अवाय: Difference between revisions
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< | <p class="HindiText">= अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुंडा और प्रत्यामुंडा ये पर्याय नाम हैं।</p> | ||
<p class=" | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/15/111/6</span> <p class="SanskritText">विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः। उत्पतननिपतनपक्षविक्षेपादिभिर्वलाकैवेयं न पताकेति।</p> | ||
( | <p class="HindiText">= विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं। जैसे उत्पतन, निपतन, पक्ष-विक्षेप आदिके द्वारा `यह बक पंक्ति ही है, ध्वजा नहीं' ऐसा निश्चय होना अवाय है।</p> | ||
< | <p class="HindiText"><span class="GRef">(धवला पुस्तक 13/5,5,23/218/9)</span></p> | ||
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( | <p class="HindiText">= भाषा आदि विशेषों के द्वारा उस (ईहा द्वारा गृहीत पुरुष) की उस विशेषता का यथार्थ ज्ञान कर लेना अवाय है, जैसे यह दक्षिणी है, युवा है या गौर है इत्यादि।</p> | ||
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< | <p class="HindiText">= जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ `अवेयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अवाय है।</p> | ||
<p class=" | <span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-1,14/17/7</span> <p class="SanskritText">ईहितस्यार्थस्य संदेहापोहनमवायः।</p> | ||
( | <p class="HindiText">= ईहा ज्ञान से जाने गये पदार्थ विषयक संदेह का दूर हो जाना (या निश्चित हो जाना) अवाय है।</p> | ||
< | <p class="HindiText">( धवला पुस्तक 1/1,1,115/354/3)</span> (धवला 9/4,1,4/144/7)</span></p> | ||
<p class=" | <span class="GRef">जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/59,63</span> <p class=" PrakritText ">ईहिदत्थस्स पुणो थाणु पुरिसो त्ति बहुवियप्पस्स। जो णिच्छियावबोधो सो दु अवायो वियाणाहि ॥59॥ जो कम्मकलुसरहिओ सो देवो णत्थि एत्थ संदेहो। जस्स दु एवं बुद्धी अवायणाणं हवे तस्स ॥63॥</p> | ||
< | <p class="HindiText">= यह स्थाणु है या पुरुष. इस प्रकार बहुत विकल्प रूप ईहित पदार्थके विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है उसे अवाय जानना चाहिए ॥59॥ जो कर्म मल से रहित होता है वह देव है, इसमें कोई संदेह नहीं है, इस प्रकार जिसके निश्चयरूप बुद्धि होती है उसके अवायज्ञान होता है ॥63॥</p> | ||
< | <p class="HindiText"><b>2. इस ज्ञान को अवाय कहें या अपाय</b></p> | ||
<p class=" | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/15/13/61/9</span> <p class="SanskritText">आह-किमयम् अपाय उत अवाय इति। उभयथा न दीषः। अन्यतरवचनेऽन्यतरस्यार्थ गृहीतत्वात्। यथा `न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्यपायं त्यागं करोति तदा `औदीच्यः' इत्यवायोऽधिगमोऽर्थगृहीतः। यदा च `औदीच्यः; इत्यवायं करोति तदा `न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्यापायोऽर्थगृहीतः</p> | ||
< | <p class="HindiText">= प्रश्न-अवाय नाम ठीक है या अपाय? उत्तर-दोनों ठीक हैं, क्योंकि एक के वचन में दूसरे का ग्रहण स्वतः हो जाता है। जैसे अब `यह दक्षिणी नहीं है' ऐसा अपाय त्याग करता है तय `उत्तरी है' यह अवाय-निश्चित हो ही जाता है। इसी तरह `उत्तरी है' इस प्रकार अवाय या निश्चय होनेपर `दक्षिणी नहीं है' यह अपाय या त्याग हो ही जाता है।</p> | ||
< | <p class="HindiText"><b>3. अन्य संबंधित विषय</b></p> | ||
< | <p class="HindiText">1. अवायज्ञान को `मति' व्यपदेश कैसे? - देखें [[ मतिज्ञान#3 | मतिज्ञान - 3]]</p> | ||
< | <p class="HindiText">2. अवग्रह से अवाय पर्यंत मतिज्ञान की उत्पत्ति का क्रम - देखें [[ मतिज्ञान#3 | मतिज्ञान - 3]]</p> | ||
< | <p class="HindiText">3. अवग्रह व अवाय में अंतर - देखें [[ अवग्रह#2.6 | अवग्रह - 2.6]]</p> | ||
< | <p class="HindiText">4. अवाय के श्रुतज्ञान में अंतर - देखें [[ श्रुतज्ञान#I | श्रुतज्ञान - I]]</p> | ||
