विभाव
From जैनकोष
कर्मों के उदय से होने वाले जीव के रागादि विकारी भावों को विभाव कहते हैं। निमित्त की अपेक्षा कथन करने पर ये कर्मों के हैं और जीव की अपेक्षा कथन करने पर ये जीव के हैं। संयोगी होने के कारण वास्तव में ये किसी एक के नहीं कहे जा सकते। शुद्धनय से देखने पर इनकी सत्ता ही नहीं है।
- विभाव व वैभाविकी शक्ति निर्देश
- वैभाविकी शक्ति केवल जीव व पुद्गल में ही है।–देखें गुण - 3.8।
- वैभाविकी शक्ति केवल जीव व पुद्गल में ही है।–देखें गुण - 3.8।
- रागादिक में कथंचित् स्वभाव-विभावपना
- कषाय जीव का स्वभाव नहीं।–देखें कषाय - 2.3।
- संयोगी होने के कारण विभाव की सत्ता ही नहीं है।–देखें विभाव - 5.6।
- रागादि जीव के नहीं पुद्गल के हैं।–देखें मूर्त - 9।
- विभाव का कथंचित् सहेतुकपना
- जीव व कर्म का निमित्त-नैमित्तिकपना।–देखें कारण - III.3.5।
- जीव व कर्म का निमित्त-नैमित्तिकपना।–देखें कारण - III.3.5।
- विभाव का कथंचित् अहेतुकपना
- जीव भावों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।–देखें कारण - III.3।
- जीव भावों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।–देखें कारण - III.3।
- विभाव के सहेतुक-अहेतुकपने का समन्वय
- कर्म जीव का पराभव कैसे करता है?
- रागादि भाव संयोगी होने के कारण किसी एक के नहीं कहे जा सकते।
- ज्ञानी व अज्ञानी की अपेक्षा से दोनों बातें ठीक हैं।
- दोनों का नयार्थ व मतार्थ।
- दोनों बातों का कारण व प्रयोजन।
- विभाव का अभाव संभव है।–देखें राग - 5।
- कर्म जीव का पराभव कैसे करता है?
- विभाव व वैभाविकी शक्ति निर्देश
- विभाव का लक्षण
नयचक्र बृहद्/65 सहजादो रूवंतरगहणं जो सो हु विव्भावो।65। = सहज अर्थात् स्वभाव से रूपांतर का ग्रहण करना विभाव है।
आलापपद्धति/6 स्वभावादन्यथाभवनं विभावः। = स्वभाव से अन्यथा परिणमन करना विभाव है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/105 तद्गुणाकारसंक्रांतिर्भावा वैभाविकश्चितः। = आत्मा के गुणों का कर्मरूप पुद्गलों के गुणों के आकाररूप कथंचित् संक्रमण होना वैभाविक भाव कहलाता है।
- स्वभाव व विभाव क्रिया तथा उनकी हेतुभूता वैभाविकी शक्ति
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/श्लोक अप्यस्त्यनादिसिद्धस्य सतः स्वाभाविकी क्रिया वैभाविकी क्रिया चास्ति पारिणामिकशक्तितः।61। न परं स्यात्परायत्ता सतो वैभाविकी क्रिया। यस्मात्सतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्यैर्न शक्यते।62। ननु वैभाविकभावाख्या क्रिया चेत्पारिणामिकी। स्वाभाविक्याः क्रियायाश्च कः शेषो ही विशेषभाक्।63। नैवं यतो विशेषोऽस्ति बद्धाबद्धावबोधयोः। मोहकर्मावृतो बद्धः स्यादबद्धस्तदत्ययात्।66। ननु बद्धत्वं किं नाम किमशुद्धत्वमर्थतः। वावदूकोऽथ संदिग्धो बोध्यः कश्चिदिति क्रमात्।71। अर्थाद्वैभाविकी शक्तिर्या सा चेदुपयोगिनी। तद्गुणाकाग्संक्रांतिर्बंधः स्यादन्यहेतुकः।72। तत्र बंधे न हेतुः स्याच्छक्तिर्वैभाविकी परम्। नोपयोगापि तत्किंतु परायत्तं प्रयोजकम्।73। अस्ति वैभाविकी शक्तिस्तत्तद्द्रव्योपजीविनी। सा चेद्बंधस्य हेतुः स्यादर्थामुक्तेरसंभवः।74। उपयोगः स्यादभिव्यक्तिः शक्तेः स्वार्थाधिकारिणी। सैब बंधस्य हेतुश्चेत्सर्वो बंधः समस्यताम्।75। तस्माद्धेतुसामग्रीसांनिध्ये तद्गुणाकृतिः। स्वाकारस्य परायत्त तया बद्धोपराधवान्।76। = स्वतः अनादिसिद्ध भी सत् में परिणमनशीलता के कारण स्वाभाविक व वैभाविक दो प्रकार की क्रिया होती है।61। वैभाविकी क्रिया केवल पराधीन नहीं होती, क्योंकि द्रव्य की अविद्यमान शक्ति दूसरों के द्वारा उत्पन्न नहीं करायी जा सकती।62। प्रश्न–यदि वैभाविकी क्रिया भी सत् की परिणमनशीलता से ही होती है तो उसमें फिर स्वाभाविकी क्रिया से क्या भेद है। उत्तर–ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बद्ध और अबद्ध ज्ञान में भेद (स्पष्ट) है। मोहनीय कर्म से आवृत ज्ञान बद्ध है और उससे रहित अबद्ध है।66। प्रश्न–वस्तुतः बद्धत्व व अशुद्धत्व क्या हैं।71। उत्तर–वैभाविकी शक्ति के उपयोगरूप हो जाने पर जो परद्रव्य के निमित्त से जीव व पुद्गल के गुणों का संक्रमण हो जाता है वह बंध कहलाता है।