पुण्य की कथंचित् अनिष्टता: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(10 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 4: | Line 4: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong>संसार का कारण होने से पुण्य अनिष्ट है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong>संसार का कारण होने से पुण्य अनिष्ट है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/145 </span><span class="SanskritGatha">कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि। 145।</span> = <span class="HindiText">अशुभकर्म कुशील है और शुभकर्म सुशील है, ऐसा तुम (मोहवश) जानते हो। किंतु वह भला सुशील कैसे हो सकता है, जबकि वह संसार में प्रवेश कराता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/77 </span><span class="SanskritText">यस्तु पुनरनयोः... विशेषमभिमन्यमानो... धर्मानुरागमवलंबते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःखमेवानुभवति।</span> = <span class="HindiText">जो जीव उन दोनों (पुण्य व पाप) में अंतर मानता हुआ धर्मानुराग अर्थात् पुण्यानुराग पर अवलंबित है, वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से, जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ, संसार पर्यंत शारीरिक दुःख का ही अनुभव करता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/410 </span><span class="PrakritGatha">पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगईहेदुं पुण्णखएणेव णिव्वाणं। 410।</span> = <span class="HindiText">जो पुण्य को भी चाहता है, वह संसार को चाहता है, क्योंकि पुण्य सुगति का कारण है। पुण्य का क्षय होने से ही मोक्ष होता है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">शुभ भाव कथंचित् पापबंध के भी कारण हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/3/7/507/26 </span><span class="SanskritText">शुभ: पापस्यापि हेतुरित्यविरोधः। </span>= <span class="HindiText">शुभपरिणाम पाप के भी हेतु हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें [[ पुण्य#5 | पुण्य - 5]])। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">वास्तव में पुण्य शुभ है ही नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/763 </span><span class="SanskritText"> शुभो नाप्यशुभावहात्। 763।</span> = <span class="HindiText">निश्चयनय से शुभोपयोग भी संसार का कारण होने से शुभ कहा ही नहीं जा सकता। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong>अज्ञानीजन ही पुण्य को उपादेय मानते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong>अज्ञानीजन ही पुण्य को उपादेय मानते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/154 </span><span class="PrakritGatha">परमट्ठ बाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। संसारगमणहेदुं वि मोक्खहेदु अजाणंतो। 154।</span> = <span class="HindiText">जो परमार्थ से बाह्य हैं, वे मोक्ष के हेतु को न जानते हुए संसार गमन का हेतु होने पर भी, अज्ञान से पुण्य को (मोक्ष का हेतु समझकर) चाहते हैं। <span class="GRef"> (तिलोयपण्णत्ति/9/53) </span> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/54 </span><span class="PrakritGatha">सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू। सो तेण हु अण्णाणी णाणी एत्तो हु विवरीओ। 54। </span>= <span class="HindiText">इष्ट वस्तुओं के संयोग में राग करनेवाला साधु अज्ञानी है। ज्ञानी उससे विपरीत होता है अर्थात् वह शुभ व अशुभ कर्म के फलरूप इष्ट-अनिष्ट सामग्री में राग-द्वेष नहीं करता। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/मूल/2/54 </span><span class="PrakritGatha">दंसणणाणचरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ। मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ। 54।</span> = <span class="HindiText">जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी आत्मा को नहीं जानता, वही हे जीव! उन पुण्य व पाप दोनों को मोक्ष के कारण जानकर करता है। <span class="GRef"> (मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/229/17) </span> <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong>ज्ञानी तो पापवत् पुण्य का भी तिरस्कार करता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong>ज्ञानी तो पापवत् पुण्य का भी तिरस्कार करता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/9/52 </span><span class="PrakritGatha">पुण्णेण होइ विहओ विहवेण मओ मएण मइमोहो। मइमोहेण य पावं तम्हा पुण्णो वि वज्जेओ। 