ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 32
From जैनकोष
अथानंतर राम-लक्ष्मण उस मंदिर में कहीं क्षण एक निद्रा लेकर अर्धरात्रि के समय जब घोर अंधकार फैल रहा था, लोगों का शब्द मिट गया था, और मनुष्य शांत थे तब जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर कवच धारण कर तथा धनुष उठाकर चले । वे सीता को बीच में कर के चल रहे थे । दोनों ही उत्तम वेष के धारक थे तथा दीपक हाथ में लिये थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो मंडपादि स्थानों में कामी जनों को देख ही रहे थे ॥1-2॥ उन्होंने देखा कि जिसका शरीर संभोग से खिन्न हो रहा है ऐसा कोई पुरुष अपनी प्राणवल्लभा को भुजारूप पंजर के मध्य रखकर अत्यंत गाढ़ निद्रा का सेवन कर रहा है ॥3॥ अपराध करने वाले किसी पुरुष ने पहले तो अपनी स्त्री को कुपित कर दिया और पीछे बार-बार झूठी शपथ के द्वारा उसे विश्वास दिला रहा है ।।4।। कोई एक पुरुष कृत्रिम कोपकर पृथक् बैठा है और उसकी स्त्री काम से उत्तप्त हो उसे मधुर वचनों से शांत कर रही है ।। 5 ।। सुरत के श्रम से जिसका शरीर खिन्न हो रहा था ऐसी कोई स्त्री पति के शरीर में इस तरह लीन होकर गाढ़ निद्रा ले रही है जिस तरह कि मानो वह पति के साथ अभेद को ही प्राप्त हो चुकी हो ॥6॥ कोई एक पुरुष लज्जा के कारण विमुख बैठी नवोढ़ा पत्नी को बड़ी कठिनाई से अनुकूल कर हर्षपूर्वक उसके साथ वार्तालाप कर रहा है ॥7॥ कोई एक स्त्री अपने पति के लिए उसके द्वारा पहले किये हुए सब अपराध बता रही है और वह उसे मनाकर निश्चिंतता से उसका समाधान कर रहा है ।। 8 । कोई एक धूर्त पुरुष अपने शरीर को संकुचित कर दूसरे के घर पहुंचा है और वहाँ झरोखे में बैठे बिलाव को वहाँ से हटा रहा है ।। 9 ।। किसी पुरुष ने अपनी कुलटा प्रेमिका को सूने मठ में आने का संकेत दिया था पर उसने आने में विलंब किया इसलिए वह व्याकुल हो बार-बार उठकर उसे देख रहा है ॥10॥ किसी अभि सारिका का प्रेमी देर से आया था इसलिए वह अत्यंत कुपित हो उसे मेखला से बांधकर उत्तरीय वस्त्र से पीट रही है ॥11॥ और कोई एक मनुष्य अभिसारिका के साथ समागम प्राप्त कर कुत्ते के भी पैर की आहट सुनकर अत्यधिक भय को प्राप्त हो रहा है ।। 12 ।। इस प्रकार बाह्य झरोखों और मंडपों में कामीजनों को देखते तथा उनके वृत्तांत को सुनते हुए राम और लक्ष्मण धीरे-धीरे जा रहे थे ॥13॥ वे अतिशय सरल थे और वे नगरी के पश्चिम द्वार से बाहर निकलकर आगे मिलने वाले मार्ग से दक्षिणदिशा की ओर चले गये ॥14॥
इधर जब भक्ति से भरे तथा राम के साथ जाने के लिए उत्सुक सामंतों को कानों कान यह पता चला कि राम तो बंधु जनों को धोखा देकर चले गये हैं तब वे प्रातःकाल होने के पूर्व जब कुछ-कुछ अँधेरा था वेग से घोड़े दौड़ा कर मंथर गति से चलने वाले राम के पास जा पहुंचे ॥15-16।। जब उन्हें साथ-साथ चलने वाले राम-लक्ष्मण नेत्रों से दिखने लगे तब वे महाविनय से युक्त हो पैदल ही चलने लगे ॥17॥ सामंत लोग भावपूर्वक प्रणाम कर जब तक उनके साथ यथाक्रम से वार्तालाप करते हैं तब तक उन्हें खोजने के लिए बड़ी भारी सेना वहाँ आ पहुंची ॥18॥ अत्यंत निर्मलचित्त के धारक सामंत लोग सीता की इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हम लोग इसके प्रसाद से ही राजपुत्रों को प्राप्त कर सके हैं ।। 19 ।। यदि यह इनके साथ धीरे-धीरे नहीं चलती तो हम पवन के समान वेगशाली राजपुत्रों को किस तरह प्राप्त कर सकते ? ॥20॥ यह माता अत्यंत सती तथा हम सबका बहुत भारी भला करने वाली है । इस पृथिवी पर इसके समान दूसरी पवित्र स्त्री नहीं है ॥22॥ मनुष्यों में उत्तम राम लक्ष्मण सीता की गति का ध्यान कर गव्यूति प्रमाण मार्ग को ही सुख से तय कर पाते थे ॥22॥ वे पृथिवी मंडल पर नाना प्रकार के धान, कमलों से सुशोभित तालाब और गगनचुंबी वृक्षों को देखते हुए जा रहे थे ।। 23 ।। जिस प्रकार वर्षाऋतु में गंगा और यमुना के प्रवाह अनेक नदियों से मिलते रहते हैं उसी प्रकार राम-लक्ष्मण के पर्यंत भाग भी अनेक वेगशाली राजाओं से मिलते रहते थे ॥24॥ ग्राम, खेट, मटंब, घोष तथा नगरों में लोग उन उत्तम वीरों का भोजनादि सामग्री के द्वारा सत्कार करते थे ॥25॥ दोनों ही भाई आगे बढ़ रहे थे, और सामंत लोग मार्ग के खेद से दुःखी हो रहे थे । जब उन्हें इस बात का दृढ़ ज्ञान हो गया कि राम-लक्ष्मण लौटने वाले नहीं हैं तब वे उनसे कहे बिना ही लौट गये ॥26॥ भक्ति में तत्पर रहने वाले कितने ही सामंत लज्जा से और कितने ही भय से अपने मन को दुःखी कर विनयपूर्वक उनके साथ पैदल चल रहे थे ॥27॥
