पुण्य
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
क्षौद्रवर द्वीप का रक्षक व्यंतर देव - देखें व्यंतर - 4.7।
जीव के दया, दानादि रूप शुभ परिणाम पुण्य कहलाते हैं। यद्यपि लोक में पुण्य के प्रति बड़ा आकर्षण रहता है, परंतु मुमुक्षु जीव केवल बंधरूप होने के कारण इसे पाप से किसी प्रकार भी अधिक नहीं समझते। इसके प्रलोभन से बचने के लिए वह सदा इसकी अनिष्टता का विचार करते हैं। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि यह सर्वथा पापरूप ही हो। लौकिकजनों के लिए यह अवश्य ही पाप की अपेक्षा बहुत अच्छा है। यद्यपि मुमुक्षु जीवों को भी निचली अवस्था में पुण्य प्रवृत्ति अवश्य होती है, पर निदान रहित होने के कारण, उनका पुण्य पुण्यानुबंधी है, जो परंपरा मोक्ष का कारण है। लौकिक जीवों का पुण्य निदान व तृष्णा सहित होने के कारण पापानुबंधी है, तथा संसार में डुबानेवाला है। ऐसे पुण्य का त्याग ही परमार्थ से योग्य है।
- पुण्य निर्देश
- भावपुण्य का लक्षण।
- द्रव्य पुण्य या पुण्यकर्म का लक्षण।
- पुण्य जीव का लक्षण।
- पुण्य व पाप में अंतरंग की प्रधानता।
- पुण्य (शुभ नामकर्म) के बंध योग्य परिणाम।
- पुण्य प्रकृतियों के भेद। - देखें प्रकृतिबंध - 2.1।
- राग-द्वेष में पुण्य-पाप का विभाग। - देखें राग - 2।
- पुण्य तत्त्व का कर्तृत्व। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- भावपुण्य का लक्षण।
- पुण्य व पाप में पारमार्थिक समानता
- पुण्य की कथंचित् अनिष्टता
- पुण्य कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है। - देखें चारित्र - 5.5।
- संसार का कारण होने से पुण्य अनिष्ट है।
- शुभ भाव कथंचित् पापबंध के भी कारण हैं।
- वास्तव में पुण्य शुभ है ही नहीं।
- अज्ञानी जन ही पुण्य को उपादेय मानते हैं।
- ज्ञानी तो पापवत् पुण्य का भी तिरस्कार करते हैं।
- >ज्ञानी पुण्य को हेय समझता है।
- ज्ञानी व्यवहार धर्म को भी हेय समझता है। - देखें धर्म - 4.8।
- पुण्य कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है। - देखें चारित्र - 5.5।
- पुण्य की कथंचित् इष्टता
- पुण्य की अनिष्टता व इष्टता का समन्वय
- पुण्य दो प्रकार का होता है।
- भोगमूलक ही पुण्य निषिद्ध है योगमूलक नहीं।
- पुण्य के निषेध का कारण व प्रयोजन।
- पुण्य छोड़ने का उपाय व क्रम। - देखें धर्म - 6.4।
- हेय मानते हुए भी ज्ञानी विषय वंचनार्थ व्यवहार धर्म करता है। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- साधु की शुभ क्रियाओं की सीमा। - देखें साधु - 2।
- पुण्य दो प्रकार का होता है।
- पुण्य निर्देश
- भाव पुण्य का लक्षण
प्रवचनसार/181 सुहपरिणामो पुण्णं ...भणियमण्णेसु। = पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/108 )।
सर्वार्थसिद्धि/6/3/320/2 पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्। = जो आत्मा को पवित्र करता है, या जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है। ( राजवार्तिक/6/3/4/507/11 )।
नयचक्र बृहद्/162 अहवा कारणभूदा तेसिं च वयव्वयाइ इह भणिया। ते खलु पुण्णं पावं जाण इमं पवयणे भणियं। 162। = उन शुभ वेदादि के कारणभूत जो व्रतादि कहे गये हैं, उसको निश्चय से पुण्य जानो, ऐसा शास्त्र में कहा है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/108/172/8 दानपुजाषडावश्यकादिरूपो जीवस्य शुभपरिणामो भावपुण्यं। = दान पूजा षडावश्यकादि रूप जीव के शुभ-परिणाम भावपुण्य हैं।
देखें उपयोग- 1.4.1 जीव दया आदि शुभोपयोग है। 1। वही पुण्य है। 4।
देखें धर्म - 1.4 (पूजा, भक्ति, दया, दान आदि शुभ क्रियाओं रूप व्यवहारधर्म पुण्य है।) उपयोग- 4.7 ; (पुण्य/1/4)।
- द्रव्य पुण्य या पुण्य कर्म का लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/20 पुण्यं नाम अभिमतस्य प्रापकं। = इष्ट पदार्थों की प्राप्ति जिससे होती हो वह कर्म पुण्य कहलाता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/108/172/8 भावपुण्यनिमित्तेनोत्पन्नः सद्वेद्यादिशुभप्रकृतिरूपः पुद्गलपरमाणुपिंडो द्रव्यपुण्यं। = भाव पुण्य के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले साता वेदनीय आदि (विशेष देखें प्रकृतिबंध - 2) शुभप्रकृति रूप पुद्गलपरमाणुओं का पिंड द्रव्य पुण्य है।
स्याद्वाद मंजरी/27/302/19 दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभकर्म। = दान आदि क्रियाओं से उपार्जित किया जानेवाला शुभकर्म पुण्य है।
- पुण्य जीव का लक्षण
मूलाचार/मूल/234 सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहगुणेहिं। जो परिणदो सो पुण्णो...। 234। = सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय निग्रहरूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य जीव है। ( गोम्मटसार जीवकांड/622 )।
द्रव्यसंग्रह/38/158 सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा। = शुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्य रूप होता है।
- पुण्य व पाप में अंतरंग की प्रधानता
आप्तमीमांसा/92-95 पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि। अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः। 9॥ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि। वीतरागी मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युंज्यान्निमित्ततः। 93। विरोधा नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषां। अवाच्यतैकांतेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते। 94। विशुद्धिसंक्लेशांगं चेत्, स्वपरस्थं सुखासुखम्। पुण्यपापास्रवौ युक्तौ न चेद्वयर्थस्तवार्हतः। 95। = यदि पर को दुख उपजाने से पाप और पर को सुख उपजाने से पुण्य होने का नियम हुआ होता तो कंटक आदि अचेतन पदार्थों को पाप और दूध आदि अचेतन पदार्थों को पुण्य हो जाता। और वीतरागी मुनि ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हुए कदाचित् क्षुद्र जीवों के वध का कारण हो जाने से बंध को प्राप्त हो जाते। 92। यदि स्वयं अपने को ही दुःख या सुख उपजाने से पाप-पुण्य होने का नियम हुआ होता तो वीतरागी मुनि तथा विद्वान्जन भी बंध के पात्र हो जाते; क्योंकि, उनको भी उस प्रकार का निमित्तपना होता है। 93। इसलिए ऐसा मानना ही योग्य है कि स्व व पर दोनों को सुख या दुख में निमित्त होने के कारण, विशुद्धि व संक्लेश परिणाम उनके कारण तथा उनके कार्य ये सब मिलकर ही पुण्य व पाप के आस्रव होते हुए पराश्रित पुण्य व पापरूप एकांत का निषेध करते हैं। 94। यदि विशुद्धि व संक्लेश दोनों ही स्व व पर को सुख व दुःख के कारण न हों तो आपके मत में पुण्य या पाप कहना ही व्यर्थ है। 95।
बोधपाहुड़/पं. जयचंद/60/152/25
