अवयव नहीं, क्योंकि ये विकल हैं, परोक्ष हैं, क्षय सहित हैं, और वृद्धि-हानि युक्त हैं। अतएव इन्हें सकल, प्रत्यक्ष तथा क्षय और वृद्धि-हानि से रहित केवलज्ञान के अवयव मानने में विरोध आता है। इसलिए जो पहिले केवलज्ञान के चारों ही ज्ञान अवयव कहे हैं, वह कहना कैसे बन सकता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ज्ञान सामान्य को देखते हुए चार ज्ञान को उसके अवयव मानने में कोई विरोध नहीं आता।–देखें [[ ज्ञान#I.2.1 | ज्ञान - I.2.1]]।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.8" id="1.4.8"> सामान्य ज्ञान केवलज्ञान के बराबर है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/48 </span><span class="SanskritText">समस्तं ज्ञेयं जानन् ज्ञाता समस्तज्ञेयहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलैकज्ञानाकारं चेतनत्वात् स्वानुभवप्रत्यक्षमात्मानं परिणमति। एवं किल द्रव्यस्वभाव:।</span>=<span class="HindiText">(समस्त दाह्याकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन वत्) समस्त ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञाता (केवलज्ञानी) समस्त ज्ञेयहेतुक समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका (स्वरूप) है, ऐसे निजरूप से जो चेतना के कारण स्वानुभव प्रत्यक्ष है, उस रूप परिणमित होता है। इस प्रकार वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/190-192 </span><span class="SanskritText"> न घटाकारेऽपि चित: शेषांशानां निरन्वयो नाश:। लोकाकारेऽपि चितो नियतांशानां न चासदुत्पत्ति:। </span>=<span class="HindiText">ज्ञान को घट के आकार के बराबर होने पर भी उसके घटाकार से अतिरिक्त शेष अंशों का जिसप्रकार नाश नहीं हो जाता। इसीप्रकार ज्ञान के नियत अंशों को लोक के बराबर होने पर भी असत् को उत्पत्ति नहीं होती।191। किंतु घटाकर वही ज्ञान लोकाकाश के बराबर होकर केवलज्ञान नाम पाता है।190।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.9" id="1.4.9"> पाँचों ज्ञानों को जानने का प्रयोजन</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/12 </span><span class="SanskritText">उक्तेषु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्वनिष्ठसहजज्ञानमेव। अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न शमस्ति।</span>=<span class="HindiText">उक्त ज्ञानों में साक्षात् मोक्ष का मूल निजपरमतत्त्व में स्थित ऐसा एक सहज ज्ञान ही है। तथा सहजज्ञान पारिणामिक भावरूप स्वभाव के कारण भव्य का परमस्वभाव होने से, सहजज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.10" id="1.4.10"> पाँचों ज्ञानों का स्वामित्व</strong><BR><span class="GRef">( षट्खंडागम 1/101/ सूत्र 116-122/361-367)</span> </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0"> | ||
Line 521: | Line 522: | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">117-118</span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">117-118</span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">विभंगावधि </span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">विभंगावधि </span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">संज्ञी | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त </span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">1-2</span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">1-2</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 527: | Line 528: | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">120</span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">120</span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">मति, श्रुति, अवधि </span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">मति, श्रुति, अवधि </span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">संज्ञी | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच व मनुष्य पर्या.अपर्या.</span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">4-12</span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">4-12</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 533: | Line 534: | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">121</span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">121</span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">मन:पर्यय </span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">मन:पर्यय </span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">संज्ञी | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त मनुष्य </span></p></td> | ||
<td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">6-12</span></p></td> | <td width="200" valign="top"><p><span class="HindiText">6-12</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 552: | Line 553: | ||
</span></p> | </span></p> | ||
<ol start="11"> | <ol start="11"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4.11" id="1.4.11"> एक जीव में युगपत् संभव ज्ञान</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/30 </span><span class="SanskritText"> एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्य:।30।<br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/30/4,9/90-91 </span><span class="SanskritText"> एते हि मतिश्रुते सर्वकालभव्यभिचारिणी नारदपर्वतवत् ।(4/90/26)। एकस्मिन्नात्मन्येकं केवलज्ञानं क्षायिकत्वात् ।(10/91/24)। एकस्मिन्नात्मनि द्वे मतिश्रुते। क्वचित् त्रीणि मतिश्रुतावधिज्ञानानि, मतिश्रुतमन:पर्ययज्ञानानि वा क्वचिच्चत्वारि मतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानानि। न पंचैकस्मिन् युगपद् संभवंति।(9/91/17)।</span>= | |||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"> एक को आदि लेकर युगपत् एक आत्मा में चार तक ज्ञान होने संभव है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> वह ऐसे–मति और श्रुत तो नारद और पर्वत की भाँति सदा एक साथ रहते हैं। एक आत्मा में एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है क्योंकि वह क्षायिक है, दो हों तो मतिश्रुत: तीन हों तो मति, श्रुत, अवधि, अथवा मति, श्रुत, मन:पर्यय चार हों तो मति श्रुत अवधि और मन:पर्यय। एक आत्मा में पाँचों ज्ञान युगपत् कदापि संभव नहीं है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 566: | Line 567: | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> भेद व अभेद ज्ञान</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">भेद व अभेद ज्ञान</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1.1" id="2.1.1">भेद ज्ञान का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/181-183 </span><span class="PrakritGatha">उवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो। कोहो कोहो चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो।181। अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो। उवओगम्मि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि।182। एयं दु अविवरीदं णाणे जइया दु होदि जीवस्स। तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा।183।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/181-183 </span><span class="SanskritText">ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्धं भेदविज्ञानम् ।</span>= <span class="HindiText">उपयोग उपयोग में है क्रोधादि (भावकर्मों) में कोई भी उपयोग नहीं है। और क्रोध (भाव कर्म) क्रोध में ही है, उपयोग में निश्चय से क्रोध नहीं है।181। आठ प्रकार के (द्रव्य) कर्मों में और नोकर्म में उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म तथा नोकर्म नहीं है।182। ऐसा अविपरीत ज्ञान जब जीव के होता है तब वह उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाव को नहीं करता।183। इसलिए उपयोग उपयोग में ही है और क्रोध क्रोध में ही है, इस प्रकार भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हो गया।</span> <br> | |||
<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल/38</span> <span class="PrakritText">जीवाजीवविहत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादिदोसरहिओ जिणसासणे मोक्खमग्गुत्ति।38।</span>=<span class="HindiText">जो पुरुष जीव और अजीव (द्रव्यकर्म, भावकर्म व नोकर्म) इनका भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है। रागादि दोषों से रहित वह भेदज्ञान हो जिनशासन में मोक्षमार्ग है। <span class="GRef">( मोक्षपाहुड़/41 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/5/6/19 </span><span class="SanskritText">रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभाव: परमात्मेति भेदविज्ञानं।</span>=<span class="HindiText">रागादि भिन्न यह स्वात्मोत्थ सुख स्वभावी आत्मा है, ऐसा भेद विज्ञान होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/ टीका/22/55</span> <span class="SanskritText">जीवादि तत्त्वे सुखादिभेदप्रतीतिर्भेदज्ञानं।</span>=<span class="HindiText">जीवादि सातों तत्त्वों में सुखादि की अर्थात् स्वतत्त्व की स्वसंवेदनगम्य पृथक् प्रतीति होना भेदज्ञान है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1.2" id="2.1.2"> अभेद ज्ञान का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> वृहद् द्रव्यसंग्रह टीका/22/55 </span><span class="SanskritText">सुखादौ, बालकुमारादौ च स एवाहमिथ्यात्मद्रव्यस्याभेदप्रतीतिरभेदज्ञानं। </span>=<span class="HindiText">इंद्रिय सुख आदि में अथवा बाल कुमार आदि अवस्थाओं में, ‘यह ही मैं हूँ’ ऐसी आत्मद्रव्य की अभेद प्रतीति होना अभेद ज्ञान है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1.3" id="2.1.3"> भेद ज्ञान का तात्पर्य षट्कारकी निषेध</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/160 </span><span class="PrakritText">णाहं देहो ण मणो ण चैव वाणी ण कारणं तेसिं। कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्ताणं।160।</span>=<span class="HindiText">मैं न देह हूँ, न मन हूँ, और न वाणी हूँ। उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला नहीं हूँ और कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ। <span class="GRef">( समाधिशतक/ मूल/54)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/323/ कलश 200</span><span class="SanskritText"> नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रव्यात्मतत्त्वयो:। कर्तृकर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुत:।200।<br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/327/ कलश 201</span><span class="SanskritText"> एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं संबंध एव सकलोऽपि यतो निषिद्ध:। तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेद: पश्यंत्वकर्तृमुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।201।</span>=<span class="HindiText">परद्रव्य और आत्मतत्त्व का कोई भी संबंध नहीं है, तब फिर उनमें कर्ता-कर्म संबंध कैसे हो सकता है। और उसका अभाव होने से आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है।200। क्योंकि इस लोक में एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ संपूर्ण संबंध ही निषेध किया गया है, इसलिए जहाँ वस्तु भेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ कर्ता-कर्मपना घटित नहीं होता। इस प्रकार मुनि जन और लौकिक जन तत्त्व को अकर्ता देखो।201।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1.4" id="2.1.4">स्वभाव भेद से ही भेद ज्ञान की सिद्धि है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/16/200/13 </span><span class="SanskritText">स्वभावभेदमंतरेणांयव्यावृत्तिभेदस्यानुपपत्ते:।</span>=<span class="HindiText">वस्तुओं में स्वभाव भेद माने बिना उन वस्तुओं में व्यावृत्ति नहीं बन सकती।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1.5" id="2.1.5"> संज्ञा लक्षण प्रयोजन की अपेक्षा अभेद में भी भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/50/99/7 </span><span class="SanskritText">गुणगुणिनो: संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि प्रदेशभेदाभावादपृथग्भूतत्वं भण्यते।</span>=<span class="HindiText">गुण और गुणों में संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि से भेद होने पर भी प्रदेश भेद का अभाव होने से उनमें अपृथक्भूतपना कहा जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/154/224/11 </span><span class="SanskritText">सहशुद्धसामान्यविशेषचैतन्यात्मकजीवास्तित्वात्सकाशात्संज्ञालक्षणप्रयोजनभेदेऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावैरभेदादिति...।</span>=<span class="HindiText">सहज शुद्ध सामान्य तथा विशेष चैतन्यात्मक जीव के दो अस्तित्वों में (सामान्य तथा विशेष अस्तित्व में) संज्ञा लक्षण व प्रयोजन से भेद होने पर भी द्रव्य क्षेत्र काल व भाव से उनमें अभेद है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/97 )</span> <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> सम्यक् मिथ्या ज्ञान</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">भेद व लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1.1" id="3.1.1"> सम्यक् व मिथ्या की अपेक्षा ज्ञान के भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/9,31 </span><span class="SanskritText"> मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।9। मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।31।</span>=<span class="HindiText">मति, श्रुत अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं।9। मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपर्यय अर्थात् मिथ्या भी होते हैं।31। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/41/ )</span>। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/5 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/300-301/650 </span><span class="PrakritText"> पंचेव होंति णाणा मदिसुदओहिमणं च केवलयं। खयउवरामिया चउरो केवलणाणं हवे खइयं।300। अण्णाणतियं होदि हु सण्णाणतियं खु मिच्छअणउदये।...।301।</span>=<span class="HindiText">मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये सम्यग्ज्ञान पाँच ही हैं। जे सम्यग्दृष्टिकैं मति श्रुत अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान है तेई तीनों मिथ्यात्व वा अनंतानुबंधी कोई कषाय के उदय होतै तत्वार्थ का अश्रद्धानरूप परिणया जीव कैं तीनों मिथ्याज्ञान हो है। उनके कुमति, कुश्रुत और विभंग ये नाम हो हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1.2" id="3.1.2"> सम्यग्ज्ञान का लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1.2.1" id="3.1.2.1"> तत्त्वार्थ के यथार्थ अधिगम की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/107 </span><span class="PrakritText">तेसिमधिगमो णाणं।...।107।</span><span class="HindiText"> उन नौ पदार्थों का या सात तत्त्वों का अधिगम सम्यग्ज्ञान है। <span class="GRef">( मोक्षपाहुड़/38 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/5/6 </span><span class="SanskritText">येन येन प्रकारेण जीवादय: पदार्थां व्यवस्थितास्तेन तेनावगम: सम्यग्ज्ञानम् ।</span>=<span class="HindiText">जिस जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं उस उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/1/2/4/6 )</span>। <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश/ मूल/2/29)</span> <span class="GRef">( धवला 1/1,1,120/364/5 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/2/4/3 </span><span class="SanskritText"> नयप्रमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगम: सम्यग्ज्ञानम् ।</span>=<span class="HindiText">नय व प्रमाण के विकल्प पूर्वक जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/326 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/155 </span><span class="SanskritText">जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम् ।</span> <span class="HindiText">जीवादि पदार्थों के ज्ञान स्वभावरूप ज्ञान का परिणमन कर सम्यग्ज्ञान है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1.2.2" id="3.1.2.2"> संशयादि रहित ज्ञान की अपेक्षा</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 42 | रत्नकरंड श्रावकाचार/42]] </span><span class="SanskritText">अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । नि:संदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिन: ।42।</span>=<span class="HindiText">जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित तथा अधिकता रहित, विपरीतता रहित, जैसा का तैसा संदेह रहित जानता है, उसको आगम के ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/5/7 </span><span class="SanskritText"> विमोहसंशयविपर्ययनिवृत्त्यर्थं सम्यग्विशेषणम् ।</span>–<span class="HindiText">ज्ञान के पहिले सम्यग्विशेषण विमोह (अनध्यवसाय) संशय और विपर्यय ज्ञानों का निराकरण करने के लिए दिया गया है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/1/2/4/7 )</span>। <span class="GRef">(न्याय दीपिका/1/8/9)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/42 </span><span class="PrakritText">संसयविमोहविब्भमवियज्जियं अप्पपरसरूवस्स। गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।42।</span>=<span class="HindiText">आत्मस्वरूप और अन्य पदार्थ के स्वरूप का जो संशय विमोह और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानना है वह सम्यग्ज्ञान है। <span class="GRef">( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/155 )</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1.2.3" id="3.1.2.3"> भेद ज्ञान की अपेक्षा</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/41 </span><span class="PrakritGatha">जीवाजीवविहत्ती जोइ जाणेइ जिणवरमएणं । ते सण्णाणं भणियं भवियत्थं सव्वदरिसीहिं।41।</span> <span class="HindiText">जो योगी मुनि जीव अजीव पदार्थ का भेद जिनवर के मतकरि जाणै है सो सम्यग्ज्ञान सर्वदर्शी कह्या है सो ही सत्यार्थ है। अन्य छद्मस्थ का कह्या सत्यार्थ नाहीं। <span class="GRef">( चारित्तपाहुड़/मूल/38 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ वृत्ति/10/19/684/23</span><span class="SanskritText"> सदसद्व्यवहारनिबंधनं सम्यग्ज्ञानम् ।</span>=<span class="HindiText">सत् और असत् पदार्थों में व्यवहार करने वाला सम्यग्ज्ञान है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/51 </span><span class="SanskritText">तत्र जिनप्रणीतहेयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्यग्ज्ञानम् ।</span>=<span class="HindiText">जिन प्रणीत हेयोपादेय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/3 </span><span class="SanskritText"> सप्ततत्त्वनवपदार्थेषु ‘मध्य’ निश्चयनयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं...उपादेय:। शेषं च हेयमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति।</span>=<span class="HindiText">सात तत्त्व और नौ पदार्थों में निश्चयनय से अपना शुद्धात्म द्रव्य ही उपादेय है। इसके सिवाय शुद्ध या अशुद्ध परजीव अजीव आदि सभी हेय है। इस प्रकार संक्षेप से हेय तथा उपादेय भेदों से व्यवहार ज्ञान दो प्रकार का है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/155 </span><span class="SanskritText"> तेषामेव सम्यक्परिच्छित्तिरूपेण शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चय: सम्यग्ज्ञानं।</span>=<span class="HindiText">उन नवपदार्थों का ही सम्यक् परिच्छित्ति रूप शुद्धात्मा से भिन्नरूप में निश्चय करना सम्यग्ज्ञान है। और भी देखो ज्ञान/II/1–(भेद ज्ञान का लक्षण)<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1.2.4" id="3.1.2.4"> स्वसंवेद की अपेक्षा निश्चय लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वसार/1/18 </span><span class="SanskritText">सम्यग्ज्ञानं पुन: स्वार्थव्यवसायात्मकं विदु:।...।18।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान में अर्थ (विषय) प्रतिबोध के साथ-साथ यदि अपना स्वरूप भी प्रतिभासित हो और वह भी यथार्थ हो तो उसको सम्यग्ज्ञान कहना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/5 </span><span class="SanskritText">सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रमं...।</span> =<span class="HindiText">सहज शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाववाले आत्मतत्त्व का श्रद्धान और ज्ञान जिसका लक्षण है, ऐसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का संपादक है... </span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/3 </span><span class="SanskritText">ज्ञानं तावत् तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलंबनत्वेन नि:शेषतांतर्मुखयोगशक्ते: सकाशात् निजपरमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति।</span>=<span class="HindiText">परद्रव्य का अवलंबन लिये बिना नि:शेष रूप से अंतर्मुख योगशक्ति में-से उपादेय (उपयोग को संपूर्णरूप से अंतर्मुख करके ग्रहण करने योग्य) ऐसा जो निज परमात्मतत्त्व का परिज्ञान सो ज्ञान है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/38 </span><span class="SanskritText">तस्मिन्नेव शुद्धात्मनि स्वसंवेदनं सम्यग्ज्ञानं।</span>=<span class="HindiText">उस शुद्धात्म में ही स्वसंवेदन करना सम्यग्ज्ञान है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/240/333/16 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/184/4 </span><span class="SanskritText"> निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चयज्ञानं भण्यते।</span>=<span class="HindiText">निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयज्ञान है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/52/218/11 </span><span class="SanskritText">तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्य: पृथक्परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानं।</span><span class="HindiText">=उस शुद्धात्मा को उपाधिरहित स्वसंवेदनरूप भेदज्ञान द्वारा मिथ्या रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/40/163/11 </span><span class="SanskritText">तस्यैव सुखस्य समस्तविभावेभ्य: पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानम् ।</span>=<span class="HindiText">उसी (अतींद्रिय) सुख का रागादि समस्त विभावों से स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है। देखें [[ अनुभव#1.5 | अनुभव 1.5 ]] (स्वसंवेदन का लक्षण)। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1.3" id="3.1.3"> मिथ्याज्ञान सामान्य का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/31/137/3 </span><span class="SanskritText"> विपर्ययो मिथ्येत्यर्थ:।...कुत: पुनरेषां विपर्यय:। मिथ्यादर्शनेन सहैकार्थ समवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् ।</span>=<span class="HindiText">(‘मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च’) इस सूत्र में आये हुए विपर्यय शब्द का अर्थ मिथ्या है। मति श्रुत व अवधि ये तीनों ज्ञान मिथ्या भी हैं और सम्यक् भी।<strong> प्रश्न</strong>–ये विपर्यय क्यों है? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि मिथ्यादर्शन के साथ एक आत्मा में इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रज सहित कड़वी तूंबड़ी में रखा दूध कड़वा हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के निमित्त से ये मिथ्या हो जाते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/31/1/91/30 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 4/1/31/8/115 </span><span class="SanskritText">स च सामान्यतो मिथ्याज्ञानमत्रोपवर्ण्यते। संशयादिविकल्पानां त्रयाणां सुगृहीयते।8।</span>=<span class="HindiText">सूत्र में विपर्यय शब्द सामान्य रूप से सभी मिथ्याज्ञानों-स्वरूप होता हुआ मिथ्याज्ञान के संशय विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीन भेदों के संग्रह करने के लिए दिया गया है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 12/4,2,8,10/286/5 </span><span class="SanskritText"> बौद्ध-नैयायिक-सांख्य–मीमांसक-चार्वाक-वैशेषिकादिदर्शनरुच्यनुविद्धं ज्ञानं मिथ्याज्ञानम् ।</span>=<span class="HindiText">बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, मीमांसक, चार्वाक और वैशेषिक आदि दर्शनों की रुचि से संबद्ध ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/238 </span><span class="PrakritGatha"> ण मुणइ वत्थुसहावं अहविवरीयं णिखंक्खदो मुणइ। तं इह मिच्छणाणं विवरीयं सम्मरूवं खु।238।</span>=<span class="HindiText">जो वस्तु के स्वभाव को नहीं पहचानता है अथवा उलटा पहिचानता है या निरपेक्ष पहिचानता है वह मिथ्याज्ञान है। इससे विपरीत सम्यग्ज्ञान होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91 </span><span class="SanskritText">तत्रैवावस्तुनि वस्तुबुद्धिर्मिथ्याज्ञानं।...अथवा स्वात्मपरिज्ञानविमुखत्वमेव मिथ्याज्ञान...।</span> =<span class="HindiText">उसी (अर्हंतमार्ग से प्रतिकूल मार्ग में) कही हुई अवस्तु में वस्तु बुद्धि वह मिथ्याज्ञान है, अथवा निजात्मा के परिज्ञान से विमुखता वही मिथ्याज्ञान है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/5/14/10 </span><span class="SanskritText">अष्टविकल्पमध्ये मतिश्रुतावधयो मिथ्यात्वोदयवशाद्विपरीताभिनिवेशरूपाण्यज्ञानानि भवंति।</span>=<span class="HindiText">उन आठ प्रकार के ज्ञानों में मति, श्रुत, तथा अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यात्व के उदय से विपरीत अभिनिवेशरूप अज्ञान होते हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> सम्यक् व मिथ्याज्ञान निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.1" id="3.2.1"> सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का नाम निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/269</span> <span class="PrakritText">काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभयं णाणाचारो दु अट्ठविहो।260।</span>=<span class="HindiText">स्वाध्याय का काल, मन-वचन-काय से शास्त्र का विनय, यत्न करना, पूजासत्कारादि के पाठादिक करना, तथा गुरु या शास्त्र का नाम न छिपाना, वर्ण पद वाक्य को शुद्ध पढ़ना, अनेकांत स्वरूप अर्थ को ठीक ठीक समझना, तथा अर्थ को ठीक ठीक समझते हुए पाठादिक शुद्ध पढ़ना इस प्रकार (क्रम से काल, विनय, उपधान, बहुमान, तथा निह्नव, व्यंजन शुद्धि, अर्थ शुद्धि, तदुभय शुद्धि; इन आठ अंगों का विचार रखकर स्वाध्याय करना ये) ज्ञानाचार के आठ भेद है। (और भी देखें [[ विनय#1.6 | विनय - 1.6]]) <span class="GRef">( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/36 )</span>।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.2" id="3.2.2"> सम्यग्ज्ञान की भावनाएँ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/21/96 </span><span class="SanskritText">वाचनापृच्छने सानुप्रेक्षणं परिवर्तनम् । सद्धर्मदेशनं चेति ज्ञातव्या: ज्ञानभावना:।96।</span>=<span class="HindiText">जैन शास्त्रों का स्वयं पढ़ना, दूसरों से पूछना, पदार्थ के स्वरूप का चिंतवन करना, श्लोक आदि कंठ करना तथा समीचीन धर्म का उपदेश देना ये पाँच ज्ञान की भावनाएँ जाननी चाहिए।<br /> | |||