72। [परगुणाकाररूप पारिणामिकी क्रियाबंध है और उस क्रिया के होने पर जीव व पुद्गल दोनों को अपने गुणों से च्युत हो जाना अशुद्धता है | उस बंध में केवल वैभाविकी शक्ति कारण नहीं है और न केवल उसका उपयोग कारण है, किंतु उन दोनों का परस्पर में एक दूसरे के आधीन होकर रहना ही प्रयोजक है।73। यदि वैभाविकी शक्ति ही बंध का कारण माना जायेगा, तो जीव की मुक्ति ही असंभव हो जायेगी, क्योंकि वह शक्ति द्रव्योपजीवी है।74। शक्ति की अपने विषय में अधिकार रखने वाली व्यक्तता उपयोग कहलाता है। वह भी अकेला बंध का कारण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भी सभी प्रकार का बंध उसी में समा जायेगा।75। अतः उसकी हेतुभूत समस्त सामग्री के मिलने पर अपने-अपने आकार का परद्रव्य के निमित्त से, जिसके साथ बंध होना है उसके गुणाकाररूप से संक्रमण हो जाता है। इसी से यह अपराधी जीव बँधा हुआ है।76।
- वह शक्ति नित्य है पर स्वयं स्वभाव या विभाव रूप परिणत हो जाती है
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/श्लोक ननु वैभाविकी शक्तिस्तया स्यादन्ययोगतः। परयोगाद्विना किं न स्याद्वास्ति तथान्यथा।79। सत्यं नित्या तथा शक्तिः शक्तित्वात्शुद्धशक्तिवत्। अथान्यथा सतो नाशः शक्तीनां नाशतः क्रमात्।80। किंतु तस्यास्तथाभावः शुद्धादन्योन्यहेतुकः। तन्निमित्तद्विना शुद्धो भावः स्यात्केवलं स्वतः।81। अस्ति वैभाविकी शक्तिः स्वतस्तेषु गुणेषु च। जंतोः संसृत्यवस्थायां वैकृतास्ति स्वहेतुतः।949। = प्रश्न–यदि वैभाविकी शक्ति जीव पुद्गल के परस्पर योग से बंध कराने में समर्थ होती है तो क्या पर योग के बिना वह बंध कराने में समर्थ नहीं है। अर्थात् कर्मों का संबंध छूट जाने पर उसमें बंध कराने की सामर्थ्य रहती है या नहीं। उत्तर–तुम्हारा कहना ठीक है, परंतु शक्ति होने के कारण अन्य स्वभाविकी शक्तियों की भाँति वह भी नित्य रहती है, अन्यथा तो क्रम से एक-एक शक्ति का नाश होते-होते द्रव्य का ही नाश हो जायेगा।79-80। किंतु उस शक्ति का अशुद्ध परिणमन अवश्य पर निमित्त से होता है। निमित्त के हट जाने पर स्वयं उसका केवल शुद्ध ही परिणमन होता है।81। सिद्ध जीवों के गुणों में भी स्वतः सिद्ध वैभाविकी शक्ति होती है जो जीव की संसार अवस्था में स्वयं अनादिकाल से विकृत हो रही है।949।
- स्वाभाविक व वैभाविक दो शक्तियाँ मानना योग्य नहीं
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/श्लोक ननु चेवं चैका शक्तित्तद्भावो द्विविधो भवेत्। एकः स्वभाविको भावो भावो वैभाविकी परः।83। चेदवश्यं हि द्रे शक्ति सतः स्तः का क्षतिः सताम्। स्वाभाविकी स्वभावैः स्वैः स्वैर्विभावैर्विभावजा।84। नैवं यतोऽस्ति परिणामि शक्तिजातं सतोऽखिलम्। कथं वैभाविकी शक्तिर्न स्याद्वैपारिणामिकी।88। पारिणामात्मिका काचिच्छक्तिश्चापारिणामिकी। तद्ग्राहकपमाणस्याभावात्संदृष्टयभावतः।89। तस्माद्वैभाविकी शक्तिः स्वयं स्वाभाविको भवेत्। परिणामात्मिका भावैरभावे कृत्सन्कर्मणाम्।90। = प्रश्न–इससे तो ऐसा सिद्ध होता है कि शक्ति तो एक है, पर उसका ही परिणमन दो प्रकार का होता है। एक स्वाभाविक और दूसरा वैभाविक।83। तो फिर द्रव्यों में स्वाभाविकी और वैभाविकी ऐसी दो स्वतंत्र शक्तियाँ मान लेने में क्या क्षति है, क्योंकि द्रव्य के स्वभावों में स्वाभाविकी शक्ति और उसके विभावों में वैभाविकी शक्ति यथा अवसर काम करती रहेंगी।84। उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि सत् की सब शक्तियाँ जब परिणमन स्वभावी हैं, तो फिर यह वैभाविकी शक्ति भी नित्य पारिणामिकी क्यों न होगी।88। कोई शक्ति तो परिणामी हो और कोई अपरिणामी, इस प्रकार के उदाहरण का तथा उसके ग्राहक प्रमाण का अभाव है।89। इसलिए ऐसा ही मानना योग्य है कि वैभाविकी शक्ति संपूर्ण कर्मों का अभाव होने पर अपने भावों से ही स्वयं स्वाभाविक परिणमनशील हो जाती है।90।
- स्वभाव व विभाव शक्तियों का समन्वय