केवलबाह्यसामायिकादि निरारंभ कार्य का भेष धारि बैठे तो किछु विशिष्ट पुण्य है नाहीं। शरीरादिक बाह्य वस्तु तौ जड़ है। केवल जड़ की क्रिया फल तौ आत्मा को लागै नाहीं। ...विशिष्ट पुण्य तौ भावनिकै अनुसार है। ...अतः पुण्य-पाप के बंध में शुभाशुभ भाव ही प्रधान है।
- पुण्य (शुभ नामकर्म) के बंध योग्य परिणाम
पंचास्तिकाय/135 रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि। 135। = जिस जीव को प्रशस्त राग है, अनुकंपायुक्त परिणाम है, और चित्त में कलुषता का अभाव है उस जीव को पुण्य-आस्रव होता है।
मूलाचार/मूल/235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगा। = जीवों पर दया, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया तथा शुद्ध दर्शन-ज्ञानरूप उपयोग ये पुण्यकर्म के आस्रव के कारण हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/ गाथा 2/105)
तत्त्वार्थसूत्र/6/23 तद्विपरीतं शुभस्य। 23।
सर्वार्थसिद्धि/6/23/337/9 कायवाङ्मनसामृजुत्वमविसंवादनं च तद्विपरीतम्। ‘च’ शब्देन समुच्चितस्य च विपरीते ग्राह्यम्। धार्मिकदर्शन-संभ्रमसद्भावोपनयनसंसरणाभरुताप्रमादवर्जनादिः। तदेतच्छुभ-नामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यम्। = काय, वचन और मन की सरलता तथा अविसंवाद ये उस (अशुभ) से विपरीत हैं। उसी प्रकार पूर्व सूत्र की व्याख्या करते हुए च शब्द से जिनका समुच्चय किया गया है, उनके विपरीत आस्रवों का ग्रहण करना चाहिए। जैसे - धार्मिक पुरुषों व स्थानों का दर्शन करना, आदर सत्कार करना, सद्भाव रखना, उपनयन, संसार से डरना, और प्रमाद का त्याग करना आदि। ये सब शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं। ( राजवार्तिक/6/23/1/528/28 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/808/984 ); ( तत्त्वसार/4/48 )।
तत्त्वसार/4/59 व्रतात्किलास्रवेत्पुण्यं। = व्रत से पुण्यकर्म का आस्रव होता है।
योगसार/अमितगति/4/37 अर्हदादौ परा भक्तिः कारुण्यं सर्वजंतुषु। पावने चरणे रागः पुण्यबंधनिबंधनम्। 37। = अर्हंत आदि पाँचों परमेष्ठियों में भक्ति, समस्त जीवों पर करुणा और पवित्र चारित्र में प्रीति करने से पुण्य बंध होता है।
ज्ञानार्णव/2/7/3-7 यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिंतावलंबितं। मैत्र्यादिभावनारूढं मनः सूते शुभास्रवम्। 2। विश्वव्यापारनिर्मुक्तं श्रुतज्ञानावलंबितं। शुभास्रवाय विज्ञेयं वचः सत्यं प्रतिष्ठितम्। 5। सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेन वानिशम्। संचिनाति शुभं कर्म काययोगेन संयमी। 7। = यम (व्रत), प्रशम, निर्वेद तथा तत्त्वों का चिंतवन इत्यादि का अवलंबन हो, एवम् मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं की जिसके मन में भावना हो, वही मन शुभास्रव उत्पन्न करता है। 3। समस्त विश्व के व्यापारों से रहित तथा श्रुतज्ञान के अवलंबनयुक्त और सत्यरूप पारिणामिक वचन शुभास्रव के लिए होते हैं। 5। भले प्रकार गुप्तरूप किये हुए अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए काय से तथा निरंतर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभ कर्म को संचय करते हैं।
- भाव पुण्य का लक्षण
- पुण्य व पाप में पारमार्थिक समानता
- दोनों मोह व अज्ञान की संतान हैं
पंचास्तिकाय/131 मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य अस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो। 131। = जिसके भाव में मोह, राग, द्वेष अथवा चित्त प्रसन्नता है, उसे शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं। (तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसाद से शुभ-परिणाम और अप्रशस्तराग, द्वेष और मिथ्यात्व से अशुभ परिणाम हाते हैं।) (इसी गाथा की तत्त्वप्रदीपिका टीका)।
परमात्मप्रकाश/ मूल/2/53 बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ। सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ। 53। = बंध और मोक्ष का कारण अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद जो नहीं जानता है, वही पुण्य और पाप इन दोनों को मोह से करता है। ( नयचक्र बृहद्/299 )।
- परमार्थ से दोनों एक हैं
समयसार / आत्मख्याति/145 शुभोऽशुभो वा जीवपरिणामः केवलाज्ञानमयत्वा-देकस्तदेकत्वे सति कारणाभेदात् एकं कर्म। शुभोऽशुभो वा पुद्गल-परिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म। शुभोऽशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सत्यनुभावभेदादेकं कर्म। शुभाशुभौ मोक्षबंधमार्गौ तु प्रत्येकं जीव-पुद्गलमयत्वादेकौ तदनेकत्वे केवलपुद्गलमयबंधमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म। = शुभ व अशुभ जीव परिणाम केवल अज्ञानमय होने से एक हैं, अतः उनके कारण में अभेद होने से कर्म एक ही है। शुभ और अशुभ पुद्गलपरिणाम केवल पुद्लमय होने से एक हैं, अतः उनके स्वभाव में अभेद होने से कर्म एक है। शुभ व अशुभ फलरूप विपाक भी केवल पुद्गलमय होने से एक है, अतः उनके अनुभव या स्वाद में अभेद होने से दोनों एक हैं। यद्यपि शुभरूप (व्यवहार) मोक्षमार्ग केवल जीवमय और अशुभरूप बंधमार्ग केवल पुद्गलमय होने से दोनों में अनेकता है, फिर भी कर्म केवल पुद्लमयी बंधमार्ग के ही आश्रित है अतः उनके आश्रय में अभेद होने से दोनों एक हैं।
- दोनों की एकता में दृष्टांत
समयसार/146 सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं। 146। = जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, वैसे ही सेाने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है। इसी प्रकार अपने द्वारा किये गये शुभ व अशुभ दोनों ही कर्म जीव को बाँधते हैं। (योगसार/योगिन्दुदेव/72); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/77 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/1/166-167/279/16 )।
समयसार / आत्मख्याति/144/ कलश 101 एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव। द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः, शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण। 101। = (शूद्रा के) पेट से एक ही साथ जन्म को प्राप्त दो पुत्रों में से एक ब्राह्माण के यहाँ और दूसरा शूद्र के यहाँ पला (उनमें से) एक तो ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ इस प्रकार ब्राह्मणत्व के अभिमान से दूर से ही मदिरा का त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता, और दूसरा ‘मैं स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर नित्य मदिरा से ही स्नान करता है, अर्थात् उसे पवित्र मानता है। यद्यपि दोनों साक्षात् शूद्र हैं तथापि वे जातिभेद के भ्रमसहित प्रवृत्ति करते हैं। (इसी प्रकार पुण्य व पाप दोनों ही यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार समान हैं, फिर भी मोहदृष्टि के कारण भ्रमवश अज्ञानी जीव इनमें भेद देखकर पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा समझता है)।
