कारण: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | |||
< | <span class="HindiText"> कार्य के प्रति नियामक हेतु को कारण कहते हैं। वह दो प्रकार का है–अंतरंग व बहिरंग। अंतरंग को उपादान और बहिरंग को निमित्त कहते हैं। प्रत्येक कार्य इन दोनों से अवश्य अनुगृहीत होता है। साधारण, असाधारण, उदासीन, प्रेरक आदि के भेद से निमित्त अनेक प्रकार का है। यद्यपि शुद्ध द्रव्यों की एक समय स्थायी शुद्धपर्यायों में केवल कालद्रव्य ही साधारण निमित्त होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य निमित्तों का विश्व में कोई स्थान ही नहीं है। सभी अशुद्ध व संयोगी द्रव्यों की चिर काल स्थायी जितनी भी चिदात्मक या अचिदात्मक पर्यायें दृष्ट हो रही हैं, वे सभी संयोगी होने के कारण साधारण निमित्त (काल व धर्म द्रव्य) के अतिरिक्त अन्य बाह्य असाधारण सहकारी या प्रेरक निमित्तों के द्वारा भी यथा योग्य रूप में अवश्य अनुगृहीत हो रही हैं। फिर भी उपादान की शक्ति ही सर्वत: प्रधान होती है क्योंकि उसके अभाव में निमित्त किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकता। यद्यपि कार्य की उत्पत्ति में उपरोक्त प्रकार निमित्त व उपादान दोनों का ही समान स्थान है, पर निर्विकल्पता के साधक को मात्र परमार्थ का आश्रय होने से निमित्त इतना गौण हो जाता है, मानो वह है ही नहीं। संयोगी सर्व कार्यों पर से दृष्टि हट जाने के कारण और मौलिक पदार्थ पर ही लक्ष्य स्थिर करने में उद्यत होने के कारण उसे केवल उपादान ही दिखाई देता है, निमित्त नहीं, और उसका स्वाभाविक शुद्ध परिणमन ही दिखाई देता है, संयोगी अशुद्ध परिणमन नहीं। ऐसा नहीं होता कि केवल उपादान पर दृष्टि को स्थिर करके भी वह जगत् के व्यावहारिक कार्यों को देखता या तत्संबंधी विकल्प करता रहे। यद्यपि पूर्वबद्ध कर्मों के निमित्त से जीव के परिणाम और उन परिणामों के निमित्त से नवीन कर्मों का बंध, ऐसी अटूट श्रृंखला अनादि से चली आ रही है, तदपि सत्य पुरुषार्थ द्वारा साधक इस शृंखला को तोड़कर मुक्ति लाभ कर सकता है, क्योंकि उसके प्रभाव से सत्ता स्थित कर्मों में महान अंतर पड़ जाता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ कारण#I | कारण सामान्य निर्देश ]]</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ कारण#I.1 | कारण के भेद व लक्षण ]]</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> कारण | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.1.1 |कारण सामान्य का लक्षण। ]] <br /> | ||
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<li class="HindiText"> कारण के अंतरंग | <li class="HindiText">[[ कारण#I.1.2 | कारण के अंतरंग बहिरंग व आत्मभूत अनात्मभूत रूप भेद। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> उपरोक्त | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.1.3 |उपरोक्त भेदों के लक्षण।]]<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> सहकारी व | <li class="HindiText"> सहकारी व प्रेरक आदि निमित्तों के लक्षण—देखें [[ निमित्त कारण#6 | निमित्त कारण- 6]]। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> करण का | <li class="HindiText"> करण का लक्षण तथा करण व कारण में अंतर।—देखें [[ करण#1 | करण - 1]]।<br /> | ||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[ कारण#I.2 | उपादान कारण कार्य निर्देश ]]</strong><br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> निश्चय | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.2.1 |निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> द्रव्य | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.2.2 |द्रव्य का स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> त्रिकाली | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.2.3 |त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कारण है और उत्तरवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कार्य।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.2.4 |पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कारण है और उत्तरवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कार्य। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> वर्तमान | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.2.5 |वर्तमान पर्याय ही कारण है और वही कार्य।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कारण | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.2.6 |कारण कार्य में कथंचित् भेदाभेद। ]]</li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#I.3 | निमित्त कारण कार्य निर्देश ]]</strong> <br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> भिन्न | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.3.1 | भिन्न गुणों या द्रव्यों में भी कारण कार्य भाव होता है। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> उचित ही | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.3.2 |उचित ही द्रव्य को कारण कहा जाता है जिस किसी को नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तुमात्र को कारण नहीं कह सकते।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.3.3 |कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तुमात्र को कारण नहीं कह सकते। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु को कारणपना प्राप्त है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.3.4 |कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु को कारणपना प्राप्त है। ]]<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> कार्य पर | <li class="HindiText"> कार्य पर से कारण का अनुमान किया जाता है—देखें [[ अनुमान#2 | अनुमान - 2]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li class="HindiText"> अनेक | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.3.5 |अनेक कारणों में से प्रधान का ही ग्रहण करना न्याय है। ]]<br /> | ||
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<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#I.4 |कारण कार्य संबंधी नियम ]]</strong> <br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">कारण के | <li class="HindiText">कारण के बिना कार्य नहीं होता—देखें [[ कारण#III.4 | कारण - III.4]]।<br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> कारण | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.1 |कारण सदृश ही कार्य होता है। ]]<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> कारणभेद | <li class="HindiText"> कारणभेद से कार्यभेद अवश्य होता है—देखें [[ दान#4 | दान - 4]]। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li class="HindiText"> कारण | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.2 |कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा नियम नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> एक कारण | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.3 |एक कारण से सभी कार्य नहीं हो सकते।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पर एक | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.4 |पर एक कारण से अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> एक कार्य | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.5 |एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> एक ही | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.6 |एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से होना संभव है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कारण व | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.7 |कारण व कार्य पूर्वोत्तरकालवर्ती होते हैं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> दोनों | <li class="HindiText"> दोनों कथंचित् समकालवर्ती भी होते हैं—देखें [[ कारण#IV.2.5 | कारण - IV.2.5]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="8"> | <ol start="8"> | ||
<li class="HindiText"> कारण व | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.8 |कारण व कार्य में व्याप्ति अवश्य होती है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कारण | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.9 |कारण कार्य का उत्पादक हो ही ऐसा नियम नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कारण | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.10 |कारण कार्य का उत्पादक न ही हो ऐसा भी नियम नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कारण की | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.11 |कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो जाये ऐसा नियम नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कदाचित् | <li class="HindiText"> [[ कारण#I.4.12 |कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य होना असंभव है। ]]</li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ कारण#II | उपादान कारण की मुख्यता गौणता ]]</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ कारण#II.1 | उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता ]]</strong><br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> उपादान | <li class="HindiText"> उपादान कारण कार्य में कथंचित् भेदाभेद—देखें [[ कारण#I.2 | कारण - I.2]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> अन्य | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.1 |अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> अन्य स्वयं | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.2 |अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.3 |निमित्त किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकता। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> स्वभाव | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.4 |स्वभाव दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> परिणमन | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.5 |परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> उपादान | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.6 |उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 138: | Line 138: | ||
<li class="HindiText"> प्रत्येक पदार्थ अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। दूसरा द्रव्य उसे निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं।—देखें [[ कर्ता#3 | कर्ता - 3]]। <br /> | <li class="HindiText"> प्रत्येक पदार्थ अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। दूसरा द्रव्य उसे निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं।—देखें [[ कर्ता#3 | कर्ता - 3]]। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सत् | <li class="HindiText"> सत् अहेतुक होता है।—देखें [[ सत् ]] ।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">सभी कार्य | <li class="HindiText">सभी कार्य कथंचित् निर्हेतुक है—देखें [[ नय#IV.3.9 | नय - IV.3.9]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="7"> | <ol start="7"> | ||
<li class="HindiText"> उपादान | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.7 |उपादान के परिणमन में निमित्त प्रधान नहीं है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> परिणमन | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.8 |परिणमन में उपादान की योग्यता ही प्रधान है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> यदि योग्यता | <li class="HindiText"> यदि योग्यता ही कारण है तो सभी पुद्गल युगपत् कर्मरूप से क्यों नहीं परिणम जाते—देखें [[ बंध#5 | बंध - 5]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कार्य ही | <li class="HindiText"> कार्य ही कथंचित् स्वयं कारण है—देखें [[ नय#IV.1.6 | नय - IV.1.6]];[[ नय#IV.3.7 | नय - IV.3.7]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> काल आदि | <li class="HindiText"> काल आदि लब्धि से स्वयं कार्य होता है—देखें [[ नियति ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="9"> | <ol start="9"> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.1.9 |निमित्त के सद्भाव में भी परिणमन तो स्वत: ही होता है। ]]</li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#II.2 |उपादान की कथंचित् प्रधानता ]]</strong> <br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> उपादान | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.2.1 |उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> उपादान | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.2.2 |उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> अंतरंग | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.2.3 |अंतरंग कारण ही बलवान् है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> विघ्नकारी | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.2.4 |विघ्नकारी कारण भी अंतरंग ही है। ]]</li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#II.3 |उपादान की कथंचित् परतंत्रता ]]</strong> <br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.3.1 |निमित्त सापेक्ष पदार्थ अपने कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं कहा जा सकता। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> व्यावहारिक | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.3.2 |व्यावहारिक कार्य करने में उपादान निमित्तों के अधीन है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> जैसा-जैसा निमित्त मिलता है वैसा-वैसा ही कार्य होता है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.3.3 |जैसा-जैसा निमित्त मिलता है वैसा-वैसा ही कार्य होता है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> उपादान | <li class="HindiText"> [[ कारण#II.3.4 |उपादान को ही स्वयं सहकारी नहीं माना जा सकता। ]]</li> | ||
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</li> | </li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[ कारण#III | निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता ]]</strong> <br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#III.1 |निमित्त कारण के उदाहरण ]]</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.1.1 |षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> द्रव्य | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.1.2 | द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप निमित्त। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 201: | Line 201: | ||
<li class="HindiText"> धर्मास्तिकाय की प्रधानता—देखें [[ धर्माधर्म#2.3 | धर्माधर्म - 2.3]]।<br /> | <li class="HindiText"> धर्मास्तिकाय की प्रधानता—देखें [[ धर्माधर्म#2.3 | धर्माधर्म - 2.3]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कालद्रव्य | <li class="HindiText"> कालद्रव्य की प्रधानता—देखें [[ काल#2 | काल - 2]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सम्यग्दर्शन | <li class="HindiText"> सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में निमित्तों की प्रधानता—देखें [[ सम्यग्दर्शन#III.2 | सम्यग्दर्शन - III.2]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.1.3 |निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.1.4 |निमित्त नैमित्तिक संबंध। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> अन्य | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.1.5 |अन्य सामान्य उदाहरण। ]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#III.2 |निमित्त की कथंचित् गौणता ]]</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> सभी | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.1 |सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> धर्म | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.2 |धर्म आदिक द्रव्य उपकारक है प्रेरक नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> अन्य भी | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.3 |अन्य भी उदासीन कारण धर्म द्रव्यवत् जानने। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> बिना | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.4 |बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सहकारी | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.5 |सहकारी को कारण कहना उपचार है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.6 |सहकारी कारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सहकारी | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.7 |सहकारी को कारण मानना सदोष है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">[[ कारण#III.2.8 | सहकारी कारण अहेतुवत् होता है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.9 |सहकारी कारण निमित्त मात्र होता है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> परमार्थ | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.10 |परमार्थ से निमित्त अकिंचित्कर व हेय है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.11 |भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> द्रव्य | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.2.12 |द्रव्य का परिणमन सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> उपादान | <li class="HindiText"> उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है—देखें [[ कारण#II.1 | कारण - II.1]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#III.3 | कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव की गौणता ]]</strong> <br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> जीव भाव | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.3.1 |जीव भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> अनुभागोदय में हानि वृद्धि रहने पर भी ग्यारहवें गुणस्थान में जीव के भाव | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.3.2 |अनुभागोदय में हानि वृद्धि रहने पर भी ग्यारहवें गुणस्थान में जीव के भाव अवस्थित रहते हैं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> जीव के | <li class="HindiText"> जीव के परिणामों को सर्वथा कर्माधीन मानना मिथ्या है।—देखें [[ कारण#III.2.12 | कारण - III.2.12]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li class="HindiText"> जीव व | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.3.3 |जीव व कर्म में बध्य घातक विरोध नहीं है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> कर्म कुछ | <li class="HindiText"> कर्म कुछ नहीं कराते जीव स्वयं दोषी है—देखें [[ विभाव#4 | विभाव - 4 ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> ज्ञानी कर्म के मंद उदय का तिरस्कार करने को समर्थ है।—देखें [[ कारण#IV.2.7 | कारण - IV.2.7]]।<br /> | <li class="HindiText"> ज्ञानी कर्म के मंद उदय का तिरस्कार करने को समर्थ है।—देखें [[ कारण#IV.2.7 | कारण - IV.2.7]]।<br /> | ||
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</ul> | </ul> | ||
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<li class="HindiText"> जीव व कर्म में कारण कार्य संबंध मानना उपचार है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.3.4 |जीव व कर्म में कारण कार्य संबंध मानना उपचार है। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञानियों को कर्म अकिंचित्कर है।<br /> | <li class="HindiText">[[ कारण#III.3.5 | ज्ञानियों को कर्म अकिंचित्कर है। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मोक्षमार्ग में आत्मपरिणामों की विवक्षा प्रधान है, कर्म के परिणामों की नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.3.6 |मोक्षमार्ग में आत्मपरिणामों की विवक्षा प्रधान है, कर्म के परिणामों की नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कर्मों के उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्नसाध्य हैं। <br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.3.7 |कर्मों के उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्नसाध्य हैं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#III.4 | निमित्त की कथंचित् प्रधानता ]]</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> निमित्त | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.4.1 | निमित्त नैमित्तिक संबंध वस्तुभूत है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कारण होने पर ही कार्य होता है, उसके बिना नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.4.2 | कारण होने पर ही कार्य होता है, उसके बिना नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.4.3 | उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.4.4 | उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.4.5 | निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> उपादान भी | <li class="HindiText"> उपादान भी निमित्ताधीन है।—देखें [[ कारण#II.3 | कारण - II.3]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> जैसा-जैसा | <li class="HindiText"> जैसा-जैसा निमित्त मिलता है वैसा-वैसा कार्य होता है।—देखें [[ कारण#II.3 | कारण - II.3]]। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> द्रव्य | <li class="HindiText"> द्रव्य क्षेत्रादि की प्रधानता।—देखें [[ कारण#III.1.2 | कारण - III.1.2]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना सदोष है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.4.6 | निमित्त के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना सदोष है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सभी कारण धर्मद्रव्यवत् उदासीन नहीं होते।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.4.7 | सभी कारण धर्मद्रव्यवत् उदासीन नहीं होते। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त | <li class="HindiText"> निमित्त अनुकूल मात्र नहीं होता।—देखें [[ कारण#III.1.3 | कारण - III.1.3]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
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</li> | </li> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#III.5 | कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव की कथंचित् प्रधानता ]]</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.5.1 | जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> जीव व कर्म की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.5.2 | जीव व कर्म की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.5.3 | जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 337: | Line 337: | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li class="HindiText"> कर्म की बलवत्ता के उदाहरण।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.5.4 | कर्म की बलवत्ता के उदाहरण। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.5.5 | जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#III.5.6 | कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> मोह का | <li class="HindiText"> मोह का जघन्यांश यद्यपि स्व प्रकृतिबंध का कारण नहीं पर सामान्य बंध का कारण अवश्य है।—देखें [[ बंध#3 | बंध - 3 ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> बाह्य द्रव्यों पर भी कर्म का प्रभाव पड़ता है।—देखें [[ वेदनीय#8 | वेदनीय - 8 ]]तथा तीर्थंकर/2/7 <br /> | <li class="HindiText"> बाह्य द्रव्यों पर भी कर्म का प्रभाव पड़ता है।—देखें [[ वेदनीय#8 | वेदनीय - 8 ]] तथा [[ तीर्थंकर#2.7 | तीर्थंकर/2/7 ] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
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</ol> | </ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#IV | कारण कार्यभाव समन्वय ]]</strong> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#IV.1 | उपादान निमित्त सामान्य विषयक ]]</strong> <br /> | ||
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<ol start="1"> | <ol start="1"> | ||
<li class="HindiText"> कार्य न सर्वथा स्वत: होता है, न सर्वथा परत:।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.1.1 | कार्य न सर्वथा स्वत: होता है, न सर्वथा परत:। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> प्रत्येक कार्य अंतरंग व बहिरंग दोनों कारणों के सम्मेल से होता है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.1.2 |प्रत्येक कार्य अंतरंग व बहिरंग दोनों कारणों के सम्मेल से होता है। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> अंतरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.1.3 |अंतरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> व्यवहार नय से निमित्त वस्तुभूत है और निश्चय नय से कल्पना मात्र।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.1.4 |व्यवहार नय से निमित्त वस्तुभूत है और निश्चय नय से कल्पना मात्र। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तुस्वतंत्रता बाधित नहीं होती।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.1.5 |निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तुस्वतंत्रता बाधित नहीं होती। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> कारण व | <li class="HindiText"> कारण व कार्य में परस्पर व्याप्ति अवश्य होनी चाहिए।—देखें [[ कारण#I.4.8 | कारण - I.4.8]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li class="HindiText"> उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.1.6 |उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> उपादान को परतंत्र कहने का कारण प्रयोजन।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.1.7 |उपादान को परतंत्र कहने का कारण प्रयोजन। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.1.8 |निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> निश्चय | <li class="HindiText"> निश्चय व्यवहारनय तथा सम्यग्दर्शन चारित्र, धर्म आदिक में साध्यसाधन भाव। देखें - वह वह नाम <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> मिथ्या | <li class="HindiText"> मिथ्या निमित्त या संयोगवाद।—देखें [[ संयोग ]]</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong> [[ कारण#IV.2 |कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव विषयक ]]</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव यदि | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.2.1 |जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे? ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कर्म जीव | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.2.2 |कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं? ]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
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</ul> | </ul> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li class="HindiText"> कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.2.3 |कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> वास्तव में विभाव व कर्म में निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कर्म में नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.2.4 |वास्तव में विभाव व कर्म में निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कर्म में नहीं। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> समकालवर्ती इन दोनों में कारण कार्य भाव कैसे हो सकता है? <br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.2.5 |समकालवर्ती इन दोनों में कारण कार्य भाव कैसे हो सकता है? ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
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<li class="HindiText"> विभाव के | <li class="HindiText"> विभाव के सहेतुक अहेतुकपने का समन्वय।—देखें [[ विभाव#5 | विभाव - 5 ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> निश्चय से आत्मा अपने परिणामों का और व्यवहार से कर्मों का कर्ता है।—देखें [[ कर्ता#4.3 | कर्ता - 4.3 ]]<br /> | <li class="HindiText"> निश्चय से आत्मा अपने परिणामों का और व्यवहार से कर्मों का कर्ता है।—देखें [[ कर्ता#4.3 | कर्ता - 4.3 ]]<br /> | ||
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</ul> | </ul> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li class="HindiText"> कर्म व जीव के परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.2.6 |कर्म व जीव के परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता। ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष संभव है।<br /> | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.2.7 |कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष संभव है। ]]<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> जीव कर्म | <li class="HindiText"> जीव कर्म बंध की सिद्धि।—देखें [[ बंध#2 | बंध - 2 ]]<br /> | ||
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<ol start="8"> | <ol start="8"> | ||
<li class="HindiText"> कर्म व | <li class="HindiText"> [[ कारण#IV.2.8 | कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में कारण प्रयोजन। ]]</li> | ||
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</li> | </li> | ||
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</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ol type="I"> | |||
<li> <span class="HindiText"><strong name="I" id="I">कारण सामान्य निर्देश</strong> | |||
</span> | |||
<ol> | |||
<li name="I.1" id="I.1"><span class="HindiText"><strong> कारण के भेद व लक्षण</strong> | |||
</span> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.1.1" id="I.1.1"> कारण सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/21/125/7</span> <span class="SanskritText">प्रत्यय: कारणं निमित्तमित्यनर्थांतरम् ।</span> =<span class="HindiText">प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/1/20/120/7 )</span>; <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/20/2/70/30 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/7/22/3 </span> <span class="SanskritText">साधनमुत्पत्तिनिमित्तं।</span> =<span class="HindiText">जिस निमित्त से वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/7/ .../38/1</span><span class="SanskritText"> साधनं कारणम् ।</span> =<span class="HindiText">साधन अर्थात् कारण। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.1.2" id="I.1.2"> कारण के भेद</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/2/8/1/118/12 </span><span class="SanskritText">द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यंतरश्च। ....तत्र बाह्यो हेतुर्द्विविध:–आत्मभूतोऽनात्मभूतश्चेति। ....आभ्यंतरश्च द्विविध:–अनात्मभूत आत्मभूतश्चेति।</span> =<span class="HindiText">हेतु दो प्रकार का है—बाह्य और आभ्यंतर। बाह्य हेतु भी दो प्रकार का है—अनात्मभूत और आत्मभूत और अभ्यंतर हेतु भी दो प्रकार का होता है–आत्मभूत और अनात्मभूत। (और भी देखें [[ निमित्त#1 | निमित्त - 1]])<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.1.3" id="I.1.3"> कारण के भेदों के लक्षण</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/2/8/1/118/14 </span> <span class="SanskritText">तत्रात्मना संबंधमापंनविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूत:। प्रदीपादिरनात्मभूत:।....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोग: चिंताद्यालंबनभूत अंतरभिनिविष्टत्वादाभ्यंतर इति व्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यांतरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मन: प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति।</span> =<span class="HindiText">(ज्ञान दर्शनरूप उपयोग के प्रकरण में) आत्मा से संबद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इंद्रियाँ आत्मभूत बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकाय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पंदन रूप द्रव्य योग अंत:प्रविष्ट होने से आभ्यंतर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यांतराय तथा ज्ञानदर्शनावरण के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न आत्मा की विशुद्धि आभ्यंतर आत्मभूत हेतु है। <br /> | |||
</span></li> | |||
</ol> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.2" id="I.2"> उपादान कारणकार्य निर्देश</strong> <br /> | |||
</span> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.2.1" id="I.2.1"> निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/95/5 </span><span class="SanskritText">न च कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वांगुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">कार्य व कारण में कोई भेद नहीं है। वे दोनों एकाकार ही हैं। जैसे–पर्व व अंगुलि। यह द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 12/4,2,8,3/3 </span><span class="PrakritText">सव्वस्स सच्चकलापस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो त्ति णए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं। ....कारणे कार्यमस्तीति विवक्षातो वा कारणात्कार्यमभिन्नम्। </span>=<span class="HindiText">सत्ता आदि की अपेक्षा सभी कार्यकलाप का कारण से अभेद है। इस नय का अवलंबन करने पर कारण से कार्य अभिन्न है, तथा कार्य से कारण भी अभिन्न है। ....अथवा ‘कारण में कार्य है’ इस विवक्षा से भी कारण से कार्य अभिन्न है। (प्रकृत में प्राणिवियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बंध के कारणभूत परिणाम से उत्पन्न होते हैं अतएव वे उससे अभिन्न हैं। इसी कारण वे ज्ञानावरणीयबंध के प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं)।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/65 </span><span class="SanskritText">निश्चयत: कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव व त्वन्यत् । </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय से कर्म और करण की अभिन्नता होने से जो जिससे किया जाता है (होता है) वह वही है—जैसे सुवर्णपत्र सुवर्ण से किया जाता होने से सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.2.2" id="I.2.2"> द्रव्य का स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक/2/1/7/12/546 भाषाकार द्वारा उद्धृत—</span><span class="SanskritText">यावंति कार्याणि तावंत: प्रत्येकं वस्तुस्वभावा:।</span> =<span class="HindiText">जितने कार्य होते हैं उतने प्रत्येक वस्तु के स्वभाव होते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">नयचक्र बृहद्/360-361 </span><span class="PrakritText"> कारणकज्जसहावं समयं णाऊण होइ ज्झायव्वं। कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स।360। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीवसव्भावो। खय पुण सहावझाणे तम्हा तं कारणं झेयं।361।</span> =<span class="HindiText">समय अर्थात् आत्मा को कारण व कार्यरूप जानकर ध्याना चाहिए। कार्य तो उस आत्मा का प्रगट होने वाला शुद्ध स्वरूप है और कारणभूत शुद्ध स्वरूप उसका साधन है।360। कार्य शुद्ध समय तो कर्मों के क्षय से प्रगट होता है और कारण समय जीव का स्वभाव है। कर्मों का क्षय स्वभाव के ध्यान से होता है इसलिए वह कारण समय ध्येय है। (और भी देखें [[परमात्मा#1.2.1 | कारण कार्य परमात्मा ]] , [[समयसार#2 | कारण कार्य समयसार ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/ परिशिष्ठ/कलश 265 के आगे—</span><span class="SanskritText">आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव। तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपाय: यत्सिद्धं रूपं स उपेय:। </span>=<span class="HindiText">आत्म वस्तु को ज्ञानमात्र होने पर भी उसे उपायउपेय भाव है; क्योंकि वह एक होने पर भी स्वयं साधक रूप से और सिद्ध रूप से दोनों प्रकार से परिणमित होता है (अर्थात् आत्मा परिणामी है और साधकत्व और सिद्धत्व ये दोनों परिणाम हैं) जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्ध रूप है वह उपेय है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.2.3" id="I.2.3"> त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/95/4 </span><span class="SanskritText">अर्यते गम्यते निष्पाद्यते इत्यर्थकार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् ।</span> =<span class="HindiText">जो निष्पादन या प्राप्त किया जाये ऐसी पर्याय तो कार्य है और जो परिणमन करे ऐसा द्रव्य कारण है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">नयचक्र बृहद्/365 </span><span class="PrakritText"> उप्पज्जंतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो। तम्हा इह ण विरूद्ध एकस्स व कारणं कज्ज।365।</span> =<span class="HindiText">उत्पद्यमान कार्य होता है और उसको उत्पन्न करने वाला निज आत्मा कारण होता है। इसलिए एक ही द्रव्य में कारण व कार्य भाव विरोध को प्राप्त नहीं होते।</span><br /> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/232</span><span class="PrakritText"> स सरूवत्थो जीवो कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि। खेत्ते एक्कम्मि ट्ठिदो णिय दव्वे संठिदो चेव।232।</span> =<span class="HindiText">स्वरूप में, स्वक्षेत्र में, स्वद्रव्य में और स्वकाल में स्थित जीव ही अपने पर्यायरूप कार्य को करता है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.2.4" id="I.2.4"> पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य कारण है और उत्तर पर्याय उसका कार्य है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/58 </span><span class="SanskritGatha">कार्योत्पाद: क्षयो हेतुर्नियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तौ जात्याद्यवस्थानादनपेक्षा: खपुष्पवत् ।58।</span> =<span class="HindiText">हेतु कहिये उपादान कारण ताका क्षय कहिए विनाश है सो ही कार्य का उत्पाद है। जातै हेतु के नियमते कार्य का उपजना है। ते उत्पाद विनाश भिन्न लक्षणतै न्यारे न्यारे हैं। जाति आदि के अवस्थानतै भिन्न नाहीं हैं–कथंचित् अभेद रूप हैं। परस्पर अपेक्षा रहित होय तो आकाश पुष्पवत् अवस्तु होय। <span class="GRef">(अष्टसहस्री/श्लो.58)</span> </span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/6/14/37/25 </span><span class="SanskritText">सर्वेषामेव तेषां पूर्वोत्तरकालभाव्यवस्थाविशेषार्पणाभेदादेकस्य कार्यकारणशक्तिसमन्वयो न विरोधस्यास्पदमित्यविरोधसिद्धि:।</span> =<span class="HindiText">सभी वादी पूर्वावस्था को कारण और उत्तरावस्था को कार्य मानते हैं। अत: एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्याय की दृष्टि से कारण कार्य व्यवहार निर्विरोध रूप से होता ही है।</span><br /> | |||
<span class="HindiText"><strong><span class="GRef">अष्टसहस्री/श्लोक 10 टीका का भावार्थ </span></strong>(द्रव्यार्थिक व्यवहार नय से मिट्टी घट का उपादान कारण है। ऋजुसूत्रनय से पूर्व पर्याय घट का उपादान कारण है। तथा प्रमाण से पूर्व पर्याय विशिष्ट मिट्टी घट का उपादान कारण है।)</span><br /> | |||
<strong> <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 2/1/7/12/539/5 </span></strong> <span class="SanskritText">तथा सति रुपरसयोरेकार्थात्मकयोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तिरेव लिंगलिंगिव्यवहारहेतु: कार्यकारणभावस्यापि नियतस्य तदभावेऽनुपपत्ते: संतानांतरवत् ।</span> =<span class="HindiText">आप बौद्धों के यहाँ मान्य अर्थक्रिया में नियत रहना रूप कार्यकारण भाव भी एक द्रव्य प्रत्यासत्ति नामक संबंध के बिना नहीं बन सकता है। किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि उत्तरवर्ती पर्यायों के उपादान कारण हो जाते हैं। <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/ पु.2/1/8/10/596)</span></span><br /> | |||
<strong><span class="GRef">अष्टसहस्री/पृष्ठ 211 की टिप्पणी</span></strong>–<span class="SanskritText">नियतपूर्वक्षणवर्तित्वं कारणलक्षणम् । नियतोत्तरक्षणवर्तित्वं कार्यलक्षणम् ।</span> =<span class="HindiText">नियतपूर्वक्षणवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरक्षणवर्ती कार्य होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/245/289/3 </span><span class="PrakritText">पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे।</span> =<span class="HindiText">(जिस कारण से द्रव्य कर्म सर्वदा विशिष्टपने को प्राप्त नहीं होते हैं) वह कारण प्रागभाव है। प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और प्रागभाव का विनाश द्रव्य क्षेत्र काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है, (इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं।)</span><br /> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/222-223 </span><span class="PrakritText"> पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं। उत्तर—परिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा।222। कारणकज्जविसेसा तीसु वि कालेसु हुंति वत्थूणं। एक्केक्कम्मि य समए पुव्वुत्तर-भावमासिज्ज।223।</span> =<span class="HindiText">पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियम से कार्य रूप है।222। वस्तु के पूर्व और उत्तर परिणामों को लेकर तीनों ही कालों में प्रत्येक समय में कारणकार्य भाव होता है।223।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/119/168/10 </span><span class="SanskritText"> मुक्तात्मनां य एव....मोक्षपर्यायेण भव उत्पाद: स एव.... निश्चयमोक्षमार्गपर्यायेण विलयो विनाशस्तौ च मोक्षपर्यायमोक्षमार्गपर्यायौ कार्यकारणरूपेण भिन्नौ।</span> =<span class="HindiText">मुक्तात्माओं की जो मोक्ष पर्याय का उत्पाद है वह निश्चयमोक्षमार्गपर्याय का विलय है। इस प्रकार अभिन्न होते हुए भी मोक्ष और मोक्षमार्गरूप दोनों पर्यायों में कार्यकारणरूप से भेद पाया जाता है <span class="GRef">(प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति/8/60/11)</span> (और भी देखो)—‘<span class="GRef">समयसार’ व ‘मोक्षमार्ग/3/3’ </span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.2.5" id="I.2.5"> एक वर्तमानमात्र पर्याय स्वयं ही कारण है और स्वयं ही कार्य है—</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/95/6 </span> <span class="SanskritText">पर्याय एवार्थ: कार्यमस्य न द्रव्यम् । अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात्, स एवैक: कार्यकारणव्यपदेशमार्गात् पर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">पर्याय ही है अर्थ या कार्य जिसका सो पर्यायार्थिक नय है। उसकी अपेक्षा करने पर अतीत और अनागत पर्याय विनष्ट व अनुत्पन्न होने के कारण व्यवहार योग्य ही नहीं हैं। एक वर्तमान पर्याय में ही कारणकार्य का व्यपदेश होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.2.6" id="I.2.6">कारणकार्य में कथंचित् भेदाभेद</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/58 </span><span class="SanskritText"> नियमाल्लक्षणात्पृथक् ।</span> =<span class="HindiText">पूर्वोत्तर पर्याय विशिष्ट वे उत्पाद व विनाश रूप कार्यकारण क्षेत्रादि से एक होते हुए भी अपने-अपने लक्षणों से पृथक् है।<br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/9-14 </span>(कार्य के सर्वथा भाव या अभाव का निरास)<br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/24-36 </span>(सर्वथा अद्वैत या पृथक्त्व का निराकरण)<br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/37-45 </span>(सर्वथा नित्य व अनित्यत्व का निराकरण)<br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/57-60 </span>(सामान्यरूप से उत्पाद व्ययरहित है, विशेषरूप से वही उत्पाद व्ययसहित है)<br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/61-72 </span>(सर्वथा एक व अनेक पक्ष का निराकरण)</span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक/2/1/7/12/539/6 </span> <span class="SanskritText">न हि क्वचित् पूर्वे रसादिपर्याया: पररसादिपर्यायाणामुपादानं नान्यत्र द्रव्ये वर्तमाना इति नियमस्तेषामेकद्रव्यतादात्म्यविरहे कथंचिदुपपन्न:।</span>=<span class="HindiText">किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि पर्याय उत्तरवर्ती समय में होने वाले रसादिपर्यायों के उपादान कारण हो जाते हैं, किंतु दूसरे द्रव्यों में वर्त रहे पूर्वसमयवर्ती रस आदि पर्याय इस प्रकृत द्रव्य में होने वाले रसादिक उपादान कारण नहीं है। इस प्रकार नियम करना उन-उन रूपादिकों के एक द्रव्य तादात्म्य के बिना कैसे भी नहीं हो सकता।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 12/4,2,8,3/280/3 </span><span class="PrakritText"> सव्वस्स कज्जकलावस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो त्ति णए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं, कज्जादो कारणं पि, असदकरणाद् उपादानग्रहणात्, सर्वसंभवाभावात्, शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च।</span> =<span class="HindiText">सत्ता आदि की अपेक्षा सभी कार्यकलाप कारण से अभेद है। इस (द्रव्यार्थिक) नय का अवलंबन करने पर कारण से कार्य अभिन्न है तथा कार्य से कारण भी अभिन्न हैं, क्योंकि—1. असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकता, 2. नियत उपादान की अपेक्षा की जाती है, 3. किसी एक कारण से सभी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते, 4. समर्थकारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, 5. तथा असत् कार्य के साथ कारण का संबंध भी नहीं बन सकता।<br /> | |||
<strong>नोट—</strong>(इन सभी पक्षों का ग्रहण उपरोक्त आप्तमीमांसा के उद्धरणों में तथा उसी के आधार पर <span class="GRef">(धवला 15/17-31 )</span> में विशद रीति से किया गया है)</span><br /> | |||