52। </span>= <span class="HindiText">चूँकि पुण्य से विभव, विभव से मद, मद से मतिमोह और मतिमोह से पाप होता है, इसलिए पुण्य को भी छोड़ना चाहिए - (ऐसा पुण्य हमें कभी न हो) - <span class="GRef"> (परमात्मप्रकाश/मूल/2/60) </span> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> योगसार/यो./71 </span> <span class="PrakritGatha">जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु को वि मुणेइ। जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेइ। 7॥</span> = <span class="HindiText">पाप को पाप तो सब कोई जानता है, परंतु जो पुण्य को भी पाप कहता है ऐसा पंडित कोई विरला ही है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong>ज्ञानी पुण्य को | <li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong>ज्ञानी पुण्य को हेय समझता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/210 </span><span class="PrakritGatha">अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्मं। अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण स होई। 210।</span> = <span class="HindiText">ज्ञानी परिग्रह से रहित है, इसलिए वह परिग्रह की इच्छा से रहित है। इसी कारण वह धर्म अर्थात् पुण्य (तात्पर्यवृत्ति टीका) को नहीं चाहता इसलिए उसे धर्म या पुण्य का परिग्रह नहीं है। वह तो केवल उसका ज्ञायक ही है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/409, 412 </span><span class="PrakritText">एदे दहप्पयारा पावं कम्मस्स णासिया भणिया। पुण्णस्स य संजणया परपुण्णंत्थं ण कायव्वं। 409। पुण्णे वि ण आयरं कुणह। 412।</span> = <span class="HindiText">ये धर्म के दश भेद पापकर्म का नाश और पुण्यकर्म का बंध करनेवाले कहे जाते हैं, परंतु इन्हें पुण्य के लिए नहीं करना चाहिए। 409। पुण्य में आदर मत करो। 412। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41/कलश 59 </span><span class="SanskritText">सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं, त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः। ...भवविमुक्तयै...। 59।</span> = <span class="HindiText">समस्त पुण्य भोगियों के भोग का मूल है। परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्तवाले मुनीश्वर भव से विमुक्त होने के हेतु उस समस्त शुभकर्म को छोड़ो। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.7" id="3.7"><strong>ज्ञानी तो | <li><span class="HindiText" name="3.7" id="3.7"><strong>ज्ञानी तो कथंचित् पाप को ही पुण्य से अच्छा समझते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/मूल/2/56-57 </span><span class="PrakritText">वर जिय पावइँ सुंदरइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइ जाइँ कुणंति। 56। मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइं जणंति। 57। </span>= <span class="HindiText">हे जीव! जो पाप का उदय जीव को दुःख देकर शीघ्र ही मोक्ष के जाने योग्य उपायों में बुद्धि कर देवे, तो वे पाप भी बहुत अच्छे हैं। 56। और फिर वे पुण्य भी अच्छे नहीं जो जीव को राज्य देकर शीघ्र ही नरकादि दुःखों को उपजाते हैं (देखें [[ #3.8| अगला शीर्षक ]]) ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.8" id="3.8"><strong>मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यंत अनिष्ट हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.8" id="3.8"><strong>मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यंत अनिष्ट हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/57-60/182-187 </span><span class="PrakritGatha">जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होंति। ते तस्स कडुगदोद्धियगदं च दुद्धं हवे अफला। 57। जह भेसजं पि दोसं आवहइ विसेण संजुदं संते। तह मिच्छत्तविसजुदा गुणा वि दोसावहा होंति। 58। दिवसेण जोयणसयं पि गच्छमाणो सगिच्छिदं देसं। अण्णंतो गच्छंतो जह पुरिसो णेव पाउणादि। 59। धणिदं पि संजमंतो मिच्छादिट्ठी तहा ण पावेई। इट्ठं णिव्वुइ मग्गं उग्गेण तवेण जुत्तो वि। 60।