विनय: Difference between revisions
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< | <span class="HindiText"> मोक्षमार्ग में विनय का प्रधान स्थान है। वह दो प्रकार का है–निश्चय व व्यवहार। अपने रत्नत्रयरूप गुण की विनय निश्चय है और रत्नत्रयधारी साधुओं आदि की विनय व्यवहार या उपचार विनय है। यह दोनों ही अत्यंत प्रयोजनीय है। ज्ञान प्राप्ति में गुरु विनय अत्यंत प्रधान है। साधु, आर्यिका आदि चतुर्विध संघ में परस्पर में विनय करने संबंधी जो नियम है उन्हें पालन करना एक तप है। मिथ्यादृष्टियों व कुलिंगियों की विनय योग्य नहीं। </span> <br /> | ||
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<li><strong>[[ भेद व लक्षण ]]<br /> | <li><strong>[[विनय#1 | भेद व लक्षण ]] </strong><br /> | ||
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<li>[[विनय#1.1 | | <li class="HindiText">[[विनय#1.1 | विनय सामान्य का लक्षण। ]]<br /></li> | ||
<li class="HindiText">[[विनय#1.2 | विनय के सामान्य भेद। (लोकानुवृत्त्यादि) ]]<br /></li> | |||
<li>[[विनय#1.2 | | <li class="HindiText">[[विनय#1.3 | मोक्षविनय के सामान्य भेद। (ज्ञानदर्शनादि)]] <br /></li> | ||
<li class="HindiText">[[विनय#1.4 | उपचारविनय के भेद। (कायिक वाचिकादि)]] </li> | |||
<li>[[विनय#1.3 | मोक्षविनय के सामान्य भेद। (ज्ञानदर्शनादि)]] <br /> | <li class="HindiText">[[विनय#1.5 | लोकानुवृत्त्यादि सामान्य विनयों के लक्षण। ]]<br /> | ||
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<li>[[विनय#1.5 | लोकानुवृत्त्यादि सामान्य विनयों के लक्षण। ]]<br /> | |||
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<li> [[विनय#1.6 | ज्ञान दर्शन आदि विनयों के लक्षण। ]]<br /> | <li class="HindiText"> [[विनय#1.6 | ज्ञान दर्शन आदि विनयों के लक्षण। ]]<br /> | ||
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<li>[[विनय#1.7 | उपचार विनय सामान्य का लक्षण।]] <br /> | <li class="HindiText">[[विनय#1.7 | उपचार विनय सामान्य का लक्षण।]] <br /> | ||
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<li>[[विनय#1.8 | कायिकादि उपचार विनयों के लक्षण। ]]<br /> | <li class="HindiText">[[विनय#1.8 | कायिकादि उपचार विनयों के लक्षण। ]]<br /> | ||
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<li> विनय संपन्नता का लक्षण।–देखें [[ विनय#1.1 | विनय - 1.1]]। <br /> | <li class="HindiText"> विनय संपन्नता का लक्षण।–देखें [[ विनय#1.1 | विनय - 1.1]]। <br /> | ||
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<li><strong>[[ सामान्य विनय निर्देश]] </strong><br /> | <li><strong>[[ विनय#2 | सामान्य विनय निर्देश]] </strong><br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#2.1 | आचार व विनय में अंतर। ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#2.2 | ज्ञान के आठ अंगों को ज्ञान विनय कहने का कारण। ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#2.3 | एक विनयसंपन्नता में शेष 15 भावनाओं का समावेश।]] <br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#2.4 | विनय तप का माहात्म्य । ]]<br /> | ||
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<li> देव-शास्त्र गुरु की विनय निर्जरा का कारण है।–देखें [[ पूजा#2 | पूजा - 2]]। <br /> | <li class="HindiText"> देव-शास्त्र गुरु की विनय निर्जरा का कारण है।–देखें [[ पूजा#2 | पूजा - 2]]। <br /> | ||
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<li>[[सामान्य विनय निर्देश#2.5 | | <li class="HindiText">[[सामान्य विनय निर्देश#2.5 | मोक्षमार्ग में विनय का स्थान व प्रयोजन। ]]<br /> | ||
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<li><strong>[[ उपचार विनय विधि ]]<br /> | <li><strong>[[विनय#3 | उपचार विनय विधि ]]</strong><br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#3.1 | विनय व्यवहार में शब्द प्रयोग आदि संबंधी कुछ नियम। ]]<br /> | ||
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<li>साधु व आर्यिका की संगति व वचनालाप संबंधी कुछ नियम।–देखें [[ संगति ]]। <br /> | <li class="HindiText">साधु व आर्यिका की संगति व वचनालाप संबंधी कुछ नियम।–देखें [[ संगति ]]। <br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#3.2 | विनय व्यवहार के योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ। ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#3.3 | उपचार विनय की आवश्यकता ही क्या?]]<br /> | ||
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<li><strong>[[ उपचार विनय के योग्यायोग्य पात्र ]]<br /> | <li><strong>[[विनय#4 | उपचार विनय के योग्यायोग्य पात्र ]]</strong><br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.1 | यथार्थ साधु आर्यिका आदि वंदना के पात्र हैं।]] <br /> | ||
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<li> सत् साधु प्रतिमावत् पूज्य हैं।–देखें [[ पूजा#3 | पूजा - 3]]। <br /> | <li class="HindiText"> सत् साधु प्रतिमावत् पूज्य हैं।–देखें [[ पूजा#3 | पूजा - 3]]। <br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.2 | जो इन्हें वंदना नहीं करता सो मिथ्यादृष्टि है।]] <br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.3 | चारित्रवृद्ध से भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है।]] <br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.4 | मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु बंद्य नहीं है। ]]<br /> | ||
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<li> मिथ्यादृष्टि साधु श्रावक तुल्य भी नहीं है।–देखें [[ साधु#4 | साधु - 4]]। <br /> | <li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि साधु श्रावक तुल्य भी नहीं है।–देखें [[ साधु#4 | साधु - 4]]। <br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.5 | अधिक गुणी द्वारा हीन गुणी वंद्य नहीं है। ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.6 | कुगुरु कुदेवादिकी वंदना आदि का कड़ा निषेध व उसका कारण। ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.7 | द्रव्यलिंगी भी कथंचित् वंद्य है।]] <br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.8 | साधु को नमस्कार क्यों? ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#4.9 | असंयत सम्यग्दृष्टि वंद्य क्यों नहीं?]]</li> | ||
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<li> सिद्ध से पहले अर्हंत को नमस्कार क्यों?–देखें [[ मंत्र ]]। <br /> | <li class="HindiText"> सिद्ध से पहले अर्हंत को नमस्कार क्यों?–देखें [[ मंत्र ]]। <br /> | ||
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<li> 14 पूर्वी से पहले 10 पूर्वी को नमस्कार क्यों?–देखें [[ श्रुतकेवली#1 | श्रुतकेवली - 1]]। <br /> | <li class="HindiText"> 14 पूर्वी से पहले 10 पूर्वी को नमस्कार क्यों?–देखें [[ श्रुतकेवली#1 | श्रुतकेवली - 1]]। <br /> | ||
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<li><strong>[[ साधु परीक्षा का विधि | <li><strong>[[विनय#5 | साधु परीक्षा का विधि निषेध]] </strong><br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#5.1 | आगंतुक साधु की विनयपूर्वक परीक्षा विधि। ]]<br /> | ||
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<li>सहवास से व्यक्ति के | <li class="HindiText">सहवास से व्यक्ति के गुप्त परिणाम भी जाने जा सकते हैं।–देखें [[ प्रायश्चित्त#3.1 | प्रायश्चित्त - 3.1]]। <br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#5.2 | साधु की परीक्षा करने का निषेध। ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#5.3 | साधु परीक्षा संबंधी शंका-समाधान ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#5.3.1 | शील संयमादि तो पालते ही हैं?]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#5.3.2 | पंचम काल में ऐसे ही साधु संभव है?]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#5.3.3 | जैसे श्रावक वैसे साधु?]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li class="HindiText">[[विनय#5.3.4 | इनमें ही सच्चे साधु की स्थापना कर लें। ]]<br /> | ||
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<li> सत् साधु ही प्रतिमावत् पूज्य हैं।–देखें [[ पूजा#3 | पूजा - 3]]। </li> | <li class="HindiText"> सत् साधु ही प्रतिमावत् पूज्य हैं।–देखें [[ पूजा#3 | पूजा - 3]]। </li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> विनय सामान्य का लक्षण </strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 <span class="SanskritText">पूज्येष्वादरो विनयः।</span> = <span class="HindiText">पूज्य पुरुषों का | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7</span> <span class="SanskritText">पूज्येष्वादरो विनयः।</span> = <span class="HindiText">पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/6/24/2/529/17 <span class="SanskritText">सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरः कषा-यनिवृत्तिर्वा विनयसंपन्नता। </span>= <span class="HindiText">मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरु आदिकों में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसंपन्नता है। ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/7 ); ( चारित्रसार/53/1 ); ( भावपाहुड़ टीका/77/221/5 )। </span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/6/24/2/529/17</span> <span class="SanskritText">सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरः कषा-यनिवृत्तिर्वा विनयसंपन्नता। </span>= <span class="HindiText">मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरु आदिकों में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसंपन्नता है। <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/7)</span>; <span class="GRef">(चारित्रसार/53/1)</span>; <span class="GRef">(भावपाहुड़ टीका/77/221/5 )</span>। </span><br /> | ||
धवला 13/5, 4, 26/63/4 <span class="SanskritText">रत्नत्रयवत्सु नीचैर्वृत्तिर्विनयः। </span>= <span class="HindiText">रत्नत्रय को धारण करने वाले पुरुषों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है। ( चारित्रसार/147/5 ); ( अनगारधर्मामृत/7/60/702 )। </span><br /> | <span class="GRef">धवला 13/5, 4, 26/63/4</span> <span class="SanskritText">रत्नत्रयवत्सु नीचैर्वृत्तिर्विनयः। </span>= <span class="HindiText">रत्नत्रय को धारण करने वाले पुरुषों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है। <span class="GRef">( चारित्रसार/147/5)</span>; <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/60/702)</span>। </span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/1-1/ #90/117/2 <span class="SanskritText">गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिर्विनयः। </span>= <span class="HindiText">गुणवृद्ध पुरुषों के प्रति नम्र वृत्तिका रखना विनय है। </span><br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/1-1/ #90/117/2</span> <span class="SanskritText">गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिर्विनयः। </span>= <span class="HindiText">गुणवृद्ध पुरुषों के प्रति नम्र वृत्तिका रखना विनय है। </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/21 <span class="SanskritText"> विलयं नयति कर्ममलमिति विनयः। </span>= <span class="HindiText">कर्म मल को नाश करता है, इसलिए विनय है। ( अनगारधर्मामृत/7/61/702 ); (देखें [[ विनय#2.2 | विनय - 2.2]])। </span><br /> | <span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/21</span> <span class="SanskritText"> विलयं नयति कर्ममलमिति विनयः। </span>= <span class="HindiText">कर्म मल को नाश करता है, इसलिए विनय है। <span class="GRef">(अनगारधर्मामृत/7/61/702 )</span>; (देखें [[ विनय#2.2 | विनय - 2.2]])। </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/23 | <span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/23 </span> <span class="SanskritText">ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रियाः। तासामपोहनं विनयः। </span>=<span class="HindiText"> अशुभ क्रियाएँ ज्ञान-दर्शन चारित्र व तप के अतिचार हैं। इनका हटाना विनय तप है। </span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/457 <span class="PrakritText">दंसणणाणचरित्ते सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो। बारसभेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसिं। </span>= <span class="HindiText">दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में तथा बारह प्रकार के तप के विषय में जो विशुद्ध परिणाम होता है वही उनकी विनय है। </span><br /> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/457</span> <span class="PrakritText">दंसणणाणचरित्ते सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो। बारसभेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसिं। </span>= <span class="HindiText">दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में तथा बारह प्रकार के तप के विषय में जो विशुद्ध परिणाम होता है वही उनकी विनय है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/147/5</span> <span class="SanskritText">कषायेंद्रियविनयनं विनयः।</span> =<span class="HindiText"> कषायों और इंद्रियों को नम्र करना विनय है। <span class="GRef">(अनगारधर्मामृत/7/ 60/702)</span>। </span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225/306/23 <span class="SanskritText">स्वकीयनिश्चयरत्नत्रयशुद्धिर्निश्चयविनयः तदाधारपुरुषेषु भक्तिपरिणामो व्यवहारविनयः। </span>= <span class="HindiText">स्वकीय निश्चय रत्नत्रय की शुद्धि निश्चयविनय है और उसके आधारभूत पुरुषों (आचार्य आदि को) को भक्ति के परिणाम व्यवहारविनय है। </span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225/306/23</span> <span class="SanskritText">स्वकीयनिश्चयरत्नत्रयशुद्धिर्निश्चयविनयः तदाधारपुरुषेषु भक्तिपरिणामो व्यवहारविनयः। </span>= <span class="HindiText">स्वकीय निश्चय रत्नत्रय की शुद्धि निश्चयविनय है और उसके आधारभूत पुरुषों (आचार्य आदि को) को भक्ति के परिणाम व्यवहारविनय है। </span><br /> | ||
सागार धर्मामृत/7/35 <span class="SanskritGatha"> सुदृग्धीवृत्ततपसा मुमुक्षेर्निर्मलीकृतौ। यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तु।35।</span> = <span class="HindiText">मुमुक्षुजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप के दोष दूर करने के लिए जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहते हैं और इस प्रयत्न में शक्ति को न छिपा कर शक्ति अनुसार उन्हें करते रहना विनयाचार है। <br /> | <span class="GRef">सागार धर्मामृत/7/35</span> <span class="SanskritGatha"> सुदृग्धीवृत्ततपसा मुमुक्षेर्निर्मलीकृतौ। यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तु।35।<br /></span> = <span class="HindiText">मुमुक्षुजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप के दोष दूर करने के लिए जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहते हैं और इस प्रयत्न में शक्ति को न छिपा कर शक्ति अनुसार उन्हें करते रहना विनयाचार है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> विनय के सामान्य भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/580</span><span class="PrakritGatha"> लोगाणुवित्तिविणओ अत्थणिमित्ते य कामतंते य। भयविणओ य चउत्थो पंचमओ मोक्खविणओ य।580। </span>= <span class="HindiText">लोकानुवृत्ति विनय, अर्थ निमित्तक विनय, कामतंत्र विनय, भयविनय और मोक्षविनय इस प्रकार विनय पाँच प्रकार की है। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मोक्ष विनय के सामान्य भेद</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/112 <span class="PrakritGatha">विणओ पुण पंचविहो णिद्दिट्ठो णाणदंसणचरित्ते। तवविणओ य चउत्थो चरियो उवयारिओ विणओ।112। </span>= <span class="HindiText">विनय आचार पाँच प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय। ( | <span class="GRef">भगवती आराधना/112</span> <span class="PrakritGatha">विणओ पुण पंचविहो णिद्दिट्ठो णाणदंसणचरित्ते। तवविणओ य चउत्थो चरियो उवयारिओ विणओ।112। </span>= <span class="HindiText">विनय आचार पाँच प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय। <span class="GRef">(मूलाचार/364, 584)</span>; <span class="GRef">( धवला/ पुस्तक 13/5, 4, 26/63/4)</span>; <span class="GRef">( कषायपाहुड़/1/1-1/90/117/1)</span>; <span class="GRef">वसुनंदी श्रावकाचार/320</span>; <span class="GRef">(अनगारधर्मामृत/7/64/703)</span>। </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/1/23 <span class="SanskritText">ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारः। </span>= <span class="HindiText">विनय तप चार प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय। ( चारित्रसार/147/5 ); ( तत्त्वसार/7/30 )। </span><br /> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/1/23</span> <span class="SanskritText">ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारः। </span>= <span class="HindiText">विनय तप चार प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय। <span class="GRef">(चारित्रसार/147/5 )</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/7/30)</span>। </span><br /> | ||