समयसार / आत्मख्याति/147 कुशीलशुभाशुभकर्मम्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ बंधहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनी-रागसंसर्गवत्। = जैसे कुशील-मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुट्टनी के साथ (हाथी का) राग और संसर्ग उसके बंधन का कारण है, उसी प्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग बंध के कारण होने से, शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग करने का निषेध किया गया है।
- दोनों ही बंध व संसार के कारण हैं
सर्वार्थसिद्धि/1/4/15/3 इह पुण्यपापग्रहणं कर्तव्यं ‘नव पदार्था’ इत्यन्यैरप्युक्तवात्। न कर्तव्यम्, आस्रवे बंधे चांतर्भावात्। = प्रश्न - सूत्र में (सात तत्त्वों के साथ) पुण्य पाप का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, ‘पदार्थ नौ हैं’ ऐसा दूसरे आचायो ने भी कथन किया है? उत्तर - पुण्य और पाप का पृथक् ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका आस्रव और बंध में अंतर्भाव हो जाता है। ( राजवार्तिक/1/4/28/27/30 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/ अधिकार 2/चूलिका/पृष्ठ 81/10)
धवला 12/4,2,8,3/279/7 कम्मबंधो हि णाम सुहासुहपरिणामेहिंतो जायदे। = कर्म का बंध शुभ व अशुभ परिणामों से होता है।
नयचक्र बृहद्/299, 376 असुह सुह चिय कम्मं दुविहं तं पि दव्वभावभेयगयं। तं पिय पडुच्च मोहं संसारो तेण जीवस्स। 299। भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो विय सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा। 376। = कर्म दो प्रकार के हैं - शुभ व अशुभ। ये दोनों भी द्रव्य व भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। उन दोनों की प्रतीति से मोह और मोह से जीव को संसार होता है। 299। जब तक यह जीव भेद और उपचाररूप व्यवहार में वर्तता है तब तक वह शुभ और अशुभ के अधीन है। और तभी तक वह कर्ता कहलाता है, उससे ही आत्मा संसारी होता है। 376।
तत्त्वसार/4/104 संसारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषतः। न नाम निश्चये नास्ति विशेषः पुण्यपापयोः। 104। = निश्चय से दोनों ही संसार के कारण हैं, इसलिए पुण्य व पाप में कोई विशेषता नहीं है। (योगसार/अमितगति/4/40 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/181 तत्र पुण्यपुद्गलबंधकारणत्वात् शुभपरिणामः पुण्यं, पापपुद्गलबंधकारणत्वादशुभपरिणामः पापम्। = पुण्यरूप पुद्गलकर्म के बंध का काराण् होने से शुभपरिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से अशुभपरिणाम पाप है।
समयसार / आत्मख्याति/150/ कलश 103 कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद्, बंधसाधनमुशंत्यविशेषात्। तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं, ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः। 103। = क्योंकि सर्वज्ञदेव समस्त (शुभाशुभ) कर्म को अविशेषतया बंध का साधन कहते हैं, इसलिए उन्होंने समस्त ही कर्मों का निषेध किया है। और ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/374 )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/763 नेह्यं प्रज्ञापराधत्वान्निर्जराहेतुरंगतः। अस्ति नाबंधहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात्। 763। = बुद्धि की मंदता से यह भी आशंका नहीं करनी चाहिए कि शुभोपयोग एकदेश से निर्जरा का कारण हो सकता है। कारण कि निश्चयनय से शुभोपयोग भी संसार का कारण होने से निर्जरादिक का हेतु नहीं हो सकता और न वह शुभ ही कहा जा सकता है।
- दोनों ही दुःखरूप या दुःख के कारण हैं
समयसार/46 अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विंति। जस्स फलं तं वुच्चइ दुक्खं ति विपच्चमाणस्स। 45। = आठों प्रकार का कर्म सब पुद्गलमय है, तथा उदय में आने पर सबका फल दुःख है, ऐसा जिनेंद्र भगवान् ने कहा है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/240 )।
प्रवचनसार/72-75 णरणारयतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं। कि सो सुहो वा असुहो उवओगे हवदि जीवाणं। 72। कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं। देहादीणं विद्धि करेंति सुहिदा इवाभिरदा। 73। जदि संति हि पुव्वाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि। जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवतांतानां। 74। ते पुण्ण उदिण्णतिण्हा दुविहा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि। इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता। 75। = मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव सभी यदि देहोत्पन्न दुःख को अनुभव करते हैं तो जीवों का वह (अशुद्ध) उपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का कैसे हो सकता है। 72। वज्रधर और चक्रधर (इंद्र और चक्रवर्ती) शुभापयोगमूलक भोगों के द्वारा देहादि की पुष्टि करते हैं और भागों में रत वर्तते हुए सुखों जैसे भासित होते हैं। 73। इस प्रकार यदि पुण्य नाम की कोई वस्तु विद्यमान भी है तो वह देवों तक के जीवों को विषय तृष्णा उत्पन्न करते हैं। 74। और जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए मरण पर्यंत विषयसुखों को चाहते हैं, और दुःखों से संतप्त होते हुए और दुःखदाह को सहन न करते हुए उन्हें भोगते हैं। 75। (देवादिकों के वे सुख पराश्रित, बाधासहित और बंध के कारण होने से वास्तव में दुःख ही हैं - देखें सुख - 1)।
योगसार/अमितगति/9/25 धर्मतोऽपि भवो भोगो दत्ते दुःखपरंपरा। चंदनादपि संपन्नः पावकः प्लोषते न किम्। 25। = जिस प्रकार चंदन से उत्पन्न अग्नि भी अवश्य जलाती है, उसी प्रकार धर्म से उत्पन्न भी भोग अवश्य दुःख उत्पन्न करता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/250 न हि कर्मोदय कश्चित् जंतार्यः स्यात्सुखावहः। सर्वस्य कर्मणस्तत्र वैलक्षण्यात् स्वरूपतः। 250। = कोई भी कर्म का उदय ऐसा नहीं जो कि जीव को सुख प्राप्त कराने वाला हो, क्योंकि स्वभाव से सभी कर्म आत्मा के स्वभाव से विलक्षण हैं।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/4/121/11
दोन्यौं ही आकुलता के कारण हैं, तातैं बुरे ही हैं। .....परमार्थ तैं जहाँ आकुलता है तहाँ दुःख ही है, तातैं पुण्य-पाप के उदय कौं भला-बुरा जानना भ्रम है।