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/91-93 ततः सिद्ध सतोऽवश्यं न्यायात् शक्तिद्वयं यतः। सदवस्थाभेदतो द्वैतं न द्वैतं युगपत्तयोः।91। यौगपद्येमहान् दौषस्तद्द्वयस्य नयादपि। कार्यकारणयोर्नाशो नाशः स्याद्बंधमोक्षयोः।92। नैकशक्तेर्द्विधाभावो यौगपद्यानुषंगतः। सति तत्र विभावस्य नित्यत्वं स्यादबाधितम्।93। = इसलिए यह सिद्ध होता है कि न्यायानुसार पदार्थ में दो शक्तियाँ तो अवश्य हैं, परंतु उन दोनों शक्तियों में सत् की अवस्था भेद से ही भेद है। द्रव्य में युगपत् दोनों शक्तियों का द्वैत नहीं है।91। क्योंकि दोनों का युगपत् सद्भाव मानने से महान् दोष उत्पन्न होता है। क्योंकि इस प्रकार कार्य-कारण भाव के नाश का तथा बंध व मोक्ष के नाश का प्रसंग प्राप्त होता है।92। न ही एक शक्ति के युगपत् दो परिणाम माने जा सकते हैं, क्योंकि इस प्रकार मानने से स्वभाव व विभाव की युगपतता तथा विभाव परिणाम की नित्यता प्राप्त होती है।93।
- विभाव का लक्षण
- रागादिक में कथंचित् स्वभाव-विभावपना
- कषाय चारित्रगुण की विभाव पर्याय हैं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1074, 1078 इत्येवं ते कषायाख्याश्चत्वारोऽप्यौदयिकाः स्मृताः। चारित्रस्य गुणस्यास्य पर्याया वैकृतात्मनः।1074। ततश्चारित्रमोहस्य कर्मणो ह्युदयाद्ध्रुवम्। चारित्रस्य गुणस्यापि भावा वैभाविका अमी।1078। = ये चारों ही कषायें औदयिक भाव में आती हैं, क्योंकि ये आत्मा के चारित्र गुण की विकृत पर्याय हैं।1074। सामान्य रूप से उक्त तीनों वेद (स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद) चारित्र मोह के उदय से होते हैं, इसलिए ये तीनों ही भावलिंग निश्चय से चारित्रगुण के ही वैभाविक भाव हैं।
- रागादि जीव के अपने अपराध हैं
समयसार/102, 371 जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा।102। रागो दोसो मोहो जीवस्मेव य अणण्णपरिणामा। एएण कारणेण उ सद्दादिसु णत्थि रागादि।371। = आत्मा जिस शुभ या अशुभ भाव को करता है, उस भाव का वह वास्तव में कर्ता होता है, वह भाव उसका कर्म होता है और वह आत्मा उसका भोक्ता होता है।102। ( समयसार/90 )। राग–द्वेष और मोह जीव के ही अनन्य परिणाम हैं, इस कारण रागादिक (इंद्रियों के) शब्दादिक विषयों में नहीं है।371।
समयसार / आत्मख्याति/160 अनादिस्वपुरुषापराधप्रवर्तमानवर्ममलावच्छन्नत्वात्। = अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममल के द्वारा लिप्त होने से....( समयसार / आत्मख्याति/412 )।
समयसार / आत्मख्याति/ क.नं. भुंक्षे हंत न जातु में यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बंधः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते।151।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो, भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी।187। यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः, कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधो तत्र सर्पत्यबोधो, भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।220। = हे ज्ञानी ! जो तू कहता है कि ‘‘सिद्धांत में कहा है कि पर-द्रव्य के उपभोग से बंध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ,’’ तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है?।151। जो सापराध आत्मा है वह तो नियम से अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है। निरपराध आत्मा तो भली-भाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है।187। इस आत्मा में जो राग-द्वेष रूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है;-इस प्रकार विदित हो और अज्ञान अस्त हो जाय।220।
देखें अपराध (राध अर्थात् आराधना से हीन व्यक्ति सापराध है।)
- विभाव भी कथंचित् स्वभाव है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/116 इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसंनिधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभाव निर्वृत्तैवास्ति।-यहाँ (इस जगत् में) अनादि कर्मपुद्गल की उपाधि के सद्भाव के आश्रय से जिसके प्रतिक्षण विपरिणमन होता रहता है ऐसे संसारी जीव की क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/184/247/19 कर्मबंधप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते। = कर्मबंध के प्रकरण में रागादि परिणाम भी अशुद्ध निश्चयनय से जीव के स्वभाव कहे जाते हैं। ( पंचास्तिकाय/तात्त्पर्य वृत्ति/61/113/13; 65/117/10)।
देखें भाव - 2 (औदयिकादि सर्व भाव निश्चय से जीव के स्वतत्त्व तथा पारिणामिक भाव हैं।)
- शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है?