<strong>नोट</strong>—(इन्हीं को | <strong>नोट</strong>—(इन्हीं को <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/25 </span>में स्वाध्याय के भेद कहकर गिनाया है।) <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.3" id="3.2.3">पाँचों ज्ञानों में सम्यग्मिथ्यापने का नियम</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/1/9,31 </span><span class="SanskritText"> मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।9। मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।31।</span>=<span class="HindiText">मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवल ये पाँच ज्ञान हैं।9। इनमें से मति श्रुत और अवधि ये तीन मिथ्या भी होते हैं और सम्यक् भी (शेष दो सम्यक् ही होते हैं)।31।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/1/31/ श्लोक 3-10/114</span> <span class="SanskritGatha">मत्यादय: समाख्यातास्त एवेत्यवधारणात् । संगृह्यते कदाचिन्न मन:पर्ययकेवले।3। नियमेन तयो: सम्यग्भावनिर्णयत: सदा। मिथ्यात्वकारणाभावाद्विशुद्धात्मनि संभवात् ।4। मतिश्रुतावधिज्ञानत्रिकं तु स्यात्कदाचन। मिथ्येति ते च निदिष्टा विपर्यय इहांगिनाम् ।7। समुच्चिनोति चस्तेषां सम्यक्त्वं व्यवहारिकम् । मुख्यं च तदनुक्तौ तु तेषां मिथ्यात्वमेव हि।9। ते विपर्यय एवेति सूत्रे चेन्नावधार्यते। चशब्दमंतरेणापि सदा सम्यक्त्वमत्वत:।10।</span>=<span class="HindiText">मति आदि तीन ज्ञान ही मिथ्या रूप होते हैं; मन:पर्यय व केवलज्ञान नहीं, ऐसी सूचना देने के लिए ही सूत्र में अवधारणार्थ ‘च’ शब्द का प्रयोग किया है।3। वे दोनों ज्ञान नियम से सम्यक् ही होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व के कारणभूत मोहनीय कर्म का अभाव होने से विशुद्धात्मा में ही संभव है।4। मति, श्रुत व अवधि ये तीन ज्ञान तो कभी कभी मिथ्या हो जाते हैं। इसी कारण सूत्र में उन्हें विपर्यय भी कहा है।7। ‘च’ शब्द से ऐसा भी संग्रह हो जाता है कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि के भी मति आदि ज्ञान व्यवहार में समीचीन कहे जाते हैं, परंतु मुख्यरूप से तो वे मिथ्या ही हैं।9। यदि सूत्र में च शब्द का ग्रहण न किया जाता तो वे तीनों भी सदा सम्यक् रूप समझे जा सकते थे। विपर्यय और च इन दोनों शब्दों से उनके मिथ्यापने को भी सूचना मिलती है।10। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.4" id="3.2.4">सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> रयणसार/47 </span><span class="PrakritText"> रांभविणा सण्णाणं सच्चारित्त ण होइ णियमेण।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र नियम से नहीं होते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/3 </span><span class="SanskritText">कथमभ्यर्हितत्वं। ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सम्यग्दर्शन पूज्य क्यों है?<strong> उत्तर–</strong>क्योंकि सम्यग्दर्शन से ज्ञान में समीचीनता आती है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी x`/ इ./767)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/21,32 </span><span class="SanskritText">तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च।21। पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य। लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयो:।32।</span>=<span class="HindiText">इन तीनों दर्शन-ज्ञान-चारित्र में पहिले समस्त प्रकार के उपायों से सम्यग्दर्शन भले प्रकार अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि इसके अस्तित्व में ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र होता है।21। यद्यपि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं, तथापि इनमें लक्षण भेद से पृथक्ता संभव है।32।<br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/3/15/264 </span><span class="SanskritText">आराध्यं दर्शनं ज्ञानमाराध्यं तत्फलत्वत:। सहभावेऽपि ते हेतुफले दीपप्रकाशवत् ।15।</span> <span class="HindiText">=सम्यग्दर्शन की आराधना करके ही सम्यग्ज्ञान की आराधना करनी चाहिए, क्योंकि ज्ञान सम्यग्दर्शन का फल है। जिस प्रकार प्रदीप और प्रकाश साथ ही उत्पन्न होते हैं, फिर भी प्रकाश प्रदीप का कार्य है, उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान साथ साथ होते हैं, फिर भी सम्यग्ज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन उसका कारण।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.5" id="3.2.5"> सम्यग्दर्शन भी कथंचित् ज्ञानपूर्वक होता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/17-18 </span><span class="PrakritGatha">जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।17। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।18।</span>=<span class="HindiText">जैसे कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर (उसकी) श्रद्धा करता है और फिर प्रयत्नपूर्वक उसका अनुचरण करता है अर्थात् उसकी सेवा करता है, उसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक को जीव रूपी राजा को जानना चाहिए, और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए। और तत्पश्चात् उसी का अनुचरण करना चाहिए अर्थात् अनुभव के द्वारा उसमें तन्मय होना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/248 </span><span class="PrakritGatha"> सामण्ण अह विसेसं दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं णहु पुण तं तस्स विवरीयं।248।</span>=<span class="HindiText">सामान्य तथा विशेष द्रव्य संबंधी अविरुद्धज्ञान ही सम्यक्त्व की सिद्धि करता है। उससे विपरीत ज्ञान नहीं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.6" id="3.2.6"> सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान की व्याप्ति है पर ज्ञान के साथ सम्यक्त्व की नहीं।</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/4/22 </span><span class="PrakritText">दंसणमाराहंतेण णाणमाराहिदं भवे णियमा।...। णाणं आराहंतस्स दंसणं होइ भयविज्जं।4।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन की आराधना करने वाले नियम से ज्ञानाराधना करते हैं, परंतु ज्ञानाराधना करने वाले को दर्शन की आराधना हो भी अथवा न भी हो।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.7" id="3.2.7"> सम्यक्त्व हो जाने पर पूर्व का ही मिथ्याज्ञान सम्यक् हो जाता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/6/7 </span><span class="SanskritText">ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्यं, दर्शनस्य तत्पूर्वंकत्वात् अल्पाक्षरत्वाच्च। नैतद्युक्तं, युगपदुत्पत्ते:। यदा...आत्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाविर्भवति घनपटलविगमे सवितु: प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सूत्र में पहिले ज्ञान का ग्रहण करना उचित है, क्योंकि एक तो दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है और दूसरे ज्ञान में दर्शन शब्द की अपेक्षा कम अक्षर हैं ? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि दर्शन और ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते हैं। जैसे मेघपटल के दूर हो जाने पर सूर्य के प्रताप और प्रकाश एक साथ प्रगट होते हैं, उसी प्रकार जिस समय आत्मा की सम्यग्दर्शन पर्याय उत्पन्न होती है उसी समय उसके मति-अज्ञान और श्रुत अज्ञान का निराकरण होकर मति ज्ञान और श्रुतज्ञान प्रगट होते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/1/28-30/9/19 )</span> <span class="GRef">( पंचाध्यायी x`/3/768 )</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.8" id="3.2.8">वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहलाता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/31/137/4 </span><span class="SanskritText">कथं पुनरेषां विपर्यय:। मिथ्यादर्शनेन सहैकार्यसमवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् । ननु च तत्राधारदोषाद् दुग्धस्य रसविपर्ययो भवति। न च तथा मत्यज्ञानादीनां विषयग्रहणे विपर्यय:। तथा हि, सम्यग्दृष्टिर्यथा चक्षुरादिभी रूपादीनुपलभते तथा मिथ्यादृष्टिरपि मत्यज्ञानेन यथा च सम्यग्दृष्टि: श्रुतेन रूपादीन् जानाति निरूपयति च तथा मिथ्यादृष्टिरपि श्रुताज्ञानेन। यथा चावधिज्ञानेन सम्यग्दृष्टि: रूपिणोऽर्थानवगच्छति तथा मिथ्यादृष्टिर्विभंगज्ञानेनेति। अत्रोच्यते–"सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ।<span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/1/32 )</span>।" ...तथा हि, कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आत्मन्यवस्थितो रूपाद्युपलब्धौ सत्यामपि कारणविपर्यासं भेदाभेदविपर्यासं स्वरूपविपर्यासं च जानाति।...एवमन्यानपि परिकल्पनाभेदान् दृष्टेष्टविरुद्धांमिथ्यादर्शनोदयात्कल्पयंति तत्र च श्रद्धानमुत्पादयंति। ततस्तन्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभंगज्ञानं च भवति। सम्यग्दर्शनं पुनस्तत्त्वार्थाधिगमे श्रद्धानमुत्पादयति। ततस्तन्मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च भवति।</span><span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–यह (मति, श्रुत व अवधिज्ञान) विपर्यय क्यों है ? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि मिथ्यादर्शन के साथ एक आत्मा में इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रजसहित कड़वी तूँबड़ी में रखा गया दूध कड़वा हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के निमित्त से यह विपर्यय होता है। <strong>प्रश्न</strong>–कड़वी तूंबड़ी के आधार के दोष से दूध का रस मीठे से कड़वा हो जाता है यह स्पष्ट है, किंतु इस प्रकार मत्यादि ज्ञानों की विषय के ग्रहण करने में विपरीता नहीं मालूम होती। खुलासा इस प्रकार है–जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि चक्षु आदि के द्वारा रूपादिक पदार्थों को ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि श्रुत के द्वारा रूपादि पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी श्रुत अज्ञान के द्वारा रूपादि पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी विभंग ज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है। <strong>उत्तर</strong>–इसी का समाधान करने के लिए यह अगला सूत्र कहा गया है कि "वास्तविक औ अवास्तविक का अंतर जाने बिना, जब जैसा जी में आया उस रूप ग्रहण होने के कारण, उन्मत्तवत् उसका ज्ञान भी अज्ञान ही है।" (अर्थात् वास्तव में सत् क्या है और असत् क्या है, चैतन्य क्या है और जड़ क्या है, इन बातों का स्पष्ट ज्ञान न होने के कारण कभी सत् को असत् और कभी असत् को सत् कहता है। कभी चैतन्य को जड़ और कभी जड़ (शरीर) को चैतन्य कहता है। कभी कभी सत् को सत् और चैतन्य को चैतन्य इस प्रकार भी कहता है। उसका यह सब प्रलाप उन्मत्त की भाँति है। जैसे उन्मत्त माता को कभी स्त्री और कभी स्त्री को माता कहता है। वह यदि कदाचित् माता को माता भी कहे तो भी उसका कहना समीचीन नहीं समझा जाता उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि का उपरोक्त प्रलाप भले ही ठीक क्यों न हो समीचीन नहीं समझा जा सकता है) खुलासा इस प्रकार है कि आत्मा में स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारण-विपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप-विपर्यास को उत्पन्न करता रहता है। इस प्रकार मिथ्यादर्शन के उदय से ये जीव प्रत्यक्ष और अनुमान के विरुद्ध नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं, और उनमें श्रद्धान उत्पन्न करते हैं। इसलिए इनका यह ज्ञान मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंग ज्ञान होता है। किंतु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञान में श्रद्धान उत्पन्न करता है, अत: इस प्रकार का ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/31/2-3/92/1 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/32/ पृष्ठ 92)</span>; <span class="GRef">(विशेषावश्यक भाष्य/115 से स्याद्वाद मंजरी/23/274 पर उद्धृत)</span> <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/77)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,44/85/5 </span><span class="PrakritText">किमट्ठं पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे विहि-पडिसेहभावेण दोण्हं णाणणं विसेसाभावा। ण परदो वदिरित्तभावसामण्णमवेक्खिय एत्थ पडिसेहो होज्ज, किंतु अप्पणो अवगयत्थे जम्हि जीवे सद्दहणं ण वुप्पज्जदि अवगयत्थविवरीयसद्धुप्पायणमिच्छुत्तुदयबलेण तत्थ जं णाणं तमण्णाणमिदि भण्णइ, णाणफलाभावादो। धड-पडत्थंभादिसु मिच्छाइट्ठीणं जहावगमं सद्दहणणुवलब्भदे चे; ण, तत्थ वि तस्स अणज्झवसायदंसणादो। ण चेदमसिद्धं ‘इदमेवं चेवेति’ णिच्छयाभावा। अधवा जहा दिसामूढो वण्ण-गंध-रस-फास-जहावगमं सद्दहंतो वि अण्णाणी वुच्चदे जहावगमदिससद्दहणाभावादो, एवं थंभादिपयत्थे जहावगमं सद्दहंतो वि अण्णाणी वुच्चदे जिणवयणेण सद्दहणाभावादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यहाँ सम्यग्दृष्टि के ज्ञान का भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय, क्योंकि, विधि और प्रतिषेध भाव से मिथ्यादृष्टिज्ञान और सम्यग्दृष्टिज्ञान में कोई विशेषता नहीं है? <strong>उत्तर</strong>–यहाँ अन्य पदार्थों में परत्वबुद्धि के अतिरिक्त भाव सामान्य की अपेक्षा प्रतिषेध नहीं किया गया है, जिससे कि सम्यग्दृष्टि ज्ञान का भी प्रतिषेध हो जाय। किंतु ज्ञात वस्तु में विपरीत श्रद्धा उत्पन्न कराने वाले मिथ्यात्वोदय के बल से जहाँ पर जीव में अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान नहीं उत्पन्न होता, वहाँ जो ज्ञान होता है वह अज्ञान कहलाता है, क्योंकि उसमें ज्ञान का फल नहीं पाया जाता। शंका–घट पट स्तंभ आदि पदार्थों में मिथ्यादृष्टियों के भी यथार्थ श्रद्धान और ज्ञान पाया जाता है? उत्तर–नहीं पाया जाता, क्योंकि, उनके उसके उस ज्ञान में भी अनध्यवसाय अर्थात् अनिश्चय देखा जाता है। यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, ‘यह ऐसा ही है’ ऐसे निश्चय का यहाँ अभाव होता है। अथवा, यथार्थ दिशा के संबंध में विमूढ जीव वर्ण, गंध, रस और स्पर्श इन इंद्रिय विषयों के ज्ञानानुसार श्रद्धान करता हुआ भी अज्ञानी कहलाता है, क्योंकि, उसके यथार्थ ज्ञान की दिशा में श्रद्धान का अभाव है। इसी प्रकार स्तंभादि पदार्थों में यथाज्ञान श्रद्धा रखता हुआ भी जीव जिन भगवान् के वचनानुसार श्रद्धान के अभाव से अज्ञानी ही कहलाता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/72 </span><span class="SanskritText">आकुलत्वोत्पादकत्वाद्दु:खस्य कारणानि खल्वास्रवा:, भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुलत्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वाद्दु:खस्याकारणमेव। इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्त्तमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञानासिद्धे: तत: क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बंधनिरोध: सिध्येत् । </span>=<span class="HindiText">आस्रव आकुलता के उत्पन्न करने वाले हैं इसलिए दु:ख के कारण हैं, और भगवान् आत्मा तो, सदा ही निराकुलता-स्वभाव के कारण किसी का कार्य तथा किसी का कारण न होने से, दु:ख का अकारण है। इस प्रकार विशेष (अंतर) को देखकर जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवों के भेद को जानता है, उसी समय क्रोधादि आस्रवों से निवृत्त होता है, क्योंकि, उनसे जो निवृत्ति नहीं है उसे आत्मा और आस्रवों के परमार्थिक भेदज्ञान की सिद्धि ही नहीं हुई। इसलिए क्रोधादि आस्रवों से निवृत्ति के साथ जो अविनाभावी है ऐसे ज्ञानमात्र से ही, अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्म के बंध का निरोध होता है। (तात्पर्य यह कि मिथ्यादृष्टि को शास्त्र के आधार पर भले ही आस्रवादि तत्त्वों का ज्ञान हो गया हो पर मिथ्यात्ववश स्वतत्त्व दृष्टि से ओझल होने के कारण वह उस ज्ञान को अपने जीवन पर लागू नहीं कर पाता। इसी से उसे उस ज्ञान का फल भी प्राप्त नहीं होता और इसीलिए उसका वह ज्ञान मिथ्या है। इससे विपरीत सम्यग्दृष्टि का तत्त्वज्ञान अपने जीवन पर लागू होने के कारण सम्यक् है)।<br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार/ पं.जयचंद/72</span> <br> | |||
<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अविरत सम्यग्दृष्टि को यद्यपि मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी प्रकृतियों का आस्रव नहीं होता, परंतु अन्य प्रकृतियों का तो आस्रव होकर बंध होता है; इसलिए ज्ञानी कहना या अज्ञानी ? <strong>उत्तर</strong>–सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी ही है, क्योंकि वह अभिप्राय पूर्वक आस्रवों से निवृत्त हुआ है।<br /> | |||
और भी देखें [[ ज्ञान#III.3.3 | ज्ञान - III.3.3]] मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी भूतार्थग्राही होने के कारण यद्यपि कथंचित् सम्यक् है पर ज्ञान का असली कार्य (आस्रव निरोध) न करने के कारण वह अज्ञान ही है।<br /> | और भी देखें [[ ज्ञान#III.3.3 | ज्ञान - III.3.3]] मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी भूतार्थग्राही होने के कारण यद्यपि कथंचित् सम्यक् है पर ज्ञान का असली कार्य (आस्रव निरोध) न करने के कारण वह अज्ञान ही है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.9" id="3.2.9"> मिथ्यादृष्टि का शास्त्रज्ञान भी मिथ्या व अकिंचित्कर है</strong></span><br /> | ||
<span class="HindiText">देखें [[ ज्ञान#IV.1.4 | ज्ञान - IV.1.4]]–[आत्मज्ञान के बिना सर्व आगमज्ञान अकिंचित्कर है] <br /> | <span class="HindiText">देखें [[ ज्ञान#IV.1.4 | ज्ञान - IV.1.4]]–[आत्मज्ञान के बिना सर्व आगमज्ञान अकिंचित्कर है] <br /> | ||
देखें [[ राग#6.1 | राग - 6.1 ]][परमाणु मात्र भी राग है तो सर्व आगमधर भी आत्मा को नहीं जानता] </span><br /> | देखें [[ राग#6.1 | राग - 6.1 ]][परमाणु मात्र भी राग है तो सर्व आगमधर भी आत्मा को नहीं जानता] </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/317 </span><span class="PrakritText">ण मुयइ पयडिमभव्वो सुठ्ठु वि अज्झाइऊण सत्थाणि। गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा हुंति।</span>=<span class="HindiText">भलीभाँति शास्त्रों को पढ़कर भी अभव्य जीव प्रकृति को (अपने मिथ्यात्व स्वभाव को) नहीं छोड़ता। जैसे मीठे दूध को पीते हुए भी सर्प निर्विष नहीं होते। <span class="GRef">( समयसार/274 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ मूल/4</span> <span class="PrakritText">समत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं। आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव।4।</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट भले ही बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानो परंतु आराधना से रहित होने के कारण संसार में ही नित्य भ्रमण करता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/7/44 </span><span class="SanskritText"> संसार: पुत्रदारादि: पुंसां संमूढचेतसाम् । संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितमात्मनाम् ।44।</span>=<span class="HindiText">अज्ञानीजनों का संसार तो पुत्र स्त्री आदि है और अध्यात्म ज्ञान शून्य विद्वानों का संसार शास्त्र है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/50/215/7 पर उद्धृत–</span><span class="SanskritText">यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करिष्यति।</span>=<span class="HindiText">जिस पुरुष के स्वयं बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है। क्योंकि नेत्रों से रहित पुरुष का दर्पण क्या उपकार कर सकता है। अर्थात् कुछ नहीं कर सकता।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/23/274/15 </span><span class="SanskritText">तत्परिगृहीतं द्वादशांगमपि मिथ्याश्रुतमामनंति। तेषामुपपत्ति निरपेक्षं यदृच्छया वस्तुतत्त्वोपलंभसंरंभात् ।</span>=<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि बारह (?) अंगों को पढ़कर भी उन्हें मिथ्या श्रुत समझता है, क्योंकि, वह शास्त्रों को समझे बिना उनका अपनी इच्छा के अनुसार अर्थ करता है। (और भी देखो पीछे इसी का नं.8)</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/770 </span><span class="SanskritGatha"> यत्पुनर्द्रव्यचारित्रं श्रुतज्ञानं विनापि दृक् । न तज्ज्ञानं न चारित्रमस्ति चेत्कर्मबंधकृत् ।770। </span>=<span class="HindiText">जो सम्यग्दर्शन के बिना द्रव्यचारित्र तथा श्रुतज्ञान होता है वह न सम्यग्ज्ञान है और न सम्यग्चारित्र है। यदि है तो वह ज्ञान तथा चारित्र केवल कर्मबंध को ही करने वाला है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.10" id="3.2.10"> सम्यग्दृष्टि का कुशास्त्र ज्ञान भी कथंचित् सम्यक् है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/23/274/16 </span><span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमपि सम्यक्श्रुततया परिणमति सम्यग्दृशाम् । सर्वविदुपदेशानुसारिप्रवृत्तितया मिथ्याश्रुतोक्तस्याप्यर्थस्य यथावस्थितविधिनिषेधविषयतयोन्नयनात् ।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि मिथ्याशास्त्रों को पढ़कर उन्हें सम्यक्श्रुत समझता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि सर्वज्ञदेव के उपदेश के अनुसार चलता है, इसलिए वह मिथ्या आगमों का भी यथोचित् विधि निषेधरूप अर्थ करता है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2.11" id="3.2.11"> सम्यग्ज्ञान को ही ज्ञान संज्ञा है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/267-268</span> <span class="PrakritGatha">जेण तच्चं विबुज्झेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे।267। जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि। जेण मेत्ती पभावेज्ज तं णाणं जिणसासणे।268।</span>=<span class="HindiText">जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाय, जिससे मन का व्यापार रुक जाय, जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिनशासन में उसे ही ज्ञान कहा गया है।267। जिससे राग से विरक्त हो, जिससे श्रेयस मार्ग में रत हो, जिससे सर्व प्राणियों में मैत्री प्रवर्तै, वही जिनमत में ज्ञान कहा गया है।268।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/117 </span><span class="PrakritGatha"> जाणइं तिक्कालसहिए दव्वगुणपज्जए बहुब्भेए। पच्चक्खं च परोक्खं अणेण, णाण त्ति णं विंति।117।</span>=<span class="HindiText">जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक सर्व द्रव्य, उनके समस्त गुण और उनकी बहुत भेदवाली पर्यायों को प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से जानता है, उसे निश्चय से ज्ञानीजन ज्ञान कहते हैं। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,4/ गाथा.91/144)</span>, (पं.तं.सं./1/213), <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/299/648 )</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार/ पं.जयचंद/74</span><br> | |||