धवला 8/3, 41/808 <span class="PrakritText">विणओ तिविहो णाण-दंसण-चरित्तविणओ त्ति। </span>=<span class="HindiText"> विनय संपन्नता तीन प्रकार की है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनय। <br /> | <span class="GRef">धवला 8/3, 41/808</span> <span class="PrakritText">विणओ तिविहो णाण-दंसण-चरित्तविणओ त्ति। </span>=<span class="HindiText"> विनय संपन्नता तीन प्रकार की है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनय। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> उपचार विनय के प्रभेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/118/295</span> <span class="PrakritGatha">काइयावाइयमाणसिओ त्ति तिविहो दु पंचमो विणओ। सो पुण सव्वो दुव्विहो पच्चक्खो चेव परोक्खो।118।</span> =<span class="HindiText"> उपचार विनय तीन प्रकार की है–कायिक, वाचिक और मानसिक। उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं–प्रत्यक्ष व परोक्ष। <span class="GRef">(मूलाचार/372)</span>; <span class="GRef">(चारित्रसार/148/3)</span>; <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/325)</span>। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> लोकानुवृत्त्यादि सामान्य विनयों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/581-583 </span><span class="PrakritGatha">अब्भुट्ठाणं अंजलियासणदाणं च अतिहिपूजा य। लोगाणुवित्तिविणओ देवदपूया सविभवेण।581। भाषानुवृत्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च। लोकाणुवित्तिविणओ अंजलिकरणं च अत्थकदे।582। एमेव कामतंते भयविणओ चेव आणुपुव्वीए। पंचमओ खलु विणओ परूवणा तस्सिया होदि।583। </span>= <span class="HindiText">आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, पाहुणगति करना, देवता की पूजा अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है।581। किसी पुरुष के अनुकूल बोलना तथा देश व कालयोग्य अपना द्रव्य देना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है। अपने प्रयोजन या स्वार्थ वश हाथ जोड़ना आदि अर्थनिमित्त विनय है।582। इसी तरह कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतंत्र विनय है। भय के कारण विनय करना भय विनय है। पाँचवीं मोक्ष विनय का कथन आगे करते हैं।583। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> ज्ञान दर्शन आदि विनयों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/113-117/260-294 <span class="PrakritGatha">काले विणये उवधाणे बहुमाणे तहे व णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभये विणओ णाणम्मि अट्ठविहो।113। उवगूहणादिया पुव्वुत्त तह भत्तियादिया य गुणा। संकादिवज्जणं पि य णेओ सम्मत्तविणओ सो।114। इंदियकसायपणिधाणं पि य गुत्तीओ चेव समिदीओ। एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।115। उत्तरगुणउज्जमणं सम्म अधिआसणं च सड्ढाए। आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुस्सेओ।116। भत्ती तवोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं। एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स।117।</span> =<span class="HindiText"> काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ, तदुभय ऐसे ज्ञान विनय के आठ भेद हैं। (और भी देखें [[ ज्ञान#III.2.1 | ज्ञान - III.2.1]])।113। पहिले कहे गये (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.2 | सम्यग्दर्शन - I.2]]) उपगूहन आदि सम्यग्दर्शन के अंगों का पालन, भक्ति पूजा आदि गुणों का धारण तथा शंकादि दोषों के त्याग को सम्यक्त्व विनय या दर्शन विनय कहते हैं।114। इंद्रिय और कषायों के प्रणिधान या परिणाम का त्याग करना तथा गुप्ति समिति आदि चारित्र के अंगों का पालन करना संक्षेप में चारित्र विनय जाननी चाहिए।115। संयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परीषहों को सहन करना, यथा योग्य आवश्यक क्रियाओं में हानि वृद्धि न होने देना–यह सब तप विनय है।116। तप में तथा तप करने में अपने से जो ऊँचा है उसमें, भक्ति करना तप विनय है। उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी हैं उनकी तथा चारित्रधारी मुनियों की भी अवहेलना | <span class="GRef">भगवती आराधना/113-117/260-294</span> <span class="PrakritGatha">काले विणये उवधाणे बहुमाणे तहे व णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभये विणओ णाणम्मि अट्ठविहो।113। उवगूहणादिया पुव्वुत्त तह भत्तियादिया य गुणा। संकादिवज्जणं पि य णेओ सम्मत्तविणओ सो।114। इंदियकसायपणिधाणं पि य गुत्तीओ चेव समिदीओ। एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।115। उत्तरगुणउज्जमणं सम्म अधिआसणं च सड्ढाए। आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुस्सेओ।116। भत्ती तवोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं। एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स।117।</span> =<span class="HindiText"> काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ, तदुभय ऐसे '''ज्ञान विनय''' के आठ भेद हैं। (और भी देखें [[ ज्ञान#III.2.1 | ज्ञान - III.2.1]])।113। पहिले कहे गये (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.2 | सम्यग्दर्शन - I.2]]) उपगूहन आदि सम्यग्दर्शन के अंगों का पालन, भक्ति पूजा आदि गुणों का धारण तथा शंकादि दोषों के त्याग को '''सम्यक्त्व विनय''' या '''दर्शन विनय''' कहते हैं।114। इंद्रिय और कषायों के प्रणिधान या परिणाम का त्याग करना तथा गुप्ति समिति आदि चारित्र के अंगों का पालन करना संक्षेप में '''चारित्र विनय''' जाननी चाहिए।115। संयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परीषहों को सहन करना, यथा योग्य आवश्यक क्रियाओं में हानि वृद्धि न होने देना–यह सब '''तप विनय''' है।116। तप में तथा तप करने में अपने से जो ऊँचा है उसमें, भक्ति करना तप विनय है। उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी हैं उनकी तथा चारित्रधारी मुनियों की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। यह तप विनय है।117। <span class="GRef">मूलाचार/365, 367, 369, 370, 371); (अनगारधर्मामृत/7/65-69/704-706 तथा 75/710)</span></span><br /> | ||
भगवती आराधना/46-47/153 <span class="PrakritGatha"> अरहंतसिद्धचेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य। आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि।46। भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स। आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण।47।</span> = <span class="HindiText">अरहंत, सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ, श्रुतज्ञान, जिन धर्म आचार्य उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा आदि करना, इनका महत्त्व बताना, अन्य मतियों द्वारा आरोपित किये गये अवर्णवाद को हटाना, इनके आसादन का परिहार करना यह सब <strong>दर्शन विनय</strong> है।46-47। </span><br /> | <span class="GRef">भगवती आराधना/46-47/153</span> <span class="PrakritGatha"> अरहंतसिद्धचेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य। आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि।46। भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स। आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण।47।</span> = <span class="HindiText">अरहंत, सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ, श्रुतज्ञान, जिन धर्म आचार्य उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा आदि करना, इनका महत्त्व बताना, अन्य मतियों द्वारा आरोपित किये गये अवर्णवाद को हटाना, इनके आसादन का परिहार करना यह सब <strong>दर्शन विनय</strong> है।46-47। </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/गाथा</span> <span class="PrakritGatha">अत्थपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेहिं सुदणाणे। तह रोचेदि णरो दंसणविणओ हवदि एसो।366। णाणं सिक्खदि णाणं गुणेदि णाणं परस्स उवदिसदि। णाणेण कुणदि णायं णाणविणीदो हवदि एसो।368। </span>= <span class="HindiText">श्रुत ज्ञान में जिनेंद्रदेव द्वारा उपदिष्ट द्रव्य व उनकी स्थूल सूक्ष्म पर्याय उनकी प्रतीति करना दर्शन विनय है।366। ज्ञान को सीखना, उसी का चिंतवन करना दूसरे को भी उसी का उपदेश देना तथा उसी के अनुसार न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करना–यह सब <strong>ज्ञान विनय</strong> है।368। <span class="GRef">(मूलाचार/585-586)</span>। </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/9/23/441/4 | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/9/23/441/4 </span> <span class="SanskritText">सबहुमानं मोक्षार्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयः। शंकादिदोषविरहितं तत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शनविनयः। तद्वतश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनयः।</span> =<span class="HindiText"> बहुत आदर के साथ मोक्ष के लिए ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञान विनय है। शंकादि दोषों से रहित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना दर्शन विनय है। सम्यग्दृष्टि का चारित्र में चित्त का लगना <strong>चारित्र विनय</strong> है। <span class="GRef">( तत्त्वसार/7/31-33)</span>। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/9/23/2-4/622/16 <span class="SanskritText">अनलसेन शुद्धमनसा देशकालादिविशुद्धिविधानविचक्षणेन सबहुमानो यथाशक्ति निषेव्यमाणो मोक्षर्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयो वेदितव्यः।.. यथा भगवद्भिरुपदिष्टाः पदार्थाः तेषां तथाश्रद्धाने निःशंकितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनविनयो वेदितव्यः।....... ज्ञानदर्शनवतः पंचविधदुश्चरचरणश्रवणानंतरमुद्भिंन-रोमांचाभिव्यज्यमानांतर्भक्तेः परप्रसादो मस्तकांजलिकरणादिभिर्भावतश्चानुष्ठातृत्वं चारित्रविनयः प्रत्येतव्यः। </span>=<span class="HindiText"> आलस्य | <span class="GRef">राजवार्तिक/9/23/2-4/622/16</span> <span class="SanskritText">अनलसेन शुद्धमनसा देशकालादिविशुद्धिविधानविचक्षणेन सबहुमानो यथाशक्ति निषेव्यमाणो मोक्षर्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयो वेदितव्यः।.. यथा भगवद्भिरुपदिष्टाः पदार्थाः तेषां तथाश्रद्धाने निःशंकितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनविनयो वेदितव्यः।....... ज्ञानदर्शनवतः पंचविधदुश्चरचरणश्रवणानंतरमुद्भिंन-रोमांचाभिव्यज्यमानांतर्भक्तेः परप्रसादो मस्तकांजलिकरणादिभिर्भावतश्चानुष्ठातृत्वं चारित्रविनयः प्रत्येतव्यः। </span>=<span class="HindiText"> आलस्य रहित हो देशकालादि की विशुद्धि के अनुसार शुद्धचित्त से बहुमान पूर्वक यथाशक्ति मोक्ष के लिए ज्ञानग्रहण अभ्यास और स्मरण आदि करना '''ज्ञान विनय''' है। जिनेंद्र भगवान् ने श्रुत समुद्र में पदर्थों का जैसा उपदेश दिया है, उसका उसी रूप से श्रद्धान करने आदि में निःशंक आदि होना '''दर्शन विनय''' है। ज्ञान और दर्शनशाली पुरुष के पाँच प्रकार के दुश्चर चारित्र का वर्णन सुनकर रोमांच आदि के द्वारा अंतर्भक्ति प्रगट करना, प्रणाम करना, मस्तक पर अंजलि रखकर आदर प्रगट करना और उसका भाव पूर्वक अनुष्ठान करना '''चारित्र विनय''' है। <span class="GRef">(चारित्रसार/147/6); ( भावपाहुड़ टीका/78/224/11)</span> </span><br /> | ||
वसुनंदी श्रावकाचार/321-324 <span class="PrakritGatha">णिस्संकिय संवेगाइ जे गुणा वण्णिया मए पुव्वं। तेसिमणुपालणं जं वियाण सो दंसणो विणओ।321। णाणे णाणुवयरणे य णाणवंतम्मि तह य भत्तीए। जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाण विणओ हु।322। पंचविहं चारित्तं अहियारा जे य वण्णिया तस्स। जं तेसिं बहुमाणं वियाण चारित्तविणओ सो।323। बालो यं बुड्ढो यं संकप्प वज्जिऊण तवसीणं। जं पणिवायं कीरइ तवविणयं तं वियाणीहि।324।</span> | <span class="GRef">वसुनंदी श्रावकाचार/321-324</span> <span class="PrakritGatha">णिस्संकिय संवेगाइ जे गुणा वण्णिया मए पुव्वं। तेसिमणुपालणं जं वियाण सो दंसणो विणओ।321। णाणे णाणुवयरणे य णाणवंतम्मि तह य भत्तीए। जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाण विणओ हु।322। पंचविहं चारित्तं अहियारा जे य वण्णिया तस्स। जं तेसिं बहुमाणं वियाण चारित्तविणओ सो।323। बालो यं बुड्ढो यं संकप्प वज्जिऊण तवसीणं। जं पणिवायं कीरइ तवविणयं तं वियाणीहि।324।</span> | ||
= <span class="HindiText">निःशंकित संवेग आदि जो गुण मैंने पहिले वर्णन किये हैं उनके परिपालन को दर्शन विनय जानना चाहिए।321। ज्ञान में, ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदिक में तथा ज्ञानवंत पुरुष में भक्ति के साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञान विनय है।322। परमागम में पाँच प्रकार का चारित्र और उसके जो अधिकारी या धारक वर्णन किये गये हैं, उनके आदर सत्कार को चारित्र विनय जानना चाहिए।323। यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकार का संकल्प छोड़कर तपस्वी जनों का जो प्रणिपात अर्थात् आदरपूर्वक वंदन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना।324। <br /> | = <span class="HindiText">निःशंकित संवेग आदि जो गुण मैंने पहिले वर्णन किये हैं उनके परिपालन को दर्शन विनय जानना चाहिए।321। ज्ञान में, ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदिक में तथा ज्ञानवंत पुरुष में भक्ति के साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञान विनय है।322। परमागम में पाँच प्रकार का चारित्र और उसके जो अधिकारी या धारक वर्णन किये गये हैं, उनके आदर सत्कार को चारित्र विनय जानना चाहिए।323। यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकार का संकल्प छोड़कर तपस्वी जनों का जो प्रणिपात अर्थात् आदरपूर्वक वंदन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना।324। <br /> | ||