तदनंतर राम-लक्ष्मण लीलापूर्वक परियात्रा नाम की उस अटवी में पहुंचे जो कि सिंह और हस्तिसमूह के उच्च शब्दों से भयंकर हो रही थी ।। 28।। उस अटवी में बड़े-बड़े वृक्षों से कृष्णपक्ष की निशा के समान घोर अंधकार व्याप्त था । वहीं, जिसके किनारे अनेक शबर अर्थात् भील रहते थे ऐसी एक शर्वरी नाम की नदी थी । राम लक्ष्मण वहाँ पहुंचे ॥29॥ नाना प्रकार के मधुर फलों से युक्त उस नदी के तट पर विश्राम कर रामने समझा-बुझाकर कितने ही राजाओं को तो वापस लौटा दिया ॥30।। पर जिन्होंने राम के साथ जाने का निश्चय ही कर लिया था ऐसे अन्य अनेक राजा बहुत भारी प्रयत्न करने पर भी नहीं लौटे ॥31॥
तदनंतर जो नदी महानीलमणि के समान सुशोभित हो रही थी, अत्यंत वेगशाली लहरों के समूह से जिसका मध्य भाग व्याप्त था, जो उखरते हुए बलवान मगरमच्छों की टक्कर से उत्पन्न होने वाली तरंगों से व्याप्त थीं, लहरों के समूह के आघात पर जिसके कोमल किनारे उसी में टूट-टूटकर गिर रहे थे, बड़े-बड़े पर्वतों की गुफाओं में टकराने से जिसमें सू-सू शब्द हो रहा था, जिसमें ऊपर तैरने वाली मछलियों के शरीर में सूर्य की किरणें प्रतिबिंबित हो रही थीं, जिसमें उत्पात करने वाले नाकों की सूत्कार से जल के छींटे दूर-दूर तक उड़ रहे थे, और जिसके पास से समस्त पक्षी भयभीत होकर उड़ गये थे ऐसी उस नदी को देखकर सब सामंतों के शरीर भय से काँपने लगे । वे लक्ष्मण सहित राम से बोले कि हे नाथ ! हम लोगों को भी नदी से पार उतारो । हे पद्म ! प्रसन्न होओ, हे लक्ष्मण ! भक्ति से भरे हुए हम सेवकों पर प्रसन्नता करो । हे देवि ! लक्ष्मण तुम्हारी बात मानते हैं इसलिए इनसे कह दो ॥32-37॥ इत्यादि अनेक शब्दों का उच्चारण करते हुए वे दीन सामंत उस नदी में कूद पड़े तथा नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते हुए बहने लगे ॥38।। तब किनारे पर निश्चिंतता से खड़े हुए राम ने उन सबसे कहा कि हे भले पुरुषो ! अब तुम लौट जाओ । यह वन बहुत भयंकर है ।। 39॥ हम लोगों के साथ तुम्हारा इतना ही समागम था । अब हमारे और तुम्हारे बीच में यह नदी सीमा बन गयी है इसलिए उत्सुकता से रहित होओ ॥40॥ पिता ने तुम सबके लिए भरत को राजा बनाया है सो तुम सब निर्भय होकर उसी को शरण में रहो ।।41 ।।
तदनंतर उन्होंने फिर कहा कि हे नाथ! हमारी गति तो आप ही हैं इसलिए हे दया निपुण ! प्रसाद करो और हम लोगों को नहीं छोड़ो ॥42॥ तुम्हारे बिना यह प्रजा निराधार होकर व्याकुल हो रही है । आप ही कहो किसकी शरण में जावे ? आपके समान दूसरा है ही कौन? ।। 43 ।। हम आपके साथ व्याघ्र, सिंह, गजेंद्र आदि दुष्ट जीवों के समूह से भरे हुए वन में रह सकते हैं पर आपके बिना स्वर्ग में भी नहीं रहना चाहते ॥44।। हमारा चित्त ही नहीं लौटता है फिर हम कैसे लौटे ? यह चित्त ही तो इंद्रियों में प्रधान है ।। 45 ।। जब आप-जैसे नर-रत्न हमें छोड़ रहे हैं तब हम पापी जीवों को घर से क्या प्रयोजन है ? भोगों से क्या मतलब है ? स्त्रियों से क्या अर्थ है ? और बंधुओं की क्या आवश्यकता है ? ॥46 ।। हे देव ! क्रीड़ाओं में भी कभी आपने हम लोगों को सम्मान से वंचित नहीं किया फिर इस समय अत्यंत निष्ठुर क्यों हो रहे हो ? ।।47।। हे भृत्य वत्सल ! हम लोग आपके चरणों की धूलि से ही परम वृद्धि को प्राप्त हुए हैं । बताइए, हमारा क्या अपराध है ? ।। 48।। राम से इतना कहकर उन्होंने सीता और लक्ष्मण को भी संबोधित करते हुए कहा कि हे जानकि! हे लक्ष्मण ! मैं आप दोनों के लिए हाथ जोड़कर मस्तक पर लगाता हूँ, आप हमारे विषय में स्वामी को प्रसन्न कीजिए क्योंकि ये आप दोनों पर प्रसन्न हैं-आपकी बात मानते हैं ॥