देखें सुख - 1 (पुण्य से प्राप्त लौकिक सुख परमार्थ से दुःख है।)
- दोनों ही हेय हैं तथा इसका हेतु
समयसार/150 रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज। 150। = रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्म से छूटता है, यह जिनेंद्र भगवान् का उपदेश है। इसलिए तू कर्मों में प्रीति मत कर। अर्थात् समस्त कर्मों का त्याग कर। (और भी देखें पुण्य - 2.3 में समयसार / आत्मख्याति/147; तथा पुण्य 2.4 में समयसार / आत्मख्याति/150/ कलश 103)।
समयसार / आत्मख्याति/163/ कलश 109 संन्यस्तमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना, संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्, नैकष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति। 109। = मोक्षार्थी को यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य हैं। जहाँ समस्त कर्मों का त्याग किया जाता है, तो फिर वहाँ पुण्य व पाप (को अच्छा या बुरा कहने) की क्या बात है? समस्त कर्मों का त्याग होने पर, सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होने से, परिणमन करने से मोक्ष का कारणभूत होता हुआ, निष्कर्म अवस्था के साथ जिसका उद्धतरस प्रतिबद्ध है, ऐसा ज्ञान अपने आप दौड़ा चला आता है।
समयसार / आत्मख्याति/150 सामान्येन रक्तत्वनिमित्त्वाच्छुभमशुभमुभयकर्माविशेषण बंधहेतुं साधयति, तुदभयमपि कर्म प्रतिषेधयति। = सामान्यपने रागीपन की निमित्तता के कारण शुभ व अशुभ दोनों कर्मों को अविशेषतया बंध के कारणरूप सिद्ध करता है, और इसलिए (आगम) दोनों कर्मों का निषेध करता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/212 यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयदशुद्धोपोगसद्भावः षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्यय-बंधप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात्। ....ततस्तैस्तैः सर्वप्रकारैः शुद्धोपयोगरूपोऽंतरंगच्छेदः प्रतिषेध्यो यैर्यैस्तदायतनमात्रभूतः प्राणव्यपरोपरूपो बहिरंगच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात्। = जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होनेवाला अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसक ही है, क्योंकि तहाँ छह काय के प्राणों के व्यपरोप के आश्रय से होनेवाले बंध की प्रसिद्धि है। (देखें हिंसा - 1)। इसलिए उन-उन सर्व प्रकारों से अशुद्धोपयोगरूप अंतरंगच्छेद निषिद्ध है, जिन-जिन प्रकारों से कि उसका आयतन मात्र भूत पर प्राणव्यपरोपरूप बहिरंगच्छेद भी अत्यंत निषिद्ध हो।
द्रव्यसंग्रह टीका/38/159/7 सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम्। = सम्यग्दृष्टि जीव के पुण्य और पाप दोनों हेय हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/131/194/14 )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/374 उक्तमाक्ष्यं सुखं ज्ञानमनादेयं दृगात्मनः। नादेयं कर्म सव च तद्वद् दृष्टोपलब्धितः। 374। = जैसे सम्यग्दृष्टि को उक्त इंद्रियजय सुख और ज्ञान आदेय नहीं होते हैं, वैसे ही आत्मप्रत्यक्ष होने के कारण संपूर्ण कर्म भी आदेय नहीं होते हैं।
- दोनों में भेद समझना अज्ञान है
प्रवचनसार/77 ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछन्नो। 77। = ‘पुण्य और पाप इस प्रकार कोई भेद नहीं है’ जो ऐसा नहीं मानता है, वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है। ( परमात्मप्रकाश/ मूल/2/55)।
योगसार/अमितगति/4/39 सुखदुःखविधानेन विशेषः पुण्यपापयोः। नित्यं सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मंदबुद्धिभिः। 39। = अविनाशी निराकुल सुख को न देखनेवाले मंदबुद्धिजन ही सुख व दुःख के करणरूप विशेषता से पुण्य व पाप में भेद देखते हैं।
- दोनों मोह व अज्ञान की संतान हैं
- पुण्य की कथंचित् अनिष्टता
- संसार का कारण होने से पुण्य अनिष्ट है
समयसार/145 कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि। 145। = अशुभकर्म कुशील है और शुभकर्म सुशील है, ऐसा तुम (मोहवश) जानते हो। किंतु वह भला सुशील कैसे हो सकता है, जबकि वह संसार में प्रवेश कराता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/77 यस्तु पुनरनयोः... विशेषमभिमन्यमानो... धर्मानुरागमवलंबते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःखमेवानुभवति। = जो जीव उन दोनों (पुण्य व पाप) में अंतर मानता हुआ धर्मानुराग अर्थात् पुण्यानुराग पर अवलंबित है, वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से, जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ, संसार पर्यंत शारीरिक दुःख का ही अनुभव करता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/410 पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगईहेदुं पुण्णखएणेव णिव्वाणं। 410। = जो पुण्य को भी चाहता है, वह संसार को चाहता है, क्योंकि पुण्य सुगति का कारण है। पुण्य का क्षय होने से ही मोक्ष होता है।
- शुभ भाव कथंचित् पापबंध के भी कारण हैं
राजवार्तिक/6/3/7/507/26 शुभ: पापस्यापि हेतुरित्यविरोधः। = शुभपरिणाम पाप के भी हेतु हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें पुण्य - 5)।
- वास्तव में पुण्य शुभ है ही नहीं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/763 शुभो नाप्यशुभावहात्। 763। = निश्चयनय से शुभोपयोग भी संसार का कारण होने से शुभ कहा ही नहीं जा सकता।
- अज्ञानीजन ही पुण्य को उपादेय मानते हैं
समयसार/154 परमट्ठ बाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। संसारगमणहेदुं वि मोक्खहेदु अजाणंतो। 154। = जो परमार्थ से बाह्य हैं, वे मोक्ष के हेतु को न जानते हुए संसार गमन का हेतु होने पर भी, अज्ञान से पुण्य को (मोक्ष का हेतु समझकर) चाहते हैं। (तिलोयपण्णत्ति/9/53)
मोक्षपाहुड़/54 सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू। सो तेण हु अण्णाणी णाणी एत्तो हु विवरीओ। 54। = इष्ट वस्तुओं के संयोग में राग करनेवाला साधु अज्ञानी है। ज्ञानी उससे विपरीत होता है अर्थात् वह शुभ व अशुभ कर्म के फलरूप इष्ट-अनिष्ट सामग्री में राग-द्वेष नहीं करता।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/54 दंसणणाणचरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ। मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ। 54। = जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी आत्मा को नहीं जानता, वही हे जीव! उन पुण्य व पाप दोनों को मोक्ष के कारण जानकर करता है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/229/17)
- ज्ञानी तो पापवत् पुण्य का भी तिरस्कार करता है