=<span class="HindiText"> मिथ्यात्व जाने के बाद उसे विज्ञान कहा जाता है। (और भी देखें [[ ज्ञानी का लक्षण ]])<br /> | |||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> सम्यक् व मिथ्याज्ञान संबंधी शंका-समाधान व समन्वय</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3.1" id="3.3.1"> तीनों अज्ञानों में कौन-कौन-सा मिथ्यात्व घटित होता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 4/1/31/13/118/6 </span><span class="SanskritText">मतौ श्रुते च त्रिविधं मिथ्यात्वं बोद्धव्यं मतेरिंद्रियानिंद्रियनिमित्तकत्वनियमात् । श्रुतस्यानिंद्रियनिमित्तकत्वनियमाद् द्विविधमवधौ संशयाद्विना विपर्ययानध्यवसायावित्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में तीनों प्रकार का मिथ्यात्व (संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय) समझ लेना चाहिए। क्योंकि मतिज्ञान के निमित्त कारण इंद्रिय और अनिंद्रिय हैं ऐसा नियम है तथा श्रुतज्ञान का निमित्त नियम से अनिंद्रिय माना गया है। किंतु अवधिज्ञान में संशय के बिना केवल विपर्यय व अनध्यवसाय संभवते हैं (क्योंकि यह इंद्रिय अनिंद्रिय की अपेक्षा न करके केवल आत्मा से उत्पन्न होता है और संशय ज्ञान इंद्रिय व अनिंद्रिय के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता।)<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3.2" id="3.3.2"> अज्ञान कहने से क्या यहाँ ज्ञान का अभाव इष्ट है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,44/84/10 </span><span class="PrakritText">एत्थ चोदओ भणदि–अण्णाणमिदि वुत्ते किं णाणस्स अभावो घेप्पदि आहो ण घेप्पदि त्ति। णाइल्लो पक्खो मदिणाणाभावे मदिपुव्वं सुदमिदि कट्टु सुदणाणस्स वि अभावप्पसंगादो। ण चेदं पि ताणमभावे सव्वणाणाणमभावप्पसंगादो। णाणाभावे ण दंसणं पि दोण्णमण्णोणाविणाभावादो। णाणदंसणाभावे ण जीवो वि, तस्स तल्लक्खणत्तादो त्ति। ण विदियपक्खो वि, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो त्ति। एत्थ परिहारो वुच्चदे–ण पढमपक्खदोससंभवो, पसज्जपडिसेहेण एत्थ पओजणाभावा। ण विदियपक्खुत्तदोसो वि, अप्पेहिंतो विदिरित्तासेसदव्वोतु सविहिवहसंठिएसु पडिसेहस्स फलभावुवलंभादो। किमट्ठं पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अज्ञान कहने पर क्या ज्ञान का अभाव ग्रहण किया है या नहीं किया है? प्रथम पक्ष तो बन नहीं सकता, क्योंकि मतिज्ञान का अभाव मानने पर ‘मतिपूर्वक ही श्रुत होता है’ इसलिए श्रुतज्ञान के अभाव का भी प्रसंग आ जायेगा। और ऐसा भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, मति और श्रुत दोनों ज्ञानों के अभाव में सभी ज्ञानों के अभाव का प्रसंग आ जाता है। ज्ञान के अभाव में दर्शन भी नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान और दर्शन इन दोनों का अविनाभावी संबंध है। और ज्ञान और दर्शन के अभाव में जीव भी नहीं रहता, क्योंकि जीव का तो ज्ञान और दर्शन ही लक्षण है। दूसरा पक्ष भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि, यदि अज्ञान कहने पर ज्ञान का अभाव न माना जाये तो फिर प्रतिषेध के फलाभाव का प्रसंग आ जाता है? <strong>उत्तर</strong>–प्रथम पक्ष में कहे गये दोष की प्रस्तुत पक्ष में संभावना नहीं है, क्योंकि यहाँ पर प्रसज्यप्रतिषेध अर्थात् अभावमात्र से प्रयोजन नहीं है। दूसरे पक्ष में कहा गया दोष भी नहीं आता, क्योंकि, यहाँ जो अज्ञान शब्द से ज्ञान का प्रतिषेध किया गया है, उसकी, आत्मा को छोड़ अन्य समीपवर्ती प्रदेश में स्थित समस्त द्रव्यों में स्व व पर विवेक के अभावरूप सफलता पायी जाती है। अर्थात् स्व पर विवेक से रहित जो पदार्थ ज्ञान होता है उसे ही यहाँ अज्ञान कहा है।<strong> प्रश्न–</strong>तो यहाँ सम्यग्दृष्टि के ज्ञान का भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय?<strong> उत्तर–</strong>देखें [[ ज्ञान#III.2.8 | ज्ञान - III.2.8]]।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3.3" id="3.3.3"> मिथ्याज्ञान की अज्ञान संज्ञा कैसे है?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/142/4 </span><span class="SanskritText"> कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयात्प्रतिभासितेऽपि वस्तुनि संशयविपर्ययानध्यवसायानिवृत्तितस्तेषामज्ञानितोक्त:। एवं सति दर्शनावस्थायां ज्ञानाभाव: स्यादिति चेन्नैष दोष:, इष्टत्वात् ।...एतेन संशयविपर्ययानध्यवसायावस्थासु ज्ञानाभाव: प्रतिपादित: स्यात्, शुद्धनयविवक्षायां तत्त्वार्थोपलंभकं ज्ञानम् । ततो मिथ्यादृष्टयो न ज्ञानिन:।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनों के प्रकाश में (ज्ञानसामान्य में) समानता पायी जाती है, तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकते हैं? <strong>उत्तर</strong>–यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व कर्म के उदय से वस्तु के प्रतिभासित होने पर भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय की निवृत्ति नहीं होने से मिथ्यादृष्टियों को अज्ञानी कहा है। <strong>प्रश्न</strong>–इस तरह मिथ्यादृष्टियों को अज्ञानी मानने पर दर्शनोपयोग की अवस्था में ज्ञान का अभाव प्राप्त हो जायेगा ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, दर्शनोपयोग की अवस्था में ज्ञानोपयोग का अभाव इष्ट ही है। यहाँ संशय विपर्यय और अनध्यवसायरूप अवस्था में ज्ञान का अभाव प्रतिपादित हो जाता है। कारण कि शुद्धनिश्चयनय की विवक्षा में वस्तुस्वरूप का उपलंभ कराने वाले धर्म को ही ज्ञान कहा है। अत: मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानी नहीं हो सकते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 5/1,7,45/224/3 </span><span class="PrakritText">कधं मिच्छादिट्ठिणाणस्स अण्णाणत्तं। णाणकज्जाकरणादो। किं णाणकज्जं। णादत्थसद्दहणं। ण ते मिच्छादिट्ठिम्हि अत्थि। तदो णाणमेव अणाणं, अण्णहा जीवविणासप्पसंगा। अवगयदवधम्मणाहसु मिच्छादिट्ठिम्हि सद्दहणमुवलंभए चे ण, अत्तागमपयत्थसद्दणहणविरहियस्स दवधम्मणाहसु जहट्ठसद्दहणविरोहा। ण च एस ववहारो लोगे अप्पसिद्धो, पुत्तकज्जमकुणंते पुत्ते वि लोगे अपुत्तववहारदंसणादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान को अज्ञानपना कैसे कहा? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि, उनका ज्ञान ज्ञान का कार्य नहीं करता है। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान का कार्य क्या है? <strong>उत्तर</strong>–जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना ज्ञान का कार्य है। इस प्रकार का ज्ञान मिथ्यादृष्टि जीव में पाया नहीं जाता है। इसलिए उनके ज्ञान को ही अज्ञान कहा है। अन्यथा जीव के अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा। <strong>प्रश्न</strong>–दयाधर्म को जानने वाले ज्ञानियों में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव में तो श्रद्धान पाया जाता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, दयाधर्म के ज्ञाताओं में भी, आप्त आगम और पदार्थ के प्रति श्रद्धान से रहित जीव के यथार्थ श्रद्धान के होने का विरोध है। ज्ञान का कार्य नहीं करने पर ज्ञान में अज्ञान का व्यवहार लोक में अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, पुत्र के कार्य को नहीं करने वाले पुत्र में भी लोक के भीतर अपुत्र कहने का व्यवहार देखा जाता है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,115/353/7 )</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3.4" id="3.3.4"> मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,45/86/7 </span><span class="PrakritText">कधं मदिअण्णाणिस्स खवोवसमिया लद्धो। मदिअण्णाणावरणम्स देसघादिफद्दयाणमुदएण मदिअणाणित्तुवलंभादो। जदि देसघादिफद्दयाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स ओदइयत्तं पसज्जदे। ण, सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावा। कधं पुण खओवसमियत्तं (देखें [[ क्षयोपशम#1 | क्षयोपशम - 1 ]]में क्षयोपशम के लक्षण)। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मति अज्ञानी जीव के क्षायोपशमिक लब्धि कैसे मानी जा सकती है? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि, उस जीव के मति अज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों के उदय से मति अज्ञानित्व पाया जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानित्व को औदयिक भाव मानने का प्रसंग आता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं आता, क्योंकि, वहाँ सर्वघाति स्पर्धकों के उदय का अभाव है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर अज्ञानित्व में क्षायोपशमिकत्व क्या है? <strong>उत्तर</strong>–(देखें [[ क्षयोपशम का लक्षण ]])। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3.5" id="3.3.5"> मिथ्याज्ञान दर्शाने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/22/51/1 </span><span class="SanskritText"> एवमज्ञानिज्ञानिजीवलक्षणं ज्ञात्वा निर्विकारस्वसंवेदनलक्षणे भेदज्ञाने स्थित्वा भावना कार्येति तामेव भावनां दृढयति।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी जीव का लक्षण जानकर, निर्विकार स्वसंवेदन लक्षणवाला जो भेदज्ञान, उसमें स्थित होकर भावना करनी चाहिए तथा उसी भावना को दृढ़ करना चाहिए।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4">निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1.1" id="4.1.1">निश्चय सम्यग्ज्ञान माहात्म्य </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/80 </span><span class="PrakritGatha">जो जाणदि अरहंत दव्वत्त गुणत्त पज्जेत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादु तस्स लयं।80।</span>=<span class="HindiText">जो अर्हंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने जानता है, वह आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> रयणसार/144 </span><span class="PrakritGatha">दव्वगुणपज्जएहिं जाणइ परसमयसमयादिविभेयं। अप्पाणं जाणइ सो सिवगइण्हणायगो होर्इ।144।</span>=<span class="HindiText">आत्मा के दो भेद हैं–एक स्वसमय और दूसरा परसमय। जो जीव इन दोनों को द्रव्य, गुण व पर्याय से जानता है, वह ही वास्तव में आत्मा को जानता है। वह जीव ही शिवपथ का नायक होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/768-769 </span><span class="PrakritText">णाणुज्जीवो जीवो णाणुज्जीवस्स णत्थि पडिघादो। दीवइ खेत्तमप्पं सूरो णाणं जगमसेसं।768। णाणं पयासआ सो वओ तओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हंपि समाओगे मोक्खो जिनसासणे दिट्ठा।769।=</span><span class="HindiText">ज्ञानप्रकाश ही उत्कृष्ट प्रकाश है, क्योंकि किसी के द्वारा भी इसका प्रतिघात नहीं हो सकता। सूर्य का प्रकाश यद्यपि उत्कृष्ट समझा जाता है, परंतु वह भी अल्पमात्र क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है। ज्ञान प्रकाश समस्त जगत् को प्रकाशित करता है।768। ज्ञान संसार और मुक्ति दोनों के कारणों को प्रकाशित करता है। व्रत, तप, गुप्ति व संयम को प्रकाशित करता है तथा तीनों के संयोगरूप जिनोपदिष्ट मोक्ष को प्रकाशित करता है।769। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/9/31 </span><span class="SanskritText">अनुष्ठानास्पदं ज्ञानं ज्ञानं मोहतमोऽपहम् । पुरुषार्थकरं ज्ञानं ज्ञानं निर्वृतिसाधनम् ।31।</span> =<span class="HindiText">’ज्ञान’ अनुष्ठान का स्थान है, मोहांधकार का विनाश करने वाला है, पुरुषार्थ का करने वाला है, और मोक्ष का कारण है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/7/21-23 </span><span class="SanskritText">यत्र वालश्चरत्यस्मिन्पथि तत्रैव पंडित:। बाल: स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्त्वविद्ध्रुवम् ।21। दुरिततिमिरहंसं मोक्षलक्ष्मीसरोजं मदनभुजगमंत्रं चित्तमातंगसिहं व्यसनघनसमीरं विश्वतत्त्वैकदीपं, विषयशफरजालं ज्ञानमाराधय त्वम् ।22। अस्मिन्संसारकक्षे यमभुजगविषाक्रांतनि:शेषसत्त्वे, क्रोधाद्युत्तंगशैले कुटिलगतिसरित्पातंसंतापभीमे। मोहांधा: संचरंति स्खलनविधुरता: प्राणिनस्तावदेते, यावद्विज्ञानभानुर्भवभयदमिदं नोच्छिनत्त्यंधकारम् ।23।</span>=<span class="HindiText">जिस मार्ग में अज्ञानी चलते हैं उसी मार्ग में विद्वज्जन चलते हैं, परंतु अज्ञानी तो अपनी आत्मा को बाँध लेता है और तत्त्वज्ञानी बंधरहित हो जाता है, यह ज्ञान का माहात्म्य है।21। हे भव्य तू ज्ञान का आराधन कर, क्योंकि, ज्ञान पापरूपी तिमिर नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है, और मोक्षरूपी लक्ष्मी के निवास करने के लिए कमल के समान है। कामरूपी सर्प के कीलने को मंत्र के समान है, मनरूपी हस्ती को सिंह के समान है, आपदारूपी मेघों को उड़ाने के लिए पवन के समान है, समस्त तत्त्वों को प्रकाश करने के लिए दीपक के समान है तथा विषयरूपी मत्स्यों को पकड़ने के लिए जाल के समान है।22। जब तक इस संसाररूपी वन में सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य उदित होकर संसारभयदायक अज्ञानांधकार का उच्छेद नहीं करता तब तक ही मोहांध प्राणी निज स्वरूप से च्युत हुए गिरते पड़ते चलते हैं। कैसा है संसाररूपी वन?–जिसमें कि पापरूपी सर्प के विष से समस्त प्राणी व्याप्त हैं, जहाँ क्रोधादि पापरूपी बड़े-बड़े पर्वत हैं, जो वक्र गमनवाली दुर्गतिरूपी नदियों में गिरने से उत्पन्न हुए संताप से अतिशय भयानक हैं। ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश होने से किसी प्रकार का दु:ख व भय नहीं रहता है।23। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1.2" id="4.1.2"> भेदविज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> इष्टोपदेश/33 </span><span class="SanskritText">गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्ते: स्वपरांतरम् । जानाति य: स जानाति मोक्षसौख्यं निरंतरम् ।33।=</span><span class="HindiText">जो कोई प्राणी गुरूपदेश से अथवा शास्त्राभ्यास से या स्वात्मानुभव से स्व व पर के भेद को जानता है वही पुरुष सदा मोक्षसुख को जानता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/200 </span><span class="SanskritText"> एवं सम्यग्दृष्टि: सामान्येन विशेषेण च, परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्योऽपि विविच्य टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति।<br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/314 </span><br> | |||
स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति।=</span><span class="HindiText">इस प्रकार सम्यग्दृष्टि सामान्यतया और विशेषतया परभावस्वरूप सर्व भावों से विवेक (भेदज्ञान) करके टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जिसका स्वभाव है ऐसा जो आत्मतत्त्व उसको जानता है।...आत्मा स्व पर के भेदविज्ञान से ज्ञायक होता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1.3" id="4.1.3"> अभेद ज्ञान या इंद्रियज्ञान अज्ञान हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/314 </span><span class="SanskritText"> स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति।</span>=<span class="HindiText">स्व पर के एकत्व ज्ञान से आत्मा अज्ञायक होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/55 </span><span class="SanskritText"> परोक्षं हि ज्ञानं...आत्मन: स्वयं परिच्छेत्तुमर्थमसमर्थस्योपात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणव्यग्रतयात्यंतविसंष्ठुलत्वमवलंबमानमनंताया: शक्ते:...परमार्थतोऽर्हति। अतस्तद्धेयम् ।</span>=प<span class="HindiText">रोक्षज्ञान आत्मपदार्थ को स्वयं जानने में असमर्थ होने से उपात्त और अनुपात्त परपदार्थ रूप सामग्री को ढूँढ़ने की व्यग्रता से अत्यंत चंचल-तरल-अस्थिर वर्तता हुआ, अनंत शक्ति से च्युत होने से अत्यंत खिन्न होता हुआ...परमार्थत: अज्ञान में गिने जाने योग्य है; इसलिए वह हेय है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1.4" id="4.1.4"> आत्म ज्ञान के बिना सर्व आगम ज्ञान अकिंचित्कर है</strong></span><strong></strong><br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/100 </span><span class="PrakritText">जदि पढदि बहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहे य चारित्ते। तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीयं।100।</span>=<span class="HindiText">आत्म स्वभाव से विपरीत बहुत प्रकार के शास्त्रों का पढ़ना और बहुत प्रकार के चारित्र का पालन भी बाल श्रुत बालचरण है। <span class="GRef">(मूलाचार/897)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">मूलाचार/894</span><span class="PrakritText"> धीरो वइरागपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिज्झदि हु। ण हि सिज्झहि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्था।</span>=<span class="HindiText">धीर और वैराग्य परायण तो अल्पमात्र शास्त्र पढ़ा हो तो भी मुक्त हो जाता है, परंतु वैराग्य विहीन सर्व शास्त्र भी पढ़ ले तो भी मुक्त नहीं होता।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समाधिशतक/94 </span><span class="SanskritText">विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते। देहात्मदृष्टिर्ज्ञातात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते।94।</span>=<span class="HindiText">शरीर में आत्मबुद्धि रखने वाला बहिरात्मा संपूर्ण शास्त्रों को जान लेने पर भी मुक्त नहीं होता और देह से भिन्न आत्मा का अनुभव करने वाला अंतरात्मा सोता और उन्मत्त हुआ भी मुक्त हो जाता है। <span class="GRef">( योगसार (योगेंदुदेव)/96 )</span> <span class="GRef">( ज्ञानार्णव/32/100 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/मूल/2/84 </span><span class="PrakritGatha">बोह णिमित्ते सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु। तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मूढु ण तत्थु।84।</span>=<span class="HindiText">इस लोक में नियम से ज्ञान के निमित्त शास्त्र पढ़े जाते हैं परंतु शास्त्र के पढ़ने से भी जिसको उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, वह क्या मूढ़ नहीं है ? है ही ! </span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/2/191</span> <span class="PrakritGatha">घोरु करंतु वि तवचरणु सयल वि सत्थ मुणंतु। परमसमाहि-विवज्जियउ णवि देक्खइ सिउ संतु।191।</span>=<span class="HindiText">महा दुर्धर तपश्चरण करता हुआ और सब शास्त्रों को जानता हुआ भी, जो परम समाधि से रहित है वह शांतरूप शुद्धात्मा को नहीं देख सकता।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/284 में उद्धृत </span><span class="PrakritText">"णियदव्वजाणणट्ठं इयरं कहियं जिणेहिं छद्दव्वं। तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं।" = </span><span class="HindiText">जिनेंद्र भगवान् ने निजद्रव्य को जानने के लिए ही अन्य छह द्रव्यों का कथन किया है, अत: मात्र उन पररूप छ: द्रव्यों का जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है।</span><br /> | |||
आराधनासार/ | <span class="GRef">आराधनासार/मूल/111,54 </span><span class="SanskritText">अति करोतु तप: पालयतु संयमं पठतु सकलशास्त्राणि। यावन्न ध्यायत्यात्मानं तावन्न मोक्षो जिनो भवति।111। सकलशास्त्रसेवितां सूरिसंघानदृढयतु च तपश्चाभ्यस्तु स्फीतयोगम् । चरतु विनयवृत्तिं बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलास: सर्वमेतन्न किंचित् ।54।</span>=<span class="HindiText">तप करो, संयम पालो, सकल शास्त्रों को पढो परंतु जब तक आत्मा को नहीं ध्याता तब तक मोक्ष नहीं होता।111। सकल शास्त्रों का सेवन करने में भले आचार्य संघ को दृढ़ करो, भले ही योग में दृढ़ होकर तप का अभ्यास करो, विनयवृत्ति का आचरण करो, विश्व के तत्त्वों को जान जाओ, परंतु यदि विषय विलास है तो सबका सब अकिंचित्कर है।54।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> योगसार अमितगति/7/43</span> <span class="SanskritText">आत्मध्यानरतिर्ज्ञेयं विद्वत्ताया: परं फलम् । अशेषशास्त्रशास्तृत्वं संसारोऽभाषि धीधनै:।43।</span>=<span class="HindiText">विद्वान् पुरुषों ने आत्मध्यान में प्रेम होना विद्वत्ता का उत्कृष्ट फल बतलाया है और आत्मध्यान में प्रेम न होकर केवल अनेक शास्त्रों को पढ़ लेना संसार कहा है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/271 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार/ आत्मख्याति/277</span><span class="SanskritText"> नाचारादिशब्दश्रुतमेकांतेन ज्ञानस्याश्रय: तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात् ।</span>=<span class="HindiText">मात्र आचारांगादि शब्द श्रुत ही (एकांत से) ज्ञान का आश्रय नहीं है, क्योंकि उसके सद्भाव में भी अभव्यों को शुद्धात्मा के अभाव के कारण ज्ञान का अभाव है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/466 </span><span class="PrakritGatha">जो णवि जाणदि अप्पं णाणसरूवं सरीरदो भिण्णं। सो णवि जाणदि सत्थं आगमपाढं कुणंतो वि।466।</span>=<span class="HindiText">जो ज्ञानस्वरूप आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता वह आगम का पठन-पाठन करते हुए भी शास्त्र को नहीं जानता।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/101 </span><span class="SanskritText">पुद्गलपरिणाम:....व्याप्यव्यापकभावेन....न करोति....इति यो जानाति...निर्विकल्पसमाधौ स्थित: सन् स ज्ञानी भवति। न च परिज्ञान मात्रेणेव।</span>=<span class="HindiText">ʻआत्मा व्याप्यव्यापकभाव से पुद्गल का परिणाम नहीं करता है’ यह बात निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर जो जानता है वह ज्ञानी होता है। परिज्ञान मात्र से नहीं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/237 </span><span class="SanskritText">जीवस्यापि परमागमाधारेण सकलपदार्थज्ञेयाकारकरावलंबितविशदैकज्ञानरूपं स्वात्मानं जानतोऽपि ममात्मैवोपादेय इति निश्चयरूपं यदि श्रद्धानं नास्ति तदास्य प्रदीपस्थानीय आगम: किं करोति न किमपि।</span>=<span class="HindiText">परमागम के आधार से, सकलपदार्थों के ज्ञेयाकार से अवलंबित विशद एक ज्ञानरूप निजआत्मा को जानकर भी यदि मेरी यह आत्मा ही उपादेय है ऐसा निश्चयरूप श्रद्धान न हुआ तो उस जीव की प्रदीपस्थानीय यह आगम भी क्या करे।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/463 </span><span class="SanskritText"> स्वात्मानुभूतिमात्रं स्यादास्तिक्यं परमो गुण:। भवेन्मा वा परद्रव्ये ज्ञानमात्रं परत्वत: ।463।</span> =<span class="HindiText">केवल स्वात्मा की अनुभूतिरूप आस्तिक्य ही परमगुण है। किंतु परद्रव्य में वह आस्तिक्य केवल स्वानुभूतिरूप हो अथवा न भी हो।<br /> | |||