49 ।। लोग सोता तथा लक्ष्मण से इस प्रकार कह रहे थे और अत्यंत सरल प्रकृति के धारक वे दोनों राम के चरणकमलों के आगे दृष्टि लगाये चुपचाप खड़े थे―‘क्या उत्तर दिया जाये’ यह उन्हें सूझ नहीं पड़ता था ।। 60 ।। तदनंतर रामने कहा कि हे भद्रपुरुषो ! आप लोगों के लिए यही एक स्पष्ट उत्तर है कि अब आप यहाँ से लौट जाइए, मैं जाता हूँ, आप लोग अपने घर सुख से रहें ॥51 ।। इतना कहकर किसी की अपेक्षा नहीं करने वाले दोनों भाई बड़े भारी उत्साह से उस अतिशय गहरी महानदी में उतर पड़े ॥52 ।। जिस प्रकार दिग्गज अपने कर ( सूँड ) में कमलिनी को लेकर तैरता है उसी प्रकार राम विकसित नेत्रों वाली सीता को हाथ में लेकर नदी को पार कर रहे थे ।। 53 ।। दोनों ही जल-क्रीड़ा के ज्ञान में निपुण थे अतः चिरकाल तक उत्तम क्रीड़ा करते हुए जा रहे थे । उनके लिए वह नदी नाभि प्रमाण गहरी हो गयी थी ॥54।। उस समय राम की हथेली पर स्थित धैर्यशालिनी सीता ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो ऊँचे उठे हुए कमलरूपी घर में स्थित लक्ष्मी ही हो ॥55॥ इस प्रकार जिनका शरीर चित्त को रोकने वाला था ऐसे राम सीता और लक्ष्मण के साथ नदी को पार कर क्षण-भर में वृक्षों से अंतर्हित हो गये ॥56॥
तदनंतर जिनके नेत्रों से आँसू झर रहे थे ऐसे कितने ही राजा बहुत भारी विलाप कर अपने भवन की ओर उन्मुख हुए ॥57।। कितने ही लोग उसी दिशा में नेत्र लगाये हुए मिट्टी आदि के पुतलों के समान खड़े रहे । कितने ही मूर्च्छित होकर पृथिवी पर गिर पड़े ।। 58 ।꠰ और कितने ही प्रबोध को प्राप्त होकर कहने लगे कि इस असार संसार को धिक्कार है तथा सांप के शरीर के समान भय उत्पन्न करने वाले नश्वर भोगों को धिक्कार है ।। 59।। जहाँ इन-जैसे शूरवीरों की भी यह अवस्था है वहाँ एरंड के समान निःसार हम लोगों की तो गिनती ही क्या है ? ॥60॥ वियोग, मरण, व्याधि और जरा आदि अनेक कष्टों के पात्र तथा जल के बबूले के समान निःसार इस कृतघ्न शरीर को धिक्कार है ।। 61॥ उत्तम चेष्टा के धारक जो मनुष्य वानर की भौंह के समान चंचल लक्ष्मी को छोड़कर दीक्षित हो गये हैं वे महाशक्ति के धारक भाग्यवान हैं ।। 62 ।। इस प्रकार वैराग्य को प्राप्त हुए अनेक उत्तम मनुष्य दीक्षा लेने के सम्मुख हो नदी के उसी तट पर घूमने लगे ॥63॥
तदनंतर उन्होंने हरे-भरे वृक्षों की पंक्ति से घिरा हुआ एक ऊँचा, विशाल तथा शुभ मंदिर देखा ॥64॥ मंदिर का वह स्थान नाना प्रकार के पुष्पों की जातियों से व्याप्त था तथा मकरंद रस के आस्वाद से गूंजते हुए भ्रमर वहाँ भ्रमण कर रहे थे ॥65॥ उन लोगों ने वहाँ एकांत स्थानों में बैठे हुए, स्वाध्याय में लीन तथा विशाल तेज के धारक मुनियों को देखा ॥66।। मस्तक पर अंजलि बांधकर सब लोगों ने उन्हें धीरे-धीरे यथा क्रम से नमस्कार किया । तदनंतर उज्ज्वल जिनमंदिर में प्रवेश किया ॥67॥ उस समय भूमि प्रायः कर पर्वतों के सुंदर नितंबों पर, वनों में तथा नदियों के तटों पर बने हुए जिनमंदिरों से विभूषित थी ॥68॥ वहाँ उज्ज्वल भावना को धारण करने वाले सब जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर समुद्र के समान गंभीर मुनिराज के पास गये ।। 69।। वहाँ जाकर वैराग्य को धारण करने वाले सब लोगों ने शिर झुकाकर मुनिराज को नमस्कार किया और तदनंतर यह कहा कि हे नाथ ! हम लोगों को इस संसार-सागर से पार कीजिए ॥70॥ इसके उत्तर में मुनियों के अधिपति सत्यकेतु आचार्य ने ज्यों ही तथास्तु यह शब्द कहा त्योंही अब तो हम संसार से पार हो गये यह कहते हुए सब लोग परम संतोष को प्राप्त हुए ।। 71॥ विदग्ध, विजय, मेरु, क्रूर, संग्रामलोलुप, श्रीनागदमन, धीर, शठ, शत्रुदम, धर, विनोद, कंटक, सत्य, कठोर और प्रियवर्धन आदि अनेक राजाओं ने दिगंबर दीक्षा धारण की ।।72-73 ।। इनके जो सेवक थे वे हाथी, घोड़ा आदि सेना को लेकर उनके पुत्रों को सौंपने के लिए शीघ्र ही नगर की ओर गये । उस समय वे सेवक अत्यंत दीन तथा लज्जा से युक्त हो रहे थे ।। 74॥ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी आभूषणों को धारण करने वाले कितने ही लोग अणुव्रत ग्रहण कर निर्ग्रंथ मुद्रा के धारकों की सेवा करने के लिए उद्यत हुए ।। 75॥ तथा कितने ही लोग संसार को जीतने वाले जिनेंद्र भगवान् का अत्यंत निर्मल धर्म श्रवण कर मात्र सम्यग्दर्शन से ही संतोष को प्राप्त हुए ॥76 ।। अनेक सामंतों ने जाकर यह समाचार भरत के लिए सुनाया सो भरत कुछ ध्यान करता हुआ सुख से बैठा था परंतु यह समाचार सुन दुःखी हुआ ॥77॥