<span class="GRef">नयचक्र बृहद्/365 </span><span class="PrakritText">उप्पज्जंतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो। तम्हा इह ण विरूद्ध एकस्स वि कारणं कज्जं।365। </span>=<span class="HindiText">उत्पद्यमान पर्याय तो कार्य है और उसको उत्पन्न करने वाला आत्मा कारण है, इसलिए एक ही द्रव्य में कारणकार्य भाव का भेद विरूद्ध नहीं है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/37/97-98 </span><span class="SanskritText">उपादानकारणमपि .... मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पिंडस्थासकोशकुशूलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्नं भवति। यदि पुनरेकांतेनोपादानकारणस्य कार्येण सहाभेदो भेदो वा भवति तर्हि पूर्वोक्तसुवर्णमृत्तिकादृष्टांतद्वयवत्कार्यकारणभावो न घटते।</span> =<span class="HindiText">उपादान कारण भी मिट्टीरूप घट कार्य के प्रति मिट्टी का पिंड, स्थास, कोश तथा कुशूलरूप उपादान कारण के समान (अथवा सुवर्ण की अधस्तन व अपरितन पाक अवस्थाओंवत्) कार्य से एकदेश भिन्न होता है। यदि सर्वथा उपादान कारण का कार्य के साथ अभेद व भेद हो तो उपरोक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टांतों की भाँति कार्य और कारण भाव सिद्ध नहीं होता।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.3" id="I.3"> निमित्त कारणकार्य निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.3.1" id="I.3.1"> भिन्न गुणों व द्रव्यों में भी कारणकार्य भाव होता है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/20/3-4/70/33</span><span class="SanskritText">कश्चिदाह--मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति, कारणगुणानुविधानं हि कार्यं दृष्टं यथा मृन्निमित्तो घटो मृदात्मक:। अथातदात्मकमिष्यते तत्पूर्वकत्वं तर्हि तस्य हीयते इति।3। न वैष दोष:। किं कारणम् । निमित्तमात्रत्वाद् दंडादिवत्.... मृत्पिंड एव बाह्यदंडादिनिमित्तापेक्ष आभ्यंतरपरिणामसांनिध्याद् घटो भवति न दंडादय:, इति दंडादीनां निमित्तमात्रत्वम् । तथा पर्यायिपर्याययो: स्यादन्यत्वाद् आत्मन: स्वयमंत:श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्ये मतिज्ञानं निमित्तमात्रं भवति .... अतो बाह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव ....श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्यात् श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति तस्य निमित्तमात्रत्वात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जैसे मिट्टी के पिंड से बना हुआ घड़ा मिट्टी रूप होता है, उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते ? <strong>उत्तर</strong>—मतिज्ञान श्रुतज्ञान में निमित्तमात्र है, उपादान नहीं। उपादान तो श्रुत पर्याय से परिणत होने वाला आत्मा है। जैसे मिट्टी ही बाह्य दंडादि निमित्तों की अपेक्षा रखकर अभ्यंतर परिणाम के सान्निध्य से घड़ा बनती है, परंतु दंड आदिक घड़ा नहीं बन जाते और इसलिए दंड आदिकों को निमित्तमात्रपना प्राप्त होता है। उसी प्रकार पर्यायी व पर्याय में कथंचित् अन्यत्व होने के कारण आत्मा स्वयं ही जब अपने अंतरंग श्रुतज्ञानरूप परिणाम के अभिमुख होता है तब मतिज्ञान निमित्तमात्र होता है। इसलिए बाह्य मतिज्ञानादि निमित्तों की अपेक्षा रखकर आत्मा ही श्रुतज्ञानरूप परिणाम के अभिमुख होने से श्रुतरूप होता है, मतिज्ञान नहीं होता। इसलिए उसको निमित्तपना प्राप्त होता है। <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/1/20/120/8 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक/2/1/7/13/563/19</span><span class="SanskritText">सहकारिकारणेण कार्यस्य कथं तत्स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धि:; यदनंतरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमन्यत्कार्यमितिप्रतीतम् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सहकारी कारणों के साथ पूर्वोक्त कार्यकारण भाव कैसे ठहरेगा, क्योंकि तहाँ एक द्रव्य की पर्यायें न होने के कारण एक द्रव्य नाम के संबंध का तो अभाव है? <strong>उत्तर</strong>—काल प्रत्यासत्ति नाम के विशेष संबंध से तहाँ कार्यकारणभाव सिद्ध हो सकता है। जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न हो जाता है, वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है, इस प्रकार कालिक संबंध सबको प्रतीत हो रहा है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.3.2" id="I.3.2"> उचित ही द्रव्य को कारण कहा जाता है, जिस किसी को नहीं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक 3/1/13/48/221/24 तथा 222/19 </span><span class="SanskritText">स्मरणस्य हि न अनुभवमात्रं कारणं सर्वस्य सर्वत्र स्वानुभूतेऽर्थे स्मरण-प्रसंगात्। नापि दृष्टसजातीयदर्शनं सर्वस्य दृष्टस्य हेतोर्व्यभिचारात्। तदविद्यावासनाप्रहाणं तत्कारणमिति चेत्, सैव योग्यता स्मरणावरणक्षयोपशमलक्षणा तस्यां च सत्यां सदुपयोगविशेषा वासना प्रबोध इति नाममात्रं भिद्यते।</span> =<span class="HindiText">पदार्थों का मात्र अनुभव कर लेना ही स्मरण का कारण नहीं है, क्योंकि इस प्रकार सभी जीवों को सर्वत्र सभी अपने अनुभूत विषयों के स्मरण होने का प्रसंग होगा। देखे हुए पदार्थों के सजातीय पदार्थों को देखने से वासना उद्बोध मानो सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, इस प्रकार अन्वय व व्यतिरेक का व्यभिचार आता है। यदि उस स्मरणीय पदार्थ की लगी हुई अविद्यावासना का प्रकृष्ट नाश हो जाना उस स्मरण का कारण मानते हो तब तो उसी का नाम योग्यता हमारे यहाँ कहा गया है। वह योग्यता स्मरणावरण कर्म का क्षयोपशम स्वरूप इष्ट की गयी है, और उस योग्यता के होते संते श्रेष्ठ उपयोग विशेषरूप वासना (लब्धि) को प्रबोध कहा जाता है। तब तो हमारे और तुम्हारे यहाँ केवल नाम का ही भेद है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/99,102 </span><span class="SanskritText">वैभाविकस्य भावस्य हेतु: स्यात्संनिकर्षत:। तत्रस्थोऽप्यपरो हेतुर्न स्यात्किंवा वतेति चेत्।99। बद्ध: स्याद्बद्धयोर्भाव: स्यादबद्धोऽप्यबद्धयो:। सानुकूलतया बंधो न बंध: प्रतिकूलयो:।102।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि एकक्षेत्रावगाहरूप होने से वह मूर्त द्रव्य जीव के वैभाविक भाव में कारण हो जाता है तो खेद है कि वहीं पर रहने वाला विस्रसोपचय रूप अन्य द्रव्य समुदाय भी विभाव परिणमन का कारण क्यों नहीं हो जाता ? <strong>उत्तर</strong>—एक दूसरे से बँधे हुए दोनों के भाव को बद्ध कहते हैं और एक दूसरे से नहीं बँधे हुए दोनों के भाव को अबद्ध कहते हैं, क्योंकि, जीव में बंधक शक्ति तथा कर्म में बंधने की शक्ति की परस्पर अनुकूलताई से बंध होता है, और दोनों के प्रतिकूल होने पर बंध नहीं होता है।102। अर्थात् बँधे हुए कर्म ही उदय आने पर विभाव में निमित्त होते हैं, विस्रसोपचयरूप अबद्ध कर्म नहीं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.3.3" id="I.3.3"> कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तु मात्र को कारण नहीं कह सकते।</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 2/1/444/3 </span><span class="PrakritText">‘‘दव्वेंदियाणं णिप्पत्तिं पडुच्च के वि दस पाणे भणंति। तण्ण घडदे। कुदो। भाविंदियाभावादो।’’</span> =<span class="HindiText">कितने ही आचार्य द्रव्येंद्रियों की पूर्णता को (केवली भगवान् के) दश प्राण कहते हैं, परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि सयोगि जिन के भावेंद्रिय नहीं पायी जाती है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">परीक्षामुख/3/61,63 </span> <span class="SanskritText">न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धे।61। तद्वयापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।63।</span>=<span class="HindiText">पूर्वचर व उत्तरचर हेतु साध्य के काल में नहीं रहते इसलिए उनका तादात्म्य संबंध न होने से तो वे स्वभाव हेतु नहीं कहे जा सकते और तदुत्पत्ति संबंध न रहने से कार्य हेतु भी नहीं कहे जा सकते।61। कारण के सद्भाव में कार्य का होना कारण के व्यापार के आधीन है।63। देखें [[ मिथ्यादृष्टि#2.6 | मिथ्यादृष्टि - 2.6 ]](कार्यकाल में उपस्थित होने मात्र से कोई पदार्थ कारण नहीं बन जाता)<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.3.4" id="I.3.4">कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु कारण कहलाती है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/42 </span><span class="SanskritText"> यद्यसत्सर्वथा कार्यं तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माश्वास: कार्यंजन्मनि।42।</span>=<span class="HindiText">कार्य को सर्वथा असत् मानने पर ‘यही इसका कारण है अन्य नहीं’ यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि इसका कोई नियामक नहीं है। और यदि कोई नियामक हो तो वह कारण में कार्य के अस्तित्व को छोड़कर दूसरा भला कौन सा हो सकता है। <span class="GRef">(धवला 12/4,2,8,3/280/5 )</span> <span class="GRef">(धवला 15/5/21 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/9/11/46/8 </span><span class="SanskritText"> दृष्टो हि लोके छेत्तुर्देवदत्ताद् अर्थांतरभूतस्य परशो: .... काठिन्यादिविशेषलक्षणोपेतस्य सत: करणभाव:। न च तथा ज्ञानस्य स्वरूपं पृथगुपलभामहे। .... दृष्टो हि परशो: देवदत्ताधिष्ठितोद्यमाननिपातनापेक्षस्य करणभाव:, न च तथा ज्ञानेन किंचित्कर्तृसाध्यं क्रियांतरमपेक्ष्यमस्ति। किंच तत्परिणामाभावात् । छेदनक्रियापरिणतेन हि देवदत्तेन तत्क्रियाया: साचिव्ये नियुज्यमान: परशु: ‘करणम्’ इत्येतदयुक्तम्, न च तथा आत्मा ज्ञानक्रियापरिणत:।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार छेदनेवाले देवदत्त से करणभूत फरसा कठोर तीक्ष्ण आदि रूप से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है, उस प्रकार (आप बौद्धों के यहाँ) ज्ञान का पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे कि उसे करण बनाया जाये। फरसा भी तब करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ी के भीतर घुसने रूप व्यापार की अपेक्षा रखता है, किंतु (आपके यहाँ) ज्ञान में कर्ता के द्वारा की जाने वाली कोई क्रिया दिखाई नहीं देती, जिसकी अपेक्षा रखने के कारण उसे करण कहा जा सके।<br /> | |||
स्वयं छेदन क्रिया में परिणत देवदत्त अपनी सहायता के लिए फरसे को लेता है और इसलिए फरसा करण कहलाता है। पर (आपके यहाँ) आत्मा स्वयं ज्ञान क्रिया रूप से परिणति ही नहीं करता (क्योंकि वे दोनों भिन्न स्वीकार किये गये हैं)। </span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक 2/1/7/13/563/2 </span><span class="SanskritText">यदनंतरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम् ।</span> =<span class="HindiText">जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न होता है, वह उसका सहकारी कारण है और दूसरा कार्य है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/84 </span><span class="SanskritText">बहिर्व्याप्यव्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापारं कुर्वाण: कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्वयवहार:।</span> =<span class="HindiText">बाह्य में व्याप्यव्यापक भाव से घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल ऐसे व्यापार को करता हुआ तथा घड़े के द्वारा किये गये पानी के उपयोग से उत्पन्न तृप्ति को भाव्यभावक भाव के द्वारा अनुभव करता हुआ, कुम्हार घड़े का कर्ता है और भोक्ता है, ऐसा लोगों का अनादि से रूढ व्यवहार है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/160/230/13 </span><span class="SanskritText">निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यग्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण परिणममानस्यापि सुवर्णपाषाणस्याग्निरिव निश्चयमोक्षमार्गस्य बहिरंगसाधको भवतीति सूत्रार्थ:। </span>=<span class="HindiText">अपने ही उपादान कारण से स्वयमेव निश्चयमोक्षमार्ग की अपेक्षा शुद्ध भावों से परिणमता है वहाँ यह व्यवहार निमित्त कारण की अपेक्षा साधन कहा गया है। जैसे –सुवर्ण यद्यपि अपने शुद्ध पीतादि गुणों से प्रत्येक आँच में शुद्ध चोखी अवस्था को धरे है, तथापि बहिरंग निमित्तकारण अग्नि आदिक वस्तु का प्रयत्न है। तैसे ही व्यवहार मोक्षमार्ग है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.3.5" id="I.3.5"> अनेक कारणों में से प्रधान का ही ग्रहण करना न्याय है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/21/125 </span><span class="SanskritText">भवं प्रतीत्य क्षयोपशम: संजायत इति कृत्वा भव: प्रधानकारणमित्युपदिश्यते।</span> =<span class="HindiText">(भवप्रत्यय अवधिज्ञान में यद्यपि भव व क्षयोपशम दोनों ही कारण उपलब्ध हैं, परंतु) भव का अवलंबन लेकर (तहाँ) क्षयोपशम होता है, (सम्यक्त्व व चारित्रादि गुणों की अपेक्षा से नहीं)। ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है, ऐसा उपदेश दिया जाता है। (कि यह अवधिज्ञान भव प्रत्यय है)।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4" id="I.4">कारण कार्य संबंधी नियम</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4.1" id="I.4.1">कारण सदृश ही कार्य होता है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 1/1,1,41/270/5 </span><span class="SanskritText">कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेद्धुं पार्यते सकलनैयायिकलोकप्रसिद्धत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, यह बात संपूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 10/4,2,4,175/432/2 </span><span class="PrakritText">सव्वत्थकारणाणुसारिकज्जुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">सब जगह कारण के अनुसार ही कार्य पाया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">नयचक्र बृहद्/368 की चूलिका-</span><span class="SanskritText">इति न्यायादुपादानकारणसदृशं कार्यं भवति।</span><span class="HindiText"> इस न्याय के अनुसार उपादान सदृश कार्य होता है। (विशेष देखें [[ समयसार ]])</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/68 </span><span class="SanskritText">कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति।</span> =<span class="HindiText">कारण जैसा ही कार्य होता है, ऐसा समझकर जौ पूर्वक होने वाले जो जौ (यव), वे जौ (यव) ही होते हैं। <span class="GRef">(समयसार / आत्मख्याति/130-130 )</span> <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/406 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/11</span><span class="SanskritText">उपादानकारणसदृशं हि कार्यमिति।</span>=<span class="HindiText">उपादान कारण सदृश ही कार्य होता है। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/23/49/14 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/27/304/18</span> <span class="SanskritText">उपादानानुरूपत्वाद् उपादेयस्य।</span>=<span class="HindiText">उपादेयरूप कार्य उपादान कारण के अनुरूप होता है।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.4.2" id="I.4.2">कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा कोई नियम नहीं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/20/120 </span><span class="SanskritText">यदि मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति ‘कारणसदृशं हि लोके कार्यं दृष्टम्’ इति। नैतदैकांतिकम्। दंडादिकारणोऽयं घटो न दंडाद्यात्मक:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है; तो वह श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई एकांत नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घट की उत्पत्ति दंडादि से होती है, तो भी दंडाद्यात्मक नहीं होता। (और भी देखें [[ कारण#I.3.1 | कारण - I.3.1]])</span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/20/5/71/11 </span><span class="SanskritText">नायमेकांतोऽस्ति–‘कारणसदृशमेव कार्यम्’ इति कुत:। तत्रापि सप्तभंगीसंभवात् कथम् । घटवत् । यथा घट: कारणेन मृत्पिंडेन स्यात्सदृश: स्यान्न सदृश: इत्यादि। मृद्द्रव्याजीवानुपयोगाद्यादेशात् स्यात्सदृश:, पिंडघटसंस्थानादिपर्यायादेशात् स्यान्न सदृश:।…यस्यैकांतेन कारणानुरूपं कार्यम्, तस्य घटपिंडशिवकादिपर्याया उपालभ्यंते। किंच, घटेन जलधारणादिव्यापारो न क्रियते मृत्पिंडे तददर्शनात् । अपि च मृत्पिंडस्य घटत्वेन परिणामवद् घटस्यापि घटत्वेन परिणाम: स्यात् एकांतसदृशत्वात् । न चैवं भवति। अतो नैकांतेन कारणसदृशत्वम्। </span>=<span class="HindiText">यह कोई एकांत नहीं है कि कारण सदृश ही कार्य हो। पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से मिट्टी रूप कारण के समान घड़ा होता है, पर पिंड और घट आदि पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं, यदि कारण के सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्था से भी पिंड शिवक आदि पर्यायें मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृत्पिंड में जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़े में भी नहीं भरा जाना चाहिए और मिट्टी की भाँति घट का घट रूप से ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं। कारण कि दोनों सदृश जो हैं। परंतु ऐसा तो कभी होता नहीं है अत: कार्य एकांत से कारण सदृश नहीं होता।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 12/4,2,7,177/81/3 </span><span class="PrakritText"> संजमासंजमपरिणामादो जेण संजमपरिणामो अणंतगुणो तेण पदेसणिज्जराए वि अणंतगुणाए होदव्वं, एदम्हादो अण्णत्थ सव्वत्थ कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो त्ति। ण, जोगगुणगाराणुसारिपदेसगुणगारस्स अणंतगुणत्तविरोहादो। …ण च कज्जं कारणाणुसारी चेव इति णियमो अत्थि, अंतरंगकारणावेक्खाए पव्वत्तस्स कज्जस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यत: संयमासंयम रूप परिणाम की अपेक्षा संयमरूप परिणाम अनंतगुणा है अत: वहाँ प्रदेश निर्जरा भी उससे अनंतगुणी होनी चाहिए। क्योंकि इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारण के अनुरूप ही कार्य की उपलब्धि होती है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, प्रदेश निर्जरा का गुणकार योगगुणकार का अनुसरण करने वाला है, अतएव उसके अनंतगुणे होने में विरोध आता है। दूसरे–कार्य कारण का अनुसरण करता ही हो, ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अंतरंग कारण की अपेक्षा प्रवृत्त होने वाले कार्य के बहिरंग कारण के अनुसरण करने का नियम नहीं बन सकता।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 15/16/10 </span><span class="PrakritText">ण च एयंतेण कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वं, मट्टियपिंडादो मट्टियपिंडं मोत्तूण घटघटी-सरावालिंजरुट्टियादीणमणुप्पत्तिप्पसंगादो। सुवण्णादो सुवण्णस्स घटस्सेव उप्पत्तिदंसणादो कारणाणुसारि चेव कज्जं त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, कढिणादो, सुवण्णादो जलणादिसंजोगेण सुवण्णजलुप्पत्तिदंसणादो। किं च–कारणं व ण कज्जमुप्पज्जदि, सव्वप्पणा कारणसरूवमावण्णस्स उप्पत्तिविरोहादो। जदि एयंतेण (ण) कारणाणुसारि चेव कज्जमुप्पज्जदि तो मुत्तादो पोग्गलदव्वादो अमुत्तस्स गयणुप्पत्ती होज्ज, णिच्चेयणादो पोग्गलदव्वादो सचेयणस्स जीवदव्वस्स वा उप्पत्ति पावेज्ज। ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हा कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि। एत्थ परिहारो वुच्चदे–होदु णाम केण वि सरूवेण कज्जस्स कारणाणुसारित्तं, ण सव्वप्पणा; उप्पादवयट्ठिदिलक्खणाणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्वाणं सगवइसे सियगुणा विणाभावि सयलगुणाणमपरिंचाएण पज्जायंतरगमणदंसणादो।</span> =<span class="HindiText">’कारणानुसारी ही कार्य होना चाहिए, यह एकांत नियम भी नहीं है, क्योंकि मिट्टी के पिंड से मिट्टी के पिंड को छोड़कर घट, घटी, शराब, अलिंजर और उष्ट्रिका आदिक पर्याय विशेषों की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग अनिवार्य होगा। यदि कहो कि सुवर्ण से सुवर्ण के घट की ही उत्पत्ति देखी जाने से कार्य कारणानुसारी ही होता है, सो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है; क्योंकि, कठोर सुवर्ण से अग्नि आदि का संयोग होने पर सुवर्ण जल की उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार कारण उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कार्य भी उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि कार्य सर्वात्मना कारणरूप ही रहेगा, इसलिए उसकी उत्पत्ति का विरोध है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि सर्वथा कारण का अनुसरण करने वाला ही कार्य नहीं होता है तो फिर मूर्त पुद्गल द्रव्य से अमूर्त आकाश की उत्पत्ति हो जानी चाहिए। इसी प्रकार अचेतन पुद्गल द्रव्य से सचेतन जीव द्रव्य की भी उत्पत्ति पायी जानी चाहिए। परंतु ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता, इसलिए कार्य कारणानुसारी ही होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–यहाँ उपर्युक्त शंका का परिहार कहते हैं। किसी विशेष स्वरूप से कार्य कारणानुसारी भले ही हो परंतु वह सर्वात्मस्वरूप वैसा संभव नहीं है; क्योंकि, उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य लक्षणवाले जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य अपने विशेष गुणों के अविनाभावी समस्त गुणों का परित्याग न करके अन्य पर्याय को प्राप्त होते हुए देखे जाते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 9/4,1,45/146/1 </span><span class="SanskritText">कारणानुगुणकार्यनियमानुपलंभात् ।</span>=<span class="HindiText">कारणगुणानुसार कार्य के होने का नियम नहीं पाया जाता। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4.3" id="I.4.3"> एक कारण से सभी कार्य नहीं हो सकते</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सांख्यकारिका/9 </span> <span class="SanskritText">सर्व संभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् ।</span>=<span class="HindiText">किसी एक कारण से सभी कार्यों की उत्पत्ति संभव नहीं। समर्थ कारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है। <span class="GRef">(धवला 12/4,2,8,113/280/5 )</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4.4" id="I.4.4"> परंतु एक कारण से अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/6/10/328/6 </span><span class="SanskritText">एककारणसाध्यस्य कार्यस्यानेकस्य दर्शनात् तुल्येऽपि प्रदोषादौ ज्ञानदर्शनावरणास्रवहेतव:।</span>=<span class="HindiText">एक कारण से भी अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रदोषादिक (कारणों) के एक समान रहते हुए भी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनों का आस्रव (रूप कार्य) सिद्ध होता है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/6/10/10-12/518 )</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 12/4,2,8,2/278/10 </span><span class="PrakritText">कधमेगो पाणादिवादो अक्कमेण दोण्णं कज्जाणं संपादओ। ण एयादो एयादो मोग घादोअवयव विभागट्ठाणसंचालणक्खेत्तंतरवत्तिखप्परकज्जाणमक्कमेणुप्पत्तिदंसणादो। कथमेगो पाणादिवादो अणंते कम्मइयक्खंधे णाणावरणीयसरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि,, बहुसु एक्कस्स अक्कमेण वुत्तिविरोहादो। ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–प्राणातिपाति रूप एक ही कारण युगपत् दो कार्यों का उत्पादक कैसे हो सकता है ? (अर्थात् कर्म को ज्ञानावरण रूप परिणमाना और जीव के साथ उसका बंध कराना ये दोनों कार्य कैसे कर सकता है) ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, एक मुद्गर से घात, अवयवविभाग, स्थानसंचालन और क्षेत्रांतर की प्राप्तिरूप खप्पर कार्यों की युगपत् उत्पत्ति देखी जाती है। <strong>प्रश्न</strong>–प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनंत कार्माण स्कंधों को एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूप से कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतों में एक की युगपत् वृत्ति का विरोध है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, प्राणातिपातरूप एक ही कारण के अनंत शक्तियुक्त होने से वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता। (और भी देखें [[ वर्गणा#2.6.3 | वर्गणा - 2.6.3 ]]में <span class="GRef">धवला/15 )</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4.5" id="I.4.5"> एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/5/17/283/3 </span><span class="SanskritText">भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात् । अनेककारणसाध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–धर्म और अधर्म द्रव्य के जो प्रयोजन हैं, पृथिवी और जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक नहीं है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं। यह विशेष रूप से कहा गया है। तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक है।</span><br /> | |||
<strong> <span class="GRef">राजवार्तिक/5/17/31/464/29 </span></strong> <span class="SanskritText">इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्टम्, यथा मृत्पिंडो घटकार्यपरिणामप्राप्तिं प्रति गृहीताभ्यंतरसामर्थ्य: बाह्यकुलालदंडचक्रसूत्रोदककालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्ष: घटपर्यायेणाविर्भवति, नैक एव मृत्पिंड: कुलालादिबाह्यसाधनसंनिधानेन बिना घटात्मनाविर्भवितुं समर्थ:।</span> =<span class="HindiText">इस लोक में कोई भी कार्य अनेक कारणों से होता देखा जाता है, जैसे मिट्टी का पिंड घट कार्यरूप परिणाम की प्राप्ति के प्रति आभ्यंतर सामर्थ्य को ग्रहण करके भी, बाह्य कुम्हार, दंड, चक्र, डोरा, जल, काल व आकाशादि अनेक कारणों की अपेक्षा करके ही घट पर्यायरूप से उत्पन्न होता है। कुम्हार आदिक बाह्य साधनों की सन्निधि के बिना केवल अकेला मिट्टी का पिंड घटरूप से उत्पन्न होने को समर्थ नहीं है।</span><br /> | |||
<strong> <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/53/4 </span></strong><span class="SanskritText"> गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवंति यत: कारणाद् घटोपत्तौ कुंभकारचक्रचोवरादिवत्, मत्स्यादीनां। जलादिवत्, मनुष्याणां शकटादिवत्, विद्याधराणां विद्यामंत्रौषधादिवत्, देवानां विमानवदित्यादि कालद्रव्यं गतिकारणम् ।</span>=<span class="HindiText">गतिरूप परिणति में धर्मद्रव्य भी सहकारी है और कालद्रव्य भी। सहकारीकारण बहुत होते हैं जैसे कि घड़े की उत्पत्ति में कुम्हार, चक्र, चीवर आदि, मछली आदिकों को जल आदि, मनुष्यों को रथ आदि, विद्याधरों को विद्या, मंत्र, औषधि आदि तथा देवों को विमान आदि। अत: कालद्रव्य भी गति का कारण है। ( परमात्मप्रकाश टीका/2/23 ), <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह टीका/25/71/12 )</span></span><br /> | |||
<strong> <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/402 </span></strong> <span class="SanskritText">कार्यं प्रतिनियतत्वाद्धेतुद्वैतं न ततोऽतिरिक्त चेत् । तन्न यतस्तन्नियमग्राहकमिव न प्रमाणमिह।</span>=<span class="HindiText">कार्य के प्रति नियत होने से उपादान और निमित्तरूप दो हेतु ही है, उससे अधिक नहीं है, यदि ऐसा कहो तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, यहाँ पर उन दो हेतुओं के ही मानने रूप नियम का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है।402। <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/404 )</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4.6" id="I.4.6"> एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से हो सकता है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 7/2,1,17/69/5 </span><span class="PrakritText">ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चेव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, खइर-सिंसव-धव-धम्मण-गोमय-सूरयर-सुज्जकंतेहितो समुप्पज्जमाणेक्कग्गिकज्जुवलंभा। </span>=<span class="HindiText">एक कार्य सर्वत्र एक ही कारण से उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि खदिर, शीसम, धौ, धामिन, गोबर, सूर्यकिरण, व सूर्यकांतमणि, इन भिन्न-भिन्न कारणों से एक अग्निरूप कार्य उत्पन्न होता पाया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 12/4,2,8,11/286/11 </span><span class="PrakritText">कधमेयं कज्जमणेगे उप्पज्जदे। ण, एगादो कुंभारादो उप्पण्णघडस्स अण्णादो वि उप्पत्तिदंसणादो। पुरिसं पडि पुध पुध उप्पज्जमाणा कुंभोदंचणसरावादओ दीसंति त्ति चे। ण, एत्थ वि कमभाविकोधादीहिंतो उप्पज्जमाणणाणावरणीयस्स दव्वादिभेदेण भेदुवलंभादो। णाणावरणीयसमाणत्तणेण तदेक्कं चे। ण, बहूहिंतो समुप्पज्जमाणघडाणं पि घडभावेण एयत्तुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–एक कार्य अनेक कारणों से कैसे उत्पन्न होता है? (अर्थात् अनेक प्रत्ययों से एक ज्ञानावरणीय ही वेदना कैसे उत्पन्न होती है)। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, एक कुंभकार से उत्पन्न किये जाने वाले घट की उत्पत्ति अन्य से भी देखी जाती है। <strong>प्रश्न</strong>–पुरूष भेद से पृथक्-पृथक् उत्पन्न होनेवाले कुंभ, उदंच, व शराब आदि भिन्न-भिन्न कार्य देखे जाते हैं (अथवा पृथक्-पृथक् व्यक्तियों से बनाये गये घड़े भी कुछ न कुछ भिन्न होते ही हैं।) ? <strong>उत्तर</strong>–तो यहाँ भी क्रमभावी क्रोधादिकों से उत्पन्न होने वाले ज्ञानावरणीयकर्म का द्रव्यादिक के भेद से भेद पाया जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानावरणीयत्व की समानता होने से वह (अभेद भेदरूप होकर भी) एक ही है? <strong>उत्तर</strong>–इसी प्रकार यहाँ भी बहुतों के द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले घटों के भी घटत्व रूप से अभेद पाया जाता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4.7" id="I.4.7"> कारण व कार्य पूर्वोत्तर कालवर्ती ही होते हैं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक 2/1/4/23/121/19 </span><span class="SanskritText">य एव आत्मन: कर्मबंधविनाशस्य काल: स एव केवलत्वाख्यमोक्षोत्पादस्येति चेत्, न, तस्यायोगकेवलिचरमसमयत्वविरोधात् पूर्वस्य समयस्यैव तथात्वापत्ते:।=</span><span class="HindiText">यदि इस उपांत्य समय में होने वाली निर्जरा को भी मोक्ष कहा जायेगा तो उससे भी पहले समय में परमनिर्जरा कहनी पड़ेगी। क्योंकि कार्य एक समयपूर्व में रहना चाहिए। प्रतिबंधकों का अभावरूप कारण भले कार्यकाल में रहता होय किंतु प्रेरक या कारक कारण तो कार्य के पूर्व समय में विद्यमान होने चाहिए–(ऐसा कहना भी ठीक नहीं है) क्योंकि इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम आदि समयों में मोक्ष होने का प्रसंग हो जायेगा; कुछ भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत: यही व्यवस्था होना ठीक है कि अयोग केवली का चरम समय ही परम निर्जरा का काल है और उसके पीछे का समय मोक्ष का है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 1/1,1,47/279/7 </span><span class="SanskritText"> कार्यकारणयोरेककालं समुत्पत्तिविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">कार्य और कारण इन दोनों की एक काल में उत्पत्ति नहीं हो सकती है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 9/4,1,1/3/8 </span><span class="PrakritText"> ण च कारणपुव्वकालभावि कज्जमत्थि, अणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">कारण से पूर्व काल में कार्य होता नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता।</span><br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/16/196/22</span><span class="SanskritText">न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयो: सव्येतरगोविषाणयोरिव कारणकार्यभावो युक्त:। नियतप्राक्कालभावित्वात् कारणस्य। नियतोत्तरकालभावित्वात् कार्यस्य। एतदेवाहु: न तुल्यकाल: फलहेतुभाव इति। फलं कार्यं हेतु: कारणम्, तयोर्भाव: स्वरूपम्, कार्य-कारणभाव:। स तुल्यकाल: समानकालो न युज्यत इत्यर्थं:।</span> =<span class="HindiText">प्रमाण और प्रमाण का फल बौद्ध लोगों के मत में गाय के बायें और दाहिने सींगों की तरह एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें कार्यकारण संबंध नहीं हो सकता। क्योंकि नियत पूर्वकालवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरकालवर्ती उसका कार्य होता है। फल कार्य है और हेतु कारण। उनका भाव या स्वरूप ही कार्यकारण भाव है। वह तुल्यकाल में ही नहीं हो सकता।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4.8" id="I.4.8"> कारण व कार्य में व्याप्ति आवश्यक होती है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">आप्तपरीक्षा/9/41/2</span> <span class="SanskritText">तत्कारणकत्वस्य तदन्वयव्यतिरेकोपलंभेन व्याप्तत्वात् कुलालकारणकस्य घटादे: कुलालान्वयव्यतिरेकोपलंभप्रसिद्धे:।</span>=<span class="HindiText">जैसे कुम्हार से उत्पन्न होने वाले घड़ा आदि में कुम्हार का अन्वय व्यतिरेक स्पष्टत: प्रसिद्ध है। अत: सब जगह बाधकों के अभाव से अन्वय व्यतिरेक कार्य के व्यवस्थित होते हैं, अर्थात् जो जिसका कारण होता है उसके साथ अन्वय व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/ पुस्तक 7/2, 1, 7/10/5 </span><span class="PrakritText">जस्स अण्ण–विदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णयविदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं।</span>=<span class="HindiText">जिसके अन्वय और व्यतिरेक के साथ नियम से जिसका अन्वय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है। <span class="GRef">(धवला/8/3,20/51/3 )</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/12/4,2,8,13/289/4 </span> <span class="SanskritText">यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिदि न्यायात्</span>=<span class="HindiText">जो जिसके होने पर ही होता है न होने पर नहीं वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। <span class="GRef">(धवला/14/5,6,93/ ?/2 )</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.4.9" id="I.4.9"> कारण अवश्य कार्य का उत्पादक हो ऐसा कोई नियम नहीं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/12/4,2,8,13/289/8 </span><span class="SanskritText"> नावश्यं कारणानि कार्यवंति भवंति, कुंभमकुर्वत्यपि कुंभकारे कुंभकारव्यवहारोपलंभात् ।</span>=<span class="HindiText">कारण कार्यवाले अवश्य हों ऐसा संभव नहीं, क्योंकि, घट को न करने वाले भी कुंभकार के लिए ‘कुंभकार’ शब्द का व्यवहार पाया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदया टीका/194/410/9</span> <span class="SanskritText">न चावश्यं कारणानि कार्यवंति। धूमजनयतोऽप्यग्नेर्दर्शनात् काष्ठाद्यपेक्षस्य।</span>=<span class="HindiText">कारण अवश्य कार्यवान् होते ही हैं, ऐसा नियम नहीं है, काष्ठादि की अपेक्षा रखने वाला अग्नि धूम को उत्पन्न करेगा ही, ऐसा नियम नहीं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/53/96</span> <span class="SanskritText">ननु कार्यं कारणानुमापकमस्तु कारणाभावे कार्यस्यानुपपत्ते:। कारणं तु कार्यभावेऽपि संभवति, यथा धूमाभावेऽपि वह्नि: सुप्रतीत:। अतएव वह्निर्न धूमं गमयतीति चेत्; तन्न; उन्मीलितशक्तिकस्य कारणस्य कार्याव्यभिचारित्वेन कार्यं प्रति हेतुत्वाविरोधात्।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–कारण तो कार्य का ज्ञापक (जनाने वाला) हो सकता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता किंतु कारण कार्य के बिना भी संभव है, जैसे-धूम के बिना भी अग्नि देखी जाती है। अतएव अग्नि धूम की गमक नहीं होती, (धूम ही अग्नि का गमक होता है), अत: कारणरूप हेतु को मानना ठीक नहीं है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, जिस कारण की शक्ति प्रकट है–अप्रतिहत है, वह कारण कार्य का व्यभिचारी नहीं होता है। अत: (उत्पादक न भी हो, पर) ऐसे कारण को कार्य का ज्ञापक हेतु मानने में कोई दोष नहीं है।<br /> | |||
देखें [[ मंगल#2.6 | मंगल - 2.6 ]](जिस प्रकार औषधियों का औषधित्व व्याधियों के शमन न करने पर भी नष्ट नहीं होता इसी प्रकार मंगल का मंगलपना विघ्नों का नाश न करने पर भी नष्ट नहीं होता)। </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.4.10" id="I.4.10"> कारण कार्य का उत्पादक न ही हो यह भी कोई नियम नहीं</strong><BR> </span> <span class="GRef">धवला/9/4,1,44/117/10 </span><span class="PrakritText"> ण च कारणाणि कज्जं ण जणेंति चेवेति णियमो अत्थि, तहाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">कारण कार्य को उत्पन्न करते ही नहीं हैं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अतएव किसी काल में किसी भी जीव में कारणकलाप सामग्री निश्चय से होना चाहिए।</span></li> | |||
<li><strong class="HindiText" name="I.4.11" id="I.4.11"> कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं</strong><BR> <span class="GRef">राजवार्तिक/10/3/1/642/10 </span><span class="SanskritText">नायमेकांत: निमित्तापाये नैमित्तिकानां निवृत्ति: इति।</span>=<span class="HindiText">निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है। (जैसे दीपक जला चुकने के पश्चात् उसके कारणभूत दियासलाई के बुझ जाने पर भी कार्यभूत दीपक बुझ नहीं जाता)।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.4.12" id="I.4.12"> कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य की संभावना</strong></span> <BR> <span class="GRef">धवला/1/1,1,50/283/6 </span> <span class="SanskritText">किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानंत्याच्छ्रोतुरावरणक्षयोपशमातिशयाभावात् ।</span> =<span class="HindiText">केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनंत होने से और श्रोता के आवरण क्षयोपशम अतिशयतारहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से (भी) संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है।</span></li> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II" id="II"> उपादान कारण की मुख्यता गौणता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.1" id="II.1"> उपादान की कथंचित् स्वतन्त्रता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.1.1" id ="II.1.1">अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/९/४६ </span><span class="SanskritGatha">सर्वे भावा: स्वस्वभावव्यवस्थिता:। न शक्यन्तेऽन्यथा कर्तुं ते परेण कदाचन।४६।</span>=<span class="HindiText">समस्त पदार्थ स्वभाव से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं, वे कभी पर पदार्थ से अन्यथा रूप नहीं किये जा सकते अर्थात् कभी पर पदार्थ उन्हें अपने रूप में परिणमन नहीं करा सकता।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.1.2" id="II.1.2">अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/१/९/१०/४५/२० </span><span class="SanskritText">मनश्चेन्द्रियं चास्य कारणमिति चेत्; न; तस्य तच्छक्त्यभावात् । मनस्तावन्न कारणम् विनष्टत्वात् । नेन्द्रियमप्यतीतम्; तत एव।</span>=<span class="HindiText">मनरूप इन्द्रिय को ज्ञान का कारण कहना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। ‘छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्व का ज्ञान मन होता है’ यह उन बौद्धों का सिद्धान्त है। इसलिए अतीतज्ञान रूप मन इन्द्रिय भी नहीं हो सकता। (विशेष देखो [[कर्ता#३ | कर्ता - 3]])<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="II.1.3" id="II.1.3"> निमित्त किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं करा सकता</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/१/१,१,१६३/४०४/१</span><span class="SanskritText"> न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText"> (मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा न्याय है कि) जो स्वयं असमर्थ होता है वह दूसरों के सम्बन्ध से भी समर्थ नहीं हो सकता।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/११८-११९ </span><span class="SanskritText">न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते।</span>=<span class="HindiText">जो शक्ति (वस्तु में) स्वत: न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। <span class="GRef">(पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/६२)</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.1.4" id="II.1.4">स्वभाव दूसरे की अपेक्षा नहीं करता</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/११९ </span><span class="SanskritText">न हि वस्तु शक्तय: परमपेक्षन्ते।</span>=<span class="HindiText">वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/१९ </span> <span class="SanskritText">स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिन्द्रियैर्विनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दौ संभवत:।</span> = <span class="HindiText">(ज्ञान और आनन्द आत्मा का स्वभाव ही है; और) स्वभाव पर की अपेक्षा नहीं करता इसलिए इन्द्रियों के बिना भी (केवलज्ञानी) आत्मा के ज्ञान आनन्द होता है। <span class="GRef">(प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका)</span><br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="II.1.5" id="II.1.5">और परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/मूल/९६ </span><span class="PrakritGatha">सब्भावो हि सभावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं।९६।</span>=<span class="HindiText">सर्व लोक में गुण तथा अपनी अनेक प्रकार की पर्यायों से और उत्पाद व्यय ध्रौव्य से द्रव्य का जो अस्तित्व है वह वास्तव में स्वभाव है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/९६ </span><span class="SanskritText">गुणेभ्य: पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणै: पर्यायैश्च ...यदस्तित्वं स स्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">जो गुणों और पर्यायों से पृथक् नहीं दिखाई देता, कर्ता करण अधिकरणरूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्त्तमान द्रव्य का जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="II.1.6" id="II.1.6"> उपादान अपने परिणमन में स्वतन्त्र है </strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/९१ </span><span class="PrakritGatha">जं कुणइ भावमादा कत्ता स होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पुग्गलं दव्वं।</span>=<span class="HindiText">आत्मा जिस भाव को करता है, उस भाव का वह कर्ता होता है। उसके कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप परिणमित होता है। <span class="GRef">(समयसार/मूल/८०-८१); (समयसार/आत्मख्याति/१०५); (पुरूषार्थसिद्धि उपाय/१२);</span> (और भी देखो [[कारण#III.3.1 | कारण/ III/३/१ ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/११९</span><span class="PrakritGatha"> अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं। जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।११९।</span>=<span class="HindiText">अथवा यदि पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है ऐसा माना जाये, तो जीव कर्म को अर्थात् पुद्गलद्रव्य को परिणमन कराता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है</span> <span class="SanskritText">‘‘तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु’’ </span><span class="HindiText">अत: पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभावी स्वयमेव हो (आत्मख्याति)। </span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/मूल/१५</span><span class="PrakritGatha"> उवओगविसुद्धो जो विगदावरणांतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा जादि पारं णेयभूदाणं।१५।</span>=<span class="HindiText">जो उपयोग विशुद्ध है, वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय रज से रहित स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयभूत पदार्थों के पार को प्राप्त होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/मूल/१६७ </span><span class="PrakritGatha">दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा स संठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते।</span>=<span class="HindiText">द्विप्रदेशादिक स्कन्ध जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और संस्थानों (आकारों) सहित होते हैं, वे पृथिवी, जल, तेज और वायुरूप अपने परिणामों से होते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/२१९</span><span class="PrakritText"> कालाहलद्धि जुत्ता णाणा सत्तीहि संजुदा अत्था। परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं।</span>=<span class="HindiText">काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नाना शक्तियों वाले पदार्थों को स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/७६० </span><span class="SanskritText">उत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमनित्यनय: प्रसिद्ध स्यात् ।७६०।</span>=<span class="HindiText">सत् यथायोग्य प्रतिसमय में उत्पन्न होता है तथा विनष्ट होता है यह निश्चय से व्यवहार विशिष्ट अनित्य नय है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/९३२</span><span class="SanskritText"> तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो दृङ्मोहंस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।</span>=<span class="HindiText">इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही स्वयं अनन्यगति हैं अर्थात् अपने आप होते हैं, परस्पर में एक दूसरे के निमित्त से नहीं होते।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.1.7" id="II.1.7">उपादान के परिणमन में निमित्त की प्रधानता नहीं होती</strong></span><strong><BR> | |||