देखें [[ विनय#2.3 | विनय - 2.3]]–(सोलह कारण भावनाओं की अपेक्षा लक्षण)। <br /> | देखें [[ विनय#2.3 | विनय - 2.3]]–(सोलह कारण भावनाओं की अपेक्षा लक्षण)। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> उपचार विनय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/23/442/2 <span class="SanskritText">प्रत्यक्षेष्बाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनांजलिकरणादिरुपचारविनयः। परोक्षेष्वपि कायवाङ्म-नोऽभिरंजलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः।</span> = <span class="HindiText">आचार्य आदि के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचार विनय है, तथा उनके परोक्ष में भी काय वचन और मन से नमस्कार करना, उनके गुणों का कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है। ( राजवार्तिक/9/23/5-6/622/25 ); ( तत्त्वसार/7/34 ); ( | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/9/23/442/2</span> <span class="SanskritText">प्रत्यक्षेष्बाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनांजलिकरणादिरुपचारविनयः। परोक्षेष्वपि कायवाङ्म-नोऽभिरंजलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः।</span> = <span class="HindiText">आचार्य आदि के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचार विनय है, तथा उनके परोक्ष में भी काय वचन और मन से नमस्कार करना, उनके गुणों का कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/9/23/5-6/622/25)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/7/34)</span>; <span class="GRef">(भावपाहुड/टीका/78/224/14)</span>। </span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/458 <span class="PrakritGatha">रयणत्तयजुत्तणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए। भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ।458।</span> = <span class="HindiText">जैसे सेवक राजा के अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रय के धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है। <br /> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/458</span> <span class="PrakritGatha">रयणत्तयजुत्तणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए। भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ।458।</span> = <span class="HindiText">जैसे सेवक राजा के अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रय के धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> कायिकादि उपचार विनयों के लक्षण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना/119-126/296-303</span> <span class="PrakritGatha">अब्भुट्ठाणं किदियम्म णवंसण अंजली य मुंडाणं। पच्चुग्गच्छणेमत्तो पच्छिद अणुसाधणं चेव।119। णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं। आसणदाणं उवगरणदाणमोगासदाणं च।120। पडिरूवकायसंफासणदा पडिरूवकालकिरिया य। पेसणकरणं संथारकरणमुवकरणपडिलिहणं।121। इच्चेवमादिविणओ उवयारो कीरदे सरीरेण। एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि।122। पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च महुरं च। सुत्ताणुवीचिवयणं अणिट्ठुरमकक्कसं वयणं।123। उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं। एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादब्वो।124। पापविसोत्तिय परिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामो। णायव्वो संखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ।125। इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो। विरहम्मि विवट्टिज्जइ आणाणिद्देसचरियाए।126। </span>= <span class="HindiText">साधु को आते देख आसन से उठ खड़े होना, कायोत्सर्गादि कृतिकर्म करना, अंजुली मस्तक पर चढ़ाकर, नमस्कार करना, उनके सामने जाना, अथवा जाने वाले को विदा करने के लिए साथ जाना।119। उनके पीछे खड़े रहना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नीचे बैठना, नीचे सोना, उन्हें आसन देना, पुस्तकादि उपकरण देना, ठहरने को वसतिका देना।120। उनके बल के अनुसार उनके शरीर का स्पर्शन मर्दन करना, काल के अनुसार क्रिया करना अर्थात् शीतकाल में उष्णक्रिया और उष्णकाल में शीतक्रिया करना, आज्ञा का अनुकरण करना, संथारा करना, पुस्तक आदि का शोधन करना।121। इत्यादि प्रकार से जो गुरुओं का तथा अन्य साधुओं का शरीर से यथायोग्य उपकार करना सो सब <strong>कायिक विनय</strong> जानना।122। पूज्य वचनों से बोलना, हितरूप बोलना, थोड़ा बोलना, मिष्ट बोलना, आगम के अनुसार बोलना, कठोरता रहित बोलना।123। उपशांत वचन, निर्बंध वचन, सावद्य क्रिया रहित वचन, तथा अभिमान रहित वचन बोलना <strong>वाचिक विनय</strong> है।124। पाप कार्यों में दुःश्रुति (विकथा सुनना आदि) में अथवा सम्यक्त्व की विराधना में जो परिणाम, उनका त्याग करना; और धर्मोपकार में व सम्यक्त्व ज्ञानादि में परिणाम होना वह <strong>मानसिक विनय</strong> है।125। इस प्रकार ऊपर यह तीन प्रकार का <strong>प्रत्यक्ष विनय</strong> कहा। गुरुओं के परोक्ष होने पर अर्थात् उनकी अनुपस्थिति में उनको हाथ जोड़ना, जिनाज्ञानुसार श्रद्धा व प्रवृत्ति करना <strong>परोक्ष विनय</strong> है।126। <span class="GRef">(मूलाचार/373-380)</span>; <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/326-331)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">मूलाचार/381-383</span> <span class="PrakritGatha">अह ओपचारिओ खलु विणओ तिविहो समासदो भणिओ। सत्त चउब्विह दुविहो बोधव्वो आणुपुव्वीए।381। अव्भुट्ठाणं सण्णादि आसणदाणं अणुप्पदाणं च। किदियम्मं पडिरूवं आसणचाओ य अणुव्वजणं।382। हिदमिदपरिमिदभासा अणुवीचीभासणं च बोधव्वं। अकुसलमणस्स रोधो कुसलमणपवत्तओ चेव।383।</span> = <span class="HindiText">संक्षेप से कहें तो तीनों प्रकार की उपचार विनय क्रम से 7, 4 व 2 प्रकार की हैं। अर्थात् कायविनय 7 प्रकार की, वचन विनय 4 प्रकार की और मानसिक विनय दो प्रकार की है।581। आदर से उठना, मस्तक नमाकर नमस्कार करना, आसन देना, पुस्तकादि देना, यथा योग्य कृति कर्म करना अथवा शीत आदि बाधा का मेटना, गुरुओं के आगे ऊँचा आसन छोड़के बैठना, जाते हुए के कुछ दूर तक साथ जाना, ये सात <strong>कायिक विनय के भेद</strong> हैं।382। हित, मित व परिमित बोलना तथा शास्त्र के अनुसार बोलना ये चार भेद वचन विनय के हैं। पाप ग्राहक चित्त को रोकना और धर्म में उद्यमी मन की प्रवर्तांना ये दो भेद <strong>मानसिक विनय</strong> के हैं। <span class="GRef">(अनगारधर्मामृत/7/71-73/707-709)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">चारित्रसार/148/4</span> <span class="SanskritText"> तत्राचार्योपाध्यायस्थविरप्रवर्तकगणधरादिषु पूजनीयेष्वभ्युत्थानमभिगमनमंजलिकरणं वंदनानुगमनं रत्नत्रयबहुमानः सर्वकालयोग्यानुरूपक्रिययानुलोमता सुनिगृहीतत्रिदंडता सुशीलयोगताधर्मानुरूपकथा कथनश्रवणभक्ति-तार्हदायतनगुरुभक्तिता दोषवर्जनं गुणवृद्धसेवाभिलाषानुवर्तनपूजनम्। यदुक्तं–गुरुस्थविरादिभिर्नान्यथा तदित्यनिशं भावनं समेष्वनुत्सेको हीनेष्वपरिभवः जातिकुलधनैश्वर्यरूपविज्ञानबललाभर्द्धिषु निरभिमानता सर्वत्र क्षमापरता मितहितदेश-कालानुगतवचनता कार्याकार्यसेव्यासेव्यवाच्यावाच्यज्ञातृता इत्येवमादिभिरात्मानुरूपः प्रत्यक्षोपचारविनयः। परोक्षापचार-विनय उच्यते, परोक्षेष्वप्याचार्यादिष्वंजलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणाज्ञानुष्ठायित्वादिः कायवाङ्मनोभिरवगंतव्यः राग-प्रहसनविस्मरणैरपि न कस्यापि पृष्ठमांसभक्षणकरणीयमेवमादिः परोक्षोपचारविनयः प्रत्येतव्यः।</span> = <span class="HindiText">आचार्य, उपाध्याय, वृद्ध साधु, उपदेशादि देकरजिनमत की प्रवृत्ति करने वाले गणधरादिक तथा और भी पूज्य पुरुषों के आने पर खड़े होना, उनके सामने जाना, हाथ जोड़ना, वंदन करना, चलते समय उनके पीछे-पीछे चलना, रत्नत्रय का सबसे अधिक आदर सत्कार करना, समस्त काल के योग्य अनुरूप क्रिया के अनुकूल चलना, मन, वचन, काय तीनों योगों का निग्रह करना, सुशीलता धारना, धर्मानुकूल कहना सुनना तथा भक्ति रखना, अरहंत जिनमंदिर और गुरु में भक्ति रखना, दोषों का वा दाषियों का त्याग करना, गुणवृद्ध मुनियों की सेवा करने की अभिलाषा रखना, उनके अनुकूल चलना और उनकी पूजा करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है। कहा भी है ......‘‘वृद्ध मुनियों के साथ अथवा गुरु के साथ, कभी भी प्रतिकूल न होने की सदा भावना रखना, बराबर वालों के साथ कभी अभिमान न करना, हीन लोगों का कभी तिरस्कार न करना, जाति, कुल, धन, ऐश्वर्य, रूप, विज्ञान, बल, लाभ और ऋद्धियों में कभी अभिमान न करना, सब जगह क्षमा धारण करने में तत्पर रहना, हित परिमित व देश कालानुसार वचन कहना, कार्य-अकार्य सेव्य-असेव्य कहने योग्य न कहने योग्य का ज्ञान होना, इत्यादि क्रियाओं के द्वारा अपने आत्मा की प्रवृत्ति करना प्रत्यक्ष <strong>उपचार विनय</strong> है। अब आगे <strong>परोक्ष उपचार विनय</strong> को कहते हैं। आचार्य आदि के परोक्ष रहते हुए भी मन, वचन, काय से उनके लिए हाथ जोड़ना, उनके गुणों का वर्णन करना, स्मरण करना और उनकी आज्ञा पालन करना आदि <strong>परोक्षोपचार विनय</strong> है (राग पूर्वक व हँसी पूर्वक अथवा भूलकर भी कभी किसी के पीठ पीछे बुराई व निंदा न करना, ये सब परोक्षोपचार विनय कहलाता है। </span></li> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> सामान्य विनय निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">आचार व विनय में अंतर</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">अनगारधर्मामृत/7/ श्लोक/पृष्ठ</span><br /><span class="SanskritGatha">दोषोच्छेदे गुणाधाने यत्नो हि विनयो दृशि। दृगाचारस्तु तत्त्वार्थरुचौ यत्नो मलात्यये।66। यत्नो हि कालशुद्धयादौ स्याज्ज्ञानविनयोऽत्र तु। सति यत्नस्तदाचारः पाठे तत्साधनेषुच।68। समित्यादिषु यत्नो हि चारित्रविनयो यतः। तदाचारस्तु यस्तेषु सत्सु यत्नो व्रताश्रयः।70।<br /> | |||
</span> = <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन में से दोषों को दूर करने तथा उसमें गुणों को उत्पन्न करने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, उसको दर्शन विनयः तथा शंकादि मलों के दूर हो जाने पर तत्त्वार्थ श्रद्धान में प्रयत्न करने को दर्शनाचार कहते हैं। कालशुद्धि आदि ज्ञान के आठ अंगों के विषय में प्रयत्न करने को ज्ञान विनय और उन शुद्धि आदिकों के हो जाने पर श्रुत का अध्ययन करने के लिए प्रयत्न करने को अथवा अध्ययन की साधनभूत पुस्तकादि सामग्री के लिए प्रयत्न करने को ज्ञानाचार कहते हैं।68। व्रतों को निर्मल बनाने के लिए समिति आदि में प्रयत्न करने को <strong>चारित्र विनय</strong> और समिति आदिकों के सिद्ध हो जाने पर व्रतों की वृद्धि आदि के लिए प्रयत्न करने को चारित्राचार कहते हैं।70। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> ज्ञान के आठ अंगों को ज्ञानविनय कहने का कारण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/261/22</span> <span class="SanskritText"> अयमष्टप्रकारो ज्ञानाभ्यासपरिकरोऽष्टविधं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्द वाच्यो भवतीति सूरेरभिप्रायः। </span>=<span class="HindiText"> ज्ञानाभ्यास के आठ प्रकार कर्मों को आत्मा से दूर करते हैं, इसलिए विनय शब्द से संबोधन करना सार्थक है, ऐसा आचार्यों का अभिप्राय है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> एक विनयसंपन्नता में शेष 15 भावनाओं का समावेश</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 8/3, 41/80/8 </span> <span class="PrakritText">विणयसंपण्णदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बंधंति। तं जहा–विणओ तिविहो णाणदंसणचरित्तविणओ त्ति। तत्थ णाणविणओ णाम अभिक्खणभिक्खणं णाणेवजोगजुत्तदा बहुसुदभत्ती पवयणभत्ती च। दंसणविणओ णाम पवयणेसुवइट्ठसव्वभावसद्दहणं तिमूढादो ओसरणमट्ठमलच्छद्दणमरहंत-सिद्धभत्ती खणलवपडिबुज्झणदा लद्धिसंवेगसंपण्णदा च। चरित्तविणओ णाम सीलव्वदेसु णिरदिचारदा आवासएसु अपरिहीणदा जहायामे तहा तवो च। साहूणं पासुगपरिच्चाओ तेसिं समाहिसंधारणं तेसिं वेज्जावच्चजोगजुत्तदा पवयणवछल्लदा च णाणदंसणचरित्ताणं पि विणओ, तिरयणसमूहस्स साहू पवयण त्ति ववएसादो। तदो विणयसंपण्णदा एक्का वि होदूण सोलसावयवा। तेणेदीए विणयसंपण्णदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं मणुओ बंधंति। देव णेरइयाण कधमेसा संभवदि। ण, तत्थ वि णाणदंसणविणयाणं संभवदंसणादो।...जदि दोहि चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झदि तो चरित्तविणओ किमिदि तक्कारणमिदि वुच्चदे ण एस दोसो, णाणदंसणविणयकज्जविरोहिचरणविणओ ण होदि त्तिपदुप्पायणफलत्तादो।</span> = <span class="HindiText">विनय संपन्नता से ही तीर्थंकर नामकर्म को बाँधता है। वह इस प्रकार से कि-ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्र विनय के भेद से विनय तीन प्रकार है। उसमें बारंबार ज्ञानोपयोग से युक्त रहने के साथ बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति का नाम '''ज्ञान विनय''' है। आगमोपदिष्ट सर्वपदार्थों के श्रद्धान के साथ तीन मूढ़ताओं से रहित होना, आठ मलों को छोड़ना, अरहंतभक्ति, सिद्धभक्ति, क्षणलवप्रतिबुद्धता और लब्धिसंवेगसंपन्नता को '''दर्शन विनय''' कहते हैं। शीलव्रतों में निरतिचारता, आवश्यकों में अपरिहीनता अर्थात् परिपूर्णता और शक्त्यनुसार तप का नाम '''चारित्र विनय''' है। साधुओं के लिए प्रासुक आहारादिक का दान, उनकी समाधिका धारण करना, उनकी वैयावृत्ति में उपयोग लगाना और प्रवचनवत्सलता, ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों की ही विनय है; क्योंकि रत्नत्रय समूह को साधु व प्रवचन संज्ञा प्राप्त है। इसी कारण क्योंकि विनयसंपन्नता एक भी होकर सोलह अवयवों से सहित है, अतः उस एक ही विनयसंपन्नता से मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म को बांधते हैं। <strong>प्रश्न–</strong>यह, विनय संपन्नता देव नारकियों के कैसे संभव है। <strong>उत्तर–</strong>उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि उनमें ज्ञान व दर्शन विनय की संभावना देखी जाती है। <strong>प्रश्न–</strong>यदि (देव और नारकियों को) दो ही विनयों से तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जा सकता है तो फिर चारित्रविनय को उसका कारण क्यों कहा गया है। <strong>उत्तर–</strong>यह कोई दोष नहीं, क्योंकि विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बात को सूचित करने के लिए चारित्रविनय को भी कारण मान लिया गया है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> विनय तप का माहात्म्य</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">भावपाहुड़/ मूल/102 </span><span class="PrakritGatha">विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिंण पावंति।102। </span>= <span class="HindiText">हे मुने ! पाँच प्रकार की विनय को मन, वचन, काय तीनों योगों से पाल, क्योंकि, विनय रहित मनुष्य सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं। <span class="GRef">(वसुनंदी श्रावकाचार/335)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/129-131</span> <span class="PrakritGatha">विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं। णिगएणाराहिज्जइ आयरिओ सव्वसंघो य।129। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा। अज्जव मद्दव लाघव भत्ती पल्हादकरणं च।130। कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो। तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा।131।</span> = <span class="HindiText">विनय मोक्ष का द्वार है, विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है और विनय से आचार्य व सर्वसंघ की सेवा हो सकती है।129। आचार के, जीदप्रायश्चित्त के और कल्पप्रायश्चित्त के गुणों का प्रगट होना, आत्मशुद्धि, कलह रहितता, आर्जव, मार्दव, निर्लोभता, गुरुसेवा, सबको सुखी करना–ये सब विनय के गुण हैं।130। सर्वत्र प्रसिद्धि, सर्व मैत्री गर्व का त्याग, आचार्यादिकों से बहुमान का पाना, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन, गुणों से प्रेम–इतने गुण विनय करने वाले के प्रगट होते हैं।131। <span class="GRef">(मूलाचार/386-388)</span>; <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/3)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> मूलाचार/364</span><span class="PrakritGatha"> दंसणणाणे विणओ चरित्ततव ओवचारिओ विणओ। पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणापगो भणिओ।364।</span> = <span class="HindiText">दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप व उपचार ये पाँच प्रकार के विनय मोक्ष गति के नायक कहे गये हैं।364। </span><br /> | |||
<span class="GRef">वसुनंदी श्रावकाचार/332-336</span> <span class="PrakritGatha">विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंतओ पुरिसो। सव्वत्थ हवइ सुहओ तहेव आदिज्जवयणो य।332। जे केइ वि उवएसा इह परलोए सुहावहा संति। विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा।333। देविंद चक्कहरमंडलीयरायाइजं सुहं लोए। तं सव्वं विणयफलं णिव्वाणसुहं तहा चेव।334। सत्तू व मित्तभावं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणओ तिविहेण तओ कायव्वो देसविरएण।336। </span><span class="HindiText">विनय से पुरुष चंद्रमा के समान उज्ज्वल वशसमूह से दिगंत को धवलित करता है, सर्वत्र सबका प्रिय हो जाता है, तथा उसके वचन सर्वत्र आदर योग्य होते हैं।332। जो कोई भी उपदेश इस लोक और पर लोक में जीवों को सुख के देने वाले होते हैं, उन सबकी मनुष्य गुरुजनों की विनय से प्राप्त करते हैं।333। संसार में देवेंद्र, चक्रवर्ती और मंडलीक राजा आदि के जो सुख प्राप्त होते हैं वह सब विनय का ही फल है और इसी प्रकार मोक्ष सुख भी विनय का ही फल है।334। चूँकि विनयशील मनुष्य का शत्रु भी मित्रभाव को प्राप्त हो जाता है इसलिए श्रावक को मन, वचन, काय से विनय करना चाहिए।336। </span><br /> | |||
<span class="GRef">अनगारधर्मामृत/7/62/702 </span> <span class="SanskritGatha">सारं सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपसंपदिहार्हति। शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः।62। </span><br /> | |||
= <span class="HindiText">मनुष्य भव का सार आर्यता कुलीनता आदि है। उनका भी सार जिनलिंग धारण है। उसका भी सार जिनागम की शिक्षा है और शिक्षा का भी सार यह विनय है, क्योंकि इसके होने पर ही सज्जन पुरुषों के गुण सम्यक् प्रकार स्फुरायमान होते हैं। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> मोक्षमार्ग में विनय का स्थान व प्रयोजन</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना/128/305</span> <span class="PrakritGatha">विणएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा। विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।128। </span>= <span class="HindiText">विनयहीन पुरुष का शास्त्र पढ़ना निष्फल है, क्योंकि विद्या पढ़ने का फल विनय है और उसका फल स्वर्ग मोक्ष का मिलना है। <span class="GRef">(मूलाचार/385)</span>; <span class="GRef">(अनगारधर्मामृत/7/63/703)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">रयणसार/82 </span> <span class="PrakritGatha">गुरुभक्तिविहीणाणं सिस्साणं सव्वसंगविरदाणं। ऊसरछेत्ते वविय सुवीयसमं जाण सव्वणुट्टाणं।82।</span> = <span class="HindiText">सर्वसंग रहित गुरुओं की भक्ति से विहीन शिष्यों की सर्व क्रियाएँ, ऊषर भूमि में पड़े बीज के समान व्यर्थ हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/9/23/7/622/31 </span> <span class="SanskritText">ज्ञानलाभाचारविशुद्धिसम्यगाराधनाद्यर्थं विनयभावनम्।7।.....ततश्च निवृत्तिसुखमिति विनयभावनं क्रियते।</span> | |||