और भी देखें [[ ज्ञान#III.2.9 | ज्ञान - III.2.9 ]](मिथ्यादृष्टि का आगमज्ञान अकिंचित्कर है।)<br /> | और भी देखें [[ ज्ञान#III.2.9 | ज्ञान - III.2.9 ]](मिथ्यादृष्टि का आगमज्ञान अकिंचित्कर है।)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> व्यवहार सम्यग्ज्ञान निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.1" id="4.2.1">व्यवहारज्ञान निश्चय का साधन है तथा इसका कारण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/297 (उद्धृत) </span><span class="PrakritGatha">उक्तं चान्यत्र ग्रंथे:–दव्वसुयादो भावं तत्तो उहयं हवेइ संवेदं। तत्तो संवित्ती खलु केवलणाणं हवे तत्तो।297।</span>=<span class="HindiText">अन्यत्र ग्रंथ में कहा भी है कि द्रव्य श्रुत के अभ्यास से भाव होते हैं, उससे बाह्य और अभ्यंतर दोनों प्रकार का संवेदन होता है, उससे शुद्धात्मा की संवित्ति होती है और उससे केवलज्ञान होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/6 </span><span class="SanskritText">तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञानं कथ्यते।–निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चय ज्ञानं भण्यते (पृष्ठ 184/4)।</span>=<span class="HindiText">उस विकल्परूप व्यवहार ज्ञान के द्वारा साध्य निश्चय ज्ञान का कथन करते हैं। निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान को ही निश्चय ज्ञान कहते हैं। (और भी देखें समयसार )।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.2" id="4.2.2"> आगमज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहना उपचार है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/34 </span><span class="SanskritText">श्रुतं हि तावत्सूत्रम् ।....तज्ज्ञप्तिर्हि ज्ञानम् । श्रुतं तु तत्कारणत्वात् ज्ञानत्वेनोपचर्यत एव।"</span> =<span class="HindiText">श्रुत ही सूत्र है। उस (शब्द ब्रह्मरूप सूत्र) की ज्ञप्ति सो ज्ञान है। श्रुत (सूत्र) उसका कारण होने से ज्ञान के रूप में उपचार से ही कहा जाता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2.3" id="4.2.3"> व्यवहारज्ञान प्राप्ति का प्रयोजन</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/415 </span><span class="PrakritGatha">जो समयपाहुडमिणं पढिउण अत्थतच्चओ णाउं। अत्थे वट्टी चेया सो होही उत्तमं सोक्खं।415।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा इस समयप्राभृत को पढ़कर अर्थ और तत्त्व को जानकर उसके अर्थ में स्थित होगा, वह उत्तम सौख्यस्वरूप होगा।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/88,154,232 </span><span class="PrakritText"> जो मोहरागदोसो गिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण। तं सब्भावणिबद्धं सव्वसहावं तिहा समक्खादं। जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्मि।154। एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु। णिच्छित्ती आगमदो आगम चेट्ठा ततो जेट्ठा।232।</span>=<span class="HindiText">जो जिनेंद्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह, राग, द्वेष को हनता है वह अल्पकाल में सर्व दु:खों से मुक्त होता है।88। जो जीव उस अस्तित्व निष्पन्न तीन प्रकार से कथित द्रव्य स्वभाव को जानता है वह अन्य द्रव्यों में मोह को प्राप्त नहीं होता।154। श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान के होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है अत: आगम में व्यापार मुख्य है।232।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/ मूल/126</span><span class="PrakritGatha"> कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं।126।</span>=<span class="HindiText">यदि श्रमण कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है, ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्य रूप परिणमित न ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है। <span class="GRef">( प्रवचनसार/ मूल/160)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/मूल/103</span> <span class="PrakritGatha">एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता। जो मुयदि रागदोसे सा गाहदि दुक्खपरिमोक्खं।103।"</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार प्रवचन के सारभूत ʻपंचास्तिकायसंग्रह’ को जानकर जो रागद्वेष को छोड़ता है वह दु:ख से परिमुक्त होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/284 में उद्धृत </span>–<span class="PrakritText">णियदव्वजाणणट्ठ इयरं कहियं जिणेहिं छद्दव्वं।</span>=<span class="HindiText">निज द्रव्य को जानने के लिए ही जिनेंद्र भगवान् ने अन्य छह द्रव्यों का कथन किया है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">आत्मानुशासन/174-175</span><span class="SanskritGatha"> ज्ञानस्वभाव: स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युति:। तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।174। ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाध्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्रमृग्यते।175।</span><span class="HindiText">=मुक्ति की अभिलाषा करने वाले को मात्र ज्ञानभावना का चिंतवन करना चाहिए कि जिससे अविनश्वर ज्ञान की प्राप्ति होती है परंतु अज्ञानी प्राणी ज्ञानभावना का फल ऋद्धि आदि की प्राप्ति समझते हैं, सो उनके प्रबल मोह की महिमा है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार/ आत्मख्याति/153/कलश 105</span><span class="SanskritText"> यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं, शिवस्यायं हेतु: स्वयमपि यतस्तच्छिव इति। अतोऽंयद्बंधस्य स्वयमपि यतो बंध इति तत्, ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम् ।105।</span>=<span class="HindiText">जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूप से और अचलरूप से ज्ञानस्वरूप होता हुआ या परिणमता हुआ भासित होता है, वही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है। उसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ है वह बंध का हेतु है, क्योंकि वह स्वयमेव बंधस्वरूप है। इसलिए आगम में ज्ञानस्वरूप होने का अर्थात् अनुभूति करने का ही विधान है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/172</span><span class="SanskritText"> द्विविधं किल तात्पर्यम्-सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यंचेति। तत्र सूत्रतात्पर्यं प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् । शास्त्रतात्पर्यत्विदं प्रतिपाद्यते। अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य...साक्षांमोक्षकारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रांतसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति।</span>=<span class="HindiText">तात्पर्य दो प्रकार का होता है–सूत्र तात्पर्य और शास्त्र तात्पर्य। उसमें सूत्र तात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रतिपादित किया गया है और शास्त्र तात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है। साक्षात् मोक्ष के कारणभूत परमवीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है ऐसे इस (पंचास्तिकाय, षट्द्रव्य सप्ततत्त्व व नवपदार्थ के प्रतिपादक) यथार्थ पारमेश्वर शास्त्र का, परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है। <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/187 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/14 </span> <span class="SanskritText">सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्यविभागपरिज्ञानश्रद्धानविधानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थसूत्र:।</span>=<span class="HindiText">सूत्रों के अर्थ के ज्ञानबल से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के परिज्ञान में, श्रद्धान में और विधान में समर्थ होने से जो श्रमण पदार्थों को और सूत्रों को जिन्होंने भलीभाँति जान लिया है...।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/3</span> <span class="SanskritText">ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थं शब्दसमयसंबोधनार्थसमयोऽभिधातुमभिप्रेत:।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानसमय की प्रसिद्धि के लिए शब्दसमय के संबंध से अर्थसमय का कथन करना चाहते हैं।</span><BR><span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/89,90/111/19 </span><span class="SanskritText">ज्ञानात्मकमात्मानं जानाति यदि।...परं च यथो चितचेतनाचेतनपरकीयद्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । कस्मात् निश्चयत: निश्चयानुकूलं भेदज्ञानमाश्रित्य। य: स...मोहस्य क्षयं करोतीति सूत्रार्थ:। अथ पूर्वसूत्रे यदुक्तं स्वपरभेदविज्ञानं तदागमत: सिद्धयतीति प्रतिपादयति।</span>=<span class="HindiText">यदि कोई पुरुष ज्ञानात्मक आत्मा को तथा यथोचितरूप से परकीय चेतनाचेतन द्रव्यों को निश्चय के अनुकूल भेदज्ञान का आश्रय लेकर जानता है तो वह मोह का क्षय कर देता है। और यह स्व-परभेद विज्ञान आगम से सिद्ध होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति /173/254/19</span> <span class="SanskritText">श्रुतभावनाया: फलं जीवादितत्त्वविषये संक्षेपेण हेयोपादेयतत्त्वविषये वा संशयविमोहविभ्रमरहितो निश्चलपरिणामो भवति।</span>=<span class="HindiText">श्रुतभावना का फल, जीवादि तत्त्वों के विषय में अथवा हेयोपादेय तत्त्व के विषय में संशय विमोह व विभ्रम रहित निश्चल परिणाम होना है।</span> <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/1/7/7 </span><span class="SanskritText">प्रयोजनं तु व्यवहारेण षड्द्रव्यादिपरिज्ञानम्, निश्चयेन निजनिरंजनशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पंनपरमानंदैकलक्षणसुखामृतरसास्वादरूपं स्वसंवेदनज्ञानम् ।</span>=<span class="HindiText">इस शास्त्र का प्रयोजन व्यवहार से तो षट्द्रव्य आदि का परिज्ञान है और निश्चय से निज निरंजन शुद्धात्म संवित्ति से उत्पन्न परमानंदरूप एक लक्षण वाले सुखामृत के रसास्वादरूप स्वसंवेदन ज्ञान है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/20/10/6 </span><span class="SanskritText">शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयं शेषं च हेयम् । इति हेयोपादेयरूपेण भावार्थोऽप्यवबोद्धव्य:।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध नय के आश्रित जो जीव का स्वरूप है, वह तो उपादेय है और शेष सब हेय है। इस प्रकार हेयोपादेय रूप से भावार्थ भी समझना चाहिए। | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> निश्चय व्यवहार ज्ञान का समन्वय</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.3.1" id="4.3.1">निश्चय ज्ञान का कारण प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/295 </span><span class="SanskritText"> एतदेव किलात्मबंधयोर्द्विधाकरणस्य प्रयोजनं यद्बंधत्यागेन शुद्धात्मोपादानम् ।</span>=<span class="HindiText">वास्तव में यही आत्मा और बंध के द्विधा करने का प्रयोजन है कि बंध के त्याग से शुद्धात्मा को ग्रहण करना है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/127 </span><span class="SanskritText">एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेद: सम्यग्ज्ञानिनां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति। </span>=<span class="HindiText">इस प्रकार यहाँ जीव और अजीव का वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियों के मार्ग की प्रसिद्धि के हेतु प्रतिपादित किया गया है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/25 </span><span class="SanskritText">एवं देहात्मनोर्भेदज्ञानं ज्ञात्वा मोहोदयोत्पन्नसमस्तविकल्पजालं त्यक्त्वा निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रे निजपरमात्मतत्त्वे भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार देह और आत्मा के भेदज्ञान को जानकर, मोह के उदय से उत्पन्न समस्त विकल्पजाल को त्यागकर निर्विकार चैतन्यचमत्कार मात्र निजपरमात्म तत्त्व में भावना करनी चाहिए, ऐसा तात्पर्य है।</span><br /> | |||
<li | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/182/246/17 </span><span class="SanskritText">भेदविज्ञाने जाते सति मोक्षार्थी जीव: स्वद्रव्ये प्रवृत्तिं परद्रव्ये निवृत्तिं च करोतीति भावार्थ:। </span>=<span class="HindiText">भेद विज्ञान हो जाने पर मोक्षार्थी जीव स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्यों में निवृत्ति करता है, ऐसा भावार्थ है।</span> <br> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/3 </span><span class="SanskritText">निश्चयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं...उपादेय:। शेषं च हेयमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारमिति।...तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञानं...।...स्वस्य सम्यग्निर्विकल्परूपेण वेदनं...निश्चयज्ञानं भण्यते। </span>=<span class="HindiText">निश्चय से स्वकीय शुद्धात्मद्रव्य उपादेय है और शेष सब हेय है। इस प्रकार संक्षेप से हेयोपादेय के भेद से दो प्रकार व्यवहारज्ञान है। उसके विकल्परूप व्यवहारज्ञान के द्वारा निश्चयज्ञान साध्य है। सम्यक् व निर्विकल्प अपने स्वरूप का वेदन करना निश्चयज्ञान है।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="4.3.2" id="4.3.2"> निश्चय व्यवहारनय का समन्वय</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/263/354/23 </span><span class="SanskritText"> बहिरंगपरमागमाभ्यासैनाभ्यंतरे स्वसंवेदनज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् ।</span>=<span class="HindiText">बहिरंग परमागम के अभ्यास से अभ्यंतर स्वसंवेदन ज्ञान का होना सम्यग्ज्ञान है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/29/149/2 </span><span class="SanskritText"> अयमत्र भावार्थ:। व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां तत्त्वविचारकाले स्वपरपरिच्छेदकं ज्ञानं भण्यते। निश्चयनयेन पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले बहिरुपयोगो यद्यप्यनीहितवृत्त्या निरस्तस्तथापीहापूर्वकविकल्पाभावाद्गौणत्वमिति कृत्वा स्वसंवेदनज्ञानमेव ज्ञानमुच्यते।</span>=<span class="HindiText">यहाँ यह भावार्थ है कि व्यवहारनय से तो तत्त्व का विचार करते समय सविकल्प अवस्था में ज्ञान का लक्षण स्वपरपरिच्छेदक कहा जाता है। और निश्चयनय से वीतराग निर्विकल्प समाधि के समय यद्यपि अनीहित वृत्ति से उपयोग में से बाह्यपदार्थों का निराकरण किया जाता है–फिर भी ईहापूर्वक विकल्पों का अभाव होने से उसे गौण करके स्वसंवेदन ज्ञान को ही ज्ञान कहते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/96/154/8 </span><span class="SanskritText">हे भगवन्, धर्मास्तिकायोऽयं जीवोऽयमित्यादिज्ञेयतत्त्वविचारकाले क्रियमाणे यदि कर्मबंधो भवतीति तर्हि ज्ञेयतत्त्वविचारो वृथेति न कर्तव्य:। नैवं वक्तव्यं। त्रिगुप्तिपरिणतनिर्विकल्पसमाधिकाले यद्यपि न कर्तव्यस्तथापि तस्य त्रिगुप्तिध्यानस्याभावे शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा आगमभाषया पुन: मोक्षमुपादेयं कृत्वा सरागसम्यक्त्वकाले विषयकषायवंचनार्थं कर्तव्य:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–हे भगवन् ! ‘यह धर्मास्तिकाय है, यह जीव है’ इत्यादि ज्ञेयतत्त्व के विचारकाल में किये गये विकल्पों से यदि कर्मबंध होता है तो ज्ञेयतत्त्व का विचार करना वृथा है, इसलिए वह नहीं करना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं कहना चाहिए। यद्यपि त्रिगुप्ति गुप्त निर्विकल्प समाधि के समय वह नहीं करना चाहिए तथापि उस त्रिगुप्तिरूप ध्यान का अभाव हो जाने पर शुद्धात्म को उपादेय समझते हुए या आगम भाषा में एक मात्र मोक्ष को उपादेय करके सराग सम्यक्त्व के काल में विषय कषाय से बचने के लिए अवश्य करना चाहिए। (न.च.लघु/77)। | |||
और भी देखें [[ नय#V.9.4 | नय - V.9.4 ]](निश्चय व व्यवहार सम्यग्ज्ञान में साध्यसाधन भाव)।</span></li> | और भी देखें [[ नय#V.9.4 | नय - V.9.4 ]](निश्चय व व्यवहार सम्यग्ज्ञान में साध्यसाधन भाव)।</span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> जीव का अबाधित गुण । इससे स्व और पर का बोध होता है । यह धर्म-अधर्म, हित-अहित, | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> जीव का अबाधित गुण । इससे स्व और पर का बोध होता है । यह धर्म-अधर्म, हित-अहित, बंध-मोक्ष का बोधक तथा देव, गुरु और धर्म की परीक्षा का साधन है । यह मतिज्ञान आदि के भेद से पाँच प्रकार का होता है । प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से इसके दो भेद हैं । इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-परोक्ष तथा अवधि, मनपर्याय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है । <span class="GRef"> महापुराण 24.92,62.7, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_97#28|पद्मपुराण - 97.28]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#106|हरिवंशपुराण - 2.106]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 22.71, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.15 </span></p> | ||
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Latest revision as of 22:24, 24 February 2024
सिद्धांतकोष से
ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पाँच प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्वरूप मानता है, इसी से मिथ्याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्यक्त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान वास्तव में सम्यक् मिथ्या नहीं होता, परंतु सम्यक्त्व या मिथ्यात्व के सहकारीपने से सम्यक् मिथ्या नाम पाता है। सम्यग्ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसको प्रगट करने में निमित्तभूत आगमज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है। तहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में मोक्ष का कारण है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं।
- ज्ञान सामान्य
- भेद व लक्षण
- ज्ञान का लक्षण बहिर्चित्प्रकाश–देखें दर्शन - 1.3.5।
- भूतार्थ ग्रहण का नाम ज्ञान है।
- मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भूतार्थ ग्राहक कैसे है?
- अनेक अपेक्षाओं से ज्ञान के भेद।
- क्षायिक व क्षयोपशमिक रूप भेद–(देखें क्षय व देखें क्षयोपशम )
- सम्यक् व मिथ्यारूप भेद–देखें ज्ञान-3.1.1।
- स्वभाव विभाव तथा कारण-कार्य ज्ञान–देखें उपयोग - I.1।
- स्वार्थ व परार्थ ज्ञान–देखें प्रमाण - 1 व अनुमान/1।
- प्रत्यक्ष, परोक्ष व मति श्रुतादि ज्ञान–देखें वह वह नाम ।
- धारावाहिक ज्ञान–देखें श्रुतज्ञान - I.1।
- ज्ञान का लक्षण बहिर्चित्प्रकाश–देखें दर्शन - 1.3.5।
- ज्ञान निर्देश
- ज्ञान व दर्शन संबंधी चर्चा– देखें दर्शन उपयोग -2।
- श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र तीनों कथंचित् ज्ञानरूप हैं–देखें मोक्षमार्ग - 3.3।
- श्रद्धान व ज्ञान में अंतर–देखें सम्यग्दर्शन - I.4।
- प्रज्ञा व ज्ञान में अंतर–देखें ऋद्धि - 2.7.3।
- ज्ञान व उपयोग में अंतर–देखें उपयोग - I.2।
- ज्ञानोपयोग साकार है–देखें आकार - 1.5।
- ज्ञान का कथंचित् सविकल्प व निर्विकल्पपना–देखें विकल्प ।
- प्रत्येक समय नया ज्ञान उत्पन्न होता है–देखें अवधिज्ञान - 2।
- अर्थ प्रतिअर्थ परिणमन करना ज्ञान का नहीं; राग का कार्य है–देखें राग - 2।
- ज्ञान की तरतमता सहेतुक है–देखें कर्म - 3.2।
- ज्ञानोपयोग में ही उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्धि संभव है–देखें विशुद्धि ।
- क्षायोपशमिक ज्ञान कथंचित् मूर्तिक है–देखें मूर्त - 7।
- ज्ञान का ज्ञेयार्थ परिणमन संबंधी–देखें केवलज्ञान - 6।
- ज्ञान का ज्ञेयरूप परिणमन का तात्पर्य–देखें कारक - 2.5।
- ज्ञान मार्गणा में अज्ञान का भी ग्रहण क्यों।–देखें मार्गणा - 7।
- ज्ञान के अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प है।–देखें गुण - 2.10।
- ज्ञान व दर्शन संबंधी चर्चा– देखें दर्शन उपयोग -2।
- ज्ञान का स्वपरप्रकाशपना
- स्वपरप्रकाशकपने की अपेक्षा ज्ञान का लक्षण।
- स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है।
- प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है।
- निश्चय व व्यवहार दोनों ज्ञान कथंचित् स्वपरप्रकाशक है।
- ज्ञान के स्व-प्रकाशकत्व में हेतु।
- ज्ञान के पर-प्रकाशकत्व की सिद्धि।
- ज्ञान व दर्शन दोनों संबंधी स्वपरप्रकाशकत्व में हेतु व समन्वय।–देखें दर्शन उपयोग - 2 ।
- निश्चय से स्वप्रकाशक और व्यवहार से परप्रकाशक कहने का समन्वय–देखें केवलज्ञान - 6।
- स्व व पर दोनों को जाने बिना वस्तु का निश्चय ही नहीं हो सकता–देखें सप्तभंगी - 4.1।
- स्वपरप्रकाशकपने की अपेक्षा ज्ञान का लक्षण।
- ज्ञान के पाँचों भेदों संबंधी
- पाँचों ज्ञानों के लक्षण व विषय–देखें वह वह नाम ।
- पाँचों ज्ञानों का अधिगमज व निसर्गजपना।–देखें अधिगम ।
- पाँचों भेद ज्ञानसामान्य के अंश है।
- पाँचों का ज्ञानसामान्य के अंश होने में शंका।
- मति आदि ज्ञान केवलज्ञान के अंश है।
- मति आदि का केवलज्ञान के अंश होने में विधि साधक शंका समाधान।
- मति आदि ज्ञान केवलज्ञान के अंश नहीं हैं।
- मति आदि का केवलज्ञान के अंश होने व न होने का समन्वय।
- सामान्य ज्ञान केवलज्ञान के बराबर है।
- पाँचों ज्ञानों को जानने का प्रयोजन।
- पाँचों ज्ञानों का स्वामित्व।
- एक जीव में युगपत् संभव ज्ञान।
- ज्ञान मार्गणा में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम–देखें मार्गणा- 6 ।
- ज्ञान मार्गणा में गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि के स्वामित्व विषयक 20 प्ररूपणाएँ–देखें सत् ।
- ज्ञानमार्गणा संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- कौन ज्ञान से मरकर कहाँ उत्पन्न हो ऐसी गति अगति प्ररूपणा–देखें जन्म - 6।
- पाँचों ज्ञानों के लक्षण व विषय–देखें वह वह नाम ।
- भेद व लक्षण
- भेद व अभेद ज्ञान
- भेद व अभेद ज्ञान निर्देश
- भेद ज्ञान का प्रयोजन।–देखें ज्ञान - 4.3.1।
- पर के साथ एकत्व का अभिप्राय–देखें कारक - 2।
- दो द्रव्यों में अथवा जीव व शरीर में भेद–देखें कारक - 2।
- निश्चय सम्यग्दर्शन ही भेदज्ञान है–देखें सम्यग्दर्शन - II.1।
- भेद ज्ञान का प्रयोजन।–देखें ज्ञान - 4.3.1।
- भेद व अभेद ज्ञान निर्देश
- सम्यक मिथ्या ज्ञान
- भेद व लक्षण
- श्रुत आदि ज्ञान व अज्ञानों के लक्षण–देखें वह वह नाम ।
- सम्यक् व मिथ्याज्ञान निर्देश
- ज्ञान के साथ सम्यक् विशेषण का सार्थक्य।–देखें ज्ञान - III.1/2 में सम्यग्ज्ञान का लक्षण/2।
- सम्यग्ज्ञान में चारित्र की सार्थकता–देखें चारित्र - 2।
- सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है।
- सम्यग्दर्शन भी कथंचित् ज्ञानपूर्वक होता है।
- सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान की व्याप्ति है पर ज्ञान के साथ सम्यग्दर्शन की नहीं।
- सम्यक्त्व हो जाने पर पूर्व का ही मिथ्याज्ञान सम्यक् हो जाता है।
- वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहलाता है।
- मिथ्यादृष्टि का शास्त्रज्ञान भी मिथ्या है।
- मिथ्यादृष्टि का ठीक-ठीक जानना भी मिथ्या है।–देखें ऊपर नं - 8।
- सम्यग्ज्ञान में भी कदाचित् संशयादि–देखें नि:शंकित ।
- सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व को जानता है।
- भूतार्थ प्रकाशक ही ज्ञान का लक्षण है–देखें ज्ञान - I.1।
- मिथ्याज्ञान की अज्ञान संज्ञा है–देखें अज्ञान - 2।
- सम्यक् व मिथ्याज्ञानों की प्रामाणिकता व अप्रामाणिकता–देखें प्रमाण - 4.2।
- शाब्दिक सम्यग्ज्ञान–देखें आगम ।
- सम्यग्ज्ञान प्राप्ति में गुरु विनय का महत्त्व–देखें विनय - 2।
- सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्र ज्ञान–देखें मिश्र - 7।
- ज्ञानदान संबंधी विषय–देखें उपदेश - 3।
- रत्नत्रय में कथंचित् भेद व अभेद–देखें मोक्षमार्ग - 2,3।
- ज्ञान के साथ सम्यक् विशेषण का सार्थक्य।–देखें ज्ञान - III.1/2 में सम्यग्ज्ञान का लक्षण/2।
- सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में अंतर–देखें सम्यग्दर्शन - I.4।
- सम्यक् व मिथ्याज्ञान संबंधी शंका समाधान व समन्वय
- मिथ्याज्ञान को मिथ्या कहने का कारण–देखें ज्ञान - III.2.8।
- सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को अज्ञान क्यों नहीं कहते–देखें ज्ञान - III.2.8।
- ज्ञान व अज्ञान का समन्वय–देखें सम्यग्दृष्टि - 1 में ज्ञानी।
- भेद व लक्षण
- निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान
- निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश
- मार्गणा में भावज्ञान अभिप्रेत है–देखें मार्गणा ।
- जो एक को जानता है वही सर्व को जानता है–देखें श्रुत केवली
- निश्चयज्ञान ही वास्तव में प्रमाण है–देखें प्रमाण - 4।
- निश्चयज्ञान के अपर नाम–देखें मोक्षमार्ग - 2/5।
- स्वसंवेदन ज्ञान या शुद्धात्मानुभूति–देखें अनुभव ।
- मार्गणा में भावज्ञान अभिप्रेत है–देखें मार्गणा ।
- व्यवहार सम्यग्ज्ञान निर्देश
- निश्चय व्यवहार ज्ञान समन्वय
- व्यवहार ज्ञान का कारण प्रयोजन–देखें ज्ञान - IV.2.3।
- व्यवहार ज्ञान का कारण प्रयोजन–देखें ज्ञान - IV.2.3।
- निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश
- ज्ञान सामान्य
- भेद व लक्षण
- ज्ञान का सामान्य लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/1/6/1 जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानम् ।=जो जानता है वह ज्ञान है (कर्तृसाधन); जिसके द्वारा जाना जाय सो ज्ञान है (करण साधन); जानना मात्र ज्ञान है (भाव साधन)। ( राजवार्तिक/1/1/24/9/1;26/9/12 ); ( धवला 1/1,1,115/353/10 ); ( स्याद्वादमंजरी/16/215/27 )।
राजवार्तिक/1/1/5/5/1 एवंभूतनयवक्तव्यवशात् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणतात्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् ।=एवंभूतनय की दृष्टि में ज्ञानक्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है, क्योंकि, वह ज्ञानस्वभावी है।
देखें आकार - 1.5 साकारोपयोग का नाम ज्ञान है।
देखें विकल्प - 2 सविकल्प उपयोग का नाम ज्ञान है।
देखें दर्शन - 1.3 बाह्य चित्प्रकाश का तथा विशेष ग्रहण का नाम ज्ञान है।
- भूतार्थ ग्रहण का नाम ज्ञान है
धवला 1/1,1,4/142/3 भूतार्थप्रकाशनं ज्ञानम् ।...अथवा सद्भाव विनिश्चयोपलंभकं ज्ञानम् ।... शुद्धनयविवक्षायां तत्त्वार्थोपलंभकं ज्ञानम् ।...द्रव्यगुणपर्यायाननेन जानातीति ज्ञानम् ।=- सत्यार्थ का प्रकाश करने वाली शक्ति विशेष का नाम ज्ञान है।
- अथवा सद्भाव अर्थात् वस्तुस्वरूप का निश्चय करने वाले धर्म को ज्ञान कहते हैं। शुद्धनय की विवक्षा में वस्तुस्वरूप का उपलंभ करने वाले धर्म को ही ज्ञान कहा है।
- जिसके द्वारा द्रव्य गुण पर्यायों को जानते हैं उसे ज्ञान कहते हैं। (पं.7/2,1,3/7/2)।
स्याद्वादमंजरी/16/221/28 सम्यगवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संवित् ।=जिससे यथार्थ रीति से वस्तु जानी जाय उसे संवित् (ज्ञान) कहते हैं।
देखें ज्ञान - III.2.11 सम्यग्ज्ञान को ही ज्ञान संज्ञा है।
- मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भूतार्थ ग्राहक कैसे हो सकता है