समयसार व आ./89 मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कृत इति चेत्–उपयोगस्स अणाई परिणामा तिण्ण मोहजुत्तस्सः मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णायव्वो।89। = प्रश्न–जीवमिथ्यात्वादि चैतन्य परिणाम का विकार कैसे है? उत्तर–अनादि से मोहयुक्त होने से उपयोग के अनादि से तीन परिणाम हैं–मिथ्यात्व, अज्ञान व अरतिभाव।
- कषाय चारित्रगुण की विभाव पर्याय हैं
- विभाव का कथंचित् सहेतुकपना
- जीव के कषाय आदि विभाव सहेतुक हैं
समयसार/गा. ‘‘सम्मत्तपडिणिवद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो मिच्छदिट्ठित्ति णायव्वो।561। जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमेईहिं। रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तदीहिं दव्वेहिं।278। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं।279।- सम्यक्त्व को रोकने वाला मिथ्यात्व (कर्म) है, ऐसा जिनवरों ने कहा है, उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है।161। [इसी प्रकार ज्ञान व चारित्र के प्रतिबंधक अज्ञान व कषाय नामक कर्म हैं।162-163। ( समयसार/157-159 )]
- जैसे स्फटिकमणि शुद्ध होने से ललाई आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता, परंतु अन्य रक्तादि द्रव्यों से रक्त आदि किया जाता है, इसी प्रकार ज्ञानी अर्थात् आत्मा शुद्ध होने से रागादि रूप स्वयं नहीं परिणमता परंतु अन्य रागादि दोषों से (रागादि के निमित्तभूत परद्रव्यों से–टीका) रागी आदि किया जाता है।278-279। ( समयसार / आत्मख्याति/89 ), ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/125/179/11 ); (देखें परिग्रह - 4.3)।
पंचास्तिकाय/58 कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा। खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।58। = कर्म बिना जीव को उदय, उपशम, क्षायिक, अथवा क्षायोपशमिक (भाव) नहीं होते हैं, इसलिए (ये चारों) भाव कर्मकृत हैं।
तत्त्वार्थसूत्र/10/2 बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कुत्सन्कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः। = बंध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यंतिक क्षय होना ही मोक्ष है।
कषायपाहुड़/1/1, 13, 14/285/320/2 वत्थालंकाराइसु बज्झावलंबणेण विणा तदणुप्पत्तीदो। = वस्त्र और अलंकार आदि बाह्य आलंबन के बिना कषाय की उत्पत्ति नहीं होती है।
देखें विभाव - 1.2, 1.3 (जीव का विभाव वैभाविकी शक्ति के कारण से होता है और वह वैभाविकी शक्ति भी अन्य संपूर्ण सामग्री के सद्भाव में ही विभाव रूप परिणमन करती है।)
देखें कषाय - 2.3 (कर्म के बिना कषाय की उत्पत्ति नहीं होती है।)
देखें कारण - III.5.6 (कर्म के उदय से ही जीव उपशांत-कषाय गुणस्थान से नीचे गिरता है।)
धवला 12/4, 2, 8, 1/275/4 सव्वं कम्मं कज्जं चेव, अकज्जस्स कम्मस्स सससिंगस्सेव अभावावत्तीदी। ण च एवं, कोहादिकज्जणमत्थित्तण्णहाणुववत्तीदी कम्माणमत्थित्तसिद्धीए। कज्जं पि सव्वं सहे उअं चेव, णिक्कारणस्स कज्जस्स अणुवलंभादो। = सब कर्म कार्य स्वरूप ही हैं, क्योंकि जो कर्म अकार्यस्वरूप होते हैं, उनका खरगोश के सींग के समान अभाव का प्रसंग आता है। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि क्रोधादि रूप कार्यों का अस्तित्व बिना कर्म के बन नहीं सकता, अतएव कर्म का अस्तित्व सिद्ध ही है। कार्य भी जितना है वह सब सकारण ही होता है, क्योंकि कारण रहित कार्य पाया नहीं जाता। (आप्त, प./टी./115/299/248/7 )।
नयचक्र बृहद्/19 जीवे जीवसहाया ते वि विहावा हु कम्मकदा।1। = जीव में जीवस्वभाव होते हैं। तथा कर्मकृत उसके स्वभाव विभाव कहलाते हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1054 यत्र कुत्राषि वान्यत्र रागांशी बुद्धिपूर्वकः। स स्याद्द्वैविध्यमोहस्य पाकाद्वान्यतमोदयात्।1054। = जहाँ कहीं अन्यत्र भी अर्थात् किसी भी दशा में बुद्धिपूर्वक रागांश पाया जाता है वह केवल दर्शन व चारित्रमोहनीय के उदय से अथवा उनमें से किसी एक के उदय से ही होता है।1054।
- जीव की अन्य पर्यायें भी कर्मकृत हैं
समयसार/257-258 जो मरइ जो य दुहिदो जायदि कम्मोदयेण सो सव्वी। तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।257। जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदयेण चेव खलु। तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।258। = जो मरता है और जो दुखी होता है वह सब कर्मोदय से होता है, इसलिए ‘मैंने मारा, मैंने दुःखी किया’ ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।257। और जो न मरता है और न दुःखी होता है वह भी वास्तव में कर्मोदय से ही होता है, इसलिए ‘मैंने नहीं मारा, मैंने दुःखी नहीं किया’, ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।258।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/117 यथा खलु ज्योतिः स्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योतिः कार्य तथा कर्मस्वभावेन स्वस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्मकार्यम्। = जिस प्रकार ज्योति के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जाने वाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी प्रकार कर्मस्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं।