</span> = <span class="HindiText">अहिंसा आदि पाँच व्रत आत्मा के गुण हैं, परंतु मरण समय यदि ये मिथ्यात्व से संयुक्त हो जायें तो कड़वी तुंबी में रखे हुए दूध के समान व्यर्थ हो जाते हैं। 57। जिस प्रकार विष मिल जाने पर गुणकारी भी औषध दोषयुक्त हो जाता है, इसी प्रकार उपरोक्त गुण भी मिथ्यात्वयुक्त हो जाने पर दोषयुक्त हो जाते हैं। 58। जिस प्रकार एक दिन में सौ योजन गमन करनेवाला भी व्यक्ति यदि उलटी दिशा में चले तो कभी भी अपने इष्ट स्थान को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार अच्छी तरह व्रत, तप आदि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि कदापि मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। 59-60। <br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/मूल/2/59 </span>जे णिय-दंसण-अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहंति। तिं बिणु पुण्णु करंता वि दुक्खु अणंतु सहंति। 59। = जो सम्यग्दर्शन के सम्मुख हैं, वे अनंत सुख को पाते हैं, और जो जीव सम्यक्त्व रहित हैं, वे पुण्य करते हुए भी, पुण्य के फल से अल्पसुख पाकर संसार में अनंत दुःख भोगते हैं। 59। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/मूल/2/58 </span><span class="PrakritGatha">वर णियदंसण अहिमुह मरणु वि जीव लहेसि। मा णियदंसणविम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि। 58। </span>=<span class="HindiText"> हे जीव! अपने सम्यग्दर्शन के सम्मुख होकर मरना भी अच्छा है, परंतु सम्यग्दर्शन से विमुख होकर पुण्य करना अच्छा नहीं है। 58। <br /> | |||
< | <span class="HindiText"> देखें [[ भोग ]] - (पुण्य से प्राप्त भोग पाप के मित्र हैं)। </span> <br /> | ||
देखें [[ पुण्य#5 | पुण्य - 5]] | देखें [[ पुण्य#5.1 | पुण्य - 5.1]] (प्रशस्त भी राग कारण की विपरीतता से विपरीतरूप से फलित होता है।)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/444 </span><span class="SanskritGatha">नापि धर्मः क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थतः। नित्यं रागदिसद्भावात् प्रत्युताधर्म एव सः। 444।</span> = <span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि के सदा रागादिभाव का सद्भाव रहने से केवल क्रियारूप व्यवहार धर्म का अर्थात् शुभयोग का पाया जाना भी धर्म नहीं है। किंतु अधर्म ही है। 444। <br /> | |||
भा.पा/पं.जयचंद/117 अन्यमत के श्रद्धानीकै जो कदाचित् | <span class="GRef">भा.पा/पं.जयचंद/117</span><br /> | ||
<span class="HindiText"> अन्यमत के श्रद्धानीकै जो कदाचित् शुभ लेश्या के निमित्ततैं पुण्य भी बंध होय तौ ताकूं पाप ही में गिणिये। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.9" id="3.9"><strong>मिथ्यात्व युक्त | <li><span class="HindiText" name="3.9" id="3.9"><strong>मिथ्यात्व युक्त पुण्य तीसरे भव नरक का कारण है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/58/185/9 </span><span class="SanskritText">मिथ्यादृष्टेर्गुणाः पापानुबंधि स्वल्पमिंद्रियसुखं दत्वा बह्वारंभपरिग्रहादिषु आसक्तं नरके पातयंति।</span> =<span class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि ये अहिंसादि गुण (या व्रत) पापानुबंधी स्वल्प इंद्रियसुख की प्राप्ति तो कर लेते हैं, परंतु जीव को बहुत आरंभ और परिग्रह में आसक्त करके नरक में ले जाते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/57/179/8 </span><span class="SanskritText"> निदानबंधोपार्जितपुण्येन भवांतरे राज्यादिविभूतौ लब्धायां तु भोगान् त्यक्तुं न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःखं लभते रावणादिवत्।</span> = <span class="HindiText">निदान बंध से उत्पन्न हुए पुण्य से भवांतर में राज्यादि विभूति की प्राप्ति करके मिथ्यादृष्टि जीव भोगों का त्याग करने में समर्थ नहीं होता, अर्थात् उनमें आसक्त हो जाता है। और इसलिए उस पुण्य से वह रावण आदि की भाँति नरक आदि के दुःखों को प्राप्त करता है। <span class="GRef"> (द्रव्यसंग्रह टीका/38/160/9); (समयसार / तात्पर्यवृत्ति/224-227/305/17 )</span> </span></li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 54: | Line 55: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: प]] | [[Category: प]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
- पुण्य की कथंचित् अनिष्टता
- संसार का कारण होने से पुण्य अनिष्ट है