</strong><span class="GRef"> राजवार्तिक/१/२/१२/२०/१९</span><span class="SanskritText"> यदिदं दर्शनमोहाख्यं कर्म तदात्मगुणघाति, कुतश्चिदात्मपरिणामादेवोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्यां लभते। अतो न तदात्मपरिणामस्य प्रधानं कारणम्, आत्मैव स्वशक्त्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् ।</span>=<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय नाम के कर्म को आत्मविशुद्धि के द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीणशक्तिक सम्यक्त्व कर्म बनाया जाता है। अत: यह सम्यक्त्वप्रकृति आत्मस्वरूप मोक्ष का प्रधान कारण नहीं हो सकती। आत्मा ही अपनी शक्ति से दर्शन पर्याय को धारण करता है अत: वही मोक्ष का कारण है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/५/१/२७/४३४/२४ </span><span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशपुद्गला: इति बहुवचनं स्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थं द्रष्टव्यम् । किं पुन: स्वातन्त्र्यम् । धर्मादयो गत्याद्यपग्रहान् प्रति वर्तमाना: स्वयमेव तथा परिणमन्ते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्ति: इत्येतदत्र विवक्षितं स्वातन्त्र्यम् । ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति: नैष दोष:;बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।</span>=सूत्र में <span class="SanskritText">‘धर्माधर्माकाशपुद्गला:’</span><span class="HindiText"> यहाँ बहुवचन स्वातन्त्र्य की प्रतिपत्ति के लिए है। <strong>प्रश्न</strong>–वह स्वातन्त्र्य क्या है? <strong>उत्तर</strong>–इनका यही स्वातन्त्र्य है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीव या पुद्गल इन्हें उकसाते नहीं हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं, और वह इस स्वातन्त्र्य के मानने पर विरोध को प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य वस्तुएँ निमित्त मात्र होती हैं, परिणामक नहीं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक./२/१/६/४०-४१/३९४ </span><span class="SanskritGatha">चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।४०। चितस्तु भावनेत्रादे: प्रमाणत्वं न वार्यते। तत्साधकतमत्वस्य कथंचिदुपपत्तित:।४१।</span>=<span class="HindiText">वैशेषिक व नैयायिक लोग नेत्र आदि इन्द्रियों को प्रमाण मानते हैं, परन्तु उनका कहना ठीक नहीं है; क्योंकि नेत्रादि जड़ हैं, उनके प्रमिति का प्रकृष्ट साधकपना सर्वदा नहीं है। प्रमिति का कारण वास्तव में ज्ञान ही है। जड़ इन्द्रिय ज्ञप्ति के करण कदापि नहीं हो सकते, हाँ भावेन्द्रियों के साधकतमपने की सिद्धि किसी प्रकार हो जाती है, क्योंकि भावेन्द्रिय चेतनस्वरूप हैं और चेतन का प्रमाणपना हमें अभीष्ट है। <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/२/१/६/२९/३७७/२३); (परीक्षामुख/२/६-९); (स्याद्वादमंजरी/१६/२०८/२३); (न्यायदीपिका/२/५/२७)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/५/१८-१९</span><span class="SanskritGatha"> ज्ञानदृष्टिचारित्राणि ह्रियन्ते नाक्षगोचरै:। क्रियन्ते न च गुर्वाद्यै: सेव्यमानैरनारतम् ।१८। उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति जीवस्य परिणामिन:। तत: स्वयं स दाता न परतो न कदाचन।१९।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान दर्शन और चारित्र का न तो इन्द्रियों के विषयों से हरण होता है, और न गुरुओं की निरन्तर सेवा से उनकी उत्पत्ति होती है, किन्तु इस जीव के परिणमनशील होने से प्रति समय इसके गुणों की पर्याय पलटती हैं इसलिए मतिज्ञान आदि का उत्पाद न तो स्वयं जीव ही कर सकता है और न कभी पर पदार्थ से ही उनका उत्पाद विनाश हो सकता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/२२/६७/३</span><span class="SanskritText"> तदेव (निश्चय सम्यक्त्वमेव) कालत्रयेऽपि मुक्ति कारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति।</span>=<span class="HindiText">वह निश्चय सम्यक्त्व ही सदा तीनों कालों में मुक्ति का कारण है। काल तो उसके अभाव में वीतराग चारित्र का सहकारीकारण भी नहीं हो सकता।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.1.8" id="II.1.8">परिणमन में उपादान की योग्यता ही प्रधान है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/मूल/व तत्वप्रदीपिका/१६९ </span><span class="SanskritText">कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा। गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिमिदा। (जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कन्धा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति।</span>=<span class="HindiText">कर्मत्व के योग्य स्कन्ध जीव की परिणति को प्राप्त करके कर्मभाव को प्राप्त होते हैं, जीव उनको परिणमाता नहीं।१६९। अर्थात् जीव उसको परिणमाने वाला नहीं होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने वाले की योग्यता या शक्ति वाले पुद्गल स्कन्ध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">इष्टोपदेश/मूल/२</span> <span class="SanskritGatha">योग्योपादानयोगेन दृषद: स्वर्णता मता। द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता।२।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार स्वर्णरूप पाषाण में कारण; योग्य उपादानरूप करण के सम्बन्ध से पाषाण भी स्वर्ण हो जाता है, उसी तरह द्रव्यादि चतुष्टयरूप सुयोग्य सम्पूर्ण सामग्री के विद्यमान होने पर निर्मल चैतन्य स्वरूप आत्मा की उपलब्धि हो जाती है। (मो.पा./२४)</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/ तत्वप्रदीपिका/४४ </span><span class="SanskritText">केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते।</span>=<span class="HindiText">केवली भगवान् के बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहने, बैठना, विहार और धर्म देशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef">परीक्षामुख/२/९</span> <span class="SanskritText">स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति।९।</span>=<span class="HindiText">जाननेरूप अपनी शक्ति के क्षयोपशमरूप अपनी योग्यता से ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की जुदी जुदी रीति से व्यवस्था कर देता है। इसलिए विषय तथा प्रकाश आदि उसके कारण नहीं हैं। <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/२/१/६/४०-४१/३९४); (श्लोकवार्तिक/१/६/२९/३७७/२३); (प्रमाण परीक्षा/पृष्ठ ५२,६७); (प्रमेय कमल मार्तण्ड पृष्ठ १०५); (न्यायदीपिका/२/५/२७); (स्याद्वादमंजरी/१६/२०९/१०)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१०६/१६८/१२</span> <span class="SanskritText">शुद्धात्मस्वभावरूपव्यक्तियोग्यतासहितानां भव्यानामेव न च शुद्धात्मरूपव्यक्तियोग्यतारहितानामभव्यानाम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्धात्मस्वभावरूप व्यक्तियोग्यता सहित भव्यों को ही वह चारित्र होता है, शुद्धात्मस्वभावरूप व्यक्तियोग्यता रहित अभव्यों को नहीं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीवतत्व प्रदीपिका/५८०/१०२२/१० में उद्धृत</span>–<span class="SanskritText">निमित्तान्तरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता। बहिर्निश्चयकालस्तु निश्चितं तत्त्वदर्शिभि:।१।</span>=<span class="HindiText">तीहिं वस्तुविषै तिष्ठती परिणमनरूप जो योग्यता सो अन्तरंग निमित्त है बहुरि तिस परिणमन का निश्चयकाल बाह्य निमित्त है, ऐसे तत्त्वदर्शीनिकरि निश्चय किया है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.1.9" id="II.1.9">निमित्त के सद्भाव में भी परिणमन तो स्वत: ही होता है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्वप्रदीपिका/९५</span><span class="SanskritText"> द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनान्तरङ्गसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।</span>=<span class="HindiText">जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थाएँ करता है वह-अन्तरंग साधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से अनुगृहीत होने पर उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ उत्पाद से लक्षित होता है। <span class="GRef">(प्रवचनसार/तत्वप्रदीपिका/९६, १२४)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तत्वप्रदीपिका/७९</span><span class="SanskritText"> शब्दयोग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समन्ततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरङ्गकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ता: शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमन्त इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कन्धप्रभवत्वमिति।</span>=<span class="HindiText">एक दूसरे में प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो स्वभावनिष्पन्न अनन्तपरमाणुमयी शब्दयोग्य वर्गणाएँ, उनसे समस्त लोक भरपूर होने पर भी जहाँ-जहाँ बहिरंग कारणसामग्री उचित होती है वहाँ-वहाँ वे वर्गणाएँ शब्दरूप से स्वयं परिणमित होती हैं; इसलिए शब्द नियतरूप से उत्पाद्य होने से स्कन्धजन्य है। (और भी देखें - [[ कारण#III.3.1 | कारण / III / ३ / १ ]])<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.2" id="II.2"> उपादान की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.2.1" id="II.2.1">उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/९/४, १, ४४/११५/७</span><span class="PrakritText"> ण चोवायाणकारणेण विणा कज्जुप्पत्ती, विरोहादो।</span>=<span class="HindiText">उपादान कारण के बिना, कार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/६०/११२/१२</span><span class="SanskritText"> परस्परोपादानकर्तृत्वं खलु स्फुटम् । नैव विनाभूते संजाते तु पुनस्ते द्रव्यभावकर्मणी द्वे। कं बिना। उपादानकर्तारं बिना, किंतु जीवगतरागादिभावानां जीव एव उपादानकर्ता द्रव्यकर्मणां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गल एवेति।</span>=<span class="HindiText">जीव व कर्म में परस्पर उपादान कर्तापना स्पष्ट है, क्योंकि बिना उपादानकर्ता के वे दोनों द्रव्य व भाव कर्म होने सम्भव नहीं हैं। तहाँ जीवगत रागादि भावकर्मों का तो जीव उपादानकर्ता है और द्रव्य कर्मों का कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल उपादानकर्ता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.2.2" id="II.2.2"> उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/६/१,९-६/१९/१६४ </span> <span class="PrakritText">तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जुप्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो।</span> =<span class="HindiText">कहीं भी अन्तरंग कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए (क्योंकि बाह्यकारणों से उत्पत्ति मानने में शाली के बीज से जौ की उत्पत्ति का प्रसंग होगा)।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="II.2.3" id="II.2.3">अन्तरंग कारण ही बलवान है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/१२/४, २, ७४८/३६/६ </span><span class="PrakritText">ण केवलमकसायपरिणामो चेव अणुभागघादस्स कारणं, किं पयडिगयसत्तिसव्वपेक्खो परिणामो अणुभागघादस्स कारणं। तत्थ वि पहाणमंतरंगकारणं, तम्हि उक्कस्से संते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागघाददंसणादो, अंतरंगकारणे थोवे संते बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागघादाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">केवल अकषाय परिणाम ही (कर्मों के) अनुभागघात का कारण नहीं है, किन्तु प्रकृतिगत शक्ति की अपेक्षा रखने वाला परिणाम अनुभागघात का कारण है। उसमें भी अन्तरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होने पर बहिरंग कारण के स्तोक रहने पर भी अनुभाग घात बहुत देखा जाता है। तथा अन्तरंग कारण के स्तोक होने पर बहिरंग कारण के बहुत होते हुए भी अनुभागघात बहुत नहीं उपलब्ध होता।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला/१४/५,६, ९३/९०/१</span> <span class="PrakritText">ण बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावो। तं कुदो णव्वदे। तदभावे वि अंतरंगहिंसादो चेव सित्थमच्छस्स बंधुवलभादो। जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं। तम्हा अंतरंग हिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्धं। ण च अंतरंगहिंसा एत्थ अत्थि कसायासंजमाणमभावादो।</span>=<span class="HindiText">(अप्रमत्त जनों को) बहिरंग हिंसा आस्रव रूप नहीं होती? <strong>प्रश्न</strong>–यह किस प्रमाण से जाना जाता है? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि बहिरंग हिंसा का अभाव होने पर भी केवल अन्तरंग हिंसा से सिक्थमत्स्य के बन्ध की उपलब्धि होती है। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नय से अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है, बहिरंग नहीं यह बात सिद्ध होती है। यहाँ (अप्रमत्त साधुओं में) अन्तरंग हिंसा नहीं है, क्योंकि कषाय और असंयम का अभाव है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्वप्रदीपिका/२२७ </span><span class="SanskritText">यस्य... सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात् स्वयमनशन एव स्वभाव:। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात्...।</span>=<span class="HindiText">समस्त अनशन की तृष्णा से रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अन्तरंग की विशेष बलवत्ता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्वप्रदीपिका/२३८ </span> <span class="SanskritText">आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम्।</span> =<span class="HindiText">आगम ज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान और संतत्व की युगपतता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम संमत करना।</span><br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वाद मंजरी/७/६३/२२ पर उद्धृत—</span><span class="SanskritText">अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च।</span>=<span class="HindiText">अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अन्तरंग अर्थ को मुख्य कहते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">स्वयम्भू स्तोत्र/५९ की टीका पृष्ठ १५६ </span><span class="SanskritText">अनेन भक्तिलक्षणशुभपरिणामहीनस्य पूजादिकं न पुण्यकारणं इत्युक्तं भवति। तत: अभ्यन्तरङ्गशुभाशुभजीवपरिणामलक्षणं कारणं केवलं बाह्यवस्तुनिरपेक्षम्।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भक्तियुक्त शुभ परिणामों से रहित पूजादिक पुण्य के कारण नहीं होते हैं। अत: बाह्य वस्तुओं से निरपेक्ष जीव के केवल अन्तरंग शुभाशुभ परिणाम ही कारण है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.2.4" id="II.2.4"> विघ्नकारी कारण भी अन्तरंग ही हैं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/९२ </span><span class="SanskritText">यदयं स्वयमात्मा धर्मो भवति स खलु मनोरथ एव, तस्य त्वेका बहिर्मोदृष्टिरेव विहन्त्री।</span>=<span class="HindiText">यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तव में मनोरथ है। इसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोदृष्टि ही है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/३५/१४४/२ </span><span class="SanskritText">परमसमाधिर्दुर्लभ:। कस्मादिति चेत्तत्प्रतिबन्धकमिथ्यात्वविषयकषायनिदानबन्धादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति।</span>=<span class="HindiText">परमसमाधि दुर्लभ है। क्योंकि परमसमाधि को रोकने वाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबन्ध आदि जो विभाव परिणाम हैं, उनकी जीव में प्रबलता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/५६/२२५/५</span><span class="SanskritText"> नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुभूतिप्रतिबन्धकं शुभाशुभचेष्टारूपं कायव्यापारं... वचनव्यापारं...चित्तव्यापारं च किमपि मा कुरूत हे विवेकिजना:।</span>=<span class="HindiText">नित्य निरञ्जन निष्क्रिय निज शुद्धात्मा की अनुभूति के प्रतिबन्धक जो शुभाशुभ मन वचन काय का व्यापार उसे हे विवेकीजनो ! तुम मत करो।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.3" id="II.3"> उपादान की कथंचित् परतन्त्रता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.3.1" id="II.3.1">निमित्त की अपेक्षा रखने वाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वाद मजरी/५/३०/११ </span> <span class="SanskritText">समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं समर्थं करोतीति चेत्, न तर्हि तस्य सामर्थ्यम्; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् । सापेक्षमसमर्थम् इति न्यायात् ।</span>=<span class="HindiText">यदि ऐसा माना जाये कि समर्थ होने पर भी अमुक सहकारी कारणों के मिलने पर ही पदार्थ अमुक कार्य को करता है तो इससे उस पदार्थ की असमर्थता ही सिद्ध होती है, क्योंकि वह दूसरों के सहयोग की अपेक्षा रखता है, न्याय का वचन भी है कि ‘‘जो दूसरों की अपेक्षा रखता है। वह असमर्थ है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.3.2" id="II.3.2"> व्यावहारिक कार्य करने में उपादान निमित्तों के आधीन है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">तत्वार्थसूत्र/१०/८</span><span class="SanskritText"> धर्मास्तिकायाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">धर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव लोकान्त से ऊपर नहीं जाता। (विशेष देखें - [[ धर्माधर्म | धर्माधर्म ]])</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पभू../सू./१/६६ </span> <span class="PrakritGatha">अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विह आणइ विहि णेइ।६६।</span>=<span class="HindiText">हे जीव ! यह आत्मा पंगु के समान है। आप न कहीं जाता है, न आता है। तीनों लोकों में इस जीव को कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/११४-११५/२९६-२९७/२४६-२४७ </span> <span class="SanskritText">जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति, स परतन्त्रीक्रियते वा यैस्तानि कर्माणि।...तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीवस्य पारतन्त्र्यनिमित्तत्वात्, निगडादिवत्। क्रोधादिभिर्व्यभिचार इति चेत्, न,....पारतन्त्र्यं हि क्रोधादिपरिणामो न पुन: पारतन्त्र्यनिमित्तम्।२९६। ननु च ज्ञानावरण...जीवस्वरूपघातित्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वं न पुनर्नामगोत्रसद्वेद्यायुषाम् तेषामात्मस्वरूपाघातित्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वासिद्धेरिति पक्षाव्यापको हेतु:।...न; तेषामपि जीवस्वरूपसिद्धत्वप्रतिबन्धत्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वोपपत्ते:। कथमेवं तेषामघातिकर्मत्वं। इति चेत्, जीवन्मुक्तलक्षणपरमार्हन्त्यलक्ष्मीघातित्वाभावादिति ब्रूमहे।२९७।</span>=<span class="HindiText">जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। वे सब पुद्गलपरिणामात्मक हैं, क्योंकि वे जीव की परतन्त्रता में कारण हैं जैसे निगड (बेड़ी) आदि। <strong>प्रश्न</strong>–उपयुक्त हेतु क्रोधादि के साथ व्यभिचारी है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि जीव के क्रोधादि भाव स्वयं परतन्त्रता है, परतन्त्रता का कारण नहीं।२९६। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म ही जीवस्वरूप घातक होने से परतन्त्रता के कारण हैं, नाम गोत्र आदि अघाति कर्म नहीं, क्योंकि वे जीव के स्वरूपघातक नहीं हैं। अत: उनके परतन्त्रता की कारणता असिद्ध है और इसलिए (उपरोक्त) हेतु पक्षव्यापक है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि नामादि अघातीकर्म भी जीव सिद्धत्वस्वरूप के प्रतिबन्धक हैं, और इसलिए उनके भी परतन्त्रता की कारणता उपपन्न है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर उन्हें अघाती कर्म क्यों कहा जाता है? <strong>उत्तर</strong>–जीवन्मुक्तिरूप आर्हन्त्यलक्ष्मी के घातक नहीं हैं, इसलिए उन्हें हम अघातिकर्म कहते हैं। (रा.वा./५/२४/९/४८८/२०), (गो.जी./जी.प्र./२४४/५०८/२)।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/२७९/कलश २७५</span> <span class="SanskritText">न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्त:। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव, वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।२७५।</span>=<span class="HindiText">सूर्यकान्त मणि की भाँति आत्मा अपने को रागादि का निमित्त कभी भी नहीं होता। (जिस प्रकार वह मणि सूर्य के निमित्त से ही अग्नि रूप परिणमन करती है, उसी प्रकार आत्मा को भी रागादिरूप परिणमन करने में) पर-संग ही निमित्त है। ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/५ </span><span class="SanskritText">इन्द्रियमन:परोपदेशावलोकादिबहिरङ्गनिमित्तभूतात् ....उपलब्धेरर्थावधारणरूप ... यद्विज्ञानं तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते।</span>=<span class="HindiText">इन्द्रिय, मन, परोपदेश तथा प्रकाशादि बहिरंग निमित्तों से उपलब्ध होने वाला जो अर्थाविधारण रूप विज्ञान वह पराधीन होने के कारण परोक्ष कहा जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/१४/४४/१० </span><span class="SanskritText">(जीवप्रदेशानां) विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति।</span>=<span class="HindiText">(जीव के प्रदेशों का संहार तथा) विस्तार शरीर नामक नामकर्म के आधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है। इस कारण जीव के इस शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का (संहार या) विस्तार नहीं होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">स्वयम्भू स्तोत्र/टीका/६२/१६२ </span><span class="SanskritText">‘‘उपादानकारणं सहकारिकारणमपेक्षते। तच्चोपादानकारणं न च सर्वेण सर्वमपेक्ष्यते। किन्तु यद्येन अपेक्ष्यमाणं दृश्यते तत्तेनापेक्ष्यते।’’ </span>=<span class="HindiText">उपादानकारण सहकारीकारण की अपेक्षा करता है। सर्व ही उपादान कारणों से सभी सहकारीकारण अपेक्षित होते हों सो भी नहीं। जो जिसके द्वारा अपेक्ष्यमाण होता है वही उसके द्वारा अपेक्षित होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.3.3" id="II.3.3">जैसा-जैसा कारण मिलता है वैसा-वैसा ही कार्य होता है–</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/४/४२/७/२५१/१२ </span><span class="SanskritText">नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तद्व्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव।</span><span class="HindiText">=जीवों के सर्व भेद प्रभेद स्वत: नहीं हैं, क्योंकि पर की अपेक्षा के अभाव में उन भेदों की व्यक्ति का अभाव है। इसलिए अनन्त परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। यह बात न स्वत: होती है और न परकृत ही है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/१२/४, २, १३, २४३/४५३/७ </span><span class="PrakritText">कधमेगो परिणामो भिण्णकज्जकारओ। ण सहकारिकारणसंबंधभेएणतस्स तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–एक परिणाम भिन्न कार्यों को करने वाला कैसे हो सकता है (ज्ञानावरणीय के बन्ध योग्य परिणाम आयु कर्म को भी कैसे बाँध सकता है) ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, सहकारी कारणों के संबन्ध से उसके भिन्न कार्यों के करने में कोई विरोध नहीं है। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/७६/१३४)</span>–( देखें - [[ कारण#II.1.9 | पीछे कारण / II / १ / ९ ]])।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="II.3.4" id="II.3.4"> उपादान को ही स्वयं सहकारी मानने में दोष—</strong></span><strong> <BR></strong><span class="GRef">आप्तमीमांसा/२१ </span><span class="SanskritText">एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेत्ति चेन्न यथा कार्यं बहिरन्तरुपाधिभि:।२१।</span> =<span class="HindiText">पूर्वोक्त सप्तभंगी विषै विधि निषेधकरि अनवस्थित जीवादि वस्तु हैं सो अर्थ क्रिया को करै हैं। बहुरि अन्यवादी केवल अन्तरंग कारण से ही कार्य होना मानै तैसा नाहीं है। वस्तु को सर्वथा सत् या सर्वथा असत् मानने से, जैसा कार्य सिद्ध होना बाह्य अन्तरंग सहकारी कारण अर उपादान कारणनि करि माना है तैसा नाहीं सिद्ध होय है। तिसकी विशेष चर्चा अष्टसहस्री तै जानना। ( देखें - [[ धर्माधर्म#3 | धर्माधर्म / ३ ]]तथा काल/२) यदि उपादान को ही सहकारी कारण भी माना जायेगा तो लोक में जीव पुद्गल दो ही द्रव्य मानने होंगे। </span></li> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III" id="III">निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.1" id="III.1"> निमित्त के उदाहरण</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.1.1" id="III.1.1"> षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">तत्वार्थसूत्र/५/१७-२२</span> <span class="SanskritText">गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार:।१७। आकाशस्यावगाह:।१८। शरीरवाङ्मन:प्राणापाना: पुद्गला नाम।१९। सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहाश्च।२०। परस्परोपग्रहो जीवानाम्।२५। वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य।२२।</span> =<span class="HindiText">(जीव व पुद्गल की) गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।१७। अवकाश देना आकाश का उपकार है।१८। शरीर, वचन, मन और प्राणापान पुद्गलों का उपकार है।१९। सुख दुःख जीवन और मरण ये भी पुद्गलों के उपकार हैं।२०। परस्पर निमित्त होना यह जीवों का उपकार है।२१। वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।२०। <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल/६०५-६०६/१०५०, १०६०), (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/२०८-२१०)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/५/२०/२८९/२</span><span class="SanskritText"> एतानि सुखादीनि जीवस्य पुद्गलकृत उपकार:, मूर्त्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्ते:।...पुद्गलानां पुद्गलकृत उपकार इति। तद्यथा-कंस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरय:प्रभृतीनामुदकादिभिरुपकार: क्रियते। च शब्द:....अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा शरीराणि एवं चक्षुरादीनीन्द्रियाण्यपीति।२०। ... परस्परोपग्रह:। जीवानामुपकार:। क: पुनरसौ। स्वामी भृत्य:, आचार्य: शिष्य: इत्येवमादिभावेन वृत्ति: परस्परोपग्रह:। स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते। भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिपेधेनच। आचार्य उपदेशदर्शनेन... क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या आचार्याणाम् । ...पूर्वोक्तसुखादिचतुष्टयप्रदर्शनार्थं पुन: उपग्रह वचनं क्रियते। सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति।२१।</span>=<span class="HindiText">ये सुखादिक जीव के पुद्गलकृत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त्त कारणों के रहने पर ही इनकी उत्पत्ति होती है। (इसके अतिरिक्त) पुद्गलों का भी पुद्गलकृत उपकार होता है। यथा-कांसे आदि का राख आदि के द्वारा, जल आदि के द्वारा उपकार किया जाता है। पुद्गलकृत और भी उपकार हैं, इसके समुच्चय के लिए सूत्र में ‘च’ शब्द दिया है। जिस प्रकार शरीरादिक पुद्गलकृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुद्गलकृत उपकार हैं। परस्पर का उपग्रह करना जीवों का उपकार है। जैसे स्वामी तो धन आदि देकर और सेवक उसके हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके एक दूसरे का उपकार करते हैं। आचार्य उपदेश द्वारा तथा क्रिया में लगाकर शिष्यों का और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करते हैं। इनके अतिरिक्त सुख आदिक भी जीव के जीवकृत उपकार हैं। <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीव तत्व प्रदीपिका/६०५-६०६/१०६०-१०६२) (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/टीका/२०८-२१०)</span><br /> | |||
<span class="GRef">वसुनन्दि श्रावकाचार/३४</span><span class="PrakritText"> जीवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंचकायाई। जीवो सत्ताभूओ सो ताणं ण कारणं होइ।३४।</span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/अधिकार २ की चूलिका/७८/२</span><span class="SanskritText"> पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीरवाङ्मन:प्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वन्तीति कारणानि भवन्ति। जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् ।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किन्तु जीव सत्तास्वरूप है उनका कारण नहीं है।३४। उपरोक्त पाँचों द्रव्यों में से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, नि:श्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तनारूप कार्य क्रम से धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुद्गलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। जीव द्रव्य यद्यपि गुरु शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है, फिर भी पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/२७/५७/१२</span>)</span>।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="III.1.2" id="III.1.2"> द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप निमित्त</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड१/२४५/२८९/३ </span><span class="PrakritText">पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे। तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माहं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभाव का विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है। <br /> | |||
( देखें - [[ बन्ध#3 | बन्ध / ३ ]]) कर्मों का बन्ध भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है। <br /> | |||
( देखें - [[ उदय#2.3 | उदय / २ / ३ ]]) कर्मों का उदय भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.1.3" id="III.1.3"> निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/५/१९/२८६/९ </span><span class="SanskritText">तत्सामर्थ्योपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणा: पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार की (भाव वचन की) सामर्थ्य से युक्त क्रियावाले आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचनरूप से परिणमन करते हैं। <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीवतत्व प्रदीपिका/६०६/१०६२/३)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१/६/१५</span><span class="SanskritText"> वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं। भव्यपुण्यप्रेरणात् ।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि में प्रवृत्ति किस कारण से होती है ? <strong>उत्तर</strong>–भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा से।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="III.1.4" id="III.1.4"> निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/३१२-३१३ </span><span class="PrakritGatha">चेया उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ।३१२। एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोण्णपच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।३१३।</span>=<span class="HindiText">आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा का और प्रकृति का बन्ध होता है, और इससे संसार होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/२/१, १/४१२/११</span> <span class="SanskritText">तथोच्छवासनि:श्वासप्राणपर्याप्तयो:। कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिघातव्य इति।=</span><span class="HindiText">उच्छ्वासनि:श्वास: प्राण कार्य है और आत्मा उपादान कारण है तथा उच्छ्वासनि:श्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादाननिमित्तक है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/२८६-२८७</span><span class="SanskritText"> यथाध:कर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्न च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे...इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं प्रत्याचष्टे।...एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभाव:।</span> =<span class="HindiText">जैसे अध: कार्य से उत्पन्न और उद्देश्य से उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा नैमित्तिकभूत बन्ध साधक भाव का प्रत्याख्यान नहीं करता, इसी प्रकार समस्त परद्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होने वाले भाव को (भी) नहीं त्यागता।... इस प्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा, जैसे नैमित्तिकभूत बन्धसाधक भाव का प्रत्याख्यान करता है, उसी प्रकार समस्त परद्रव्यों का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव को निमित्तनैमित्तिकपना है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/३१२-३१३</span><span class="SanskritText"> एवमनयोरात्मप्रकृतयो: कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्ट:, तत: संसार:, तत एव च कर्तृकर्मव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि उन आत्मा और प्रकृति के कर्ताकर्मभाव का अभाव है तथापि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव से दोनों के बन्ध देखा जाता है। इससे संसार है और यह ही उनके कर्ताकर्म का व्यवहार है। (पं.ध./उ./१०७१)</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/३४९-३५० </span><span class="SanskritText">यतो खलु शिल्पी सुवर्णकारादि: कुण्डलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति ...न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्त्रभोग्यत्वव्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि) कुण्डल आदि जो परद्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है, किन्तु अनेक द्रव्यत्व के कारण उनसे अन्य होने से तन्मय नहीं होता; इसलिए निमित्तनैमित्तिक भावमात्र से ही वहाँ कर्तृकर्मत्व का और भोक्ताभोक्तृत्व का व्यवहार है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.1.5" id="III.1.5">अन्य सामान्य उदाहरण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/३/२७/२२३/२ </span> <span class="SanskritText">किंहेतुकौ पुनरसौ। कालहेतुकौ।</span>=<span class="HindiText">ये वृद्धि ह्रास काल के निमित्त से होते हैं। <span class="GRef">(राजवार्तिक /३/२७/१९१/२६)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/२४/२० </span> <span class="SanskritText">शाम्यन्ति जन्तव: क्रूरा बद्धवैरा परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुने: साम्यप्रभावत:।२०।</span>=<span class="HindiText">इस साम्यभाव के प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनि के निकट परस्पर वैर करने वाले क्रूर जीव भी साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2" id="III.2">निमित्त की कथंचित् गौणता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.1" id="III.2.1"> सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ६/१ ९-६,१९/१६४/७ </span><span class="PrakritText">कुदो। पयडिविसेसादो। ण च सव्वाइं कज्जाइं एयंतेण बज्झत्थमवेक्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाइ्ं दव्वाइं तिसु वि कालेसु कहिं पि अत्थि, जेसिं बलेण सालिबीजस्स जवंकुरप्पायणसत्ती होज्ज, अणवत्थापसंगादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(इन सर्व कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध इतना इतना क्यों है। जीव परिणामों के निमित्त से इससे अधिक क्यों नहीं हो सकता) ? <strong>उत्तर–</strong>क्योंकि प्रकृति विशेष होने से सूत्रोक्त प्रकृतियों का यह स्थिति बन्ध होता है। सभी कार्य एकान्त से बाह्य अर्थ की अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालिधान्य के बीज से जौ के भी अंकुर की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु उस प्रकार के द्रव्य तीनों ही कालों में किसी भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बल से शालिधान्य के बीज के जौ के अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="III.2.2" id="III.2.2">धर्मादि द्रव्य उपकारक हैं प्रेरक नहीं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/मूल/८८-८९</span><span class="PrakritGatha"> ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदिगदिस्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।८८। विज्जदि जसि गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि। ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।८९।=</span><span class="HindiText">धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्य को गमन नहीं कराता। वह जीवों तथा पुद्गलों को गति का उदासीन प्रसारक (गति प्रसार में उदासीन निमित्त) है।८८। जिनको गति होती है उन्हीं को स्थिति होती है। वे तो अपने-अपने परिणामों से गति और स्थिति करते हैं। (इसलिए धर्म व अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति व स्थिति में मुख्य हेतु नहीं <span class="GRef">(तत्व प्रदीपिका टीका)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/५/७/४-६/४४६</span><span class="SanskritText"> निष्क्रियत्वात् गतिस्थिति-अवगाहनक्रियाहेतुत्वाभाव इति चेत्; न; बलाधानमात्रत्वादिन्द्रियवत् ।४।...यथा दिदृक्षोश्चक्षुरिन्द्रियं रूपोपलब्धौ बलाधानमात्रमिष्टं न तु चक्षुष: तत्सामर्थ्यम् इन्द्रियान्तरोपयुक्तस्य तद्भावात् ।...तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यायपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिवृत्तौ बलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामीनि। कुत: पुनरेतदेवमिति चेत् । उच्यतेद्रव्यसामर्थ्यात् ।५। यथा आकाशमगच्छत् सर्वद्रव्यै: संबद्धम्, न चास्य सामर्थ्यमन्यस्यास्ति। तथा च निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्यादिक्रियानिवृत्तिं प्रतिबलाधानमात्रत्वमसाधारणमवसेयम् ।<br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/५/१७/१६/४६२/५ </span> तयो: कर्तृत्वप्रसंग इति चेत्, न; उपकारवचनाद् यष्ट्यादिवत् ।१६।... जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।... ततश्च मन्यामहे न प्रधानकर्तांरौ इति।१७।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदि की गति और स्थिति में निमित्त देखे गये हैं, अत: निष्क्रिय धर्माधर्मादि गति स्थिति में निमित्त कैसे हो सकते हैं? <strong>उत्तर</strong>–जैसे देखने की इच्छा करने वाले आत्मा को चक्षु इन्द्रिय बलाधायक हो जाती है, इन्द्रियान्तर में उपयुक्त आत्मा को वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूप से परिणमन करने वाले द्रव्यों की गति आदि में धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामर्थ्य से गमन न करने पर भी सभी द्रव्यों से सम्बद्ध है और सर्वगत कहलाता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों की भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए। जैसे यष्टि चलते हुए अन्धे की उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी प्रकार धर्मादिकों को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता। इससे जाना जाता है कि ये दोनों प्रधान कर्ता नहीं हैं। <span class="GRef">(राजवार्तिक/५/१७/२४/४६३/३१)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल/५७०/१०१५</span> <span class="PrakritGatha">य ण परिणमदि समं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेतु।५७०।</span>=<span class="HindiText">काल न तो स्वयं अन्य द्रव्यरूप परिणमन करता है और न अन्य को अपने रूप या किसी अन्य रूप परिणमन कराता है। नाना प्रकार के परिणामों युक्त ये द्रव्य स्वयं परिणमन कर रहे हैं, उनको काल द्रव्य स्वयं हेतु या निमित्त मात्र है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/२४/५०/११</span> <span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणामं गच्छन्तां शीतकाले स्वयमेवाध्ययनक्रियां कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमणक्रियां कुर्वाणस्य कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्बहिरङ्गनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति।</span>=<span class="HindiText">सर्व द्रव्यों को जो कि निश्चय से स्वयं ही परिणमन करते हैं; उनके बहिरंग निमित्त रूप होने से वर्तना लक्षणवाला यह कालाणु निश्चयकाल होता है। जिस प्रकार शीतकाल में स्वयमेव अध्ययन क्रिया परिणत पुरुष के अग्नि सहकारी होती है, अथवा स्वयमेव भम्रणक्रिया करने वाले कुम्भार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला सहकारी होती है, उसी प्रकार यह निश्चय कालद्रव्य भी, स्वयमेव परिणमने वाले द्रव्यों को बाह्य सहकारी निमित्त है। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/८५/१४२/१५)</span>।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.3" id="III.2.3"> अन्य भी उदासीन कारण धर्मद्रव्यवत् ही जानने</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">इष्टोपदेश/मूल/३५</span> <span class="SanskritText">नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ।</span>=<span class="HindiText">जो पुरुष अज्ञानी या तत्त्वज्ञान के अयोग्य है वह गुरु आदि पर के निमित्त से विशेष ज्ञानी नहीं हो सकता। और जो विशेष ज्ञानी है, तत्त्वज्ञान की योग्यता से सम्पन्न है वह अज्ञानी नहीं हो सकता। अत: जिस प्रकार धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों के गमन में उदासीन निमित्तकारण है, उसी प्रकार अन्य मनुष्य के ज्ञानी करने में गुरु आदि निमित्त कारण हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/८५/१४२/१५</span> <span class="SanskritText">धर्मस्य गतिहेतुत्वे लोकप्रसिद्धदृष्टान्तमाह–उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं ...भव्यानां सिद्धगते: पुण्यवत्...अथवा चतुर्गतिगमनकाले द्रव्यलिङ्गादिदानपूजादिकं वा बहिरङ्गसहकारिकारणं भवति।८५।</span>=<span class="HindiText">धर्म द्रव्य के गति हेतुत्वपने में लोकप्रसिद्ध दृष्टान्त कहते हैं–जैसे जल मछलियों के गमन में सहकारी है (और भी देखें - [[ धर्माधर्म#2 | धर्माधर्म / २ ]]), अथवा जैसे भव्यों को सिद्ध गति में पुण्य सहकारी है; अथवा जैसे सर्व साधारण जीवों को चतुर्गति गमन में द्रव्य लिंग व दान पूजादि बहिरंग सहकारी कारण हैं; (अथवा जैसे शीतकाल में स्वयं अध्ययन करने वाले को अग्नि सहकारी है, अथवा जैसे भ्रमण करने वाले कुम्भार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला उदासीन कारण है <span class="GRef">(पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/५०/११</span>-देखें - [[ कारण#III.2.2 | कारण III.2.2 ]])–उसी प्रकार जीव पुद्गल की गति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/१८/५६/९</span><span class="SanskritText"> सिद्धभक्तिरूपेणेह पूर्वं सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरंगसहकारिकारणं भवति तथैव...अधर्मद्रव्यं स्थिते: सहकारिकारणं।</span>=<span class="HindiText">सिद्ध भक्ति के रूप के पहिले सविकल्पावस्था में सिद्ध भगवान् भी जैसे भव्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं, तैसे ही अधर्म द्रव्य जीवपुद्गलों को ठहरने में सहकारी कारण होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.4" id="III.2.4"> बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१६३/४०३/१२ </span> <span class="SanskritText">मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात्।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता। ऐसा न्याय भी है जो स्वत: असमर्थ होता है वह दूसरों के सम्बन्ध से भी समर्थ नहीं हो सकता। </span><br /> | |||
<span class="GRef">बोधपाहुड/६०/पृष्ठ १५३/१४ पं॰ जयचन्द</span>–अपना भला बुरा अपने भावनि के अधीन है। उपादान कारण होय तो निमित्त भी सहकारी होय। अर उपादान न होय तौ निमित्त कछू न करै है। <span class="GRef">(भावपाहुड/२/पं.जयचन्द/पृष्ठ १५९/२</span>)</span> (और भी देखें - [[ कारण#II.1.7 | कारण / II / १ / ७ ]])।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.5" id="III.2.5">सहकारी कारण को कारण कहना उपचार है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/हिंदी/९/२७/७२९ में श्लोकवार्तिक से उद्धृत—</span><span class="HindiText"> अन्य के नेत्रनि को ज्ञान का कारण सहकारी मात्र उपचारकरि कहा है। परमार्थ तै ज्ञान का कारण आत्मा ही है। देखें - [[ कारण#II.1.7 | कारण / II / १ / ७ ]] में श्लो॰ वा॰।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.6" id="III.2.6"> सहकारी कारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/१/२/१४/२०/१८</span> <span class="SanskritText"> आभ्यन्तर आत्मीय: सम्यग्दर्शनपरिणाम: प्रधानम्, सति तस्मिन् बाह्यस्योपग्राहकत्वात् । अतो बाह्य आभ्यन्तरस्योपग्राहक: पारार्थ्येन वर्तत इत्यप्रधानम् ।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शनपरिणाम रूप आभ्यन्तर आत्मीय भाव ही तहाँ प्रधान है कर्म प्रकृति नहीं। क्योंकि उस सम्यग्दर्शन के होने पर वह तो उपग्राहक मात्र है। इसलिए बाह्य कारण आभ्यन्तर का उपग्राहक होता है और परपदार्थ रूप से वर्तन करता है, इसलिए अप्रधान होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.7" id="III.2.7">सहकारी को कारण मानना सदोष है—</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति २६५ </span> <span class="SanskritText">न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यं वस्तु बन्धहेतु: स्यात् ईर्यासमितिपरिणतपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिङ्गवत् बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकान्तिकत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि बाह्य वस्तु बन्ध के कारण का (अर्थात् अध्यवसान का) कारण है, तथापि वह बन्ध का कारण नहीं है। क्योंकि ईर्यासमिति में परिणमित मुनीन्द्र के चरण से मर जाने वाले किसी कालप्रेरित जीव की भाँति बाह्य वस्तु को बन्ध का कारणत्व मानने में अनैकान्तिक हेत्वाभासत्व है। अर्थात् व्यभिचार आता है। <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक /२/१/६/२९/३७३/११)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायि/उतरार्ध ८०१ </span> <span class="SanskritText">अत्राभिप्रेतमेवैतत्स्वस्थितिकरणं स्वत:। न्यायात्कुतश्चिदत्रापि हेतुस्तत्रानवस्थिति: ।८०१।</span>=<span class="HindiText">इस स्वस्थितिकरण के विषय में इतना ही अभिप्राय है कि स्थितिकरण स्वयमेव ही होता है। यदि इसका भी न्यायानुसार कोई न कोई कारण मानेंगे तो अनवस्था दोष आता है।८०१।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.8" id="III.2.8"> सहकारी कारण अहेतुवत् होता है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/उतरार्ध/३५१,६७९ </span> <span class="SanskritText">मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेन्द्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् ।३५१। अस्त्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तदक्षति:। तदापि न बहिर्वस्तु स्यात्तद्धेतुरहेतुत:।६७९।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">मति ज्ञानादि के उत्पन्न होने के समय आत्मा उपादान कारण है और देह, इन्द्रिय, तथा उन इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ केवल बाह्य हेतु हैं, अत: वे अहेतु के बराबर हैं।३५१। केवल अपने उपादान हेतु से ही चारित्र की क्षति अथवा चारित्र की अक्षति होती है। उस समय भी बाह्य वस्तु उस क्षति अक्षति का कारण नहीं है। और इसलिए दीक्षादेशादि देने अथवा न देनेरूप बाह्य वस्तु चारित्र की क्षति अक्षति के लिए अहेतु है।६७९।<br /> | |||
</span></span></li> | |||
<li class="HindiText"><span class="HindiText"><strong name="III.2.9" id="III.2.9"> सहकारी कारण तो निमित्त मात्र होता है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि /१/२०/१२१/३ </span> (श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में मतिज्ञान निमित्तमात्र है।) <span class="GRef">(राजवार्तिक /१/२०/४/७१/१)</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक /१/२/११/२०/८ </span> (बाह्य साधन उपकरणमात्र है) <br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक /५/७/४/४४६/१८</span> (जीव पुद्गल की गति स्थिति आदि कराने में धर्म अधर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य इन्द्रियवत् बलाधानमात्र है।) <br /> | |||