देखें कर्म - 3.2 - (जीवों के ज्ञान में वृद्धि हानि कर्म के बिना नहीं हो सकती।)
देखें मोक्ष - 5.4 - (जीव प्रदेशों का संकोच विस्तार भी कर्म संबंध से ही होता है।)
देखें कारण - III.5.3 - (शेर, भेड़िया आदि में शूरता-क्रूरता आदि कर्मकृत हैं।)
देखें आनुपूर्वी - (विग्रहगति में जीव का आकार आनुपूर्वी कर्म के उदय से होता है।)
देखें मरण - 5.8 - (मारणांतिक समुद्धात में जीव के प्रदेशों का विस्तार आयु कर्म का कार्य है।)
देखें सुख (अलौकिक) – (सुख तो जीव का स्वभाव है पर दुःख जीव का स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह असाता वेदनीय कर्म के उदय से होता है।) - पौद्गलिक विभाव सहेतुक है
नयचक्र बृहद्/20 पुग्गलदव्वे जो पुण विब्भाओ कालपेरिओ होदि। सो णिद्धरुक्खसहिदो बंधो खलु होई तस्सेव।20। = काल से प्रेरित हेाकर पुद्गल का जो विभाव होता है उसका ही स्निग्ध व रूक्ष सहित बंध होता है।
पं.वि./23/7 यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्। = लोक में जो भी विकार होता है वह दो पदार्थों के निमित्त से होता है।
देखें मोक्ष - 6.4 (द्रव्यकर्म भी सहेतुक हैं, क्योंकि अन्यथा उनका विनाश बन नहीं सकता)।
- जीव के कषाय आदि विभाव सहेतुक हैं
- विभाव का कथंचित् अहेतुकपना
- जीव रागादिकरूप से स्वयं परिणमता है
समयसार/121-125, 136 ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अप्पपरिणामी तदो होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122। पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं। तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो।123। अह सयमप्पा परिणदि कोहभावेण एस दे बुद्धो। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।124। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्ते य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।125। तं खलु जीवणिवद्धं कम्मइयवग्गणागयं जइया। तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं।136। = सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति कहते हैं कि हे भाई ! यदि यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है, ऐसा तेरा मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है।121। और इस प्रकार संसार के अभाव का तथा सांख्यमत का प्रसंग प्राप्त होता है।122। यदि क्रोध नाम का पुद्गल कर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है, ऐसा तू माने तो हम पूछते हैं, कि स्वयं न परिणमते हुए को वह क्रोधकर्म कैसे परिणमन करा सकता है?।123। अथवा यदि आत्मा स्वयं क्रोधभावरूप से परिणमता है, ऐसा मानें तो ‘क्रोध जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है’ यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।124। इसलिए यह सिद्धांत है कि, क्रोध, मान, माया व लोभ में उपयुक्त आत्मा स्वयं क्रोध, मान, माया व लोभ है।125। कार्माण वर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब वास्तव में जीव में बँधता है तब जीव (अपने अज्ञानमय) परिणामभावों का हेतु होता है।136।
समयसार / आत्मख्याति/कलश नं. कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव मो योजयेत्, कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः।....।152। रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया, नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरंतश्चकास्ति, व्यत्तात्यंतं स्वस्वभावेन यस्मात्।219। रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयंति ये तु ते। उत्तरंति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरांधबुद्धयः।221। = कर्म ही उसके कर्ता को अपने फल के साथ बलात् नहीं जोड़ता। फल की इच्छा वाला ही कर्म को करता हुआ कर्म के फल को पाता है।152। तत्त्वदृष्टि से देखा जाए तो, रागद्वेष को उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य किंचित् मात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अंतरंग में अत्यंत प्रगट प्रकाशित होती है।219। जो राग की उत्पत्ति में पर द्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित अंध है, ऐसे मोह नदी को पार नहीं कर सकते।221।