धवला 1/1,1,4/142/3 मिथ्यादृष्टिनां कथं भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, सम्यङ्मिथ्यादृष्टिनां प्रकाशस्य समानतोपलंभात् । कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न (देखें ज्ञान - III.3.3)–विपर्यय: कथं भूतार्थ प्रकाशकमिति चेन्न, चंद्रमस्युपलभ्यमानद्वित्वस्यांयत्र सत्त्वस्तस्य भूतत्वोपपत्ते:।=प्रश्न=मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान भूतार्थ प्रकाशक कैसे हो सकता है? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के प्रकाश में समानता पायी जाती है। प्रश्न—यदि दोनों के प्रकाश में समानता पायी जाती है तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकता है? उत्तर–(देखें वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहलाता है ) प्रश्न–(मिथ्यादृष्टि का ज्ञान विपर्यय होता है) वह सत्यार्थ का प्रकाशक कैसे हो सकता है? उत्तर–ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, चंद्रमा में पाये जानेवाले द्वित्व का दूसरे पदार्थों में सत्त्व पाया जाता है। इसलिए उस ज्ञान में भूतार्थता बन जाती है।
- अनेक प्रकार से ज्ञान के भेद
- ज्ञान मार्गणा की अपेक्षा आठ भेद
षट्खंडागम/1/1,1/ सूत्र 115/353 णाणाणुवादेण अत्थि मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी चेदि।=ज्ञानमार्गणा के अनुवाद से मत्यज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी (मतिज्ञानी), श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीव होते हैं। (मूलाचार/228) ( पंचास्तिकाय/41 ); ( राजवार्तिक/9/7/11/604/8 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/42 )।
- प्रत्यक्ष परोक्ष की अपेक्षा भेद
धवला 1/1,1,115/ पृष्ठ /पंक्ति तदपि ज्ञानं द्विविधम् प्रत्यक्षं परोक्षमिति। परोक्षं द्विविधम्, मति: श्रुतमिति। (353/12)। प्रत्यक्षं त्रिविधम्, अवधिज्ञानं, मन:पर्ययज्ञानं, केवलज्ञानमिति। (358/1)। =वह ज्ञान दो प्रकार का है–प्रत्यक्ष और परोक्ष। परोक्ष के दो भेद हैं–मतिज्ञान व श्रुतज्ञान। प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं–अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। (विशेष देखो प्रमाण 1 तथा प्रत्यक्ष व परोक्ष)।
- निक्षेपों की अपेक्षा भेद
धवला 9/4,1,45/184/7 णामट्ठवणादव्वभावभेएण चउव्विहं णाणं।=नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से ज्ञान चार प्रकार का है–(विशेष देखें निक्षेप )।
- विभिन्न अपेक्षाओं से भेद
राजवार्तिक/1/6/5/34/29 चैतन्यशक्तेर्द्वावकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च।
राजवार्तिक/1/7/14/41/2 सामान्यादेकं ज्ञानम् प्रत्यक्षपरोक्षभेदाद् द्विधा, द्रव्यगुणपर्यायविषयभेदात्विधा नामादिविकल्पाच्चतुधा, मत्यादिभेदात् पंचधा इत्येवं संख्येयासंख्येयानंतविकल्पं च भवति ज्ञेयाकारपरिणतिभेदात् ।=चैतन्य शक्ति के दो आकार हैं–ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार।...सामान्यरूप से ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है, द्रव्य गुण पर्याय रूप विषयभेद से तीन प्रकार का है। नामादि निक्षेपों के भेद से चार प्रकार का है। मति आदि की अपेक्षा पाँच प्रकार का है। इस प्रकार ज्ञेयाकार परिणति के भेद से संख्यात असंख्यात व अनंत विकल्प होते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/5 संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति।=संक्षेप से हेय व उपादेय भेदों से व्यवहार ज्ञान दो प्रकार का है।
- ज्ञान मार्गणा की अपेक्षा आठ भेद
- ज्ञान का सामान्य लक्षण
- ज्ञान निर्देश
- ज्ञान की सत्ता इंद्रियों से निरपेक्ष है
कषायपाहुड़/1/1,1/34/49/4 करणजणिदत्तादो णेदं णाणं केवलणाणमिदि चे; ण; करणवावारादो पुव्वं णाणाभावेण जीवाभावप्पसंगादो। अत्थि तत्थणाणसामण्णं ण णाणविसेसो तेण जीवाभावो ण होदि त्ति चे; ण; तब्भावलक्खणसामण्णादो पुधभूदणाणविसेसाणुवलंभादो।=प्रश्न–इंद्रियों से उत्पन्न होने के कारण मतिज्ञान आदि को केवलज्ञान (के अंश–देखें आगे ज्ञान - I.4) नहीं कहा जा सकता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि यदि ज्ञान इंद्रियों से ही पैदा होता है, ऐसा मान लिया जाये, तो इंद्रिय व्यापार के पहिले जीव के गुणस्वरूप ज्ञान का अभाव हो जाने से गुणी जीव के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न–इंद्रिय व्यापार के पहिले जीव में ज्ञानसामान्य रहता है, ज्ञानविशेष नहीं, अत: जीव का अभाव नहीं प्राप्त होता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, तद्भाव लक्षण सामान्य से अर्थात् ज्ञानसामान्य से ज्ञानविशेष पृथग्भूत नहीं पाया जाता है।
कषायपाहुड़/1/1-1/54/3 जीवदव्वस्स इंदिएहिंतो उप्पत्ती मा होउ णाम, किंतु तत्तो णाणमुप्पज्जदि त्ति चे; ण; जीववदिरित्तणाणाभावेण जीवस्स वि उप्पत्तिप्पसंगादो। होदु च; ण; अणेयंतप्पयस्य जीवदव्वस्स पत्तजच्चंतरभावस्स णाणदंसणलक्खणस्स एअंतवाइविसईकय-उप्पाय-वयधुत्ताणमभावादो।=प्रश्न–इंद्रियों से जीव द्रव्य की उत्पत्ति मत होओ, किंतु उनसे ज्ञान की उत्पत्ति होती है, यह अवश्य मान्य है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जीव से अतिरिक्त ज्ञान नहीं पाया जाता है, इसलिए इंद्रियों से ज्ञानी की उत्पत्ति मान लेने पर उनसे जीव की भी उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न–यदि यह प्रसंग प्राप्त होता है तो होओ ? उत्तर–नहीं, क्योंकि अनेकांतात्मक जात्यंतर भाव को प्राप्त और ज्ञानदर्शन लक्षणवाले जीव में एकांतवादियों द्वारा माने गये सर्वथा उत्पाद व्यय व ध्रुवत्व का अभाव है।
- ज्ञान की सत्ता इंद्रियों से निरपेक्ष है
- ज्ञान का स्वपर प्रकाशकपना
- स्वपर प्रकाशकपने की अपेक्षा ज्ञान का लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/124 स्वपरविभागेनावस्थिते विश्वं विकल्पस्तदाकारावभासनं। यस्तु मुकुरुहृदयाभाग इव युगपदवभासमानस्वपराकारार्थविकल्पस्तद् ज्ञानं।=स्व पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व ‘अर्थ’ है। उसके आकारों का अवभासन ‘विकल्प’ है। और दर्पण के निजविस्तार की भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ‘ज्ञान’ है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/541 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/391/837 )। - स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है
सर्वार्थसिद्धि/1/10/98/4 यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतु: स्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स एव, न प्रकाशांतरं मृग्यं तथा प्रमाणमपीति अवश्यं चैतदभ्युपगंतव्यम् ।=जिस प्रकार घटादि पदार्थों के प्रकाश करने में दीपक हेतु है, और अपने स्वरूप के प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशांतर नहीं ढूँढना पड़ता। उसी प्रकार प्रमाण भी है, यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए। ( राजवार्तिक/1/10/2/49/23 )।
परीक्षामुख/1/1 स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं/1/।=स्व व अपूर्व (पहिले से जिसका निश्चय न हो ऐसे) पदार्थ का निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है।
(सिद्धि विनिश्चय/मूल 1/3/12)प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार–स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् ।=स्व-पर व्यवसायी ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।
न्याय दीपिका/1/28/22 तस्मात्स्वपरावभासनसमर्थं सविकल्पकमगृहीतग्राहकं सम्यग्ज्ञानमेवाज्ञानमर्थे निवर्तयत्प्रमाणमित्यार्हतं मतम् ।=अत: यही निष्कर्ष निकला कि अपने तथा पर का प्रकाश करने वाला सविकल्पक और अपूर्वार्थग्राही सम्यग्ज्ञान ही पदार्थों के अज्ञान को दूर करने में समर्थ है। इसलिए वही प्रमाण है। इस तरह जैन मत सिद्ध हुआ।
- प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है
राजवार्तिक/1/10/13/50/32 तत: सिद्धमेतत्–प्रमेयम् नियमात् प्रमेयम्, प्रमाणं तु स्यात्प्रमाणं स्यात्प्रमेयम् इति।=निष्कर्ष यह है कि ‘प्रमेय’ नियम से प्रमेय ही है, किंतु ‘प्रमाण’ प्रमाण भी है और प्रमेय भी। विशेष देखें प्रमाण - 4।
- निश्चय व व्यवहार दोनों ज्ञान कथंचित् स्वपर प्रकाशक हैं
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159 अत्र ज्ञानिन: स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्तम् ।...पराश्रितो व्यवहार: इति वचनात् ।...ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्व-परप्रकाशकत्वं प्रदीपवत् । घटादिप्रमिते: प्रकाशो दीपस्तावद्भिन्नावपि स्वयं प्रकाशस्वरूपत्वात् स्वं परं च प्रकाशयति। आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परं ज्योति:स्वरूपत्वात् स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति।....अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभावनिरतत्वात् स्वाश्रितो निश्चय: इति वचनात् । सहजज्ञानं तावत् आत्मन: सकाशात् संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति। अत: कारणात् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानाति।=यहाँ ज्ञानी को स्व-पर स्वरूप का प्रकाशकपना कथंचित् कहा है। ‘पराश्रितो व्यवहार:’ ऐसा वचन होने से...इस ज्ञान का धर्म तो, दीपक की भाँति स्वपर प्रकाशकपना है। घटादि की प्रमिति से प्रकाश व दीपक दोनों कथंचित् भिन्न होने पर भी स्वयं प्रकाश स्वरूप होने से स्व और पर को प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योति स्वरूप होने से व्यवहार से त्रिलोक और त्रिकाल रूप पर को तथा स्वयं प्रकाश स्वरूप आत्मा को प्रकाशित करता है। अब ‘स्वाश्रितो निश्चय:’ ऐसा वचन होने से सतत निरुपरागनिरंजन स्वभाव में लीनता के कारण निश्चय पक्ष से भी स्वपरप्रकाशकपना है ही। (वह इस प्रकार) सहजज्ञान आत्मा से संज्ञा लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा भिन्न जाना जाता है, तथापि वस्तुवृत्ति से भिन्न नहीं है। इस कारण से यह आत्मगत दर्शन सुख चारित्रादि गुणों को जानता है और स्वात्मा को अर्थात् कारण परमात्मा के स्वरूप को भी जानता है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/397-399 ) (और भी देखें अनुभव /4/1)।
पंचाध्यायी x`/पूर्वार्ध/665-666 विधिपूर्व: प्रतिषेध: प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयो:। मैत्री प्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम् ।665। अयमर्थोऽर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वतस्तस्य। एकविकल्पो नयसादुभयविकल्प: प्रमाणमिति बोध:।666।=विधि पूर्वक प्रतिषेध और प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है, किंतु इन दोनों नयों की मैत्री प्रमाण है। अथवा स्वपर व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है।665। सारांश यह है कि निश्चय करके अर्थ के आकार रूप होना जो ज्ञान है वह प्रमाण का स्वयंसिद्ध लक्षण है। तथा एक (स्व् या पर के) विकल्पात्मक ज्ञान नयाधीन है और उभयविकल्पात्मक प्रमाणाधीन है। देखें दर्शन - 2.6-ज्ञान व दर्शन दोनों स्वपर प्रकाशक हैं।
- ज्ञान के स्व प्रकाशकत्व में हेतु
सर्वार्थसिद्धि/1/10/98/6 प्रमेयवत्प्रमाणस्य प्रमाणांतरपरिकल्पनायां स्वाधिगमाभावात् स्मृत्यभाव:। तदभावाद्व्यवहारलोप: स्याद् ।=यदि प्रमेय के समान प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्व का ज्ञान नहीं होने से स्मृति का अभाव हो जाता है। और स्मृति का अभाव हो जाने से व्यवहार का लोप हो जाता है।
लघीयस्त्रय/59 स्वहेतुजनितोऽप्यर्थ: परिछेद्य: स्वतो यथा। तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वत:।=अपने ही कारण से उत्पन्न होने वाले पदार्थ जिस प्रकार स्वत: ज्ञेय होते हैं, उसी प्रकार अपने कारण से उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी स्वत: ज्ञेयात्मक है। ( न्यायविनिश्चय/1/3/68/15 )।
परीक्षामुख/1/6-7,10-12 स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसाय:।6। अर्थस्येव तदुन्मुखतया।7। शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ।10। को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ।11। प्रदीपवत् ।12।=जिस प्रकार पदार्थ की ओर झुकने पर पदार्थ का ज्ञान होता है, उसी प्रकार ज्ञान जिस समय अपनी ओर झुकता है तो उसे अपना भी प्रतिभास होता है। इसी को स्व व्यवसाय अर्थात् ज्ञान का जानना कहते हैं।6-7। जिस प्रकार घटपटादि शब्दों का उच्चारण न करने पर भी घटपटादि पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार ‘ज्ञान’ ऐसा शब्द न कहने पर भी ज्ञान का ज्ञान हो जाता है।10। घटपटादि पदार्थों का और अपना प्रकाशक होने से जैसा दीपक स्वपरप्रकाशक समझा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान भी घट पट आदि पदार्थों का और अपना जानने वाला है, इसलिए उसे भी स्वपरस्वरूप का जानने वाला समझना चाहिए। क्योंकि ऐसा कौन लौकिक व परीक्षक है जो ज्ञान से जाने पदार्थ को तो प्रत्यक्ष का विषय माने और स्वयं ज्ञान को प्रत्यक्ष का विषय न माने।11-12।
- ज्ञान के परप्रकाशकपने की सिद्धि
परीक्षामुख/1/8-9 घटमहमात्मना वेद्मि।8। कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीते।9।=मैं अपने द्वारा घट को जानता हूँ इस प्रतीति में कर्म की तरह कर्ता, करण व क्रिया की भी प्रतीति होती है। अर्थात् कर्मकारक जो ‘घट’ उसही की भाँति कर्ताकारक ‘मैं’ व ‘अपने द्वारा जानना’ रूप करण व क्रिया की पृथक् प्रतीति हो रही है।
- स्वपर प्रकाशकपने की अपेक्षा ज्ञान का लक्षण
- ज्ञान के पाँचों भेदों संबंधी
- ज्ञान के पाँचों भेद पर्याय हैं
धवला 1/1,1,1/37/1 पर्यायत्वात्केवलादीनां = केवलज्ञानादि (पाँचों ज्ञान) पर्यायरूप हैं....
- पाँचों भेद ज्ञानसामान्य के अंश हैं
धवला 1/1,1,1/37/1 पर्यायत्वात्केवलादीनां न स्थितिरिति चेन्न, अत्रुट्यज्ज्ञानसंतानापेक्षया तत्स्थैर्यस्य विरोधाभावात् ।=प्रश्न–केवलज्ञानादि पर्यायरूप हैं, इसलिए आवृत अवस्था में उसका (केवलज्ञान का) सद्भाव नहीं बन सकता है ? उत्तर–यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कभी भी नहीं टूटने वाली ज्ञान संतान की (ज्ञान सामान्य की) अपेक्षा केवलज्ञान के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। (देखें ज्ञान - I.4.7)।
समयसार/ आत्मख्याति/204 यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थ: साक्षान्मोक्षोपाय:। न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिंदंति किंतु तेपीदमेवैकं पदमभिनंदंति।=यह ज्ञान (सामान्य) नामक एक पद परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है। यहाँ मतिज्ञानादि (ज्ञान के) भेद इस एक पद को नहीं भेदते किंतु वे भी इसी एक पद का अभिनंदन करते हैं। ( धवला 1/1,1,1/37/5 )।
ज्ञानबिंदु/पृष्ठ 1
केवलज्ञानावरण पूर्ण ज्ञान को आवृत करने के अतिरिक्त मंद ज्ञान को उत्पन्न करने में भी कारण है।
- ज्ञान सामान्य के अंश होने संबंधी शंका
धवला 6/1,9-1,5/7/1 ण सव्वावयवेहि णाणस्सुवलंभो होदु त्ति वोत्तुं जुत्तं, आवरिदणाणभागाणमुवलंभविरोहा। आवरिदणाणभागा सावरणे जीवे किमत्थि आहो णत्थि त्ति।...दव्वट्ठियणए अवलंविज्जमाणे आवरिदणाणभागा सावरणे वि जीवे अत्थि जीवदव्वादो पुधभूदणाणाभावा, विज्जमाणणाणभागादो आवरिदणाणभागाणमभेदादो वा। आवरिदाणावरिदाणं कधमेगत्तमिदि चे ण, राहु-मेहेहि आवरिदाणावरिदसुज्जिंदुमंडलभागाणमेगत्तुवलंभा।=प्रश्न–यदि सर्व जीवों के ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध है, तो फिर सर्व अवयवों के साथ ज्ञान उपलंभ होना चाहिए ? उत्तर–यह कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञान के भागों का उपलंभ मानने में विरोध आता है। प्रश्न–आवरण युक्त जीव में आवरण किये गये ज्ञान के भाग हैं अथवा नहीं है (सत् हैं या असत् हैं)? उत्तर–द्रव्यार्थिक नय के अवलंबन करने पर आवरण किये गये ज्ञान के अंश सावरण जीव में भी होते हैं, क्योंकि, जीव से पृथग्भूत ज्ञान का अभाव है। अथवा विद्यमान ज्ञान के अंश से आवरण किये गये ज्ञान के अंशों का कोई भेद नहीं है। प्रश्न–ज्ञान के आवरण किये गये और आवरण नहीं किये गये अंशों के एकता कैसे हो सकती है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, राहु और मेघों के द्वारा सूर्यमंडल चंद्रमंडल के आवरित और अनावरित भागों के एकता पायी जाती है। ( राजवार्तिक/8/6/4/5/571/4 )।
- मतिज्ञानादि भेद केवलज्ञान के अंश हैं
कषायपाहुड़/1/1,1/31/44/9 ण च केवलणाणमसिद्धं; केवलणाणस्स ससंवेयणपच्चक्खेण णिब्बाहेणुवलंभादो। =यदि कहा जाय कि केवल ज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, स्वसंवेद्य प्रत्यक्ष के द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप ज्ञान की (मति आदि ज्ञानों की) निर्बाध रूप से उपलब्धि होती है।
कषायपाहुड़/1/1,1/37/56/7 केवलणाणसेसावयवाणमत्थित्त गम्मदे। तदो आवरिदावयवो सव्वपज्जवो पच्चक्खाणुमाविसओ होदूण सिद्धो।=केवलज्ञान के प्रगट अंशों (मतिज्ञानादि) के अतिरिक्त शेष अवयवों का अस्तित्व जाना जाता है। अत: सर्व पर्याय रूप केवलज्ञान अवयवी जिसके कि प्रगट अंशों के अतिरिक्त शेष अवयव आवृत हैं, प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा सिद्ध है। अर्थात् उसके प्रगट अंश (मतिज्ञानादि) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा सिद्ध हैं और आवृत अंश अनुमान प्रमाण के द्वारा सिद्ध हैं।
नंदि सूत्र/45 केवलज्ञानावृत केवल या सामान्य ज्ञान की भेद-किरणें भी मत्यावरण, श्रुतावरण आदि आवरणों से चार भागों में विभाजित हो जाती है, जैसे मेघ आच्छादित सूर्य की किरणें चटाई आदि आवरणों से छोटे बड़े रूप हो जाती हैं। (ज्ञान बिंदु/पृष्ठ 1)।
- मतिज्ञानादि का केवलज्ञान के अंश होने की विधि साधक शंका समाधान
देखें ज्ञान - 2.1 प्रश्न–इंद्रिय ज्ञान से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान आदि को केवलज्ञान के अंश नहीं कह सकते ? उत्तर–(ज्ञान सामान्य का अस्तित्व इंद्रियों की अपेक्षा नहीं करता।)
धवला 1/1,1,1/37/4 रजोजुषां ज्ञानदर्शने न मंगलीभूतकेवलज्ञानदर्शनयोरवयवाविति चेन्न, ताभ्यां व्यतिरिक्तयोस्तयोरसत्त्वात् । मत्यादयोऽपि संतीति चेन्न तदवस्थानां मत्यादिव्यपदेशात् । तयो: केवलज्ञानदर्शांकुरयोर्मंगलत्वे मिथ्यादृष्टिरपि मंगलं तत्रापि तौ स्त इति चेद्भवतु तद्रूपतया मंगलं, न मिथ्यात्वादीनां मंगलम् ।...कथं पुनस्तज्ज्ञानदर्शनयोर्मंगलत्वमिति चेन्न.... पापक्षयकारित्वतस्तयोरुपपत्ते:।=प्रश्न–आवरण से युक्त जीवों के ज्ञान और दर्शन मंगलीभूत केवलज्ञान और केवलदर्शन के अवयव ही नहीं हो सकते हैं? उत्तर–ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, केवलज्ञान और केवलदर्शन से भिन्न ज्ञान और दर्शन का सद्भाव नहीं पाया जाता। प्रश्न–उनसे अतिरिक्त भी ज्ञानादि तो पाये जाते हैं। इनका अभाव कैसे किया जा सकता है? उत्तर–उस (केवल) ज्ञान और दर्शन संबंधी अवस्थाओं की मतिज्ञानादि नाना संज्ञाएँ हैं। प्रश्न–केवलज्ञान के अंकुररूप छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन को मंगलरूप मान लेने पर मिथ्यादृष्टि जीव भी मंगल संज्ञा को प्राप्त होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीव में भी वे अंकुर विद्यमान हैं ? उत्तर–यदि ऐसा है तो भले ही मिथ्यादृष्टि जीव को ज्ञान और दर्शनरूप से मंगलपना प्राप्त हो, किंतु इतने से ही (उसके) मिथ्यात्व अविरति आदि को मंगलपना प्राप्त नहीं हो सकता है। प्रश्न–फिर मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान और दर्शन को मंगलपना कैसे है? उत्तर–ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानदर्शन की भाँति मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान और दर्शन में पाप का क्षयकारीपना पाया जाता है।
धवला 13/5,5,21/213/6 जीवो किं पंचणाणसहावो आहो केवलणाणसहावो त्ति।...जीवो केवलणाणसहावो चेव। ण च सेसावरणणाणमावरणिज्जाभावेण अभावो, केवलणाणवरणीएण आवरिदस्स वि केवलणाणस्स रूविदव्वाणं पच्चक्खग्गहणक्खमाणमवयवाणं संभवदंसणादो...एदेसिं चदुण्णं णाणाणं जामावारयं कम्मं तं मदिणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं च भण्णदे। तदो केवलणाणसहावे जीवे सते वि णाणावरणीयपंचभावो त्ति सिद्धं। केवलणाणावरणीयं किं सव्वघादी आहो देसघादो।...ण ताव केवलणाणावरणीयं देसघादो, किंतु सव्वघादो चेव; णिस्सेमावरिदकेवलणाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाणेण आवरिदे वि चदुण्णं णाणाण सतुवलंभादो। जीवम्मि एक्कं केवलणाणं, तं च णिस्सेसमावरिदं। कत्ता पुण चदुण्णं णाणाणं संभवो। ण, छारण्णच्छग्गीदो बप्फुप्पत्तीए इव सव्वघादिणा आवरणेण आवरिदकेवलणाणादो चदुण्णं णाणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो।=प्रश्न–जीव क्या पाँच ज्ञान स्वभाववाला है या केवलज्ञान स्वभाववाला है? उत्तर–जीव केवलज्ञान स्वभाववाला ही है। फिर भी ऐसा मानने पर आवरणीय शेष ज्ञानों का (स्वभाव रूप से) अभाव होने से उनके आवरण कर्मों का अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञानावरणीय के द्वारा आवृत हुए भी केवलज्ञान के (विषयभूत) रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष ग्रहण करने में समर्थ कुछ (मतिज्ञानादि) अवयवों की संभावना देखी जाती है।...इन चार ज्ञानों के जो जो आवरक कर्म हैं वे मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्म कहे जाते हैं। इसलिए केवलज्ञान स्वभाव जीव के रहने पर भी ज्ञानावरणीय देशघाती तो नहीं है, किंतु सर्वघाती ही है, क्योंकि वह केवलज्ञान का नि:शेष आवरण करता है। फिर भी जीव का अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञान के आवृत होने पर भी चार ज्ञानों का अस्तित्व उपलब्ध होता है। प्रश्न–जीव में एक केवलज्ञान है। उसे जब पूर्णतया आवृत कहते हो, तब फिर चार ज्ञानों का सद्भाव कैसे संभव हो सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि जिस प्रकार राख से ढकी हुई अग्नि से वाष्प की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार सर्वघाती आवरण के द्वारा केवलज्ञान के आवृत होने पर भी उसमें चार ज्ञानों की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है।
- मत्यादि ज्ञान केवलज्ञान के अंश नहीं हैं
धवला 7/2,1,47/90/3 ण च छारेणोट्ठद्धग्गिविणिग्गयबप्फाए अग्गिववएसो अग्गिबुद्धि वा अग्गिववहारो वा अत्थि अणुवलंभादो। तदो णेदाणि णाणाणि केवलणाणं।=भस्म से ढकी हुई अग्नि (देखो ऊपरवाली शंका) से निकले हुए वाष्प को अग्नि नाम नहीं दिया जा सकता, न उसमें अग्नि की बुद्धि उत्पन्न होती है, और न अग्नि का व्यवहार ही, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। अतएव ये सब मति आदि ज्ञान केवलज्ञान नहीं हो सकते।
- मत्यादि ज्ञानों का केवलज्ञान के अंश होने व न होने का समन्वय।
धवला 13/5,5,21/215/4 एदाणि चत्तारि वि णाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होंति, विगलाणं परोक्खाणं सक्खयाणं सवड्ढीणं सगलपच्चक्खक्खयवडि्ढहाणिविवज्जिदकेवलणाणस्स अवयवत्तविरोहादो। पुव्वं केवलणाणस्स चत्तारि वि णाणाणि अवयवा इदि उत्तं, तं कधं धडदे। ण, णाणसामण्णयवेक्खिय तदवयवत्तं पडि विरोहाभावादो।=प्रश्न–ये चारों ही ज्ञान केवलज्ञान के अवयव नहीं, क्योंकि ये विकल हैं, परोक्ष हैं, क्षय सहित हैं, और वृद्धि-हानि युक्त हैं। अतएव इन्हें सकल, प्रत्यक्ष तथा क्षय और वृद्धि-हानि से रहित केवलज्ञान के अवयव मानने में विरोध आता है। इसलिए जो पहिले केवलज्ञान के चारों ही ज्ञान अवयव कहे हैं, वह कहना कैसे बन सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, ज्ञान सामान्य को देखते हुए चार ज्ञान को उसके अवयव मानने में कोई विरोध नहीं आता।–देखें ज्ञान - I.2.1।
- सामान्य ज्ञान केवलज्ञान के बराबर है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/48 समस्तं ज्ञेयं जानन् ज्ञाता समस्तज्ञेयहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलैकज्ञानाकारं चेतनत्वात् स्वानुभवप्रत्यक्षमात्मानं परिणमति। एवं किल द्रव्यस्वभाव:।=(समस्त दाह्याकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन वत्) समस्त ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञाता (केवलज्ञानी) समस्त ज्ञेयहेतुक समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका (स्वरूप) है, ऐसे निजरूप से जो चेतना के कारण स्वानुभव प्रत्यक्ष है, उस रूप परिणमित होता है। इस प्रकार वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/190-192 न घटाकारेऽपि चित: शेषांशानां निरन्वयो नाश:। लोकाकारेऽपि चितो नियतांशानां न चासदुत्पत्ति:। =ज्ञान को घट के आकार के बराबर होने पर भी उसके घटाकार से अतिरिक्त शेष अंशों का जिसप्रकार नाश नहीं हो जाता। इसीप्रकार ज्ञान के नियत अंशों को लोक के बराबर होने पर भी असत् को उत्पत्ति नहीं होती।191। किंतु घटाकर वही ज्ञान लोकाकाश के बराबर होकर केवलज्ञान नाम पाता है।190।
- पाँचों ज्ञानों को जानने का प्रयोजन
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/12 उक्तेषु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्वनिष्ठसहजज्ञानमेव। अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न शमस्ति।=उक्त ज्ञानों में साक्षात् मोक्ष का मूल निजपरमतत्त्व में स्थित ऐसा एक सहज ज्ञान ही है। तथा सहजज्ञान पारिणामिक भावरूप स्वभाव के कारण भव्य का परमस्वभाव होने से, सहजज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है।
- पाँचों ज्ञानों का स्वामित्व
( षट्खंडागम 1/101/ सूत्र 116-122/361-367)
सूत्र
ज्ञान
जीव समास
गुणस्थान
116
कुमति व कुश्रुति
सर्व 14 जीवसमास
1-2
117-118
विभंगावधि
संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त
1-2
120
मति, श्रुति, अवधि
संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच व मनुष्य पर्या.अपर्या.