अथानंतर सम्यक् प्रबोध को प्राप्त हुए राजा दशरथ स्वस्थ चित्त को धारण करने वाले भरत का राज्याभिषेक कर राम के वियोग से कुछ संतप्त चित्त को धारण करते हुए, सांत्वना देने पर भी जो अत्यंत विलाप कर रहा था ऐसे व्याकुल अंतःपुर को छोड़ नगरी से बाहर निकले । उस समय शोकरूपी सागर में डूबे हुए परिजन उनकी ओर निहार रहे थे ।। 78-80।। नगरी से निकलकर वे सर्वभूतहित नामक गुरु के समीप गये और वहाँ बहुत भारी गुरुपूजा कर बहत्तर राजाओं के साथ दीक्षित हो गये ॥81॥ यद्यपि मुनिराज दशरथ एकाकी विहार करते हुए सदा शुभ ध्यान की इच्छा रखते थे तथापि पुत्र शोक के कारण उनका मन कलुषित हो जाता था ॥82॥ एक दिन योगारूढ़ होकर बुद्धिमान दशरथ विचार करने लगे कि संसार संबंधी दुःखों का मूल कारण तथा मुझे बंधन में डालने वाले स्नेह को धिक्कार है ।। 83 ।। अन्य जन्मों में जो मेरे स्त्री, पिता, भाई तथा पुत्र आदि संबंधी थे वे सब कहाँ गये ? यथार्थ में इस अनादि संसार में सभी संबंधी इतने हो चुके हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती ॥84।। मैंने अनेकों बार स्वर्ग में नाना प्रकार के विषय प्राप्त किये हैं और भोगों के निमित्त नरकाग्नि के संताप भी सहन किये हैं ।। 85॥ तिर्यंच पर्याय में मैंने चिरकाल तक परस्पर एक दूसरे का खाया जाना आदि दुःख उठाये हैं । इस प्रकार नाना योनियों में मैंने दुःखरूपी अनेक शल्य प्राप्त किये ॥86।। मैंने बांसुरी, वीणा आदि मधुर बाजों का अनुगमन करने वाले संगीत के शब्द सुने हैं और हृदय को विदारण करने वाले तीव्र रुदन के शब्द भी अनेक बार श्रवण किये हैं ॥87।। मैंने अपना हाथ अप्सराओं के सुंदर स्तनों पर लड़ाया है और कभी कुठार की तीक्ष्ण धारा से उसके टुकड़े-टुकड़े भी किये हैं ।। 88 ꠰। मैंने महाशक्ति वर्धक, सुगंधित छह रसों से युक्त आहार ग्रहण किया है और नरक की भूमि में राँगा, सीसा आदि का कलल भी बार-बार पिया है ॥89।। मन को द्रवीभूत करने वाला अत्यंत सुंदररूप देखा है और अत्यंत भय का कारण तथा कंपन उत्पन्न करने वाला घृणित रूप भी अनेक बार देखा है ॥90॥ जिसकी सुवास चिरकाल तक स्थित रहती है ऐसा भ्रमरों को आनंदित करने वाला मनोहर गंध सूंघा है और जिसे देखते ही महाजन दूर हट जाते हैं ऐसा तीव्र दुर्गंध उत्पन्न करने वाला सड़ा कलेवर भी बार-बार सूंघा है ।। 91 ।। मन को चुराने वाली तथा लीलारूपी आभूषणों से सुशोभित स्त्रियों का आलिंगन किया है और तीक्ष्ण काँटों से व्याप्त सेमर के मायामयी वृक्षों का भी बार-बार आलिंगन किया है ॥92॥ कर्मों का दास बनकर मैंने इस संसार में क्या नहीं किया है ? क्या नहीं देखा है ? क्या नहीं सूंघा है ? क्या नहीं सुना है ? और बार-बार क्या नहीं खाया है ? ॥93॥ न वह पृथिवी है, न वह जल है, न वह अग्नि है और न वह वायु है जो चिरकाल से संसार में भ्रमण करते हुए मेरी शरीर-दशा को प्राप्त नहीं हुआ है ।। 94।। तीनों लोकों में वह जीवन हीं है जो हजारों बार मेरा पिता आदि नहीं हुआ हो और वह स्थान भी नहीं है जहाँ मैंने निवास नहीं किया हो ॥95॥ शरीर भोग आदि अनित्य है, कोई किसी का शरण नहीं है, यह संसार चतुर्गति रूप है, मैं अकेला ही दुःख भोगता हूँ, यह शरीर अशुचि है तथा उससे मैं पृथक् हूँ, इंद्रियाँ कर्मों के आने का द्वार हैं, कर्मों को रोक देना संवर है, संवर के बाद कर्मों की निर्जरा होती है, यह लोक विचित्र रूप है, उत्तम रत्नत्रय की प्राप्ति होना दुर्लभ है, और जिनेंद्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ यह धर्म मैंने बड़े कष्ट से पाया है ।। 96-98॥ इस प्रकार मुनियों के द्वारा अनुभूत विशुद्ध ध्यान से धीरवीर दशरथ मुनि ने क्रम से पूर्वोक्त आर्तध्यान को नष्ट कर दिया ॥99 ।। जिनके ऊपर सफेद छत्र फिर रहा था तथा जो उत्तम हाथी पर सवार थे ऐसे राजा दशरथ ने पहले जिन देशों में महायुद्धों के बीच अत्यंत उद्धत शत्रुओं को जीता था अब उन्हीं देशों में वे अत्यंत शांत निर्ग्रंथ मुनि होकर विषम परिषहों को सहते हुए विहार कर रहे थे ॥100-101॥