समयसार / आत्मख्याति/372 न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शंक्यं; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकस्यायोगाद् सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात्।372। = ऐसी आशंका करने योग्य नहीं, कि परद्रव्य जीव को रागादि उत्पन्न करते हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है, क्योंकि सर्व द्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। (देखें कर्ता - 3.6, 3.7)।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/13 परिणाममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्ग्लिकं कर्म तस्यापि।13 = निश्चय करके अपने चेतना स्वरूप रागादि परिणामों से आप ही परिणमते हुए पूर्वोक्त आत्मा के भी पुद्गल संबंधी ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्म कारण मात्र होते हैं।
देखें विभाव - 5.4 (ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिक नयों की अपेक्षा कषाय आदि अहेतुक हैं, क्योंकि इन नयों की अपेक्षा कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।)।
देखें विभाव - 2.2.3 (रागादि जीव के अपने अपराध हैं, तथा कथंचित् जीव के स्वभाव हैं)।
देखें नियति - 2.3 (कालादि लब्धि के मिलने पर स्वयं सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है)।
- ज्ञानियों को कर्मों का उदय भी अकिंचित्कर है
समयसार / आत्मख्याति/32 यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवंतमपि दूरत एवं तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यार्क्तनेन हटान्मोहं न्यक्कृत्य.....आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिनः। = मोहकर्म फल देने की सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है, ऐसा जो अपना आत्माभाव्य, उसको भेदज्ञान के बल द्वारा दूर से ही अलग करने से, इस प्रकार बलपूर्वक मोह का तिरस्कार करके, अपने आत्मा को अनुभव करते हैं, वे निश्चय से जितमोह जिन हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/45/58/19 अत्राह शिष्यः-‘औदयिका भावाः बंधकारण’ इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति। परिहारमाह-औदयिका भावा बंधंकारणं भवंति, परं किंतु मोहोदय सहिताः। द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बंधो न भवति। यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बंधो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बंध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः। = [पुण्य के फलरूप अर्हंत को विहार आदि क्रियाएँ यद्यपि औदयिकी हैं, परंतु फिर भी मोहादि भावों से रहित होने के कारण उन्हें क्षायिक माना गया है- प्रवचनसार 45 ] प्रश्न–इस प्रकार मानने से औदयिक भाव बंध के कारण है’ यह आगमवचन मिथ्या हो जाता है? उत्तर–इसका परिहार करते हैं। औदयिक भाव बंध के कारण होते हैं किंतु यदि मोह के उदय से सहित हो तो। द्रव्यमोह के उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से नहीं परिणमता है, तब बंध नहीं होता है। यदि कर्मोदय मात्र से बंध हुआ होता तो संसारियों को सदैव बंध ही हुआ होता मोक्ष नहीं, क्योंकि उनके कर्म का उदय सदैव विद्यमान रहता है। [यहाँ द्रव्य मोह से तात्पर्य दर्शनमोह में सम्यक्त्व प्रकृति तथा चारित्रमोह में क्रोधादि का अंतिम जघन्य अंश है, ऐसा प्रतीत होता है।]
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/136/191/13 उदयागतेषु द्रव्यप्रत्ययेषु यदि जीवः स्वस्वभावं मुक्त्वा रागादिरूपेण भावप्रत्ययेन परिणमतीति तदा बंधो भवतीति नैवोदयमात्रेण धेरोपसर्गेऽपि पांडवादिवत्। यदि पुनरुदयमात्रेण बंधो भवति तदा सर्वदैव संसार एव। कस्मादिति चेत् संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्। = उदयागत द्रव्य प्रत्ययों में (द्रव्य कर्मों में) यदि जीव स्व स्वभाव को छोड़कर रागादि रूप भावप्रत्यय (भावकर्म) रूप से परिणमता है तो उसे बंध होता है, केवल उदयमात्र से नहीं। जैसे कि घोर उपसर्ग आने पर भी पांडव आदि। (शेष अर्थ ऊपर के समान); ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/164-165/230/18 )।
देखें कारण - III.3.5 - ज्ञानियों के लिए कर्म मिट्टी के ढेले के समान है)।
देखें बंध - 3.5, 3.6। (मोहनीय के जघन्य अनुभाग का उदय उपशम श्रेणी में यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बंध का तो कारण है, परंतु स्वप्रकृति बंध का कारण नहीं)।
- जीव रागादिकरूप से स्वयं परिणमता है
- विभाव के सहेतुक-अहेतुकपने का समन्वय
- कर्म जीव का पराभव कैसे कर सकता है
राजवार्तिक/8/4/14/569/7 यथा भिन्नजातीयेन क्षीरेण तेजोजातीयस्य चक्षुषोऽनुग्रहः, तथैवात्मकर्मणोश्चेतनाचेतनात्वात् अतुल्यजातीयं कर्म आत्मनोऽनुग्राहकमिति सिद्धम। = जैसे पृथिवीजातीय दूध से तेजोजातीय चक्षु का उपकार होता है, उसी तरह अचेतन कर्म से भी चेतन आत्मा का अनुग्रह आदि हो सकता है। अतः भिन्न जातीय द्रव्यों में परस्पर उपकार मानने में कोई विरोध नहीं है।