4-12
121
मन:पर्यय
संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त मनुष्य
6-12
122
केवलज्ञान
संज्ञी पर्याप्त, अयोगी की अपेक्षा
13, 14, सिद्ध
119
मति, श्रुत, अवधि ज्ञान अज्ञान मिश्रित
संज्ञी पर्याप्त
3
( विशेष–देखें सत् )।
- एक जीव में युगपत् संभव ज्ञान
तत्त्वार्थसूत्र/1/30 एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्य:।30।
राजवार्तिक/1/30/4,9/90-91 एते हि मतिश्रुते सर्वकालभव्यभिचारिणी नारदपर्वतवत् ।(4/90/26)। एकस्मिन्नात्मन्येकं केवलज्ञानं क्षायिकत्वात् ।(10/91/24)। एकस्मिन्नात्मनि द्वे मतिश्रुते। क्वचित् त्रीणि मतिश्रुतावधिज्ञानानि, मतिश्रुतमन:पर्ययज्ञानानि वा क्वचिच्चत्वारि मतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानानि। न पंचैकस्मिन् युगपद् संभवंति।(9/91/17)।=- एक को आदि लेकर युगपत् एक आत्मा में चार तक ज्ञान होने संभव है।
- वह ऐसे–मति और श्रुत तो नारद और पर्वत की भाँति सदा एक साथ रहते हैं। एक आत्मा में एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है क्योंकि वह क्षायिक है, दो हों तो मतिश्रुत: तीन हों तो मति, श्रुत, अवधि, अथवा मति, श्रुत, मन:पर्यय चार हों तो मति श्रुत अवधि और मन:पर्यय। एक आत्मा में पाँचों ज्ञान युगपत् कदापि संभव नहीं है।
- ज्ञान के पाँचों भेद पर्याय हैं
- भेद व लक्षण
- भेद व अभेद ज्ञान
- भेद व अभेद ज्ञान
- भेद ज्ञान का लक्षण
समयसार/181-183 उवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो। कोहो कोहो चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो।181। अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो। उवओगम्मि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि।182। एयं दु अविवरीदं णाणे जइया दु होदि जीवस्स। तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा।183।
समयसार / आत्मख्याति/181-183 ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्धं भेदविज्ञानम् ।= उपयोग उपयोग में है क्रोधादि (भावकर्मों) में कोई भी उपयोग नहीं है। और क्रोध (भाव कर्म) क्रोध में ही है, उपयोग में निश्चय से क्रोध नहीं है।181। आठ प्रकार के (द्रव्य) कर्मों में और नोकर्म में उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म तथा नोकर्म नहीं है।182। ऐसा अविपरीत ज्ञान जब जीव के होता है तब वह उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाव को नहीं करता।183। इसलिए उपयोग उपयोग में ही है और क्रोध क्रोध में ही है, इस प्रकार भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हो गया।
चारित्तपाहुड़/ मूल/38 जीवाजीवविहत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादिदोसरहिओ जिणसासणे मोक्खमग्गुत्ति।38।=जो पुरुष जीव और अजीव (द्रव्यकर्म, भावकर्म व नोकर्म) इनका भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है। रागादि दोषों से रहित वह भेदज्ञान हो जिनशासन में मोक्षमार्ग है। ( मोक्षपाहुड़/41 )।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/5/6/19 रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभाव: परमात्मेति भेदविज्ञानं।=रागादि भिन्न यह स्वात्मोत्थ सुख स्वभावी आत्मा है, ऐसा भेद विज्ञान होता है।
स्वयंभू स्तोत्र/ टीका/22/55 जीवादि तत्त्वे सुखादिभेदप्रतीतिर्भेदज्ञानं।=जीवादि सातों तत्त्वों में सुखादि की अर्थात् स्वतत्त्व की स्वसंवेदनगम्य पृथक् प्रतीति होना भेदज्ञान है।
- अभेद ज्ञान का लक्षण
वृहद् द्रव्यसंग्रह टीका/22/55 सुखादौ, बालकुमारादौ च स एवाहमिथ्यात्मद्रव्यस्याभेदप्रतीतिरभेदज्ञानं। =इंद्रिय सुख आदि में अथवा बाल कुमार आदि अवस्थाओं में, ‘यह ही मैं हूँ’ ऐसी आत्मद्रव्य की अभेद प्रतीति होना अभेद ज्ञान है।
- भेद ज्ञान का तात्पर्य षट्कारकी निषेध
प्रवचनसार/160 णाहं देहो ण मणो ण चैव वाणी ण कारणं तेसिं। कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्ताणं।160।=मैं न देह हूँ, न मन हूँ, और न वाणी हूँ। उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला नहीं हूँ और कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ। ( समाधिशतक/ मूल/54)।
समयसार / आत्मख्याति/323/ कलश 200 नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रव्यात्मतत्त्वयो:। कर्तृकर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुत:।200।
समयसार / आत्मख्याति/327/ कलश 201 एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं संबंध एव सकलोऽपि यतो निषिद्ध:। तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेद: पश्यंत्वकर्तृमुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।201।=परद्रव्य और आत्मतत्त्व का कोई भी संबंध नहीं है, तब फिर उनमें कर्ता-कर्म संबंध कैसे हो सकता है। और उसका अभाव होने से आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है।200। क्योंकि इस लोक में एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ संपूर्ण संबंध ही निषेध किया गया है, इसलिए जहाँ वस्तु भेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ कर्ता-कर्मपना घटित नहीं होता। इस प्रकार मुनि जन और लौकिक जन तत्त्व को अकर्ता देखो।201।
- स्वभाव भेद से ही भेद ज्ञान की सिद्धि है
स्याद्वादमंजरी/16/200/13 स्वभावभेदमंतरेणांयव्यावृत्तिभेदस्यानुपपत्ते:।=वस्तुओं में स्वभाव भेद माने बिना उन वस्तुओं में व्यावृत्ति नहीं बन सकती।
- संज्ञा लक्षण प्रयोजन की अपेक्षा अभेद में भी भेद
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/50/99/7 गुणगुणिनो: संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि प्रदेशभेदाभावादपृथग्भूतत्वं भण्यते।=गुण और गुणों में संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि से भेद होने पर भी प्रदेश भेद का अभाव होने से उनमें अपृथक्भूतपना कहा जाता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/154/224/11 सहशुद्धसामान्यविशेषचैतन्यात्मकजीवास्तित्वात्सकाशात्संज्ञालक्षणप्रयोजनभेदेऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावैरभेदादिति...।=सहज शुद्ध सामान्य तथा विशेष चैतन्यात्मक जीव के दो अस्तित्वों में (सामान्य तथा विशेष अस्तित्व में) संज्ञा लक्षण व प्रयोजन से भेद होने पर भी द्रव्य क्षेत्र काल व भाव से उनमें अभेद है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/97 )
- भेद ज्ञान का लक्षण
- भेद व अभेद ज्ञान
- सम्यक् मिथ्या ज्ञान
- भेद व लक्षण
- सम्यक् व मिथ्या की अपेक्षा ज्ञान के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/1/9,31 मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।9। मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।31।=मति, श्रुत अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं।9। मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपर्यय अर्थात् मिथ्या भी होते हैं।31। ( पंचास्तिकाय/41/ )। ( द्रव्यसंग्रह/5 )।
गोम्मटसार जीवकांड/300-301/650 पंचेव होंति णाणा मदिसुदओहिमणं च केवलयं। खयउवरामिया चउरो केवलणाणं हवे खइयं।300। अण्णाणतियं होदि हु सण्णाणतियं खु मिच्छअणउदये।...।301।=मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये सम्यग्ज्ञान पाँच ही हैं। जे सम्यग्दृष्टिकैं मति श्रुत अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान है तेई तीनों मिथ्यात्व वा अनंतानुबंधी कोई कषाय के उदय होतै तत्वार्थ का अश्रद्धानरूप परिणया जीव कैं तीनों मिथ्याज्ञान हो है। उनके कुमति, कुश्रुत और विभंग ये नाम हो हैं।
- सम्यग्ज्ञान का लक्षण
- तत्त्वार्थ के यथार्थ अधिगम की अपेक्षा
पंचास्तिकाय/107 तेसिमधिगमो णाणं।...।107। उन नौ पदार्थों का या सात तत्त्वों का अधिगम सम्यग्ज्ञान है। ( मोक्षपाहुड़/38 )।
सर्वार्थसिद्धि/1/1/5/6 येन येन प्रकारेण जीवादय: पदार्थां व्यवस्थितास्तेन तेनावगम: सम्यग्ज्ञानम् ।=जिस जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं उस उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। ( राजवार्तिक/1/1/2/4/6 )। ( परमात्मप्रकाश/ मूल/2/29) ( धवला 1/1,1,120/364/5 )।
राजवार्तिक/1/1/2/4/3 नयप्रमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगम: सम्यग्ज्ञानम् ।=नय व प्रमाण के विकल्प पूर्वक जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। ( नयचक्र बृहद्/326 )।
समयसार / आत्मख्याति/155 जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम् । जीवादि पदार्थों के ज्ञान स्वभावरूप ज्ञान का परिणमन कर सम्यग्ज्ञान है।
- संशयादि रहित ज्ञान की अपेक्षा
रत्नकरंड श्रावकाचार/42 अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । नि:संदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिन: ।42।=जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित तथा अधिकता रहित, विपरीतता रहित, जैसा का तैसा संदेह रहित जानता है, उसको आगम के ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि/1/1/5/7 विमोहसंशयविपर्ययनिवृत्त्यर्थं सम्यग्विशेषणम् ।–ज्ञान के पहिले सम्यग्विशेषण विमोह (अनध्यवसाय) संशय और विपर्यय ज्ञानों का निराकरण करने के लिए दिया गया है। ( राजवार्तिक/1/1/2/4/7 )। (न्याय दीपिका/1/8/9)।
द्रव्यसंग्रह/42 संसयविमोहविब्भमवियज्जियं अप्पपरसरूवस्स। गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।42।=आत्मस्वरूप और अन्य पदार्थ के स्वरूप का जो संशय विमोह और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानना है वह सम्यग्ज्ञान है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/155 )।
- भेद ज्ञान की अपेक्षा
मोक्षपाहुड़/41 जीवाजीवविहत्ती जोइ जाणेइ जिणवरमएणं । ते सण्णाणं भणियं भवियत्थं सव्वदरिसीहिं।41। जो योगी मुनि जीव अजीव पदार्थ का भेद जिनवर के मतकरि जाणै है सो सम्यग्ज्ञान सर्वदर्शी कह्या है सो ही सत्यार्थ है। अन्य छद्मस्थ का कह्या सत्यार्थ नाहीं। ( चारित्तपाहुड़/मूल/38 )।
सिद्धि विनिश्चय/ वृत्ति/10/19/684/23 सदसद्व्यवहारनिबंधनं सम्यग्ज्ञानम् ।=सत् और असत् पदार्थों में व्यवहार करने वाला सम्यग्ज्ञान है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/51 तत्र जिनप्रणीतहेयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्यग्ज्ञानम् ।=जिन प्रणीत हेयोपादेय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।
द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/3 सप्ततत्त्वनवपदार्थेषु ‘मध्य’ निश्चयनयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं...उपादेय:। शेषं च हेयमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति।=सात तत्त्व और नौ पदार्थों में निश्चयनय से अपना शुद्धात्म द्रव्य ही उपादेय है। इसके सिवाय शुद्ध या अशुद्ध परजीव अजीव आदि सभी हेय है। इस प्रकार संक्षेप से हेय तथा उपादेय भेदों से व्यवहार ज्ञान दो प्रकार का है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/155 तेषामेव सम्यक्परिच्छित्तिरूपेण शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चय: सम्यग्ज्ञानं।=उन नवपदार्थों का ही सम्यक् परिच्छित्ति रूप शुद्धात्मा से भिन्नरूप में निश्चय करना सम्यग्ज्ञान है। और भी देखो ज्ञान/II/1–(भेद ज्ञान का लक्षण)
- स्वसंवेद की अपेक्षा निश्चय लक्षण
तत्त्वसार/1/18 सम्यग्ज्ञानं पुन: स्वार्थव्यवसायात्मकं विदु:।...।18।=ज्ञान में अर्थ (विषय) प्रतिबोध के साथ-साथ यदि अपना स्वरूप भी प्रतिभासित हो और वह भी यथार्थ हो तो उसको सम्यग्ज्ञान कहना चाहिए।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/5 सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रमं...। =सहज शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाववाले आत्मतत्त्व का श्रद्धान और ज्ञान जिसका लक्षण है, ऐसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का संपादक है...
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/3 ज्ञानं तावत् तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलंबनत्वेन नि:शेषतांतर्मुखयोगशक्ते: सकाशात् निजपरमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति।=परद्रव्य का अवलंबन लिये बिना नि:शेष रूप से अंतर्मुख योगशक्ति में-से उपादेय (उपयोग को संपूर्णरूप से अंतर्मुख करके ग्रहण करने योग्य) ऐसा जो निज परमात्मतत्त्व का परिज्ञान सो ज्ञान है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/38 तस्मिन्नेव शुद्धात्मनि स्वसंवेदनं सम्यग्ज्ञानं।=उस शुद्धात्म में ही स्वसंवेदन करना सम्यग्ज्ञान है। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/240/333/16 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/42/184/4 निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चयज्ञानं भण्यते।=निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयज्ञान है।
द्रव्यसंग्रह टीका/52/218/11 तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्य: पृथक्परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानं।=उस शुद्धात्मा को उपाधिरहित स्वसंवेदनरूप भेदज्ञान द्वारा मिथ्या रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है।
द्रव्यसंग्रह टीका/40/163/11 तस्यैव सुखस्य समस्तविभावेभ्य: पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानम् ।=उसी (अतींद्रिय) सुख का रागादि समस्त विभावों से स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है। देखें अनुभव 1.5 (स्वसंवेदन का लक्षण)।
- तत्त्वार्थ के यथार्थ अधिगम की अपेक्षा
- मिथ्याज्ञान सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/31/137/3 विपर्ययो मिथ्येत्यर्थ:।...कुत: पुनरेषां विपर्यय:। मिथ्यादर्शनेन सहैकार्थ समवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् ।=(‘मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च’) इस सूत्र में आये हुए विपर्यय शब्द का अर्थ मिथ्या है। मति श्रुत व अवधि ये तीनों ज्ञान मिथ्या भी हैं और सम्यक् भी। प्रश्न–ये विपर्यय क्यों है? उत्तर–क्योंकि मिथ्यादर्शन के साथ एक आत्मा में इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रज सहित कड़वी तूंबड़ी में रखा दूध कड़वा हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के निमित्त से ये मिथ्या हो जाते हैं। ( राजवार्तिक/1/31/1/91/30 )।
श्लोकवार्तिक 4/1/31/8/115 स च सामान्यतो मिथ्याज्ञानमत्रोपवर्ण्यते। संशयादिविकल्पानां त्रयाणां सुगृहीयते।8।=सूत्र में विपर्यय शब्द सामान्य रूप से सभी मिथ्याज्ञानों-स्वरूप होता हुआ मिथ्याज्ञान के संशय विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीन भेदों के संग्रह करने के लिए दिया गया है।
धवला 12/4,2,8,10/286/5 बौद्ध-नैयायिक-सांख्य–मीमांसक-चार्वाक-वैशेषिकादिदर्शनरुच्यनुविद्धं ज्ञानं मिथ्याज्ञानम् ।=बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, मीमांसक, चार्वाक और वैशेषिक आदि दर्शनों की रुचि से संबद्ध ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है।
नयचक्र बृहद्/238 ण मुणइ वत्थुसहावं अहविवरीयं णिखंक्खदो मुणइ। तं इह मिच्छणाणं विवरीयं सम्मरूवं खु।238।=जो वस्तु के स्वभाव को नहीं पहचानता है अथवा उलटा पहिचानता है या निरपेक्ष पहिचानता है वह मिथ्याज्ञान है। इससे विपरीत सम्यग्ज्ञान होता है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91 तत्रैवावस्तुनि वस्तुबुद्धिर्मिथ्याज्ञानं।...अथवा स्वात्मपरिज्ञानविमुखत्वमेव मिथ्याज्ञान...। =उसी (अर्हंतमार्ग से प्रतिकूल मार्ग में) कही हुई अवस्तु में वस्तु बुद्धि वह मिथ्याज्ञान है, अथवा निजात्मा के परिज्ञान से विमुखता वही मिथ्याज्ञान है।
द्रव्यसंग्रह टीका/5/14/10 अष्टविकल्पमध्ये मतिश्रुतावधयो मिथ्यात्वोदयवशाद्विपरीताभिनिवेशरूपाण्यज्ञानानि भवंति।=उन आठ प्रकार के ज्ञानों में मति, श्रुत, तथा अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यात्व के उदय से विपरीत अभिनिवेशरूप अज्ञान होते हैं।
- सम्यक् व मिथ्या की अपेक्षा ज्ञान के भेद
- सम्यक् व मिथ्याज्ञान निर्देश
- सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का नाम निर्देश
मूलाचार/269 काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभयं णाणाचारो दु अट्ठविहो।260।=स्वाध्याय का काल, मन-वचन-काय से शास्त्र का विनय, यत्न करना, पूजासत्कारादि के पाठादिक करना, तथा गुरु या शास्त्र का नाम न छिपाना, वर्ण पद वाक्य को शुद्ध पढ़ना, अनेकांत स्वरूप अर्थ को ठीक ठीक समझना, तथा अर्थ को ठीक ठीक समझते हुए पाठादिक शुद्ध पढ़ना इस प्रकार (क्रम से काल, विनय, उपधान, बहुमान, तथा निह्नव, व्यंजन शुद्धि, अर्थ शुद्धि, तदुभय शुद्धि; इन आठ अंगों का विचार रखकर स्वाध्याय करना ये) ज्ञानाचार के आठ भेद है। (और भी देखें विनय - 1.6) ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/36 )।
- सम्यग्ज्ञान की भावनाएँ
महापुराण/21/96 वाचनापृच्छने सानुप्रेक्षणं परिवर्तनम् । सद्धर्मदेशनं चेति ज्ञातव्या: ज्ञानभावना:।96।=जैन शास्त्रों का स्वयं पढ़ना, दूसरों से पूछना, पदार्थ के स्वरूप का चिंतवन करना, श्लोक आदि कंठ करना तथा समीचीन धर्म का उपदेश देना ये पाँच ज्ञान की भावनाएँ जाननी चाहिए।
नोट—(इन्हीं को तत्त्वार्थसूत्र/9/25 में स्वाध्याय के भेद कहकर गिनाया है।)
- पाँचों ज्ञानों में सम्यग्मिथ्यापने का नियम
तत्त्वार्थसूत्र/1/9,31 मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।9। मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।31।=मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवल ये पाँच ज्ञान हैं।9। इनमें से मति श्रुत और अवधि ये तीन मिथ्या भी होते हैं और सम्यक् भी (शेष दो सम्यक् ही होते हैं)।31।
श्लोकवार्तिक/4/1/31/ श्लोक 3-10/114 मत्यादय: समाख्यातास्त एवेत्यवधारणात् । संगृह्यते कदाचिन्न मन:पर्ययकेवले।3। नियमेन तयो: सम्यग्भावनिर्णयत: सदा। मिथ्यात्वकारणाभावाद्विशुद्धात्मनि संभवात् ।4। मतिश्रुतावधिज्ञानत्रिकं तु स्यात्कदाचन। मिथ्येति ते च निदिष्टा विपर्यय इहांगिनाम् ।7। समुच्चिनोति चस्तेषां सम्यक्त्वं व्यवहारिकम् । मुख्यं च तदनुक्तौ तु तेषां मिथ्यात्वमेव हि।9। ते विपर्यय एवेति सूत्रे चेन्नावधार्यते। चशब्दमंतरेणापि सदा सम्यक्त्वमत्वत:।10।=मति आदि तीन ज्ञान ही मिथ्या रूप होते हैं; मन:पर्यय व केवलज्ञान नहीं, ऐसी सूचना देने के लिए ही सूत्र में अवधारणार्थ ‘च’ शब्द का प्रयोग किया है।3। वे दोनों ज्ञान नियम से सम्यक् ही होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व के कारणभूत मोहनीय कर्म का अभाव होने से विशुद्धात्मा में ही संभव है।4। मति, श्रुत व अवधि ये तीन ज्ञान तो कभी कभी मिथ्या हो जाते हैं। इसी कारण सूत्र में उन्हें विपर्यय भी कहा है।7। ‘च’ शब्द से ऐसा भी संग्रह हो जाता है कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि के भी मति आदि ज्ञान व्यवहार में समीचीन कहे जाते हैं, परंतु मुख्यरूप से तो वे मिथ्या ही हैं।9। यदि सूत्र में च शब्द का ग्रहण न किया जाता तो वे तीनों भी सदा सम्यक् रूप समझे जा सकते थे। विपर्यय और च इन दोनों शब्दों से उनके मिथ्यापने को भी सूचना मिलती है।10।
- सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है
रयणसार/47 रांभविणा सण्णाणं सच्चारित्त ण होइ णियमेण।=सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र नियम से नहीं होते हैं।
सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/3 कथमभ्यर्हितत्वं। ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् ।=प्रश्न–सम्यग्दर्शन पूज्य क्यों है? उत्तर–क्योंकि सम्यग्दर्शन से ज्ञान में समीचीनता आती है। ( पंचाध्यायी x`/ इ./767)।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/21,32 तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च।21। पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य। लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयो:।32।=इन तीनों दर्शन-ज्ञान-चारित्र में पहिले समस्त प्रकार के उपायों से सम्यग्दर्शन भले प्रकार अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि इसके अस्तित्व में ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र होता है।21। यद्यपि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं, तथापि इनमें लक्षण भेद से पृथक्ता संभव है।32।
अनगारधर्मामृत/3/15/264 आराध्यं दर्शनं ज्ञानमाराध्यं तत्फलत्वत:। सहभावेऽपि ते हेतुफले दीपप्रकाशवत् ।15। =सम्यग्दर्शन की आराधना करके ही सम्यग्ज्ञान की आराधना करनी चाहिए, क्योंकि ज्ञान सम्यग्दर्शन का फल है। जिस प्रकार प्रदीप और प्रकाश साथ ही उत्पन्न होते हैं, फिर भी प्रकाश प्रदीप का कार्य है, उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान साथ साथ होते हैं, फिर भी सम्यग्ज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन उसका कारण।
- सम्यग्दर्शन भी कथंचित् ज्ञानपूर्वक होता है
समयसार/17-18 जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।17। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।18।=जैसे कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर (उसकी) श्रद्धा करता है और फिर प्रयत्नपूर्वक उसका अनुचरण करता है अर्थात् उसकी सेवा करता है, उसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक को जीव रूपी राजा को जानना चाहिए, और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए। और तत्पश्चात् उसी का अनुचरण करना चाहिए अर्थात् अनुभव के द्वारा उसमें तन्मय होना चाहिए।