=<span class="HindiText"> ज्ञानलाभ, आचारविशुद्धि और सम्यग आराधना आदि की सिद्धि विनय से होती है और अंत में मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अतः विनय भाव अवश्य ही रखना चाहिए। <span class="GRef">( चारित्रसार/150/2)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511</span> <span class="SanskritText">शास्त्रोक्तवाचनास्वाध्यायकालयोरध्ययनं श्रुतस्स श्रुतं प्रयच्छतश्च भक्तिपूर्व कृत्वा, अवग्रहं परिगृह्य, बहुमाने कृत्वा, निह्नवं निराकृत्य, अर्थव्यंजनतदुभयशुद्धि संपाद्य एवं भाव्यमानं श्रुतज्ञानं संवरं निर्जरां च करोति। अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत्। </span> | |||
= <span class="HindiText">शास्त्र में वाचना और स्वाध्याय का जो काल कहा हुआ है उसी काल में श्रुत का अध्ययन करो, श्रुतज्ञान को बताने वाले गुरु की भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण करके आदर से पढ़ो, गुरु व शास्त्र का नाम न छिपाओ, अर्थ-व्यंजन व तदुभयशुद्धि पूर्वक पढ़ो, इस प्रकार विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ श्रुतज्ञान कर्मों की संवर निर्जरा करता है, अन्यथा वही ज्ञानावरण कर्म के बंध का कारण है। (और भी देखें [[ विनय#1.6 | विनय - 1.6 ]]में ज्ञानविनय का लक्षण; ज्ञान/III/2/1 में सम्यग्ज्ञान के आठ अंग) </span><br /> | |||
<span class="GRef">पद्मनन्दिपंचविंशतिका/6/19</span><span class="SanskritGatha"> ये गुरु नैव मंयंते तदुपास्तिं न कुर्वते। अंधकारो भवत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।19।<br /> | |||
</span> = <span class="HindiText">जो न गुरु को मानते हैं, न उनकी उपासना ही करते हैं, उनके लिए सूर्य का उदय होने पर भी अंधकार जैसा ही है। <br /> | |||
देखें [[ विनय#4.3 | विनय - 4.3 ]](चारित्रवृद्ध के द्वारा भी ज्ञानवृद्ध वंदनीय है।) <br /> | |||
देखें [[ सल्लेखना#10 | सल्लेखना - 10 ]](क्षपक को निर्यापक का अन्वेषण अवश्य करना चाहिए।) </span></li> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> उपचार विनय विधि</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> विनय व्यवहार में शब्दप्रयोग आदि संबंधी कुछ नियम</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सूत्रपाहुड़/12-13 </span> <span class="PrakritGatha">जे बावीसपरीसह सहंति सत्तीसएहिं संजुत्त। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू।12। अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्त। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय।13। </span>= <span class="HindiText">सैंकड़ों शक्तियों से संयुक्त जो 22 परीषहों को सहन करते हुए नित्य कर्मों की निर्जरा करते हैं, ऐसे दिगंबर साधु वंदना करने योग्य हैं।12। और शेष लिंगधारी, वस्त्र धारण करने वाले परंतु जो ज्ञान दर्शन से संयुक्त हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं।13। </span><br /> | |||
<span class="GRef">मूलाचार/131, 195</span> <span class="PrakritGatha">संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोग्गग्गहणादीसु अ इच्छाकारी दु कादव्वो।131। पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊणज्झाओ गवासणेणेक्वंदंति।195।</span> =<span class="HindiText"> संयमोपकरण, ज्ञानोपकरण तथा अन्य भी जो उपकरण उनमें औषधादि में, आतापन आदि योगों में इच्छाकार करना चाहिए।131। आर्यिकाएँ आचार्यों को पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गवासन से बैठकर वंदना करती हैं।195। </span><br /> | |||
<span class="GRef">मोक्षपाहुड़/ टीका/12/314 पर उद्धृत गाथा</span>- <span class="PrakritGatha">वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू। अभिगमणं-वंदण-णमंसणेण विणएण सो पुज्जे।1। </span>= <span class="HindiText">सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका के द्वारा भी आज का नवदीक्षित साधु अभिगमन, वंदन, नमस्कार व विनय से पूज्य है। <span class="GRef">(प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225 प्रक्षेपक 8/304/27)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">मोक्षपाहुड़/ टीका/12/313/19</span> <span class="SanskritText">मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वंदनापि न युक्ता। यदि ता वंदंते तदा मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं। समाधिकर्मक्षयोऽस्त्विति।</span> =<span class="HindiText"> मुनिजन व आर्यिकाओं के बीच परस्पर वंदना भी युक्त नहीं है। यदि वे वंदन करें तो मुनि को उनके लिए ‘नमोऽस्तु’ शब्द नहीं कहना चाहिए, किंतु ‘समाधिरस्तु’ या ‘कर्मक्षयोऽस्तु’ कहना चाहिए। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> विनय व्यवहार के योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">मूलाचार/597-599</span><span class="PrakritGatha"> वखित्तपराहुतं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो। आहारं च करं तो णीहारं वा जदि करेदि।597। आसणे आसणत्थं च उवसंतं च उवट्ठिदं। अणुविण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदेः।598। आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अवराधे य गुरुणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।599।</span> = <span class="HindiText">व्याकुल चित्त वाले को, निद्रा, विकथा आदि से प्रमत्त दशा को प्राप्त को तथा आहार व नीहार करते को वंदना नहीं करनी चाहिए।597। एकांत भूमि में पद्मासनादि से स्वस्थ चित्तरूप से बैठे हुए मुनि को वंदना करनी चाहिए और वह भी उनकी विज्ञप्ति लेकर।598। आलोचना के समय, प्रश्न के समय, पूजा व स्वाध्याय के समय तथा क्रोधादि अपराध के समय आचार्य उपाध्याय आदि की वंदना करनी चाहिए।599। ( अनगारधर्मामृत/7/53-54/772 )। </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/9 </span> <span class="SanskritText">वसतेः, कायभूमितः, भिक्षातः, चैत्यात्, गुरुसकाशात्, ग्रामांतराद्वा आगमनकालेऽभ्यु-त्थातव्यम्। गुरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्युत्थानं कार्यम्। अनया दिशा यथागममि-तरदप्यनुगंतव्यम्। </span>= <span class="HindiText">वसतिका स्थान से, कायभूमि से (?) भिक्षा लेकर लौटते समय, चैत्यालय से आते समय, गुरु के पास से आते समय अथवा ग्रामांतर से आते समय अथवा गुरुजन जब बाहर जाते हैं या बाहर से आते हैं, तब तब अभ्युत्थान करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी जानना चाहिए। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> उपचार विनय की आवश्यकता ही क्या</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/ | <span class="GRef">भगवती आराधना व विजयोदया टीका/756-757/920</span> <span class="PrakritText">ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि संसारमुच्छिंदंति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्यशंकायामाह–जो भावणमोक्कारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा। ण हु ते होंति समत्था संसारुच्छेदणं कादुं।756। यद्येवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण विरुध्यते। नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाश ने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशंकायामाह–चदुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तवो हादि। तह भावणमोक्कारो मरणे तवणाणचरणाणं।757। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप संसार का नाश करते हैं, इसलिए नमस्कार की क्या आवश्यकता है? <strong>उत्तर–</strong>भाव नमस्कार के बिना सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप संसार का नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं। <strong>प्रश्न–</strong>यदि ऐसा है तो ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा, क्योंकि आपके मत के अनुसार नमस्कार अकेला ही कर्मविनाश का उपाय है? <strong>उत्तर–</strong>चतुरंगी सेना का जैसे सेनापति प्रवर्तक माना जाता है, वैसे यह भाव नमस्कार भी मरण समय में तप, ज्ञान, चारित्र का प्रवर्तक है। </span></li> | ||
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<li><strong> <span class="HindiText" name="4" id="4">उपचार विनय के योग्यायोग्य पात्र</span></strong> <span class="HindiText"><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> यथार्थ साधु आर्यिका आदि वंदना के पात्र हैं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना/127/304</span> <span class="PrakritGatha"> राइणिय अराइणीएसु अज्जासु चेव गिहिवग्गे। विणओ जहारिहो सो कायव्वो अप्पमत्तेण।127।</span> = <span class="HindiText">‘राइणिय’ उत्कृष्ट परिणाम वाले मुनि, ‘अराइणीय’ न्यून भूमिकाओं वाले अर्थात् आर्यिका व श्रावक तथा गृहस्थ आदि इन सबका उन उनकी योग्यतानुसार आदर व विनय करना चाहिए। <span class="GRef">(मूलाचार/384)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">दर्शनपाहुड़/ मूल 23</span> <span class="PrakritText"> दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था। एदे दु वंदणीय। जे गुणवादी गुणधराणं। </span>=<span class="HindiText"> दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपविनय इनमें जो स्थित हैं वे सराहनीय व स्वस्थ हैं और गणधर आदि भी जिनका गुणानुवाद करते हैं, ऐसे साधु वंदने योग्य है ।23। <span class="GRef">(मूलाचार/596)</span>, <span class="GRef">( सूत्रपाहुड़/12)</span>; <span class="GRef">(बोधपाहुड़/ मूल/11)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/674, 735 </span> <span class="SanskritText">इत्याद्यनेकधानेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः। नमस्यः श्रेयसेऽवश्यं....।674। नारीभ्योऽपि व्रताढयाभ्यो न निषिद्धं’ जिनागमे। देयं संमानदानादि लोकानामविरुद्धतः।735।</span> = <span class="HindiText">अनेक प्रकार के साधु संबंधी गुणों से युक्त पूज्य साधु ही मोक्ष की प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञानियों द्वारा वंदने योग्य हैं।674। जिनागम में व्रतों से परिपूर्ण स्त्रियों का भी सम्मान आदि करना निषिद्ध नहीं है, इसलिए उनका भी लोक व्यवहार के अनुसार सम्मान आदि करना चाहिए।735। <br /> | |||
देखें [[ विनय#3.1 | विनय - 3.1]]–(सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका से भी आज का नवदीक्षित साधु वंद्य है।) <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> जो इन्हें वंदन नहीं करता सो मिथ्यादृष्टि है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">दर्शनपाहुड़/ मूल/24 </span><span class="PrakritGatha">सहजुप्पण्णं रूवं दट्ठुं जो मण्णएण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।24।</span> = <span class="HindiText">जो सहजोत्पन्न यथाजात रूप को देखकर मान्य नहीं करता तथा उसका विनय सत्कार नहीं करता और मत्सरभाव करता है, वे यदि संयमप्रतिपन्न भी हैं, तो भी मिथ्यादृष्टि है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> चारित्रवृद्ध से भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/8</span> <span class="SanskritText">वाचनामनुयोगं वा शिक्षयतः अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्यं तन्मूलेऽध्ययनं कुर्वद्भिः सर्वैरेव। </span>= <span class="HindiText">जो ग्रंथ और अर्थ को पढ़ाता है अथवा सदादि अनुयोगों का शिक्षण देता है वह व्यक्ति यदि अपने से रत्नत्रय में हीन भी है, तो भी उसके आने पर जो-जो उसके पास अध्ययन करते हैं वे सर्वजन खड़े हो जावें। </span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/263/354/15</span> <span class="SanskritText">यद्यपि चारित्रगुणेनाधिका न भवंति तपसा वा तथापि सम्यग्ज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वाच्छ्रु तविनयार्थमभ्युत्थेयाः। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/267/358/17</span> <span class="SanskritText">यदि बहुश्रुतानां पार्श्वे ज्ञानादिगुणवृद्धयर्थं स्वयं चारित्रगुणाधिका अपि वंदनादिक्रियासु वर्तंते तदा दोषो नास्ति। यदि पुनः केवलं ख्यातिपूजालाभार्थं वर्तंते तदातिप्रसंगाद्दोषो भवति। </span>= <span class="HindiText">चारित्र व तप में अधिक न होते हुए भी सम्यग्ज्ञान गुण से ज्येष्ठ होने के कारण श्रुत की विनय के अर्थ वह अभ्युत्थानादि विनय के योग्य है। यदि कोई चारित्र गुण में अधिक होते हुए भी ज्ञानादि गुण की वृद्धि के अर्थ बहुश्रुत जनों के पास वंदनादि क्रिया में वर्तता है तो कोई दोष नहीं है। परंतु यदि केवल ख्याति पूजा व लाभ के अर्थ ऐसा करता है तब अतिदोष का प्रसंग प्राप्त होता है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु वंद्य नहीं है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">दर्शनपाहुड़/ मूल/2, 26</span> <span class="PrakritText">दंसणहीणो ण वंदिव्वो।2। असंजदं ण वंदे वच्छविहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।26।</span> = <span class="HindiText">दर्शनहीन वंद्य नहीं है।2। असंयमी तथा वस्त्रविहीन द्रव्यलिंगी साधु भी वंद्य नहीं हैं, क्योंकि दोनों ही संयम रहित समान हैं।26। </span><br /> | |||
<span class="GRef">मूलाचार/594 </span><span class="PrakritGatha">दंसणणाणचरित्ते तवविणएँ णिच्चकाल पासत्था। एदे अवंदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणं।594। </span>= <span class="HindiText">दर्शन ज्ञान चारित्र और तपविनयों से सदाकाल दूर रहनेवाले गुणी संयमियों के सदा दोषों को देखने वाले पार्श्वस्थ आदि हैं, इसलिए वे वंद्य नहीं हैं।594। </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/6</span> <span class="SanskritText"> नाभ्युत्थानं कुर्यात्, पार्श्वस्थपंचकस्य वा। रत्नत्रये तपसि च नित्यमभ्युद्यतानां अभ्युत्थानं कर्त्तव्यं कुर्यात्। सुखशीलजनेऽभ्युत्थानं कर्मबंधनिमित्तं प्रमादस्थापनोपबृंहणकारणात्।</span> = <span class="HindiText">मुनियों को पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनियों का आगमन होने पर उठकर खड़े होना योग्य नहीं है। जो मुनि रत्नत्रय व तपश्चरण में तत्पर हैं उनके आने पर अभ्युत्थान करना योग्य है। जो सुख के वश होकर अपने आचार में शिथिल हो गये हैं उनके आने पर अभ्युत्थान करने से कर्मबंध होता है, क्योंकि वह प्रमाद की स्थापना का व उसकी वृद्धि का कारण है। <br /> | |||
<span class="GRef">भावपाहुड़ टीका/2/129/6 पर उद्धृत</span></span>–<span class="SanskritText">उक्तं चेंद्रनंदिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने–‘द्रव्यलिंगं समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न वंद्यः स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन्।</span> = <span class="HindiText">समयभूषण प्रवचन में इंद्रनंदि भट्टारक ने कहा है–द्रव्यलिंग में सम्यक् प्रकार स्थिति पाकर ही यति भाव-लिंगी होता है। उस द्रव्य-लिंग के बिना वह वंद्य नहीं है, भले ही नाना व्रतों को धारण क्यों न किया हो। </span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/263</span> <span class="SanskritText">इतरेषां तु श्रमणाभासानां ताः प्रतिषिद्धा एव।</span> = <span class="HindiText">उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभसों के प्रति वे (अभ्युत्थानादिक) प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef">अनगारधर्मामृत/7/52/771 </span> <span class="SanskritText">कुलिंगिनः कुदेवाश्च न वंद्यास्तेऽपि संयतैः।52।</span> = <span class="HindiText">पार्श्वस्थादि कुलिंगियों तथा शासनदेव आदि कुदेवों की वंदना संयमियों को (या असंयमियों को भी) नहीं करनी चाहिए। </span><br /> | |||
