आर्जव धर्म: Difference between revisions
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<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 73</span> <p class=" PrakritText ">मोत्तूण कुडिल भावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो। अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ॥73॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जो मनस्वी प्राणी (शुभ विचार वाला) कुटिल भाव व मायाचारी | <p class="HindiText">= जो मनस्वी प्राणी (शुभ विचार वाला) कुटिल भाव व मायाचारी परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है, उसके नियम से तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है।</p> | ||
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<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= डोरी के दो छोर पकड़ कर खींचने से वह सरल होती है। उसी तरह मन में-से कपट दूर करने पर वह सरल होता है अर्थात् मन की सरलता का नाम आर्जव है।</p> | ||
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<p class="HindiText">= जो विचार | <p class="HindiText">= जो विचार हृदय में स्थिर है, वही वचनमें रहता है तथा वही बाहर फलता है अर्थात् शरीर से भी तद्नुसार ही कार्य किया जाता है, यह आर्जव धर्म है, इससे विपरीत दूसरों को धोखा देना, यह अधर्म है। ये दोनों यहाँ क्रम से देवगति और नरकगति के कारण हैं।</p> | ||
< | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 396</span> <p class=" PrakritText ">जो चिंतेइ ण वंकंण कुणदि वंकंण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णिय दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥396॥</p> | ||
<p class="HindiText">= जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता वह आर्जव | <p class="HindiText">= जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता वह आर्जव धर्म का धारी होता है क्योंकि मन, वचन, काय की सरलता का नाम आर्जव धर्म है।</p> | ||
<p>( तत्त्वार्थसार अधिकार 6/15)</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef">( तत्त्वार्थसार अधिकार 6/15)</span></p> | ||
<p>2. आर्जवधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ</p> | <p class="HindiText"><b>2. आर्जवधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ</b></p> | ||
< | <span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1431-1435</span> <p class=" PrakritText ">अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेणणज्जंति। मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लद्धो ॥1431॥ पडि भोगम्मि असंते णियडि सहस्सेहि गूहमाणस्स। चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पायडो होइ ॥1432॥ जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स। जह समलत्ति ण घिप्पदि समलं पि जए तलायजलं ॥1433॥ डभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स। हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ॥1434॥ इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवट्टइ माया। इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया ॥1435॥</p> | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= दोषों को अतिशय छिपाने पर भी कालांतर से कुछ काल व्यतीत होने के बाद वे दोष लोगों को मालूम पड़ते ही हैं, इसलिए माया का प्रयोग करने पर भी क्या फायदा होता है? ध्यान में नहीं आता ॥1431॥ उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हजारों कपट करके दोषों को छिपाने पर भी प्रगट होते ही है। जैसे-चंद्र को राहु ग्रस लेता है यह बात छिपती नहीं सर्वजन प्रसिद्ध होती है। वैसे ही दोष छिपाने का कितना भी प्रयत्न करो, परंतु यदि तुम पुण्यवान् न होगे तो तुम्हारे दोष लोगों को मालूम होंगे ही ॥1432॥ जो पुण्यवान् पुरुष है उसका दोष लोगों को प्रत्यक्ष होने पर भी लोग उसको दोष मानते नहीं है, जैसे तालाब का पानी मलिन होने पर भी उसके मलिनपना की तरफ जब लक्ष्य नहीं देते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि-पुण्यवान को कपट करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि दोष प्रकट होने पर भी श्रीमान् मान्य होते ही हैं ॥1433॥ सैंकड़ों कपट प्रयोग करने पर भी और बे मालूम कपट प्रयोग करने पर भी पुण्यवान् मनुष्य से भिन्नं अर्थात् पापी मनुष्य को धन प्राप्त नहीं होता, तात्पर्य कपट करने से धन प्राप्त नहीं होता पुण्य से ही मिलता है ॥1434॥ इस प्रकार इस भव व परभव में माया से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर माया का त्याग करना चाहिए ॥1435॥</p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/6/27/599/15), ( चारित्रसार पृष्ठ 62/2), ( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/90), ( ज्ञानार्णव अधिकार 19/58-67)</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/6/27/599/15)</span>, <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 62/2)</span>, <span class="GRef">( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/90)</span>, <span class="GRef">( ज्ञानार्णव अधिकार 19/58-67)</span></p> | ||