तदनंतर पति के मुनि हो जाने और पुत्र के विदेश चले जाने पर अपराजिता ( कौशल्या) सुमित्रा के साथ परम शोक को प्राप्त हुई ॥102॥ जिनके नेत्रों से निरंतर अश्रु झरते थे ऐसी दोनों विमाताओं को दुःखी देखकर भरत, भरत चक्रवर्ती को लक्ष्मी के समान विशाल राज्यलक्ष्मी को विष के समान दारुण मानता था ॥103॥ अथानंतर इस तरह उन्हें अत्यंत दुखी देख केकयी के मन में दया उत्पन्न हुई जिससे प्रेरित होकर उसने अपने पुत्र भरत से इस प्रकार कहा कि हे पुत्र ! यद्यपि तने जिसमें समस्त राजा नम्रीभूत हैं ऐसा राज्य प्राप्त किया है तथापि वह राम और लक्ष्मण के बिना शोभा नहीं देता है ॥104-105॥ नियम से भरे हुए उन दोनों भाइयों के बिना राज्य क्या है ? देश को शोभा क्या है ? और तेरी धर्मज्ञता क्या है ? ॥106॥ सुखपूर्वक वृद्धि को प्राप्त हुए दोनों बालक, बिना किसी वाहन के पाषाण आदि विषम मार्ग में राजकुमारी सीता के साथ कहां भटकते होंगे ? ॥107।। गुणों के सागरस्वरूप उन दोनों की ये माताएं अत्यंत दुःखी हैं, निरंतर विलाप करती रहती हैं सो उनके विरह में मृत्यु को प्राप्त न हो जावें ॥108 । इसलिए तू शीघ्र ही उन दोनों को वापस ले आ । उन्हीं के साथ सुखपूर्वक चिरकाल तक पृथिवी का पालन कर । ऐसा करने से ही सबकी शोभा होगी ।।109 ।। हे सुपुत्र ! तू वेगशाली घोड़े पर सवार होकर जा और मैं भी तेरे पीछे ही आती हूँ ॥110 ।। माता के इस प्रकार कहने पर भरत बहुत प्रसन्न हुआ । वह साधु-साधु ठीक-ठीक इस प्रकार के शब्द कहने लगा तथा शीघ्र ही एक हजार घोड़ों से युक्त हो राम के मार्ग में चल पडा ॥111॥ वह राम के पास से लौटकर आये हुए लोगों को आगे कर बड़ी उत्कंठा से पवन के समान शीघ्रगामी घोड़े पर सवार होकर चला ॥112 ।। तथा कुछ ही समय में उस महाअटवी में जा पहुँचा जो हाथियों के समूह से व्याप्त थी, नाना वृक्षों से जहाँ सूर्य का प्रवेश रुक गया था तथा जो पर्वत और गर्मी से अत्यंत भयंकर थी ॥113।। सामने भयंकर नदी थी सो वृक्षों के बड़े-बड़े लटों से नावों के समूह को बाँधकर उनका पुल बना वाहनों के साथ-साथ क्षण-भर में पार कर गया ।।114॥ वह मार्ग में मिलने वाले लोगो से पूछता जाता था कि क्या यहाँ आप लोगों ने एक स्त्री के साथ दो पुरुष देखे हैं और उत्तर को एकाग्र मन से सुनता हुआ आगे बढ़ता जाता था ।।115॥ अथानंतर जो सघन वन में एक सरोवर के तीर पर विश्राम कर रहे थे तथ जिनके पास ही धनुष रखे हुए थे ऐसे सीता सहित राम-लक्ष्मण को भरत ने देखा ॥116 ।। राम लक्ष्मण, सीता के कारण जिस स्थान पर बहुत दिन में पहुंच पाये थे भरत उस स्थान पर छह दिन में ही पहुँच गया ।। 117॥ वह घोड़े से उतर पड़ा और जहाँ से राम दिख रहे थे उतने मार्ग में पैदल ही चलकर उनके समीप पहुँचा तथा उनके चरणों का आलिंगन कर मूर्च्छित हो गया ॥118॥ तदनंतर राम ने सचेत किया सो क्रम से वार्तालाप कर नम्रीभूत हो हाथ जोड़ शिर से लगाकर इस प्रकार कहने लगा कि हे नाथ ! राज्य देकर आपने मेरी यह क्या विडंबना की है ? आप ही न्याय के जानने वाले अतिशय निपुण हो ।। 119-120॥ उत्तम चेष्टाओं के धारण करने वाले आप से पृथक रहकर मुझे यह राज्य तो दूर रहे जीवन से भी क्या प्रयोजन है ? ।। 12 ।। हे प्रभो ! उठो, अपनी नगरी को चलें, मुझ पर प्रसन्नता करो, समस्त राज्य का पालन करो, और मुझे सुख की अवस्था देओ ॥122 ।। मैं आपका छत्र धारक होऊँगा, शत्रुघ्न चमर डोलेगा और लक्ष्मण उत्कृष्ट मंत्री होगा, ऐसा करने से ही सब ठीक होगा ॥123 ।। मेरी माता पश्चात्ताप रूपी अग्नि से अत्यंत संतप्त हो रही है तथा आपकी और लक्ष्मण की माता भी निरंतर शोक कर रही हैं ।।124॥ जब तक भरत इस प्रकार कह रहा था तब तक सैकड़ों सामंतों के मध्य गमन करने वाली केकयी वेगशाली रथ पर सवार हो वहाँ आ पहुँची ॥125।। राम लक्ष्मण को देखकर इसका हृदय बहुत भारी शोक से भर गया । हाहाकार करती हुई वह दोनों का आलिंगन कर चिरकाल तक रोती रही ॥126।।