तिलोयपण्णत्ति/9/52 पुण्णेण होइ विहओ विहवेण मओ मएण मइमोहो। मइमोहेण य पावं तम्हा पुण्णो वि वज्जेओ। 52। = चूँकि पुण्य से विभव, विभव से मद, मद से मतिमोह और मतिमोह से पाप होता है, इसलिए पुण्य को भी छोड़ना चाहिए - (ऐसा पुण्य हमें कभी न हो) - (परमात्मप्रकाश/मूल/2/60)
योगसार/यो./71 जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु को वि मुणेइ। जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेइ। 7॥ = पाप को पाप तो सब कोई जानता है, परंतु जो पुण्य को भी पाप कहता है ऐसा पंडित कोई विरला ही है।
- ज्ञानी पुण्य को हेय समझता है
समयसार/210 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्मं। अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण स होई। 210। = ज्ञानी परिग्रह से रहित है, इसलिए वह परिग्रह की इच्छा से रहित है। इसी कारण वह धर्म अर्थात् पुण्य (तात्पर्यवृत्ति टीका) को नहीं चाहता इसलिए उसे धर्म या पुण्य का परिग्रह नहीं है। वह तो केवल उसका ज्ञायक ही है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/409, 412 एदे दहप्पयारा पावं कम्मस्स णासिया भणिया। पुण्णस्स य संजणया परपुण्णंत्थं ण कायव्वं। 409। पुण्णे वि ण आयरं कुणह। 412। = ये धर्म के दश भेद पापकर्म का नाश और पुण्यकर्म का बंध करनेवाले कहे जाते हैं, परंतु इन्हें पुण्य के लिए नहीं करना चाहिए। 409। पुण्य में आदर मत करो। 412।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41/कलश 59 सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं, त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः। ...भवविमुक्तयै...। 59। = समस्त पुण्य भोगियों के भोग का मूल है। परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्तवाले मुनीश्वर भव से विमुक्त होने के हेतु उस समस्त शुभकर्म को छोड़ो।
- ज्ञानी तो कथंचित् पाप को ही पुण्य से अच्छा समझते हैं
परमात्मप्रकाश/मूल/2/56-57 वर जिय पावइँ सुंदरइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइ जाइँ कुणंति। 56। मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइं जणंति। 57। = हे जीव! जो पाप का उदय जीव को दुःख देकर शीघ्र ही मोक्ष के जाने योग्य उपायों में बुद्धि कर देवे, तो वे पाप भी बहुत अच्छे हैं। 56। और फिर वे पुण्य भी अच्छे नहीं जो जीव को राज्य देकर शीघ्र ही नरकादि दुःखों को उपजाते हैं (देखें अगला शीर्षक ) ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं।
- मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यंत अनिष्ट हैं
भगवती आराधना/57-60/182-187 जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होंति। ते तस्स कडुगदोद्धियगदं च दुद्धं हवे अफला। 57। जह भेसजं पि दोसं आवहइ विसेण संजुदं संते। तह मिच्छत्तविसजुदा गुणा वि दोसावहा होंति। 58। दिवसेण जोयणसयं पि गच्छमाणो सगिच्छिदं देसं। अण्णंतो गच्छंतो जह पुरिसो णेव पाउणादि। 59। धणिदं पि संजमंतो मिच्छादिट्ठी तहा ण पावेई। इट्ठं णिव्वुइ मग्गं उग्गेण तवेण जुत्तो वि। 60। = अहिंसा आदि पाँच व्रत आत्मा के गुण हैं, परंतु मरण समय यदि ये मिथ्यात्व से संयुक्त हो जायें तो कड़वी तुंबी में रखे हुए दूध के समान व्यर्थ हो जाते हैं। 57। जिस प्रकार विष मिल जाने पर गुणकारी भी औषध दोषयुक्त हो जाता है, इसी प्रकार उपरोक्त गुण भी मिथ्यात्वयुक्त हो जाने पर दोषयुक्त हो जाते हैं। 58। जिस प्रकार एक दिन में सौ योजन गमन करनेवाला भी व्यक्ति यदि उलटी दिशा में चले तो कभी भी अपने इष्ट स्थान को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार अच्छी तरह व्रत, तप आदि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि कदापि मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। 59-60।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/59 जे णिय-दंसण-अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहंति। तिं बिणु पुण्णु करंता वि दुक्खु अणंतु सहंति। 59। = जो सम्यग्दर्शन के सम्मुख हैं, वे अनंत सुख को पाते हैं, और जो जीव सम्यक्त्व रहित हैं, वे पुण्य करते हुए भी, पुण्य के फल से अल्पसुख पाकर संसार में अनंत दुःख भोगते हैं। 59।
परमात्मप्रकाश/मूल/2/58 वर णियदंसण अहिमुह मरणु वि जीव लहेसि। मा णियदंसणविम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि। 58। = हे जीव! अपने सम्यग्दर्शन के सम्मुख होकर मरना भी अच्छा है, परंतु सम्यग्दर्शन से विमुख होकर पुण्य करना अच्छा नहीं है। 58।
देखें भोग - (पुण्य से प्राप्त भोग पाप के मित्र हैं)।
देखें पुण्य - 5.1 (प्रशस्त भी राग कारण की विपरीतता से विपरीतरूप से फलित होता है।)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/444 नापि धर्मः क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थतः। नित्यं रागदिसद्भावात् प्रत्युताधर्म एव सः। 444। = मिथ्यादृष्टि के सदा रागादिभाव का सद्भाव रहने से केवल क्रियारूप व्यवहार धर्म का अर्थात् शुभयोग का पाया जाना भी धर्म नहीं है। किंतु अधर्म ही है। 444।
भा.पा/पं.जयचंद/117
अन्यमत के श्रद्धानीकै जो कदाचित् शुभ लेश्या के निमित्ततैं पुण्य भी बंध होय तौ ताकूं पाप ही में गिणिये।
- मिथ्यात्व युक्त पुण्य तीसरे भव नरक का कारण है
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/58/185/9 मिथ्यादृष्टेर्गुणाः पापानुबंधि स्वल्पमिंद्रियसुखं दत्वा बह्वारंभपरिग्रहादिषु आसक्तं नरके पातयंति। = मिथ्यादृष्टि ये अहिंसादि गुण (या व्रत) पापानुबंधी स्वल्प इंद्रियसुख की प्राप्ति तो कर लेते हैं, परंतु जीव को बहुत आरंभ और परिग्रह में आसक्त करके नरक में ले जाते हैं।
परमात्मप्रकाश टीका/2/57/179/8 निदानबंधोपार्जितपुण्येन भवांतरे राज्यादिविभूतौ लब्धायां तु भोगान् त्यक्तुं न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःखं लभते रावणादिवत्। = निदान बंध से उत्पन्न हुए पुण्य से भवांतर में राज्यादि विभूति की प्राप्ति करके मिथ्यादृष्टि जीव भोगों का त्याग करने में समर्थ नहीं होता, अर्थात् उनमें आसक्त हो जाता है। और इसलिए उस पुण्य से वह रावण आदि की भाँति नरक आदि के दुःखों को प्राप्त करता है। (द्रव्यसंग्रह टीका/38/160/9); (समयसार / तात्पर्यवृत्ति/224-227/305/17 )
- संसार का कारण होने से पुण्य अनिष्ट है
- पुण्य की कथंचित् इष्टता
- पुण्य व पाप में महान् अंतर है
भगवती आराधना/61 जस्स पुण मिच्छदिट्ठिस्स णत्थि सीलं वदं गुणो चावि। सो मरणे अप्पाणं कह ण कुणइ दीहसंसारं। 61। = जब व्रतादि सहित भी मिथ्यादृष्टि संसार में भ्रमण करता है (देखें पुण्य - 3.8) तब व्रतादि से रहित होकर तो क्यों दीर्घसंसारी न होगा?