<span class="GRef">भावपाहुड़ टीका/14/137/23</span> <span class="SanskritText">एते पंच श्रमणा जिनधर्मबाह्या न वंदनीयाः।</span> = <span class="HindiText">ये पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के श्रमण जिनधर्म बाह्य हैं, इसलिए वंदनीय नहीं हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/674 </span> <span class="SanskritText">नेतरो विदुषां महान्।734।</span> = <span class="HindiText">इन गुणों से रहित जो इतर साधु हैं, तत्त्वज्ञानियों द्वारा वंदनीय नहीं हैं। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> अधिकगुणी द्वारा हीनगुणी वंद्य नहीं है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/266</span> <span class="PrakritText">गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति। होज्जं गुणधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी।</span> = <span class="HindiText">जो श्रमण्य में अधिक गुण वाले हैं तथापि हीन गुण वालों के प्रति (वंदनादि) क्रियाओं में वर्तते हैं वे मिथ्या उपयुक्त होते हुए चारित्र से भ्रष्ट होते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef">दर्शनपाहुड़/ मूल/12</span> <span class="PrakritGatha">जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।12। </span>= <span class="HindiText">जो पुरुष दर्शनभ्रष्ट होकर भी दर्शन के धारकों को अपने पाँव में पड़ाते हैं, वे गूँगे-लूले होते हैं अर्थात् एकेंद्रिय निगोद योनि में जन्म पाते हैं। उनको बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/5</span> <span class="SanskritText">असंयतस्य संयतासंयतस्य वा नाभ्युत्थानं कुर्यात्। </span>= <span class="HindiText">मनुष्यों को असंयत व संयतासंयत जनों के आने पर खड़ा होना योग्य नहीं है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">अनगारधर्मामृत/7/52/771</span> <span class="SanskritGatha">श्रावकेणापि पितरौ गुरु राजाप्यसंयताः। कुलिंगिनः कुदेवाश्च न वंद्यास्तेऽपि संयतैः।52। </span>= <span class="HindiText">माता, पिता, दीक्षागुरु व शिक्षागुरु, एवं राजा और मंत्री आदि असयंत जनों की तथा श्रावक की भी संयमियों को वंदना नहीं करनी चाहिए और व्रती श्रावकों को भी उपरोक्त असंयमियों की वंदना नहीं करनी चाहिए। </span><br /> | |||
<span class="GRef">दर्शनपाहुड़/ मूल/26</span> <span class="SanskritText">असंजदं ण वंदे।26। </span>= <span class="HindiText">असंयत जन वंद्य नहीं हैं।–(विशेष देखें [[ #4.8 | आगे शीर्षक नं - 8]])। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> कुगुरु कुदेवादि की वंदना आदि का कड़ा निषेध व उसका कारण</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ मूल/13</span> <span class="PrakritGatha">जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवभएण। तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं।13। </span>= <span class="HindiText">जो दर्शनयुक्त पुरुष दर्शनभ्रष्ट को मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी लज्जा गारव या भय के कारण उनके पाँव में पड़ते हैं अर्थात् उनकी विनय आदि करते हैं, तिनको भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती, है, क्योंकि वे पाप के अनुमोदक हैं।13। </span><br /> | |||
<span class="GRef">मोक्षपाहुड़/92 </span> <span class="PrakritGatha">कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।</span> = <span class="HindiText">कुत्सित देव को, कुत्सित धर्म को और कुत्सित लिंगधारी गुुरु को लज्जा, भय या गारव के वश वंदना आदि करता है, वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है।92। </span><br /> | |||
<span class="GRef">शीलपाहुड़/ मूल/14</span> <span class="PrakritGatha">कुमयकुसुदपसंसा जाणंता जाणंता बहुविहाई सत्थाई। सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होंति।14। </span>= <span class="HindiText">बहु प्रकार से शास्त्र को जानने वाला होकर भी यदि कुमत व कुशास्त्र की प्रशंसा करता है, तो वह शील, व्रत व ज्ञान इन तीनों से रहित है, इनका आराधक नहीं है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">[[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 30 | रत्नकरंड श्रावकाचार/30]] </span> <span class="SanskritGatha">भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम्। प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः।30।</span> = <span class="HindiText">शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, प्रीति और लोभ से कुदेव, कुशास्त्र और कुलिंगियों को प्रणाम और विनय भी न करे। </span><br /> | |||
<span class="GRef">पंद्मनन्दिपंचविंशतिका/1/167</span> <span class="SanskritText">न्यायादंधकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां, प्राप्त वा बहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छनन्नरत्वं यदि। मिथ्यादेवगुरुपदेशविषयव्यामोहनीचान्वय-प्रायैः प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति॥167।</span> = <span class="HindiText">संसारी प्राणियों को यह मनुष्यपर्याय इतनी ही कष्ट प्राप्य है जितनी कि अंधे को बटेर की प्राप्ति। फिर यदि करोड़ों कल्पकालों में किसी प्रकार प्राप्त भी हो गयी, तो वह मिथ्या देव एवं मिथ्या गुरु के उपदेश, विषयानुराग और नीच कुल में उत्पत्ति आदि के द्वारा सहसा विफलता को प्राप्त हो जाती है।167। <br /> | |||
और भी देखें [[ मूढ़ता ]](कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व कुधर्म को देवगुरु शास्त्र व धर्म मानना मूढ़ता है।) <br /> | |||
देखें [[ अमूढदृष्टि#3 | अमूढदृष्टि - 3 ]](प्राथमिक दशा में अपने श्रद्धान की रक्षा करने के लिए इनसे बचकर ही रहना योग्य है।) <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> द्रव्य लिंगी भी कथंचित् वंद्य है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/5/56 </span><span class="SanskritGatha">द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभिः। भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभिः।56।</span> = <span class="HindiText">व्यवहारी जनों के लिए द्रव्यलिंगी भी पूज्य है, परंतु जो मोक्ष के इच्छुक हैं उन्हें तो भाव-लिंगी ही पूज्य है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">सागार धर्मामृत/2/64</span> <span class="SanskritGatha">विन्यस्यैदयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव। भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत्कुतः श्रेयोऽतिचर्चिनाम्।64। </span><br /> | |||
<span class="HindiText">उपरोक्त श्लोक की टीका में उद्धृत</span>-<span class="SanskritText">‘‘यथा पूज्यं जिनेंद्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम्। तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः।</span> =<span class="HindiText"> जिस प्रकार प्रतिमाओं में जिनेंद्र देव की स्थापना कर उनकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार सद्गृहस्थ को इस पंचमकाल में होने वाले मुनियों में पूर्वकाल के मुनियों की स्थापना कर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए। कहा भी है ‘‘जिस प्रकार लेपादि से निर्मित जिनेंद्र देव का रूप पूज्य है, उसी प्रकार वर्तमान काल के मुनि पूर्वकाल के मुनियों के प्रतिरूप होने से पूज्य हैं। [परंतु अन्य विद्वानों को इस प्रकार स्थापना द्वारा इन मुनियों को पूज्य मानना स्वीकार नहीं है–(देखें [[ विनय#5.3 | विनय - 5.3]])] <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> साधुओं को नमस्कार क्यों</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 9/4, 1, 1/11/1 </span><span class="PrakritText"> होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो। ण देसजिणाणमेदेसु तदणुवलंभादो त्ति। ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुवलंभादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>सकल जिन नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो, क्योंकि उनमें सब गुण पाये जाते हैं। किंतु देशजिनों को किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि इनमें वे सब गुण नहीं पाये जाते? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि सकल जिनों के समान देश जिनों में (आचार्य, उपाध्याय, साधु में) भी तीन रत्न पाये जाते हैं। [जो यद्यपि असंपूर्ण हैं, परंतु सकल जिनों के संपूर्ण रत्नों से भिन्न नहीं है।]–(विशेष देखें [[ देव#I.1.5 | देव - I.1.5]]) । <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> असंयत सम्यग्दृष्टि वंद्य क्यों नहीं</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 9/4, 1, 2/41/1 </span><span class="PrakritText"> महव्वयविरहिददोरयणहराणं। ओहिणाणीणमणोहिणाणीणं च किमट्ठं णमोक्कारो ण कीरदे। गारवगुरुवेसु जीवेसु चरणाचारपयट्टावटठं उत्तिमग्गविसयभत्तिपयासणटठं च ण कीर दे।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>महाव्रतों से रहित दो रत्नों अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के धारक अवधिज्ञानी तथा अवधिज्ञान से रहित जीवों को भी क्यों नहीं नमस्कार किया जाता? <strong>उत्तर–</strong>अहंकार से महान् जीवों में चरणाचार अर्थात् सम्यग्चारित्र रूप प्रवृत्ति कराने के लिए तथा प्रवृत्तिमार्ग विषयक भक्ति के प्रकाशनार्थ उन्हें नमस्कार नहीं किया जाता है। </span></li> | |||
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<ol start="5"> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5" id="5"> साधु की परीक्षा का विधि-निषेध</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> आगंतुक साधु की विनयपूर्वक परीक्षा विधि</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना/410-414 </span> <span class="PrakritGatha">आएसं एज्जंतं अब्भुट्टितिं सहसा हु दठ्ठूणं। आणासंगहवच्छल्लदाए चरणे य णादुंजे।410। आगंतुगवच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं। अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेदुं परिक्खंति।411। आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे। सज्झाए य विहारे भिक्खग्गहणे परिच्छंति।412। आएसस्स तिरत्त णियमा संघाडमो दु दादव्वो। सेज्ज संथारो वि य जइ वि असंभेइओ होइ।413। तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाइओ दु दादव्वो। सेज्जा संथारो वि यग्गणिणा अविजुत्त जोगिस्स।414। </span> | |||
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<li class="HindiText"> अन्य गण से आये हुए साधु को देखकर परगण के सब साधु, वात्सल्य, सर्वज्ञ आज्ञा, आगंतुक को अपना बनाना और नमस्कार करना इन प्रयोजनों के निमित्त उठकर खड़े हो जाते हैं।410। वह नवागंतुक मुनि और इस संघ के मुनि परस्पर में एक दूसरे की प्रतिलेखन क्रिया व तेरह प्रकार चारित्र की परीक्षा के लिए एक दूसरे को गौर से देखते हैं।411। षट् आवश्यक व कायोत्सर्ग क्रियाओं में, पीछी आदि से शोधन क्रिया, भाषा बोलने की क्रिया, पुस्तक आदि के उठाने रखने की क्रिया, स्वाध्याय, एकाकी जाने आने की क्रिया, भिक्षा ग्रहणार्थ चर्या, इन सब क्रिया स्थानों में परस्पर परीक्षा करें।412। आये हुए अन्य संघ के मुनि को स्वाध्याय संस्तर भिक्षा आदि का स्थान बतलाने के लिए तथा उनकी शुद्धता की परीक्षा करने के लिए, तीन दिन रात तक सहायक मुनि साथ रहैं।413। <span class="GRef">(मूलाचार/160, 162, 163, 164)</span>। </li> | |||
<li class="HindiText">तीन दिन के पश्चात् यदि वह मुनि परीक्षा में ठीक नहीं उतरता तो उसे सहाय प्रदान नहीं करते, तथा वसतिका व संस्तर भी उसे नहीं देते और यदि उसका आचरण योग्य है, परंतु परीक्षा पूरी नहीं हुई है, तो भी आचार्य उसको सहाय वसतिका व संस्तर नहीं देते हैं।414। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> साधु की परीक्षा करने का निषेध</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">सागार धर्मामृत/2/64 में उद्धृत</span>–<span class="SanskritText">भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्। ते संतः संत्वसंतो वा गृही दानेन शुध्यति।..काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीट के। एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः।</span> = <span class="HindiText">केवल आहारदान देने के लिए मुनियों की क्या परीक्षा करनी चाहिए? वे मुनि चाहे अच्छे हों या बुरे, गृहस्थ तो उन्हें दान देने से शुद्ध ही हो जाता है अर्थात् उसे तो पुण्य हो ही जाता है। इस कलिकाल में चित्त सदा चलायमान रहता है, शरीर एक तरह से केवल अन्न का कीड़ा बना हुआ है, ऐसी अवस्था में भी वर्तमान में जिन रूप धारण करने वाले मुनि विद्यमान हैं, यही आश्चर्य है। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> साधु परीक्षा संबंध शंका समाधान</strong> <br /> | |||
<span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/ अधिकार/पृष्ठ/पंक्ति</span> - <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="5.3.1" id="5.3.1">प्रश्न–</strong>शील संयमादि पालै हैं, तपश्चरणादि करैं हैं, सो जेता करैं तितना ही भला है? <strong>उत्तर–</strong>यहू सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्या हुआ भला है। परंतु प्रतिज्ञा तौ बड़े धर्म की करिए अर पालिए थोरा तौ वहाँ प्रतिज्ञा भंगतैं महापाप हो है।...शील संयमादि होतैं भी पापी ही कहिए।....यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करतैं तौ पापीपना होता नाहीं। जेता धर्म्म साधै तितना ही भला है। (5/234/9)। </li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5.3.2" id="5.3.2">प्रश्न–</strong>पंचम काल के अंत तक चतुर्विध संघ का सद्भाव कह्या है। इनकौ साधु न मानिय तौ किसकौं मानिए? <strong>उत्तर–</strong>जैसे इस कालविषै हंस का सद्भाव कह्या है अर गम्यक्षेत्र विषै हंस नाहीं दीसै है, तौ औरनिकौं तौ हंस माने जाते नाहीं, हंस का सा लक्षण मिलें ही हंस मानें जायँ। तैसैं इस कालविषै साधु का सद्भाव है, अर गम्य क्षेत्र विषै साधु न दीसै हैं, तो औरनिकौं तौ साधु मानें जाते नाहीं। साधु लक्षण मिलैं ही साधु माने जायँ। (5/234/22<strong>)। </strong></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5.3.3" id="5.3.3">प्रश्न–</strong>अब श्रावक भी तौ जैसे संभवैं तैसे नाहीं। तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि? <strong>उत्तर–</strong>श्रावक संज्ञा तौ शास्त्रविषै सर्व गृहस्थ जनौं की है। श्रेणिक भी असंयमी था, ताकौं उत्तर पुराण विषै श्रावकोत्तम कह्या । बारह सभाविषै श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे।....तातै गृहस्थ जैनी श्रावक नाम पावै हैं। अर ‘मुनि’ संज्ञा तौ निर्ग्रंथ बिना कहीं कहीं नाहीं। बहुरि श्रावककै तौ आठ मूलगुण कहे हैं। सो मद्यमांस मधु पंचउदंबरादि फलनिका भक्षण श्रावकनिकै है नाहीं, तातै काहू प्रकार श्रावकपना तौ संभवै भी है। अर मुनि कै 28 मूलगुण हैं, सो भेषीनिकै दीसते ही नाहीं। तातैं मुनिपनों काहू प्रकारकरि संभवै नाहीं। (6/274/1) </li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5.3.4" id="5.3.4">प्रश्न–</strong>ऐसे गुरु तौ अबार यहाँ नाहीं, तातै जैसे अर्हंंत की स्थापना प्रतिमा हैं, तैसैं गुरुनिकी स्थापना ये भेषधारी हैं? <strong>उत्तर–</strong>अर्हंतादिकी पाषाणादि में स्थापना बनावै, तौ तिनिका प्रतिपक्षी नाहीं, अर कोई सामान्य मनुष्य आपकौं मुनि मनावै, तो वह मुनिनिका प्रतिपक्षी भया। ऐसे भी स्थापना होती होय, तौं अरहंत भी आपकौं मनावो। (6/273/15) [पंचपरमेष्ठी भगवान् के असाधारण गुणों की गृहस्थ या सामान्य मनुष्य में स्थापना करना निषिद्ध है। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 2/ भाषाकार/1/5/54/264/6)</span>। </li> | |||
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Latest revision as of 09:40, 16 January 2024
मोक्षमार्ग में विनय का प्रधान स्थान है। वह दो प्रकार का है–निश्चय व व्यवहार। अपने रत्नत्रयरूप गुण की विनय निश्चय है और रत्नत्रयधारी साधुओं आदि की विनय व्यवहार या उपचार विनय है। यह दोनों ही अत्यंत प्रयोजनीय है। ज्ञान प्राप्ति में गुरु विनय अत्यंत प्रधान है। साधु, आर्यिका आदि चतुर्विध संघ में परस्पर में विनय करने संबंधी जो नियम है उन्हें पालन करना एक तप है। मिथ्यादृष्टियों व कुलिंगियों की विनय योग्य नहीं।
- भेद व लक्षण
- विनय संपन्नता का लक्षण।–देखें विनय - 1.1।
- सामान्य विनय निर्देश
- आचार व विनय में अंतर।
- ज्ञान के आठ अंगों को ज्ञान विनय कहने का कारण।
- एक विनयसंपन्नता में शेष 15 भावनाओं का समावेश।
- विनय तप का माहात्म्य ।
- देव-शास्त्र गुरु की विनय निर्जरा का कारण है।–देखें पूजा - 2।
- आचार व विनय में अंतर।
- उपचार विनय विधि
- साधु व आर्यिका की संगति व वचनालाप संबंधी कुछ नियम।–देखें संगति ।
- साधु व आर्यिका की संगति व वचनालाप संबंधी कुछ नियम।–देखें संगति ।
- उपचार विनय के योग्यायोग्य पात्र
- सत् साधु प्रतिमावत् पूज्य हैं।–देखें पूजा - 3।
- जो इन्हें वंदना नहीं करता सो मिथ्यादृष्टि है।
- चारित्रवृद्ध से भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है।
- मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु बंद्य नहीं है।
- मिथ्यादृष्टि साधु श्रावक तुल्य भी नहीं है।–देखें साधु - 4।
- अधिक गुणी द्वारा हीन गुणी वंद्य नहीं है।
- कुगुरु कुदेवादिकी वंदना आदि का कड़ा निषेध व उसका कारण।
- द्रव्यलिंगी भी कथंचित् वंद्य है।
- साधु को नमस्कार क्यों?
- असंयत सम्यग्दृष्टि वंद्य क्यों नहीं?