नयचक्र बृहद्/248 सामण्ण अह विसेसं दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं णहु पुण तं तस्स विवरीयं।248।=सामान्य तथा विशेष द्रव्य संबंधी अविरुद्धज्ञान ही सम्यक्त्व की सिद्धि करता है। उससे विपरीत ज्ञान नहीं।
- सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान की व्याप्ति है पर ज्ञान के साथ सम्यक्त्व की नहीं।
भगवती आराधना/4/22 दंसणमाराहंतेण णाणमाराहिदं भवे णियमा।...। णाणं आराहंतस्स दंसणं होइ भयविज्जं।4।=सम्यग्दर्शन की आराधना करने वाले नियम से ज्ञानाराधना करते हैं, परंतु ज्ञानाराधना करने वाले को दर्शन की आराधना हो भी अथवा न भी हो।
- सम्यक्त्व हो जाने पर पूर्व का ही मिथ्याज्ञान सम्यक् हो जाता है
सर्वार्थसिद्धि/1/1/6/7 ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्यं, दर्शनस्य तत्पूर्वंकत्वात् अल्पाक्षरत्वाच्च। नैतद्युक्तं, युगपदुत्पत्ते:। यदा...आत्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाविर्भवति घनपटलविगमे सवितु: प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् । प्रश्न–सूत्र में पहिले ज्ञान का ग्रहण करना उचित है, क्योंकि एक तो दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है और दूसरे ज्ञान में दर्शन शब्द की अपेक्षा कम अक्षर हैं ? उत्तर–यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि दर्शन और ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते हैं। जैसे मेघपटल के दूर हो जाने पर सूर्य के प्रताप और प्रकाश एक साथ प्रगट होते हैं, उसी प्रकार जिस समय आत्मा की सम्यग्दर्शन पर्याय उत्पन्न होती है उसी समय उसके मति-अज्ञान और श्रुत अज्ञान का निराकरण होकर मति ज्ञान और श्रुतज्ञान प्रगट होते हैं। ( राजवार्तिक/1/1/28-30/9/19 ) ( पंचाध्यायी x`/3/768 )।
- वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहलाता है
सर्वार्थसिद्धि/1/31/137/4 कथं पुनरेषां विपर्यय:। मिथ्यादर्शनेन सहैकार्यसमवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् । ननु च तत्राधारदोषाद् दुग्धस्य रसविपर्ययो भवति। न च तथा मत्यज्ञानादीनां विषयग्रहणे विपर्यय:। तथा हि, सम्यग्दृष्टिर्यथा चक्षुरादिभी रूपादीनुपलभते तथा मिथ्यादृष्टिरपि मत्यज्ञानेन यथा च सम्यग्दृष्टि: श्रुतेन रूपादीन् जानाति निरूपयति च तथा मिथ्यादृष्टिरपि श्रुताज्ञानेन। यथा चावधिज्ञानेन सम्यग्दृष्टि: रूपिणोऽर्थानवगच्छति तथा मिथ्यादृष्टिर्विभंगज्ञानेनेति। अत्रोच्यते–"सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ।( तत्त्वार्थसूत्र/1/32 )।" ...तथा हि, कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आत्मन्यवस्थितो रूपाद्युपलब्धौ सत्यामपि कारणविपर्यासं भेदाभेदविपर्यासं स्वरूपविपर्यासं च जानाति।...एवमन्यानपि परिकल्पनाभेदान् दृष्टेष्टविरुद्धांमिथ्यादर्शनोदयात्कल्पयंति तत्र च श्रद्धानमुत्पादयंति। ततस्तन्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभंगज्ञानं च भवति। सम्यग्दर्शनं पुनस्तत्त्वार्थाधिगमे श्रद्धानमुत्पादयति। ततस्तन्मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च भवति।=प्रश्न–यह (मति, श्रुत व अवधिज्ञान) विपर्यय क्यों है ? उत्तर–क्योंकि मिथ्यादर्शन के साथ एक आत्मा में इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रजसहित कड़वी तूँबड़ी में रखा गया दूध कड़वा हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के निमित्त से यह विपर्यय होता है। प्रश्न–कड़वी तूंबड़ी के आधार के दोष से दूध का रस मीठे से कड़वा हो जाता है यह स्पष्ट है, किंतु इस प्रकार मत्यादि ज्ञानों की विषय के ग्रहण करने में विपरीता नहीं मालूम होती। खुलासा इस प्रकार है–जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि चक्षु आदि के द्वारा रूपादिक पदार्थों को ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि श्रुत के द्वारा रूपादि पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी श्रुत अज्ञान के द्वारा रूपादि पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी विभंग ज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है। उत्तर–इसी का समाधान करने के लिए यह अगला सूत्र कहा गया है कि "वास्तविक औ अवास्तविक का अंतर जाने बिना, जब जैसा जी में आया उस रूप ग्रहण होने के कारण, उन्मत्तवत् उसका ज्ञान भी अज्ञान ही है।" (अर्थात् वास्तव में सत् क्या है और असत् क्या है, चैतन्य क्या है और जड़ क्या है, इन बातों का स्पष्ट ज्ञान न होने के कारण कभी सत् को असत् और कभी असत् को सत् कहता है। कभी चैतन्य को जड़ और कभी जड़ (शरीर) को चैतन्य कहता है। कभी कभी सत् को सत् और चैतन्य को चैतन्य इस प्रकार भी कहता है। उसका यह सब प्रलाप उन्मत्त की भाँति है। जैसे उन्मत्त माता को कभी स्त्री और कभी स्त्री को माता कहता है। वह यदि कदाचित् माता को माता भी कहे तो भी उसका कहना समीचीन नहीं समझा जाता उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि का उपरोक्त प्रलाप भले ही ठीक क्यों न हो समीचीन नहीं समझा जा सकता है) खुलासा इस प्रकार है कि आत्मा में स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारण-विपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप-विपर्यास को उत्पन्न करता रहता है। इस प्रकार मिथ्यादर्शन के उदय से ये जीव प्रत्यक्ष और अनुमान के विरुद्ध नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं, और उनमें श्रद्धान उत्पन्न करते हैं। इसलिए इनका यह ज्ञान मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंग ज्ञान होता है। किंतु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञान में श्रद्धान उत्पन्न करता है, अत: इस प्रकार का ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है। ( राजवार्तिक/1/31/2-3/92/1 ); ( राजवार्तिक/1/32/ पृष्ठ 92); (विशेषावश्यक भाष्य/115 से स्याद्वाद मंजरी/23/274 पर उद्धृत) (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/77)।
धवला 7/2,1,44/85/5 किमट्ठं पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे विहि-पडिसेहभावेण दोण्हं णाणणं विसेसाभावा। ण परदो वदिरित्तभावसामण्णमवेक्खिय एत्थ पडिसेहो होज्ज, किंतु अप्पणो अवगयत्थे जम्हि जीवे सद्दहणं ण वुप्पज्जदि अवगयत्थविवरीयसद्धुप्पायणमिच्छुत्तुदयबलेण तत्थ जं णाणं तमण्णाणमिदि भण्णइ, णाणफलाभावादो। धड-पडत्थंभादिसु मिच्छाइट्ठीणं जहावगमं सद्दहणणुवलब्भदे चे; ण, तत्थ वि तस्स अणज्झवसायदंसणादो। ण चेदमसिद्धं ‘इदमेवं चेवेति’ णिच्छयाभावा। अधवा जहा दिसामूढो वण्ण-गंध-रस-फास-जहावगमं सद्दहंतो वि अण्णाणी वुच्चदे जहावगमदिससद्दहणाभावादो, एवं थंभादिपयत्थे जहावगमं सद्दहंतो वि अण्णाणी वुच्चदे जिणवयणेण सद्दहणाभावादो।=प्रश्न–यहाँ सम्यग्दृष्टि के ज्ञान का भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय, क्योंकि, विधि और प्रतिषेध भाव से मिथ्यादृष्टिज्ञान और सम्यग्दृष्टिज्ञान में कोई विशेषता नहीं है? उत्तर–यहाँ अन्य पदार्थों में परत्वबुद्धि के अतिरिक्त भाव सामान्य की अपेक्षा प्रतिषेध नहीं किया गया है, जिससे कि सम्यग्दृष्टि ज्ञान का भी प्रतिषेध हो जाय। किंतु ज्ञात वस्तु में विपरीत श्रद्धा उत्पन्न कराने वाले मिथ्यात्वोदय के बल से जहाँ पर जीव में अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान नहीं उत्पन्न होता, वहाँ जो ज्ञान होता है वह अज्ञान कहलाता है, क्योंकि उसमें ज्ञान का फल नहीं पाया जाता। शंका–घट पट स्तंभ आदि पदार्थों में मिथ्यादृष्टियों के भी यथार्थ श्रद्धान और ज्ञान पाया जाता है? उत्तर–नहीं पाया जाता, क्योंकि, उनके उसके उस ज्ञान में भी अनध्यवसाय अर्थात् अनिश्चय देखा जाता है। यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, ‘यह ऐसा ही है’ ऐसे निश्चय का यहाँ अभाव होता है। अथवा, यथार्थ दिशा के संबंध में विमूढ जीव वर्ण, गंध, रस और स्पर्श इन इंद्रिय विषयों के ज्ञानानुसार श्रद्धान करता हुआ भी अज्ञानी कहलाता है, क्योंकि, उसके यथार्थ ज्ञान की दिशा में श्रद्धान का अभाव है। इसी प्रकार स्तंभादि पदार्थों में यथाज्ञान श्रद्धा रखता हुआ भी जीव जिन भगवान् के वचनानुसार श्रद्धान के अभाव से अज्ञानी ही कहलाता है।
समयसार / आत्मख्याति/72 आकुलत्वोत्पादकत्वाद्दु:खस्य कारणानि खल्वास्रवा:, भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुलत्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वाद्दु:खस्याकारणमेव। इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्त्तमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञानासिद्धे: तत: क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बंधनिरोध: सिध्येत् । =आस्रव आकुलता के उत्पन्न करने वाले हैं इसलिए दु:ख के कारण हैं, और भगवान् आत्मा तो, सदा ही निराकुलता-स्वभाव के कारण किसी का कार्य तथा किसी का कारण न होने से, दु:ख का अकारण है। इस प्रकार विशेष (अंतर) को देखकर जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवों के भेद को जानता है, उसी समय क्रोधादि आस्रवों से निवृत्त होता है, क्योंकि, उनसे जो निवृत्ति नहीं है उसे आत्मा और आस्रवों के परमार्थिक भेदज्ञान की सिद्धि ही नहीं हुई। इसलिए क्रोधादि आस्रवों से निवृत्ति के साथ जो अविनाभावी है ऐसे ज्ञानमात्र से ही, अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्म के बंध का निरोध होता है। (तात्पर्य यह कि मिथ्यादृष्टि को शास्त्र के आधार पर भले ही आस्रवादि तत्त्वों का ज्ञान हो गया हो पर मिथ्यात्ववश स्वतत्त्व दृष्टि से ओझल होने के कारण वह उस ज्ञान को अपने जीवन पर लागू नहीं कर पाता। इसी से उसे उस ज्ञान का फल भी प्राप्त नहीं होता और इसीलिए उसका वह ज्ञान मिथ्या है। इससे विपरीत सम्यग्दृष्टि का तत्त्वज्ञान अपने जीवन पर लागू होने के कारण सम्यक् है)।
समयसार/ पं.जयचंद/72
प्रश्न–अविरत सम्यग्दृष्टि को यद्यपि मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी प्रकृतियों का आस्रव नहीं होता, परंतु अन्य प्रकृतियों का तो आस्रव होकर बंध होता है; इसलिए ज्ञानी कहना या अज्ञानी ? उत्तर–सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी ही है, क्योंकि वह अभिप्राय पूर्वक आस्रवों से निवृत्त हुआ है।
और भी देखें ज्ञान - III.3.3 मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी भूतार्थग्राही होने के कारण यद्यपि कथंचित् सम्यक् है पर ज्ञान का असली कार्य (आस्रव निरोध) न करने के कारण वह अज्ञान ही है।
- मिथ्यादृष्टि का शास्त्रज्ञान भी मिथ्या व अकिंचित्कर है
देखें ज्ञान - IV.1.4–[आत्मज्ञान के बिना सर्व आगमज्ञान अकिंचित्कर है]
देखें राग - 6.1 [परमाणु मात्र भी राग है तो सर्व आगमधर भी आत्मा को नहीं जानता]
समयसार/317 ण मुयइ पयडिमभव्वो सुठ्ठु वि अज्झाइऊण सत्थाणि। गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा हुंति।=भलीभाँति शास्त्रों को पढ़कर भी अभव्य जीव प्रकृति को (अपने मिथ्यात्व स्वभाव को) नहीं छोड़ता। जैसे मीठे दूध को पीते हुए भी सर्प निर्विष नहीं होते। ( समयसार/274 )
दर्शनपाहुड़/ मूल/4 समत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं। आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव।4।=सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट भले ही बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानो परंतु आराधना से रहित होने के कारण संसार में ही नित्य भ्रमण करता है।
योगसार (अमितगति)/7/44 संसार: पुत्रदारादि: पुंसां संमूढचेतसाम् । संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितमात्मनाम् ।44।=अज्ञानीजनों का संसार तो पुत्र स्त्री आदि है और अध्यात्म ज्ञान शून्य विद्वानों का संसार शास्त्र है।
द्रव्यसंग्रह/50/215/7 पर उद्धृत–यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करिष्यति।=जिस पुरुष के स्वयं बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है। क्योंकि नेत्रों से रहित पुरुष का दर्पण क्या उपकार कर सकता है। अर्थात् कुछ नहीं कर सकता।
स्याद्वादमंजरी/23/274/15 तत्परिगृहीतं द्वादशांगमपि मिथ्याश्रुतमामनंति। तेषामुपपत्ति निरपेक्षं यदृच्छया वस्तुतत्त्वोपलंभसंरंभात् ।=मिथ्यादृष्टि बारह (?) अंगों को पढ़कर भी उन्हें मिथ्या श्रुत समझता है, क्योंकि, वह शास्त्रों को समझे बिना उनका अपनी इच्छा के अनुसार अर्थ करता है। (और भी देखो पीछे इसी का नं.8)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/770 यत्पुनर्द्रव्यचारित्रं श्रुतज्ञानं विनापि दृक् । न तज्ज्ञानं न चारित्रमस्ति चेत्कर्मबंधकृत् ।770। =जो सम्यग्दर्शन के बिना द्रव्यचारित्र तथा श्रुतज्ञान होता है वह न सम्यग्ज्ञान है और न सम्यग्चारित्र है। यदि है तो वह ज्ञान तथा चारित्र केवल कर्मबंध को ही करने वाला है।
- सम्यग्दृष्टि का कुशास्त्र ज्ञान भी कथंचित् सम्यक् है
स्याद्वादमंजरी/23/274/16 सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमपि सम्यक्श्रुततया परिणमति सम्यग्दृशाम् । सर्वविदुपदेशानुसारिप्रवृत्तितया मिथ्याश्रुतोक्तस्याप्यर्थस्य यथावस्थितविधिनिषेधविषयतयोन्नयनात् ।=सम्यग्दृष्टि मिथ्याशास्त्रों को पढ़कर उन्हें सम्यक्श्रुत समझता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि सर्वज्ञदेव के उपदेश के अनुसार चलता है, इसलिए वह मिथ्या आगमों का भी यथोचित् विधि निषेधरूप अर्थ करता है।
- सम्यग्ज्ञान को ही ज्ञान संज्ञा है
मूलाचार/267-268 जेण तच्चं विबुज्झेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे।267। जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि। जेण मेत्ती पभावेज्ज तं णाणं जिणसासणे।268।=जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाय, जिससे मन का व्यापार रुक जाय, जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिनशासन में उसे ही ज्ञान कहा गया है।267। जिससे राग से विरक्त हो, जिससे श्रेयस मार्ग में रत हो, जिससे सर्व प्राणियों में मैत्री प्रवर्तै, वही जिनमत में ज्ञान कहा गया है।268।
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/117 जाणइं तिक्कालसहिए दव्वगुणपज्जए बहुब्भेए। पच्चक्खं च परोक्खं अणेण, णाण त्ति णं विंति।117।=जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक सर्व द्रव्य, उनके समस्त गुण और उनकी बहुत भेदवाली पर्यायों को प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से जानता है, उसे निश्चय से ज्ञानीजन ज्ञान कहते हैं। ( धवला 1/1,1,4/ गाथा.91/144), (पं.तं.सं./1/213), ( गोम्मटसार जीवकांड/299/648 )
समयसार/ पं.जयचंद/74
= मिथ्यात्व जाने के बाद उसे विज्ञान कहा जाता है। (और भी देखें ज्ञानी का लक्षण )
- सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का नाम निर्देश
- सम्यक् व मिथ्याज्ञान संबंधी शंका-समाधान व समन्वय
- तीनों अज्ञानों में कौन-कौन-सा मिथ्यात्व घटित होता है
श्लोकवार्तिक 4/1/31/13/118/6 मतौ श्रुते च त्रिविधं मिथ्यात्वं बोद्धव्यं मतेरिंद्रियानिंद्रियनिमित्तकत्वनियमात् । श्रुतस्यानिंद्रियनिमित्तकत्वनियमाद् द्विविधमवधौ संशयाद्विना विपर्ययानध्यवसायावित्यर्थ:।=मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में तीनों प्रकार का मिथ्यात्व (संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय) समझ लेना चाहिए। क्योंकि मतिज्ञान के निमित्त कारण इंद्रिय और अनिंद्रिय हैं ऐसा नियम है तथा श्रुतज्ञान का निमित्त नियम से अनिंद्रिय माना गया है। किंतु अवधिज्ञान में संशय के बिना केवल विपर्यय व अनध्यवसाय संभवते हैं (क्योंकि यह इंद्रिय अनिंद्रिय की अपेक्षा न करके केवल आत्मा से उत्पन्न होता है और संशय ज्ञान इंद्रिय व अनिंद्रिय के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता।)
- अज्ञान कहने से क्या यहाँ ज्ञान का अभाव इष्ट है
धवला 7/2,1,44/84/10 एत्थ चोदओ भणदि–अण्णाणमिदि वुत्ते किं णाणस्स अभावो घेप्पदि आहो ण घेप्पदि त्ति। णाइल्लो पक्खो मदिणाणाभावे मदिपुव्वं सुदमिदि कट्टु सुदणाणस्स वि अभावप्पसंगादो। ण चेदं पि ताणमभावे सव्वणाणाणमभावप्पसंगादो। णाणाभावे ण दंसणं पि दोण्णमण्णोणाविणाभावादो। णाणदंसणाभावे ण जीवो वि, तस्स तल्लक्खणत्तादो त्ति। ण विदियपक्खो वि, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो त्ति। एत्थ परिहारो वुच्चदे–ण पढमपक्खदोससंभवो, पसज्जपडिसेहेण एत्थ पओजणाभावा। ण विदियपक्खुत्तदोसो वि, अप्पेहिंतो विदिरित्तासेसदव्वोतु सविहिवहसंठिएसु पडिसेहस्स फलभावुवलंभादो। किमट्ठं पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे।=प्रश्न–अज्ञान कहने पर क्या ज्ञान का अभाव ग्रहण किया है या नहीं किया है? प्रथम पक्ष तो बन नहीं सकता, क्योंकि मतिज्ञान का अभाव मानने पर ‘मतिपूर्वक ही श्रुत होता है’ इसलिए श्रुतज्ञान के अभाव का भी प्रसंग आ जायेगा। और ऐसा भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, मति और श्रुत दोनों ज्ञानों के अभाव में सभी ज्ञानों के अभाव का प्रसंग आ जाता है। ज्ञान के अभाव में दर्शन भी नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान और दर्शन इन दोनों का अविनाभावी संबंध है। और ज्ञान और दर्शन के अभाव में जीव भी नहीं रहता, क्योंकि जीव का तो ज्ञान और दर्शन ही लक्षण है। दूसरा पक्ष भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि, यदि अज्ञान कहने पर ज्ञान का अभाव न माना जाये तो फिर प्रतिषेध के फलाभाव का प्रसंग आ जाता है? उत्तर–प्रथम पक्ष में कहे गये दोष की प्रस्तुत पक्ष में संभावना नहीं है, क्योंकि यहाँ पर प्रसज्यप्रतिषेध अर्थात् अभावमात्र से प्रयोजन नहीं है। दूसरे पक्ष में कहा गया दोष भी नहीं आता, क्योंकि, यहाँ जो अज्ञान शब्द से ज्ञान का प्रतिषेध किया गया है, उसकी, आत्मा को छोड़ अन्य समीपवर्ती प्रदेश में स्थित समस्त द्रव्यों में स्व व पर विवेक के अभावरूप सफलता पायी जाती है। अर्थात् स्व पर विवेक से रहित जो पदार्थ ज्ञान होता है उसे ही यहाँ अज्ञान कहा है। प्रश्न–तो यहाँ सम्यग्दृष्टि के ज्ञान का भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय? उत्तर–देखें ज्ञान - III.2.8।
- मिथ्याज्ञान की अज्ञान संज्ञा कैसे है?
धवला 1/1,1,4/142/4 कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयात्प्रतिभासितेऽपि वस्तुनि संशयविपर्ययानध्यवसायानिवृत्तितस्तेषामज्ञानितोक्त:। एवं सति दर्शनावस्थायां ज्ञानाभाव: स्यादिति चेन्नैष दोष:, इष्टत्वात् ।...एतेन संशयविपर्ययानध्यवसायावस्थासु ज्ञानाभाव: प्रतिपादित: स्यात्, शुद्धनयविवक्षायां तत्त्वार्थोपलंभकं ज्ञानम् । ततो मिथ्यादृष्टयो न ज्ञानिन:। =प्रश्न–यदि सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनों के प्रकाश में (ज्ञानसामान्य में) समानता पायी जाती है, तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकते हैं? उत्तर–यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व कर्म के उदय से वस्तु के प्रतिभासित होने पर भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय की निवृत्ति नहीं होने से मिथ्यादृष्टियों को अज्ञानी कहा है। प्रश्न–इस तरह मिथ्यादृष्टियों को अज्ञानी मानने पर दर्शनोपयोग की अवस्था में ज्ञान का अभाव प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, दर्शनोपयोग की अवस्था में ज्ञानोपयोग का अभाव इष्ट ही है। यहाँ संशय विपर्यय और अनध्यवसायरूप अवस्था में ज्ञान का अभाव प्रतिपादित हो जाता है। कारण कि शुद्धनिश्चयनय की विवक्षा में वस्तुस्वरूप का उपलंभ कराने वाले धर्म को ही ज्ञान कहा है। अत: मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानी नहीं हो सकते हैं।
धवला 5/1,7,45/224/3 कधं मिच्छादिट्ठिणाणस्स अण्णाणत्तं। णाणकज्जाकरणादो। किं णाणकज्जं। णादत्थसद्दहणं। ण ते मिच्छादिट्ठिम्हि अत्थि। तदो णाणमेव अणाणं, अण्णहा जीवविणासप्पसंगा। अवगयदवधम्मणाहसु मिच्छादिट्ठिम्हि सद्दहणमुवलंभए चे ण, अत्तागमपयत्थसद्दणहणविरहियस्स दवधम्मणाहसु जहट्ठसद्दहणविरोहा। ण च एस ववहारो लोगे अप्पसिद्धो, पुत्तकज्जमकुणंते पुत्ते वि लोगे अपुत्तववहारदंसणादो।=प्रश्न–मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान को अज्ञानपना कैसे कहा? उत्तर–क्योंकि, उनका ज्ञान ज्ञान का कार्य नहीं करता है। प्रश्न–ज्ञान का कार्य क्या है? उत्तर–जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना ज्ञान का कार्य है। इस प्रकार का ज्ञान मिथ्यादृष्टि जीव में पाया नहीं जाता है। इसलिए उनके ज्ञान को ही अज्ञान कहा है। अन्यथा जीव के अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा। प्रश्न–दयाधर्म को जानने वाले ज्ञानियों में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव में तो श्रद्धान पाया जाता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, दयाधर्म के ज्ञाताओं में भी, आप्त आगम और पदार्थ के प्रति श्रद्धान से रहित जीव के यथार्थ श्रद्धान के होने का विरोध है। ज्ञान का कार्य नहीं करने पर ज्ञान में अज्ञान का व्यवहार लोक में अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, पुत्र के कार्य को नहीं करने वाले पुत्र में भी लोक के भीतर अपुत्र कहने का व्यवहार देखा जाता है। ( धवला 1/1,1,115/353/7 )।
- मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है ?