तदनंतर जो विलाप करती-करती अत्यंत खिन्न हो गयी थी ऐसी केकयी अश्रु रूपी नदी की धारा टूटने पर क्रम से वार्तालाप कर इस प्रकार बोली कि हे पुत्र ! उठो, नगरी को चलें, छोटे भाइयों के साथ राज्य करो, तुम्हारे बिना मुझे यह सब राज्य वन के समान जान पड़ता है ॥127–128॥ तुम अतिशय बुद्धिमान् हो, यह भरत तुम्हारी शिक्षा के योग्य है अर्थात् इसे शिक्षा देकर ठीक करो, स्त्रीपना के कारण मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी थी अतः मेरे इस कुकृत्य को क्षमा करो ॥129 ।। तदनंतर राम ने कहा कि हे माता ! क्या तुम यह नहीं जानती हो कि क्षत्रिय स्वीकृत कार्य को कभी अन्यथा नहीं करते हैं― एक बार कार्य को जिस प्रकार स्वीकृत कर लेते हैं उसी प्रकार उसे पूर्ण करते हैं ॥130॥ पिता की अपकीर्ति जगत्त्रय में न फैले इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है ॥131॥ केकयी से इतना कहकर उन्होंने भरत से कहा कि हे भाई ! तू वैचित्य अर्थात् द्विविधा को प्राप्त मत हो । यदि तू अनाचार से डरता है तो यह अनाचार नहीं है क्योंकि मैं स्वयं इस कार्य की तुझे अनुमति दे रहा हूँ ॥132॥ इतना कहकर राम ने मनोहर वन में सब राजाओं के समक्ष भरत का पुनः राज्याभिषेक किया ।। 133 ।। तदनंतर केकयी को प्रणाम कर सांत्वना देते हुए बार-बार संभाषण कर और भाई का आलिंगन कर बड़े कष्ट से सबको वापस विदा किया ॥134॥ इस प्रकार माता और पुत्र अर्थात् केकयी और भरत, सीता सहित राम-लक्ष्मण का यथायोग्य उपचार कर जैसे आये थे वैसे लौट गये ॥135 ।। ।
अथानंतर भरत, पिता के समान, प्रजा पर राज्य करने लगा । उसका राज्य समस्त शत्रुओं से रहित तथा समस्त प्रजा को सुख देने वाला था ॥136॥ तेजस्वी भरत ने अपने मन में असहनीय शोकरूपी शल्य को धारण कर रहा था इसलिए ऐसे व्यवस्थित राज्य में भी उसे क्षणभर के लिए संतोष नहीं होता था ॥137।। वह तीनों काल अरनाथ भगवान् की वंदना करता था, भोगों से सदा उदास रहता था और समीचीन धर्म का श्रवण करने के लिए मंदिर जाता था यही इसका नियम था ॥138॥ वहाँ स्व और पर शास्त्रों के पारगामी तथा अनेक मुनियों का संघ जिनकी निरंतर सेवा करता था ऐसे द्युति नाम के आचार्य रहते थे ॥139 ।। उनके आगे बुद्धिमान् भरत ने प्रतिज्ञा की कि मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण करूँगा ।। 140॥ तदनंतर अपनी गंभीर वाणी से मयूर समूह को नृत्य कराते हुए भगवान् द्युति भट्टारक इस प्रकार को प्रतिज्ञा करने वाले भरत से बोले ॥141 ।। कि हे भव्य ! कमल के समान नेत्रों के धारक राम जब तक आते तब तक तू गृहस्थ धर्म के द्वारा अभ्यास कर ले ॥142 ।। महात्मा निर्ग्रंथ मुनियों की चेष्टा अत्यंत कठिन है पर जो अभ्यास के द्वारा परिपक्व होते हैं उन्हें उसका साधन करना सरल हो जाता है ॥143 ।। मैं आगे तप करूँगा ऐसा कहने वाले अनेक जड़बुद्धि मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं पर तप नहीं कर पाते हैं ॥144।। निर्ग्रंथ मुनियों का तप अमूल्य रत्न के समान है ऐसा कहना भी अशक्य है फिर उसकी अन्य उपमा तो हो ही क्या सकती है ? ॥145 ।। गृहस्थों के धर्म को जिनेंद्र भगवान् ने मुनिधर्म का छोटा भाई कहा है सो बोधि को प्रदान करने वाले इस धर्म में भी प्रमाद रहित होकर लीन रहना चाहिए ।। 146 ।। जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीप में गया वहाँ वह जिस किसी भी रत्न को उठाता है वही उसके लिए अमूल्यता को प्राप्त हो जाता है इसी प्रकार धर्मचक्र की प्रवृत्ति करने वाले जिनेंद्र भगवान के शासन में जो कोई इस नियमरूपी द्वीप में आकर जिस किसी नियम को ग्रहण करता है वही उसके लिए अमूल्य हो जाता है ॥147-148॥ जो अत्यंत श्रेष्ठ अहिंसारूपी रत्न को लेकर भक्तिपूर्वक जिनेंद्रदेव की पूजा करता है वह स्वर्ग में परम वृद्धि को प्राप्त होता है ।। 149॥ जो सत्य व्रत का धारी होकर मालाओं से भगवान् की अर्चा करता है उसके वचनों को सब ग्रहण करते हैं तथा उज्ज्वल कीर्ति से वह समस्त संसार को व्याप्त करता है ।। 