समयसार/145 कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि। 145। = अशुभकर्म कुशील है और शुभकर्म सुशील है, ऐसा तुम (मोहवश) जानते हो। किंतु वह भला सुशील कैसे हो सकता है, जबकि वह संसार में प्रवेश कराता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/77 यस्तु पुनरनयोः... विशेषमभिमन्यमानो... धर्मानुरागमवलंबते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःखमेवानुभवति। = जो जीव उन दोनों (पुण्य व पाप) में अंतर मानता हुआ धर्मानुराग अर्थात् पुण्यानुराग पर अवलंबित है, वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से, जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ, संसार पर्यंत शारीरिक दुःख का ही अनुभव करता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/410 पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगईहेदुं पुण्णखएणेव णिव्वाणं। 410। = जो पुण्य को भी चाहता है, वह संसार को चाहता है, क्योंकि पुण्य सुगति का कारण है। पुण्य का क्षय होने से ही मोक्ष होता है।
- शुभ भाव कथंचित् पापबंध के भी कारण हैं
राजवार्तिक/6/3/7/507/26 शुभ: पापस्यापि हेतुरित्यविरोधः। = शुभपरिणाम पाप के भी हेतु हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें पुण्य - 5)।
- वास्तव में पुण्य शुभ है ही नहीं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/763 शुभो नाप्यशुभावहात्। 763। = निश्चयनय से शुभोपयोग भी संसार का कारण होने से शुभ कहा ही नहीं जा सकता।
- अज्ञानीजन ही पुण्य को उपादेय मानते हैं
समयसार/154 परमट्ठ बाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। संसारगमणहेदुं वि मोक्खहेदु अजाणंतो। 154। = जो परमार्थ से बाह्य हैं, वे मोक्ष के हेतु को न जानते हुए संसार गमन का हेतु होने पर भी, अज्ञान से पुण्य को (मोक्ष का हेतु समझकर) चाहते हैं। (तिलोयपण्णत्ति/9/53)
मोक्षपाहुड़/54 सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू। सो तेण हु अण्णाणी णाणी एत्तो हु विवरीओ। 54। = इष्ट वस्तुओं के संयोग में राग करनेवाला साधु अज्ञानी है। ज्ञानी उससे विपरीत होता है अर्थात् वह शुभ व अशुभ कर्म के फलरूप इष्ट-अनिष्ट सामग्री में राग-द्वेष नहीं करता।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/54 दंसणणाणचरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ। मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ। 54। = जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी आत्मा को नहीं जानता, वही हे जीव! उन पुण्य व पाप दोनों को मोक्ष के कारण जानकर करता है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/229/17)
- ज्ञानी तो पापवत् पुण्य का भी तिरस्कार करता है
तिलोयपण्णत्ति/9/52 पुण्णेण होइ विहओ विहवेण मओ मएण मइमोहो। मइमोहेण य पावं तम्हा पुण्णो वि वज्जेओ। 52। = चूँकि पुण्य से विभव, विभव से मद, मद से मतिमोह और मतिमोह से पाप होता है, इसलिए पुण्य को भी छोड़ना चाहिए - (ऐसा पुण्य हमें कभी न हो) - (परमात्मप्रकाश/मूल/2/60)
योगसार/यो./71 जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु को वि मुणेइ। जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेइ। 7॥ = पाप को पाप तो सब कोई जानता है, परंतु जो पुण्य को भी पाप कहता है ऐसा पंडित कोई विरला ही है।
- ज्ञानी पुण्य को हेय समझता है
समयसार/210 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्मं। अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण स होई। 210। = ज्ञानी परिग्रह से रहित है, इसलिए वह परिग्रह की इच्छा से रहित है। इसी कारण वह धर्म अर्थात् पुण्य (तात्पर्यवृत्ति टीका) को नहीं चाहता इसलिए उसे धर्म या पुण्य का परिग्रह नहीं है। वह तो केवल उसका ज्ञायक ही है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/409, 412 एदे दहप्पयारा पावं कम्मस्स णासिया भणिया। पुण्णस्स य संजणया परपुण्णंत्थं ण कायव्वं। 409। पुण्णे वि ण आयरं कुणह। 412। = ये धर्म के दश भेद पापकर्म का नाश और पुण्यकर्म का बंध करनेवाले कहे जाते हैं, परंतु इन्हें पुण्य के लिए नहीं करना चाहिए। 409। पुण्य में आदर मत करो। 412।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41/कलश 59 सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं, त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः। ...भवविमुक्तयै...। 59। = समस्त पुण्य भोगियों के भोग का मूल है। परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्तवाले मुनीश्वर भव से विमुक्त होने के हेतु उस समस्त शुभकर्म को छोड़ो।