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<div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) मतिज्ञान के अवग्रह आदि चार भेदों में तीसरा भेद—इंद्रियों और मन से उत्पन्न निर्णयात्मक यथार्थ ज्ञान । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#146|हरिवंशपुराण - 10.146-147]] </span></p> | |||
<p id="2" class="HindiText">(2) राजा एक कार्य― पर राष्ट्रों से अपने संबंध का विचार करना । <span class="GRef"> महापुराण 46.72 </span></p> | |||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. अवाय का लक्षण
षट्खंडागम पुस्तक 13/5,5/सूत्र 39/243
अवायो ववसायो बुद्धी विण्णाणि आउंडी पच्चाउंडी ॥36॥
= अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुंडा और प्रत्यामुंडा ये पर्याय नाम हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/15/111/6
विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः। उत्पतननिपतनपक्षविक्षेपादिभिर्वलाकैवेयं न पताकेति।
= विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं। जैसे उत्पतन, निपतन, पक्ष-विक्षेप आदिके द्वारा `यह बक पंक्ति ही है, ध्वजा नहीं' ऐसा निश्चय होना अवाय है।
(धवला पुस्तक 13/5,5,23/218/9)
राजवार्तिक अध्याय 1/15/3/60/6
भाषादिविशेनिर्ज्ञानात्तस्य याथात्म्येनावगमनभवायः। `दाक्षिणात्योऽयम्, युवा, गौरः' इति वा
= भाषा आदि विशेषों के द्वारा उस (ईहा द्वारा गृहीत पुरुष) की उस विशेषता का यथार्थ ज्ञान कर लेना अवाय है, जैसे यह दक्षिणी है, युवा है या गौर है इत्यादि।
( न्यायदीपिका अधिकार 2/$11/32/6)
धवला पुस्तक 13/5,5,39/243/3
अवेयते निश्चीयते मीमांसितोऽर्थोऽनेनेत्यवायः।
= जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ `अवेयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अवाय है।
धवला पुस्तक 6/1,9-1,14/17/7
ईहितस्यार्थस्य संदेहापोहनमवायः।
= ईहा ज्ञान से जाने गये पदार्थ विषयक संदेह का दूर हो जाना (या निश्चित हो जाना) अवाय है।
( धवला पुस्तक 1/1,1,115/354/3) (धवला 9/4,1,4/144/7)
जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/59,63
ईहिदत्थस्स पुणो थाणु पुरिसो त्ति बहुवियप्पस्स। जो णिच्छियावबोधो सो दु अवायो वियाणाहि ॥59॥ जो कम्मकलुसरहिओ सो देवो णत्थि एत्थ संदेहो। जस्स दु एवं बुद्धी अवायणाणं हवे तस्स ॥63॥
= यह स्थाणु है या पुरुष. इस प्रकार बहुत विकल्प रूप ईहित पदार्थके विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है उसे अवाय जानना चाहिए ॥59॥ जो कर्म मल से रहित होता है वह देव है, इसमें कोई संदेह नहीं है, इस प्रकार जिसके निश्चयरूप बुद्धि होती है उसके अवायज्ञान होता है ॥63॥
2. इस ज्ञान को अवाय कहें या अपाय
राजवार्तिक अध्याय 1/15/13/61/9
आह-किमयम् अपाय उत अवाय इति। उभयथा न दीषः। अन्यतरवचनेऽन्यतरस्यार्थ गृहीतत्वात्। यथा `न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्यपायं त्यागं करोति तदा `औदीच्यः' इत्यवायोऽधिगमोऽर्थगृहीतः। यदा च `औदीच्यः; इत्यवायं करोति तदा `न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्यापायोऽर्थगृहीतः
= प्रश्न-अवाय नाम ठीक है या अपाय? उत्तर-दोनों ठीक हैं, क्योंकि एक के वचन में दूसरे का ग्रहण स्वतः हो जाता है। जैसे अब `यह दक्षिणी नहीं है' ऐसा अपाय त्याग करता है तय `उत्तरी है' यह अवाय-निश्चित हो ही जाता है। इसी तरह `उत्तरी है' इस प्रकार अवाय या निश्चय होनेपर `दक्षिणी नहीं है' यह अपाय या त्याग हो ही जाता है।
3. अन्य संबंधित विषय
1. अवायज्ञान को `मति' व्यपदेश कैसे? - देखें मतिज्ञान - 3
2. अवग्रह से अवाय पर्यंत मतिज्ञान की उत्पत्ति का क्रम - देखें मतिज्ञान - 3
3. अवग्रह व अवाय में अंतर - देखें अवग्रह - 2.6
4. अवाय के श्रुतज्ञान में अंतर - देखें श्रुतज्ञान - I
5. अवाय व धारणा में अंतर - देखें धारणा - 2
पुराणकोष से
(1) मतिज्ञान के अवग्रह आदि चार भेदों में तीसरा भेद—इंद्रियों और मन से उत्पन्न निर्णयात्मक यथार्थ ज्ञान । हरिवंशपुराण - 10.146-147
(2) राजा एक कार्य― पर राष्ट्रों से अपने संबंध का विचार करना । महापुराण 46.72