अदत्तादान: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों में तीसरा महाव्रत― स्वामी के द्वारा अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करने का न तो विचार करना और न ग्रहण करना । <span class="GRef"> पद्मपुराण 6.287, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.119, 58.140 | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों में तीसरा महाव्रत― स्वामी के द्वारा अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करने का न तो विचार करना और न ग्रहण करना । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#287|पद्मपुराण - 6.287]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#119|हरिवंशपुराण - 2.119]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#140|58.140]] </span>इस व्रत की स्थिरता के लिए पांच भावनाएँ होती है― 1. शून्यागारावास 2. विमोचितायास 3. परोपरोधाकरण 4. भैक्ष्यशुद्धि और 5. सधर्माविसंवाद । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#120|हरिवंशपुराण - 58.120]] </span>इस व्रत के अंतर्गत ऐसी भी इतर पाँच भावनाएँ हैं जिनका संबंध मुनियों के आहार ग्रहण से हैं । वे ये हैं― 1. मितग्रहण-परिमित आहार लेना 2. उचितग्रहण-तपश्चरण के योग्य आहार लेना 3. अभ्यनुज्ञातग्रहण-श्रावक की प्रार्थना पर आहार लेना 4. अन्यग्रहोऽन्यथा-योग्यविधि से आहार लेना और 5. भक्तपान संतोष-प्राप्त आहार में संतोष रखना । ऐसा व्रती रत्नमयी निधि का धारक होता है । <span class="GRef"> महापुराण 20.163 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_32#151|पद्मपुराण - 32.151]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- देखें अस्तेय ।
पुराणकोष से
अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों में तीसरा महाव्रत― स्वामी के द्वारा अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करने का न तो विचार करना और न ग्रहण करना । पद्मपुराण - 6.287, हरिवंशपुराण - 2.119, 58.140 इस व्रत की स्थिरता के लिए पांच भावनाएँ होती है― 1. शून्यागारावास 2. विमोचितायास 3. परोपरोधाकरण 4. भैक्ष्यशुद्धि और 5. सधर्माविसंवाद । हरिवंशपुराण - 58.120 इस व्रत के अंतर्गत ऐसी भी इतर पाँच भावनाएँ हैं जिनका संबंध मुनियों के आहार ग्रहण से हैं । वे ये हैं― 1. मितग्रहण-परिमित आहार लेना 2. उचितग्रहण-तपश्चरण के योग्य आहार लेना 3. अभ्यनुज्ञातग्रहण-श्रावक की प्रार्थना पर आहार लेना 4. अन्यग्रहोऽन्यथा-योग्यविधि से आहार लेना और 5. भक्तपान संतोष-प्राप्त आहार में संतोष रखना । ऐसा व्रती रत्नमयी निधि का धारक होता है । महापुराण 20.163 पद्मपुराण - 32.151