- सिद्ध से पहले अर्हंत को नमस्कार क्यों?–देखें मंत्र ।
- 14 पूर्वी से पहले 10 पूर्वी को नमस्कार क्यों?–देखें श्रुतकेवली - 1।
- सत् साधु प्रतिमावत् पूज्य हैं।–देखें पूजा - 3।
- साधु परीक्षा का विधि निषेध
- सहवास से व्यक्ति के गुप्त परिणाम भी जाने जा सकते हैं।–देखें प्रायश्चित्त - 3.1।
- सहवास से व्यक्ति के गुप्त परिणाम भी जाने जा सकते हैं।–देखें प्रायश्चित्त - 3.1।
- भेद व लक्षण
- विनय सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 पूज्येष्वादरो विनयः। = पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है।
राजवार्तिक/6/24/2/529/17 सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरः कषा-यनिवृत्तिर्वा विनयसंपन्नता। = मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरु आदिकों में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसंपन्नता है। (सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/7); (चारित्रसार/53/1); (भावपाहुड़ टीका/77/221/5 )।
धवला 13/5, 4, 26/63/4 रत्नत्रयवत्सु नीचैर्वृत्तिर्विनयः। = रत्नत्रय को धारण करने वाले पुरुषों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है। ( चारित्रसार/147/5); ( अनगारधर्मामृत/7/60/702)।
कषायपाहुड़/1/1-1/ #90/117/2 गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिर्विनयः। = गुणवृद्ध पुरुषों के प्रति नम्र वृत्तिका रखना विनय है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/21 विलयं नयति कर्ममलमिति विनयः। = कर्म मल को नाश करता है, इसलिए विनय है। (अनगारधर्मामृत/7/61/702 ); (देखें विनय - 2.2)।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/23 ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रियाः। तासामपोहनं विनयः। = अशुभ क्रियाएँ ज्ञान-दर्शन चारित्र व तप के अतिचार हैं। इनका हटाना विनय तप है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/457 दंसणणाणचरित्ते सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो। बारसभेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसिं। = दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में तथा बारह प्रकार के तप के विषय में जो विशुद्ध परिणाम होता है वही उनकी विनय है।
चारित्रसार/147/5 कषायेंद्रियविनयनं विनयः। = कषायों और इंद्रियों को नम्र करना विनय है। (अनगारधर्मामृत/7/ 60/702)।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225/306/23 स्वकीयनिश्चयरत्नत्रयशुद्धिर्निश्चयविनयः तदाधारपुरुषेषु भक्तिपरिणामो व्यवहारविनयः। = स्वकीय निश्चय रत्नत्रय की शुद्धि निश्चयविनय है और उसके आधारभूत पुरुषों (आचार्य आदि को) को भक्ति के परिणाम व्यवहारविनय है।
सागार धर्मामृत/7/35 सुदृग्धीवृत्ततपसा मुमुक्षेर्निर्मलीकृतौ। यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तु।35।
= मुमुक्षुजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप के दोष दूर करने के लिए जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहते हैं और इस प्रयत्न में शक्ति को न छिपा कर शक्ति अनुसार उन्हें करते रहना विनयाचार है।
- विनय के सामान्य भेद
मूलाचार/580 लोगाणुवित्तिविणओ अत्थणिमित्ते य कामतंते य। भयविणओ य चउत्थो पंचमओ मोक्खविणओ य।580। = लोकानुवृत्ति विनय, अर्थ निमित्तक विनय, कामतंत्र विनय, भयविनय और मोक्षविनय इस प्रकार विनय पाँच प्रकार की है।
- मोक्ष विनय के सामान्य भेद
भगवती आराधना/112 विणओ पुण पंचविहो णिद्दिट्ठो णाणदंसणचरित्ते। तवविणओ य चउत्थो चरियो उवयारिओ विणओ।112। = विनय आचार पाँच प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय। (मूलाचार/364, 584); ( धवला/ पुस्तक 13/5, 4, 26/63/4); ( कषायपाहुड़/1/1-1/90/117/1); वसुनंदी श्रावकाचार/320; (अनगारधर्मामृत/7/64/703)।
तत्त्वार्थसूत्र/1/23 ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारः। = विनय तप चार प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय। (चारित्रसार/147/5 ); ( तत्त्वसार/7/30)।
धवला 8/3, 41/808 विणओ तिविहो णाण-दंसण-चरित्तविणओ त्ति। = विनय संपन्नता तीन प्रकार की है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनय।
- उपचार विनय के प्रभेद
भगवती आराधना/118/295 काइयावाइयमाणसिओ त्ति तिविहो दु पंचमो विणओ। सो पुण सव्वो दुव्विहो पच्चक्खो चेव परोक्खो।118। = उपचार विनय तीन प्रकार की है–कायिक, वाचिक और मानसिक। उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं–प्रत्यक्ष व परोक्ष। (मूलाचार/372); (चारित्रसार/148/3); ( वसुनंदी श्रावकाचार/325)।
- लोकानुवृत्त्यादि सामान्य विनयों के लक्षण
मूलाचार/581-583 अब्भुट्ठाणं अंजलियासणदाणं च अतिहिपूजा य। लोगाणुवित्तिविणओ देवदपूया सविभवेण।581। भाषानुवृत्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च। लोकाणुवित्तिविणओ अंजलिकरणं च अत्थकदे।582। एमेव कामतंते भयविणओ चेव आणुपुव्वीए। पंचमओ खलु विणओ परूवणा तस्सिया होदि।583। = आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, पाहुणगति करना, देवता की पूजा अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है।581। किसी पुरुष के अनुकूल बोलना तथा देश व कालयोग्य अपना द्रव्य देना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है। अपने प्रयोजन या स्वार्थ वश हाथ जोड़ना आदि अर्थनिमित्त विनय है।582। इसी तरह कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतंत्र विनय है। भय के कारण विनय करना भय विनय है। पाँचवीं मोक्ष विनय का कथन आगे करते हैं।583।
- ज्ञान दर्शन आदि विनयों के लक्षण
भगवती आराधना/113-117/260-294 काले विणये उवधाणे बहुमाणे तहे व णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभये विणओ णाणम्मि अट्ठविहो।113। उवगूहणादिया पुव्वुत्त तह भत्तियादिया य गुणा। संकादिवज्जणं पि य णेओ सम्मत्तविणओ सो।114। इंदियकसायपणिधाणं पि य गुत्तीओ चेव समिदीओ। एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।115। उत्तरगुणउज्जमणं सम्म अधिआसणं च सड्ढाए। आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुस्सेओ।116। भत्ती तवोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं। एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स।117। = काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ, तदुभय ऐसे ज्ञान विनय के आठ भेद हैं। (और भी देखें ज्ञान - III.2.1)।113। पहिले कहे गये (देखें सम्यग्दर्शन - I.2) उपगूहन आदि सम्यग्दर्शन के अंगों का पालन, भक्ति पूजा आदि गुणों का धारण तथा शंकादि दोषों के त्याग को सम्यक्त्व विनय या दर्शन विनय कहते हैं।114। इंद्रिय और कषायों के प्रणिधान या परिणाम का त्याग करना तथा गुप्ति समिति आदि चारित्र के अंगों का पालन करना संक्षेप में चारित्र विनय जाननी चाहिए।115। संयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परीषहों को सहन करना, यथा योग्य आवश्यक क्रियाओं में हानि वृद्धि न होने देना–यह सब तप विनय है।116। तप में तथा तप करने में अपने से जो ऊँचा है उसमें, भक्ति करना तप विनय है। उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी हैं उनकी तथा चारित्रधारी मुनियों की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। यह तप विनय है।117। मूलाचार/365, 367, 369, 370, 371); (अनगारधर्मामृत/7/65-69/704-706 तथा 75/710)
भगवती आराधना/46-47/153 अरहंतसिद्धचेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य। आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि।46। भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स। आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण।47। = अरहंत, सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ, श्रुतज्ञान, जिन धर्म आचार्य उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा आदि करना, इनका महत्त्व बताना, अन्य मतियों द्वारा आरोपित किये गये अवर्णवाद को हटाना, इनके आसादन का परिहार करना यह सब दर्शन विनय है।46-47।
मूलाचार/गाथा अत्थपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेहिं सुदणाणे। तह रोचेदि णरो दंसणविणओ हवदि एसो।366। णाणं सिक्खदि णाणं गुणेदि णाणं परस्स उवदिसदि। णाणेण कुणदि णायं णाणविणीदो हवदि एसो।368। = श्रुत ज्ञान में जिनेंद्रदेव द्वारा उपदिष्ट द्रव्य व उनकी स्थूल सूक्ष्म पर्याय उनकी प्रतीति करना दर्शन विनय है।366। ज्ञान को सीखना, उसी का चिंतवन करना दूसरे को भी उसी का उपदेश देना तथा उसी के अनुसार न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करना–यह सब ज्ञान विनय है।368। (मूलाचार/585-586)।
सर्वार्थसिद्धि/9/23/441/4 सबहुमानं मोक्षार्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयः। शंकादिदोषविरहितं तत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शनविनयः। तद्वतश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनयः। = बहुत आदर के साथ मोक्ष के लिए ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञान विनय है। शंकादि दोषों से रहित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना दर्शन विनय है। सम्यग्दृष्टि का चारित्र में चित्त का लगना चारित्र विनय है। ( तत्त्वसार/7/31-33)।
राजवार्तिक/9/23/2-4/622/16 अनलसेन शुद्धमनसा देशकालादिविशुद्धिविधानविचक्षणेन सबहुमानो यथाशक्ति निषेव्यमाणो मोक्षर्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयो वेदितव्यः।.. यथा भगवद्भिरुपदिष्टाः पदार्थाः तेषां तथाश्रद्धाने निःशंकितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनविनयो वेदितव्यः।....... ज्ञानदर्शनवतः पंचविधदुश्चरचरणश्रवणानंतरमुद्भिंन-रोमांचाभिव्यज्यमानांतर्भक्तेः परप्रसादो मस्तकांजलिकरणादिभिर्भावतश्चानुष्ठातृत्वं चारित्रविनयः प्रत्येतव्यः। = आलस्य रहित हो देशकालादि की विशुद्धि के अनुसार शुद्धचित्त से बहुमान पूर्वक यथाशक्ति मोक्ष के लिए ज्ञानग्रहण अभ्यास और स्मरण आदि करना ज्ञान विनय है। जिनेंद्र भगवान् ने श्रुत समुद्र में पदर्थों का जैसा उपदेश दिया है, उसका उसी रूप से श्रद्धान करने आदि में निःशंक आदि होना दर्शन विनय है। ज्ञान और दर्शनशाली पुरुष के पाँच प्रकार के दुश्चर चारित्र का वर्णन सुनकर रोमांच आदि के द्वारा अंतर्भक्ति प्रगट करना, प्रणाम करना, मस्तक पर अंजलि रखकर आदर प्रगट करना और उसका भाव पूर्वक अनुष्ठान करना चारित्र विनय है। (चारित्रसार/147/6); ( भावपाहुड़ टीका/78/224/11)
वसुनंदी श्रावकाचार/321-324 णिस्संकिय संवेगाइ जे गुणा वण्णिया मए पुव्वं। तेसिमणुपालणं जं वियाण सो दंसणो विणओ।321। णाणे णाणुवयरणे य णाणवंतम्मि तह य भत्तीए। जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाण विणओ हु।322। पंचविहं चारित्तं अहियारा जे य वण्णिया तस्स। जं तेसिं बहुमाणं वियाण चारित्तविणओ सो।323। बालो यं बुड्ढो यं संकप्प वज्जिऊण तवसीणं। जं पणिवायं कीरइ तवविणयं तं वियाणीहि।324। = निःशंकित संवेग आदि जो गुण मैंने पहिले वर्णन किये हैं उनके परिपालन को दर्शन विनय जानना चाहिए।321। ज्ञान में, ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदिक में तथा ज्ञानवंत पुरुष में भक्ति के साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञान विनय है।322। परमागम में पाँच प्रकार का चारित्र और उसके जो अधिकारी या धारक वर्णन किये गये हैं, उनके आदर सत्कार को चारित्र विनय जानना चाहिए।323। यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकार का संकल्प छोड़कर तपस्वी जनों का जो प्रणिपात अर्थात् आदरपूर्वक वंदन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना।324।
देखें विनय - 2.3–(सोलह कारण भावनाओं की अपेक्षा लक्षण)।
- उपचार विनय सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/23/442/2 प्रत्यक्षेष्बाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनांजलिकरणादिरुपचारविनयः। परोक्षेष्वपि कायवाङ्म-नोऽभिरंजलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः। = आचार्य आदि के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचार विनय है, तथा उनके परोक्ष में भी काय वचन और मन से नमस्कार करना, उनके गुणों का कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है। (राजवार्तिक/9/23/5-6/622/25); ( तत्त्वसार/7/34); (भावपाहुड/टीका/78/224/14)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/458 रयणत्तयजुत्तणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए। भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ।458। = जैसे सेवक राजा के अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रय के धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है।
- कायिकादि उपचार विनयों के लक्षण
भगवती आराधना/119-126/296-303 अब्भुट्ठाणं किदियम्म णवंसण अंजली य मुंडाणं। पच्चुग्गच्छणेमत्तो पच्छिद अणुसाधणं चेव।119। णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं। आसणदाणं उवगरणदाणमोगासदाणं च।120। पडिरूवकायसंफासणदा पडिरूवकालकिरिया य। पेसणकरणं संथारकरणमुवकरणपडिलिहणं।121। इच्चेवमादिविणओ उवयारो कीरदे सरीरेण। एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि।122। पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च महुरं च। सुत्ताणुवीचिवयणं अणिट्ठुरमकक्कसं वयणं।123। उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं। एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादब्वो।124। पापविसोत्तिय परिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामो। णायव्वो संखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ।125। इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो। विरहम्मि विवट्टिज्जइ आणाणिद्देसचरियाए।126। = साधु को आते देख आसन से उठ खड़े होना, कायोत्सर्गादि कृतिकर्म करना, अंजुली मस्तक पर चढ़ाकर, नमस्कार करना, उनके सामने जाना, अथवा जाने वाले को विदा करने के लिए साथ जाना।119। उनके पीछे खड़े रहना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नीचे बैठना, नीचे सोना, उन्हें आसन देना, पुस्तकादि उपकरण देना, ठहरने को वसतिका देना।120। उनके बल के अनुसार उनके शरीर का स्पर्शन मर्दन करना, काल के अनुसार क्रिया करना अर्थात् शीतकाल में उष्णक्रिया और उष्णकाल में शीतक्रिया करना, आज्ञा का अनुकरण करना, संथारा करना, पुस्तक आदि का शोधन करना।121। इत्यादि प्रकार से जो गुरुओं का तथा अन्य साधुओं का शरीर से यथायोग्य उपकार करना सो सब कायिक विनय जानना।122। पूज्य वचनों से बोलना, हितरूप बोलना, थोड़ा बोलना, मिष्ट बोलना, आगम के अनुसार बोलना, कठोरता रहित बोलना।123। उपशांत वचन, निर्बंध वचन, सावद्य क्रिया रहित वचन, तथा अभिमान रहित वचन बोलना वाचिक विनय है।124। पाप कार्यों में दुःश्रुति (विकथा सुनना आदि) में अथवा सम्यक्त्व की विराधना में जो परिणाम, उनका त्याग करना; और धर्मोपकार में व सम्यक्त्व ज्ञानादि में परिणाम होना वह मानसिक विनय है।125। इस प्रकार ऊपर यह तीन प्रकार का प्रत्यक्ष विनय कहा। गुरुओं के परोक्ष होने पर अर्थात् उनकी अनुपस्थिति में उनको हाथ जोड़ना, जिनाज्ञानुसार श्रद्धा व प्रवृत्ति करना परोक्ष विनय है।126। (मूलाचार/373-380); ( वसुनंदी श्रावकाचार/326-331)।
मूलाचार/381-383 अह ओपचारिओ खलु विणओ तिविहो समासदो भणिओ। सत्त चउब्विह दुविहो बोधव्वो आणुपुव्वीए।381। अव्भुट्ठाणं सण्णादि आसणदाणं अणुप्पदाणं च। किदियम्मं पडिरूवं आसणचाओ य अणुव्वजणं।382। हिदमिदपरिमिदभासा अणुवीचीभासणं च बोधव्वं। अकुसलमणस्स रोधो कुसलमणपवत्तओ चेव।383। = संक्षेप से कहें तो तीनों प्रकार की उपचार विनय क्रम से 7, 4 व 2 प्रकार की हैं। अर्थात् कायविनय 7 प्रकार की, वचन विनय 4 प्रकार की और मानसिक विनय दो प्रकार की है।581। आदर से उठना, मस्तक नमाकर नमस्कार करना, आसन देना, पुस्तकादि देना, यथा योग्य कृति कर्म करना अथवा शीत आदि बाधा का मेटना, गुरुओं के आगे ऊँचा आसन छोड़के बैठना, जाते हुए के कुछ दूर तक साथ जाना, ये सात कायिक विनय के भेद हैं।382। हित, मित व परिमित बोलना तथा शास्त्र के अनुसार बोलना ये चार भेद वचन विनय के हैं। पाप ग्राहक चित्त को रोकना और धर्म में उद्यमी मन की प्रवर्तांना ये दो भेद मानसिक विनय के हैं। (अनगारधर्मामृत/7/71-73/707-709)।