<span class="GRef">नयचक्र वृहद्/१३० में उद्धृत</span>–(सराग व वीतराग परिणामों की उत्पत्ति में बाह्य वस्तु निमित्तमात्र है।)<br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/८० </span> (जीव व पुद्गल कर्म एक दूसरे के परिणामों में निमित्तमात्र होते हैं।) <span class="GRef">(समयसार/आत्मख्याति/९१)</span> (प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१८६) (पुरूषार्थसिद्धि उपाय/१२) (समयसार/तात्पर्यवृत्ति/१२५)</span> ।<br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/६७ </span> (जीव के सुख-दुःख में इष्टानिष्ट विषय निमित्तमात्र है।)<br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/२१७ </span> (प्रत्येक द्रव्य के निज-निज परिणाम में बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है)<br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५७६ </span>(सर्व द्रव्य अपने भावों के कर्ता भोक्ता है, पर भावों के कर्ताभोक्तापना निमित्तमात्र है।)<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.10" id="III.2.10"> निमित्त परमार्थ में अकिंचित्कर व हेय है</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक /१/२/१३/२०/१५ </span> (क्षायिक सम्यक्त्व अन्तर परिणामों से ही होता है, कर्म पुद्गल रूप बाह्य वस्तु हेय है।)<br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/तात्पर्यवृत्ति/११९ </span> (पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मभावरूप परिणमित होता है। तहाँ निमित्तभूत जीव द्रव्य हेयतत्त्व है।)<br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/१४३ </span> (जीव की सिद्ध गति उपादान कारण से ही होती है। तहाँ काल द्रव्य रूप निमित्त हेय है) <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह/टीका/२२/६७/४)</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.11" id="III.2.11"> भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक/२/१/६/४०/३९४ </span><span class="SanskritGatha">चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।४०।</span> <span class="HindiText">वैशेषिक व नैयायिक लोग इन्द्रियों को प्रमिति का कारण मानकर उन्हें प्रमाण कहते हैं। परन्तु जड़ होने के कारण वे ज्ञप्ति के लिए साधकतम करण कभी नहीं हो सकते।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/२९४ </span> <span class="SanskritText">आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तृरात्मन: करणमीमांसायां निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासभवाद् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् ।</span>=<span class="HindiText">आत्मा और बन्ध के द्विधा करने रूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसके कारण सम्बन्धी मीमांसा करने पर, निश्चय से अपने से भिन्न करण का अभाव होने से भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/३०८-३११ </span><span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पादकभावाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य उत्पादक भाव का अभाव है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">परीक्षामुख/२/६-८</span><span class="SanskritText"> नार्थालोकौ कारण परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्।६। तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोऽण्डुक ज्ञानवन्नक्तंचरज्ञानवच्च।७। अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ।८।</span><span class="HindiText">=अन्वयव्यतिरेक से कार्यकारणभाव जाना जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार ‘प्रकाश’ ज्ञान में कारण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव में भी रात्रि को विचरने वाले बिल्ली चूहे आदि को ज्ञान पैदा होता है और उसके सद्भाव में भी उल्लू वगैरह को ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार अर्थ भी ज्ञान के प्रति कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थ के अभाव में भी केशमशकादि ज्ञान उत्पन्न होता है। दीपक जिस प्रकार घटादिकों से उत्पन्न न होकर भी उन्हें प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होकर उन्हें प्रकाशित करता है। <span class="GRef">(न्यायदीपिका/२/४-५/२६)</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.2.12" id="III.2.12"> द्रव्य के परिणमन को सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/१२१-१२३ </span><span class="PrakritText">ण सयं बद्धो कम्मे ण परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अपरिणामी तदा होदी।१२१। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसाररस अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।१२२।</span><span class="HindiText"> सांख्यमतानुसारी शिष्य के प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई ! ‘यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है’ यदि तेरा यह मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है और जीव स्वयं क्रोधादि भावरूप नहीं परिणमता होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है। अथवा सांख्य मत का प्रसंग आता है।१२१-१२२। और पुद्गल कर्मरूप जो क्रोध है वह जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं न परिणमते हुए को वह कैसे परिणमन करा सकता है।१२३।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/३३२-३३४ </span><span class="SanskritText">एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमाना: केचिच्छ्रमणाभासा: प्ररूपयन्ति;तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्ते: जीव: कर्तेति श्रुते: कोपो दु:शक्य: परिहर्तुम् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार ऐसे सांख्यमत को अपनी प्रज्ञा के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी एकान्त प्रकृति के कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकान्त से अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए ‘जीव कर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/३७२/कलश २२१</span><span class="SanskritGatha"> रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धय:।२२१।</span>=<span class="HindiText">जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्धज्ञान से रहित अन्ध है मोहनदी को पार नहीं कर सकते।२२१।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५६६-५७१ </span><span class="SanskritText">अथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टान्ता:।५६६। अपि भवति बन्ध्यबन्धकभावो यदि वानयोर्न शङ्क्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तद्बन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वात् ।५७०। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथ:। न यत: स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया।५७१।</span>=<span class="HindiText">(जीव व शरीर में परस्पर बन्ध्यबन्धक या निमित्त नैमित्तिक भाव मानकर शरीर को व्यवहारनय से जीव का कहना नयाभास अर्थात् मिथ्या नय है, क्योंकि अनेक द्रव्य होने से उनमें वास्तव में बन्ध्य बन्धक भाव नहीं हो सकता। निमित्त नैमित्तिक भाव भी असिद्ध है क्योंकि स्वयं परिणमन करने वाले को निमित्त से क्या प्रयोजन)<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.3" id="III.3"> कर्म व जीवगत कारण कार्य भाव की गौणता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.3.1" id="III.3.1"> जीव के भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/मूल/६५ </span> <span class="PrakritText">अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं। गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।६५।</span>=<span class="HindiText">आत्मा अपने रागादि भाव को करता है। वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में अन्योन्य अवगाहरूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। <span class="GRef">(प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१८६)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/८०-८१ </span><span class="PrakritGatha">जीवपरिणामहेदुं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेव जीवो वि परिणमइ।८०। णवि कुव्वइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोह्णं पि।८१।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म के निमित्त से परिणमन करता है।८०। जीव कर्म के गुणों को नहीं करता। उसी तरह कर्म भी जीव के गुणों को नहीं करता। परन्तु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणमन जानो।८१। <span class="GRef">(समयसार/मूल/९१,११९) (समयसार/आत्मख्याति/१०५,११९) (पुरूषार्थ सिद्धि उपाय/१२)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१८७ </span><span class="SanskritText">यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृत: शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्त: कर्मपुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैर्ज्ञानावरणादिभावै: परिणमन्ते। अत: स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न पुनरात्मकृतम् ।</span>=<span class="HindiText">(मेघ जल के संयोग से स्वत: उत्पन्न हरियाली व इन्द्रगोप आदिवत्) जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है तब अन्य, योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं। इससे कर्मों की विचित्रता का होना स्वभावकृत है किन्तु आत्मकृत नहीं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१६९</span><span class="SanskritText"> जीवपरिणाममात्रं बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कन्धा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति।</span>=<span class="HindiText">बहिरंगसाधनरूप से जीव के परिणामों का आश्रय लेकर, जीव उसको परिणमाने वाला न होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कन्ध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय/तत्वप्रदीपिका/६५-६६)</span>, <span class="GRef">(समयसार/आत्मख्याति/९१)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/उतरार्ध/२९७ </span><span class="SanskritText">सति तत्रोदये सिद्धा: स्वतो नोकर्मवर्गणा:। मनो देहेन्द्रियाकारं जायते तन्निमित्तत:।२९७।</span>=<span class="HindiText">उस पर्याप्ति नामकर्म का उदय होने पर स्वयंसिद्ध आहारादि नोकर्मवर्गणाएँ उसके निमित्त से मन देह और इन्द्रियों के आकार रूप हो जाती हैं। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.3.2" id="III.3.2"> ११ वें गुणस्थान में अनुभागोदय में हानिवृद्धि रहते हुए भी जीव के परिणाम अवस्थित रहते हैं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> लब्धिसार/जीवतत्व प्रदीपिका/३०७/३८९</span> <span class="SanskritText">अत: कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्युपशान्तकषाये एतच्चतुस्त्रिंशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवी भवति, कदाचिद्धीयते, कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां विना एकादृश एवावतिष्ठते।</span>=<span class="HindiText"> (यद्यपि तहाँ परिणामों की अवस्थिति के कारण शरीर वर्ण आदि २५ प्रकृतियें भी अवस्थित रहती हैं परन्तु) अब शेष ज्ञानावरणादि ३४ प्रकृतियें भवप्रत्यय हैं। उपशान्तकषायगुणस्थान के अवस्थित परिणामों की अपेक्षा रहित पर्याय का ही आश्रय करके इनका अनुभाग उदय इहाँ तीन अवस्था लिए है। कदाचित् हानिरूप हो है, कदाचित् वृद्धिरूप हो है, कदाचित् अवस्थित जैसा का तैसा रहे है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.3.3" id="III.3.3">जीव व कर्म में बध्यघातक विरोध नहीं है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/९/४९ </span><span class="SanskritText">न कर्म हन्ति जीवस्य न जीव: कर्मणो गुणान् । बध्यघातकभावोऽस्ति नान्योन्यं जीवकर्मणो:।</span>=<span class="HindiText">न तो कर्म जीव के गुणों का घात करता है और न जीव कर्म के गुणों का घात करता है। इसलिए जीव और कर्म का आपस में बध्यघातक सम्बन्ध नहीं है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.3.4" id="III.3.4"> जीव व कर्म में कारणकार्य मानना उपचार है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ६/१/९,१-८/११/५ </span><span class="PrakritText">मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो।</span>=<span class="HindiText">जो मोहित होता है वह मोहनीय कर्म है। प्रश्न–इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए;क्योंकि, जीव से अभिन्न और कर्म ऐसी संज्ञावाले पुद्गलकर्म में उपचार से कर्मत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१२१-१२२</span><span class="SanskritText"> तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात् ।१२१। परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण:।... परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण:।१२२।</span>=<span class="HindiText">आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।१२१। परमार्थत: आत्मा अपने परिणामस्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है किन्तु पुद्गल परिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं।... (इसी प्रकार) परमार्थत: पुद्गल अपने परिणामस्वरूप उस द्रव्यकर्म का ही कर्ता है किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्म का कर्ता नहीं है।१२२। <span class="GRef">(समयसार/मूल/१०५)</span><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.3.5" id="III.3.5">ज्ञानियों का कर्म अकिंचित्कर है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/१६९</span><span class="PrakritGatha"> पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।१६९।</span> =<span class="HindiText">उस ज्ञानी के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं। (विशेष देखें - [[ विभाव#4.2 | विभाव / ४ / २ ]])</span><br /> | |||
<span class="GRef">आत्मानुशासन/१६२-१६३</span><span class="SanskritText"> निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ।१६२। जीविताशा धनाशा च तेषां येषां विधिर्विधि:। किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता।१६३।</span>=<span class="HindiText">निर्धनत्व ही जिनका धन है और मृत्यु ही जिनका जीवन है (अर्थात् इनमें साम्यभाव रखते हैं) ऐसे साधुओं को एक मात्र ज्ञानचक्षु खुल जाने पर यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।१६२। जिनको जीने की या धन की आशा है उनके लिए ही ‘दैव’ दैव है, पर निराशा ही जिनकी आशा है ऐसे वीतरागियों को यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।१६३।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.3.6" id="III.3.6">मोक्षमार्ग में आत्मपरिणामों की विवक्षा प्रधान है कर्मों की नहीं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/१/२/१०-१/२०/३ </span><span class="SanskritText">औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामत्वात् मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यक्त्वकर्मपर्याय: पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् ।१०।...स्यादेतत्...सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्त: सम्यक्त्वपुद्गलनिमित्तश्च, तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति; तन्न, किं कारणम् । उपकरणमात्रत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">औपशमिकादिसम्यग्दर्शन सीधे आत्मपरिणामस्वरूप होने से मोक्ष के कारण रूप से विवक्षित होते हैं, सम्यक्त्व नाम कर्म की पर्याय नहीं क्योंकि परद्रव्य की पर्याय होने के कारण वह तो पौद्गलिक है। प्रश्न–सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति जिस प्रकार आत्मपरिणाम से होती है, उसी प्रकार सम्यक्त्वनामा कर्म के निमित्त से भी होती है, अत: उसको भी मोक्षकारणपना प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि वह तो उपकरणमात्र है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.3.7" id="III.3.7"> कर्मों की उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्न साध्य हैं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/२/३/१५२/१० </span><span class="SanskritText">अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् ...। ‘आदि’ शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते। </span><span class="HindiText"><strong>=प्रश्न</strong>–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? <strong>उत्तर–</strong>काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बताते हैं (देखें - [[ नियति#2 | नियति / २]])। आदि शब्द से जातिस्मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए ( देखें - [[ सम्यग्दर्शन#III.2 | सम्यग्दर्शन / III / २ ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१०/२/४६६/५</span><span class="SanskritText"> कर्माभावो द्विविध:–यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति। तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्य: असत्त्वात् । यत्नसाध्य इत ऊर्ध्वमुच्यते। असंयतसम्यग्दृष्टयादिषु सप्तप्रकृतिक्षय: क्रियते।</span>=<span class="HindiText">कर्म का अभाव दो प्रकार का है–यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य। इनमें से चरमदेहवाले के नरकायु तिर्यंचायु और देवायु का अभाव यत्नसाध्य नहीं है, क्योंकि इसके उनका सत्त्व उपलब्ध नहीं होता। यत्नसाध्य का अभाव इनसे आगे कहते हैं-असंयतदृष्टि आदि चार गुणस्थानों में सात प्रकृतियों का क्षय करता है। (आगे भी १०वें गुणस्थान में यथायोग्य कर्मों का क्षय करता है (देखें - [[ सत्त्व | सत्त्व ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/उतरार्ध/३७९,९३२,९२६</span><span class="SanskritGatha"> प्रयत्नमन्तरेणापि दृङ्मोहोपशमो भवेत् । अन्तर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ।३७९। तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो दृङ्मोहस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।९३२। अस्त्युदयो यथानादे: स्वतश्चोपशमस्तथा। उदय: प्रथमो भूय: स्यादर्वागपुनर्भवात् ।९२६।</span>= <span class="HindiText">उक्त कारण सामग्री के मिलते ही (अर्थात् दैव व कालादिलब्धि मिलते ही) प्रयत्न के बिना भी गुणश्रेणी निर्जरा के अनुसार केवल अन्तर्मुहूर्त काल में ही दर्शनमोहनीय का उपशम हो जाता है।३७९। इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही अपने आप होते हैं, एक दूसरे के निमित्त से नहीं।९३२। जिस तरह अनादिकाल से स्वयं मोहनीय का उदय होता है उसी तरह उपशम भी काललब्धि के निमित्त से स्वयं होता है। इस तरह मुक्ति होने के पहले उदय और उपशम बार-बार होते रहते हैं। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.4" id="III.4"> निमित्त की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.4.1" id="III.4.1">निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी वस्तुभूत है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा/२४ </span><span class="SanskritText">अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते। कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते।२४।</span>=<span class="HindiText">अद्वैत एकान्तपक्ष होनेतै (अर्थात् जगत् एक ब्रह्म के अतिरिक्त कोई नहीं है, ऐसा मानने से) कर्ता कर्म आदि कारकनि के बहुरि क्रियानि के भेद जो प्रत्यक्ष प्रमाण करि सिद्ध है सो विरोधरूप होय है। बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तौ आप ही कर्ता आप ही कर्म होय। अर आप ही तै आपकी उत्पत्ति नाहीं होय। (और भी देखें - [[ कारण#II.3.2 | कारण / II / ३ / २ ]]), <span class="GRef">(अष्टसहस्री पृष्ठ १४९,१५९)</span> <span class="GRef">(स्याद्वाद मंजरी/१६/१९७/१७१)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक २/१/७/१३/५६५/१ </span><span class="SanskritText">तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबन्ध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित।=</span><span class="HindiText">व्यवहारनय का आश्रय लेने पर संयोग समवाय सम्बन्धों के समान दो में ठहरने वाला कारणकार्यभाव सम्बन्ध भी प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है केवल कल्पना आरोपित ही नहीं है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.4.2" id="III.4.2"> कारण के बिना कार्य नहीं होता</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/१०/२/१/६४०/२७ </span><span class="SanskritText">मिथ्यादर्शनादीनां पूर्वोक्तानां कर्मास्रवहेतूनां निरोधे कारणाभावात् कार्याभाव इत्यभिनवकर्मादानाभाव:।=</span><span class="HindiText">मिथ्यादर्शन आदि पूर्वोक्त आस्रव के हेतुओं का निरोध हो जाने पर नूतन कर्मों का आना रुक जाता है? क्योंकि कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला १/१,१,६३/३०६/९ </span> <span class="SanskritText">अप्रमत्तादीनां संयतानां किमित्याहारककाययोगी न भवेदिति चेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–प्रमादरहित संयतों के आहारककाययोग क्यों नहीं होता है?<strong> उत्तर</strong>–क्योंकि तहाँ उसे उत्पन्न कराने में निमित्त कारण का (असंयम की बहुलता का) अभाव है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला १२/४,२,१३,१७/३८२।२ </span><span class="PrakritText">ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जदि अइप्पसंगादो।</span>=<span class="HindiText">कारण के बिना कहीं भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है; क्योंकि, वैसा होने में अतिप्रसंग दोष आता है। (उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट प्रदेश बन्ध होने का प्रकरण है)।</span><br /> | |||
<span class="GRef">ध.६/१,९-९/६,७/४२१/३</span><span class="PrakritText"> णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तुमुप्पदेंति। मूलसूत्र ६/ उप्पज्जमाणं सव्वं हि कज्जं कारणादो चेव उप्पज्जदि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्तिविरोहादो। एवं णिच्छिदकारणस्स तस्संखाविसयमिदं पुच्छासुत्तं।</span>=<span class="HindiText">नारकी मिथ्यादृष्टि जीव कितने कारणों से प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं। सूत्र ६।। उत्पन्न होने वाला सभी कार्य कारण से ही उत्पन्न होता है क्योंकि कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति का विरोध है। इस प्रकार निश्चित कारण की संख्या विषयक यह पृच्छा सूत्र है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ६/१,९-९,३०/४३०/९ </span><span class="PrakritText">णइसग्गिमवि पढमसम्मत्तं तच्चट्ठे उत्तं, तं हि एत्थेव दट्ठव्वं, जाइस्सरण-जिणबिंबदंसणेहिं विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो।</span>=<span class="HindiText">नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व का भी पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जाति-स्मरण और जिनबिम्बदर्शनों के बिना उत्पन्न होने वाला प्रथम नैसर्गिक सम्यक्त्व असम्भव है। (सम्यक्त्व के कारणों के लिए देखें - [[ सम्यग्दर्शन#III.2 | सम्यग्दर्शन / III / २ ]])</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ७/२,१,१८/७०/९</span><span class="PrakritText"> ण च कारणेण बिणा कज्जाणामुप्पत्ती अत्थि।...तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि बि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो।</span>=<span class="HindiText">कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारण रूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४४/११७/६ </span><span class="PrakritText">ण च णिक्कारणाणि, कारणेण बिणा कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो।...ण च कारणविरोहीण तक्कज्जेहिविरोहो जुज्जदे कारणविरोहादुवारेणेव सव्वत्थ कज्जेसु विरोहुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText">यदि कहा जाय कि जन्म जरादिक अकारण हैं, सो भी ठीक नहीं है;क्योंकि, कारण के बिना कार्यों की उत्पत्ति का विरोध है जो कारण के साथ अविरोधी हैं उनका उक्त कारण के कार्यों के साथ विरोध उचित नहीं है;क्योंकि, कारण के विरोध के द्वारा ही सर्वत्र कार्यों में विरोध पाया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वाद मंजरी /१६/१९७/१७ </span><span class="SanskritText">द्विष्ठसंबन्धसंवित्तिर्नैकरूपप्रवेदनात् । द्वयो: स्वरूपग्रहणे सति संबन्धवेदनम्। इति वचनात् ।</span>=<span class="HindiText">दो वस्तुओं के सम्बन्ध में रहने वाला ज्ञान दोनों वस्तुओं के ज्ञान होने पर ही हो सकता है। यदि दोनों में से एक वस्तु रहे तो उस सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता।</span><br /> | |||
<span class="GRef">न्याय दीपिका/२/४/२७ </span> <span class="SanskritText">न हि किंचित्स्वस्मादेव जायते।</span>=<span class="HindiText">कोई भी वस्तु अपने से ही पैदा नहीं हो<span class="HindiText">ती, किन्तु अपने से भिन्न कारणों से पैदा होती है।</span><br /> | |||
देखें - [[ नय#V.9.5 | नय / V / ९ / ५ ]]उपादान होते हुए भी निमित्त के बिना मुक्ति नहीं। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.4.3" id="III.4.3"> उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/९२ </span><span class="SanskritText">द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे... उत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।</span>=<span class="HindiText">जिसने पूर्वावस्था को प्राप्त किया है, ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता है, वह उत्पाद से लक्षित होता है। <span class="GRef">(प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका /१०२,१२४)</span>। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.4.4" id="III.4.4"> उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला /१/१,१,३३/२३३/२</span><span class="SanskritText"> सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवै: रूपाद्युपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिवृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार है। (यद्यपि यह क्षयोपशम ही जीव की ज्ञान के प्रति उपादानभूत योग्यता है, देखें - [[ कारण | कारण ]](I/१८) परन्तु ऐसा मान लेनेपर भी जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसंग भी नहीं आता है;क्योंकि, रूपादिक के ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्यनिर्वृत्ति (इन्द्रिय) जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में नहीं पायी जाती है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="III.4.5" id="III.4.5"> निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">स्वयम्भू स्तोत्र/मूल/५९ </span><span class="SanskritText">यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न।५१।</span>=<span class="HindiText">जो बाह्य वस्तु गुण दोष या पुण्य-पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अन्तरंग में वर्तने वाले गुणदोषों की उत्पत्ति के अभ्यन्तर मूल हेतु की अंगभूत होती है। (अर्थात् उपादान को सहकारी कारणभूत होती है)। उसकी अपेक्षा न करके केवल अभ्यन्तर कारण उस गुणदोष की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/विजयोदयी टीका/१०७०/११५९/४</span><span class="SanskritText"> बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यनन्तरकरणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते।</span>=<span class="HindiText">मन से विचारकर जब जीव बाह्य परिग्रह का स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्र से रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। यद्यपि मृत्पिण्ड से घट उत्पन्न होता है तथापि दण्डादिक कारण नहीं होंगे तो घट की उत्पत्ति नहीं होती है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला१/१,१,६०/२९८/१ </span><span class="SanskritText">यतो नाहारर्द्धिरात्मनमपेक्ष्योत्पद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अपि तु संयमातिशयापेक्षया तस्या: समुत्पत्तिरिति।</span>=<span class="HindiText">आहारक ऋद्धि स्वत: की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि स्वत: से स्वत: की उत्पत्तिरूप क्रिया के होने में विरोध आता है। किन्तु संयमातिशय की अपेक्षा आहारक ऋद्धि की उत्पत्ति होती है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड १/१,१३-१४/२५६/२९५/४</span><span class="PrakritText"> ण च अण्णादो अण्णम्मि कोहो ण उप्पज्जइ; अक्कोसादो जीवेकम्मकलंकंकिए कोहुप्पत्तिदंसणादो। ण च उबलद्धे अणुववण्णदा; विरोहादो। ण कज्जं तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ; पिंडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो। ण च णिच्चं तिरोहिज्जइ; अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविब्भावो वि; परिणामवज्जियस्स अवत्थंतराभावादो। ण गद्दहस्स सिंगं अण्णेहिंतो उप्पज्जइ; तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुव्वमभावादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिप्पसंगादो। णाणुप्पत्ती सव्वाभावप्पसंगादो। ण चेव (वं); उवलब्भमाणत्तादो। ण सव्वकालमुप्पत्ती वि; णिच्चस्सुप्पत्तिविरोहादो। ण णिच्चं पि; कमाकमेहि कज्जमकुणंतस्स पमाणविसए अवट्ठाणाणुववत्तीदो। तम्हा ण्णेहिंतो अण्णस्स सारिच्छ-तब्भावसामण्णेहि संतस्स विसेससरूवेण असंतस्स कज्जस्सुप्पत्तीए होदव्वमिदि सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">‘किसी अन्य के निमित्त से किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं होता है’ यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि १. कर्मों से कलंकित हुए जीव में कटुवचन के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पायी जाती है उसके सम्बन्ध में यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने में विरोध आता है। २. यदि कार्य को सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थ में किसी प्रकार का अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थ का आविर्भाव भी नहीं बन सकता, क्योंकि जो परिणमन से रहित है, उसमें दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। ३. ‘कारण में कार्य छिपा रहता है और वह प्रगट हो जाता है’ ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर मिट्टी के पिण्ड को विदारने पर घड़े की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। ४. ‘अन्य कारणों से गधे के सींग की उत्पत्ति का प्रसंग देना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसका पहिले से ही जिस प्रकार विशेषरूप से अभाव है उसी प्रकार सामान्यरूप से भी अभाव है। इस प्रकार जब वह सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार से असत् है तो उसकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। ५. तथा कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुपत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। ६. ‘यदि कहा जाये कि कार्य की उत्पत्ति मत होओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि (सर्वदा) कार्य की अनुत्पत्ति मानने पर सभी के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। ७. ‘यदि कहा जाये कि सभी का अभाव होता है तो हो जाओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी पदार्थों की उपलब्धि पायी जाती है। ८. यदि (दूसरे पक्ष में) यह कहा जाये कि सर्वदा सबकी उत्पत्ति होती ही रहे’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ क्रम से अथवा युगपत् कार्य को नहीं करता है वह पदार्थ प्रमाण का विषय नहीं होता है। इसलिए जो सादृश्यसामान्य और तद्भाव सामान्यरूप से विद्यमान है तथा विशेष (पर्याय) रूप से अविद्यमान है ऐसे किसी भी कार्य की, किसी दूसरे कारण से उत्पत्ति होती है यह सिद्ध हुआ।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.4.6" id="III.4.6"> निमित्त के बिना कार्योत्पत्ति मानने में दोष</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड १/१,१३/२५६/२९५/९ </span> <span class="PrakritText">ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति–अणुप्पत्तिप्पसंगादो।</span>=<span class="HindiText">कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">परीक्षा मुख/६/६३</span> <span class="SanskritText">समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यदि पदार्थ स्वयं समर्थ होकर क्रिया करते हैं तो सदा कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि, केवल सामान्य आदि कार्य करने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.4.7" id="III.4.7"> सभी निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं होते</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/८८ </span><span class="SanskritText">यथा हि गतिपरिणत: प्रभञ्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहकारित्वेन गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् ।...अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतिपरिणतस्तुरंगोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाधर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात्... उदासीन एवासौ प्रसरो भवतीति।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार गति परिणत पवन ध्वजाओं के गति परिणाम का हेतुकर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म नहीं है। वह वास्तव में निष्क्रिय होने से कभी गति परिणाम को ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे (पर के) सहकारी की भाँति पर के गतिपरिणाम का हेतुकर्तृत्व कहाँ से होगा ? किन्तु केवल उदासीन ही प्रसारक है। और जिस प्रकार गतिपूर्वक स्थिति परिणत अश्व सवार के स्थिति परिणाम का हेतुकर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है उसी प्रकार अधर्म नहीं है।... वह तो केवल उदासीन ही प्रसारक है। (तात्पर्य यह कि सभी कारण धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं है। निष्क्रियकारण उदासीन होता है और क्रियावान् प्रेरक होता है)।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.5" id="III.5">कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.5.1" id="III.5.1">जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का निर्देश</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">मूलाचार/९६७ </span><span class="PrakritText">जीवपरिणामहेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि।</span>=<span class="HindiText">जिनको जीव के परिणाम कारण हैं ऐसे रूपादिमान परमाणु कर्मस्वरूप से परिणमते हैं, परन्तु ज्ञानभावकरि परिणत हुआ जीव कर्मभावकरि पुद्गलों को नहीं ग्रहण करता। </span><BR> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/८० </span><span class="PrakritText">जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ।८०।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म के निमित्त से परिणमन करता है। <span class="GRef">(समयसार/मूल/३१२-३१३), (पंचास्तिकाय/मूल/६०), (नयचक्र वृहद्/८३), (योगसार/ अमितगति/३/९-१०)</span>। </span><br> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/मूल/१२८-१३०</span> <span class="PrakritText">जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदु परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी।१२८। गदिमधिगस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं कु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।१२९। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणा सणिधणो वा।१३०।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">जो वास्तव में संसार-स्थित जीव हैं उससे परिणाम होता है, परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है।१२८। गतिप्राप्त को देह होती है, देह से इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों से विषयग्रहण और विषयग्रहण से राग अथवा द्वेष होता है।१२९। ऐसे भाव संसारचक्र में जीव को अनादिअनन्त अथवा अनादि सान्त होते रहते हैं, ऐसा जिनवरों ने कहा है।१३०। <span class="GRef">(नयचक्र वृहद्/१३१-१३३); (योगसार/ अमितगति/४/२९,३१ तथा २/३३); (तत्त्वानुशासन/१६-१९); (सागार धर्मामृत/६/३१) </span></span><BR> | |||
और भी देखो–[[प्रकृतिबंध#1.6 | प्रकृति बन्ध - 1.6 में परिणाम प्रत्यय प्रकृतियों के लक्षण व भेद]] ।</span> <BR><span class="GRef">पं.ध./इ/४१,१०७१</span> <span class="SanskritText">जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्मकारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभावा: प्रत्युपकारिवत् ।४१। अस्ति सिद्धं ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणो:। निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुम्भकुलालयो:।१०७१।</span>=<span class="HindiText">परस्पर उपकार की तरह जीव के अशुद्ध रागादि भावों का कारण द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यकर्म के कारण रागादि भाव है।४१। इसलिए जिस प्रकार कुम्भ और कुम्भार में निमित्तनैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गलात्मक कर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव है यह सिद्ध होता है।१०७१। <span class="GRef">(पंचाध्यायी/उतरार्ध/१०९;१३१-१३२;१०६९-१०७०)</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="III.5.2" id="III.5.2"> जीव व कर्मों की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है</strong></span><BR> <span class="GRef">धवला ७/२,१,१९/७०/९</span> <span class="PrakritText">ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अत्थि।... ततो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो। जदि एवं तो भमर-महुवर...कयंबादि सण्णिदेहि वि णामकम्मेहि होदव्वमिदि। ण एस दोसो इच्छिज्जमाणादो।</span>=<span class="HindiText">कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं है। इसलिए जितने (पृथिवी, अप्, तेज आदि) कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। '''प्रश्न'''–यदि ऐसा है तो भ्रमर, मधुकर-कदम्ब आदिक नामों वाले भी नाम कर्म होने चाहिए ? '''उत्तर'''–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह बात तो इष्ट ही है।</span><BR> | |||
<span class="GRef">धवला १०/४,२,३,१/१३/७</span> <span class="PrakritText">जा सा णोआगमदव्वकम्मवेयणा सा अट्ठविहा...। कुदो। अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादंसण...वीरियादिअंतरायकज्जस्स अण्णहाणुववत्तीदो। ण च कारणभेदेण विणा कज्जभेदो अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">जो वह नोआगमद्रव्यकर्मवेदना कही है, वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि के भेद से आठ प्रकार की है। क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर अज्ञान अदर्शन...एवं वीर्यादि के अन्तरायरूप आठप्रकार का कार्य जो दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि यह आठ प्रकार का कार्यभेद कारणभेद के बिना भी बन जायेगा, सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता। </span><br> | |||
<span class="GRef">कषायपाहुड १/१,१/३७/५६/४ </span><span class="PrakritText">एदस्स पमाणस्स वडि्ढहाणितरतमभावो ण ताव णिक्कारणो; वडि्ढहाण्णिहि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो। <BR> | |||
ण च एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वांजंतं वड्ढि हाणि तरतमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">इस ज्ञानप्रमाण का वृद्धि और हानि के द्वारा जो तरतमभाव होता है, वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञानप्रमाण में वृद्धि और हानि से होने वाले तरतमभाव को निष्कारण मान लेने पर वृद्धि और हानिरूप कार्य का ही अभाव हो जाता है। और ऐसी स्थिति में ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि एकरूप ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है। इसलिए ये तरतमता सकारण होनी चाहिए। उसमें जो हानि वृद्धि के तरतम भाव का कारण है वह आवरण कर्म है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड ४/३,२२/२९/१५/९</span><span class="PrakritText"> एगट्ठिदिबंधकालो सव्वेसिं जीवाणं समाणपरिणामो किण्ण होदि। ण, अंतरंगकारणभेदेण सरिसत्ताणुववत्तीदो। एगजीवस्स सव्वकालमेगपमाणद्धाएट्ठिदिबंधो किण्ण होदि। ण, अंतरंगकारणेसु दव्वादिसंबंधेण परियत्तमाणस्स एगम्मि चेव अंतरंगकारणे सव्वकालमवट्ठाणाभावादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सब जीवों के एक स्थितिबन्ध का काल समान परिणामवाला क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि अन्तरंगकारण में भेद होने से उसमें समानता नहीं बन सकती। <strong>प्रश्न</strong>–एक ही जीव के सर्वदा स्थितिबन्ध एक समान काल वाला क्यों नहीं होता है? <strong>उत्तर–</strong>नहीं; क्योंकि, यह जीव अन्तरंग कारणों में द्रव्यादि के सम्बन्ध से परिवर्तन करता रहता है, अत: उसका एक ही अन्तरंग कारण में सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड ४/१,२२/४४/२४/५ </span><span class="PrakritText">सो केण जणिदो। अणंताणुबंधीणमुदएण। अणंताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे। परिणामपचएण।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वह (सासादन परिणाम) किस कारण से उत्पन्न होता है? <strong>उत्तर</strong>–अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदय से होता है। <strong>प्रश्न</strong>–अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय किस कारण से होता है? <strong>उत्तर</strong>–परिणाम विशेष के कारण से होता है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="III.5.3" id="III.5.3">जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/५/२४/९/४८८।२१ </span><span class="SanskritText">तादात्मनोऽस्वतन्त्रीकरणे मूलकारणम् ।</span>=<span class="HindiText">वह (कर्म) आत्मा को परतन्त्र करने में मूलकारण है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/१/३/६/२३/१६ </span><span class="SanskritText">लोके हरिशार्दूलवृकभुजगादयो निसर्गत: क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तन्ते इत्युच्यन्ते न चासावाकस्मिकी कर्मनिमित्तत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता, साँप आदि में शूरता-क्रूरता आहार आदि परोपदेश के बिना होने से यद्यपि नैसर्गिक कहलाते हैं; परन्तु वे आकस्मिक नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं।<br /> | |||
देखें - [[ विभाव#3.1 | विभाव / ३ / १ ]](जीव की रागादिरूप परिणति में कर्म ही मूल कारण है)। </span><br /> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/सु./३१९</span><span class="PrakritGatha"> ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं। उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि।३१९।=</span><span class="HindiText">न तो कोई देवी देवता आदि जीव को लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीव का उपकार या अपकार करते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/उतरार्ध/२०१ </span><span class="SanskritText">स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:।</span>=<span class="HindiText">अपने-अपने ज्ञान के घात में अपने-अपने आवरण का उदय वास्तव में मूलकारण है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="III.5.4" id="III.5.4">कर्म की बलवत्ता के उदाहरण</strong> <br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/१६१-१६३ </span>(सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के प्रतिबन्धक क्रम से मिथ्यात्व, अज्ञान व कषाय नाम के कर्म हैं।)<br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/मूल/१६१० </span>असाता के उदय में औषधियें भी सामर्थ्यहीन हैं।<br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१/२०/१०१/२ </span> प्रबल श्रुतावरण के उदय से श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है।<br /> | |||
<span class="GRef">परमात्मप्रकाश/मूल/१/६६,७८ </span> इस पंगु आत्मा को कर्म ही तीनों लोकों में भ्रमण कराता है।६६। कर्म बलवान हैं, बहुत हैं, विनाश करने को अशक्य हैं, चिकने हैं, भारी हैं और वज्र के समान हैं।७८। <br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/१/१५/१३/६१/१५ </span>चक्षुदर्शनावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के अवष्टम्भ (बल) से चक्षुदर्शन की शक्ति उत्पन्न होती है। <br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/५/२४/९/४८८/२१ </span>सुख-दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलवान हेतु हैं।<br /> | |||
<span class="GRef"> आप्तपरीक्षा./११४-११५/२४६-२४७ </span> कर्म जीव को परतन्त्र करने वाले हैं। <span class="GRef"> (राजवार्तिक/५/२४/९/४८८/२०) (गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीव तत्व प्रदीपिका/२४४/५०८/२)</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला १/१,१,३३/२३४/३ </span> कर्मों की विचित्रता से ही जीव प्रदेशों के संघटन का विच्छेद व बन्धन होता है।<br /> | |||
<span class="GRef">धवला १/१,१,३३/२४२/८ </span> नाम कर्मोदय की वशवर्तिता से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।<br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/१५७-१५९ </span>कर्म मोक्ष के हेतु का तिरोधान करने वाला है। <br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/२,४,३१,३२, क ३ इत्यादि </span>(इन सर्व स्थलों पर आचार्य ने मोहकर्म की बलवत्ता प्रगट की है)<br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/८९ </span> जीव के लिए कर्म संयोग ऐसा ही है जैसा स्फटिक के लिए तमालपत्र।<br /> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थ सार/८/३३ </span> ऊर्ध्व गमन के अतिरिक्त अन्यत्र गमनरूप क्रिया कर्म के प्रतिघात से तथा निज प्रयोग से समझनी चाहिए।<br /> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/२११ </span> कर्म की कोई ऐसी शक्ति है कि इससे जीव का केवलज्ञान स्वभाव नष्ट हो जाता है।<br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/१४/४४/१० </span>जीव प्रदेशों का विस्तार कर्माधीन है, स्वाभाविक नहीं।<br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वाद मंजरी/१७/२३८/६ </span> स्व ज्ञानावरण के क्षयोपशमविशेष के वश से ज्ञान की निश्चित पदार्थों में प्रवृत्ति होती है।<br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/उतरार्ध/१०५,३२८,६८७,८७४,९२५ </span> जीव विभाव में कर्म की सामर्थ्य ही कारण है।१०५। आत्मा की शक्ति की बाधक कर्म की शक्ति है।३२८। मिथ्यात्व कर्म ही सम्यक्त्व का प्रत्यनीक (बाधक) है।६८७। दर्शनमोह के उपशमादि होने पर ही सम्यक्त्व होता है और नहीं होने पर नहीं ही होता है।८७४। कर्म की शक्ति अचिन्त्य है।९२५।<br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/३१७/कलश १९८/पं. जयचन्द</span>–जहाँ तक जीव की निर्बलता है तहाँ तक कर्म का जोर चलता है।<br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/१७२/कलश ११६/पं. जयचन्द</span>–रागादि परिणाम अबुद्धिपूर्वक भी कर्म की बलवत्ता से होते हैं। <br /> | |||