150 ।। जो अदत्तादान अर्थात् चोरी से दूर रहकर जिनेंद्र भगवान् की पूजा करता है वह रत्नों से परिपूर्ण निधियों का स्वामी होता है ।। 151 ।। जो जिनेंद्र भगवान् की सेवा करता हुआ परस्त्रियों में प्रेम नहीं करता है वह सबके नेत्रों को हरण करने वाला परम सौभाग्य को प्राप्त होता है ।। 152॥ जो परिग्रह को सीमा नियत कर भक्तिपूर्वक जिनेंद्र भगवान् की अर्चा करता है वह अतिशय विस्तृत लाभों को प्राप्त होता है तथा लोग उसकी पूजा करते हैं ॥153॥ आहार-दान के पुण्य से यह जीव भोग-निर्भर होता है अर्थात् सब प्रकार के भोग इसे प्राप्त होते हैं । यदि यह परदेश भी जाता है तो वहाँ भी उसे सदा सुख ही प्राप्त होता है ॥154॥ अभयदान के पुण्य से यह जीव निर्भय होता है और बहुत भारी संकट में पड़कर भी उसका शरीर उपद्रव से शून्य रहता है ॥155॥ ज्ञानदान से यह जीव विशाल सुखों का पात्र होता है और कलारूपी सागर से निकले हुए अमृत के कुल्ले करता है ॥156॥ जो मनुष्य रात्रि में आहार का त्याग करता हैं वह सब प्रकार के आरंभ में प्रवृत्त रहने पर भी सुखदायी गति को प्राप्त होता है ॥157।। जो मनुष्य तीनों काल में जिनेंद्र भगवान् को वंदना करता है उसके भाव सदा शुद्ध रहते हैं तथा उसका सब पाप नष्ट हो जाता है ॥158॥ जो पृथिवी तथा जल में उत्पन्न होने वाले सुगंधित फूलों से जिनेंद्र भगवान् की अर्चा करता है वह पुष्पक विमान को पाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करता है ॥159॥ जो अतिशय निर्मल भावरूपी फूलों से जिनेंद्रदेव की पूजा करता है वह लोगों के द्वारा पूजनीय तथा अत्यंत सुंदर होता है ॥160।। जो बुद्धिमान् चंदन तथा कालागुरु आदि से उत्पन्न धूप जिनेंद्र भगवान के लिए चढ़ाता है वह मनोज्ञ देव होता है ।। 16 ।। जो जिनमंदिर में शुभ भाव से दीपदान करता है वह स्वर्ग में देदीप्यमान शरीर का धारक होता है ।। 162 ।। जो मनुष्य छत्र, चमर, फन्नूस, पता का तथा दर्पण आदि के द्वारा जिनमंदिर को विभूषित करता है वह आश्चर्यकारक लक्ष्मी को प्राप्त होता है ॥163 ।। जो मनुष्य सुगंधि से दिशाओं को व्याप्त करने वाली गंध से जिनेंद्र भगवान् का लेपन करता है वह सुगंधि से युक्त, स्त्रियों को आनंद देने वाला प्रिय पुरुष होता है ॥164 ।। जो मनुष्य सुगंधित जल से जिनेंद्र भगवान् का अभिषेक करता है वह जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ अभिषेक को प्राप्त होता है ॥165॥ जो दूध की धारा से जिनेंद्र भगवान् का अभिषेक करता है वह दूध के समान धवल विमान में उत्तमकांति का धारक होता है ।। 166 ।। जो दही के कलशों से जिनेंद्र भगवान का अभिषेक करता है वह दही के समान फर्श वाले स्वर्ग में उत्तम देव होता है ॥167 ꠰। जो घी से जिनदेव का अभिषेक करता है वह कांति, द्युति और प्रभाव से युक्त विमान का स्वामी देव होता हैं ॥168।। पुराण में सुना जाता है कि अभिषेक के प्रभाव से अनंतवीर्य आदि अनेक विद्वज्जन, स्वर्ग की भूमि में अभिषेक को प्राप्त हुए हैं ।। 169 ।। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक जिनमंदिर में रंगावलि आदि का उपहार चढ़ाता है वह उत्तम हृदय का धारक होकर परम विभूति और आरोग्य को प्राप्त होता है ।। 170॥ जो जिनमंदिर में गीत, नृत्य तथा वादित्रों से महोत्सव करता है वह स्वर्ग में परम उत्सव को प्राप्त होता है ।। 17 ।। जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है उस सुचेता के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है ? ॥172॥ जो मनुष्य जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र ही सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परम पद को प्राप्त होता है ।। 173॥ तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्य-कर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने से उत्पन्न हुए पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते ॥174-175 ।। इस कहे हुए फल को जीव स्वर्ग में प्राप्त कर जब मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं तब चक्रवर्ती आदि का पद पाकर वहाँ भी उसका उपभोग करते हैं ॥