चारित्रसार/148/4 तत्राचार्योपाध्यायस्थविरप्रवर्तकगणधरादिषु पूजनीयेष्वभ्युत्थानमभिगमनमंजलिकरणं वंदनानुगमनं रत्नत्रयबहुमानः सर्वकालयोग्यानुरूपक्रिययानुलोमता सुनिगृहीतत्रिदंडता सुशीलयोगताधर्मानुरूपकथा कथनश्रवणभक्ति-तार्हदायतनगुरुभक्तिता दोषवर्जनं गुणवृद्धसेवाभिलाषानुवर्तनपूजनम्। यदुक्तं–गुरुस्थविरादिभिर्नान्यथा तदित्यनिशं भावनं समेष्वनुत्सेको हीनेष्वपरिभवः जातिकुलधनैश्वर्यरूपविज्ञानबललाभर्द्धिषु निरभिमानता सर्वत्र क्षमापरता मितहितदेश-कालानुगतवचनता कार्याकार्यसेव्यासेव्यवाच्यावाच्यज्ञातृता इत्येवमादिभिरात्मानुरूपः प्रत्यक्षोपचारविनयः। परोक्षापचार-विनय उच्यते, परोक्षेष्वप्याचार्यादिष्वंजलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणाज्ञानुष्ठायित्वादिः कायवाङ्मनोभिरवगंतव्यः राग-प्रहसनविस्मरणैरपि न कस्यापि पृष्ठमांसभक्षणकरणीयमेवमादिः परोक्षोपचारविनयः प्रत्येतव्यः। = आचार्य, उपाध्याय, वृद्ध साधु, उपदेशादि देकरजिनमत की प्रवृत्ति करने वाले गणधरादिक तथा और भी पूज्य पुरुषों के आने पर खड़े होना, उनके सामने जाना, हाथ जोड़ना, वंदन करना, चलते समय उनके पीछे-पीछे चलना, रत्नत्रय का सबसे अधिक आदर सत्कार करना, समस्त काल के योग्य अनुरूप क्रिया के अनुकूल चलना, मन, वचन, काय तीनों योगों का निग्रह करना, सुशीलता धारना, धर्मानुकूल कहना सुनना तथा भक्ति रखना, अरहंत जिनमंदिर और गुरु में भक्ति रखना, दोषों का वा दाषियों का त्याग करना, गुणवृद्ध मुनियों की सेवा करने की अभिलाषा रखना, उनके अनुकूल चलना और उनकी पूजा करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है। कहा भी है ......‘‘वृद्ध मुनियों के साथ अथवा गुरु के साथ, कभी भी प्रतिकूल न होने की सदा भावना रखना, बराबर वालों के साथ कभी अभिमान न करना, हीन लोगों का कभी तिरस्कार न करना, जाति, कुल, धन, ऐश्वर्य, रूप, विज्ञान, बल, लाभ और ऋद्धियों में कभी अभिमान न करना, सब जगह क्षमा धारण करने में तत्पर रहना, हित परिमित व देश कालानुसार वचन कहना, कार्य-अकार्य सेव्य-असेव्य कहने योग्य न कहने योग्य का ज्ञान होना, इत्यादि क्रियाओं के द्वारा अपने आत्मा की प्रवृत्ति करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है। अब आगे परोक्ष उपचार विनय को कहते हैं। आचार्य आदि के परोक्ष रहते हुए भी मन, वचन, काय से उनके लिए हाथ जोड़ना, उनके गुणों का वर्णन करना, स्मरण करना और उनकी आज्ञा पालन करना आदि परोक्षोपचार विनय है (राग पूर्वक व हँसी पूर्वक अथवा भूलकर भी कभी किसी के पीठ पीछे बुराई व निंदा न करना, ये सब परोक्षोपचार विनय कहलाता है।
- विनय सामान्य का लक्षण
- सामान्य विनय निर्देश
- आचार व विनय में अंतर
अनगारधर्मामृत/7/ श्लोक/पृष्ठ
दोषोच्छेदे गुणाधाने यत्नो हि विनयो दृशि। दृगाचारस्तु तत्त्वार्थरुचौ यत्नो मलात्यये।66। यत्नो हि कालशुद्धयादौ स्याज्ज्ञानविनयोऽत्र तु। सति यत्नस्तदाचारः पाठे तत्साधनेषुच।68। समित्यादिषु यत्नो हि चारित्रविनयो यतः। तदाचारस्तु यस्तेषु सत्सु यत्नो व्रताश्रयः।70।
= सम्यग्दर्शन में से दोषों को दूर करने तथा उसमें गुणों को उत्पन्न करने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, उसको दर्शन विनयः तथा शंकादि मलों के दूर हो जाने पर तत्त्वार्थ श्रद्धान में प्रयत्न करने को दर्शनाचार कहते हैं। कालशुद्धि आदि ज्ञान के आठ अंगों के विषय में प्रयत्न करने को ज्ञान विनय और उन शुद्धि आदिकों के हो जाने पर श्रुत का अध्ययन करने के लिए प्रयत्न करने को अथवा अध्ययन की साधनभूत पुस्तकादि सामग्री के लिए प्रयत्न करने को ज्ञानाचार कहते हैं।68। व्रतों को निर्मल बनाने के लिए समिति आदि में प्रयत्न करने को चारित्र विनय और समिति आदिकों के सिद्ध हो जाने पर व्रतों की वृद्धि आदि के लिए प्रयत्न करने को चारित्राचार कहते हैं।70।
- ज्ञान के आठ अंगों को ज्ञानविनय कहने का कारण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/261/22 अयमष्टप्रकारो ज्ञानाभ्यासपरिकरोऽष्टविधं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्द वाच्यो भवतीति सूरेरभिप्रायः। = ज्ञानाभ्यास के आठ प्रकार कर्मों को आत्मा से दूर करते हैं, इसलिए विनय शब्द से संबोधन करना सार्थक है, ऐसा आचार्यों का अभिप्राय है।
- एक विनयसंपन्नता में शेष 15 भावनाओं का समावेश
धवला 8/3, 41/80/8 विणयसंपण्णदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बंधंति। तं जहा–विणओ तिविहो णाणदंसणचरित्तविणओ त्ति। तत्थ णाणविणओ णाम अभिक्खणभिक्खणं णाणेवजोगजुत्तदा बहुसुदभत्ती पवयणभत्ती च। दंसणविणओ णाम पवयणेसुवइट्ठसव्वभावसद्दहणं तिमूढादो ओसरणमट्ठमलच्छद्दणमरहंत-सिद्धभत्ती खणलवपडिबुज्झणदा लद्धिसंवेगसंपण्णदा च। चरित्तविणओ णाम सीलव्वदेसु णिरदिचारदा आवासएसु अपरिहीणदा जहायामे तहा तवो च। साहूणं पासुगपरिच्चाओ तेसिं समाहिसंधारणं तेसिं वेज्जावच्चजोगजुत्तदा पवयणवछल्लदा च णाणदंसणचरित्ताणं पि विणओ, तिरयणसमूहस्स साहू पवयण त्ति ववएसादो। तदो विणयसंपण्णदा एक्का वि होदूण सोलसावयवा। तेणेदीए विणयसंपण्णदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं मणुओ बंधंति। देव णेरइयाण कधमेसा संभवदि। ण, तत्थ वि णाणदंसणविणयाणं संभवदंसणादो।...जदि दोहि चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झदि तो चरित्तविणओ किमिदि तक्कारणमिदि वुच्चदे ण एस दोसो, णाणदंसणविणयकज्जविरोहिचरणविणओ ण होदि त्तिपदुप्पायणफलत्तादो। = विनय संपन्नता से ही तीर्थंकर नामकर्म को बाँधता है। वह इस प्रकार से कि-ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्र विनय के भेद से विनय तीन प्रकार है। उसमें बारंबार ज्ञानोपयोग से युक्त रहने के साथ बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति का नाम ज्ञान विनय है। आगमोपदिष्ट सर्वपदार्थों के श्रद्धान के साथ तीन मूढ़ताओं से रहित होना, आठ मलों को छोड़ना, अरहंतभक्ति, सिद्धभक्ति, क्षणलवप्रतिबुद्धता और लब्धिसंवेगसंपन्नता को दर्शन विनय कहते हैं। शीलव्रतों में निरतिचारता, आवश्यकों में अपरिहीनता अर्थात् परिपूर्णता और शक्त्यनुसार तप का नाम चारित्र विनय है। साधुओं के लिए प्रासुक आहारादिक का दान, उनकी समाधिका धारण करना, उनकी वैयावृत्ति में उपयोग लगाना और प्रवचनवत्सलता, ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों की ही विनय है; क्योंकि रत्नत्रय समूह को साधु व प्रवचन संज्ञा प्राप्त है। इसी कारण क्योंकि विनयसंपन्नता एक भी होकर सोलह अवयवों से सहित है, अतः उस एक ही विनयसंपन्नता से मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म को बांधते हैं। प्रश्न–यह, विनय संपन्नता देव नारकियों के कैसे संभव है। उत्तर–उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि उनमें ज्ञान व दर्शन विनय की संभावना देखी जाती है। प्रश्न–यदि (देव और नारकियों को) दो ही विनयों से तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जा सकता है तो फिर चारित्रविनय को उसका कारण क्यों कहा गया है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बात को सूचित करने के लिए चारित्रविनय को भी कारण मान लिया गया है।
- विनय तप का माहात्म्य
भावपाहुड़/ मूल/102 विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिंण पावंति।102। = हे मुने ! पाँच प्रकार की विनय को मन, वचन, काय तीनों योगों से पाल, क्योंकि, विनय रहित मनुष्य सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं। (वसुनंदी श्रावकाचार/335)।
भगवती आराधना/129-131 विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं। णिगएणाराहिज्जइ आयरिओ सव्वसंघो य।129। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा। अज्जव मद्दव लाघव भत्ती पल्हादकरणं च।130। कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो। तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा।131। = विनय मोक्ष का द्वार है, विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है और विनय से आचार्य व सर्वसंघ की सेवा हो सकती है।129। आचार के, जीदप्रायश्चित्त के और कल्पप्रायश्चित्त के गुणों का प्रगट होना, आत्मशुद्धि, कलह रहितता, आर्जव, मार्दव, निर्लोभता, गुरुसेवा, सबको सुखी करना–ये सब विनय के गुण हैं।130। सर्वत्र प्रसिद्धि, सर्व मैत्री गर्व का त्याग, आचार्यादिकों से बहुमान का पाना, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन, गुणों से प्रेम–इतने गुण विनय करने वाले के प्रगट होते हैं।131। (मूलाचार/386-388); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/3)।
मूलाचार/364 दंसणणाणे विणओ चरित्ततव ओवचारिओ विणओ। पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणापगो भणिओ।364। = दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप व उपचार ये पाँच प्रकार के विनय मोक्ष गति के नायक कहे गये हैं।364।
वसुनंदी श्रावकाचार/332-336 विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंतओ पुरिसो। सव्वत्थ हवइ सुहओ तहेव आदिज्जवयणो य।332। जे केइ वि उवएसा इह परलोए सुहावहा संति। विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा।333। देविंद चक्कहरमंडलीयरायाइजं सुहं लोए। तं सव्वं विणयफलं णिव्वाणसुहं तहा चेव।334। सत्तू व मित्तभावं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणओ तिविहेण तओ कायव्वो देसविरएण।336। विनय से पुरुष चंद्रमा के समान उज्ज्वल वशसमूह से दिगंत को धवलित करता है, सर्वत्र सबका प्रिय हो जाता है, तथा उसके वचन सर्वत्र आदर योग्य होते हैं।332। जो कोई भी उपदेश इस लोक और पर लोक में जीवों को सुख के देने वाले होते हैं, उन सबकी मनुष्य गुरुजनों की विनय से प्राप्त करते हैं।333। संसार में देवेंद्र, चक्रवर्ती और मंडलीक राजा आदि के जो सुख प्राप्त होते हैं वह सब विनय का ही फल है और इसी प्रकार मोक्ष सुख भी विनय का ही फल है।334। चूँकि विनयशील मनुष्य का शत्रु भी मित्रभाव को प्राप्त हो जाता है इसलिए श्रावक को मन, वचन, काय से विनय करना चाहिए।336।
अनगारधर्मामृत/7/62/702 सारं सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपसंपदिहार्हति। शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः।62।
= मनुष्य भव का सार आर्यता कुलीनता आदि है। उनका भी सार जिनलिंग धारण है। उसका भी सार जिनागम की शिक्षा है और शिक्षा का भी सार यह विनय है, क्योंकि इसके होने पर ही सज्जन पुरुषों के गुण सम्यक् प्रकार स्फुरायमान होते हैं।
- मोक्षमार्ग में विनय का स्थान व प्रयोजन
भगवती आराधना/128/305 विणएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा। विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।128। = विनयहीन पुरुष का शास्त्र पढ़ना निष्फल है, क्योंकि विद्या पढ़ने का फल विनय है और उसका फल स्वर्ग मोक्ष का मिलना है। (मूलाचार/385); (अनगारधर्मामृत/7/63/703)।
रयणसार/82 गुरुभक्तिविहीणाणं सिस्साणं सव्वसंगविरदाणं। ऊसरछेत्ते वविय सुवीयसमं जाण सव्वणुट्टाणं।82। = सर्वसंग रहित गुरुओं की भक्ति से विहीन शिष्यों की सर्व क्रियाएँ, ऊषर भूमि में पड़े बीज के समान व्यर्थ हैं।
राजवार्तिक/9/23/7/622/31 ज्ञानलाभाचारविशुद्धिसम्यगाराधनाद्यर्थं विनयभावनम्।7।.....ततश्च निवृत्तिसुखमिति विनयभावनं क्रियते। = ज्ञानलाभ, आचारविशुद्धि और सम्यग आराधना आदि की सिद्धि विनय से होती है और अंत में मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अतः विनय भाव अवश्य ही रखना चाहिए। ( चारित्रसार/150/2)।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511 शास्त्रोक्तवाचनास्वाध्यायकालयोरध्ययनं श्रुतस्स श्रुतं प्रयच्छतश्च भक्तिपूर्व कृत्वा, अवग्रहं परिगृह्य, बहुमाने कृत्वा, निह्नवं निराकृत्य, अर्थव्यंजनतदुभयशुद्धि संपाद्य एवं भाव्यमानं श्रुतज्ञानं संवरं निर्जरां च करोति। अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत्। = शास्त्र में वाचना और स्वाध्याय का जो काल कहा हुआ है उसी काल में श्रुत का अध्ययन करो, श्रुतज्ञान को बताने वाले गुरु की भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण करके आदर से पढ़ो, गुरु व शास्त्र का नाम न छिपाओ, अर्थ-व्यंजन व तदुभयशुद्धि पूर्वक पढ़ो, इस प्रकार विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ श्रुतज्ञान कर्मों की संवर निर्जरा करता है, अन्यथा वही ज्ञानावरण कर्म के बंध का कारण है। (और भी देखें विनय - 1.6 में ज्ञानविनय का लक्षण; ज्ञान/III/2/1 में सम्यग्ज्ञान के आठ अंग)
पद्मनन्दिपंचविंशतिका/6/19 ये गुरु नैव मंयंते तदुपास्तिं न कुर्वते। अंधकारो भवत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।19।
= जो न गुरु को मानते हैं, न उनकी उपासना ही करते हैं, उनके लिए सूर्य का उदय होने पर भी अंधकार जैसा ही है।
देखें विनय - 4.3 (चारित्रवृद्ध के द्वारा भी ज्ञानवृद्ध वंदनीय है।)
देखें सल्लेखना - 10 (क्षपक को निर्यापक का अन्वेषण अवश्य करना चाहिए।)
- आचार व विनय में अंतर
- उपचार विनय विधि
- विनय व्यवहार में शब्दप्रयोग आदि संबंधी कुछ नियम
सूत्रपाहुड़/12-13 जे बावीसपरीसह सहंति सत्तीसएहिं संजुत्त। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू।12। अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्त। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय।13। = सैंकड़ों शक्तियों से संयुक्त जो 22 परीषहों को सहन करते हुए नित्य कर्मों की निर्जरा करते हैं, ऐसे दिगंबर साधु वंदना करने योग्य हैं।12। और शेष लिंगधारी, वस्त्र धारण करने वाले परंतु जो ज्ञान दर्शन से संयुक्त हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं।13।
मूलाचार/131, 195 संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोग्गग्गहणादीसु अ इच्छाकारी दु कादव्वो।131। पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊणज्झाओ गवासणेणेक्वंदंति।195। = संयमोपकरण, ज्ञानोपकरण तथा अन्य भी जो उपकरण उनमें औषधादि में, आतापन आदि योगों में इच्छाकार करना चाहिए।131। आर्यिकाएँ आचार्यों को पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गवासन से बैठकर वंदना करती हैं।195।
मोक्षपाहुड़/ टीका/12/314 पर उद्धृत गाथा- वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू। अभिगमणं-वंदण-णमंसणेण विणएण सो पुज्जे।1। = सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका के द्वारा भी आज का नवदीक्षित साधु अभिगमन, वंदन, नमस्कार व विनय से पूज्य है। (प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225 प्रक्षेपक 8/304/27)।
मोक्षपाहुड़/ टीका/12/313/19 मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वंदनापि न युक्ता। यदि ता वंदंते तदा मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं। समाधिकर्मक्षयोऽस्त्विति। = मुनिजन व आर्यिकाओं के बीच परस्पर वंदना भी युक्त नहीं है। यदि वे वंदन करें तो मुनि को उनके लिए ‘नमोऽस्तु’ शब्द नहीं कहना चाहिए, किंतु ‘समाधिरस्तु’ या ‘कर्मक्षयोऽस्तु’ कहना चाहिए।
- विनय व्यवहार के योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ
मूलाचार/597-599 वखित्तपराहुतं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो। आहारं च करं तो णीहारं वा जदि करेदि।597। आसणे आसणत्थं च उवसंतं च उवट्ठिदं। अणुविण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदेः।598। आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अवराधे य गुरुणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।599। = व्याकुल चित्त वाले को, निद्रा, विकथा आदि से प्रमत्त दशा को प्राप्त को तथा आहार व नीहार करते को वंदना नहीं करनी चाहिए।597। एकांत भूमि में पद्मासनादि से स्वस्थ चित्तरूप से बैठे हुए मुनि को वंदना करनी चाहिए और वह भी उनकी विज्ञप्ति लेकर।598। आलोचना के समय, प्रश्न के समय, पूजा व स्वाध्याय के समय तथा क्रोधादि अपराध के समय आचार्य उपाध्याय आदि की वंदना करनी चाहिए।599। ( अनगारधर्मामृत/7/53-54/772 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/9 वसतेः, कायभूमितः, भिक्षातः, चैत्यात्, गुरुसकाशात्, ग्रामांतराद्वा आगमनकालेऽभ्यु-त्थातव्यम्। गुरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्युत्थानं कार्यम्। अनया दिशा यथागममि-तरदप्यनुगंतव्यम्। = वसतिका स्थान से, कायभूमि से (?) भिक्षा लेकर लौटते समय, चैत्यालय से आते समय, गुरु के पास से आते समय अथवा ग्रामांतर से आते समय अथवा गुरुजन जब बाहर जाते हैं या बाहर से आते हैं, तब तब अभ्युत्थान करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी जानना चाहिए।
- उपचार विनय की आवश्यकता ही क्या
भगवती आराधना व विजयोदया टीका/756-757/920 ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि संसारमुच्छिंदंति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्यशंकायामाह–जो भावणमोक्कारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा। ण हु ते होंति समत्था संसारुच्छेदणं कादुं।756। यद्येवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण विरुध्यते। नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाश ने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशंकायामाह–चदुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तवो हादि। तह भावणमोक्कारो मरणे तवणाणचरणाणं।757। = प्रश्न–सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप संसार का नाश करते हैं, इसलिए नमस्कार की क्या आवश्यकता है? उत्तर–भाव नमस्कार के बिना सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप संसार का नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं। प्रश्न–यदि ऐसा है तो ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा, क्योंकि आपके मत के अनुसार नमस्कार अकेला ही कर्मविनाश का उपाय है? उत्तर–चतुरंगी सेना का जैसे सेनापति प्रवर्तक माना जाता है, वैसे यह भाव नमस्कार भी मरण समय में तप, ज्ञान, चारित्र का प्रवर्तक है।
- विनय व्यवहार में शब्दप्रयोग आदि संबंधी कुछ नियम
- उपचार विनय के योग्यायोग्य पात्र
- यथार्थ साधु आर्यिका आदि वंदना के पात्र हैं
भगवती आराधना/127/304 राइणिय अराइणीएसु अज्जासु चेव गिहिवग्गे। विणओ जहारिहो सो कायव्वो अप्पमत्तेण।127। = ‘राइणिय’ उत्कृष्ट परिणाम वाले मुनि, ‘अराइणीय’ न्यून भूमिकाओं वाले अर्थात् आर्यिका व श्रावक तथा गृहस्थ आदि इन सबका उन उनकी योग्यतानुसार आदर व विनय करना चाहिए। (मूलाचार/384)।