– देखें - [[ विभाव#3.1 | विभाव / ३ / १ ]]–(कर्म जीव का पराभव करते हैं)<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="III.5.5" id="III.5.5"> जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/१/१५/१३/६१/१५ </span> <span class="SanskritText">इस चक्षुषा चक्षुर्दर्शनावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामावष्टम्भाद् अविभावितविशेषसामर्थ्येन किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोचनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते बालवत् ।</span>=<span class="HindiText">चक्षुदर्शनावरण और वीर्यान्तराय इन दो कर्मों के क्षयोपशम से तथा साथ-साथ अंगोपांग नामकर्म के उदय से होने वाला सामान्य अवलोकन चक्षुदर्शन कहलाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/उतरार्ध/२०१-२०२</span><span class="SanskritGatha"> सत्यं स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:। कर्मान्तरोदयापेक्षो नासिद्ध: कार्यकृद्यथा।२०१। अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्युदयक्षते:। तथा वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽनुदयादपि।२०२।</span>=<span class="HindiText">जैसे अपने-अपने घात में अपने-अपने आवरण का उदय मूलकारण है वैसे ही वह ज्ञानावरण आदि दूसरे कर्मों के उदय की अपेक्षा सहित कार्यकारी होता है, यह भी असिद्ध नहीं है।२०१। जैसे जो मत्यादिक ज्ञान ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से होता है वैसे ही वह वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से भी होता है।२०२।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="III.5.6" id="III.5.6"> कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/७/२१/२५/५४९/२७ </span> <span class="SanskritText">यद्यभ्यन्तरसंयमघातिकर्मोदयोऽस्ति तदुदयेनावश्यमनिवृत्तपरिणामेन भवितव्यं ततश्च महाव्रतत्वमस्य नोपपद्यत इति मतम्; तन्न; किं कारणम्, उपचारात् राजकुले सर्वगतंचैत्रवत् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(छठे गुणस्थानवर्ती संयत को) यदि संयतघाती कर्म का उदय है तो अवश्य ही उसे अविरति के परिणाम होने चाहिए। और ऐसा होने पर उसके महाव्रतत्वपना घटित नहीं होता (अत: संज्वलन के उदय के सद्भाव में छठे गुणस्थानवर्ती साधु को महाव्रती कहना उचित नहीं है)। <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि राजकुल में चैत्र या खोजे पुरूष को सर्वगत कहने की भाँति यहाँ उपचार से उसे महाव्रती कहा जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला /१२/४,२,१३,२५४/४५७/६ </span><span class="PrakritText">ण च सुहुमसांपराइय मोहणीय भावो अत्थि, भावेण विणा दव्वकम्मस्स अत्थित्तविरोहादो सुहुससांपराइयसण्णाणुवत्तीदो वा।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में मोहनीय का भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि भाव के बिना द्रव्यकर्म के रहने का विरोध है, अथवा वहाँ भाव के न मानने पर ‘सूक्ष्मसांपरायिक’ यह संज्ञा ही नहीं बनती है।<br /> | |||
<strong>नोट</strong>–(यद्यपि मूल सूत्र नं. २५४ ‘‘तस्स मोहणीयवेयणाभावदो णत्थि’’ के अनुसार वहाँ मोहनीय का भाव नहीं है। परन्तु यह कथन नय विवक्षा से आचार्य वीरसेन स्वामी ने समन्वित किया है। तहाँ द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से सत् का ही विनाश होने के कारण उस गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीय के भाव का भी विनाश हो जाता है और पर्यायार्थिक नय असत् अवस्था में ही अभाव या विनाश स्वीकार करता होने के कारण उसकी अपेक्षा वह मोहनीय का भाव उस गुणस्थान के अन्तिम समय में है और उपशान्तकषाय या क्षीणकषाय के प्रथम समय में विनष्ट होता है। विशेष–देखो [[उत्पाद#2.7 | उत्पाद - 2.7]])</span><br /> | |||
<span class="GRef">लब्धिसार/जीव तत्व प्रदीपिका/३०४/३८४/१९</span> <span class="SanskritText">द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मण: संभवेन तयो: कार्यकारणभावप्रसिद्धे:।</span>=<span class="HindiText">(उपशान्त कषाय गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। तदुपरान्त अवश्य ही मोहकर्म का उदय आता है जिसके कारण वह नीचे गिर जाता है।) नियमकरि द्रव्यकर्म के उदय के निमित्ततै संक्लेशरूप भाव कर्म प्रगट हो है। इसलिए दोनों में कार्यकारणभाव सिद्ध है। </span></li> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV" id="IV"> कारण कार्य भाव समन्वय</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.1" id="IV.1"> उपादान निमित्त सामान्य विषयक</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.1.1" id="IV.1.1">कार्य न सर्वथा स्वत: होता है न सर्वथा परत:</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/४/४२/७/२५१/७ </span><span class="SanskritText">पुद्गलानामानन्त्यात्तत्तत्पुद्गलद्रव्यमपेक्ष्य एकपुद्गलस्थस्य तस्यैकस्यैव पर्यायस्यान्यत्वभावात् । यथा प्रदेशिन्या: मध्यमाभेदाद् यदन्यत्वं न तदेव अनामिकाभेदात् । मा भूत् मध्यमानामियोरकत्वं मध्यमाप्रदेशिन्यन्यत्वहेतुत्वेनाविशेषादिति। न चैतत्परावधिकमेवार्थसत्त्वम् । यदि मध्यमासामर्थ्यात् प्रदेशिन्या: ह्रस्वत्वं जायते शशविषाणेऽपि स्याच्छक्रयष्टौ वा। नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तदव्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव। एवं जीवोऽपि कर्मनोकर्मविषयवस्तूपकरणसंबन्धभेदाभेदाविर्भूतजीवस्थानगुणस्थानविकल्पानन्तपर्यायरूप: प्रत्येतव्य:। </span>=<span class="HindiText">जैसे अनन्त पुद्गल सम्बन्धियों की अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुलि अनेक भेदों को प्राप्त होती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणों के सम्बन्ध से जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुण्डली आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है। प्रदेशिनी अंगुलि में मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिका की अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पर रूप का भेद जुदा-जुदा है। मध्यमा ने प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा शशविषाण में भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वत: ही उसमें ह्रस्वत्व था, अन्यथा मध्यमा के अभाव में भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी। तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य ही तत्तत्सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। (यहाँ द्रव्य की विभिन्नता में सहकारी कारणता का स्थान दर्शाते हुए कहा गया है कि वह न स्वत: है न परत:। इसी प्रकार क्षेत्र, काल व भाव में भी लागू कर लेना चाहिए)<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.1.2" id="IV.1.2"> प्रत्येक कार्य अन्तरंग व बाह्य दोनों कारणों के सम्मेल से होता है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">स्वयम्भू स्तोत्र/मूल/३३.५९,६० </span> <span class="SanskritText">अलङ्घ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा।...।३३। यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न।५९। बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगत: स्वभाव:। नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां, तेनाभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ।६०।</span>=<span class="HindiText">अन्तरंग व बाह्य इन दोनों हेतुओं के अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है।३३। जो बाह्य वस्तु गुण दोष अर्थात् पुण्य पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अन्तरंग में वर्तनेवाले गुणदोषों की उत्पत्ति के आभ्यन्तर मूलहेतु की अंगभूत है। केवल अभ्यन्तर कारण ही गुणदोषों की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।५९। कार्यों में बाह्य और अभ्यंतर दोनों कारणों की जो यह पूर्णता है वह आपके मत में द्रव्यगत स्वभाव है। अन्यथा पुरुषों के मोक्ष की विधि भी नहीं बनती। इसी से हे परमर्षि ! आप बन्धुजनों के वन्द्य हैं।६०।</span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/५/३०/३००/५ </span><span class="SanskritText">उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: भृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् ।</span>=<span class="HindiText">अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वश से प्रतिसमय जो नवीन अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्ड की घटपर्याय। <span class="GRef">(प्रवतनसार/तत्व प्रदीपिका/९५,१०२)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">तिलोयपण्णति/४/२८१-२८२ </span><span class="PrakritGatha">सव्वाणं पयत्थाणं णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वट्टंति।२८१। बाहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सव्वदरसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठेदि।२८२।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">सर्व पदार्थों के समस्त भेदों में नियम से बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तों के द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं।२८१। सर्वज्ञदेव ने सर्व पदार्थों के प्रर्वतने का बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है।२८२।<br /> | |||
</span></span></li> | |||
<li class="HindiText"><span class="HindiText"><strong name="IV.1.3" id="IV.1.3">अन्तरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/२७८-२७९ </span>जैसे स्फटिकमणि तमालपत्र के संयोग से परिणमती है वैसे ही जीव भी अन्य द्रव्यों के संयोग से रागादि रूप परिणमन करता है।<br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/मूल/२८३-२८५ </span> द्रव्य व भाव दोनों प्रतिक्रमण परस्पर सापेक्ष है।<br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/२/१/१४/१०१/२३ </span>बाहर में मनुष्य तिर्यंचादिक औदयिक भाव और अन्तरंग में चैतन्यादि पारिणामिक भाव ही जीव के परिचायक हैं। <br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/८८</span> स्वत: गमन करने वाले जीव पुद्गलों की गति में धर्मास्तिकाय बाह्य सहकारीकारण है। <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह/टीका/१७)</span> (और भी देखें - [[ निमित्त | निमित्त ]])।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="IV.1.4" id="IV.1.4"> व्यवहारनय से निमित्त वस्तुभूत है पर निश्चय से कल्पना मात्र है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक २/१/७/१३/५६५/१</span><span class="SanskritText"> व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबन्ध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित: सर्वथाप्यनवद्यत्वात् । संग्रहर्जुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचित्कश्चित्संबन्धोऽन्यत्र कल्पनामात्रत्वात् इति सर्वमविरुद्धं। </span>=<span class="HindiText">व्यवहार नय का आश्रय लेने पर संयोग व समवाय आदि सम्बन्धों के समान दो में ठहरने वाला कार्यकारण भाव प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है, काल्पनिक नहीं। (क्योंकि तहाँ व्यवहारनय भेदग्राही होने के कारण असद्भूत व्यवहार भेदोपचार को ग्रहण करके संयोग सम्बन्ध को सत्य घोषित करता है और सद्भूत व्यवहार नय अभेदोपचार को ग्रहण करके समवाय सम्बन्ध को स्वीकार करता है) परन्तु संग्रह नय और ऋजुसूत्र नय का आश्रय करने पर कोई भी किसी का किसी के साथ सम्बन्ध नहीं है। कोरी कल्पनाएँ है। सब अपने-अपने स्वभाव में लीन हैं। यही निश्चय नय कहता है। (संग्रहनय मात्र अद्वैत एक महा सत् ग्राही होने के कारण और ऋजुसूत्रनय मात्र अन्तिम अवान्तर सत्तारूप एकत्वग्राही होने के कारण, दोनों ही द्विष्ठ नहीं देखते। तब वे कारणकार्य के द्वैत को कैसे अंगीकार कर सकते है। विशेष देखो [[नय]])।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="IV.1.5" id="IV.1.5"> निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तु स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/५/१/२७/४३४/२६ </span><span class="SanskritText">ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति; नैष दोष:; बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।</span><span class="HindiText">=(धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय की यहाँ यह स्वतन्त्रता है कि ये स्वयं गति और स्थितिरूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति में स्वयं निमित्त होते हैं।) <strong>प्रश्न</strong>–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं और स्वातन्त्र्य स्वीकार कर लेने पर यह बात विरोध को प्राप्त हो जाती है? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र होते हैं। (यहाँ प्रकृत में) गति आदि रूप परिणमन करने वाले जीव व पुद्गल गति आदि उपकार करने के प्रति धर्म आदि द्रव्यों के प्रेरक नहीं हैं। गति आदि कराने के लिए उन्हें उकसाते नहीं हैं।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="IV.1.6" id="IV.1.6">उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/२/३६/१८/१४७/७</span><span class="SanskritText"> यथा घटादिकार्योपलब्धे: परमाण्वनुमानं तथौदारिकादिकार्योपलब्धे: कार्मणानुमानम् ‘‘कार्यलिङ्ग हि कारणम्’’ <span class="GRef">(आप्तमीमांसा श्लोक ६८)</span>। </span>=<span class="HindiText">जैसे घट आदि कार्यों की उपलब्धि होने से परमाणु रूप उपादान कारण का अनुमान किया जाता है, इसी प्रकार औदारिक शरीर आदि कार्यों की उपलब्धि होने से कर्मों रूप उपादान कारण का अनुमान किया जाता है, क्योंकि कारण को कार्यलिंगवाला कहा गया है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक २/१/५/६६/२७१/३०</span><span class="SanskritText"> सिद्धमेकद्रव्यात्मकचित्तविशेषाणामेकसंतानत्वं द्रव्यप्रत्यासत्तेरेव।</span> =<span class="HindiText">(सर्वथा अनित्य पक्ष के पोषक बौद्ध लोग किसी भी अन्वयी कारण से निरपेक्ष एक सन्ताननामा तत्त्व को स्वीकार करके जिस किस प्रकार सर्वथा पृथक्-पृथक् कार्यों में कारण-कार्य भाव घटित करने का असफल प्रयास करते हैं, पर वह किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होता। हाँ एक द्रव्य के अनेक परिणामों को एक सन्तानपना अवश्य सिद्ध है।) तहाँ द्रव्य नामक प्रत्यासत्तिको ही तिस प्रकार होने वाले एक सन्तानपने की कारणता सिद्ध होती है। एक द्रव्य के केवल परिणामों की एक सन्तान करने में उपादान उपादेयभाव सिद्ध नहीं होता। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="IV.1.7" id="IV.1.7"> उपादान को परतन्त्र कहने का कारण व प्रयोजन</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/२/१९/१७७/३ </span><span class="SanskritText">लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते। अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमीति। तत: पारतन्त्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">लोक में इन्द्रियों की पारतन्त्र्य विवक्षा देखी जाती है। जैसे इस आँख से मैं अच्छा देखता हूँ, इस कान से मैं अच्छा सुनता हूँ। अत: पारतन्त्र्य विवक्षा में स्पर्शन आदि इन्द्रियों का करणपना (साधकतमपना) बन जाता है (तात्पर्य ये कि लोक व्यवहार में सर्वत्र व्यवहार नय का आश्रय होने के कारण उपादान की परिणति को निमित्त के आधार पर बताया जाता है। (विशेष देखें - [[ नय#V.9 | नय / V / ९ ]]) <span class="GRef">(राजवार्तिक/२/१९/१/१३१/८)।</span></span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/तात्पर्यवृत्ति/९६</span><span class="SanskritText"> भेदविज्ञानरहित: शुद्धबुद्धैकस्वभावमात्मानमपि च परं स्वस्वरूपाद्भिन्नं करोति रागादिषु योजयतीत्यर्थ:। केन, अज्ञानभावेनेति।</span>=<span class="HindiText">भेद विज्ञान से रहित व्यक्ति शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी आत्मा को अपने स्वरूप से भिन्न पर पदार्थ रूप करता है (अर्थात् पर पदार्थों के अटूट विकल्प के प्रवाह में बहता हुआ) अपने को रागादिकों के साथ युक्त कर लेता है। यह सब उसका अज्ञान है। (ऐसा बताकर स्वरूप के प्रति सावधान कराना ही परतन्त्रता बताने का प्रयोजन है।)<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="IV.1.8" id="IV.1.8"> निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/१/१/५७/१५/१५</span><span class="SanskritText"> तत एवोत्पत्त्यनन्तरं निरन्वयविनाशाभ्युपगमात् परस्परसंश्लेषाभावे निमित्तनैमित्तकव्यवहारापह्नवाद् ‘अविद्याप्रत्यया: संस्कारा:’ इत्येवमादि विरुध्यते।</span>=<span class="HindiText">जिस (बौद्ध) मत में सभी संस्कार क्षणिक हैं उसके यहाँ ज्ञानादि की उत्पत्ति के बाद ही तुरन्त नाश हो जाने पर निमित्त नैमित्तिक आदि सम्बन्ध नहीं बनेंगे और समस्त अनुभव सिद्ध लोकव्यवहारों का लोप हो जायेगा। अविद्या के प्रत्ययरूप सन्तान मानना भी विरुद्ध हो जायेगा। (इसी प्रकार सर्वथा अद्वैत नित्यपक्षवालों के प्रति भी समझना। इसीलिए निमित्त नैमित्तिक द्वैत का यथा योग्यरूप से स्वीकार करना आवश्यक है।)</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला/१२/४,२,८,४/२८१/२ </span><span class="SanskritText">एवं विह ववहारो किमट्ठं करिदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इस प्रकार का व्यवहार किसलिए किया जाता है। <strong>उत्तर</strong>—सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/१३३-१३४/१८९/११ </span><span class="SanskritText">अयमत्रार्थ: यद्यपि पञ्चद्रव्याणि जीवस्योपकारं कुर्वन्ति, तथापि तानि दुःखकारणान्येवेति ज्ञात्वा। यदि वाक्षयानन्तसुखादिकारणं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावं परमात्मद्रव्यं तदेव मनसा ध्येयं वचसा वक्तव्यं कायेन तत्साधकमनुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति।=</span><span class="HindiText">यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, तथापि वे सब दुःख के कारण हैं, ऐसा जानकर; जो यह अक्षय अनन्त सुखादि का कारण विशुद्ध ज्ञानदर्शन उपयोग स्वभावी परमात्म द्रव्य है, वह ही मन के द्वारा ध्येय है, वचन के द्वारा वक्तव्य है और काय के द्वारा उसके साधक अनुष्ठान ही कर्तव्य है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/१४३/२०३/१७ </span><span class="SanskritText">अत्र यद्यपि...सिद्धगते: काललब्धिरूपेण बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन....या तु निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं न च कालस्तेन कारणेन स हेय इति भावार्थ:।</span>=<span class="HindiText">यहाँ यद्यपि सिद्ध गति में कालादि लब्धि रूप से कालद्रव्य बहिरंग सहकारीकारण होता है, तथापि निश्चयनय से जो चार प्रकार की आराधना है वही तहाँ उपादान कारण है काल नहीं। इसलिए वह (काल) हेय है, ऐसा भावार्थ है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.2" id="IV.2"> कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव विषयक </strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.2.1" id="IV.2.1"> जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">योगसार अमितगति/३/११-१२ </span><span class="SanskritText">आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तथा कथम् । चेतनाय फलं दत्ते भुङ्क्ते वा चेतन: कथम् ।११। परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते। न कोऽपि सुखदु:खेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ।१२।</span>=<span class="HindiText">यदि कर्म स्वयं ही अपने को कर्ता हो तो वह आत्मा को क्यों फल देता है? वा आत्मा ही क्यों उसके फल को भोगता है?।११। क्योंकि यदि कर्म तो कोई अन्य करेगा और उसका फल कोई अन्य भोगेगा तो कोई भिन्न ही पुरुष क्यों न सुख-दुःख से मुक्त हो सकेगा।१२।</span><br /> | |||
<span class="GRef">योगसार अमितगति/५/२३-२७</span><span class="SanskritText"> विदघादि परो जीव: किंचित्कर्म शुभाशुभम् । पर्यायापेक्षया भुङ्क्ते फलं तस्य पुन: पर:।२३। य एव कुरुते कर्म किंचिज्जीव: शुभाशुभम् । स एव भुजते तस्य द्रव्यार्थापेक्षया फलम् ।२४। मनुष्य: कुरुते पुण्यं देवो वेदयते फलम् । आत्मा वा कुरुते पुण्यमात्मा वेदयते फलम् ।२५। चेतन: कुरुते भुङ्क्ते भावैरौदयिकैरयम् । न विधत्ते न वा भुङ्क्ते किंचित्कर्म तदत्यये।२७।</span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा दूसरा ही पुरुष कर्म को करता है और दूसरा ही उसे भोगता है, जैसे कि मनुष्य द्वारा किया पुण्य देव भोगता है। और द्रव्यार्थिक नय से जो पुरुष कर्म करता है वही उसके फल को भोगता है, जैसे—मनुष्य भव में भी जिस आत्मा ने कर्म किया था देवभव में भी वही आत्मा उसे भोगता है।२३-२५। जिस समय इस आत्मा में औदयिक भावों का उदय होता है उस समय उनके द्वारा यह शुभ अशुभ कर्मों को करता है और उनके फल को भोगता है। किन्तु औदयिकभाव नष्ट हो जाने पर यह न कोई कर्म करता है और न किसी के फल को भोगता है।२७।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.2.2" id="IV.2.2"> कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">योगसार अमितगति/३/१३ </span><span class="SanskritText">जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् । जायते भास्वरस्येव शुद्धस्य घनमण्डलम् ।१३।</span><span class="HindiText">=जिस प्रकार ज्वलंत प्रभा के धारक भी सूर्य को मेघ मण्डल ढँक लेता है, उसी प्रकार अतिशय विमल भी आत्मा के स्वरूप को मलिन कर्म ढँक देते हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.2.3" id="IV.2.3"> कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड १/१-१/४२/६०/१ </span><span class="PrakritText">तं च कम्मं सहेअं, अण्णहा णिव्वावाराणं पि बंधप्पसंगादो। कम्मस्स कारणं किं मिच्छात्तासंजमकसाया होंति, आहा सम्मत्तसंजदविरायदादो।</span>=<span class="HindiText">जीव से सम्बद्ध कर्म को सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा निर्व्यापार अर्थात् अयोगियों के भी कर्मबन्ध का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। उस कर्म के कारण मिथ्यात्व असंयम और कषाय हैं, सम्यक्त्व, संयम व वीतरागता नहीं। (आप्तपरीक्षा/२/५/८)</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला १२/४,२,८,१२/२८८/६</span><span class="PrakritText"> ण, जोगेण विणा णाणावरणीयपयडीए पादब्भावादंसणादो। जेण विणा जं णियमेण णोवलब्भदे तं तस्स कज्जं इयरं च कारणमिदि सयलणयाइयाइयअजणप्पसिद्धं। तम्हा पदेसग्गवेयणा व पयडिवेयणा वि जोग पच्चएण त्ति सिद्धं।<br /> | |||
<span class="GRef">धवला/१२/४,२,८,१३/२८९/४ </span><span class="PrakritText">यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । तम्हा णाणावरणीयवेयणा जोगकसाएहि चेव होदि त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">१. योग के बिना ज्ञानावरणीय की प्रकृतिवेदना का प्रादुर्भाव देखा नहीं जाता। जिसके बिना जो नियम से नहीं पाया जाता है वह उसका कारण व दूसरा कार्य होता है, ऐसा समस्त नैयायिक जनों में प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रदेशाग्रवेदना के समान प्रकृतिवेदना भी योग प्रत्यय से होती है, यह सिद्ध है। २. जो जिसके होने पर ही होता है और जिसके नहीं होने पर नहीं होता है वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। इस कारण ज्ञानावरणीय वेदना योग और कषाय से ही होती है, यह सिद्ध होता है। </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="IV.2.4" id="IV.2.4"> वास्तव में विभाव कर्म के निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कर्म में नहीं</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/उतरार्ध/१०७२</span><span class="SanskritText"> अन्तर्दृष्टया कषायणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्त-नैमित्तिकको भाव: स्यान्न स्याज्जीवकर्मणो:।१०७२।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्म तत्त्वदृष्टि से कषायों व कर्मों का परस्पर में निमित्त नैमित्तिक भाव है किन्तु जीवद्रव्य तथा कर्म का नहीं।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="IV.2.5" id="IV.2.5">समकालवर्ती इन दोनों में कारणकार्य भाव कैसे हो सकता है?</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ७/२,१,३९/८१/१० </span> <span class="SanskritText">वेदाभावलद्धीणं एक्ककालम्मि चेव उप्पज्जमाणीणं कधमाहाराहेयभावो, कज्जकारणभावो वा। ण समकालेणुप्पज्जमाणच्छायंकुराणं कज्जकारणभावदंसणादो, घडुप्पत्तीए कुसलाभावदंसणादो च। </span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वेद (कर्म) का अभाव और उस अभाव सम्बन्धी लब्धि (जीव का शुद्ध भाव) ये दोनों जब एक ही काल में उत्पन्न होते हैं, तब उनमें आधार-आधेयभाव या कार्य-कारणभाव कैसे बन सकता है? <strong>उत्तर</strong>–बन सकता है; क्योंकि, समान काल में उत्पन्न होने वाले छाया और अंकुर में, तथा दीपक व प्रकाश में (छहढाला) कार्यकारणभाव देखा जाता है। तथा घट की उत्पत्ति में कुसूल का अभाव भी देखा जाता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.2.6" id="IV.2.6">कर्म व जीव के परस्पर निमित्तनैमित्तिकपने से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आ सकता</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१२१ </span><span class="SanskritText">यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविध: परिणाम: स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतु:। अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतु:। द्रव्यकर्महेतु: तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनैवोपलम्भात् । एवं सतीतरेतराश्रयदोष:। न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबन्धस्यात्मन: प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।</span>=<span class="HindiText">’संसार’ नामक जो यह आत्मा का तथाविध परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकने का हेतु है। <strong>प्रश्न</strong>–उस तथाविध परिणाम का हेतु कौन है? <strong>उत्तर</strong>–द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्म की संयुक्तता से ही वह देखा जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–ऐसा होने से इतरेतराश्रय दोष आयेगा? <strong>उत्तर</strong>–नहीं आयेगा, क्योंकि अनादि सिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्मा का जो पूर्व का द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतु रूप से ग्रहण किया गया है (और नवीनबद्ध कर्म का कार्य रूप से ग्रहण किया गया है)।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="IV.2.7" id="IV.2.7"> कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष सम्भव है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/३७/१५५/१० </span><span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–संसारिणां निरन्तरं कर्मबन्धोऽस्ति, तथैवोदयोऽस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति। तत्र प्रत्युत्तरं। यथा शत्रो: क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्तत: पौरुषं कृत्वा शत्रुं हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति। हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रुं हन्तीति। यत्पुनरन्त:कोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयरूपेण च कर्म लघुत्वे जातेऽपि सत्ययं जीव आगमभाषया अध:प्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्म हननबुद्धिं क्वापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बन्ध व उदय पाया जाता है। अत: उनके शुद्धात्म ध्यान का प्रसंग भी नहीं है। तब मोक्ष कैसे होता है? <strong>उत्तर</strong>–जैसे कोई बुद्धिमान शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर ‘यह समय शत्रु को मारने का है’ ऐसा विचारकर उद्यम करता है वह अपने शत्रु को मारता है। इसी प्रकार–कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती। स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध की न्यूनता (काललब्धि) होने पर जब कर्म लघु व क्षीण होते हैं, उस समय कोई भव्य जीव अवसर विचारकर आगमकथित पंचलब्धि अथवा अध्यात्म कथित निजशुद्धात्म सम्मुख परिणामों नामक निर्मलभावना विशेषरूप खड्ग से पौरुष करके कर्मशत्रु को नष्ट करता है। और जो उपरोक्त काललब्धि हो जाने पर भी अध:करण आदि त्रिकरण अथवा आत्मसम्मुख परिणाम रूप बुद्धि किसी भी समय न करेगा तो यह अभव्यत्व गुण का लक्षण जानना चाहिए। </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="IV.2.8" id="IV.2.8"> कर्म व जीव के निमित्त-नैमित्तिकपने में कारण व प्रयोजन</strong> </span><BR><span class="GRef">परमात्म प्रकाश/टीका/१/६६ </span><span class="SanskritText">अत्र वीतरागसदानन्दैकरूपात्सर्वप्रकारोपादेयभूतात्परमात्मनो यद्भिन्नं शुभाशुभकर्मद्वयं तद्धेयमिति भावार्थ:।</span>=<span class="HindiText">(यहाँ जो जीव को कर्मों के सामने पंगु बताया गया है) भावार्थ ऐसा है कि वीतराग सदा एक आनन्दरूप तथा सर्व प्रकार से उपादेयभूत जो यह परमात्म तत्त्व है, उससे भिन्न जो शुभ और अशुभ ये दोनों कर्म हैं, वे हेय हैं।</span></li> | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p id="1">(1) कार्य का नियामक हेतु । इसके बिना कार्योत्पत्ति संभव नहीं होती । इसके दो भेद है― उपादान और सहकारी (निमित्त) । कार्य की उत्पत्ति मे मुख्य कारण उपादान और सहायक कारण सहकारी होता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.11,14 </span></p> | <p id="1" class="HindiText">(1) कार्य का नियामक हेतु । इसके बिना कार्योत्पत्ति संभव नहीं होती । इसके दो भेद है― उपादान और सहकारी (निमित्त) । कार्य की उत्पत्ति मे मुख्य कारण उपादान और सहायक कारण सहकारी होता है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#11|हरिवंशपुराण - 7.11]],14 </span></p> | ||
<p id="2">(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.149 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.149 </span></p> | ||
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Latest revision as of 19:11, 20 November 2024
सिद्धांतकोष से
कार्य के प्रति नियामक हेतु को कारण कहते हैं। वह दो प्रकार का है–अंतरंग व बहिरंग। अंतरंग को उपादान और बहिरंग को निमित्त कहते हैं। प्रत्येक कार्य इन दोनों से अवश्य अनुगृहीत होता है। साधारण, असाधारण, उदासीन, प्रेरक आदि के भेद से निमित्त अनेक प्रकार का है। यद्यपि शुद्ध द्रव्यों की एक समय स्थायी शुद्धपर्यायों में केवल कालद्रव्य ही साधारण निमित्त होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य निमित्तों का विश्व में कोई स्थान ही नहीं है। सभी अशुद्ध व संयोगी द्रव्यों की चिर काल स्थायी जितनी भी चिदात्मक या अचिदात्मक पर्यायें दृष्ट हो रही हैं, वे सभी संयोगी होने के कारण साधारण निमित्त (काल व धर्म द्रव्य) के अतिरिक्त अन्य बाह्य असाधारण सहकारी या प्रेरक निमित्तों के द्वारा भी यथा योग्य रूप में अवश्य अनुगृहीत हो रही हैं। फिर भी उपादान की शक्ति ही सर्वत: प्रधान होती है क्योंकि उसके अभाव में निमित्त किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकता। यद्यपि कार्य की उत्पत्ति में उपरोक्त प्रकार निमित्त व उपादान दोनों का ही समान स्थान है, पर निर्विकल्पता के साधक को मात्र परमार्थ का आश्रय होने से निमित्त इतना गौण हो जाता है, मानो वह है ही नहीं। संयोगी सर्व कार्यों पर से दृष्टि हट जाने के कारण और मौलिक पदार्थ पर ही लक्ष्य स्थिर करने में उद्यत होने के कारण उसे केवल उपादान ही दिखाई देता है, निमित्त नहीं, और उसका स्वाभाविक शुद्ध परिणमन ही दिखाई देता है, संयोगी अशुद्ध परिणमन नहीं। ऐसा नहीं होता कि केवल उपादान पर दृष्टि को स्थिर करके भी वह जगत् के व्यावहारिक कार्यों को देखता या तत्संबंधी विकल्प करता रहे। यद्यपि पूर्वबद्ध कर्मों के निमित्त से जीव के परिणाम और उन परिणामों के निमित्त से नवीन कर्मों का बंध, ऐसी अटूट श्रृंखला अनादि से चली आ रही है, तदपि सत्य पुरुषार्थ द्वारा साधक इस शृंखला को तोड़कर मुक्ति लाभ कर सकता है, क्योंकि उसके प्रभाव से सत्ता स्थित कर्मों में महान अंतर पड़ जाता है।
- कारण सामान्य निर्देश
- कारण के भेद व लक्षण
- सहकारी व प्रेरक आदि निमित्तों के लक्षण—देखें निमित्त कारण- 6।
- करण का लक्षण तथा करण व कारण में अंतर।—देखें करण - 1।
- सहकारी व प्रेरक आदि निमित्तों के लक्षण—देखें निमित्त कारण- 6।
- उपादान कारण कार्य निर्देश
- निमित्त कारण कार्य निर्देश
- भिन्न गुणों या द्रव्यों में भी कारण कार्य भाव होता है।
- उचित ही द्रव्य को कारण कहा जाता है जिस किसी को नहीं।
- कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तुमात्र को कारण नहीं कह सकते।
- कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु को कारणपना प्राप्त है।
- कार्य पर से कारण का अनुमान किया जाता है—देखें अनुमान - 2।
- भिन्न गुणों या द्रव्यों में भी कारण कार्य भाव होता है।
- * षट्द्रव्यों में कारण अकारण विभाग—देखें द्रव्य - 3।
- कारण के भेद व लक्षण
- कारण कार्य संबंधी नियम
- कारण के बिना कार्य नहीं होता—देखें कारण - III.4।
- कारणभेद से कार्यभेद अवश्य होता है—देखें दान - 4।
- कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा नियम नहीं।
- एक कारण से सभी कार्य नहीं हो सकते।
- पर एक कारण से अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं।
- एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए।
- एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से होना संभव है।
- कारण व कार्य पूर्वोत्तरकालवर्ती होते हैं।
- दोनों कथंचित् समकालवर्ती भी होते हैं—देखें कारण - IV.2.5।
- कारण के बिना कार्य नहीं होता—देखें कारण - III.4।
- उपादान कारण की मुख्यता गौणता
- उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता
- उपादान कारण कार्य में कथंचित् भेदाभेद—देखें कारण - I.2।
- अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता।
- अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता।
- निमित्त किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकता।
- स्वभाव दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता।
- परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है।
- उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है।
- प्रत्येक पदार्थ अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। दूसरा द्रव्य उसे निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं।—देखें कर्ता - 3।
- सत् अहेतुक होता है।—देखें सत् ।
- सभी कार्य कथंचित् निर्हेतुक है—देखें नय - IV.3.9।
- यदि योग्यता ही कारण है तो सभी पुद्गल युगपत् कर्मरूप से क्यों नहीं परिणम जाते—देखें बंध - 5।
- कार्य ही कथंचित् स्वयं कारण है—देखें नय - IV.1.6; नय - IV.3.7।
- काल आदि लब्धि से स्वयं कार्य होता है—देखें नियति ।
- उपादान कारण कार्य में कथंचित् भेदाभेद—देखें कारण - I.2।
- उपादान की कथंचित् प्रधानता
- उपादान की कथंचित् परतंत्रता
- उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता
- निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता
- निमित्त कारण के उदाहरण
- धर्मास्तिकाय की प्रधानता—देखें धर्माधर्म - 2.3।
- कालद्रव्य की प्रधानता—देखें काल - 2।
- सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में निमित्तों की प्रधानता—देखें सम्यग्दर्शन - III.2।
- धर्मास्तिकाय की प्रधानता—देखें धर्माधर्म - 2.3।
- निमित्त की कथंचित् गौणता
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते।
- धर्म आदिक द्रव्य उपकारक है प्रेरक नहीं।
- अन्य भी उदासीन कारण धर्म द्रव्यवत् जानने।
- बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे।
- सहकारी को कारण कहना उपचार है।
- सहकारी कारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है।
- सहकारी को कारण मानना सदोष है।
- सहकारी कारण अहेतुवत् होता है।
- सहकारी कारण निमित्त मात्र होता है।
- परमार्थ से निमित्त अकिंचित्कर व हेय है।
- भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं।
- द्रव्य का परिणमन सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है।
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते।
- उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है—देखें कारण - II.1।
- कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव की गौणता
- जीव भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।
- अनुभागोदय में हानि वृद्धि रहने पर भी ग्यारहवें गुणस्थान में जीव के भाव अवस्थित रहते हैं।
- जीव के परिणामों को सर्वथा कर्माधीन मानना मिथ्या है।—देखें कारण - III.2.12।
- कर्म कुछ नहीं कराते जीव स्वयं दोषी है—देखें विभाव - 4
- ज्ञानी कर्म के मंद उदय का तिरस्कार करने को समर्थ है।—देखें कारण - IV.2.7।
- विभाव कथंचित् अहेतुक है।—देखें विभाव - 4।
- जीव भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।
- निमित्त की कथंचित् प्रधानता
- निमित्त की प्रधानता का निर्देश—देखें कारण - III.1।
- धर्म व काल द्रव्य की प्रधानता—देखें कारण - III.1।
- निमित्त नैमित्तिक संबंध वस्तुभूत है।
- कारण होने पर ही कार्य होता है, उसके बिना नहीं।
- उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है।
- उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता।
- निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं।
- उपादान भी निमित्ताधीन है।—देखें कारण - II.3
- जैसा-जैसा निमित्त मिलता है वैसा-वैसा कार्य होता है।—देखें कारण - II.3।
- द्रव्य क्षेत्रादि की प्रधानता।—देखें कारण - III.1.2।
- निमित्त की प्रधानता का निर्देश—देखें कारण - III.1।
- निमित्त अनुकूल मात्र नहीं होता।—देखें कारण - III.1.3।
- निमित्त कारण के उदाहरण
- कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव की कथंचित् प्रधानता
- जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश।
- जीव व कर्म की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है।
- जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है।
- विभाव भी सहेतुक है।—देखें विभाव - 3
- कर्म की बलवत्ता के उदाहरण।
- जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं।
- कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं।
- मोह का जघन्यांश यद्यपि स्व प्रकृतिबंध का कारण नहीं पर सामान्य बंध का कारण अवश्य है।—देखें बंध - 3
- बाह्य द्रव्यों पर भी कर्म का प्रभाव पड़ता है।—देखें वेदनीय - 8 तथा [[तीर्थंकर#2.7 | तीर्थंकर/2/7 ]
- जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश।
- कारण कार्यभाव समन्वय
- उपादान निमित्त सामान्य विषयक
- कार्य न सर्वथा स्वत: होता है, न सर्वथा परत:।
- प्रत्येक कार्य अंतरंग व बहिरंग दोनों कारणों के सम्मेल से होता है।
- अंतरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण।
- व्यवहार नय से निमित्त वस्तुभूत है और निश्चय नय से कल्पना मात्र।
- निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तुस्वतंत्रता बाधित नहीं होती।
- कारण व कार्य में परस्पर व्याप्ति अवश्य होनी चाहिए।—देखें कारण - I.4.8
- उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन।
- उपादान को परतंत्र कहने का कारण प्रयोजन।
- निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन।
- निश्चय व्यवहारनय तथा सम्यग्दर्शन चारित्र, धर्म आदिक में साध्यसाधन भाव। देखें - वह वह नाम
- मिथ्या निमित्त या संयोगवाद।—देखें संयोग
- कार्य न सर्वथा स्वत: होता है, न सर्वथा परत:।
- कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव विषयक
- अचेतन कर्म चेतन के गुणों का घात कैसे कर सकते हैं।—देखें विभाव - 5
- वास्तव में कर्म जीव से बँधे नहीं बल्कि संश्लेश के कारण दोनों का विभाव परिणमन हो गया है।—देखें बंध - 4
- कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु।
- वास्तव में विभाव व कर्म में निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कर्म में नहीं।
- समकालवर्ती इन दोनों में कारण कार्य भाव कैसे हो सकता है?
- विभाव के सहेतुक अहेतुकपने का समन्वय।—देखें विभाव - 5
- निश्चय से आत्मा अपने परिणामों का और व्यवहार से कर्मों का कर्ता है।—देखें कर्ता - 4.3
- कर्म व जीव के परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता।
- कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष संभव है।
- जीव कर्म बंध की सिद्धि।—देखें बंध - 2
- अचेतन कर्म चेतन के गुणों का घात कैसे कर सकते हैं।—देखें विभाव - 5
- उपादान निमित्त सामान्य विषयक
- कारण सामान्य निर्देश
- कारण के भेद व लक्षण
- कारण सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/21/125/7 प्रत्यय: कारणं निमित्तमित्यनर्थांतरम् । =प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। (सर्वार्थसिद्धि/1/20/120/7 ); (राजवार्तिक/1/20/2/70/30 )
सर्वार्थसिद्धि/1/7/22/3 साधनमुत्पत्तिनिमित्तं। =जिस निमित्त से वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है।
राजवार्तिक/1/7/ .../38/1 साधनं कारणम् । =साधन अर्थात् कारण।
- कारण के भेद
राजवार्तिक/2/8/1/118/12 द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यंतरश्च। ....तत्र बाह्यो हेतुर्द्विविध:–आत्मभूतोऽनात्मभूतश्चेति। ....आभ्यंतरश्च द्विविध:–अनात्मभूत आत्मभूतश्चेति। =हेतु दो प्रकार का है—बाह्य और आभ्यंतर। बाह्य हेतु भी दो प्रकार का है—अनात्मभूत और आत्मभूत और अभ्यंतर हेतु भी दो प्रकार का होता है–आत्मभूत और अनात्मभूत। (और भी देखें निमित्त - 1)
- कारण के भेदों के लक्षण
राजवार्तिक/2/8/1/118/14 तत्रात्मना संबंधमापंनविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूत:। प्रदीपादिरनात्मभूत:।....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोग: चिंताद्यालंबनभूत अंतरभिनिविष्टत्वादाभ्यंतर इति व्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यांतरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मन: प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति। =(ज्ञान दर्शनरूप उपयोग के प्रकरण में) आत्मा से संबद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इंद्रियाँ आत्मभूत बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकाय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पंदन रूप द्रव्य योग अंत:प्रविष्ट होने से आभ्यंतर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यांतराय तथा ज्ञानदर्शनावरण के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न आत्मा की विशुद्धि आभ्यंतर आत्मभूत हेतु है।
- कारण सामान्य का लक्षण
- उपादान कारणकार्य निर्देश
- निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है
राजवार्तिक/1/33/1/95/5 न च कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वांगुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:। =कार्य व कारण में कोई भेद नहीं है। वे दोनों एकाकार ही हैं। जैसे–पर्व व अंगुलि। यह द्रव्यार्थिक नय है।
धवला 12/4,2,8,3/3 सव्वस्स सच्चकलापस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो त्ति णए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं। ....कारणे कार्यमस्तीति विवक्षातो वा कारणात्कार्यमभिन्नम्। =सत्ता आदि की अपेक्षा सभी कार्यकलाप का कारण से अभेद है। इस नय का अवलंबन करने पर कारण से कार्य अभिन्न है, तथा कार्य से कारण भी अभिन्न है। ....अथवा ‘कारण में कार्य है’ इस विवक्षा से भी कारण से कार्य अभिन्न है। (प्रकृत में प्राणिवियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बंध के कारणभूत परिणाम से उत्पन्न होते हैं अतएव वे उससे अभिन्न हैं। इसी कारण वे ज्ञानावरणीयबंध के प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं)।
समयसार / आत्मख्याति/65 निश्चयत: कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव व त्वन्यत् । =निश्चय नय से कर्म और करण की अभिन्नता होने से जो जिससे किया जाता है (होता है) वह वही है—जैसे सुवर्णपत्र सुवर्ण से किया जाता होने से सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं है।
- द्रव्य का स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य है
श्लोकवार्तिक/2/1/7/12/546 भाषाकार द्वारा उद्धृत—यावंति कार्याणि तावंत: प्रत्येकं वस्तुस्वभावा:। =जितने कार्य होते हैं उतने प्रत्येक वस्तु के स्वभाव होते हैं।
नयचक्र बृहद्/360-361 कारणकज्जसहावं समयं णाऊण होइ ज्झायव्वं। कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स।360। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीवसव्भावो। खय पुण सहावझाणे तम्हा तं कारणं झेयं।361। =समय अर्थात् आत्मा को कारण व कार्यरूप जानकर ध्याना चाहिए। कार्य तो उस आत्मा का प्रगट होने वाला शुद्ध स्वरूप है और कारणभूत शुद्ध स्वरूप उसका साधन है।360। कार्य शुद्ध समय तो कर्मों के क्षय से प्रगट होता है और कारण समय जीव का स्वभाव है। कर्मों का क्षय स्वभाव के ध्यान से होता है इसलिए वह कारण समय ध्येय है। (और भी देखें कारण कार्य परमात्मा , कारण कार्य समयसार )।
समयसार / आत्मख्याति/ परिशिष्ठ/कलश 265 के आगे—आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव। तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपाय: यत्सिद्धं रूपं स उपेय:। =आत्म वस्तु को ज्ञानमात्र होने पर भी उसे उपायउपेय भाव है; क्योंकि वह एक होने पर भी स्वयं साधक रूप से और सिद्ध रूप से दोनों प्रकार से परिणमित होता है (अर्थात् आत्मा परिणामी है और साधकत्व और सिद्धत्व ये दोनों परिणाम हैं) जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्ध रूप है वह उपेय है।
- त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य
राजवार्तिक/1/33/1/95/4 अर्यते गम्यते निष्पाद्यते इत्यर्थकार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । =जो निष्पादन या प्राप्त किया जाये ऐसी पर्याय तो कार्य है और जो परिणमन करे ऐसा द्रव्य कारण है।
नयचक्र बृहद्/365 उप्पज्जंतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो। तम्हा इह ण विरूद्ध एकस्स व कारणं कज्ज।365। =उत्पद्यमान कार्य होता है और उसको उत्पन्न करने वाला निज आत्मा कारण होता है। इसलिए एक ही द्रव्य में कारण व कार्य भाव विरोध को प्राप्त नहीं होते।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/232 स सरूवत्थो जीवो कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि। खेत्ते एक्कम्मि ट्ठिदो णिय दव्वे संठिदो चेव।232। =स्वरूप में, स्वक्षेत्र में, स्वद्रव्य में और स्वकाल में स्थित जीव ही अपने पर्यायरूप कार्य को करता है।
- पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य कारण है और उत्तर पर्याय उसका कार्य है
आप्तमीमांसा/58 कार्योत्पाद: क्षयो हेतुर्नियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तौ जात्याद्यवस्थानादनपेक्षा: खपुष्पवत् ।58। =हेतु कहिये उपादान कारण ताका क्षय कहिए विनाश है सो ही कार्य का उत्पाद है। जातै हेतु के नियमते कार्य का उपजना है। ते उत्पाद विनाश भिन्न लक्षणतै न्यारे न्यारे हैं। जाति आदि के अवस्थानतै भिन्न नाहीं हैं–कथंचित् अभेद रूप हैं। परस्पर अपेक्षा रहित होय तो आकाश पुष्पवत् अवस्तु होय। (अष्टसहस्री/श्लो.58)
राजवार्तिक/1/6/14/37/25 सर्वेषामेव तेषां पूर्वोत्तरकालभाव्यवस्थाविशेषार्पणाभेदादेकस्य कार्यकारणशक्तिसमन्वयो न विरोधस्यास्पदमित्यविरोधसिद्धि:। =सभी वादी पूर्वावस्था को कारण और उत्तरावस्था को कार्य मानते हैं। अत: एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्याय की दृष्टि से कारण कार्य व्यवहार निर्विरोध रूप से होता ही है।
अष्टसहस्री/श्लोक 10 टीका का भावार्थ (द्रव्यार्थिक व्यवहार नय से मिट्टी घट का उपादान कारण है। ऋजुसूत्रनय से पूर्व पर्याय घट का उपादान कारण है। तथा प्रमाण से पूर्व पर्याय विशिष्ट मिट्टी घट का उपादान कारण है।)
श्लोकवार्तिक 2/1/7/12/539/5 तथा सति रुपरसयोरेकार्थात्मकयोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तिरेव लिंगलिंगिव्यवहारहेतु: कार्यकारणभावस्यापि नियतस्य तदभावेऽनुपपत्ते: संतानांतरवत् । =आप बौद्धों के यहाँ मान्य अर्थक्रिया में नियत रहना रूप कार्यकारण भाव भी एक द्रव्य प्रत्यासत्ति नामक संबंध के बिना नहीं बन सकता है। किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि उत्तरवर्ती पर्यायों के उपादान कारण हो जाते हैं। (श्लोकवार्तिक/ पु.2/1/8/10/596)
अष्टसहस्री/पृष्ठ 211 की टिप्पणी–नियतपूर्वक्षणवर्तित्वं कारणलक्षणम् । नियतोत्तरक्षणवर्तित्वं कार्यलक्षणम् । =नियतपूर्वक्षणवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरक्षणवर्ती कार्य होता है।