176 ।। जो कोई मनुष्य इस विधि से धर्म का सेवन करता है वह संसार-सागर से पार होकर तीन लोक के शिखर पर विराजमान होता है ॥177 ।। जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चिंतवन करता है वह वेलाका, जो उद्यम का अभिलाषी होता है वह तेलाका, जो जाने का आरंभ करता है वह चौलाका, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुँच जाता है वह पंद्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आँगन में प्रवेश करता है वह छह मास के उपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेंद्रदेव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनंत उपवास के फल को प्राप्त करता है । यथार्थ में जिन भक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है ।। 178-182 ।। आचार्य द्युति कहते हैं कि हे भरत! जिनेंद्रदेव को भक्ति से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो जाते वह अनुपम सुख से संपन्न परम पद को प्राप्त होता है ।। 183॥ ऐसा कहने पर अत्यंत समीचीन भक्ति से युक्त भरत ने गुरु के चरणों को नमस्कार कर विधिपूर्वक गृहस्थ धर्म ग्रहण किया ॥184 ।। अनेक शास्त्रों का ज्ञाता, धर्म के मर्म को जानने वाला, विनयवान् और श्रद्धा गुण से युक्त भरत अब साधुओं के लिए विशेष रूप से यथायोग्य दान देने लगा ॥185 ।। उत्तम आचरण के पालन में तत्पर रहने वाला भरत हृदय में सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को धारण करता हुआ विशाल राज्य का पालन करता था ॥186 ।। गुणों के सागरस्वरूप भरत का प्रताप और अनुराग दोनों ही बिना किसी रुकावट के समस्त पृथिवी में भ्रमण करते थे ।। 187॥ उसके देवियों के समान कांति को धारण करने वाली डेढ़ सौ स्त्रियाँ थीं फिर भी वह उनमें आसक्ति को प्राप्त नहीं होता था । जिस प्रकार कमल जल में रहकर भी उसमें आसक्त नहीं होता है उसी प्रकार वह उन स्त्रियों के बीच रहता हुआ भी उनमें आसक्त नहीं था ॥188 ।।
गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! भरत के मन में सदा यही चिंता विद्यमान रहती थी कि मैं निर्ग्रंथ दीक्षा कब धारण करूँगा और परिग्रह से रहित हो पृथिवी पर विहार करता हुआ घोर तप कब करूंगा ? ॥189।। पृथिवीतल पर वे धीर-वीर मनुष्य धन्य हैं जो सर्व परिग्रह का त्यागकर तथा तपोबल से समस्त कर्मो को भस्म कर संतोषरूपी सुख से श्रेष्ठ मोक्ष पद को प्राप्त हो च के हैं ॥10॥ एक मैं पापी हूँ जो समस्त जगत् को क्षणभंगुर देखता हुआ भी संसार के दुःख में मग्न हूँ । इस संसार में जो मनुष्य पूर्वाह्न काल में देखा गया है वही अपराह्न काल में नहीं दिखाई देता फिर भी आश्चर्य है कि मैं मूढ़ बना हूँ ॥191 ।। दीन हीन मुख को धारण करने वाले बंधुजनों के बीच में बैठा हुआ यह प्राणी सर्प से, जल से, विष से, अग्नि से, वज्र से, शत्रु के द्वारा छोड़े हुए शस्त्र से, अथवा तीक्ष्ण शूल से मरण को प्राप्त हो जाता है ॥192 ।। यह प्राणी अनेक प्रकार के मरणों से हजारों प्रकार के दुःख भोगता हुआ भी निश्चिंत बैठा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो कोई मत्त मनुष्य वेग से फैलने वाली लहरों के समूह से निर्भय हो लवणसमुद्र के तट पर सोया है ।।193॥ हाय हाय, मैं राज्य कर तीव्र पाप से लिप्त होता हुआ जहाँ बाण, खड्ग, चक्र आदि शस्त्र, तथा शाल्मली आदि वृक्षों और पहाड़ों के कारण घोर अंधकार व्याप्त है ऐसे किस भयंकर नरक में पड़ूंगा अथवा अनेक योनियों से युक्त तिर्यंच पर्याय को प्राप्त होऊँगा ? ॥194 ।। मेरा यह मन जैनधर्म को पाकर भी पापों से लिप्त हो रहा है तथा निःस्पृहता को प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ मुनिधर्म को धारण नहीं कर रहा है ।। 195 ।। इस प्रकार जो पाप कर्म के नाश में कारण भूत चिंता को निरंतर प्राप्त था तथा जो प्राचीन मुनियों की कथा में सदा लीन रहता था ऐसा राजा भरत न सूर्य की ओर देखता था न चंद्रमा की ओर ॥196 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरित में राजा दशरथ की दीक्षा, राम का वनगमन और भरत के राज्याभिषेक का वर्णन करने वाला बत्तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥32॥