धवला 7/2,1,45/86/7 कधं मदिअण्णाणिस्स खवोवसमिया लद्धो। मदिअण्णाणावरणम्स देसघादिफद्दयाणमुदएण मदिअणाणित्तुवलंभादो। जदि देसघादिफद्दयाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स ओदइयत्तं पसज्जदे। ण, सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावा। कधं पुण खओवसमियत्तं (देखें क्षयोपशम - 1 में क्षयोपशम के लक्षण)। =प्रश्न–मति अज्ञानी जीव के क्षायोपशमिक लब्धि कैसे मानी जा सकती है? उत्तर–क्योंकि, उस जीव के मति अज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों के उदय से मति अज्ञानित्व पाया जाता है। प्रश्न–यदि देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानित्व को औदयिक भाव मानने का प्रसंग आता है? उत्तर–नहीं आता, क्योंकि, वहाँ सर्वघाति स्पर्धकों के उदय का अभाव है। प्रश्न–तो फिर अज्ञानित्व में क्षायोपशमिकत्व क्या है? उत्तर–(देखें क्षयोपशम का लक्षण )।
- मिथ्याज्ञान दर्शाने का प्रयोजन
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/22/51/1 एवमज्ञानिज्ञानिजीवलक्षणं ज्ञात्वा निर्विकारस्वसंवेदनलक्षणे भेदज्ञाने स्थित्वा भावना कार्येति तामेव भावनां दृढयति।=इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी जीव का लक्षण जानकर, निर्विकार स्वसंवेदन लक्षणवाला जो भेदज्ञान, उसमें स्थित होकर भावना करनी चाहिए तथा उसी भावना को दृढ़ करना चाहिए।
- तीनों अज्ञानों में कौन-कौन-सा मिथ्यात्व घटित होता है
- भेद व लक्षण
- निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान
- निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश
- निश्चय सम्यग्ज्ञान माहात्म्य
प्रवचनसार/80 जो जाणदि अरहंत दव्वत्त गुणत्त पज्जेत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादु तस्स लयं।80।=जो अर्हंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने जानता है, वह आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है।
रयणसार/144 दव्वगुणपज्जएहिं जाणइ परसमयसमयादिविभेयं। अप्पाणं जाणइ सो सिवगइण्हणायगो होर्इ।144।=आत्मा के दो भेद हैं–एक स्वसमय और दूसरा परसमय। जो जीव इन दोनों को द्रव्य, गुण व पर्याय से जानता है, वह ही वास्तव में आत्मा को जानता है। वह जीव ही शिवपथ का नायक होता है।
भगवती आराधना/768-769 णाणुज्जीवो जीवो णाणुज्जीवस्स णत्थि पडिघादो। दीवइ खेत्तमप्पं सूरो णाणं जगमसेसं।768। णाणं पयासआ सो वओ तओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हंपि समाओगे मोक्खो जिनसासणे दिट्ठा।769।=ज्ञानप्रकाश ही उत्कृष्ट प्रकाश है, क्योंकि किसी के द्वारा भी इसका प्रतिघात नहीं हो सकता। सूर्य का प्रकाश यद्यपि उत्कृष्ट समझा जाता है, परंतु वह भी अल्पमात्र क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है। ज्ञान प्रकाश समस्त जगत् को प्रकाशित करता है।768। ज्ञान संसार और मुक्ति दोनों के कारणों को प्रकाशित करता है। व्रत, तप, गुप्ति व संयम को प्रकाशित करता है तथा तीनों के संयोगरूप जिनोपदिष्ट मोक्ष को प्रकाशित करता है।769।
योगसार (अमितगति)/9/31 अनुष्ठानास्पदं ज्ञानं ज्ञानं मोहतमोऽपहम् । पुरुषार्थकरं ज्ञानं ज्ञानं निर्वृतिसाधनम् ।31। =’ज्ञान’ अनुष्ठान का स्थान है, मोहांधकार का विनाश करने वाला है, पुरुषार्थ का करने वाला है, और मोक्ष का कारण है।
ज्ञानार्णव/7/21-23 यत्र वालश्चरत्यस्मिन्पथि तत्रैव पंडित:। बाल: स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्त्वविद्ध्रुवम् ।21। दुरिततिमिरहंसं मोक्षलक्ष्मीसरोजं मदनभुजगमंत्रं चित्तमातंगसिहं व्यसनघनसमीरं विश्वतत्त्वैकदीपं, विषयशफरजालं ज्ञानमाराधय त्वम् ।22। अस्मिन्संसारकक्षे यमभुजगविषाक्रांतनि:शेषसत्त्वे, क्रोधाद्युत्तंगशैले कुटिलगतिसरित्पातंसंतापभीमे। मोहांधा: संचरंति स्खलनविधुरता: प्राणिनस्तावदेते, यावद्विज्ञानभानुर्भवभयदमिदं नोच्छिनत्त्यंधकारम् ।23।=जिस मार्ग में अज्ञानी चलते हैं उसी मार्ग में विद्वज्जन चलते हैं, परंतु अज्ञानी तो अपनी आत्मा को बाँध लेता है और तत्त्वज्ञानी बंधरहित हो जाता है, यह ज्ञान का माहात्म्य है।21। हे भव्य तू ज्ञान का आराधन कर, क्योंकि, ज्ञान पापरूपी तिमिर नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है, और मोक्षरूपी लक्ष्मी के निवास करने के लिए कमल के समान है। कामरूपी सर्प के कीलने को मंत्र के समान है, मनरूपी हस्ती को सिंह के समान है, आपदारूपी मेघों को उड़ाने के लिए पवन के समान है, समस्त तत्त्वों को प्रकाश करने के लिए दीपक के समान है तथा विषयरूपी मत्स्यों को पकड़ने के लिए जाल के समान है।22। जब तक इस संसाररूपी वन में सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य उदित होकर संसारभयदायक अज्ञानांधकार का उच्छेद नहीं करता तब तक ही मोहांध प्राणी निज स्वरूप से च्युत हुए गिरते पड़ते चलते हैं। कैसा है संसाररूपी वन?–जिसमें कि पापरूपी सर्प के विष से समस्त प्राणी व्याप्त हैं, जहाँ क्रोधादि पापरूपी बड़े-बड़े पर्वत हैं, जो वक्र गमनवाली दुर्गतिरूपी नदियों में गिरने से उत्पन्न हुए संताप से अतिशय भयानक हैं। ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश होने से किसी प्रकार का दु:ख व भय नहीं रहता है।23।
- भेदविज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है
इष्टोपदेश/33 गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्ते: स्वपरांतरम् । जानाति य: स जानाति मोक्षसौख्यं निरंतरम् ।33।=जो कोई प्राणी गुरूपदेश से अथवा शास्त्राभ्यास से या स्वात्मानुभव से स्व व पर के भेद को जानता है वही पुरुष सदा मोक्षसुख को जानता है।
समयसार / आत्मख्याति/200 एवं सम्यग्दृष्टि: सामान्येन विशेषेण च, परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्योऽपि विविच्य टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति।
समयसार / आत्मख्याति/314
स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति।=इस प्रकार सम्यग्दृष्टि सामान्यतया और विशेषतया परभावस्वरूप सर्व भावों से विवेक (भेदज्ञान) करके टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जिसका स्वभाव है ऐसा जो आत्मतत्त्व उसको जानता है।...आत्मा स्व पर के भेदविज्ञान से ज्ञायक होता है।
- अभेद ज्ञान या इंद्रियज्ञान अज्ञान हैं
समयसार/314 स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति।=स्व पर के एकत्व ज्ञान से आत्मा अज्ञायक होता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/55 परोक्षं हि ज्ञानं...आत्मन: स्वयं परिच्छेत्तुमर्थमसमर्थस्योपात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणव्यग्रतयात्यंतविसंष्ठुलत्वमवलंबमानमनंताया: शक्ते:...परमार्थतोऽर्हति। अतस्तद्धेयम् ।=परोक्षज्ञान आत्मपदार्थ को स्वयं जानने में असमर्थ होने से उपात्त और अनुपात्त परपदार्थ रूप सामग्री को ढूँढ़ने की व्यग्रता से अत्यंत चंचल-तरल-अस्थिर वर्तता हुआ, अनंत शक्ति से च्युत होने से अत्यंत खिन्न होता हुआ...परमार्थत: अज्ञान में गिने जाने योग्य है; इसलिए वह हेय है।
- आत्म ज्ञान के बिना सर्व आगम ज्ञान अकिंचित्कर है
मोक्षपाहुड़/100 जदि पढदि बहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहे य चारित्ते। तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीयं।100।=आत्म स्वभाव से विपरीत बहुत प्रकार के शास्त्रों का पढ़ना और बहुत प्रकार के चारित्र का पालन भी बाल श्रुत बालचरण है। (मूलाचार/897)।
मूलाचार/894 धीरो वइरागपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिज्झदि हु। ण हि सिज्झहि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्था।=धीर और वैराग्य परायण तो अल्पमात्र शास्त्र पढ़ा हो तो भी मुक्त हो जाता है, परंतु वैराग्य विहीन सर्व शास्त्र भी पढ़ ले तो भी मुक्त नहीं होता।
समाधिशतक/94 विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते। देहात्मदृष्टिर्ज्ञातात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते।94।=शरीर में आत्मबुद्धि रखने वाला बहिरात्मा संपूर्ण शास्त्रों को जान लेने पर भी मुक्त नहीं होता और देह से भिन्न आत्मा का अनुभव करने वाला अंतरात्मा सोता और उन्मत्त हुआ भी मुक्त हो जाता है। ( योगसार (योगेंदुदेव)/96 ) ( ज्ञानार्णव/32/100 )।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/84 बोह णिमित्ते सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु। तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मूढु ण तत्थु।84।=इस लोक में नियम से ज्ञान के निमित्त शास्त्र पढ़े जाते हैं परंतु शास्त्र के पढ़ने से भी जिसको उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, वह क्या मूढ़ नहीं है ? है ही !
परमात्मप्रकाश/ मूल/2/191 घोरु करंतु वि तवचरणु सयल वि सत्थ मुणंतु। परमसमाहि-विवज्जियउ णवि देक्खइ सिउ संतु।191।=महा दुर्धर तपश्चरण करता हुआ और सब शास्त्रों को जानता हुआ भी, जो परम समाधि से रहित है वह शांतरूप शुद्धात्मा को नहीं देख सकता।
नयचक्र बृहद्/284 में उद्धृत "णियदव्वजाणणट्ठं इयरं कहियं जिणेहिं छद्दव्वं। तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं।" = जिनेंद्र भगवान् ने निजद्रव्य को जानने के लिए ही अन्य छह द्रव्यों का कथन किया है, अत: मात्र उन पररूप छ: द्रव्यों का जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है।
आराधनासार/मूल/111,54 अति करोतु तप: पालयतु संयमं पठतु सकलशास्त्राणि। यावन्न ध्यायत्यात्मानं तावन्न मोक्षो जिनो भवति।111। सकलशास्त्रसेवितां सूरिसंघानदृढयतु च तपश्चाभ्यस्तु स्फीतयोगम् । चरतु विनयवृत्तिं बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलास: सर्वमेतन्न किंचित् ।54।=तप करो, संयम पालो, सकल शास्त्रों को पढो परंतु जब तक आत्मा को नहीं ध्याता तब तक मोक्ष नहीं होता।111। सकल शास्त्रों का सेवन करने में भले आचार्य संघ को दृढ़ करो, भले ही योग में दृढ़ होकर तप का अभ्यास करो, विनयवृत्ति का आचरण करो, विश्व के तत्त्वों को जान जाओ, परंतु यदि विषय विलास है तो सबका सब अकिंचित्कर है।54।
योगसार अमितगति/7/43 आत्मध्यानरतिर्ज्ञेयं विद्वत्ताया: परं फलम् । अशेषशास्त्रशास्तृत्वं संसारोऽभाषि धीधनै:।43।=विद्वान् पुरुषों ने आत्मध्यान में प्रेम होना विद्वत्ता का उत्कृष्ट फल बतलाया है और आत्मध्यान में प्रेम न होकर केवल अनेक शास्त्रों को पढ़ लेना संसार कहा है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/271 )
समयसार/ आत्मख्याति/277 नाचारादिशब्दश्रुतमेकांतेन ज्ञानस्याश्रय: तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात् ।=मात्र आचारांगादि शब्द श्रुत ही (एकांत से) ज्ञान का आश्रय नहीं है, क्योंकि उसके सद्भाव में भी अभव्यों को शुद्धात्मा के अभाव के कारण ज्ञान का अभाव है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/466 जो णवि जाणदि अप्पं णाणसरूवं सरीरदो भिण्णं। सो णवि जाणदि सत्थं आगमपाढं कुणंतो वि।466।=जो ज्ञानस्वरूप आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता वह आगम का पठन-पाठन करते हुए भी शास्त्र को नहीं जानता।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/101 पुद्गलपरिणाम:....व्याप्यव्यापकभावेन....न करोति....इति यो जानाति...निर्विकल्पसमाधौ स्थित: सन् स ज्ञानी भवति। न च परिज्ञान मात्रेणेव।=ʻआत्मा व्याप्यव्यापकभाव से पुद्गल का परिणाम नहीं करता है’ यह बात निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर जो जानता है वह ज्ञानी होता है। परिज्ञान मात्र से नहीं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/237 जीवस्यापि परमागमाधारेण सकलपदार्थज्ञेयाकारकरावलंबितविशदैकज्ञानरूपं स्वात्मानं जानतोऽपि ममात्मैवोपादेय इति निश्चयरूपं यदि श्रद्धानं नास्ति तदास्य प्रदीपस्थानीय आगम: किं करोति न किमपि।=परमागम के आधार से, सकलपदार्थों के ज्ञेयाकार से अवलंबित विशद एक ज्ञानरूप निजआत्मा को जानकर भी यदि मेरी यह आत्मा ही उपादेय है ऐसा निश्चयरूप श्रद्धान न हुआ तो उस जीव की प्रदीपस्थानीय यह आगम भी क्या करे।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/463 स्वात्मानुभूतिमात्रं स्यादास्तिक्यं परमो गुण:। भवेन्मा वा परद्रव्ये ज्ञानमात्रं परत्वत: ।463। =केवल स्वात्मा की अनुभूतिरूप आस्तिक्य ही परमगुण है। किंतु परद्रव्य में वह आस्तिक्य केवल स्वानुभूतिरूप हो अथवा न भी हो।
और भी देखें ज्ञान - III.2.9 (मिथ्यादृष्टि का आगमज्ञान अकिंचित्कर है।)
- निश्चय सम्यग्ज्ञान माहात्म्य
- व्यवहार सम्यग्ज्ञान निर्देश
- व्यवहारज्ञान निश्चय का साधन है तथा इसका कारण
नयचक्र बृहद्/297 (उद्धृत) उक्तं चान्यत्र ग्रंथे:–दव्वसुयादो भावं तत्तो उहयं हवेइ संवेदं। तत्तो संवित्ती खलु केवलणाणं हवे तत्तो।297।=अन्यत्र ग्रंथ में कहा भी है कि द्रव्य श्रुत के अभ्यास से भाव होते हैं, उससे बाह्य और अभ्यंतर दोनों प्रकार का संवेदन होता है, उससे शुद्धात्मा की संवित्ति होती है और उससे केवलज्ञान होता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/6 तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञानं कथ्यते।–निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चय ज्ञानं भण्यते (पृष्ठ 184/4)।=उस विकल्परूप व्यवहार ज्ञान के द्वारा साध्य निश्चय ज्ञान का कथन करते हैं। निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान को ही निश्चय ज्ञान कहते हैं। (और भी देखें समयसार )।
- आगमज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहना उपचार है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/34 श्रुतं हि तावत्सूत्रम् ।....तज्ज्ञप्तिर्हि ज्ञानम् । श्रुतं तु तत्कारणत्वात् ज्ञानत्वेनोपचर्यत एव।" =श्रुत ही सूत्र है। उस (शब्द ब्रह्मरूप सूत्र) की ज्ञप्ति सो ज्ञान है। श्रुत (सूत्र) उसका कारण होने से ज्ञान के रूप में उपचार से ही कहा जाता है।
- व्यवहारज्ञान प्राप्ति का प्रयोजन
समयसार/415 जो समयपाहुडमिणं पढिउण अत्थतच्चओ णाउं। अत्थे वट्टी चेया सो होही उत्तमं सोक्खं।415।=जो आत्मा इस समयप्राभृत को पढ़कर अर्थ और तत्त्व को जानकर उसके अर्थ में स्थित होगा, वह उत्तम सौख्यस्वरूप होगा।
प्रवचनसार/88,154,232 जो मोहरागदोसो गिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण। तं सब्भावणिबद्धं सव्वसहावं तिहा समक्खादं। जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्मि।154। एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु। णिच्छित्ती आगमदो आगम चेट्ठा ततो जेट्ठा।232।=जो जिनेंद्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह, राग, द्वेष को हनता है वह अल्पकाल में सर्व दु:खों से मुक्त होता है।88। जो जीव उस अस्तित्व निष्पन्न तीन प्रकार से कथित द्रव्य स्वभाव को जानता है वह अन्य द्रव्यों में मोह को प्राप्त नहीं होता।154। श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान के होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है अत: आगम में व्यापार मुख्य है।232।
प्रवचनसार/ मूल/126 कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं।126।=यदि श्रमण कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है, ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्य रूप परिणमित न ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है। ( प्रवचनसार/ मूल/160)
पंचास्तिकाय/मूल/103 एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता। जो मुयदि रागदोसे सा गाहदि दुक्खपरिमोक्खं।103।"=इस प्रकार प्रवचन के सारभूत ʻपंचास्तिकायसंग्रह’ को जानकर जो रागद्वेष को छोड़ता है वह दु:ख से परिमुक्त होता है।
नयचक्र बृहद्/284 में उद्धृत –णियदव्वजाणणट्ठ इयरं कहियं जिणेहिं छद्दव्वं।=निज द्रव्य को जानने के लिए ही जिनेंद्र भगवान् ने अन्य छह द्रव्यों का कथन किया है।
आत्मानुशासन/174-175 ज्ञानस्वभाव: स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युति:। तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।174। ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाध्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्रमृग्यते।175।=मुक्ति की अभिलाषा करने वाले को मात्र ज्ञानभावना का चिंतवन करना चाहिए कि जिससे अविनश्वर ज्ञान की प्राप्ति होती है परंतु अज्ञानी प्राणी ज्ञानभावना का फल ऋद्धि आदि की प्राप्ति समझते हैं, सो उनके प्रबल मोह की महिमा है।
समयसार/ आत्मख्याति/153/कलश 105 यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं, शिवस्यायं हेतु: स्वयमपि यतस्तच्छिव इति। अतोऽंयद्बंधस्य स्वयमपि यतो बंध इति तत्, ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम् ।105।=जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूप से और अचलरूप से ज्ञानस्वरूप होता हुआ या परिणमता हुआ भासित होता है, वही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है। उसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ है वह बंध का हेतु है, क्योंकि वह स्वयमेव बंधस्वरूप है। इसलिए आगम में ज्ञानस्वरूप होने का अर्थात् अनुभूति करने का ही विधान है।
पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/172 द्विविधं किल तात्पर्यम्-सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यंचेति। तत्र सूत्रतात्पर्यं प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् । शास्त्रतात्पर्यत्विदं प्रतिपाद्यते। अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य...साक्षांमोक्षकारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रांतसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति।=तात्पर्य दो प्रकार का होता है–सूत्र तात्पर्य और शास्त्र तात्पर्य। उसमें सूत्र तात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रतिपादित किया गया है और शास्त्र तात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है। साक्षात् मोक्ष के कारणभूत परमवीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है ऐसे इस (पंचास्तिकाय, षट्द्रव्य सप्ततत्त्व व नवपदार्थ के प्रतिपादक) यथार्थ पारमेश्वर शास्त्र का, परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/187 )।
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/14 सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्यविभागपरिज्ञानश्रद्धानविधानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थसूत्र:।=सूत्रों के अर्थ के ज्ञानबल से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के परिज्ञान में, श्रद्धान में और विधान में समर्थ होने से जो श्रमण पदार्थों को और सूत्रों को जिन्होंने भलीभाँति जान लिया है...।
पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/3 ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थं शब्दसमयसंबोधनार्थसमयोऽभिधातुमभिप्रेत:।=ज्ञानसमय की प्रसिद्धि के लिए शब्दसमय के संबंध से अर्थसमय का कथन करना चाहते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/89,90/111/19 ज्ञानात्मकमात्मानं जानाति यदि।...परं च यथो चितचेतनाचेतनपरकीयद्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । कस्मात् निश्चयत: निश्चयानुकूलं भेदज्ञानमाश्रित्य। य: स...मोहस्य क्षयं करोतीति सूत्रार्थ:। अथ पूर्वसूत्रे यदुक्तं स्वपरभेदविज्ञानं तदागमत: सिद्धयतीति प्रतिपादयति।=यदि कोई पुरुष ज्ञानात्मक आत्मा को तथा यथोचितरूप से परकीय चेतनाचेतन द्रव्यों को निश्चय के अनुकूल भेदज्ञान का आश्रय लेकर जानता है तो वह मोह का क्षय कर देता है। और यह स्व-परभेद विज्ञान आगम से सिद्ध होता है।
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति /173/254/19 श्रुतभावनाया: फलं जीवादितत्त्वविषये संक्षेपेण हेयोपादेयतत्त्वविषये वा संशयविमोहविभ्रमरहितो निश्चलपरिणामो भवति।=श्रुतभावना का फल, जीवादि तत्त्वों के विषय में अथवा हेयोपादेय तत्त्व के विषय में संशय विमोह व विभ्रम रहित निश्चल परिणाम होना है। द्रव्यसंग्रह टीका/1/7/7 प्रयोजनं तु व्यवहारेण षड्द्रव्यादिपरिज्ञानम्, निश्चयेन निजनिरंजनशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पंनपरमानंदैकलक्षणसुखामृतरसास्वादरूपं स्वसंवेदनज्ञानम् ।=इस शास्त्र का प्रयोजन व्यवहार से तो षट्द्रव्य आदि का परिज्ञान है और निश्चय से निज निरंजन शुद्धात्म संवित्ति से उत्पन्न परमानंदरूप एक लक्षण वाले सुखामृत के रसास्वादरूप स्वसंवेदन ज्ञान है।
द्रव्यसंग्रह टीका/20/10/6 शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयं शेषं च हेयम् । इति हेयोपादेयरूपेण भावार्थोऽप्यवबोद्धव्य:।=शुद्ध नय के आश्रित जो जीव का स्वरूप है, वह तो उपादेय है और शेष सब हेय है। इस प्रकार हेयोपादेय रूप से भावार्थ भी समझना चाहिए।
- व्यवहारज्ञान निश्चय का साधन है तथा इसका कारण
- निश्चय व्यवहार ज्ञान का समन्वय
- निश्चय ज्ञान का कारण प्रयोजन
समयसार / आत्मख्याति/295 एतदेव किलात्मबंधयोर्द्विधाकरणस्य प्रयोजनं यद्बंधत्यागेन शुद्धात्मोपादानम् ।=वास्तव में यही आत्मा और बंध के द्विधा करने का प्रयोजन है कि बंध के त्याग से शुद्धात्मा को ग्रहण करना है।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/127 एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेद: सम्यग्ज्ञानिनां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति। =इस प्रकार यहाँ जीव और अजीव का वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियों के मार्ग की प्रसिद्धि के हेतु प्रतिपादित किया गया है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/25 एवं देहात्मनोर्भेदज्ञानं ज्ञात्वा मोहोदयोत्पन्नसमस्तविकल्पजालं त्यक्त्वा निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रे निजपरमात्मतत्त्वे भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।=इस प्रकार देह और आत्मा के भेदज्ञान को जानकर, मोह के उदय से उत्पन्न समस्त विकल्पजाल को त्यागकर निर्विकार चैतन्यचमत्कार मात्र निजपरमात्म तत्त्व में भावना करनी चाहिए, ऐसा तात्पर्य है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/182/246/17 भेदविज्ञाने जाते सति मोक्षार्थी जीव: स्वद्रव्ये प्रवृत्तिं परद्रव्ये निवृत्तिं च करोतीति भावार्थ:। =भेद विज्ञान हो जाने पर मोक्षार्थी जीव स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्यों में निवृत्ति करता है, ऐसा भावार्थ है।
द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/3 निश्चयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं...उपादेय:। शेषं च हेयमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारमिति।...तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञानं...।...स्वस्य सम्यग्निर्विकल्परूपेण वेदनं...निश्चयज्ञानं भण्यते। =निश्चय से स्वकीय शुद्धात्मद्रव्य उपादेय है और शेष सब हेय है। इस प्रकार संक्षेप से हेयोपादेय के भेद से दो प्रकार व्यवहारज्ञान है। उसके विकल्परूप व्यवहारज्ञान के द्वारा निश्चयज्ञान साध्य है। सम्यक् व निर्विकल्प अपने स्वरूप का वेदन करना निश्चयज्ञान है। - निश्चय व्यवहारनय का समन्वय
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/263/354/23 बहिरंगपरमागमाभ्यासैनाभ्यंतरे स्वसंवेदनज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् ।=बहिरंग परमागम के अभ्यास से अभ्यंतर स्वसंवेदन ज्ञान का होना सम्यग्ज्ञान है।
परमात्मप्रकाश टीका/2/29/149/2 अयमत्र भावार्थ:। व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां तत्त्वविचारकाले स्वपरपरिच्छेदकं ज्ञानं भण्यते। निश्चयनयेन पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले बहिरुपयोगो यद्यप्यनीहितवृत्त्या निरस्तस्तथापीहापूर्वकविकल्पाभावाद्गौणत्वमिति कृत्वा स्वसंवेदनज्ञानमेव ज्ञानमुच्यते।=यहाँ यह भावार्थ है कि व्यवहारनय से तो तत्त्व का विचार करते समय सविकल्प अवस्था में ज्ञान का लक्षण स्वपरपरिच्छेदक कहा जाता है। और निश्चयनय से वीतराग निर्विकल्प समाधि के समय यद्यपि अनीहित वृत्ति से उपयोग में से बाह्यपदार्थों का निराकरण किया जाता है–फिर भी ईहापूर्वक विकल्पों का अभाव होने से उसे गौण करके स्वसंवेदन ज्ञान को ही ज्ञान कहते हैं।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/96/154/8 हे भगवन्, धर्मास्तिकायोऽयं जीवोऽयमित्यादिज्ञेयतत्त्वविचारकाले क्रियमाणे यदि कर्मबंधो भवतीति तर्हि ज्ञेयतत्त्वविचारो वृथेति न कर्तव्य:। नैवं वक्तव्यं। त्रिगुप्तिपरिणतनिर्विकल्पसमाधिकाले यद्यपि न कर्तव्यस्तथापि तस्य त्रिगुप्तिध्यानस्याभावे शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा आगमभाषया पुन: मोक्षमुपादेयं कृत्वा सरागसम्यक्त्वकाले विषयकषायवंचनार्थं कर्तव्य:।=प्रश्न–हे भगवन् ! ‘यह धर्मास्तिकाय है, यह जीव है’ इत्यादि ज्ञेयतत्त्व के विचारकाल में किये गये विकल्पों से यदि कर्मबंध होता है तो ज्ञेयतत्त्व का विचार करना वृथा है, इसलिए वह नहीं करना चाहिए ? उत्तर–ऐसा नहीं कहना चाहिए। यद्यपि त्रिगुप्ति गुप्त निर्विकल्प समाधि के समय वह नहीं करना चाहिए तथापि उस त्रिगुप्तिरूप ध्यान का अभाव हो जाने पर शुद्धात्म को उपादेय समझते हुए या आगम भाषा में एक मात्र मोक्ष को उपादेय करके सराग सम्यक्त्व के काल में विषय कषाय से बचने के लिए अवश्य करना चाहिए। (न.च.लघु/77)। और भी देखें नय - V.9.4 (निश्चय व व्यवहार सम्यग्ज्ञान में साध्यसाधन भाव)।
- निश्चय ज्ञान का कारण प्रयोजन
- निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश
पुराणकोष से
जीव का अबाधित गुण । इससे स्व और पर का बोध होता है । यह धर्म-अधर्म, हित-अहित, बंध-मोक्ष का बोधक तथा देव, गुरु और धर्म की परीक्षा का साधन है । यह मतिज्ञान आदि के भेद से पाँच प्रकार का होता है । प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से इसके दो भेद हैं । इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-परोक्ष तथा अवधि, मनपर्याय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है । महापुराण 24.92,62.7, पद्मपुराण - 97.28, हरिवंशपुराण - 2.106, पांडवपुराण 22.71, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.15