< | <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 17-23/577 भावार्थ</span>-<p class="HindiText">वह कपटी है, इस तरह की अपकीर्ति को जो सहन कर नहीं सकता उसकी तो बात क्या, जो सहन भी कर सकता है वह भी इस संसार मार्ग को बढ़ाने वाली अनंतानुबंधी इस माया को दूर से छोड़ दे। क्योंकि नहीं तो मुझे पुंस्त्व पर्याय प्राप्त न होगी। इस लोक में तेरा कोई भी विश्वास न करेगा। जिन्होंने आर्जव धर्म रूपी नौका के द्वारा माया रूपी नदी को लाँघ लिया है वे लोकोत्तर पुरुष जयवंत रहो। परंतु मायापूर्ण वाक्यों से अर्थात् `कुंजरो न नरः' ऐसे मायापूर्ण वाक्यों से गुरु द्रोणाचार्य को धोखा देने के कारण युधिष्ठिर को इतनी ग्लानि हुई कि उन्होनें अपने को सत्पुरुषों से छिपा लिया। इस प्रकार माया से बड़े-बड़े पुरुषों को क्लेश हुआ है ऐसा जानकर माया का त्याग कर देना चाहिए।</p> | ||
<p>3. दश धर्म संबंधी विशेषताएँ - देखें [[ धर्म#8 | धर्म - 8]]।</p> | <p class="HindiText"><b>3. दश धर्म संबंधी विशेषताएँ</b> - देखें [[ धर्म#8 | धर्म - 8]]।</p> | ||
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Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
बारसाणुवेक्खा गाथा 73
मोत्तूण कुडिल भावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो। अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ॥73॥
= जो मनस्वी प्राणी (शुभ विचार वाला) कुटिल भाव व मायाचारी परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है, उसके नियम से तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/6/412/6
योगस्यावक्रता आर्जवम्।
= योगों का वक्र न होना आर्जव है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/6/4/595)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 46/154
आकृष्टांतद्वयसूत्रवद्वक्रताभावः आर्जवमित्युच्यते।
= डोरी के दो छोर पकड़ कर खींचने से वह सरल होती है। उसी तरह मन में-से कपट दूर करने पर वह सरल होता है अर्थात् मन की सरलता का नाम आर्जव है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका 1/89
हृदि यत्तद्वाचि बहिः फलति तदेवार्जवं भवत्येतत्। धर्मो निकृतिरधर्मो द्वाविह सुरसद्मनरकपथौ ॥89॥
= जो विचार हृदय में स्थिर है, वही वचनमें रहता है तथा वही बाहर फलता है अर्थात् शरीर से भी तद्नुसार ही कार्य किया जाता है, यह आर्जव धर्म है, इससे विपरीत दूसरों को धोखा देना, यह अधर्म है। ये दोनों यहाँ क्रम से देवगति और नरकगति के कारण हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 396
जो चिंतेइ ण वंकंण कुणदि वंकंण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णिय दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥396॥
= जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता वह आर्जव धर्म का धारी होता है क्योंकि मन, वचन, काय की सरलता का नाम आर्जव धर्म है।
( तत्त्वार्थसार अधिकार 6/15)
2. आर्जवधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1431-1435
अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेणणज्जंति। मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लद्धो ॥1431॥ पडि भोगम्मि असंते णियडि सहस्सेहि गूहमाणस्स। चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पायडो होइ ॥1432॥ जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स। जह समलत्ति ण घिप्पदि समलं पि जए तलायजलं ॥1433॥ डभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स। हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ॥1434॥ इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवट्टइ माया। इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया ॥1435॥
= दोषों को अतिशय छिपाने पर भी कालांतर से कुछ काल व्यतीत होने के बाद वे दोष लोगों को मालूम पड़ते ही हैं, इसलिए माया का प्रयोग करने पर भी क्या फायदा होता है? ध्यान में नहीं आता ॥1431॥ उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हजारों कपट करके दोषों को छिपाने पर भी प्रगट होते ही है। जैसे-चंद्र को राहु ग्रस लेता है यह बात छिपती नहीं सर्वजन प्रसिद्ध होती है। वैसे ही दोष छिपाने का कितना भी प्रयत्न करो, परंतु यदि तुम पुण्यवान् न होगे तो तुम्हारे दोष लोगों को मालूम होंगे ही ॥1432॥ जो पुण्यवान् पुरुष है उसका दोष लोगों को प्रत्यक्ष होने पर भी लोग उसको दोष मानते नहीं है, जैसे तालाब का पानी मलिन होने पर भी उसके मलिनपना की तरफ जब लक्ष्य नहीं देते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि-पुण्यवान को कपट करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि दोष प्रकट होने पर भी श्रीमान् मान्य होते ही हैं ॥1433॥ सैंकड़ों कपट प्रयोग करने पर भी और बे मालूम कपट प्रयोग करने पर भी पुण्यवान् मनुष्य से भिन्नं अर्थात् पापी मनुष्य को धन प्राप्त नहीं होता, तात्पर्य कपट करने से धन प्राप्त नहीं होता पुण्य से ही मिलता है ॥1434॥ इस प्रकार इस भव व परभव में माया से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर माया का त्याग करना चाहिए ॥1435॥
(राजवार्तिक अध्याय 9/6/27/599/15), (चारित्रसार पृष्ठ 62/2), ( पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/90), ( ज्ञानार्णव अधिकार 19/58-67)
अनगार धर्मामृत अधिकार 17-23/577 भावार्थ-
वह कपटी है, इस तरह की अपकीर्ति को जो सहन कर नहीं सकता उसकी तो बात क्या, जो सहन भी कर सकता है वह भी इस संसार मार्ग को बढ़ाने वाली अनंतानुबंधी इस माया को दूर से छोड़ दे। क्योंकि नहीं तो मुझे पुंस्त्व पर्याय प्राप्त न होगी। इस लोक में तेरा कोई भी विश्वास न करेगा। जिन्होंने आर्जव धर्म रूपी नौका के द्वारा माया रूपी नदी को लाँघ लिया है वे लोकोत्तर पुरुष जयवंत रहो। परंतु मायापूर्ण वाक्यों से अर्थात् `कुंजरो न नरः' ऐसे मायापूर्ण वाक्यों से गुरु द्रोणाचार्य को धोखा देने के कारण युधिष्ठिर को इतनी ग्लानि हुई कि उन्होनें अपने को सत्पुरुषों से छिपा लिया। इस प्रकार माया से बड़े-बड़े पुरुषों को क्लेश हुआ है ऐसा जानकर माया का त्याग कर देना चाहिए।
3. दश धर्म संबंधी विशेषताएँ - देखें धर्म - 8।