- ज्ञानी तो कथंचित् पाप को ही पुण्य से अच्छा समझते हैं
परमात्मप्रकाश/मूल/2/56-57 वर जिय पावइँ सुंदरइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइ जाइँ कुणंति। 56। मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइं जणंति। 57। = हे जीव! जो पाप का उदय जीव को दुःख देकर शीघ्र ही मोक्ष के जाने योग्य उपायों में बुद्धि कर देवे, तो वे पाप भी बहुत अच्छे हैं। 56। और फिर वे पुण्य भी अच्छे नहीं जो जीव को राज्य देकर शीघ्र ही नरकादि दुःखों को उपजाते हैं (देखें अगला शीर्षक ) ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं।
- मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यंत अनिष्ट हैं
भगवती आराधना/57-60/182-187 जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होंति। ते तस्स कडुगदोद्धियगदं च दुद्धं हवे अफला। 57। जह भेसजं पि दोसं आवहइ विसेण संजुदं संते। तह मिच्छत्तविसजुदा गुणा वि दोसावहा होंति। 58। दिवसेण जोयणसयं पि गच्छमाणो सगिच्छिदं देसं। अण्णंतो गच्छंतो जह पुरिसो णेव पाउणादि। 59। धणिदं पि संजमंतो मिच्छादिट्ठी तहा ण पावेई। इट्ठं णिव्वुइ मग्गं उग्गेण तवेण जुत्तो वि। 60। = अहिंसा आदि पाँच व्रत आत्मा के गुण हैं, परंतु मरण समय यदि ये मिथ्यात्व से संयुक्त हो जायें तो कड़वी तुंबी में रखे हुए दूध के समान व्यर्थ हो जाते हैं। 57। जिस प्रकार विष मिल जाने पर गुणकारी भी औषध दोषयुक्त हो जाता है, इसी प्रकार उपरोक्त गुण भी मिथ्यात्वयुक्त हो जाने पर दोषयुक्त हो जाते हैं। 58। जिस प्रकार एक दिन में सौ योजन गमन करनेवाला भी व्यक्ति यदि उलटी दिशा में चले तो कभी भी अपने इष्ट स्थान को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार अच्छी तरह व्रत, तप आदि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि कदापि मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। 59-60।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/59 जे णिय-दंसण-अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहंति। तिं बिणु पुण्णु करंता वि दुक्खु अणंतु सहंति। 59। = जो सम्यग्दर्शन के सम्मुख हैं, वे अनंत सुख को पाते हैं, और जो जीव सम्यक्त्व रहित हैं, वे पुण्य करते हुए भी, पुण्य के फल से अल्पसुख पाकर संसार में अनंत दुःख भोगते हैं। 59।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/58 वर णियदंसण अहिमुह मरणु वि जीव लहेसि। मा णियदंसणविम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि। 58। = हे जीव! अपने सम्यग्दर्शन के सम्मुख होकर मरना भी अच्छा है, परंतु सम्यग्दर्शन से विमुख होकर पुण्य करना अच्छा नहीं है। 58।
देखें भोग - (पुण्य से प्राप्त भोग पाप के मित्र हैं)।
देखें पुण्य - 5.1 (प्रशस्त भी राग कारण की विपरीतता से विपरीतरूप से फलित होता है।)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/444 नापि धर्मः क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थतः। नित्यं रागदिसद्भावात् प्रत्युताधर्म एव सः। 444। = मिथ्यादृष्टि के सदा रागादिभाव का सद्भाव रहने से केवल क्रियारूप व्यवहार धर्म का अर्थात् शुभयोग का पाया जाना भी धर्म नहीं है। किंतु अधर्म ही है। 444।
भा.पा/पं.जयचंद/117
अन्यमत के श्रद्धानीकै जो कदाचित् शुभ लेश्या के निमित्ततैं पुण्य भी बंध होय तौ ताकूं पाप ही में गिणिये।
- मिथ्यात्व युक्त पुण्य तीसरे भव नरक का कारण है
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/58/185/9 मिथ्यादृष्टेर्गुणाः पापानुबंधि स्वल्पमिंद्रियसुखं दत्वा बह्वारंभपरिग्रहादिषु आसक्तं नरके पातयंति। = मिथ्यादृष्टि ये अहिंसादि गुण (या व्रत) पापानुबंधी स्वल्प इंद्रियसुख की प्राप्ति तो कर लेते हैं, परंतु जीव को बहुत आरंभ और परिग्रह में आसक्त करके नरक में ले जाते हैं।
परमात्मप्रकाश टीका/2/57/179/8 निदानबंधोपार्जितपुण्येन भवांतरे राज्यादिविभूतौ लब्धायां तु भोगान् त्यक्तुं न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःखं लभते रावणादिवत्। = निदान बंध से उत्पन्न हुए पुण्य से भवांतर में राज्यादि विभूति की प्राप्ति करके मिथ्यादृष्टि जीव भोगों का त्याग करने में समर्थ नहीं होता, अर्थात् उनमें आसक्त हो जाता है। और इसलिए उस पुण्य से वह रावण आदि की भाँति नरक आदि के दुःखों को प्राप्त करता है। (द्रव्यसंग्रह टीका/38/160/9); (समयसार / तात्पर्यवृत्ति/224-227/305/17 )
- संसार का कारण होने से पुण्य अनिष्ट है