मोक्षपाहुड़/25 वर वयतवेहिं सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं। छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं। 25। जिस प्रकार छाया और आतप में स्थित पथिकों के प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है, उसी प्रकार पुण्य व पाप में भी बड़ा भेद है। व्रत, तप, आदि रूप पुण्य श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और उससे विपरीत अव्रत व अतप आदिरूप पाप श्रेष्ठ नहीं हैं, क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है। ( इष्टोपदेश/3 ); ( अनगारधर्मामृत/8/15/740 )।
तत्त्वसार/4/103 हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः। हेतू शुभाशुभौ भावौ कार्ये चैव सुखासुखे। 103। = हेतु और कार्य की विशेषता होने से पुण्य और पाप में अंतर है। पुण्य का हेतु शुभभाव है और पाप का अशुभभाव है। पुण्य का कार्य सुख है और पाप का दुःख है।
- इष्ट प्राप्ति में पुरुषार्थ से पुण्य प्रधान है
भगवती आराधना/1731/1562 पाओदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सदि णरस्स। दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण। 1731। = पाप का उदय आने पर हस्तगत द्रव्य भी नष्ट हो जाता है और पुण्य का उदय आने पर प्रयत्न के बिना ही दूर देश से भी धन आदि इष्ट सामग्री की प्राप्ति हो जाती है। (कुरल काव्य/38/6); (पं.वि./1/188)। और भी नियति/3/5 (दैव ही इष्टानिष्ट को सिद्धि में प्रधान है। उसके सामने पुरुषार्थ निष्फल है।)
आ.अनु/37 आयु श्रीर्वपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोपार्जितं, स्यात् सर्वं न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि। 37। = यदि पूर्वोपार्जित पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी और शरीरादि भी यथेच्छित प्राप्त हो सकते हैं, परंतु यदि वह पुण्य नहीं है तो फिर अपने को क्लेशित करने पर भी वह सब बिलकुल भी प्राप्त नहीं हो सकता। (प.वि./1/184)।
पं.वि./3/36 वांछत्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते। = संसार में मनुष्य सुख की इच्छा करते हैं परंतु वह उन्हें विधि के द्वारा दिया गया प्राप्त होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/428, 434 लच्छिं वंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ। बीएण विणा कत्थ वि किं दीसदि सस्स णिपत्ती। 428। ...उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती। धम्मपहावेण...। 434। =यह जीव लक्ष्मी तो चाहता है, किंतु सुधर्म से (पुण्यक्रियाओं से) प्रीति नहीं करता। क्या कहीं बिना बीज के भी धान्य की उत्पत्ति देखी जाती है?। 428। धर्म के प्रभाव से उद्यम न करनेवाले मनुष्य को भी लक्ष्मी की प्राप्ति हो जाती है। 434। (पं.वि./1/189)।
अनगारधर्मामृत/1/37, 60 विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या गुडखंडसितामृतैः। स्पर्धमानाः फलिष्यंते भावाः स्वयमितस्ततः। 37। पुण्यं हि संमुखीनं चेत्सुखोपायाशतेन किम्। न पुण्यं संमुखीनं चेत्सुखोपायशतेन किम्। 60। हे पुण्यशालियो! तनिक विश्राम करो अर्थात् अधिक परिश्रम मत करो। गुड़, खांड, मिश्री और अमृत से स्पर्धा रखनेवाले पदार्थ तुमको स्वयं इधर उधर सेप्राप्त हो जायेंगे। 428। पुण्य यदि उदय के सम्मुख है तो तुम्हें दूसरे सुख के उपाय करने से क्या प्रयोजन हैं और वह सम्मुख नहीं है तो भी तुम्हें दूसरे सुख के उपाय करने से क्या प्रयोजन है?। 426।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/ प्रक्षेपक 219-1/301/13 अनेन प्रकारेण पुण्योदये सति सुवर्णं भवति न च पुण्याभावे। = इस प्रकार से (नागफणी की जड़, हथिनी का मूत, सिंदूर और सीसा इन्हें भट्टी में धौंकनी से धौंकने के द्वारा) सुवर्ण केवल तभी बन सकता है, जबकि पुण्य का उदय हो, पुण्य के अभाव में नहीं बन सकता।
पृष्ठ 64 से
- पुण्य की महिमा व उसका फल
कुरल काव्य/4/1-2 धर्मात् साधुतरः कोऽन्यो यतो विंदंति मानवाः। पुण्यं स्वर्गप्रदं नित्यं निर्वाणं च सुदुर्लभम्। 1। धर्मान्नास्त्यपरा काचित् सुकृतिर्देहधारिणाम्। तत्त्यागान्न परा काचिद् दुष्कृतिर्देहभागिनाम्। 2। = धर्म से मनुष्य को स्वर्ग मिलता है और उसी से मोक्ष कीप्राप्ति भी होती है, फिर भला धर्म से बढ़कर लाभदायक वस्तु और क्या है?। 1। धर्म से बढ़कर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देने से बढ़कर और कोई बुराई भी नहीं। 2।
धवला 1/1,1,2/105/4 काणि पुण्ण-फलाणि। तित्थयरगणहर-रिसि-चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहार-रिद्धीओ। = प्रश्न - पुण्य के फल कौन से हैं? उत्तर - तीथकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।
महापुराण/37/191-199 पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी। पुण्याद् विना कुतस्तादृग् अभेदद्यगात्रबंधनम्। 191। पुण्याद् विना कुतस्तादृङ्निधिरत्नर्द्धिरूर्जिता। पुण्याद् विना कुतस्तादृग्इभाश्वादिपरिच्छदः। 192। = पुण्य के बिना चक्रवर्ती के समान अनुपम रूप, संपदा, अभेद्य शरीर का बंधन, अतिशय उत्कट निधि, रत्नों की ऋद्धि, हाथी घोड़े आदि का परिवार। 191-192। (तथा इसी प्रकार) अंतःपुर का वैभव, भोगोपभोग, द्वीप समुद्रों की विजय तथा सर्व आज्ञा व ऐश्वर्यता आदि। 193-199। ये सब कैसे प्राप्त हो सकते हैं। (पं.वि./1/188)।
पं.वि./1/189 कोऽप्यंधोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा ग्रस्तोऽपि लावण्यवान्, निःप्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्याद्युष्यते मन्मथः। उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरामालिंग्यते च श्रिया, पुण्यादन्यदपि प्रशस्तमखिलं जायेत् यद्दुर्घटनम्। 189। = पुण्य के प्रभाव से कोई अंधा भी प्राणी निर्मल नेत्रों का धारक हो जाता है, वृद्ध भी लावण्ययुक्त हो जाता है, निर्बल भी सिंह जैसा बलिष्ठ हो जाता है, विकृत शरीरवाला भी कामदेव के समान सुंदर हो जाता है। जो भी प्रशंसनीय अन्य समस्त पदार्थ यहाँ दुर्लभ प्रतीत होते हैं, वे सब पुण्योदय से प्राप्त हो जाते हैं। 189।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/434 अलियवयणं पि सच्चं...। धम्मपहावेण णरो अणओ वि सुहंकरो होदि। 434। = धर्म के प्रभाव से जीव के झूठ वचन भी सच्चे हो जाते हैं, और अन्यान्य भी सब सुखकारी हो जाता है।
- पुण्य करने की प्रेरणा
कुरल काव्य/4/3 सत्कृत्यं सर्वदा काय यदुदर्के सुखावहम्। पूर्णशक्तिं समाधाय महोत्साहेन धीमता। 3। = अपनी पूरी शक्ति और पूरे उत्साह के साथ सत्कर्म सदा करते रहो।
महापुराण/37/200 ततः पुण्योदयोद्भूतां मत्वा चक्रभृतः श्रियम्। चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसंपदाम्। 200। = इसलिए हे पंडित जनो! चक्रवर्ती की विभूति को पुण्य के उदय से उत्पन्न हुई मानकर, उस पुण्य का संचय करो, जो कि समस्त सुख और संपदाओं की दुकान के समान है। 200।
आत्मानुशासन/23, 31, 37 परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः। तस्मात्पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः। 23। पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्य-मनीदृशोऽपि, नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै। संतापयंजगद-शेषमशीतरश्मिः, पद्मेषु पश्य विदधाति विकाशलक्ष्मीम्। 31। इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मंदोद्यमा द्रागागामि-भवार्थमेव सततं प्रीत्या यतंते तराम्। 37। = विद्वान् मनुष्य निश्चय से आत्मपरिणाम को ही पुण्य और पाप का कारण बतलाते हैं, इसलिए अपने निर्मल परिणाम के द्वारा पूर्वोपार्जित पाप की निर्जरा, नवीन पाप का निरोध और पुण्य का उपार्जन करना चाहिए। 23। हे भव्य जीव! तू पुण्य कार्य को कर, कयोंकि पुण्यवान् प्राणी के ऊपर असाधारण उपद्रव् भी कोई प्रभाव नहीं डाल सकता है। उलटा वह उपद्रव ही उसके लिए संपत्ति का साधन बन जाता है। 31। इसलिए योग्यायोग्य कार्य का विचार करनेवाले श्रेष्ठ जन भले प्रकार विचार करके इस लोकसंबंधी कार्य के विषय में विशेष प्रयत्न नहीं करते हैं, किंतु आगामी भवों को सुंदर बनाने के लिए ही वे निरंतर प्रीति पूर्वक अतिशय प्रयत्न करते हैं। 37।