धवला/6/1, 9-1, 5/8/8 कधं पोग्गलेण जीवादो पुधभूदेण जीवलक्खणं णाणं विणासिज्जदि। ण एस दोसो, जीवादो पुधभूदाणं घड-पड-त्थंभंध-यारादीणं जीवलक्खणणाणविणासयाणमुवलंभा। = प्रश्न–जीव द्रव्य से पृथग्भूत पुद्गलद्रव्य के द्वारा जीव का लक्षणभूत ज्ञान कैसे विनष्ट किया जाता है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जीवद्रव्य से पृथग्भूत घट, पट, स्तंभ और अंधकार आदिक पदार्थ जीव के लक्षण स्वरूप ज्ञान के विनाशक पाये जाते हैं।
- रागादि भाव संयोगी होने के कारण किसी एक के नहीं कहे जा सकते
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/111/171/18 यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षवशेन देवदत्तयाः पुत्रोऽयं केचन वदंति, देवदत्तस्य पुत्रोऽयमिति केचन बदंति दोषो नास्ति। तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसंबद्धाः शुद्धनिश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतनाः पौद्ग्लिकाः। परमार्थतः पुनरेकांतेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः सुधाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवत्।....ये केचन वदंत्येकांतेन रागादयो जीव संबंधिनः पुद्गलसंबंधिनो वा तदुभयमपि वचनं मिथ्या।.......सूक्ष्मशुद्धनिश्चयेन तेषामस्तित्वमेव नास्ति पूर्वमेव भणितं तिष्ठति कथमुत्तरं प्रयच्छामः इति। = जिस प्रकार स्त्री व पुरुष दोनों से उत्पन्न हुआ पुत्र विवक्षा वश देवदत्ता (माता) का भी कहा जाता है और देवदत्त (पिता) का भी कहा जाता है। दोनों ही प्रकार से कहने में कोई दोष नहीं है। उसी प्रकार जीव पुद्गल के संयोग से उत्पन्न मिथ्यात्व रागादि प्रत्यय अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्ध उपादानरूप से चेतना हैं, जीव से संबद्ध हैं और शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध उपादानरूप से अचेतन हैं, पौद्ग्लिक हैं। परमार्थ से तो न वे एकांत से जीवरूप हैं और न पुद्गलरूप, जैसे कि चूने व हल्दी के संयोग के परिणामरूप लाल रंग। जो कोई एकांत से रागादिकों को जीवसंबंधी या पुद्गल संबंधी कहते हैं उन दोनों के ही वचन मिथ्या हैं। सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से पूछो तो उनका अस्तित्व ही नहीं है, ऐसा पहले कहा जा चुका है, तब हमसे उत्तर कैसे पूछते हो। ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/1 )।
- ज्ञानी व अज्ञानी की अपेक्षा से दोनों बातें ठीक हैं
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/382/462/21 हे भगवन् पूर्वं बंधाधिकारे भणितं.....रागादीणामकर्ता ज्ञानी, परजनितरागादयः इत्युक्तं। अत्र तु स्वकीयबुद्धिदोषजनिता रागादयः परेषां शब्दादिपंचेंद्रिययविषयाणां दूषणं नास्तीति पूर्वापरविरोधः। अत्रोत्तरमाह-तत्र बंधाधिकारव्याख्याने ज्ञानिजीवस्य मुख्यता। ज्ञानी तु रागादिभिर्नं परिणमति तेन कारणेन परद्रव्यजनिता भणिताः। अत्र चाज्ञानिजीवस्य मुख्यता स चाज्ञानी जीवः स्वकीयबुद्धिदोषेण परद्रव्यनिमित्तमात्रमाश्रित्य रागादिभिः परिणमति, तेन कारणेन परेषां शब्दादिपंचेंद्रियविषयाणां दूषणं नास्तीति भणितं। = प्रश्न–हे भगवन् ! पहले बंधाधिकार में तो कहा था कि ज्ञानी रागादि का कर्ता नहीं हैं वे परजनित हैं। परंतु यहाँ कह रहे हैं कि रागादि अपनी बुद्धि के दोष से उत्पन्न होते हैं, इसमें शब्दादि पंचेंद्रिय विषयों का दोष नहीं है। इन दोनों बातों में पूर्वापर विरोध प्रतीत होता है? उत्तर–वहाँ बंधाधिकार के व्याख्यान में तो ज्ञानी जीव की मुख्यता है। ज्ञानी जीव रागादि रूप परिणमित नहीं होता है इसलिए उन्हें परद्रव्यजनित कहा गया है। यहाँ अज्ञानी जीव की मुख्यता है। अज्ञानी जीव अपनी बुद्धि के दोष से परद्रव्यरूप निमित्तमात्र को आश्रय करके रागादिरूप से परिणमित होता है, इसलिए पर जो शब्दादि पंचेंद्रियों के विषय उनका कोई दोष नहीं है, ऐसा कहा गया है।
- दोनों का नयार्थ व मतार्थ
देखें नय - IV.3.9.1 (नैगमादि नयों की अपेक्षा कषायें कर्तृसाधन हैं, क्योंकि इन नयों में कारणकार्यभाव संभव है, परंतु शब्दादि नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि इन दृष्टियों में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। और यहाँ पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। (और भी देखें नय - IV.3.3.1)।
देखें विभाव - 5.2 (अशुद्ध निश्चयनय से ये जीव के हैं, शुद्धनिश्चय नय से पुद्गल के हैं, और सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से इनका अस्तित्व ही नहीं है।)