दर्शनपाहुड़/ मूल 23 दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था। एदे दु वंदणीय। जे गुणवादी गुणधराणं। = दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपविनय इनमें जो स्थित हैं वे सराहनीय व स्वस्थ हैं और गणधर आदि भी जिनका गुणानुवाद करते हैं, ऐसे साधु वंदने योग्य है ।23। (मूलाचार/596), ( सूत्रपाहुड़/12); (बोधपाहुड़/ मूल/11)।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/674, 735 इत्याद्यनेकधानेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः। नमस्यः श्रेयसेऽवश्यं....।674। नारीभ्योऽपि व्रताढयाभ्यो न निषिद्धं’ जिनागमे। देयं संमानदानादि लोकानामविरुद्धतः।735। = अनेक प्रकार के साधु संबंधी गुणों से युक्त पूज्य साधु ही मोक्ष की प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञानियों द्वारा वंदने योग्य हैं।674। जिनागम में व्रतों से परिपूर्ण स्त्रियों का भी सम्मान आदि करना निषिद्ध नहीं है, इसलिए उनका भी लोक व्यवहार के अनुसार सम्मान आदि करना चाहिए।735।
देखें विनय - 3.1–(सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका से भी आज का नवदीक्षित साधु वंद्य है।)
- जो इन्हें वंदन नहीं करता सो मिथ्यादृष्टि है
दर्शनपाहुड़/ मूल/24 सहजुप्पण्णं रूवं दट्ठुं जो मण्णएण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।24। = जो सहजोत्पन्न यथाजात रूप को देखकर मान्य नहीं करता तथा उसका विनय सत्कार नहीं करता और मत्सरभाव करता है, वे यदि संयमप्रतिपन्न भी हैं, तो भी मिथ्यादृष्टि है।
- चारित्रवृद्ध से भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/8 वाचनामनुयोगं वा शिक्षयतः अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्यं तन्मूलेऽध्ययनं कुर्वद्भिः सर्वैरेव। = जो ग्रंथ और अर्थ को पढ़ाता है अथवा सदादि अनुयोगों का शिक्षण देता है वह व्यक्ति यदि अपने से रत्नत्रय में हीन भी है, तो भी उसके आने पर जो-जो उसके पास अध्ययन करते हैं वे सर्वजन खड़े हो जावें।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/263/354/15 यद्यपि चारित्रगुणेनाधिका न भवंति तपसा वा तथापि सम्यग्ज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वाच्छ्रु तविनयार्थमभ्युत्थेयाः।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/267/358/17 यदि बहुश्रुतानां पार्श्वे ज्ञानादिगुणवृद्धयर्थं स्वयं चारित्रगुणाधिका अपि वंदनादिक्रियासु वर्तंते तदा दोषो नास्ति। यदि पुनः केवलं ख्यातिपूजालाभार्थं वर्तंते तदातिप्रसंगाद्दोषो भवति। = चारित्र व तप में अधिक न होते हुए भी सम्यग्ज्ञान गुण से ज्येष्ठ होने के कारण श्रुत की विनय के अर्थ वह अभ्युत्थानादि विनय के योग्य है। यदि कोई चारित्र गुण में अधिक होते हुए भी ज्ञानादि गुण की वृद्धि के अर्थ बहुश्रुत जनों के पास वंदनादि क्रिया में वर्तता है तो कोई दोष नहीं है। परंतु यदि केवल ख्याति पूजा व लाभ के अर्थ ऐसा करता है तब अतिदोष का प्रसंग प्राप्त होता है।
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- मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु वंद्य नहीं है
दर्शनपाहुड़/ मूल/2, 26 दंसणहीणो ण वंदिव्वो।2। असंजदं ण वंदे वच्छविहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।26। = दर्शनहीन वंद्य नहीं है।2। असंयमी तथा वस्त्रविहीन द्रव्यलिंगी साधु भी वंद्य नहीं हैं, क्योंकि दोनों ही संयम रहित समान हैं।26।
मूलाचार/594 दंसणणाणचरित्ते तवविणएँ णिच्चकाल पासत्था। एदे अवंदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणं।594। = दर्शन ज्ञान चारित्र और तपविनयों से सदाकाल दूर रहनेवाले गुणी संयमियों के सदा दोषों को देखने वाले पार्श्वस्थ आदि हैं, इसलिए वे वंद्य नहीं हैं।594।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/6 नाभ्युत्थानं कुर्यात्, पार्श्वस्थपंचकस्य वा। रत्नत्रये तपसि च नित्यमभ्युद्यतानां अभ्युत्थानं कर्त्तव्यं कुर्यात्। सुखशीलजनेऽभ्युत्थानं कर्मबंधनिमित्तं प्रमादस्थापनोपबृंहणकारणात्। = मुनियों को पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनियों का आगमन होने पर उठकर खड़े होना योग्य नहीं है। जो मुनि रत्नत्रय व तपश्चरण में तत्पर हैं उनके आने पर अभ्युत्थान करना योग्य है। जो सुख के वश होकर अपने आचार में शिथिल हो गये हैं उनके आने पर अभ्युत्थान करने से कर्मबंध होता है, क्योंकि वह प्रमाद की स्थापना का व उसकी वृद्धि का कारण है।
भावपाहुड़ टीका/2/129/6 पर उद्धृत–उक्तं चेंद्रनंदिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने–‘द्रव्यलिंगं समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न वंद्यः स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन्। = समयभूषण प्रवचन में इंद्रनंदि भट्टारक ने कहा है–द्रव्यलिंग में सम्यक् प्रकार स्थिति पाकर ही यति भाव-लिंगी होता है। उस द्रव्य-लिंग के बिना वह वंद्य नहीं है, भले ही नाना व्रतों को धारण क्यों न किया हो।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/263 इतरेषां तु श्रमणाभासानां ताः प्रतिषिद्धा एव। = उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभसों के प्रति वे (अभ्युत्थानादिक) प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं।
अनगारधर्मामृत/7/52/771 कुलिंगिनः कुदेवाश्च न वंद्यास्तेऽपि संयतैः।52। = पार्श्वस्थादि कुलिंगियों तथा शासनदेव आदि कुदेवों की वंदना संयमियों को (या असंयमियों को भी) नहीं करनी चाहिए।
भावपाहुड़ टीका/14/137/23 एते पंच श्रमणा जिनधर्मबाह्या न वंदनीयाः। = ये पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के श्रमण जिनधर्म बाह्य हैं, इसलिए वंदनीय नहीं हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/674 नेतरो विदुषां महान्।734। = इन गुणों से रहित जो इतर साधु हैं, तत्त्वज्ञानियों द्वारा वंदनीय नहीं हैं।
- अधिकगुणी द्वारा हीनगुणी वंद्य नहीं है
प्रवचनसार/266 गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति। होज्जं गुणधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी। = जो श्रमण्य में अधिक गुण वाले हैं तथापि हीन गुण वालों के प्रति (वंदनादि) क्रियाओं में वर्तते हैं वे मिथ्या उपयुक्त होते हुए चारित्र से भ्रष्ट होते हैं।
दर्शनपाहुड़/ मूल/12 जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।12। = जो पुरुष दर्शनभ्रष्ट होकर भी दर्शन के धारकों को अपने पाँव में पड़ाते हैं, वे गूँगे-लूले होते हैं अर्थात् एकेंद्रिय निगोद योनि में जन्म पाते हैं। उनको बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/5 असंयतस्य संयतासंयतस्य वा नाभ्युत्थानं कुर्यात्। = मनुष्यों को असंयत व संयतासंयत जनों के आने पर खड़ा होना योग्य नहीं है।
अनगारधर्मामृत/7/52/771 श्रावकेणापि पितरौ गुरु राजाप्यसंयताः। कुलिंगिनः कुदेवाश्च न वंद्यास्तेऽपि संयतैः।52। = माता, पिता, दीक्षागुरु व शिक्षागुरु, एवं राजा और मंत्री आदि असयंत जनों की तथा श्रावक की भी संयमियों को वंदना नहीं करनी चाहिए और व्रती श्रावकों को भी उपरोक्त असंयमियों की वंदना नहीं करनी चाहिए।
दर्शनपाहुड़/ मूल/26 असंजदं ण वंदे।26। = असंयत जन वंद्य नहीं हैं।–(विशेष देखें आगे शीर्षक नं - 8)।
- कुगुरु कुदेवादि की वंदना आदि का कड़ा निषेध व उसका कारण
दर्शनपाहुड़/ मूल/13 जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवभएण। तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं।13। = जो दर्शनयुक्त पुरुष दर्शनभ्रष्ट को मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी लज्जा गारव या भय के कारण उनके पाँव में पड़ते हैं अर्थात् उनकी विनय आदि करते हैं, तिनको भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती, है, क्योंकि वे पाप के अनुमोदक हैं।13।
मोक्षपाहुड़/92 कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु। = कुत्सित देव को, कुत्सित धर्म को और कुत्सित लिंगधारी गुुरु को लज्जा, भय या गारव के वश वंदना आदि करता है, वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है।92।
शीलपाहुड़/ मूल/14 कुमयकुसुदपसंसा जाणंता जाणंता बहुविहाई सत्थाई। सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होंति।14। = बहु प्रकार से शास्त्र को जानने वाला होकर भी यदि कुमत व कुशास्त्र की प्रशंसा करता है, तो वह शील, व्रत व ज्ञान इन तीनों से रहित है, इनका आराधक नहीं है।
रत्नकरंड श्रावकाचार/30 भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम्। प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः।30। = शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, प्रीति और लोभ से कुदेव, कुशास्त्र और कुलिंगियों को प्रणाम और विनय भी न करे।
पंद्मनन्दिपंचविंशतिका/1/167 न्यायादंधकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां, प्राप्त वा बहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छनन्नरत्वं यदि। मिथ्यादेवगुरुपदेशविषयव्यामोहनीचान्वय-प्रायैः प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति॥167। = संसारी प्राणियों को यह मनुष्यपर्याय इतनी ही कष्ट प्राप्य है जितनी कि अंधे को बटेर की प्राप्ति। फिर यदि करोड़ों कल्पकालों में किसी प्रकार प्राप्त भी हो गयी, तो वह मिथ्या देव एवं मिथ्या गुरु के उपदेश, विषयानुराग और नीच कुल में उत्पत्ति आदि के द्वारा सहसा विफलता को प्राप्त हो जाती है।167।
और भी देखें मूढ़ता (कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व कुधर्म को देवगुरु शास्त्र व धर्म मानना मूढ़ता है।)
देखें अमूढदृष्टि - 3 (प्राथमिक दशा में अपने श्रद्धान की रक्षा करने के लिए इनसे बचकर ही रहना योग्य है।)
- द्रव्य लिंगी भी कथंचित् वंद्य है
योगसार/अमितगति/5/56 द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभिः। भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभिः।56। = व्यवहारी जनों के लिए द्रव्यलिंगी भी पूज्य है, परंतु जो मोक्ष के इच्छुक हैं उन्हें तो भाव-लिंगी ही पूज्य है।
सागार धर्मामृत/2/64 विन्यस्यैदयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव। भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत्कुतः श्रेयोऽतिचर्चिनाम्।64।
उपरोक्त श्लोक की टीका में उद्धृत-‘‘यथा पूज्यं जिनेंद्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम्। तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः। = जिस प्रकार प्रतिमाओं में जिनेंद्र देव की स्थापना कर उनकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार सद्गृहस्थ को इस पंचमकाल में होने वाले मुनियों में पूर्वकाल के मुनियों की स्थापना कर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए। कहा भी है ‘‘जिस प्रकार लेपादि से निर्मित जिनेंद्र देव का रूप पूज्य है, उसी प्रकार वर्तमान काल के मुनि पूर्वकाल के मुनियों के प्रतिरूप होने से पूज्य हैं। [परंतु अन्य विद्वानों को इस प्रकार स्थापना द्वारा इन मुनियों को पूज्य मानना स्वीकार नहीं है–(देखें विनय - 5.3)]
- साधुओं को नमस्कार क्यों
धवला 9/4, 1, 1/11/1 होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो। ण देसजिणाणमेदेसु तदणुवलंभादो त्ति। ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुवलंभादो। = प्रश्न–सकल जिन नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो, क्योंकि उनमें सब गुण पाये जाते हैं। किंतु देशजिनों को किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि इनमें वे सब गुण नहीं पाये जाते? उत्तर–नहीं, क्योंकि सकल जिनों के समान देश जिनों में (आचार्य, उपाध्याय, साधु में) भी तीन रत्न पाये जाते हैं। [जो यद्यपि असंपूर्ण हैं, परंतु सकल जिनों के संपूर्ण रत्नों से भिन्न नहीं है।]–(विशेष देखें देव - I.1.5) ।
- असंयत सम्यग्दृष्टि वंद्य क्यों नहीं
धवला 9/4, 1, 2/41/1 महव्वयविरहिददोरयणहराणं। ओहिणाणीणमणोहिणाणीणं च किमट्ठं णमोक्कारो ण कीरदे। गारवगुरुवेसु जीवेसु चरणाचारपयट्टावटठं उत्तिमग्गविसयभत्तिपयासणटठं च ण कीर दे। = प्रश्न–महाव्रतों से रहित दो रत्नों अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के धारक अवधिज्ञानी तथा अवधिज्ञान से रहित जीवों को भी क्यों नहीं नमस्कार किया जाता? उत्तर–अहंकार से महान् जीवों में चरणाचार अर्थात् सम्यग्चारित्र रूप प्रवृत्ति कराने के लिए तथा प्रवृत्तिमार्ग विषयक भक्ति के प्रकाशनार्थ उन्हें नमस्कार नहीं किया जाता है।
- यथार्थ साधु आर्यिका आदि वंदना के पात्र हैं
- साधु की परीक्षा का विधि-निषेध
- आगंतुक साधु की विनयपूर्वक परीक्षा विधि
भगवती आराधना/410-414 आएसं एज्जंतं अब्भुट्टितिं सहसा हु दठ्ठूणं। आणासंगहवच्छल्लदाए चरणे य णादुंजे।410। आगंतुगवच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं। अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेदुं परिक्खंति।411। आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे। सज्झाए य विहारे भिक्खग्गहणे परिच्छंति।412। आएसस्स तिरत्त णियमा संघाडमो दु दादव्वो। सेज्ज संथारो वि य जइ वि असंभेइओ होइ।413। तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाइओ दु दादव्वो। सेज्जा संथारो वि यग्गणिणा अविजुत्त जोगिस्स।414।- अन्य गण से आये हुए साधु को देखकर परगण के सब साधु, वात्सल्य, सर्वज्ञ आज्ञा, आगंतुक को अपना बनाना और नमस्कार करना इन प्रयोजनों के निमित्त उठकर खड़े हो जाते हैं।410। वह नवागंतुक मुनि और इस संघ के मुनि परस्पर में एक दूसरे की प्रतिलेखन क्रिया व तेरह प्रकार चारित्र की परीक्षा के लिए एक दूसरे को गौर से देखते हैं।411। षट् आवश्यक व कायोत्सर्ग क्रियाओं में, पीछी आदि से शोधन क्रिया, भाषा बोलने की क्रिया, पुस्तक आदि के उठाने रखने की क्रिया, स्वाध्याय, एकाकी जाने आने की क्रिया, भिक्षा ग्रहणार्थ चर्या, इन सब क्रिया स्थानों में परस्पर परीक्षा करें।412। आये हुए अन्य संघ के मुनि को स्वाध्याय संस्तर भिक्षा आदि का स्थान बतलाने के लिए तथा उनकी शुद्धता की परीक्षा करने के लिए, तीन दिन रात तक सहायक मुनि साथ रहैं।413। (मूलाचार/160, 162, 163, 164)।
- तीन दिन के पश्चात् यदि वह मुनि परीक्षा में ठीक नहीं उतरता तो उसे सहाय प्रदान नहीं करते, तथा वसतिका व संस्तर भी उसे नहीं देते और यदि उसका आचरण योग्य है, परंतु परीक्षा पूरी नहीं हुई है, तो भी आचार्य उसको सहाय वसतिका व संस्तर नहीं देते हैं।414।
- साधु की परीक्षा करने का निषेध
सागार धर्मामृत/2/64 में उद्धृत–भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्। ते संतः संत्वसंतो वा गृही दानेन शुध्यति।..काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीट के। एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः। = केवल आहारदान देने के लिए मुनियों की क्या परीक्षा करनी चाहिए? वे मुनि चाहे अच्छे हों या बुरे, गृहस्थ तो उन्हें दान देने से शुद्ध ही हो जाता है अर्थात् उसे तो पुण्य हो ही जाता है। इस कलिकाल में चित्त सदा चलायमान रहता है, शरीर एक तरह से केवल अन्न का कीड़ा बना हुआ है, ऐसी अवस्था में भी वर्तमान में जिन रूप धारण करने वाले मुनि विद्यमान हैं, यही आश्चर्य है।
- साधु परीक्षा संबंध शंका समाधान
मोक्षमार्ग प्रकाशक/ अधिकार/पृष्ठ/पंक्ति -
- प्रश्न–शील संयमादि पालै हैं, तपश्चरणादि करैं हैं, सो जेता करैं तितना ही भला है? उत्तर–यहू सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्या हुआ भला है। परंतु प्रतिज्ञा तौ बड़े धर्म की करिए अर पालिए थोरा तौ वहाँ प्रतिज्ञा भंगतैं महापाप हो है।...शील संयमादि होतैं भी पापी ही कहिए।....यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करतैं तौ पापीपना होता नाहीं। जेता धर्म्म साधै तितना ही भला है। (5/234/9)।
- प्रश्न–पंचम काल के अंत तक चतुर्विध संघ का सद्भाव कह्या है। इनकौ साधु न मानिय तौ किसकौं मानिए? उत्तर–जैसे इस कालविषै हंस का सद्भाव कह्या है अर गम्यक्षेत्र विषै हंस नाहीं दीसै है, तौ औरनिकौं तौ हंस माने जाते नाहीं, हंस का सा लक्षण मिलें ही हंस मानें जायँ। तैसैं इस कालविषै साधु का सद्भाव है, अर गम्य क्षेत्र विषै साधु न दीसै हैं, तो औरनिकौं तौ साधु मानें जाते नाहीं। साधु लक्षण मिलैं ही साधु माने जायँ। (5/234/22)।
- प्रश्न–अब श्रावक भी तौ जैसे संभवैं तैसे नाहीं। तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि? उत्तर–श्रावक संज्ञा तौ शास्त्रविषै सर्व गृहस्थ जनौं की है। श्रेणिक भी असंयमी था, ताकौं उत्तर पुराण विषै श्रावकोत्तम कह्या । बारह सभाविषै श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे।....तातै गृहस्थ जैनी श्रावक नाम पावै हैं। अर ‘मुनि’ संज्ञा तौ निर्ग्रंथ बिना कहीं कहीं नाहीं। बहुरि श्रावककै तौ आठ मूलगुण कहे हैं। सो मद्यमांस मधु पंचउदंबरादि फलनिका भक्षण श्रावकनिकै है नाहीं, तातै काहू प्रकार श्रावकपना तौ संभवै भी है। अर मुनि कै 28 मूलगुण हैं, सो भेषीनिकै दीसते ही नाहीं। तातैं मुनिपनों काहू प्रकारकरि संभवै नाहीं। (6/274/1)
- प्रश्न–ऐसे गुरु तौ अबार यहाँ नाहीं, तातै जैसे अर्हंंत की स्थापना प्रतिमा हैं, तैसैं गुरुनिकी स्थापना ये भेषधारी हैं? उत्तर–अर्हंतादिकी पाषाणादि में स्थापना बनावै, तौ तिनिका प्रतिपक्षी नाहीं, अर कोई सामान्य मनुष्य आपकौं मुनि मनावै, तो वह मुनिनिका प्रतिपक्षी भया। ऐसे भी स्थापना होती होय, तौं अरहंत भी आपकौं मनावो। (6/273/15) [पंचपरमेष्ठी भगवान् के असाधारण गुणों की गृहस्थ या सामान्य मनुष्य में स्थापना करना निषिद्ध है। ( श्लोकवार्तिक 2/ भाषाकार/1/5/54/264/6)।
- आगंतुक साधु की विनयपूर्वक परीक्षा विधि