पं.वि./1/183-188 नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहाश्रांतं यतघ्वं बुधाः। 183। निर्धूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम्। 186। अन्यतरं प्रभवतीह निमित्तमात्रं, पात्रं बुधा भवत निर्मल-पुण्यराशेः। 188। = इस संसार में डूबते हुए प्राणियों का उद्धार करनेवाला धर्म को छोड़कर और कोई दूसरा नहीं है। इसलिए हे विद्वज्जनो! आप निरंतर धर्म के विषय में प्रयत्न करें। 183। निश्चय से समस्त दुःखदायक आपत्तियों को नष्ट करनेवाले धर्म में अपनी बुद्धि को लगाओ। 186। (पुण्य व पाप ही वास्तव में इष्ट संयोग व वियोग के हेतु हैं) अन्य पदार्थ तो केवल निमित्त मात्र हैं। इसलिए हे पंडित जन! निर्मल पुण्यराशि के भाजन होओ अर्थात् पुण्य उपार्जन करो। 188।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/437 इय पच्चक्खं पेच्छइ धम्माहम्माण विविहमाहप्पं। धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह। 437। = हे प्राणियों! इस प्रकार धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर सदा धर्म का आचरण करो, और पाप से दूर ही रहो।
देखें धर्म - 5.2 (सावद्य होते हुए भी पूजा आदि शुभ कार्य अवश्य करने कर्तव्य हैं)।
- पुण्य व पाप में महान् अंतर है
- पुण्य की अनिष्टता व इष्टता का समन्वय
- पुण्य दो प्रकार का होता है
प्र.सा/मू./255 व त.प्र./256 रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं। णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि। 255। शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्व-कोऽपुनर्भवोपलंभः किल फलं, तत्तु कारणवैपरीत्याद्विपर्यय एव। तत्र छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं तेषु व्रतनियमाध्ययन-ध्यानदानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्यापुनर्भवशून्यकेवलपुण्यपसदप्राप्तिः। फलवैपरीत्यं तत्सुदेवमनुजत्वं। = जैसे इस जगत् में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हए बीज धान्यकाल में विपरीततया फलित होते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तुभेद से विपरीततया फलता है। 255। सर्वज्ञ स्थापित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य-संचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। वह फल कारण की विपरीतता होने से विपरीत ही होता है। वहाँ छद्मस्थ स्थापित वस्तु में कारण विपरीतता है, (क्योंकि) उनमें व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान आदि रूप से युक्त शुभोपयोग का फल जो मोक्षशून्य केवल पुण्यास्पद की प्राप्ति है, वह फल की विपरीतता है। वह फल सुदेव मनुष्यत्व है। (अर्थात् पुण्य दो प्रकार का है - एक सम्यग्दृष्टि का और दूसरा मिथ्यादृष्टि का। पहिला परंपरा मोक्ष का कारण है और दूसरा केवल स्वर्ग संपदा का)।
देखें मिथ्यादृष्टि - 4 (सम्यग्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबंधी होता है और मिथ्यादृष्टि का पापानुबंधी)।
देखें धर्म - 7.8-12 (सम्यग्दृष्टि का पुण्य तीथकर प्रकृति आदि के बंध का कारण होने से विशिष्ट प्रकार का है)।
देखें पुण्य - 3.9 (और मिथ्यादृष्टि का पुण्य निदान सहित व भोगमूलक होने के कारण आगे जाकर कुगतियों का कारण होता है, अतः अत्यंत अनिष्ट है)।
देखें मिथ्यादृष्टि - 4 (मिथ्यादृष्टि भोगमूलक धर्म की श्रद्धा करता है। मोक्षमूलक धर्म को वह जानता ही नहीं)।
- भोगमूलक पुण्य ही निषिद्ध है योगमूलक नहीं
पं.विं./7/25 पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः, शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरतः। तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो संमतः, यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते। 25। = धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन सुख से युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। शेष तीन पुरुषार्थ उससे विपरीत (अस्थिर) स्वभाववाले हैं। अतएव वे मुमुक्षुजन के लिए छोड़ने के योग्य हैं। इसलिए जो धर्मपुरुषार्थ उपर्युक्त मोक्षपुरुषार्थ का साधन होता है वह हमें अभीष्ट है, किंतु जो धर्म केवल भोगादिका ही कारण होता है, उसे विद्वज्जन पाप ही समझते हैं।
देखें धर्म - 7 (यद्यपि व्यवहार धर्म पुण्य प्रधान होता है, परंतु यदि निश्चय धर्म की ओर झुका हुआ हो तो परंपरा से निर्जरा व मोक्ष का कारण होता है।)
परमात्मप्रकाश टीका/2/60/182/1 इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरत्नत्रयाराधनारहितेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदान-बंधपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे तदेव मदमहंकार जनयति बुद्धिविनाशं च करोति। न च पुनः सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरतसगररामपांडवादिपुंयबंधवत्। ...मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गताः। = भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना से रहित तथा दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षारूप निदानबंध से सहित होने के कारण ही, जीवों के द्वारा पूर्व में उपार्जित किया गया वह पूर्वोक्त पुण्य मद व अहंकार उत्पन्न करता है तथा बुद्धि को भ्रष्ट करता है; परंतु सम्यक्त्वादि गुणों से सहित पुण्य ऐसा नहीं करता। जैसे कि भरत, सगर, राम व पांडवादि का पुण्य, जिसको प्राप्त करके भी वे मद और अहंकारादि विकल्पों के त्यागपूर्वक मोक्ष को प्राप्त हो गये। ( परमात्मप्रकाश टीका/2/57/179/8 )।
- पुण्य के निषेध का कारण व प्रयोजन
प्रवचनसार/11 धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं। 11। = धर्म से परिणत स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्ध उपयोग में युक्त हो तो मोक्ष सुख को प्राप्त करता है, और यदि शुभोपयोग वाला हो तो स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है (इसलिए मुमुक्षु को शुद्धोपयोग ही प्रिय है शुभोपयोग नहीं।) (वा.अ./42); ( तिलोयपण्णत्ति/9/57 )।
देखें पुण्य - 2.6 - (अशुद्धोपयोग होने के कारण पुण्य व पाप दोनों त्याज्य हैं।)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/410 पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगई-हेदुं पुण्ण-खएणेव णिव्वाणं। 410। = जो पुण्य को चाहता है वह संसार को चाहता है क्योंकि पुण्य सुगति का कारण है। पुण्यक्षय होने से ही मोक्ष होता है। (अतः मुमुक्षु भव्य पुण्य के क्षय का प्रयत्न करता है, उसकी प्राप्ति का नहीं।)
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41/ क, 59 सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं, त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः। उभयसमयसारं सारतत्त्व-स्वरूपं, भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीशः। 59। = समस्त सुकृत (शुभ कर्म) भोगियों के भोग का मूल है; परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्तवाले मनुीश्वर भव से विमुक्त होने के हेतु उन समस्त शुभकर्म को छोड़ो और सारतत्त्वस्वरूप ऐसे उभय समयसार को भजो। इसमें क्या दोष है?