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/59/111/9 पूर्वोक्तप्रकारेणात्मा कर्मणां कर्ता न भवतीति दूषणे दत्ते सति सांख्यमतानुसारिशिष्यो वदति....अस्माकं मते आत्मनः कर्माकर्तृत्वं भूषणमेव न दूषणं। अत्र परिहारः। यथा शुद्धनिश्चयेन रागाद्यकर्तृत्वमात्मनः तथा यद्यशुद्धनिश्चयेनाप्यकर्तृत्वं भवति तदा द्रव्यकर्मबंधाभावस्तदभावे संसाराभावः, संसाराभावे सर्वदैव मुक्तप्रसंगः स च प्रत्यक्षविरोध इत्यभिप्रायः। = पूर्वोक्त प्रकार से ‘कर्मों का कर्ता आत्मा नहीं है’ इस प्रकार दूषण देने पर सांख्यमतानुसारी शिष्य कहता है कि हमारे मत में आत्मा को जो कर्मों का अकर्तृत्व बताया गया है, वह भूषण ही है, दूषण नहीं। इसका परिहार करते हैं – जिस प्रकार शुद्ध निश्चयनय से आत्मा को रागादि का अकर्तापना है, यदि उसी प्रकार अशुद्ध निश्चयनय से भी अकर्तापना होवे तो द्रव्यकर्मबंध का अभाव हो जायेगा। उसका अभाव होने पर संसार का अभाव और संसार के अभाव में सर्वदा मुक्त होने का प्रसंग प्राप्त होगा। यह बात प्रत्यक्ष विरुद्ध है, ऐसा अभिप्राय है।
- दोनों बातों का कारण व प्रयोजन
समयसार / आत्मख्याति/ गाथासर्वे तेऽध्ववसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनम्। व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थेऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशंकमुपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बंधस्याभावः। तथा.....मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः।46। कारणानुविधायिनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल एव न तु जीवः। गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनोऽतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यम्।68। स्वलक्षणभूतोपयोगगुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावांन निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः संति।57। संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो....मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभावतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधो न कथंचनापि स्यात्।61।- ये सब अध्यवसान आदि भाव जीव हैं, ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञदेव ने कहा है, वह यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तथापि व्यवहारनय को भी बताया है, क्योंकि जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छभाषा वस्तुस्वरूप बतलाती है, उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों की परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह बतलाना न्यायः संगत ही है। परंतु यदि व्यवहार नय न बताया जाए तो परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताया जाने पर भी, जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है उसी प्रकार, त्रस स्थावर जीवों को निःशंकतया मसल देने से भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बंध का ही अभाव सिद्ध होगा। इस प्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा और इससे मोक्ष का ही अभाव होगा।46। (देखें नय - V.8.4)।
- कारण जैसा ही कार्य होता है ऐसा समझकर जौ पूर्वक होने वाले जो जौ, वे जौ ही होते हैं इसी न्याय से, वे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं। और गुणस्थानों का अचेतनत्व सो आगम से सिद्ध होता है तथा चैतन्य स्वभाव से व्याप्त जो आत्मा उससे भिन्नपने से वे गुणस्थान भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं, इसलिए उनका सदा ही अचेतनत्व सिद्ध होता है।68।
- स्वलक्षणभूत उपयोग गुण के द्वारा व्याप्त होने से आत्मा सर्व द्रव्यों से अधिकपने से प्रतीत होता है, इसलिए जैसा अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्य संबंध है वैसा वर्णादि (गुणस्थान मार्गणास्थान आदि) के साथ आत्मा का संबंध नहीं है, इसलिए निश्चय से वर्णादिक (या गुणस्थानादिक) पुद्गलपरिणाम आत्मा के नहीं हैं ।57। क्योंकि संसार अवस्था में कथंचित् वर्णदि रूपता से व्याप्त होता है (फिर भी) मोक्ष अवस्था में जो सर्वथा वर्णादिरूपता की व्याप्ति से रहित होता है। इस प्रकार जीव का इनके साथ किसी भी तरह तादाम्यलक्षण संबंध नहीं है।
- वस्तुतः रागादि भाव की सत्ता नहीं है
समयसार / आत्मख्याति/371/कलश 218 रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्, तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किचिंत्। सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्टया स्फुटं तौ ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः।218। = इस जगत् में ज्ञान ही अज्ञानभाव से रागद्वेषरूप परिणमित होता है, वस्तुत्वस्थापित दृष्टि से देखने पर वे रागद्वेष कुछ भी नहीं हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टि से प्रगटतया उनका क्षय करो कि जिससे पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो। (देखें नय - V.1.5); (देखें विभाव - 5.2)।
- कर्म जीव का पराभव कैसे कर सकता है