कषायपाहुड़ 1/245/289/3 पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे। =(जिस कारण से द्रव्य कर्म सर्वदा विशिष्टपने को प्राप्त नहीं होते हैं) वह कारण प्रागभाव है। प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और प्रागभाव का विनाश द्रव्य क्षेत्र काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है, (इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं।)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/222-223 पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं। उत्तर—परिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा।222। कारणकज्जविसेसा तीसु वि कालेसु हुंति वत्थूणं। एक्केक्कम्मि य समए पुव्वुत्तर-भावमासिज्ज।223। =पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियम से कार्य रूप है।222। वस्तु के पूर्व और उत्तर परिणामों को लेकर तीनों ही कालों में प्रत्येक समय में कारणकार्य भाव होता है।223।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/119/168/10 मुक्तात्मनां य एव....मोक्षपर्यायेण भव उत्पाद: स एव.... निश्चयमोक्षमार्गपर्यायेण विलयो विनाशस्तौ च मोक्षपर्यायमोक्षमार्गपर्यायौ कार्यकारणरूपेण भिन्नौ। =मुक्तात्माओं की जो मोक्ष पर्याय का उत्पाद है वह निश्चयमोक्षमार्गपर्याय का विलय है। इस प्रकार अभिन्न होते हुए भी मोक्ष और मोक्षमार्गरूप दोनों पर्यायों में कार्यकारणरूप से भेद पाया जाता है (प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति/8/60/11) (और भी देखो)—‘समयसार’ व ‘मोक्षमार्ग/3/3’
- एक वर्तमानमात्र पर्याय स्वयं ही कारण है और स्वयं ही कार्य है—
राजवार्तिक/1/33/1/95/6 पर्याय एवार्थ: कार्यमस्य न द्रव्यम् । अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात्, स एवैक: कार्यकारणव्यपदेशमार्गात् पर्यायार्थिक:। =पर्याय ही है अर्थ या कार्य जिसका सो पर्यायार्थिक नय है। उसकी अपेक्षा करने पर अतीत और अनागत पर्याय विनष्ट व अनुत्पन्न होने के कारण व्यवहार योग्य ही नहीं हैं। एक वर्तमान पर्याय में ही कारणकार्य का व्यपदेश होता है।
- कारणकार्य में कथंचित् भेदाभेद
आप्तमीमांसा/58 नियमाल्लक्षणात्पृथक् । =पूर्वोत्तर पर्याय विशिष्ट वे उत्पाद व विनाश रूप कार्यकारण क्षेत्रादि से एक होते हुए भी अपने-अपने लक्षणों से पृथक् है।
आप्तमीमांसा/9-14 (कार्य के सर्वथा भाव या अभाव का निरास)
आप्तमीमांसा/24-36 (सर्वथा अद्वैत या पृथक्त्व का निराकरण)
आप्तमीमांसा/37-45 (सर्वथा नित्य व अनित्यत्व का निराकरण)
आप्तमीमांसा/57-60 (सामान्यरूप से उत्पाद व्ययरहित है, विशेषरूप से वही उत्पाद व्ययसहित है)
आप्तमीमांसा/61-72 (सर्वथा एक व अनेक पक्ष का निराकरण)
श्लोकवार्तिक/2/1/7/12/539/6 न हि क्वचित् पूर्वे रसादिपर्याया: पररसादिपर्यायाणामुपादानं नान्यत्र द्रव्ये वर्तमाना इति नियमस्तेषामेकद्रव्यतादात्म्यविरहे कथंचिदुपपन्न:।=किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि पर्याय उत्तरवर्ती समय में होने वाले रसादिपर्यायों के उपादान कारण हो जाते हैं, किंतु दूसरे द्रव्यों में वर्त रहे पूर्वसमयवर्ती रस आदि पर्याय इस प्रकृत द्रव्य में होने वाले रसादिक उपादान कारण नहीं है। इस प्रकार नियम करना उन-उन रूपादिकों के एक द्रव्य तादात्म्य के बिना कैसे भी नहीं हो सकता।
धवला 12/4,2,8,3/280/3 सव्वस्स कज्जकलावस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो त्ति णए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं, कज्जादो कारणं पि, असदकरणाद् उपादानग्रहणात्, सर्वसंभवाभावात्, शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च। =सत्ता आदि की अपेक्षा सभी कार्यकलाप कारण से अभेद है। इस (द्रव्यार्थिक) नय का अवलंबन करने पर कारण से कार्य अभिन्न है तथा कार्य से कारण भी अभिन्न हैं, क्योंकि—1. असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकता, 2. नियत उपादान की अपेक्षा की जाती है, 3. किसी एक कारण से सभी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते, 4. समर्थकारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, 5. तथा असत् कार्य के साथ कारण का संबंध भी नहीं बन सकता।
नोट—(इन सभी पक्षों का ग्रहण उपरोक्त आप्तमीमांसा के उद्धरणों में तथा उसी के आधार पर (धवला 15/17-31 ) में विशद रीति से किया गया है)
नयचक्र बृहद्/365 उप्पज्जंतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो। तम्हा इह ण विरूद्ध एकस्स वि कारणं कज्जं।365। =उत्पद्यमान पर्याय तो कार्य है और उसको उत्पन्न करने वाला आत्मा कारण है, इसलिए एक ही द्रव्य में कारणकार्य भाव का भेद विरूद्ध नहीं है।
द्रव्यसंग्रह टीका/37/97-98 उपादानकारणमपि .... मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पिंडस्थासकोशकुशूलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्नं भवति। यदि पुनरेकांतेनोपादानकारणस्य कार्येण सहाभेदो भेदो वा भवति तर्हि पूर्वोक्तसुवर्णमृत्तिकादृष्टांतद्वयवत्कार्यकारणभावो न घटते। =उपादान कारण भी मिट्टीरूप घट कार्य के प्रति मिट्टी का पिंड, स्थास, कोश तथा कुशूलरूप उपादान कारण के समान (अथवा सुवर्ण की अधस्तन व अपरितन पाक अवस्थाओंवत्) कार्य से एकदेश भिन्न होता है। यदि सर्वथा उपादान कारण का कार्य के साथ अभेद व भेद हो तो उपरोक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टांतों की भाँति कार्य और कारण भाव सिद्ध नहीं होता।
- निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है
- निमित्त कारणकार्य निर्देश
- भिन्न गुणों व द्रव्यों में भी कारणकार्य भाव होता है
राजवार्तिक/1/20/3-4/70/33कश्चिदाह--मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति, कारणगुणानुविधानं हि कार्यं दृष्टं यथा मृन्निमित्तो घटो मृदात्मक:। अथातदात्मकमिष्यते तत्पूर्वकत्वं तर्हि तस्य हीयते इति।3। न वैष दोष:। किं कारणम् । निमित्तमात्रत्वाद् दंडादिवत्.... मृत्पिंड एव बाह्यदंडादिनिमित्तापेक्ष आभ्यंतरपरिणामसांनिध्याद् घटो भवति न दंडादय:, इति दंडादीनां निमित्तमात्रत्वम् । तथा पर्यायिपर्याययो: स्यादन्यत्वाद् आत्मन: स्वयमंत:श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्ये मतिज्ञानं निमित्तमात्रं भवति .... अतो बाह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव ....श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्यात् श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति तस्य निमित्तमात्रत्वात् । =प्रश्न—जैसे मिट्टी के पिंड से बना हुआ घड़ा मिट्टी रूप होता है, उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते ? उत्तर—मतिज्ञान श्रुतज्ञान में निमित्तमात्र है, उपादान नहीं। उपादान तो श्रुत पर्याय से परिणत होने वाला आत्मा है। जैसे मिट्टी ही बाह्य दंडादि निमित्तों की अपेक्षा रखकर अभ्यंतर परिणाम के सान्निध्य से घड़ा बनती है, परंतु दंड आदिक घड़ा नहीं बन जाते और इसलिए दंड आदिकों को निमित्तमात्रपना प्राप्त होता है। उसी प्रकार पर्यायी व पर्याय में कथंचित् अन्यत्व होने के कारण आत्मा स्वयं ही जब अपने अंतरंग श्रुतज्ञानरूप परिणाम के अभिमुख होता है तब मतिज्ञान निमित्तमात्र होता है। इसलिए बाह्य मतिज्ञानादि निमित्तों की अपेक्षा रखकर आत्मा ही श्रुतज्ञानरूप परिणाम के अभिमुख होने से श्रुतरूप होता है, मतिज्ञान नहीं होता। इसलिए उसको निमित्तपना प्राप्त होता है। (सर्वार्थसिद्धि/1/20/120/8 )
श्लोकवार्तिक/2/1/7/13/563/19सहकारिकारणेण कार्यस्य कथं तत्स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धि:; यदनंतरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमन्यत्कार्यमितिप्रतीतम् । = प्रश्न–सहकारी कारणों के साथ पूर्वोक्त कार्यकारण भाव कैसे ठहरेगा, क्योंकि तहाँ एक द्रव्य की पर्यायें न होने के कारण एक द्रव्य नाम के संबंध का तो अभाव है? उत्तर—काल प्रत्यासत्ति नाम के विशेष संबंध से तहाँ कार्यकारणभाव सिद्ध हो सकता है। जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न हो जाता है, वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है, इस प्रकार कालिक संबंध सबको प्रतीत हो रहा है।
- उचित ही द्रव्य को कारण कहा जाता है, जिस किसी को नहीं
श्लोकवार्तिक 3/1/13/48/221/24 तथा 222/19 स्मरणस्य हि न अनुभवमात्रं कारणं सर्वस्य सर्वत्र स्वानुभूतेऽर्थे स्मरण-प्रसंगात्। नापि दृष्टसजातीयदर्शनं सर्वस्य दृष्टस्य हेतोर्व्यभिचारात्। तदविद्यावासनाप्रहाणं तत्कारणमिति चेत्, सैव योग्यता स्मरणावरणक्षयोपशमलक्षणा तस्यां च सत्यां सदुपयोगविशेषा वासना प्रबोध इति नाममात्रं भिद्यते। =पदार्थों का मात्र अनुभव कर लेना ही स्मरण का कारण नहीं है, क्योंकि इस प्रकार सभी जीवों को सर्वत्र सभी अपने अनुभूत विषयों के स्मरण होने का प्रसंग होगा। देखे हुए पदार्थों के सजातीय पदार्थों को देखने से वासना उद्बोध मानो सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, इस प्रकार अन्वय व व्यतिरेक का व्यभिचार आता है। यदि उस स्मरणीय पदार्थ की लगी हुई अविद्यावासना का प्रकृष्ट नाश हो जाना उस स्मरण का कारण मानते हो तब तो उसी का नाम योग्यता हमारे यहाँ कहा गया है। वह योग्यता स्मरणावरण कर्म का क्षयोपशम स्वरूप इष्ट की गयी है, और उस योग्यता के होते संते श्रेष्ठ उपयोग विशेषरूप वासना (लब्धि) को प्रबोध कहा जाता है। तब तो हमारे और तुम्हारे यहाँ केवल नाम का ही भेद है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/99,102 वैभाविकस्य भावस्य हेतु: स्यात्संनिकर्षत:। तत्रस्थोऽप्यपरो हेतुर्न स्यात्किंवा वतेति चेत्।99। बद्ध: स्याद्बद्धयोर्भाव: स्यादबद्धोऽप्यबद्धयो:। सानुकूलतया बंधो न बंध: प्रतिकूलयो:।102।=प्रश्न–यदि एकक्षेत्रावगाहरूप होने से वह मूर्त द्रव्य जीव के वैभाविक भाव में कारण हो जाता है तो खेद है कि वहीं पर रहने वाला विस्रसोपचय रूप अन्य द्रव्य समुदाय भी विभाव परिणमन का कारण क्यों नहीं हो जाता ? उत्तर—एक दूसरे से बँधे हुए दोनों के भाव को बद्ध कहते हैं और एक दूसरे से नहीं बँधे हुए दोनों के भाव को अबद्ध कहते हैं, क्योंकि, जीव में बंधक शक्ति तथा कर्म में बंधने की शक्ति की परस्पर अनुकूलताई से बंध होता है, और दोनों के प्रतिकूल होने पर बंध नहीं होता है।102। अर्थात् बँधे हुए कर्म ही उदय आने पर विभाव में निमित्त होते हैं, विस्रसोपचयरूप अबद्ध कर्म नहीं।
- कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तु मात्र को कारण नहीं कह सकते।
धवला 2/1/444/3 ‘‘दव्वेंदियाणं णिप्पत्तिं पडुच्च के वि दस पाणे भणंति। तण्ण घडदे। कुदो। भाविंदियाभावादो।’’ =कितने ही आचार्य द्रव्येंद्रियों की पूर्णता को (केवली भगवान् के) दश प्राण कहते हैं, परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि सयोगि जिन के भावेंद्रिय नहीं पायी जाती है।
परीक्षामुख/3/61,63 न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धे।61। तद्वयापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।63।=पूर्वचर व उत्तरचर हेतु साध्य के काल में नहीं रहते इसलिए उनका तादात्म्य संबंध न होने से तो वे स्वभाव हेतु नहीं कहे जा सकते और तदुत्पत्ति संबंध न रहने से कार्य हेतु भी नहीं कहे जा सकते।61। कारण के सद्भाव में कार्य का होना कारण के व्यापार के आधीन है।63। देखें मिथ्यादृष्टि - 2.6 (कार्यकाल में उपस्थित होने मात्र से कोई पदार्थ कारण नहीं बन जाता)
- कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु कारण कहलाती है
आप्तमीमांसा/42 यद्यसत्सर्वथा कार्यं तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माश्वास: कार्यंजन्मनि।42।=कार्य को सर्वथा असत् मानने पर ‘यही इसका कारण है अन्य नहीं’ यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि इसका कोई नियामक नहीं है। और यदि कोई नियामक हो तो वह कारण में कार्य के अस्तित्व को छोड़कर दूसरा भला कौन सा हो सकता है। (धवला 12/4,2,8,3/280/5 ) (धवला 15/5/21 )
राजवार्तिक/1/9/11/46/8 दृष्टो हि लोके छेत्तुर्देवदत्ताद् अर्थांतरभूतस्य परशो: .... काठिन्यादिविशेषलक्षणोपेतस्य सत: करणभाव:। न च तथा ज्ञानस्य स्वरूपं पृथगुपलभामहे। .... दृष्टो हि परशो: देवदत्ताधिष्ठितोद्यमाननिपातनापेक्षस्य करणभाव:, न च तथा ज्ञानेन किंचित्कर्तृसाध्यं क्रियांतरमपेक्ष्यमस्ति। किंच तत्परिणामाभावात् । छेदनक्रियापरिणतेन हि देवदत्तेन तत्क्रियाया: साचिव्ये नियुज्यमान: परशु: ‘करणम्’ इत्येतदयुक्तम्, न च तथा आत्मा ज्ञानक्रियापरिणत:। =जिस प्रकार छेदनेवाले देवदत्त से करणभूत फरसा कठोर तीक्ष्ण आदि रूप से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है, उस प्रकार (आप बौद्धों के यहाँ) ज्ञान का पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे कि उसे करण बनाया जाये। फरसा भी तब करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ी के भीतर घुसने रूप व्यापार की अपेक्षा रखता है, किंतु (आपके यहाँ) ज्ञान में कर्ता के द्वारा की जाने वाली कोई क्रिया दिखाई नहीं देती, जिसकी अपेक्षा रखने के कारण उसे करण कहा जा सके।
स्वयं छेदन क्रिया में परिणत देवदत्त अपनी सहायता के लिए फरसे को लेता है और इसलिए फरसा करण कहलाता है। पर (आपके यहाँ) आत्मा स्वयं ज्ञान क्रिया रूप से परिणति ही नहीं करता (क्योंकि वे दोनों भिन्न स्वीकार किये गये हैं)।
श्लोकवार्तिक 2/1/7/13/563/2 यदनंतरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम् । =जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न होता है, वह उसका सहकारी कारण है और दूसरा कार्य है।
समयसार / आत्मख्याति/84 बहिर्व्याप्यव्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापारं कुर्वाण: कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्वयवहार:। =बाह्य में व्याप्यव्यापक भाव से घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल ऐसे व्यापार को करता हुआ तथा घड़े के द्वारा किये गये पानी के उपयोग से उत्पन्न तृप्ति को भाव्यभावक भाव के द्वारा अनुभव करता हुआ, कुम्हार घड़े का कर्ता है और भोक्ता है, ऐसा लोगों का अनादि से रूढ व्यवहार है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/160/230/13 निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यग्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण परिणममानस्यापि सुवर्णपाषाणस्याग्निरिव निश्चयमोक्षमार्गस्य बहिरंगसाधको भवतीति सूत्रार्थ:। =अपने ही उपादान कारण से स्वयमेव निश्चयमोक्षमार्ग की अपेक्षा शुद्ध भावों से परिणमता है वहाँ यह व्यवहार निमित्त कारण की अपेक्षा साधन कहा गया है। जैसे –सुवर्ण यद्यपि अपने शुद्ध पीतादि गुणों से प्रत्येक आँच में शुद्ध चोखी अवस्था को धरे है, तथापि बहिरंग निमित्तकारण अग्नि आदिक वस्तु का प्रयत्न है। तैसे ही व्यवहार मोक्षमार्ग है।
- अनेक कारणों में से प्रधान का ही ग्रहण करना न्याय है
सर्वार्थसिद्धि/1/21/125 भवं प्रतीत्य क्षयोपशम: संजायत इति कृत्वा भव: प्रधानकारणमित्युपदिश्यते। =(भवप्रत्यय अवधिज्ञान में यद्यपि भव व क्षयोपशम दोनों ही कारण उपलब्ध हैं, परंतु) भव का अवलंबन लेकर (तहाँ) क्षयोपशम होता है, (सम्यक्त्व व चारित्रादि गुणों की अपेक्षा से नहीं)। ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है, ऐसा उपदेश दिया जाता है। (कि यह अवधिज्ञान भव प्रत्यय है)।
- भिन्न गुणों व द्रव्यों में भी कारणकार्य भाव होता है
- कारण कार्य संबंधी नियम
- कारण सदृश ही कार्य होता है
धवला 1/1,1,41/270/5 कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेद्धुं पार्यते सकलनैयायिकलोकप्रसिद्धत्वात् । =कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, यह बात संपूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है।
धवला 10/4,2,4,175/432/2 सव्वत्थकारणाणुसारिकज्जुवलंभादो।=सब जगह कारण के अनुसार ही कार्य पाया जाता है।
नयचक्र बृहद्/368 की चूलिका-इति न्यायादुपादानकारणसदृशं कार्यं भवति। इस न्याय के अनुसार उपादान सदृश कार्य होता है। (विशेष देखें समयसार )
समयसार / आत्मख्याति/68 कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति। =कारण जैसा ही कार्य होता है, ऐसा समझकर जौ पूर्वक होने वाले जो जौ (यव), वे जौ (यव) ही होते हैं। (समयसार / आत्मख्याति/130-130 ) (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/406 )
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/11उपादानकारणसदृशं हि कार्यमिति।=उपादान कारण सदृश ही कार्य होता है। (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/23/49/14 )
स्याद्वादमंजरी/27/304/18 उपादानानुरूपत्वाद् उपादेयस्य।=उपादेयरूप कार्य उपादान कारण के अनुरूप होता है। - कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा कोई नियम नहीं
सर्वार्थसिद्धि/1/20/120 यदि मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति ‘कारणसदृशं हि लोके कार्यं दृष्टम्’ इति। नैतदैकांतिकम्। दंडादिकारणोऽयं घटो न दंडाद्यात्मक:। =प्रश्न–यदि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है; तो वह श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है? उत्तर–यह कोई एकांत नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घट की उत्पत्ति दंडादि से होती है, तो भी दंडाद्यात्मक नहीं होता। (और भी देखें कारण - I.3.1)
राजवार्तिक/1/20/5/71/11 नायमेकांतोऽस्ति–‘कारणसदृशमेव कार्यम्’ इति कुत:। तत्रापि सप्तभंगीसंभवात् कथम् । घटवत् । यथा घट: कारणेन मृत्पिंडेन स्यात्सदृश: स्यान्न सदृश: इत्यादि। मृद्द्रव्याजीवानुपयोगाद्यादेशात् स्यात्सदृश:, पिंडघटसंस्थानादिपर्यायादेशात् स्यान्न सदृश:।…यस्यैकांतेन कारणानुरूपं कार्यम्, तस्य घटपिंडशिवकादिपर्याया उपालभ्यंते। किंच, घटेन जलधारणादिव्यापारो न क्रियते मृत्पिंडे तददर्शनात् । अपि च मृत्पिंडस्य घटत्वेन परिणामवद् घटस्यापि घटत्वेन परिणाम: स्यात् एकांतसदृशत्वात् । न चैवं भवति। अतो नैकांतेन कारणसदृशत्वम्। =यह कोई एकांत नहीं है कि कारण सदृश ही कार्य हो। पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से मिट्टी रूप कारण के समान घड़ा होता है, पर पिंड और घट आदि पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं, यदि कारण के सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्था से भी पिंड शिवक आदि पर्यायें मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृत्पिंड में जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़े में भी नहीं भरा जाना चाहिए और मिट्टी की भाँति घट का घट रूप से ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं। कारण कि दोनों सदृश जो हैं। परंतु ऐसा तो कभी होता नहीं है अत: कार्य एकांत से कारण सदृश नहीं होता।
धवला 12/4,2,7,177/81/3 संजमासंजमपरिणामादो जेण संजमपरिणामो अणंतगुणो तेण पदेसणिज्जराए वि अणंतगुणाए होदव्वं, एदम्हादो अण्णत्थ सव्वत्थ कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो त्ति। ण, जोगगुणगाराणुसारिपदेसगुणगारस्स अणंतगुणत्तविरोहादो। …ण च कज्जं कारणाणुसारी चेव इति णियमो अत्थि, अंतरंगकारणावेक्खाए पव्वत्तस्स कज्जस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो।=प्रश्न–यत: संयमासंयम रूप परिणाम की अपेक्षा संयमरूप परिणाम अनंतगुणा है अत: वहाँ प्रदेश निर्जरा भी उससे अनंतगुणी होनी चाहिए। क्योंकि इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारण के अनुरूप ही कार्य की उपलब्धि होती है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, प्रदेश निर्जरा का गुणकार योगगुणकार का अनुसरण करने वाला है, अतएव उसके अनंतगुणे होने में विरोध आता है। दूसरे–कार्य कारण का अनुसरण करता ही हो, ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अंतरंग कारण की अपेक्षा प्रवृत्त होने वाले कार्य के बहिरंग कारण के अनुसरण करने का नियम नहीं बन सकता।
धवला 15/16/10 ण च एयंतेण कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वं, मट्टियपिंडादो मट्टियपिंडं मोत्तूण घटघटी-सरावालिंजरुट्टियादीणमणुप्पत्तिप्पसंगादो। सुवण्णादो सुवण्णस्स घटस्सेव उप्पत्तिदंसणादो कारणाणुसारि चेव कज्जं त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, कढिणादो, सुवण्णादो जलणादिसंजोगेण सुवण्णजलुप्पत्तिदंसणादो। किं च–कारणं व ण कज्जमुप्पज्जदि, सव्वप्पणा कारणसरूवमावण्णस्स उप्पत्तिविरोहादो। जदि एयंतेण (ण) कारणाणुसारि चेव कज्जमुप्पज्जदि तो मुत्तादो पोग्गलदव्वादो अमुत्तस्स गयणुप्पत्ती होज्ज, णिच्चेयणादो पोग्गलदव्वादो सचेयणस्स जीवदव्वस्स वा उप्पत्ति पावेज्ज। ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हा कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि। एत्थ परिहारो वुच्चदे–होदु णाम केण वि सरूवेण कज्जस्स कारणाणुसारित्तं, ण सव्वप्पणा; उप्पादवयट्ठिदिलक्खणाणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्वाणं सगवइसे सियगुणा विणाभावि सयलगुणाणमपरिंचाएण पज्जायंतरगमणदंसणादो। =’कारणानुसारी ही कार्य होना चाहिए, यह एकांत नियम भी नहीं है, क्योंकि मिट्टी के पिंड से मिट्टी के पिंड को छोड़कर घट, घटी, शराब, अलिंजर और उष्ट्रिका आदिक पर्याय विशेषों की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग अनिवार्य होगा। यदि कहो कि सुवर्ण से सुवर्ण के घट की ही उत्पत्ति देखी जाने से कार्य कारणानुसारी ही होता है, सो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है; क्योंकि, कठोर सुवर्ण से अग्नि आदि का संयोग होने पर सुवर्ण जल की उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार कारण उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कार्य भी उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि कार्य सर्वात्मना कारणरूप ही रहेगा, इसलिए उसकी उत्पत्ति का विरोध है। प्रश्न–यदि सर्वथा कारण का अनुसरण करने वाला ही कार्य नहीं होता है तो फिर मूर्त पुद्गल द्रव्य से अमूर्त आकाश की उत्पत्ति हो जानी चाहिए। इसी प्रकार अचेतन पुद्गल द्रव्य से सचेतन जीव द्रव्य की भी उत्पत्ति पायी जानी चाहिए। परंतु ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता, इसलिए कार्य कारणानुसारी ही होना चाहिए ? उत्तर–यहाँ उपर्युक्त शंका का परिहार कहते हैं। किसी विशेष स्वरूप से कार्य कारणानुसारी भले ही हो परंतु वह सर्वात्मस्वरूप वैसा संभव नहीं है; क्योंकि, उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य लक्षणवाले जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य अपने विशेष गुणों के अविनाभावी समस्त गुणों का परित्याग न करके अन्य पर्याय को प्राप्त होते हुए देखे जाते हैं।
धवला 9/4,1,45/146/1 कारणानुगुणकार्यनियमानुपलंभात् ।=कारणगुणानुसार कार्य के होने का नियम नहीं पाया जाता।
- एक कारण से सभी कार्य नहीं हो सकते
सांख्यकारिका/9 सर्व संभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् ।=किसी एक कारण से सभी कार्यों की उत्पत्ति संभव नहीं। समर्थ कारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है। (धवला 12/4,2,8,113/280/5 )
- परंतु एक कारण से अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं
सर्वार्थसिद्धि/6/10/328/6 एककारणसाध्यस्य कार्यस्यानेकस्य दर्शनात् तुल्येऽपि प्रदोषादौ ज्ञानदर्शनावरणास्रवहेतव:।=एक कारण से भी अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रदोषादिक (कारणों) के एक समान रहते हुए भी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनों का आस्रव (रूप कार्य) सिद्ध होता है। (राजवार्तिक/6/10/10-12/518 )
धवला 12/4,2,8,2/278/10 कधमेगो पाणादिवादो अक्कमेण दोण्णं कज्जाणं संपादओ। ण एयादो एयादो मोग घादोअवयव विभागट्ठाणसंचालणक्खेत्तंतरवत्तिखप्परकज्जाणमक्कमेणुप्पत्तिदंसणादो। कथमेगो पाणादिवादो अणंते कम्मइयक्खंधे णाणावरणीयसरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि,, बहुसु एक्कस्स अक्कमेण वुत्तिविरोहादो। ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो।=प्रश्न–प्राणातिपाति रूप एक ही कारण युगपत् दो कार्यों का उत्पादक कैसे हो सकता है ? (अर्थात् कर्म को ज्ञानावरण रूप परिणमाना और जीव के साथ उसका बंध कराना ये दोनों कार्य कैसे कर सकता है) ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, एक मुद्गर से घात, अवयवविभाग, स्थानसंचालन और क्षेत्रांतर की प्राप्तिरूप खप्पर कार्यों की युगपत् उत्पत्ति देखी जाती है। प्रश्न–प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनंत कार्माण स्कंधों को एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूप से कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतों में एक की युगपत् वृत्ति का विरोध है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, प्राणातिपातरूप एक ही कारण के अनंत शक्तियुक्त होने से वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता। (और भी देखें वर्गणा - 2.6.3 में धवला/15 )
- एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए
सर्वार्थसिद्धि/5/17/283/3 भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात् । अनेककारणसाध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य।=प्रश्न–धर्म और अधर्म द्रव्य के जो प्रयोजन हैं, पृथिवी और जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक नहीं है? उत्तर–नहीं, क्योंकि धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं। यह विशेष रूप से कहा गया है। तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक है।
राजवार्तिक/5/17/31/464/29 इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्टम्, यथा मृत्पिंडो घटकार्यपरिणामप्राप्तिं प्रति गृहीताभ्यंतरसामर्थ्य: बाह्यकुलालदंडचक्रसूत्रोदककालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्ष: घटपर्यायेणाविर्भवति, नैक एव मृत्पिंड: कुलालादिबाह्यसाधनसंनिधानेन बिना घटात्मनाविर्भवितुं समर्थ:। =इस लोक में कोई भी कार्य अनेक कारणों से होता देखा जाता है, जैसे मिट्टी का पिंड घट कार्यरूप परिणाम की प्राप्ति के प्रति आभ्यंतर सामर्थ्य को ग्रहण करके भी, बाह्य कुम्हार, दंड, चक्र, डोरा, जल, काल व आकाशादि अनेक कारणों की अपेक्षा करके ही घट पर्यायरूप से उत्पन्न होता है। कुम्हार आदिक बाह्य साधनों की सन्निधि के बिना केवल अकेला मिट्टी का पिंड घटरूप से उत्पन्न होने को समर्थ नहीं है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/53/4 गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवंति यत: कारणाद् घटोपत्तौ कुंभकारचक्रचोवरादिवत्, मत्स्यादीनां। जलादिवत्, मनुष्याणां शकटादिवत्, विद्याधराणां विद्यामंत्रौषधादिवत्, देवानां विमानवदित्यादि कालद्रव्यं गतिकारणम् ।=गतिरूप परिणति में धर्मद्रव्य भी सहकारी है और कालद्रव्य भी। सहकारीकारण बहुत होते हैं जैसे कि घड़े की उत्पत्ति में कुम्हार, चक्र, चीवर आदि, मछली आदिकों को जल आदि, मनुष्यों को रथ आदि, विद्याधरों को विद्या, मंत्र, औषधि आदि तथा देवों को विमान आदि। अत: कालद्रव्य भी गति का कारण है। ( परमात्मप्रकाश टीका/2/23 ), (द्रव्यसंग्रह टीका/25/71/12 )
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/402 कार्यं प्रतिनियतत्वाद्धेतुद्वैतं न ततोऽतिरिक्त चेत् । तन्न यतस्तन्नियमग्राहकमिव न प्रमाणमिह।=कार्य के प्रति नियत होने से उपादान और निमित्तरूप दो हेतु ही है, उससे अधिक नहीं है, यदि ऐसा कहो तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, यहाँ पर उन दो हेतुओं के ही मानने रूप नियम का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है।402। (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/404 )
- एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से हो सकता है
धवला 7/2,1,17/69/5 ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चेव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, खइर-सिंसव-धव-धम्मण-गोमय-सूरयर-सुज्जकंतेहितो समुप्पज्जमाणेक्कग्गिकज्जुवलंभा। =एक कार्य सर्वत्र एक ही कारण से उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि खदिर, शीसम, धौ, धामिन, गोबर, सूर्यकिरण, व सूर्यकांतमणि, इन भिन्न-भिन्न कारणों से एक अग्निरूप कार्य उत्पन्न होता पाया जाता है।
धवला 12/4,2,8,11/286/11 कधमेयं कज्जमणेगे उप्पज्जदे। ण, एगादो कुंभारादो उप्पण्णघडस्स अण्णादो वि उप्पत्तिदंसणादो। पुरिसं पडि पुध पुध उप्पज्जमाणा कुंभोदंचणसरावादओ दीसंति त्ति चे। ण, एत्थ वि कमभाविकोधादीहिंतो उप्पज्जमाणणाणावरणीयस्स दव्वादिभेदेण भेदुवलंभादो। णाणावरणीयसमाणत्तणेण तदेक्कं चे। ण, बहूहिंतो समुप्पज्जमाणघडाणं पि घडभावेण एयत्तुवलंभादो।=प्रश्न–एक कार्य अनेक कारणों से कैसे उत्पन्न होता है? (अर्थात् अनेक प्रत्ययों से एक ज्ञानावरणीय ही वेदना कैसे उत्पन्न होती है)। उत्तर–नहीं, क्योंकि, एक कुंभकार से उत्पन्न किये जाने वाले घट की उत्पत्ति अन्य से भी देखी जाती है। प्रश्न–पुरूष भेद से पृथक्-पृथक् उत्पन्न होनेवाले कुंभ, उदंच, व शराब आदि भिन्न-भिन्न कार्य देखे जाते हैं (अथवा पृथक्-पृथक् व्यक्तियों से बनाये गये घड़े भी कुछ न कुछ भिन्न होते ही हैं।) ? उत्तर–तो यहाँ भी क्रमभावी क्रोधादिकों से उत्पन्न होने वाले ज्ञानावरणीयकर्म का द्रव्यादिक के भेद से भेद पाया जाता है। प्रश्न–ज्ञानावरणीयत्व की समानता होने से वह (अभेद भेदरूप होकर भी) एक ही है? उत्तर–इसी प्रकार यहाँ भी बहुतों के द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले घटों के भी घटत्व रूप से अभेद पाया जाता है।
- कारण व कार्य पूर्वोत्तर कालवर्ती ही होते हैं
श्लोकवार्तिक 2/1/4/23/121/19 य एव आत्मन: कर्मबंधविनाशस्य काल: स एव केवलत्वाख्यमोक्षोत्पादस्येति चेत्, न, तस्यायोगकेवलिचरमसमयत्वविरोधात् पूर्वस्य समयस्यैव तथात्वापत्ते:।=यदि इस उपांत्य समय में होने वाली निर्जरा को भी मोक्ष कहा जायेगा तो उससे भी पहले समय में परमनिर्जरा कहनी पड़ेगी। क्योंकि कार्य एक समयपूर्व में रहना चाहिए। प्रतिबंधकों का अभावरूप कारण भले कार्यकाल में रहता होय किंतु प्रेरक या कारक कारण तो कार्य के पूर्व समय में विद्यमान होने चाहिए–(ऐसा कहना भी ठीक नहीं है) क्योंकि इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम आदि समयों में मोक्ष होने का प्रसंग हो जायेगा; कुछ भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत: यही व्यवस्था होना ठीक है कि अयोग केवली का चरम समय ही परम निर्जरा का काल है और उसके पीछे का समय मोक्ष का है।
धवला 1/1,1,47/279/7 कार्यकारणयोरेककालं समुत्पत्तिविरोधात् ।=कार्य और कारण इन दोनों की एक काल में उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
धवला 9/4,1,1/3/8 ण च कारणपुव्वकालभावि कज्जमत्थि, अणुवलंभादो।=कारण से पूर्व काल में कार्य होता नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता।
स्याद्वादमंजरी/16/196/22न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयो: सव्येतरगोविषाणयोरिव कारणकार्यभावो युक्त:। नियतप्राक्कालभावित्वात् कारणस्य। नियतोत्तरकालभावित्वात् कार्यस्य। एतदेवाहु: न तुल्यकाल: फलहेतुभाव इति। फलं कार्यं हेतु: कारणम्, तयोर्भाव: स्वरूपम्, कार्य-कारणभाव:। स तुल्यकाल: समानकालो न युज्यत इत्यर्थं:। =प्रमाण और प्रमाण का फल बौद्ध लोगों के मत में गाय के बायें और दाहिने सींगों की तरह एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें कार्यकारण संबंध नहीं हो सकता। क्योंकि नियत पूर्वकालवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरकालवर्ती उसका कार्य होता है। फल कार्य है और हेतु कारण। उनका भाव या स्वरूप ही कार्यकारण भाव है। वह तुल्यकाल में ही नहीं हो सकता।
- कारण व कार्य में व्याप्ति आवश्यक होती है
आप्तपरीक्षा/9/41/2 तत्कारणकत्वस्य तदन्वयव्यतिरेकोपलंभेन व्याप्तत्वात् कुलालकारणकस्य घटादे: कुलालान्वयव्यतिरेकोपलंभप्रसिद्धे:।=जैसे कुम्हार से उत्पन्न होने वाले घड़ा आदि में कुम्हार का अन्वय व्यतिरेक स्पष्टत: प्रसिद्ध है। अत: सब जगह बाधकों के अभाव से अन्वय व्यतिरेक कार्य के व्यवस्थित होते हैं, अर्थात् जो जिसका कारण होता है उसके साथ अन्वय व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है।
धवला/ पुस्तक 7/2, 1, 7/10/5 जस्स अण्ण–विदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णयविदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं।=जिसके अन्वय और व्यतिरेक के साथ नियम से जिसका अन्वय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है। (धवला/8/3,20/51/3 )।
धवला/12/4,2,8,13/289/4 यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिदि न्यायात्=जो जिसके होने पर ही होता है न होने पर नहीं वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। (धवला/14/5,6,93/ ?/2 )
- कारण अवश्य कार्य का उत्पादक हो ऐसा कोई नियम नहीं
धवला/12/4,2,8,13/289/8 नावश्यं कारणानि कार्यवंति भवंति, कुंभमकुर्वत्यपि कुंभकारे कुंभकारव्यवहारोपलंभात् ।=कारण कार्यवाले अवश्य हों ऐसा संभव नहीं, क्योंकि, घट को न करने वाले भी कुंभकार के लिए ‘कुंभकार’ शब्द का व्यवहार पाया जाता है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/194/410/9 न चावश्यं कारणानि कार्यवंति। धूमजनयतोऽप्यग्नेर्दर्शनात् काष्ठाद्यपेक्षस्य।=कारण अवश्य कार्यवान् होते ही हैं, ऐसा नियम नहीं है, काष्ठादि की अपेक्षा रखने वाला अग्नि धूम को उत्पन्न करेगा ही, ऐसा नियम नहीं।
न्यायदीपिका/3/53/96 ननु कार्यं कारणानुमापकमस्तु कारणाभावे कार्यस्यानुपपत्ते:। कारणं तु कार्यभावेऽपि संभवति, यथा धूमाभावेऽपि वह्नि: सुप्रतीत:। अतएव वह्निर्न धूमं गमयतीति चेत्; तन्न; उन्मीलितशक्तिकस्य कारणस्य कार्याव्यभिचारित्वेन कार्यं प्रति हेतुत्वाविरोधात्।=प्रश्न–कारण तो कार्य का ज्ञापक (जनाने वाला) हो सकता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता किंतु कारण कार्य के बिना भी संभव है, जैसे-धूम के बिना भी अग्नि देखी जाती है। अतएव अग्नि धूम की गमक नहीं होती, (धूम ही अग्नि का गमक होता है), अत: कारणरूप हेतु को मानना ठीक नहीं है। उत्तर–नहीं, जिस कारण की शक्ति प्रकट है–अप्रतिहत है, वह कारण कार्य का व्यभिचारी नहीं होता है। अत: (उत्पादक न भी हो, पर) ऐसे कारण को कार्य का ज्ञापक हेतु मानने में कोई दोष नहीं है।
देखें मंगल - 2.6 (जिस प्रकार औषधियों का औषधित्व व्याधियों के शमन न करने पर भी नष्ट नहीं होता इसी प्रकार मंगल का मंगलपना विघ्नों का नाश न करने पर भी नष्ट नहीं होता)। - कारण कार्य का उत्पादक न ही हो यह भी कोई नियम नहीं
धवला/9/4,1,44/117/10 ण च कारणाणि कज्जं ण जणेंति चेवेति णियमो अत्थि, तहाणुवलंभादो।=कारण कार्य को उत्पन्न करते ही नहीं हैं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अतएव किसी काल में किसी भी जीव में कारणकलाप सामग्री निश्चय से होना चाहिए। - कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं
राजवार्तिक/10/3/1/642/10 नायमेकांत: निमित्तापाये नैमित्तिकानां निवृत्ति: इति।=निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है। (जैसे दीपक जला चुकने के पश्चात् उसके कारणभूत दियासलाई के बुझ जाने पर भी कार्यभूत दीपक बुझ नहीं जाता)। - कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य की संभावना
धवला/1/1,1,50/283/6 किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानंत्याच्छ्रोतुरावरणक्षयोपशमातिशयाभावात् । =केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनंत होने से और श्रोता के आवरण क्षयोपशम अतिशयतारहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से (भी) संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है।
- कारण सदृश ही कार्य होता है
- कारण के भेद व लक्षण
- उपादान कारण की मुख्यता गौणता
- उपादान की कथंचित् स्वतन्त्रता
- अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता
योगसार/अमितगति/९/४६ सर्वे भावा: स्वस्वभावव्यवस्थिता:। न शक्यन्तेऽन्यथा कर्तुं ते परेण कदाचन।४६।=समस्त पदार्थ स्वभाव से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं, वे कभी पर पदार्थ से अन्यथा रूप नहीं किये जा सकते अर्थात् कभी पर पदार्थ उन्हें अपने रूप में परिणमन नहीं करा सकता।
- अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता
राजवार्तिक/१/९/१०/४५/२० मनश्चेन्द्रियं चास्य कारणमिति चेत्; न; तस्य तच्छक्त्यभावात् । मनस्तावन्न कारणम् विनष्टत्वात् । नेन्द्रियमप्यतीतम्; तत एव।=मनरूप इन्द्रिय को ज्ञान का कारण कहना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। ‘छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्व का ज्ञान मन होता है’ यह उन बौद्धों का सिद्धान्त है। इसलिए अतीतज्ञान रूप मन इन्द्रिय भी नहीं हो सकता। (विशेष देखो कर्ता - 3)
- निमित्त किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं करा सकता
धवला/१/१,१,१६३/४०४/१ न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात् ।= (मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा न्याय है कि) जो स्वयं असमर्थ होता है वह दूसरों के सम्बन्ध से भी समर्थ नहीं हो सकता।
समयसार/आत्मख्याति/११८-११९ न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते।=जो शक्ति (वस्तु में) स्वत: न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। (पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/६२)
- स्वभाव दूसरे की अपेक्षा नहीं करता
समयसार/आत्मख्याति/११९ न हि वस्तु शक्तय: परमपेक्षन्ते।=वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।
प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/१९ स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिन्द्रियैर्विनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दौ संभवत:। = (ज्ञान और आनन्द आत्मा का स्वभाव ही है; और) स्वभाव पर की अपेक्षा नहीं करता इसलिए इन्द्रियों के बिना भी (केवलज्ञानी) आत्मा के ज्ञान आनन्द होता है। (प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका)
- और परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है
प्रवचनसार/मूल/९६ सब्भावो हि सभावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं।९६।=सर्व लोक में गुण तथा अपनी अनेक प्रकार की पर्यायों से और उत्पाद व्यय ध्रौव्य से द्रव्य का जो अस्तित्व है वह वास्तव में स्वभाव है।
प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/९६ गुणेभ्य: पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणै: पर्यायैश्च ...यदस्तित्वं स स्वभाव:। =जो गुणों और पर्यायों से पृथक् नहीं दिखाई देता, कर्ता करण अधिकरणरूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्त्तमान द्रव्य का जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है।
- उपादान अपने परिणमन में स्वतन्त्र है
समयसार/मूल/९१ जं कुणइ भावमादा कत्ता स होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पुग्गलं दव्वं।=आत्मा जिस भाव को करता है, उस भाव का वह कर्ता होता है। उसके कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप परिणमित होता है। (समयसार/मूल/८०-८१); (समयसार/आत्मख्याति/१०५); (पुरूषार्थसिद्धि उपाय/१२); (और भी देखो कारण/ III/३/१ )।
समयसार/मूल/११९ अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं। जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।११९।=अथवा यदि पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है ऐसा माना जाये, तो जीव कर्म को अर्थात् पुद्गलद्रव्य को परिणमन कराता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है ‘‘तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु’’ अत: पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभावी स्वयमेव हो (आत्मख्याति)।
प्रवचनसार/मूल/१५ उवओगविसुद्धो जो विगदावरणांतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा जादि पारं णेयभूदाणं।१५।=जो उपयोग विशुद्ध है, वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय रज से रहित स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयभूत पदार्थों के पार को प्राप्त होता है।
प्रवचनसार/मूल/१६७ दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा स संठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते।=द्विप्रदेशादिक स्कन्ध जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और संस्थानों (आकारों) सहित होते हैं, वे पृथिवी, जल, तेज और वायुरूप अपने परिणामों से होते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/२१९ कालाहलद्धि जुत्ता णाणा सत्तीहि संजुदा अत्था। परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं।=काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नाना शक्तियों वाले पदार्थों को स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है।
पंचाध्यायी/७६० उत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमनित्यनय: प्रसिद्ध स्यात् ।७६०।=सत् यथायोग्य प्रतिसमय में उत्पन्न होता है तथा विनष्ट होता है यह निश्चय से व्यवहार विशिष्ट अनित्य नय है।
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/९३२ तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो दृङ्मोहंस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।=इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही स्वयं अनन्यगति हैं अर्थात् अपने आप होते हैं, परस्पर में एक दूसरे के निमित्त से नहीं होते।
- उपादान के परिणमन में निमित्त की प्रधानता नहीं होती
राजवार्तिक/१/२/१२/२०/१९ यदिदं दर्शनमोहाख्यं कर्म तदात्मगुणघाति, कुतश्चिदात्मपरिणामादेवोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्यां लभते। अतो न तदात्मपरिणामस्य प्रधानं कारणम्, आत्मैव स्वशक्त्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् ।=दर्शनमोहनीय नाम के कर्म को आत्मविशुद्धि के द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीणशक्तिक सम्यक्त्व कर्म बनाया जाता है। अत: यह सम्यक्त्वप्रकृति आत्मस्वरूप मोक्ष का प्रधान कारण नहीं हो सकती। आत्मा ही अपनी शक्ति से दर्शन पर्याय को धारण करता है अत: वही मोक्ष का कारण है।
राजवार्तिक/५/१/२७/४३४/२४ धर्माधर्माकाशपुद्गला: इति बहुवचनं स्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थं द्रष्टव्यम् । किं पुन: स्वातन्त्र्यम् । धर्मादयो गत्याद्यपग्रहान् प्रति वर्तमाना: स्वयमेव तथा परिणमन्ते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्ति: इत्येतदत्र विवक्षितं स्वातन्त्र्यम् । ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति: नैष दोष:;बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।=सूत्र में ‘धर्माधर्माकाशपुद्गला:’ यहाँ बहुवचन स्वातन्त्र्य की प्रतिपत्ति के लिए है। प्रश्न–वह स्वातन्त्र्य क्या है? उत्तर–इनका यही स्वातन्त्र्य है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीव या पुद्गल इन्हें उकसाते नहीं हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है। प्रश्न–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं, और वह इस स्वातन्त्र्य के मानने पर विरोध को प्राप्त होता है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य वस्तुएँ निमित्त मात्र होती हैं, परिणामक नहीं।
श्लोकवार्तिक./२/१/६/४०-४१/३९४ चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।४०। चितस्तु भावनेत्रादे: प्रमाणत्वं न वार्यते। तत्साधकतमत्वस्य कथंचिदुपपत्तित:।४१।=वैशेषिक व नैयायिक लोग नेत्र आदि इन्द्रियों को प्रमाण मानते हैं, परन्तु उनका कहना ठीक नहीं है; क्योंकि नेत्रादि जड़ हैं, उनके प्रमिति का प्रकृष्ट साधकपना सर्वदा नहीं है। प्रमिति का कारण वास्तव में ज्ञान ही है। जड़ इन्द्रिय ज्ञप्ति के करण कदापि नहीं हो सकते, हाँ भावेन्द्रियों के साधकतमपने की सिद्धि किसी प्रकार हो जाती है, क्योंकि भावेन्द्रिय चेतनस्वरूप हैं और चेतन का प्रमाणपना हमें अभीष्ट है। (श्लोकवार्तिक/२/१/६/२९/३७७/२३); (परीक्षामुख/२/६-९); (स्याद्वादमंजरी/१६/२०८/२३); (न्यायदीपिका/२/५/२७)।
योगसार/अमितगति/५/१८-१९ ज्ञानदृष्टिचारित्राणि ह्रियन्ते नाक्षगोचरै:। क्रियन्ते न च गुर्वाद्यै: सेव्यमानैरनारतम् ।१८। उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति जीवस्य परिणामिन:। तत: स्वयं स दाता न परतो न कदाचन।१९।=ज्ञान दर्शन और चारित्र का न तो इन्द्रियों के विषयों से हरण होता है, और न गुरुओं की निरन्तर सेवा से उनकी उत्पत्ति होती है, किन्तु इस जीव के परिणमनशील होने से प्रति समय इसके गुणों की पर्याय पलटती हैं इसलिए मतिज्ञान आदि का उत्पाद न तो स्वयं जीव ही कर सकता है और न कभी पर पदार्थ से ही उनका उत्पाद विनाश हो सकता है।
द्रव्यसंग्रह/टीका/२२/६७/३ तदेव (निश्चय सम्यक्त्वमेव) कालत्रयेऽपि मुक्ति कारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति।=वह निश्चय सम्यक्त्व ही सदा तीनों कालों में मुक्ति का कारण है। काल तो उसके अभाव में वीतराग चारित्र का सहकारीकारण भी नहीं हो सकता।
- परिणमन में उपादान की योग्यता ही प्रधान है
प्रवचनसार/मूल/व तत्वप्रदीपिका/१६९ कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा। गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिमिदा। (जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कन्धा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति।=कर्मत्व के योग्य स्कन्ध जीव की परिणति को प्राप्त करके कर्मभाव को प्राप्त होते हैं, जीव उनको परिणमाता नहीं।१६९। अर्थात् जीव उसको परिणमाने वाला नहीं होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने वाले की योग्यता या शक्ति वाले पुद्गल स्कन्ध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं।
इष्टोपदेश/मूल/२ योग्योपादानयोगेन दृषद: स्वर्णता मता। द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता।२। =जिस प्रकार स्वर्णरूप पाषाण में कारण; योग्य उपादानरूप करण के सम्बन्ध से पाषाण भी स्वर्ण हो जाता है, उसी तरह द्रव्यादि चतुष्टयरूप सुयोग्य सम्पूर्ण सामग्री के विद्यमान होने पर निर्मल चैतन्य स्वरूप आत्मा की उपलब्धि हो जाती है। (मो.पा./२४)
प्रवचनसार/ तत्वप्रदीपिका/४४ केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते।=केवली भगवान् के बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहने, बैठना, विहार और धर्म देशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं।
परीक्षामुख/२/९ स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति।९।=जाननेरूप अपनी शक्ति के क्षयोपशमरूप अपनी योग्यता से ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की जुदी जुदी रीति से व्यवस्था कर देता है। इसलिए विषय तथा प्रकाश आदि उसके कारण नहीं हैं। (श्लोकवार्तिक/२/१/६/४०-४१/३९४); (श्लोकवार्तिक/१/६/२९/३७७/२३); (प्रमाण परीक्षा/पृष्ठ ५२,६७); (प्रमेय कमल मार्तण्ड पृष्ठ १०५); (न्यायदीपिका/२/५/२७); (स्याद्वादमंजरी/१६/२०९/१०)
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१०६/१६८/१२ शुद्धात्मस्वभावरूपव्यक्तियोग्यतासहितानां भव्यानामेव न च शुद्धात्मरूपव्यक्तियोग्यतारहितानामभव्यानाम् ।=शुद्धात्मस्वभावरूप व्यक्तियोग्यता सहित भव्यों को ही वह चारित्र होता है, शुद्धात्मस्वभावरूप व्यक्तियोग्यता रहित अभव्यों को नहीं।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीवतत्व प्रदीपिका/५८०/१०२२/१० में उद्धृत–निमित्तान्तरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता। बहिर्निश्चयकालस्तु निश्चितं तत्त्वदर्शिभि:।१।=तीहिं वस्तुविषै तिष्ठती परिणमनरूप जो योग्यता सो अन्तरंग निमित्त है बहुरि तिस परिणमन का निश्चयकाल बाह्य निमित्त है, ऐसे तत्त्वदर्शीनिकरि निश्चय किया है।
- निमित्त के सद्भाव में भी परिणमन तो स्वत: ही होता है
प्रवचनसार/तत्वप्रदीपिका/९५ द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनान्तरङ्गसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।=जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थाएँ करता है वह-अन्तरंग साधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से अनुगृहीत होने पर उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ उत्पाद से लक्षित होता है। (प्रवचनसार/तत्वप्रदीपिका/९६, १२४)।
पंचास्तिकाय/तत्वप्रदीपिका/७९ शब्दयोग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समन्ततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरङ्गकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ता: शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमन्त इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कन्धप्रभवत्वमिति।=एक दूसरे में प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो स्वभावनिष्पन्न अनन्तपरमाणुमयी शब्दयोग्य वर्गणाएँ, उनसे समस्त लोक भरपूर होने पर भी जहाँ-जहाँ बहिरंग कारणसामग्री उचित होती है वहाँ-वहाँ वे वर्गणाएँ शब्दरूप से स्वयं परिणमित होती हैं; इसलिए शब्द नियतरूप से उत्पाद्य होने से स्कन्धजन्य है। (और भी देखें - कारण / III / ३ / १ )
- अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता
- उपादान की कथंचित् प्रधानता
- उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव
धवला/९/४, १, ४४/११५/७ ण चोवायाणकारणेण विणा कज्जुप्पत्ती, विरोहादो।=उपादान कारण के बिना, कार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है।
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/६०/११२/१२ परस्परोपादानकर्तृत्वं खलु स्फुटम् । नैव विनाभूते संजाते तु पुनस्ते द्रव्यभावकर्मणी द्वे। कं बिना। उपादानकर्तारं बिना, किंतु जीवगतरागादिभावानां जीव एव उपादानकर्ता द्रव्यकर्मणां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गल एवेति।=जीव व कर्म में परस्पर उपादान कर्तापना स्पष्ट है, क्योंकि बिना उपादानकर्ता के वे दोनों द्रव्य व भाव कर्म होने सम्भव नहीं हैं। तहाँ जीवगत रागादि भावकर्मों का तो जीव उपादानकर्ता है और द्रव्य कर्मों का कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल उपादानकर्ता है।
- उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है
धवला/६/१,९-६/१९/१६४ तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जुप्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो। =कहीं भी अन्तरंग कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए (क्योंकि बाह्यकारणों से उत्पत्ति मानने में शाली के बीज से जौ की उत्पत्ति का प्रसंग होगा)। - अन्तरंग कारण ही बलवान है
धवला/१२/४, २, ७४८/३६/६ ण केवलमकसायपरिणामो चेव अणुभागघादस्स कारणं, किं पयडिगयसत्तिसव्वपेक्खो परिणामो अणुभागघादस्स कारणं। तत्थ वि पहाणमंतरंगकारणं, तम्हि उक्कस्से संते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागघाददंसणादो, अंतरंगकारणे थोवे संते बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागघादाणुवलंभादो।=केवल अकषाय परिणाम ही (कर्मों के) अनुभागघात का कारण नहीं है, किन्तु प्रकृतिगत शक्ति की अपेक्षा रखने वाला परिणाम अनुभागघात का कारण है। उसमें भी अन्तरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होने पर बहिरंग कारण के स्तोक रहने पर भी अनुभाग घात बहुत देखा जाता है। तथा अन्तरंग कारण के स्तोक होने पर बहिरंग कारण के बहुत होते हुए भी अनुभागघात बहुत नहीं उपलब्ध होता।
धवला/१४/५,६, ९३/९०/१ ण बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावो। तं कुदो णव्वदे। तदभावे वि अंतरंगहिंसादो चेव सित्थमच्छस्स बंधुवलभादो। जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं। तम्हा अंतरंग हिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्धं। ण च अंतरंगहिंसा एत्थ अत्थि कसायासंजमाणमभावादो।=(अप्रमत्त जनों को) बहिरंग हिंसा आस्रव रूप नहीं होती? प्रश्न–यह किस प्रमाण से जाना जाता है? उत्तर–क्योंकि बहिरंग हिंसा का अभाव होने पर भी केवल अन्तरंग हिंसा से सिक्थमत्स्य के बन्ध की उपलब्धि होती है। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नय से अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है, बहिरंग नहीं यह बात सिद्ध होती है। यहाँ (अप्रमत्त साधुओं में) अन्तरंग हिंसा नहीं है, क्योंकि कषाय और असंयम का अभाव है।
प्रवचनसार/तत्वप्रदीपिका/२२७ यस्य... सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात् स्वयमनशन एव स्वभाव:। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात्...।=समस्त अनशन की तृष्णा से रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अन्तरंग की विशेष बलवत्ता है।
प्रवचनसार/तत्वप्रदीपिका/२३८ आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम्। =आगम ज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान और संतत्व की युगपतता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम संमत करना।
स्याद्वाद मंजरी/७/६३/२२ पर उद्धृत—अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च।=अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अन्तरंग अर्थ को मुख्य कहते हैं।
स्वयम्भू स्तोत्र/५९ की टीका पृष्ठ १५६ अनेन भक्तिलक्षणशुभपरिणामहीनस्य पूजादिकं न पुण्यकारणं इत्युक्तं भवति। तत: अभ्यन्तरङ्गशुभाशुभजीवपरिणामलक्षणं कारणं केवलं बाह्यवस्तुनिरपेक्षम्। =इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भक्तियुक्त शुभ परिणामों से रहित पूजादिक पुण्य के कारण नहीं होते हैं। अत: बाह्य वस्तुओं से निरपेक्ष जीव के केवल अन्तरंग शुभाशुभ परिणाम ही कारण है।
- विघ्नकारी कारण भी अन्तरंग ही हैं
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/९२ यदयं स्वयमात्मा धर्मो भवति स खलु मनोरथ एव, तस्य त्वेका बहिर्मोदृष्टिरेव विहन्त्री।=यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तव में मनोरथ है। इसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोदृष्टि ही है।
द्रव्यसंग्रह/टीका/३५/१४४/२ परमसमाधिर्दुर्लभ:। कस्मादिति चेत्तत्प्रतिबन्धकमिथ्यात्वविषयकषायनिदानबन्धादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति।=परमसमाधि दुर्लभ है। क्योंकि परमसमाधि को रोकने वाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबन्ध आदि जो विभाव परिणाम हैं, उनकी जीव में प्रबलता है।
द्रव्यसंग्रह/टीका/५६/२२५/५ नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुभूतिप्रतिबन्धकं शुभाशुभचेष्टारूपं कायव्यापारं... वचनव्यापारं...चित्तव्यापारं च किमपि मा कुरूत हे विवेकिजना:।=नित्य निरञ्जन निष्क्रिय निज शुद्धात्मा की अनुभूति के प्रतिबन्धक जो शुभाशुभ मन वचन काय का व्यापार उसे हे विवेकीजनो ! तुम मत करो।
- उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव
- उपादान की कथंचित् परतन्त्रता
- निमित्त की अपेक्षा रखने वाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता
स्याद्वाद मजरी/५/३०/११ समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं समर्थं करोतीति चेत्, न तर्हि तस्य सामर्थ्यम्; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् । सापेक्षमसमर्थम् इति न्यायात् ।=यदि ऐसा माना जाये कि समर्थ होने पर भी अमुक सहकारी कारणों के मिलने पर ही पदार्थ अमुक कार्य को करता है तो इससे उस पदार्थ की असमर्थता ही सिद्ध होती है, क्योंकि वह दूसरों के सहयोग की अपेक्षा रखता है, न्याय का वचन भी है कि ‘‘जो दूसरों की अपेक्षा रखता है। वह असमर्थ है।
- व्यावहारिक कार्य करने में उपादान निमित्तों के आधीन है
तत्वार्थसूत्र/१०/८ धर्मास्तिकायाभावात् ।=धर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव लोकान्त से ऊपर नहीं जाता। (विशेष देखें - धर्माधर्म )
पभू../सू./१/६६ अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विह आणइ विहि णेइ।६६।=हे जीव ! यह आत्मा पंगु के समान है। आप न कहीं जाता है, न आता है। तीनों लोकों में इस जीव को कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है।
आप्तपरीक्षा/११४-११५/२९६-२९७/२४६-२४७ जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति, स परतन्त्रीक्रियते वा यैस्तानि कर्माणि।...तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीवस्य पारतन्त्र्यनिमित्तत्वात्, निगडादिवत्। क्रोधादिभिर्व्यभिचार इति चेत्, न,....पारतन्त्र्यं हि क्रोधादिपरिणामो न पुन: पारतन्त्र्यनिमित्तम्।२९६। ननु च ज्ञानावरण...जीवस्वरूपघातित्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वं न पुनर्नामगोत्रसद्वेद्यायुषाम् तेषामात्मस्वरूपाघातित्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वासिद्धेरिति पक्षाव्यापको हेतु:।...न; तेषामपि जीवस्वरूपसिद्धत्वप्रतिबन्धत्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वोपपत्ते:। कथमेवं तेषामघातिकर्मत्वं। इति चेत्, जीवन्मुक्तलक्षणपरमार्हन्त्यलक्ष्मीघातित्वाभावादिति ब्रूमहे।२९७।=जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। वे सब पुद्गलपरिणामात्मक हैं, क्योंकि वे जीव की परतन्त्रता में कारण हैं जैसे निगड (बेड़ी) आदि। प्रश्न–उपयुक्त हेतु क्रोधादि के साथ व्यभिचारी है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि जीव के क्रोधादि भाव स्वयं परतन्त्रता है, परतन्त्रता का कारण नहीं।२९६। प्रश्न–ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म ही जीवस्वरूप घातक होने से परतन्त्रता के कारण हैं, नाम गोत्र आदि अघाति कर्म नहीं, क्योंकि वे जीव के स्वरूपघातक नहीं हैं। अत: उनके परतन्त्रता की कारणता असिद्ध है और इसलिए (उपरोक्त) हेतु पक्षव्यापक है? उत्तर–नहीं, क्योंकि नामादि अघातीकर्म भी जीव सिद्धत्वस्वरूप के प्रतिबन्धक हैं, और इसलिए उनके भी परतन्त्रता की कारणता उपपन्न है। प्रश्न–तो फिर उन्हें अघाती कर्म क्यों कहा जाता है? उत्तर–जीवन्मुक्तिरूप आर्हन्त्यलक्ष्मी के घातक नहीं हैं, इसलिए उन्हें हम अघातिकर्म कहते हैं। (रा.वा./५/२४/९/४८८/२०), (गो.जी./जी.प्र./२४४/५०८/२)।
समयसार/आत्मख्याति/२७९/कलश २७५ न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्त:। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव, वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।२७५।=सूर्यकान्त मणि की भाँति आत्मा अपने को रागादि का निमित्त कभी भी नहीं होता। (जिस प्रकार वह मणि सूर्य के निमित्त से ही अग्नि रूप परिणमन करती है, उसी प्रकार आत्मा को भी रागादिरूप परिणमन करने में) पर-संग ही निमित्त है। ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है।
प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/५ इन्द्रियमन:परोपदेशावलोकादिबहिरङ्गनिमित्तभूतात् ....उपलब्धेरर्थावधारणरूप ... यद्विज्ञानं तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते।=इन्द्रिय, मन, परोपदेश तथा प्रकाशादि बहिरंग निमित्तों से उपलब्ध होने वाला जो अर्थाविधारण रूप विज्ञान वह पराधीन होने के कारण परोक्ष कहा जाता है।
द्रव्यसंग्रह/टीका/१४/४४/१० (जीवप्रदेशानां) विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति।=(जीव के प्रदेशों का संहार तथा) विस्तार शरीर नामक नामकर्म के आधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है। इस कारण जीव के इस शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का (संहार या) विस्तार नहीं होता है।
स्वयम्भू स्तोत्र/टीका/६२/१६२ ‘‘उपादानकारणं सहकारिकारणमपेक्षते। तच्चोपादानकारणं न च सर्वेण सर्वमपेक्ष्यते। किन्तु यद्येन अपेक्ष्यमाणं दृश्यते तत्तेनापेक्ष्यते।’’ =उपादानकारण सहकारीकारण की अपेक्षा करता है। सर्व ही उपादान कारणों से सभी सहकारीकारण अपेक्षित होते हों सो भी नहीं। जो जिसके द्वारा अपेक्ष्यमाण होता है वही उसके द्वारा अपेक्षित होता है।
- जैसा-जैसा कारण मिलता है वैसा-वैसा ही कार्य होता है–
राजवार्तिक/४/४२/७/२५१/१२ नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तद्व्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव।=जीवों के सर्व भेद प्रभेद स्वत: नहीं हैं, क्योंकि पर की अपेक्षा के अभाव में उन भेदों की व्यक्ति का अभाव है। इसलिए अनन्त परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। यह बात न स्वत: होती है और न परकृत ही है।
धवला/१२/४, २, १३, २४३/४५३/७ कधमेगो परिणामो भिण्णकज्जकारओ। ण सहकारिकारणसंबंधभेएणतस्स तदविरोहादो।=प्रश्न–एक परिणाम भिन्न कार्यों को करने वाला कैसे हो सकता है (ज्ञानावरणीय के बन्ध योग्य परिणाम आयु कर्म को भी कैसे बाँध सकता है) ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, सहकारी कारणों के संबन्ध से उसके भिन्न कार्यों के करने में कोई विरोध नहीं है। (पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/७६/१३४)–( देखें - पीछे कारण / II / १ / ९ )।
- उपादान को ही स्वयं सहकारी मानने में दोष—
आप्तमीमांसा/२१ एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेत्ति चेन्न यथा कार्यं बहिरन्तरुपाधिभि:।२१। =पूर्वोक्त सप्तभंगी विषै विधि निषेधकरि अनवस्थित जीवादि वस्तु हैं सो अर्थ क्रिया को करै हैं। बहुरि अन्यवादी केवल अन्तरंग कारण से ही कार्य होना मानै तैसा नाहीं है। वस्तु को सर्वथा सत् या सर्वथा असत् मानने से, जैसा कार्य सिद्ध होना बाह्य अन्तरंग सहकारी कारण अर उपादान कारणनि करि माना है तैसा नाहीं सिद्ध होय है। तिसकी विशेष चर्चा अष्टसहस्री तै जानना। ( देखें - धर्माधर्म / ३ तथा काल/२) यदि उपादान को ही सहकारी कारण भी माना जायेगा तो लोक में जीव पुद्गल दो ही द्रव्य मानने होंगे।
- निमित्त की अपेक्षा रखने वाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता
- उपादान की कथंचित् स्वतन्त्रता
- निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता
- निमित्त के उदाहरण
- षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव
तत्वार्थसूत्र/५/१७-२२ गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार:।१७। आकाशस्यावगाह:।१८। शरीरवाङ्मन:प्राणापाना: पुद्गला नाम।१९। सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहाश्च।२०। परस्परोपग्रहो जीवानाम्।२५। वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य।२२। =(जीव व पुद्गल की) गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।१७। अवकाश देना आकाश का उपकार है।१८। शरीर, वचन, मन और प्राणापान पुद्गलों का उपकार है।१९। सुख दुःख जीवन और मरण ये भी पुद्गलों के उपकार हैं।२०। परस्पर निमित्त होना यह जीवों का उपकार है।२१। वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।२०। (गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल/६०५-६०६/१०५०, १०६०), (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/२०८-२१०)
सर्वार्थसिद्धि/५/२०/२८९/२ एतानि सुखादीनि जीवस्य पुद्गलकृत उपकार:, मूर्त्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्ते:।...पुद्गलानां पुद्गलकृत उपकार इति। तद्यथा-कंस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरय:प्रभृतीनामुदकादिभिरुपकार: क्रियते। च शब्द:....अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा शरीराणि एवं चक्षुरादीनीन्द्रियाण्यपीति।२०। ... परस्परोपग्रह:। जीवानामुपकार:। क: पुनरसौ। स्वामी भृत्य:, आचार्य: शिष्य: इत्येवमादिभावेन वृत्ति: परस्परोपग्रह:। स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते। भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिपेधेनच। आचार्य उपदेशदर्शनेन... क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या आचार्याणाम् । ...पूर्वोक्तसुखादिचतुष्टयप्रदर्शनार्थं पुन: उपग्रह वचनं क्रियते। सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति।२१।=ये सुखादिक जीव के पुद्गलकृत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त्त कारणों के रहने पर ही इनकी उत्पत्ति होती है। (इसके अतिरिक्त) पुद्गलों का भी पुद्गलकृत उपकार होता है। यथा-कांसे आदि का राख आदि के द्वारा, जल आदि के द्वारा उपकार किया जाता है। पुद्गलकृत और भी उपकार हैं, इसके समुच्चय के लिए सूत्र में ‘च’ शब्द दिया है। जिस प्रकार शरीरादिक पुद्गलकृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुद्गलकृत उपकार हैं। परस्पर का उपग्रह करना जीवों का उपकार है। जैसे स्वामी तो धन आदि देकर और सेवक उसके हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके एक दूसरे का उपकार करते हैं। आचार्य उपदेश द्वारा तथा क्रिया में लगाकर शिष्यों का और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करते हैं। इनके अतिरिक्त सुख आदिक भी जीव के जीवकृत उपकार हैं। (गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीव तत्व प्रदीपिका/६०५-६०६/१०६०-१०६२) (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/टीका/२०८-२१०)
वसुनन्दि श्रावकाचार/३४ जीवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंचकायाई। जीवो सत्ताभूओ सो ताणं ण कारणं होइ।३४।
द्रव्यसंग्रह/टीका/अधिकार २ की चूलिका/७८/२ पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीरवाङ्मन:प्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वन्तीति कारणानि भवन्ति। जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् ।=पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किन्तु जीव सत्तास्वरूप है उनका कारण नहीं है।३४। उपरोक्त पाँचों द्रव्यों में से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, नि:श्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तनारूप कार्य क्रम से धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुद्गलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। जीव द्रव्य यद्यपि गुरु शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है, फिर भी पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है। (पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/२७/५७/१२)।
- द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप निमित्त
कषायपाहुड१/२४५/२८९/३ पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे। तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माहं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धं।=प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभाव का विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है।
( देखें - बन्ध / ३ ) कर्मों का बन्ध भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।
( देखें - उदय / २ / ३ ) कर्मों का उदय भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।
- निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना
सर्वार्थसिद्धि/५/१९/२८६/९ तत्सामर्थ्योपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणा: पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति।=इस प्रकार की (भाव वचन की) सामर्थ्य से युक्त क्रियावाले आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचनरूप से परिणमन करते हैं। (गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीवतत्व प्रदीपिका/६०६/१०६२/३)।
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/१/६/१५ वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं। भव्यपुण्यप्रेरणात् । =प्रश्न–वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि में प्रवृत्ति किस कारण से होती है ? उत्तर–भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा से।
- निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध
समयसार/मूल/३१२-३१३ चेया उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ।३१२। एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोण्णपच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।३१३।=आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा का और प्रकृति का बन्ध होता है, और इससे संसार होता है।
धवला/२/१, १/४१२/११ तथोच्छवासनि:श्वासप्राणपर्याप्तयो:। कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिघातव्य इति।=उच्छ्वासनि:श्वास: प्राण कार्य है और आत्मा उपादान कारण है तथा उच्छ्वासनि:श्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादाननिमित्तक है।
समयसार/आत्मख्याति/२८६-२८७ यथाध:कर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्न च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे...इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं प्रत्याचष्टे।...एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभाव:। =जैसे अध: कार्य से उत्पन्न और उद्देश्य से उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा नैमित्तिकभूत बन्ध साधक भाव का प्रत्याख्यान नहीं करता, इसी प्रकार समस्त परद्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होने वाले भाव को (भी) नहीं त्यागता।... इस प्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा, जैसे नैमित्तिकभूत बन्धसाधक भाव का प्रत्याख्यान करता है, उसी प्रकार समस्त परद्रव्यों का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव को निमित्तनैमित्तिकपना है।
समयसार/आत्मख्याति/३१२-३१३ एवमनयोरात्मप्रकृतयो: कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्ट:, तत: संसार:, तत एव च कर्तृकर्मव्यवहार:। =यद्यपि उन आत्मा और प्रकृति के कर्ताकर्मभाव का अभाव है तथापि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव से दोनों के बन्ध देखा जाता है। इससे संसार है और यह ही उनके कर्ताकर्म का व्यवहार है। (पं.ध./उ./१०७१)
समयसार/आत्मख्याति/३४९-३५० यतो खलु शिल्पी सुवर्णकारादि: कुण्डलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति ...न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्त्रभोग्यत्वव्यवहार:। =जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि) कुण्डल आदि जो परद्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है, किन्तु अनेक द्रव्यत्व के कारण उनसे अन्य होने से तन्मय नहीं होता; इसलिए निमित्तनैमित्तिक भावमात्र से ही वहाँ कर्तृकर्मत्व का और भोक्ताभोक्तृत्व का व्यवहार है।
- अन्य सामान्य उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि/३/२७/२२३/२ किंहेतुकौ पुनरसौ। कालहेतुकौ।=ये वृद्धि ह्रास काल के निमित्त से होते हैं। (राजवार्तिक /३/२७/१९१/२६)
ज्ञानार्णव/२४/२० शाम्यन्ति जन्तव: क्रूरा बद्धवैरा परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुने: साम्यप्रभावत:।२०।=इस साम्यभाव के प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनि के निकट परस्पर वैर करने वाले क्रूर जीव भी साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं।
- षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव
- निमित्त की कथंचित् गौणता
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते
धवला ६/१ ९-६,१९/१६४/७ कुदो। पयडिविसेसादो। ण च सव्वाइं कज्जाइं एयंतेण बज्झत्थमवेक्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाइ्ं दव्वाइं तिसु वि कालेसु कहिं पि अत्थि, जेसिं बलेण सालिबीजस्स जवंकुरप्पायणसत्ती होज्ज, अणवत्थापसंगादो।=प्रश्न—(इन सर्व कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध इतना इतना क्यों है। जीव परिणामों के निमित्त से इससे अधिक क्यों नहीं हो सकता) ? उत्तर–क्योंकि प्रकृति विशेष होने से सूत्रोक्त प्रकृतियों का यह स्थिति बन्ध होता है। सभी कार्य एकान्त से बाह्य अर्थ की अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालिधान्य के बीज से जौ के भी अंकुर की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु उस प्रकार के द्रव्य तीनों ही कालों में किसी भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बल से शालिधान्य के बीज के जौ के अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा।
- धर्मादि द्रव्य उपकारक हैं प्रेरक नहीं
पंचास्तिकाय/मूल/८८-८९ ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदिगदिस्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।८८। विज्जदि जसि गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि। ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।८९।=धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्य को गमन नहीं कराता। वह जीवों तथा पुद्गलों को गति का उदासीन प्रसारक (गति प्रसार में उदासीन निमित्त) है।८८। जिनको गति होती है उन्हीं को स्थिति होती है। वे तो अपने-अपने परिणामों से गति और स्थिति करते हैं। (इसलिए धर्म व अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति व स्थिति में मुख्य हेतु नहीं (तत्व प्रदीपिका टीका)।
राजवार्तिक/५/७/४-६/४४६ निष्क्रियत्वात् गतिस्थिति-अवगाहनक्रियाहेतुत्वाभाव इति चेत्; न; बलाधानमात्रत्वादिन्द्रियवत् ।४।...यथा दिदृक्षोश्चक्षुरिन्द्रियं रूपोपलब्धौ बलाधानमात्रमिष्टं न तु चक्षुष: तत्सामर्थ्यम् इन्द्रियान्तरोपयुक्तस्य तद्भावात् ।...तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यायपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिवृत्तौ बलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामीनि। कुत: पुनरेतदेवमिति चेत् । उच्यतेद्रव्यसामर्थ्यात् ।५। यथा आकाशमगच्छत् सर्वद्रव्यै: संबद्धम्, न चास्य सामर्थ्यमन्यस्यास्ति। तथा च निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्यादिक्रियानिवृत्तिं प्रतिबलाधानमात्रत्वमसाधारणमवसेयम् ।
राजवार्तिक/५/१७/१६/४६२/५ तयो: कर्तृत्वप्रसंग इति चेत्, न; उपकारवचनाद् यष्ट्यादिवत् ।१६।... जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।... ततश्च मन्यामहे न प्रधानकर्तांरौ इति।१७।=प्रश्न–क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदि की गति और स्थिति में निमित्त देखे गये हैं, अत: निष्क्रिय धर्माधर्मादि गति स्थिति में निमित्त कैसे हो सकते हैं? उत्तर–जैसे देखने की इच्छा करने वाले आत्मा को चक्षु इन्द्रिय बलाधायक हो जाती है, इन्द्रियान्तर में उपयुक्त आत्मा को वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूप से परिणमन करने वाले द्रव्यों की गति आदि में धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामर्थ्य से गमन न करने पर भी सभी द्रव्यों से सम्बद्ध है और सर्वगत कहलाता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों की भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए। जैसे यष्टि चलते हुए अन्धे की उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी प्रकार धर्मादिकों को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता। इससे जाना जाता है कि ये दोनों प्रधान कर्ता नहीं हैं। (राजवार्तिक/५/१७/२४/४६३/३१)।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल/५७०/१०१५ य ण परिणमदि समं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेतु।५७०।=काल न तो स्वयं अन्य द्रव्यरूप परिणमन करता है और न अन्य को अपने रूप या किसी अन्य रूप परिणमन कराता है। नाना प्रकार के परिणामों युक्त ये द्रव्य स्वयं परिणमन कर रहे हैं, उनको काल द्रव्य स्वयं हेतु या निमित्त मात्र है।
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/२४/५०/११ सर्वद्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणामं गच्छन्तां शीतकाले स्वयमेवाध्ययनक्रियां कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमणक्रियां कुर्वाणस्य कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्बहिरङ्गनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति।=सर्व द्रव्यों को जो कि निश्चय से स्वयं ही परिणमन करते हैं; उनके बहिरंग निमित्त रूप होने से वर्तना लक्षणवाला यह कालाणु निश्चयकाल होता है। जिस प्रकार शीतकाल में स्वयमेव अध्ययन क्रिया परिणत पुरुष के अग्नि सहकारी होती है, अथवा स्वयमेव भम्रणक्रिया करने वाले कुम्भार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला सहकारी होती है, उसी प्रकार यह निश्चय कालद्रव्य भी, स्वयमेव परिणमने वाले द्रव्यों को बाह्य सहकारी निमित्त है। (पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/८५/१४२/१५)।
- अन्य भी उदासीन कारण धर्मद्रव्यवत् ही जानने
इष्टोपदेश/मूल/३५ नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ।=जो पुरुष अज्ञानी या तत्त्वज्ञान के अयोग्य है वह गुरु आदि पर के निमित्त से विशेष ज्ञानी नहीं हो सकता। और जो विशेष ज्ञानी है, तत्त्वज्ञान की योग्यता से सम्पन्न है वह अज्ञानी नहीं हो सकता। अत: जिस प्रकार धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों के गमन में उदासीन निमित्तकारण है, उसी प्रकार अन्य मनुष्य के ज्ञानी करने में गुरु आदि निमित्त कारण हैं।
पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/८५/१४२/१५ धर्मस्य गतिहेतुत्वे लोकप्रसिद्धदृष्टान्तमाह–उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं ...भव्यानां सिद्धगते: पुण्यवत्...अथवा चतुर्गतिगमनकाले द्रव्यलिङ्गादिदानपूजादिकं वा बहिरङ्गसहकारिकारणं भवति।८५।=धर्म द्रव्य के गति हेतुत्वपने में लोकप्रसिद्ध दृष्टान्त कहते हैं–जैसे जल मछलियों के गमन में सहकारी है (और भी देखें - धर्माधर्म / २ ), अथवा जैसे भव्यों को सिद्ध गति में पुण्य सहकारी है; अथवा जैसे सर्व साधारण जीवों को चतुर्गति गमन में द्रव्य लिंग व दान पूजादि बहिरंग सहकारी कारण हैं; (अथवा जैसे शीतकाल में स्वयं अध्ययन करने वाले को अग्नि सहकारी है, अथवा जैसे भ्रमण करने वाले कुम्भार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला उदासीन कारण है (पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/५०/११-देखें - कारण III.2.2 )–उसी प्रकार जीव पुद्गल की गति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है।
द्रव्यसंग्रह/टीका/१८/५६/९ सिद्धभक्तिरूपेणेह पूर्वं सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरंगसहकारिकारणं भवति तथैव...अधर्मद्रव्यं स्थिते: सहकारिकारणं।=सिद्ध भक्ति के रूप के पहिले सविकल्पावस्था में सिद्ध भगवान् भी जैसे भव्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं, तैसे ही अधर्म द्रव्य जीवपुद्गलों को ठहरने में सहकारी कारण होता है।
- बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे
धवला १/१,१,१६३/४०३/१२ मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात्।=मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता। ऐसा न्याय भी है जो स्वत: असमर्थ होता है वह दूसरों के सम्बन्ध से भी समर्थ नहीं हो सकता।
बोधपाहुड/६०/पृष्ठ १५३/१४ पं॰ जयचन्द–अपना भला बुरा अपने भावनि के अधीन है। उपादान कारण होय तो निमित्त भी सहकारी होय। अर उपादान न होय तौ निमित्त कछू न करै है। (भावपाहुड/२/पं.जयचन्द/पृष्ठ १५९/२) (और भी देखें - कारण / II / १ / ७ )।
- सहकारी कारण को कारण कहना उपचार है
राजवार्तिक/हिंदी/९/२७/७२९ में श्लोकवार्तिक से उद्धृत— अन्य के नेत्रनि को ज्ञान का कारण सहकारी मात्र उपचारकरि कहा है। परमार्थ तै ज्ञान का कारण आत्मा ही है। देखें - कारण / II / १ / ७ में श्लो॰ वा॰।
- सहकारी कारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है
राजवार्तिक/१/२/१४/२०/१८ आभ्यन्तर आत्मीय: सम्यग्दर्शनपरिणाम: प्रधानम्, सति तस्मिन् बाह्यस्योपग्राहकत्वात् । अतो बाह्य आभ्यन्तरस्योपग्राहक: पारार्थ्येन वर्तत इत्यप्रधानम् ।=सम्यग्दर्शनपरिणाम रूप आभ्यन्तर आत्मीय भाव ही तहाँ प्रधान है कर्म प्रकृति नहीं। क्योंकि उस सम्यग्दर्शन के होने पर वह तो उपग्राहक मात्र है। इसलिए बाह्य कारण आभ्यन्तर का उपग्राहक होता है और परपदार्थ रूप से वर्तन करता है, इसलिए अप्रधान होता है।
- सहकारी को कारण मानना सदोष है—
समयसार/आत्मख्याति २६५ न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यं वस्तु बन्धहेतु: स्यात् ईर्यासमितिपरिणतपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिङ्गवत् बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकान्तिकत्वात् ।=यद्यपि बाह्य वस्तु बन्ध के कारण का (अर्थात् अध्यवसान का) कारण है, तथापि वह बन्ध का कारण नहीं है। क्योंकि ईर्यासमिति में परिणमित मुनीन्द्र के चरण से मर जाने वाले किसी कालप्रेरित जीव की भाँति बाह्य वस्तु को बन्ध का कारणत्व मानने में अनैकान्तिक हेत्वाभासत्व है। अर्थात् व्यभिचार आता है। (श्लोकवार्तिक /२/१/६/२९/३७३/११)
पंचाध्यायि/उतरार्ध ८०१ अत्राभिप्रेतमेवैतत्स्वस्थितिकरणं स्वत:। न्यायात्कुतश्चिदत्रापि हेतुस्तत्रानवस्थिति: ।८०१।=इस स्वस्थितिकरण के विषय में इतना ही अभिप्राय है कि स्थितिकरण स्वयमेव ही होता है। यदि इसका भी न्यायानुसार कोई न कोई कारण मानेंगे तो अनवस्था दोष आता है।८०१।
- सहकारी कारण अहेतुवत् होता है
पंचाध्यायी/उतरार्ध/३५१,६७९ मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेन्द्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् ।३५१। अस्त्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तदक्षति:। तदापि न बहिर्वस्तु स्यात्तद्धेतुरहेतुत:।६७९।=मति ज्ञानादि के उत्पन्न होने के समय आत्मा उपादान कारण है और देह, इन्द्रिय, तथा उन इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ केवल बाह्य हेतु हैं, अत: वे अहेतु के बराबर हैं।३५१। केवल अपने उपादान हेतु से ही चारित्र की क्षति अथवा चारित्र की अक्षति होती है। उस समय भी बाह्य वस्तु उस क्षति अक्षति का कारण नहीं है। और इसलिए दीक्षादेशादि देने अथवा न देनेरूप बाह्य वस्तु चारित्र की क्षति अक्षति के लिए अहेतु है।६७९।
- सहकारी कारण तो निमित्त मात्र होता है
सर्वार्थसिद्धि /१/२०/१२१/३ (श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में मतिज्ञान निमित्तमात्र है।) (राजवार्तिक /१/२०/४/७१/१)
राजवार्तिक /१/२/११/२०/८ (बाह्य साधन उपकरणमात्र है)
राजवार्तिक /५/७/४/४४६/१८ (जीव पुद्गल की गति स्थिति आदि कराने में धर्म अधर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य इन्द्रियवत् बलाधानमात्र है।)
नयचक्र वृहद्/१३० में उद्धृत–(सराग व वीतराग परिणामों की उत्पत्ति में बाह्य वस्तु निमित्तमात्र है।)
समयसार/आत्मख्याति/८० (जीव व पुद्गल कर्म एक दूसरे के परिणामों में निमित्तमात्र होते हैं।) (समयसार/आत्मख्याति/९१) (प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१८६) (पुरूषार्थसिद्धि उपाय/१२) (समयसार/तात्पर्यवृत्ति/१२५) ।
पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/६७ (जीव के सुख-दुःख में इष्टानिष्ट विषय निमित्तमात्र है।)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/२१७ (प्रत्येक द्रव्य के निज-निज परिणाम में बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है)
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५७६ (सर्व द्रव्य अपने भावों के कर्ता भोक्ता है, पर भावों के कर्ताभोक्तापना निमित्तमात्र है।)
- निमित्त परमार्थ में अकिंचित्कर व हेय है
राजवार्तिक /१/२/१३/२०/१५ (क्षायिक सम्यक्त्व अन्तर परिणामों से ही होता है, कर्म पुद्गल रूप बाह्य वस्तु हेय है।)
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/११९ (पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मभावरूप परिणमित होता है। तहाँ निमित्तभूत जीव द्रव्य हेयतत्त्व है।)
प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/१४३ (जीव की सिद्ध गति उपादान कारण से ही होती है। तहाँ काल द्रव्य रूप निमित्त हेय है) (द्रव्यसंग्रह/टीका/२२/६७/४)
- भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं
श्लोकवार्तिक/२/१/६/४०/३९४ चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।४०। वैशेषिक व नैयायिक लोग इन्द्रियों को प्रमिति का कारण मानकर उन्हें प्रमाण कहते हैं। परन्तु जड़ होने के कारण वे ज्ञप्ति के लिए साधकतम करण कभी नहीं हो सकते।
समयसार/आत्मख्याति/२९४ आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तृरात्मन: करणमीमांसायां निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासभवाद् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् ।=आत्मा और बन्ध के द्विधा करने रूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसके कारण सम्बन्धी मीमांसा करने पर, निश्चय से अपने से भिन्न करण का अभाव होने से भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है।
समयसार/आत्मख्याति/३०८-३११ सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पादकभावाभावात् ।=सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य उत्पादक भाव का अभाव है।
परीक्षामुख/२/६-८ नार्थालोकौ कारण परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्।६। तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोऽण्डुक ज्ञानवन्नक्तंचरज्ञानवच्च।७। अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ।८।=अन्वयव्यतिरेक से कार्यकारणभाव जाना जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार ‘प्रकाश’ ज्ञान में कारण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव में भी रात्रि को विचरने वाले बिल्ली चूहे आदि को ज्ञान पैदा होता है और उसके सद्भाव में भी उल्लू वगैरह को ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार अर्थ भी ज्ञान के प्रति कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थ के अभाव में भी केशमशकादि ज्ञान उत्पन्न होता है। दीपक जिस प्रकार घटादिकों से उत्पन्न न होकर भी उन्हें प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होकर उन्हें प्रकाशित करता है। (न्यायदीपिका/२/४-५/२६)
- द्रव्य के परिणमन को सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है
समयसार/मूल/१२१-१२३ ण सयं बद्धो कम्मे ण परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अपरिणामी तदा होदी।१२१। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसाररस अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।१२२। सांख्यमतानुसारी शिष्य के प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई ! ‘यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है’ यदि तेरा यह मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है और जीव स्वयं क्रोधादि भावरूप नहीं परिणमता होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है। अथवा सांख्य मत का प्रसंग आता है।१२१-१२२। और पुद्गल कर्मरूप जो क्रोध है वह जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं न परिणमते हुए को वह कैसे परिणमन करा सकता है।१२३।
समयसार/आत्मख्याति/३३२-३३४ एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमाना: केचिच्छ्रमणाभासा: प्ररूपयन्ति;तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्ते: जीव: कर्तेति श्रुते: कोपो दु:शक्य: परिहर्तुम् ।=इस प्रकार ऐसे सांख्यमत को अपनी प्रज्ञा के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी एकान्त प्रकृति के कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकान्त से अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए ‘जीव कर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है।
समयसार/आत्मख्याति/३७२/कलश २२१ रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धय:।२२१।=जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्धज्ञान से रहित अन्ध है मोहनदी को पार नहीं कर सकते।२२१।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५६६-५७१ अथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टान्ता:।५६६। अपि भवति बन्ध्यबन्धकभावो यदि वानयोर्न शङ्क्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तद्बन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वात् ।५७०। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथ:। न यत: स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया।५७१।=(जीव व शरीर में परस्पर बन्ध्यबन्धक या निमित्त नैमित्तिक भाव मानकर शरीर को व्यवहारनय से जीव का कहना नयाभास अर्थात् मिथ्या नय है, क्योंकि अनेक द्रव्य होने से उनमें वास्तव में बन्ध्य बन्धक भाव नहीं हो सकता। निमित्त नैमित्तिक भाव भी असिद्ध है क्योंकि स्वयं परिणमन करने वाले को निमित्त से क्या प्रयोजन)
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते
- कर्म व जीवगत कारण कार्य भाव की गौणता
- जीव के भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं
पंचास्तिकाय/मूल/६५ अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं। गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।६५।=आत्मा अपने रागादि भाव को करता है। वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में अन्योन्य अवगाहरूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। (प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१८६)
समयसार/मूल/८०-८१ जीवपरिणामहेदुं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेव जीवो वि परिणमइ।८०। णवि कुव्वइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोह्णं पि।८१।=पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म के निमित्त से परिणमन करता है।८०। जीव कर्म के गुणों को नहीं करता। उसी तरह कर्म भी जीव के गुणों को नहीं करता। परन्तु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणमन जानो।८१। (समयसार/मूल/९१,११९) (समयसार/आत्मख्याति/१०५,११९) (पुरूषार्थ सिद्धि उपाय/१२)
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१८७ यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृत: शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्त: कर्मपुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैर्ज्ञानावरणादिभावै: परिणमन्ते। अत: स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न पुनरात्मकृतम् ।=(मेघ जल के संयोग से स्वत: उत्पन्न हरियाली व इन्द्रगोप आदिवत्) जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है तब अन्य, योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं। इससे कर्मों की विचित्रता का होना स्वभावकृत है किन्तु आत्मकृत नहीं।
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१६९ जीवपरिणाममात्रं बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कन्धा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति।=बहिरंगसाधनरूप से जीव के परिणामों का आश्रय लेकर, जीव उसको परिणमाने वाला न होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कन्ध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं। (पंचास्तिकाय/तत्वप्रदीपिका/६५-६६), (समयसार/आत्मख्याति/९१)
पंचाध्यायी/उतरार्ध/२९७ सति तत्रोदये सिद्धा: स्वतो नोकर्मवर्गणा:। मनो देहेन्द्रियाकारं जायते तन्निमित्तत:।२९७।=उस पर्याप्ति नामकर्म का उदय होने पर स्वयंसिद्ध आहारादि नोकर्मवर्गणाएँ उसके निमित्त से मन देह और इन्द्रियों के आकार रूप हो जाती हैं।
- ११ वें गुणस्थान में अनुभागोदय में हानिवृद्धि रहते हुए भी जीव के परिणाम अवस्थित रहते हैं
लब्धिसार/जीवतत्व प्रदीपिका/३०७/३८९ अत: कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्युपशान्तकषाये एतच्चतुस्त्रिंशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवी भवति, कदाचिद्धीयते, कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां विना एकादृश एवावतिष्ठते।= (यद्यपि तहाँ परिणामों की अवस्थिति के कारण शरीर वर्ण आदि २५ प्रकृतियें भी अवस्थित रहती हैं परन्तु) अब शेष ज्ञानावरणादि ३४ प्रकृतियें भवप्रत्यय हैं। उपशान्तकषायगुणस्थान के अवस्थित परिणामों की अपेक्षा रहित पर्याय का ही आश्रय करके इनका अनुभाग उदय इहाँ तीन अवस्था लिए है। कदाचित् हानिरूप हो है, कदाचित् वृद्धिरूप हो है, कदाचित् अवस्थित जैसा का तैसा रहे है।
- जीव व कर्म में बध्यघातक विरोध नहीं है
योगसार/अमितगति/९/४९ न कर्म हन्ति जीवस्य न जीव: कर्मणो गुणान् । बध्यघातकभावोऽस्ति नान्योन्यं जीवकर्मणो:।=न तो कर्म जीव के गुणों का घात करता है और न जीव कर्म के गुणों का घात करता है। इसलिए जीव और कर्म का आपस में बध्यघातक सम्बन्ध नहीं है।
- जीव व कर्म में कारणकार्य मानना उपचार है
धवला ६/१/९,१-८/११/५ मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो।=जो मोहित होता है वह मोहनीय कर्म है। प्रश्न–इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए;क्योंकि, जीव से अभिन्न और कर्म ऐसी संज्ञावाले पुद्गलकर्म में उपचार से कर्मत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है।
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१२१-१२२ तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात् ।१२१। परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण:।... परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण:।१२२।=आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।१२१। परमार्थत: आत्मा अपने परिणामस्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है किन्तु पुद्गल परिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं।... (इसी प्रकार) परमार्थत: पुद्गल अपने परिणामस्वरूप उस द्रव्यकर्म का ही कर्ता है किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्म का कर्ता नहीं है।१२२। (समयसार/मूल/१०५)
- ज्ञानियों का कर्म अकिंचित्कर है
समयसार/मूल/१६९ पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।१६९। =उस ज्ञानी के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं। (विशेष देखें - विभाव / ४ / २ )
आत्मानुशासन/१६२-१६३ निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ।१६२। जीविताशा धनाशा च तेषां येषां विधिर्विधि:। किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता।१६३।=निर्धनत्व ही जिनका धन है और मृत्यु ही जिनका जीवन है (अर्थात् इनमें साम्यभाव रखते हैं) ऐसे साधुओं को एक मात्र ज्ञानचक्षु खुल जाने पर यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।१६२। जिनको जीने की या धन की आशा है उनके लिए ही ‘दैव’ दैव है, पर निराशा ही जिनकी आशा है ऐसे वीतरागियों को यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।१६३।
- मोक्षमार्ग में आत्मपरिणामों की विवक्षा प्रधान है कर्मों की नहीं
राजवार्तिक/१/२/१०-१/२०/३ औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामत्वात् मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यक्त्वकर्मपर्याय: पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् ।१०।...स्यादेतत्...सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्त: सम्यक्त्वपुद्गलनिमित्तश्च, तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति; तन्न, किं कारणम् । उपकरणमात्रत्वात् ।=औपशमिकादिसम्यग्दर्शन सीधे आत्मपरिणामस्वरूप होने से मोक्ष के कारण रूप से विवक्षित होते हैं, सम्यक्त्व नाम कर्म की पर्याय नहीं क्योंकि परद्रव्य की पर्याय होने के कारण वह तो पौद्गलिक है। प्रश्न–सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति जिस प्रकार आत्मपरिणाम से होती है, उसी प्रकार सम्यक्त्वनामा कर्म के निमित्त से भी होती है, अत: उसको भी मोक्षकारणपना प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि वह तो उपकरणमात्र है।
- कर्मों की उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्न साध्य हैं
सर्वार्थसिद्धि/२/३/१५२/१० अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् ...। ‘आदि’ शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते। =प्रश्न–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? उत्तर–काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बताते हैं (देखें - नियति / २)। आदि शब्द से जातिस्मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए ( देखें - सम्यग्दर्शन / III / २ )।
सर्वार्थसिद्धि/१०/२/४६६/५ कर्माभावो द्विविध:–यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति। तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्य: असत्त्वात् । यत्नसाध्य इत ऊर्ध्वमुच्यते। असंयतसम्यग्दृष्टयादिषु सप्तप्रकृतिक्षय: क्रियते।=कर्म का अभाव दो प्रकार का है–यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य। इनमें से चरमदेहवाले के नरकायु तिर्यंचायु और देवायु का अभाव यत्नसाध्य नहीं है, क्योंकि इसके उनका सत्त्व उपलब्ध नहीं होता। यत्नसाध्य का अभाव इनसे आगे कहते हैं-असंयतदृष्टि आदि चार गुणस्थानों में सात प्रकृतियों का क्षय करता है। (आगे भी १०वें गुणस्थान में यथायोग्य कर्मों का क्षय करता है (देखें - सत्त्व )।
पंचाध्यायी/उतरार्ध/३७९,९३२,९२६ प्रयत्नमन्तरेणापि दृङ्मोहोपशमो भवेत् । अन्तर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ।३७९। तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो दृङ्मोहस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।९३२। अस्त्युदयो यथानादे: स्वतश्चोपशमस्तथा। उदय: प्रथमो भूय: स्यादर्वागपुनर्भवात् ।९२६।= उक्त कारण सामग्री के मिलते ही (अर्थात् दैव व कालादिलब्धि मिलते ही) प्रयत्न के बिना भी गुणश्रेणी निर्जरा के अनुसार केवल अन्तर्मुहूर्त काल में ही दर्शनमोहनीय का उपशम हो जाता है।३७९। इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही अपने आप होते हैं, एक दूसरे के निमित्त से नहीं।९३२। जिस तरह अनादिकाल से स्वयं मोहनीय का उदय होता है उसी तरह उपशम भी काललब्धि के निमित्त से स्वयं होता है। इस तरह मुक्ति होने के पहले उदय और उपशम बार-बार होते रहते हैं।