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/180/243/16 अयं परिणामः सर्वोऽपि सोपाधित्वात् बंधहेतुरिति ज्ञात्वा बंधे शुभाशुभसमस्तरागद्वेष-विनाशार्थं समस्त रागाद्युपाधिरहिते सहजानंदैकलक्षणसुखामृतस्वभावे निजात्मद्रव्ये भावना कर्त्तव्येति तात्पर्यम्। = ये शुभ व अशुभ समस्त ही परिणाम उपाधि सहित होने के कारण बंध के हेतु हैं (देखें पुण्य - 2.4)। ऐसा जानकर, बंधरूप समस्त शुभाशुभ रागद्वेष का विनाश करने के लिए, समस्त रागादि उपाधि से रहित सहजानंद लक्षणवाले सुखामृत स्वभावी निजात्मद्रव्य में भावना करनी चाहिए ऐसा तात्पर्य है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128-130/193/11 )।
देखें धर्म - 5.2 (शुद्धभाव का आश्रय करने पर ही शुभभावों का निषेध किया है सर्वथा नहीं।)
मो.मो.प्र./7/301/14 प्रश्न - शास्त्रविषैं शुभ-अशुभ कौं समान कह्या है (देखें पुण्य - 2), तातैं हमकों तौ विशेष जानना युक्त नाहीं?उत्तर - जे जीव शुभोपयोग को मोक्ष का कारण मानि, उपादेय मानैं, शुद्धोपयोग को नाहीं पहिचानै हैं, तिनिकौं शुभ-अशुभ दोऊनिकौं अशुद्धता की अपेक्षा वा बंधकारण की अपेक्षा समान दिखाये हैं, बहुरि शुभ-अशुभ का परस्पर विचार कीजिए, तौ शुभभावनि विषैं कषाय मंद हो है, तातैं बंध हीन होहै। अशुभ भावनिविषैं कषाय तीव्र हो है, तातैं बंध बहुत हो है। ऐसे विचार किए अशुभ की अपेक्षा सिद्धांत विषै शुभ को भला भी कहिये है। (देखें पुण्य - 4.1 तथा पुण्य/5/5)।
- सम्यग्दृष्टि का पुण्य निरीह होता है
इष्टोपदेश/4 यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद्दूरवर्तिनी। यो नयत्याशु गव्यूति कोशाद्धे किं स सीदति। 4। = जो मनुष्य किसी भार को स्वेच्छा से शीघ्र दो कोस ले जाता है, वह उसी भार को आधाकोस ले जाने में कैसे खिन्न हो सकता है? उसी प्रकार जिस भाव में मोक्ष-सुख प्राप्त कराने की सामर्थ्य है उसे स्वर्गसुख की प्राप्ति कितनी दूर है अर्थात् कौन बड़ी बात है?
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/411-412 जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसयसोक्खतण्हाए। दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि। 411। पुण्णासाए ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णो वि म (ण) आयरं कुणह। 412। = जो कषाय सहित होकर विषय-तृष्णा से पुण्य की अभिलाषा करता है, उससे विशुद्धि और विशुद्धि-मूलक पुण्य दूर है। 411। तथा पुण्य की इच्छा करने से पुण्य नहीं होता, बल्कि निरीह (इच्छा रहित) व्यक्ति को ही उसकी प्राप्ति होती है। अतः ऐसा जानकर हे यतीश्वरो ! पुण्य में भी आदरभाव मत करो। 412।
- पुण्य के साथ पाप-प्रकृतियों के बंध संबंधी समन्वय
राजवार्तिक/6/3/7/507/23 स्यादेतत्-शुभः पुण्यस्येत्यनिर्देशः, ...कुतः। घातिकर्मबंधस्य शुभपरिणामहेतुत्वादितिः तन्नः किं कारणम्। इतरपुण्यपापापेक्षत्वात्, अघातिकर्मसु पुण्यं पापं चापेक्ष्येदमुच्यते। कुतः। घातिकर्मबंधस्य स्वविषये निमित्तत्वात्। अभवा नैवमवधारणं, क्रियते-शुभः पुण्यस्यैवेति। कथं तर्हि। शुभ एव पुण्यस्येति। तेन शुभः पापस्यापि हेतुरित्यविरोधः। यद्येवं शुभः पापस्यापि [हेतुः] भवतिः अशुभः पुण्यस्यापि भवतीत्यभ्युपगमः कर्तव्यः, सर्वोत्कृष्टस्थितीनाम् उत्कृष्टसंक्लेशहेतुकत्वात्। ...ततः सूत्रद्वयमनर्थकमितिः नानर्थकम्ः अनुभागबंधं प्रत्येतदुक्तम्। अनुभागबंधो हि प्रधानभूतः तन्निमित्तत्वात् सुख-दुःखविपाकस्य। तत्रोत्कृष्टविशुद्धपरिणामनिमित्तः सर्वशुभप्रकृती-नामुत्कृष्टाणुभागबंधः। उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामनिमित्तः सर्वाशुभ-प्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबंधः। शुभपरिणामः अशुभजघन्यानुभाग-बंधहेतुत्वेऽपि भूयसः शुभस्य हेतुरिति शुभः पुण्यस्येत्युच्यते, यथा अल्पापकारहेतुरपि बहूपकारसद्भावादुपकार इत्युच्यते। एवमशुभः पापस्येत्यपि। = प्रश्न - जब घाति कर्मों का बंध भी शुभ परिणामों से होता है तो ‘शुभः पुण्यस्य’ अर्थात् ‘शुभपरिणाम पुण्यास्रव के कारण हैं’ यह निर्देश व्यर्थ हो जाता है? उत्तर - 1.अघातिया कर्मों में जो पुण्य और पाप प्रकृतियाँ हैं, उनकी अपेक्षा ही यहाँ पुण्य व पाप हेतुता का निर्देश है, घातिया की अपेक्षा नहीं। 2. अथवा शुभ पुण्य का ही कारण है ऐसा अवधारण नहीं करते हैं; किंतु ‘शुभ ही पुण्य का कारण है’ यह अवधारण किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि शुभ पाप का भी हेतु हो सकता है। प्रश्न - यदि शुभ पाप का और अशुभ पुण्य का ही कारण होता है; क्योंकि सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है (देखें स्थिति - 4), अतः दोनों सूत्र निरर्थक हो जाते हैं? उत्तर - नहीं; क्योंकि यहाँ अनुभागबंध की अपेक्षा सूत्रों को लगाना चाहिए। अनुभागबंध प्रधान है, वही सुख-दुःखरूप फल का निमित्त होता है। समस्त शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से और समस्त अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है (देखें अनुभाग - 2.2)। यद्यपि उत्कृष्ट शुभ परिणाम अशुभ के जघन्य अनुभागबंध के भी कारण होते हैं, पर बहुत शुभ के कारण होने से ‘शुभः पुण्यस्य’ सूत्र सार्थक है; जैसे कि घोड़ा अपकार करने पर भी बहुत उपकार करनेवाला उपकारक ही माना जाता है। इसी तरह ‘अशुभः पापस्य’ इस सूत्र में भी समझ लेना चाहिए।
- पुण्य दो प्रकार का होता है
पुराणकोष से
(1) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र से, अणुव्रतों और महाव्रतों के पालन से, कषाय, इंद्रिय और योगों के निग्रह से तथा नियम, दान, पूजन, अर्हद्भक्ति, गुरुभक्ति, ध्यान, धर्मोपदेश, संयम, सत्य, शौच, त्याग, क्षमा आदि से उत्पन्न शुभ परिणाम । सुंदर स्त्री, कामदेव के समान सुंदर शरीर, शुभ वचन, करुणा से व्याप्त मन, रूप लावण्य संपदा, अन्यान्य दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति, सर्वज्ञ का वैभव, इंद्र पद और चक्रवर्ती की संपदाएं इसी से प्राप्त होती है । इसके अभाव में विद्याएँ भी साथ छोड़ देती है । कोई विद्या भी सहयोग नहीं कर पाती । महापुराण 5.95,100, 16.271, 28. 219, 37.191-199, वीरवर्द्धमान चरित्र 17.24-26, 35-41
(2) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.42, 25.135