- जीव के भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं
- निमित्त की कथंचित् प्रधानता
- निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी वस्तुभूत है
आप्तमीमांसा/२४ अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते। कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते।२४।=अद्वैत एकान्तपक्ष होनेतै (अर्थात् जगत् एक ब्रह्म के अतिरिक्त कोई नहीं है, ऐसा मानने से) कर्ता कर्म आदि कारकनि के बहुरि क्रियानि के भेद जो प्रत्यक्ष प्रमाण करि सिद्ध है सो विरोधरूप होय है। बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तौ आप ही कर्ता आप ही कर्म होय। अर आप ही तै आपकी उत्पत्ति नाहीं होय। (और भी देखें - कारण / II / ३ / २ ), (अष्टसहस्री पृष्ठ १४९,१५९) (स्याद्वाद मंजरी/१६/१९७/१७१)
श्लोकवार्तिक २/१/७/१३/५६५/१ तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबन्ध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित।=व्यवहारनय का आश्रय लेने पर संयोग समवाय सम्बन्धों के समान दो में ठहरने वाला कारणकार्यभाव सम्बन्ध भी प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है केवल कल्पना आरोपित ही नहीं है।
- कारण के बिना कार्य नहीं होता
राजवार्तिक/१०/२/१/६४०/२७ मिथ्यादर्शनादीनां पूर्वोक्तानां कर्मास्रवहेतूनां निरोधे कारणाभावात् कार्याभाव इत्यभिनवकर्मादानाभाव:।=मिथ्यादर्शन आदि पूर्वोक्त आस्रव के हेतुओं का निरोध हो जाने पर नूतन कर्मों का आना रुक जाता है? क्योंकि कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है।
धवला १/१,१,६३/३०६/९ अप्रमत्तादीनां संयतानां किमित्याहारककाययोगी न भवेदिति चेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् ।=प्रश्न–प्रमादरहित संयतों के आहारककाययोग क्यों नहीं होता है? उत्तर–क्योंकि तहाँ उसे उत्पन्न कराने में निमित्त कारण का (असंयम की बहुलता का) अभाव है।
धवला १२/४,२,१३,१७/३८२।२ ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जदि अइप्पसंगादो।=कारण के बिना कहीं भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है; क्योंकि, वैसा होने में अतिप्रसंग दोष आता है। (उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट प्रदेश बन्ध होने का प्रकरण है)।
ध.६/१,९-९/६,७/४२१/३ णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तुमुप्पदेंति। मूलसूत्र ६/ उप्पज्जमाणं सव्वं हि कज्जं कारणादो चेव उप्पज्जदि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्तिविरोहादो। एवं णिच्छिदकारणस्स तस्संखाविसयमिदं पुच्छासुत्तं।=नारकी मिथ्यादृष्टि जीव कितने कारणों से प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं। सूत्र ६।। उत्पन्न होने वाला सभी कार्य कारण से ही उत्पन्न होता है क्योंकि कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति का विरोध है। इस प्रकार निश्चित कारण की संख्या विषयक यह पृच्छा सूत्र है।
धवला ६/१,९-९,३०/४३०/९ णइसग्गिमवि पढमसम्मत्तं तच्चट्ठे उत्तं, तं हि एत्थेव दट्ठव्वं, जाइस्सरण-जिणबिंबदंसणेहिं विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो।=नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व का भी पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जाति-स्मरण और जिनबिम्बदर्शनों के बिना उत्पन्न होने वाला प्रथम नैसर्गिक सम्यक्त्व असम्भव है। (सम्यक्त्व के कारणों के लिए देखें - सम्यग्दर्शन / III / २ )
धवला ७/२,१,१८/७०/९ ण च कारणेण बिणा कज्जाणामुप्पत्ती अत्थि।...तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि बि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो।=कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारण रूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए।
धवला ९/४,१,४४/११७/६ ण च णिक्कारणाणि, कारणेण बिणा कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो।...ण च कारणविरोहीण तक्कज्जेहिविरोहो जुज्जदे कारणविरोहादुवारेणेव सव्वत्थ कज्जेसु विरोहुवलंभादो। =यदि कहा जाय कि जन्म जरादिक अकारण हैं, सो भी ठीक नहीं है;क्योंकि, कारण के बिना कार्यों की उत्पत्ति का विरोध है जो कारण के साथ अविरोधी हैं उनका उक्त कारण के कार्यों के साथ विरोध उचित नहीं है;क्योंकि, कारण के विरोध के द्वारा ही सर्वत्र कार्यों में विरोध पाया जाता है।
स्याद्वाद मंजरी /१६/१९७/१७ द्विष्ठसंबन्धसंवित्तिर्नैकरूपप्रवेदनात् । द्वयो: स्वरूपग्रहणे सति संबन्धवेदनम्। इति वचनात् ।=दो वस्तुओं के सम्बन्ध में रहने वाला ज्ञान दोनों वस्तुओं के ज्ञान होने पर ही हो सकता है। यदि दोनों में से एक वस्तु रहे तो उस सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता।
न्याय दीपिका/२/४/२७ न हि किंचित्स्वस्मादेव जायते।=कोई भी वस्तु अपने से ही पैदा नहीं होती, किन्तु अपने से भिन्न कारणों से पैदा होती है।
देखें - नय / V / ९ / ५ उपादान होते हुए भी निमित्त के बिना मुक्ति नहीं।
- उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/९२ द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे... उत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।=जिसने पूर्वावस्था को प्राप्त किया है, ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता है, वह उत्पाद से लक्षित होता है। (प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका /१०२,१२४)।
- उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता
धवला /१/१,१,३३/२३३/२ सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवै: रूपाद्युपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिवृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् ।=जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार है। (यद्यपि यह क्षयोपशम ही जीव की ज्ञान के प्रति उपादानभूत योग्यता है, देखें - कारण (I/१८) परन्तु ऐसा मान लेनेपर भी जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसंग भी नहीं आता है;क्योंकि, रूपादिक के ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्यनिर्वृत्ति (इन्द्रिय) जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में नहीं पायी जाती है।
- निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं है
स्वयम्भू स्तोत्र/मूल/५९ यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न।५१।=जो बाह्य वस्तु गुण दोष या पुण्य-पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अन्तरंग में वर्तने वाले गुणदोषों की उत्पत्ति के अभ्यन्तर मूल हेतु की अंगभूत होती है। (अर्थात् उपादान को सहकारी कारणभूत होती है)। उसकी अपेक्षा न करके केवल अभ्यन्तर कारण उस गुणदोष की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।
भगवती आराधना/विजयोदयी टीका/१०७०/११५९/४ बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यनन्तरकरणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते।=मन से विचारकर जब जीव बाह्य परिग्रह का स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्र से रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। यद्यपि मृत्पिण्ड से घट उत्पन्न होता है तथापि दण्डादिक कारण नहीं होंगे तो घट की उत्पत्ति नहीं होती है।
धवला१/१,१,६०/२९८/१ यतो नाहारर्द्धिरात्मनमपेक्ष्योत्पद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अपि तु संयमातिशयापेक्षया तस्या: समुत्पत्तिरिति।=आहारक ऋद्धि स्वत: की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि स्वत: से स्वत: की उत्पत्तिरूप क्रिया के होने में विरोध आता है। किन्तु संयमातिशय की अपेक्षा आहारक ऋद्धि की उत्पत्ति होती है।
कषायपाहुड १/१,१३-१४/२५६/२९५/४ ण च अण्णादो अण्णम्मि कोहो ण उप्पज्जइ; अक्कोसादो जीवेकम्मकलंकंकिए कोहुप्पत्तिदंसणादो। ण च उबलद्धे अणुववण्णदा; विरोहादो। ण कज्जं तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ; पिंडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो। ण च णिच्चं तिरोहिज्जइ; अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविब्भावो वि; परिणामवज्जियस्स अवत्थंतराभावादो। ण गद्दहस्स सिंगं अण्णेहिंतो उप्पज्जइ; तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुव्वमभावादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिप्पसंगादो। णाणुप्पत्ती सव्वाभावप्पसंगादो। ण चेव (वं); उवलब्भमाणत्तादो। ण सव्वकालमुप्पत्ती वि; णिच्चस्सुप्पत्तिविरोहादो। ण णिच्चं पि; कमाकमेहि कज्जमकुणंतस्स पमाणविसए अवट्ठाणाणुववत्तीदो। तम्हा ण्णेहिंतो अण्णस्स सारिच्छ-तब्भावसामण्णेहि संतस्स विसेससरूवेण असंतस्स कज्जस्सुप्पत्तीए होदव्वमिदि सिद्धं।=‘किसी अन्य के निमित्त से किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं होता है’ यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि १. कर्मों से कलंकित हुए जीव में कटुवचन के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पायी जाती है उसके सम्बन्ध में यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने में विरोध आता है। २. यदि कार्य को सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थ में किसी प्रकार का अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थ का आविर्भाव भी नहीं बन सकता, क्योंकि जो परिणमन से रहित है, उसमें दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। ३. ‘कारण में कार्य छिपा रहता है और वह प्रगट हो जाता है’ ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर मिट्टी के पिण्ड को विदारने पर घड़े की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। ४. ‘अन्य कारणों से गधे के सींग की उत्पत्ति का प्रसंग देना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसका पहिले से ही जिस प्रकार विशेषरूप से अभाव है उसी प्रकार सामान्यरूप से भी अभाव है। इस प्रकार जब वह सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार से असत् है तो उसकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। ५. तथा कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुपत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। ६. ‘यदि कहा जाये कि कार्य की उत्पत्ति मत होओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि (सर्वदा) कार्य की अनुत्पत्ति मानने पर सभी के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। ७. ‘यदि कहा जाये कि सभी का अभाव होता है तो हो जाओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी पदार्थों की उपलब्धि पायी जाती है। ८. यदि (दूसरे पक्ष में) यह कहा जाये कि सर्वदा सबकी उत्पत्ति होती ही रहे’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ क्रम से अथवा युगपत् कार्य को नहीं करता है वह पदार्थ प्रमाण का विषय नहीं होता है। इसलिए जो सादृश्यसामान्य और तद्भाव सामान्यरूप से विद्यमान है तथा विशेष (पर्याय) रूप से अविद्यमान है ऐसे किसी भी कार्य की, किसी दूसरे कारण से उत्पत्ति होती है यह सिद्ध हुआ।
- निमित्त के बिना कार्योत्पत्ति मानने में दोष
कषायपाहुड १/१,१३/२५६/२९५/९ ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति–अणुप्पत्तिप्पसंगादो।=कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है।
परीक्षा मुख/६/६३ समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ।=यदि पदार्थ स्वयं समर्थ होकर क्रिया करते हैं तो सदा कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि, केवल सामान्य आदि कार्य करने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते।
- सभी निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं होते
पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/८८ यथा हि गतिपरिणत: प्रभञ्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहकारित्वेन गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् ।...अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतिपरिणतस्तुरंगोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाधर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात्... उदासीन एवासौ प्रसरो भवतीति।=जिस प्रकार गति परिणत पवन ध्वजाओं के गति परिणाम का हेतुकर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म नहीं है। वह वास्तव में निष्क्रिय होने से कभी गति परिणाम को ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे (पर के) सहकारी की भाँति पर के गतिपरिणाम का हेतुकर्तृत्व कहाँ से होगा ? किन्तु केवल उदासीन ही प्रसारक है। और जिस प्रकार गतिपूर्वक स्थिति परिणत अश्व सवार के स्थिति परिणाम का हेतुकर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है उसी प्रकार अधर्म नहीं है।... वह तो केवल उदासीन ही प्रसारक है। (तात्पर्य यह कि सभी कारण धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं है। निष्क्रियकारण उदासीन होता है और क्रियावान् प्रेरक होता है)।
- निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी वस्तुभूत है
- कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव की कथंचित् प्रधानता
- जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का निर्देश
मूलाचार/९६७ जीवपरिणामहेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि।=जिनको जीव के परिणाम कारण हैं ऐसे रूपादिमान परमाणु कर्मस्वरूप से परिणमते हैं, परन्तु ज्ञानभावकरि परिणत हुआ जीव कर्मभावकरि पुद्गलों को नहीं ग्रहण करता।
समयसार/मूल/८० जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ।८०।=पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म के निमित्त से परिणमन करता है। (समयसार/मूल/३१२-३१३), (पंचास्तिकाय/मूल/६०), (नयचक्र वृहद्/८३), (योगसार/ अमितगति/३/९-१०)।
पंचास्तिकाय/मूल/१२८-१३० जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदु परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी।१२८। गदिमधिगस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं कु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।१२९। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणा सणिधणो वा।१३०।=जो वास्तव में संसार-स्थित जीव हैं उससे परिणाम होता है, परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है।१२८। गतिप्राप्त को देह होती है, देह से इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों से विषयग्रहण और विषयग्रहण से राग अथवा द्वेष होता है।१२९। ऐसे भाव संसारचक्र में जीव को अनादिअनन्त अथवा अनादि सान्त होते रहते हैं, ऐसा जिनवरों ने कहा है।१३०। (नयचक्र वृहद्/१३१-१३३); (योगसार/ अमितगति/४/२९,३१ तथा २/३३); (तत्त्वानुशासन/१६-१९); (सागार धर्मामृत/६/३१)
और भी देखो– प्रकृति बन्ध - 1.6 में परिणाम प्रत्यय प्रकृतियों के लक्षण व भेद ।
पं.ध./इ/४१,१०७१ जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्मकारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभावा: प्रत्युपकारिवत् ।४१। अस्ति सिद्धं ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणो:। निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुम्भकुलालयो:।१०७१।=परस्पर उपकार की तरह जीव के अशुद्ध रागादि भावों का कारण द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यकर्म के कारण रागादि भाव है।४१। इसलिए जिस प्रकार कुम्भ और कुम्भार में निमित्तनैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गलात्मक कर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव है यह सिद्ध होता है।१०७१। (पंचाध्यायी/उतरार्ध/१०९;१३१-१३२;१०६९-१०७०) - जीव व कर्मों की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है
धवला ७/२,१,१९/७०/९ ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अत्थि।... ततो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो। जदि एवं तो भमर-महुवर...कयंबादि सण्णिदेहि वि णामकम्मेहि होदव्वमिदि। ण एस दोसो इच्छिज्जमाणादो।=कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं है। इसलिए जितने (पृथिवी, अप्, तेज आदि) कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। प्रश्न–यदि ऐसा है तो भ्रमर, मधुकर-कदम्ब आदिक नामों वाले भी नाम कर्म होने चाहिए ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह बात तो इष्ट ही है।
धवला १०/४,२,३,१/१३/७ जा सा णोआगमदव्वकम्मवेयणा सा अट्ठविहा...। कुदो। अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादंसण...वीरियादिअंतरायकज्जस्स अण्णहाणुववत्तीदो। ण च कारणभेदेण विणा कज्जभेदो अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो।=जो वह नोआगमद्रव्यकर्मवेदना कही है, वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि के भेद से आठ प्रकार की है। क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर अज्ञान अदर्शन...एवं वीर्यादि के अन्तरायरूप आठप्रकार का कार्य जो दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि यह आठ प्रकार का कार्यभेद कारणभेद के बिना भी बन जायेगा, सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता।
कषायपाहुड १/१,१/३७/५६/४ एदस्स पमाणस्स वडि्ढहाणितरतमभावो ण ताव णिक्कारणो; वडि्ढहाण्णिहि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो।
ण च एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वांजंतं वड्ढि हाणि तरतमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।=इस ज्ञानप्रमाण का वृद्धि और हानि के द्वारा जो तरतमभाव होता है, वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञानप्रमाण में वृद्धि और हानि से होने वाले तरतमभाव को निष्कारण मान लेने पर वृद्धि और हानिरूप कार्य का ही अभाव हो जाता है। और ऐसी स्थिति में ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि एकरूप ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है। इसलिए ये तरतमता सकारण होनी चाहिए। उसमें जो हानि वृद्धि के तरतम भाव का कारण है वह आवरण कर्म है।
कषायपाहुड ४/३,२२/२९/१५/९ एगट्ठिदिबंधकालो सव्वेसिं जीवाणं समाणपरिणामो किण्ण होदि। ण, अंतरंगकारणभेदेण सरिसत्ताणुववत्तीदो। एगजीवस्स सव्वकालमेगपमाणद्धाएट्ठिदिबंधो किण्ण होदि। ण, अंतरंगकारणेसु दव्वादिसंबंधेण परियत्तमाणस्स एगम्मि चेव अंतरंगकारणे सव्वकालमवट्ठाणाभावादो।=प्रश्न–सब जीवों के एक स्थितिबन्ध का काल समान परिणामवाला क्यों नहीं होता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि अन्तरंगकारण में भेद होने से उसमें समानता नहीं बन सकती। प्रश्न–एक ही जीव के सर्वदा स्थितिबन्ध एक समान काल वाला क्यों नहीं होता है? उत्तर–नहीं; क्योंकि, यह जीव अन्तरंग कारणों में द्रव्यादि के सम्बन्ध से परिवर्तन करता रहता है, अत: उसका एक ही अन्तरंग कारण में सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है।
कषायपाहुड ४/१,२२/४४/२४/५ सो केण जणिदो। अणंताणुबंधीणमुदएण। अणंताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे। परिणामपचएण।=प्रश्न–वह (सासादन परिणाम) किस कारण से उत्पन्न होता है? उत्तर–अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदय से होता है। प्रश्न–अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय किस कारण से होता है? उत्तर–परिणाम विशेष के कारण से होता है।
- जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है
राजवार्तिक/५/२४/९/४८८।२१ तादात्मनोऽस्वतन्त्रीकरणे मूलकारणम् ।=वह (कर्म) आत्मा को परतन्त्र करने में मूलकारण है।
राजवार्तिक/१/३/६/२३/१६ लोके हरिशार्दूलवृकभुजगादयो निसर्गत: क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तन्ते इत्युच्यन्ते न चासावाकस्मिकी कर्मनिमित्तत्वात् ।=लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता, साँप आदि में शूरता-क्रूरता आहार आदि परोपदेश के बिना होने से यद्यपि नैसर्गिक कहलाते हैं; परन्तु वे आकस्मिक नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं।
देखें - विभाव / ३ / १ (जीव की रागादिरूप परिणति में कर्म ही मूल कारण है)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/सु./३१९ ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं। उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि।३१९।=न तो कोई देवी देवता आदि जीव को लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीव का उपकार या अपकार करते हैं।
पंचाध्यायी/उतरार्ध/२०१ स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:।=अपने-अपने ज्ञान के घात में अपने-अपने आवरण का उदय वास्तव में मूलकारण है।
- कर्म की बलवत्ता के उदाहरण
समयसार/मूल/१६१-१६३ (सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के प्रतिबन्धक क्रम से मिथ्यात्व, अज्ञान व कषाय नाम के कर्म हैं।)
भगवती आराधना/मूल/१६१० असाता के उदय में औषधियें भी सामर्थ्यहीन हैं।
सर्वार्थसिद्धि/१/२०/१०१/२ प्रबल श्रुतावरण के उदय से श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है।
परमात्मप्रकाश/मूल/१/६६,७८ इस पंगु आत्मा को कर्म ही तीनों लोकों में भ्रमण कराता है।६६। कर्म बलवान हैं, बहुत हैं, विनाश करने को अशक्य हैं, चिकने हैं, भारी हैं और वज्र के समान हैं।७८।
राजवार्तिक/१/१५/१३/६१/१५ चक्षुदर्शनावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के अवष्टम्भ (बल) से चक्षुदर्शन की शक्ति उत्पन्न होती है।
राजवार्तिक/५/२४/९/४८८/२१ सुख-दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलवान हेतु हैं।
आप्तपरीक्षा./११४-११५/२४६-२४७ कर्म जीव को परतन्त्र करने वाले हैं। (राजवार्तिक/५/२४/९/४८८/२०) (गोम्मटसार जीवकाण्ड/जीव तत्व प्रदीपिका/२४४/५०८/२)
धवला १/१,१,३३/२३४/३ कर्मों की विचित्रता से ही जीव प्रदेशों के संघटन का विच्छेद व बन्धन होता है।
धवला १/१,१,३३/२४२/८ नाम कर्मोदय की वशवर्तिता से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।
समयसार/आत्मख्याति/१५७-१५९ कर्म मोक्ष के हेतु का तिरोधान करने वाला है।
समयसार/आत्मख्याति/२,४,३१,३२, क ३ इत्यादि (इन सर्व स्थलों पर आचार्य ने मोहकर्म की बलवत्ता प्रगट की है)
समयसार/आत्मख्याति/८९ जीव के लिए कर्म संयोग ऐसा ही है जैसा स्फटिक के लिए तमालपत्र।
तत्त्वार्थ सार/८/३३ ऊर्ध्व गमन के अतिरिक्त अन्यत्र गमनरूप क्रिया कर्म के प्रतिघात से तथा निज प्रयोग से समझनी चाहिए।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/२११ कर्म की कोई ऐसी शक्ति है कि इससे जीव का केवलज्ञान स्वभाव नष्ट हो जाता है।
द्रव्यसंग्रह/टीका/१४/४४/१० जीव प्रदेशों का विस्तार कर्माधीन है, स्वाभाविक नहीं।
स्याद्वाद मंजरी/१७/२३८/६ स्व ज्ञानावरण के क्षयोपशमविशेष के वश से ज्ञान की निश्चित पदार्थों में प्रवृत्ति होती है।
पंचाध्यायी/उतरार्ध/१०५,३२८,६८७,८७४,९२५ जीव विभाव में कर्म की सामर्थ्य ही कारण है।१०५। आत्मा की शक्ति की बाधक कर्म की शक्ति है।३२८। मिथ्यात्व कर्म ही सम्यक्त्व का प्रत्यनीक (बाधक) है।६८७। दर्शनमोह के उपशमादि होने पर ही सम्यक्त्व होता है और नहीं होने पर नहीं ही होता है।८७४। कर्म की शक्ति अचिन्त्य है।९२५।
समयसार/३१७/कलश १९८/पं. जयचन्द–जहाँ तक जीव की निर्बलता है तहाँ तक कर्म का जोर चलता है।
समयसार/१७२/कलश ११६/पं. जयचन्द–रागादि परिणाम अबुद्धिपूर्वक भी कर्म की बलवत्ता से होते हैं।
– देखें - विभाव / ३ / १ –(कर्म जीव का पराभव करते हैं)
- जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं
राजवार्तिक/१/१५/१३/६१/१५ इस चक्षुषा चक्षुर्दर्शनावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामावष्टम्भाद् अविभावितविशेषसामर्थ्येन किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोचनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते बालवत् ।=चक्षुदर्शनावरण और वीर्यान्तराय इन दो कर्मों के क्षयोपशम से तथा साथ-साथ अंगोपांग नामकर्म के उदय से होने वाला सामान्य अवलोकन चक्षुदर्शन कहलाता है।
पंचाध्यायी/उतरार्ध/२०१-२०२ सत्यं स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:। कर्मान्तरोदयापेक्षो नासिद्ध: कार्यकृद्यथा।२०१। अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्युदयक्षते:। तथा वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽनुदयादपि।२०२।=जैसे अपने-अपने घात में अपने-अपने आवरण का उदय मूलकारण है वैसे ही वह ज्ञानावरण आदि दूसरे कर्मों के उदय की अपेक्षा सहित कार्यकारी होता है, यह भी असिद्ध नहीं है।२०१। जैसे जो मत्यादिक ज्ञान ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से होता है वैसे ही वह वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से भी होता है।२०२।
- कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं
राजवार्तिक/७/२१/२५/५४९/२७ यद्यभ्यन्तरसंयमघातिकर्मोदयोऽस्ति तदुदयेनावश्यमनिवृत्तपरिणामेन भवितव्यं ततश्च महाव्रतत्वमस्य नोपपद्यत इति मतम्; तन्न; किं कारणम्, उपचारात् राजकुले सर्वगतंचैत्रवत् ।=प्रश्न–(छठे गुणस्थानवर्ती संयत को) यदि संयतघाती कर्म का उदय है तो अवश्य ही उसे अविरति के परिणाम होने चाहिए। और ऐसा होने पर उसके महाव्रतत्वपना घटित नहीं होता (अत: संज्वलन के उदय के सद्भाव में छठे गुणस्थानवर्ती साधु को महाव्रती कहना उचित नहीं है)। उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि राजकुल में चैत्र या खोजे पुरूष को सर्वगत कहने की भाँति यहाँ उपचार से उसे महाव्रती कहा जाता है।
धवला /१२/४,२,१३,२५४/४५७/६ ण च सुहुमसांपराइय मोहणीय भावो अत्थि, भावेण विणा दव्वकम्मस्स अत्थित्तविरोहादो सुहुससांपराइयसण्णाणुवत्तीदो वा।=सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में मोहनीय का भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि भाव के बिना द्रव्यकर्म के रहने का विरोध है, अथवा वहाँ भाव के न मानने पर ‘सूक्ष्मसांपरायिक’ यह संज्ञा ही नहीं बनती है।
नोट–(यद्यपि मूल सूत्र नं. २५४ ‘‘तस्स मोहणीयवेयणाभावदो णत्थि’’ के अनुसार वहाँ मोहनीय का भाव नहीं है। परन्तु यह कथन नय विवक्षा से आचार्य वीरसेन स्वामी ने समन्वित किया है। तहाँ द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से सत् का ही विनाश होने के कारण उस गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीय के भाव का भी विनाश हो जाता है और पर्यायार्थिक नय असत् अवस्था में ही अभाव या विनाश स्वीकार करता होने के कारण उसकी अपेक्षा वह मोहनीय का भाव उस गुणस्थान के अन्तिम समय में है और उपशान्तकषाय या क्षीणकषाय के प्रथम समय में विनष्ट होता है। विशेष–देखो उत्पाद - 2.7)
लब्धिसार/जीव तत्व प्रदीपिका/३०४/३८४/१९ द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मण: संभवेन तयो: कार्यकारणभावप्रसिद्धे:।=(उपशान्त कषाय गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। तदुपरान्त अवश्य ही मोहकर्म का उदय आता है जिसके कारण वह नीचे गिर जाता है।) नियमकरि द्रव्यकर्म के उदय के निमित्ततै संक्लेशरूप भाव कर्म प्रगट हो है। इसलिए दोनों में कार्यकारणभाव सिद्ध है।
- जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का निर्देश
- निमित्त के उदाहरण
- कारण कार्य भाव समन्वय
- उपादान निमित्त सामान्य विषयक
- कार्य न सर्वथा स्वत: होता है न सर्वथा परत:
राजवार्तिक/४/४२/७/२५१/७ पुद्गलानामानन्त्यात्तत्तत्पुद्गलद्रव्यमपेक्ष्य एकपुद्गलस्थस्य तस्यैकस्यैव पर्यायस्यान्यत्वभावात् । यथा प्रदेशिन्या: मध्यमाभेदाद् यदन्यत्वं न तदेव अनामिकाभेदात् । मा भूत् मध्यमानामियोरकत्वं मध्यमाप्रदेशिन्यन्यत्वहेतुत्वेनाविशेषादिति। न चैतत्परावधिकमेवार्थसत्त्वम् । यदि मध्यमासामर्थ्यात् प्रदेशिन्या: ह्रस्वत्वं जायते शशविषाणेऽपि स्याच्छक्रयष्टौ वा। नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तदव्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव। एवं जीवोऽपि कर्मनोकर्मविषयवस्तूपकरणसंबन्धभेदाभेदाविर्भूतजीवस्थानगुणस्थानविकल्पानन्तपर्यायरूप: प्रत्येतव्य:। =जैसे अनन्त पुद्गल सम्बन्धियों की अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुलि अनेक भेदों को प्राप्त होती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणों के सम्बन्ध से जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुण्डली आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है। प्रदेशिनी अंगुलि में मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिका की अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पर रूप का भेद जुदा-जुदा है। मध्यमा ने प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा शशविषाण में भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वत: ही उसमें ह्रस्वत्व था, अन्यथा मध्यमा के अभाव में भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी। तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य ही तत्तत्सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। (यहाँ द्रव्य की विभिन्नता में सहकारी कारणता का स्थान दर्शाते हुए कहा गया है कि वह न स्वत: है न परत:। इसी प्रकार क्षेत्र, काल व भाव में भी लागू कर लेना चाहिए)
- प्रत्येक कार्य अन्तरंग व बाह्य दोनों कारणों के सम्मेल से होता है
स्वयम्भू स्तोत्र/मूल/३३.५९,६० अलङ्घ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा।...।३३। यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न।५९। बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगत: स्वभाव:। नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां, तेनाभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ।६०।=अन्तरंग व बाह्य इन दोनों हेतुओं के अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है।३३। जो बाह्य वस्तु गुण दोष अर्थात् पुण्य पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अन्तरंग में वर्तनेवाले गुणदोषों की उत्पत्ति के आभ्यन्तर मूलहेतु की अंगभूत है। केवल अभ्यन्तर कारण ही गुणदोषों की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।५९। कार्यों में बाह्य और अभ्यंतर दोनों कारणों की जो यह पूर्णता है वह आपके मत में द्रव्यगत स्वभाव है। अन्यथा पुरुषों के मोक्ष की विधि भी नहीं बनती। इसी से हे परमर्षि ! आप बन्धुजनों के वन्द्य हैं।६०।
सर्वार्थसिद्धि/५/३०/३००/५ उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: भृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् ।=अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वश से प्रतिसमय जो नवीन अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्ड की घटपर्याय। (प्रवतनसार/तत्व प्रदीपिका/९५,१०२)
तिलोयपण्णति/४/२८१-२८२ सव्वाणं पयत्थाणं णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वट्टंति।२८१। बाहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सव्वदरसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठेदि।२८२।=सर्व पदार्थों के समस्त भेदों में नियम से बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तों के द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं।२८१। सर्वज्ञदेव ने सर्व पदार्थों के प्रर्वतने का बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है।२८२।
- अन्तरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण
समयसार/मूल/२७८-२७९ जैसे स्फटिकमणि तमालपत्र के संयोग से परिणमती है वैसे ही जीव भी अन्य द्रव्यों के संयोग से रागादि रूप परिणमन करता है।
समयसार/मूल/२८३-२८५ द्रव्य व भाव दोनों प्रतिक्रमण परस्पर सापेक्ष है।
राजवार्तिक/२/१/१४/१०१/२३ बाहर में मनुष्य तिर्यंचादिक औदयिक भाव और अन्तरंग में चैतन्यादि पारिणामिक भाव ही जीव के परिचायक हैं।
पंचास्तिकाय/तत्व प्रदीपिका/८८ स्वत: गमन करने वाले जीव पुद्गलों की गति में धर्मास्तिकाय बाह्य सहकारीकारण है। (द्रव्यसंग्रह/टीका/१७) (और भी देखें - निमित्त )।
- व्यवहारनय से निमित्त वस्तुभूत है पर निश्चय से कल्पना मात्र है
श्लोकवार्तिक २/१/७/१३/५६५/१ व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबन्ध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित: सर्वथाप्यनवद्यत्वात् । संग्रहर्जुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचित्कश्चित्संबन्धोऽन्यत्र कल्पनामात्रत्वात् इति सर्वमविरुद्धं। =व्यवहार नय का आश्रय लेने पर संयोग व समवाय आदि सम्बन्धों के समान दो में ठहरने वाला कार्यकारण भाव प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है, काल्पनिक नहीं। (क्योंकि तहाँ व्यवहारनय भेदग्राही होने के कारण असद्भूत व्यवहार भेदोपचार को ग्रहण करके संयोग सम्बन्ध को सत्य घोषित करता है और सद्भूत व्यवहार नय अभेदोपचार को ग्रहण करके समवाय सम्बन्ध को स्वीकार करता है) परन्तु संग्रह नय और ऋजुसूत्र नय का आश्रय करने पर कोई भी किसी का किसी के साथ सम्बन्ध नहीं है। कोरी कल्पनाएँ है। सब अपने-अपने स्वभाव में लीन हैं। यही निश्चय नय कहता है। (संग्रहनय मात्र अद्वैत एक महा सत् ग्राही होने के कारण और ऋजुसूत्रनय मात्र अन्तिम अवान्तर सत्तारूप एकत्वग्राही होने के कारण, दोनों ही द्विष्ठ नहीं देखते। तब वे कारणकार्य के द्वैत को कैसे अंगीकार कर सकते है। विशेष देखो नय)।
- निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तु स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती
राजवार्तिक/५/१/२७/४३४/२६ ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति; नैष दोष:; बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।=(धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय की यहाँ यह स्वतन्त्रता है कि ये स्वयं गति और स्थितिरूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति में स्वयं निमित्त होते हैं।) प्रश्न–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं और स्वातन्त्र्य स्वीकार कर लेने पर यह बात विरोध को प्राप्त हो जाती है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र होते हैं। (यहाँ प्रकृत में) गति आदि रूप परिणमन करने वाले जीव व पुद्गल गति आदि उपकार करने के प्रति धर्म आदि द्रव्यों के प्रेरक नहीं हैं। गति आदि कराने के लिए उन्हें उकसाते नहीं हैं।
- उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन
राजवार्तिक/२/३६/१८/१४७/७ यथा घटादिकार्योपलब्धे: परमाण्वनुमानं तथौदारिकादिकार्योपलब्धे: कार्मणानुमानम् ‘‘कार्यलिङ्ग हि कारणम्’’ (आप्तमीमांसा श्लोक ६८)। =जैसे घट आदि कार्यों की उपलब्धि होने से परमाणु रूप उपादान कारण का अनुमान किया जाता है, इसी प्रकार औदारिक शरीर आदि कार्यों की उपलब्धि होने से कर्मों रूप उपादान कारण का अनुमान किया जाता है, क्योंकि कारण को कार्यलिंगवाला कहा गया है।
श्लोकवार्तिक २/१/५/६६/२७१/३० सिद्धमेकद्रव्यात्मकचित्तविशेषाणामेकसंतानत्वं द्रव्यप्रत्यासत्तेरेव। =(सर्वथा अनित्य पक्ष के पोषक बौद्ध लोग किसी भी अन्वयी कारण से निरपेक्ष एक सन्ताननामा तत्त्व को स्वीकार करके जिस किस प्रकार सर्वथा पृथक्-पृथक् कार्यों में कारण-कार्य भाव घटित करने का असफल प्रयास करते हैं, पर वह किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होता। हाँ एक द्रव्य के अनेक परिणामों को एक सन्तानपना अवश्य सिद्ध है।) तहाँ द्रव्य नामक प्रत्यासत्तिको ही तिस प्रकार होने वाले एक सन्तानपने की कारणता सिद्ध होती है। एक द्रव्य के केवल परिणामों की एक सन्तान करने में उपादान उपादेयभाव सिद्ध नहीं होता।
- उपादान को परतन्त्र कहने का कारण व प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि/२/१९/१७७/३ लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते। अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमीति। तत: पारतन्त्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् ।=लोक में इन्द्रियों की पारतन्त्र्य विवक्षा देखी जाती है। जैसे इस आँख से मैं अच्छा देखता हूँ, इस कान से मैं अच्छा सुनता हूँ। अत: पारतन्त्र्य विवक्षा में स्पर्शन आदि इन्द्रियों का करणपना (साधकतमपना) बन जाता है (तात्पर्य ये कि लोक व्यवहार में सर्वत्र व्यवहार नय का आश्रय होने के कारण उपादान की परिणति को निमित्त के आधार पर बताया जाता है। (विशेष देखें - नय / V / ९ ) (राजवार्तिक/२/१९/१/१३१/८)।
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/९६ भेदविज्ञानरहित: शुद्धबुद्धैकस्वभावमात्मानमपि च परं स्वस्वरूपाद्भिन्नं करोति रागादिषु योजयतीत्यर्थ:। केन, अज्ञानभावेनेति।=भेद विज्ञान से रहित व्यक्ति शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी आत्मा को अपने स्वरूप से भिन्न पर पदार्थ रूप करता है (अर्थात् पर पदार्थों के अटूट विकल्प के प्रवाह में बहता हुआ) अपने को रागादिकों के साथ युक्त कर लेता है। यह सब उसका अज्ञान है। (ऐसा बताकर स्वरूप के प्रति सावधान कराना ही परतन्त्रता बताने का प्रयोजन है।)
- निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन
राजवार्तिक/१/१/५७/१५/१५ तत एवोत्पत्त्यनन्तरं निरन्वयविनाशाभ्युपगमात् परस्परसंश्लेषाभावे निमित्तनैमित्तकव्यवहारापह्नवाद् ‘अविद्याप्रत्यया: संस्कारा:’ इत्येवमादि विरुध्यते।=जिस (बौद्ध) मत में सभी संस्कार क्षणिक हैं उसके यहाँ ज्ञानादि की उत्पत्ति के बाद ही तुरन्त नाश हो जाने पर निमित्त नैमित्तिक आदि सम्बन्ध नहीं बनेंगे और समस्त अनुभव सिद्ध लोकव्यवहारों का लोप हो जायेगा। अविद्या के प्रत्ययरूप सन्तान मानना भी विरुद्ध हो जायेगा। (इसी प्रकार सर्वथा अद्वैत नित्यपक्षवालों के प्रति भी समझना। इसीलिए निमित्त नैमित्तिक द्वैत का यथा योग्यरूप से स्वीकार करना आवश्यक है।)
धवला/१२/४,२,८,४/२८१/२ एवं विह ववहारो किमट्ठं करिदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च।=प्रश्न–इस प्रकार का व्यवहार किसलिए किया जाता है। उत्तर—सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।
प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/१३३-१३४/१८९/११ अयमत्रार्थ: यद्यपि पञ्चद्रव्याणि जीवस्योपकारं कुर्वन्ति, तथापि तानि दुःखकारणान्येवेति ज्ञात्वा। यदि वाक्षयानन्तसुखादिकारणं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावं परमात्मद्रव्यं तदेव मनसा ध्येयं वचसा वक्तव्यं कायेन तत्साधकमनुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति।=यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, तथापि वे सब दुःख के कारण हैं, ऐसा जानकर; जो यह अक्षय अनन्त सुखादि का कारण विशुद्ध ज्ञानदर्शन उपयोग स्वभावी परमात्म द्रव्य है, वह ही मन के द्वारा ध्येय है, वचन के द्वारा वक्तव्य है और काय के द्वारा उसके साधक अनुष्ठान ही कर्तव्य है।
प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति/१४३/२०३/१७ अत्र यद्यपि...सिद्धगते: काललब्धिरूपेण बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन....या तु निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं न च कालस्तेन कारणेन स हेय इति भावार्थ:।=यहाँ यद्यपि सिद्ध गति में कालादि लब्धि रूप से कालद्रव्य बहिरंग सहकारीकारण होता है, तथापि निश्चयनय से जो चार प्रकार की आराधना है वही तहाँ उपादान कारण है काल नहीं। इसलिए वह (काल) हेय है, ऐसा भावार्थ है।
- कार्य न सर्वथा स्वत: होता है न सर्वथा परत:
- कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव विषयक
- जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे
योगसार अमितगति/३/११-१२ आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तथा कथम् । चेतनाय फलं दत्ते भुङ्क्ते वा चेतन: कथम् ।११। परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते। न कोऽपि सुखदु:खेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ।१२।=यदि कर्म स्वयं ही अपने को कर्ता हो तो वह आत्मा को क्यों फल देता है? वा आत्मा ही क्यों उसके फल को भोगता है?।११। क्योंकि यदि कर्म तो कोई अन्य करेगा और उसका फल कोई अन्य भोगेगा तो कोई भिन्न ही पुरुष क्यों न सुख-दुःख से मुक्त हो सकेगा।१२।
योगसार अमितगति/५/२३-२७ विदघादि परो जीव: किंचित्कर्म शुभाशुभम् । पर्यायापेक्षया भुङ्क्ते फलं तस्य पुन: पर:।२३। य एव कुरुते कर्म किंचिज्जीव: शुभाशुभम् । स एव भुजते तस्य द्रव्यार्थापेक्षया फलम् ।२४। मनुष्य: कुरुते पुण्यं देवो वेदयते फलम् । आत्मा वा कुरुते पुण्यमात्मा वेदयते फलम् ।२५। चेतन: कुरुते भुङ्क्ते भावैरौदयिकैरयम् । न विधत्ते न वा भुङ्क्ते किंचित्कर्म तदत्यये।२७।=पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा दूसरा ही पुरुष कर्म को करता है और दूसरा ही उसे भोगता है, जैसे कि मनुष्य द्वारा किया पुण्य देव भोगता है। और द्रव्यार्थिक नय से जो पुरुष कर्म करता है वही उसके फल को भोगता है, जैसे—मनुष्य भव में भी जिस आत्मा ने कर्म किया था देवभव में भी वही आत्मा उसे भोगता है।२३-२५। जिस समय इस आत्मा में औदयिक भावों का उदय होता है उस समय उनके द्वारा यह शुभ अशुभ कर्मों को करता है और उनके फल को भोगता है। किन्तु औदयिकभाव नष्ट हो जाने पर यह न कोई कर्म करता है और न किसी के फल को भोगता है।२७।
- कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं
योगसार अमितगति/३/१३ जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् । जायते भास्वरस्येव शुद्धस्य घनमण्डलम् ।१३।=जिस प्रकार ज्वलंत प्रभा के धारक भी सूर्य को मेघ मण्डल ढँक लेता है, उसी प्रकार अतिशय विमल भी आत्मा के स्वरूप को मलिन कर्म ढँक देते हैं।
- कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु
कषायपाहुड १/१-१/४२/६०/१ तं च कम्मं सहेअं, अण्णहा णिव्वावाराणं पि बंधप्पसंगादो। कम्मस्स कारणं किं मिच्छात्तासंजमकसाया होंति, आहा सम्मत्तसंजदविरायदादो।=जीव से सम्बद्ध कर्म को सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा निर्व्यापार अर्थात् अयोगियों के भी कर्मबन्ध का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। उस कर्म के कारण मिथ्यात्व असंयम और कषाय हैं, सम्यक्त्व, संयम व वीतरागता नहीं। (आप्तपरीक्षा/२/५/८)
धवला १२/४,२,८,१२/२८८/६ ण, जोगेण विणा णाणावरणीयपयडीए पादब्भावादंसणादो। जेण विणा जं णियमेण णोवलब्भदे तं तस्स कज्जं इयरं च कारणमिदि सयलणयाइयाइयअजणप्पसिद्धं। तम्हा पदेसग्गवेयणा व पयडिवेयणा वि जोग पच्चएण त्ति सिद्धं।
धवला/१२/४,२,८,१३/२८९/४ यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । तम्हा णाणावरणीयवेयणा जोगकसाएहि चेव होदि त्ति सिद्धं।=१. योग के बिना ज्ञानावरणीय की प्रकृतिवेदना का प्रादुर्भाव देखा नहीं जाता। जिसके बिना जो नियम से नहीं पाया जाता है वह उसका कारण व दूसरा कार्य होता है, ऐसा समस्त नैयायिक जनों में प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रदेशाग्रवेदना के समान प्रकृतिवेदना भी योग प्रत्यय से होती है, यह सिद्ध है। २. जो जिसके होने पर ही होता है और जिसके नहीं होने पर नहीं होता है वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। इस कारण ज्ञानावरणीय वेदना योग और कषाय से ही होती है, यह सिद्ध होता है। - वास्तव में विभाव कर्म के निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कर्म में नहीं
पंचाध्यायी/उतरार्ध/१०७२ अन्तर्दृष्टया कषायणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्त-नैमित्तिकको भाव: स्यान्न स्याज्जीवकर्मणो:।१०७२।=सूक्ष्म तत्त्वदृष्टि से कषायों व कर्मों का परस्पर में निमित्त नैमित्तिक भाव है किन्तु जीवद्रव्य तथा कर्म का नहीं।
- समकालवर्ती इन दोनों में कारणकार्य भाव कैसे हो सकता है?
धवला ७/२,१,३९/८१/१० वेदाभावलद्धीणं एक्ककालम्मि चेव उप्पज्जमाणीणं कधमाहाराहेयभावो, कज्जकारणभावो वा। ण समकालेणुप्पज्जमाणच्छायंकुराणं कज्जकारणभावदंसणादो, घडुप्पत्तीए कुसलाभावदंसणादो च। प्रश्न–वेद (कर्म) का अभाव और उस अभाव सम्बन्धी लब्धि (जीव का शुद्ध भाव) ये दोनों जब एक ही काल में उत्पन्न होते हैं, तब उनमें आधार-आधेयभाव या कार्य-कारणभाव कैसे बन सकता है? उत्तर–बन सकता है; क्योंकि, समान काल में उत्पन्न होने वाले छाया और अंकुर में, तथा दीपक व प्रकाश में (छहढाला) कार्यकारणभाव देखा जाता है। तथा घट की उत्पत्ति में कुसूल का अभाव भी देखा जाता है।
- कर्म व जीव के परस्पर निमित्तनैमित्तिकपने से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आ सकता
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/१२१ यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविध: परिणाम: स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतु:। अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतु:। द्रव्यकर्महेतु: तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनैवोपलम्भात् । एवं सतीतरेतराश्रयदोष:। न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबन्धस्यात्मन: प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।=’संसार’ नामक जो यह आत्मा का तथाविध परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकने का हेतु है। प्रश्न–उस तथाविध परिणाम का हेतु कौन है? उत्तर–द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्म की संयुक्तता से ही वह देखा जाता है। प्रश्न–ऐसा होने से इतरेतराश्रय दोष आयेगा? उत्तर–नहीं आयेगा, क्योंकि अनादि सिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्मा का जो पूर्व का द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतु रूप से ग्रहण किया गया है (और नवीनबद्ध कर्म का कार्य रूप से ग्रहण किया गया है)।
- कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष सम्भव है
द्रव्यसंग्रह/टीका/३७/१५५/१० अत्राह शिष्य:–संसारिणां निरन्तरं कर्मबन्धोऽस्ति, तथैवोदयोऽस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति। तत्र प्रत्युत्तरं। यथा शत्रो: क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्तत: पौरुषं कृत्वा शत्रुं हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति। हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रुं हन्तीति। यत्पुनरन्त:कोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयरूपेण च कर्म लघुत्वे जातेऽपि सत्ययं जीव आगमभाषया अध:प्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्म हननबुद्धिं क्वापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति।=प्रश्न–संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बन्ध व उदय पाया जाता है। अत: उनके शुद्धात्म ध्यान का प्रसंग भी नहीं है। तब मोक्ष कैसे होता है? उत्तर–जैसे कोई बुद्धिमान शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर ‘यह समय शत्रु को मारने का है’ ऐसा विचारकर उद्यम करता है वह अपने शत्रु को मारता है। इसी प्रकार–कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती। स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध की न्यूनता (काललब्धि) होने पर जब कर्म लघु व क्षीण होते हैं, उस समय कोई भव्य जीव अवसर विचारकर आगमकथित पंचलब्धि अथवा अध्यात्म कथित निजशुद्धात्म सम्मुख परिणामों नामक निर्मलभावना विशेषरूप खड्ग से पौरुष करके कर्मशत्रु को नष्ट करता है। और जो उपरोक्त काललब्धि हो जाने पर भी अध:करण आदि त्रिकरण अथवा आत्मसम्मुख परिणाम रूप बुद्धि किसी भी समय न करेगा तो यह अभव्यत्व गुण का लक्षण जानना चाहिए। - कर्म व जीव के निमित्त-नैमित्तिकपने में कारण व प्रयोजन
परमात्म प्रकाश/टीका/१/६६ अत्र वीतरागसदानन्दैकरूपात्सर्वप्रकारोपादेयभूतात्परमात्मनो यद्भिन्नं शुभाशुभकर्मद्वयं तद्धेयमिति भावार्थ:।=(यहाँ जो जीव को कर्मों के सामने पंगु बताया गया है) भावार्थ ऐसा है कि वीतराग सदा एक आनन्दरूप तथा सर्व प्रकार से उपादेयभूत जो यह परमात्म तत्त्व है, उससे भिन्न जो शुभ और अशुभ ये दोनों कर्म हैं, वे हेय हैं।
- जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे
- उपादान निमित्त सामान्य विषयक
पुराणकोष से
(1) कार्य का नियामक हेतु । इसके बिना कार्योत्पत्ति संभव नहीं होती । इसके दो भेद है― उपादान और सहकारी (निमित्त) । कार्य की उत्पत्ति मे मुख्य कारण उपादान और सहायक कारण सहकारी होता है । हरिवंशपुराण - 7.11,14
(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.149