कल्याणक: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(25 intermediate revisions by 6 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText"> | <span class="HindiText">जैनागम में प्रत्येक तीर्थंकर के जीवनकाल के पाँच प्रसिद्ध घटनास्थलों का उल्लेख मिलता है। उन्हें पंचकल्याणक के नाम से कहा जाता है, क्योंकि वे अवसर जगत् के लिए अत्यन्त कल्याण व मंगलकारी होते हैं। जो जन्म से ही तीर्थंकर प्रकृति लेकर उत्पन्न हुए हैं उनके तो 5 कल्याणक होते हैं, परन्तु जिसने अंतिम भव में ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया है उसको यथा सम्भव चार व तीन व दो भी होते हैं, क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति के बिना साधारण साधकों को वे नहीं होते हैं। नवनिर्मित जिनबिम्ब की शुद्धि करने के लिए जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठ किये जाते हैं वह उसी प्रधान पंच कल्याणक की कल्पना है जिसके आरोप द्वारा प्रतिमा में असली तीर्थंकर की स्थापना होती है।</span> | ||
<ol> | |||
<li> <span class="HindiText"><strong id="1" name="1">पंच कल्याणकों का नाम निर्देश</strong></span> | |||
<p><span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/93 </span><span class="PrakritText">गब्भावयारकाले जम्मणकाले तहेव णिक्खमणे। केवलणाणुप्पण्णे परिणिव्वाणम्मि समयम्मि।93।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो जिनदेव गर्भावतारकाल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल, केवलज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाणसमय, इन पाँच स्थानों (कालों) में पाँच महा-कल्याणकों को प्राप्त होकर महाऋिद्धियुक्त सुरेन्द्र इन्द्रों से पूजित हैं।93-94।</span></li> | |||
< | <li> <span class="HindiText"><strong id="2" name="2"> पंच कल्याणक महोत्सव का संक्षिप्त परिचय </strong></span> | ||
< | <ol> | ||
< | <li> <span class="HindiText"><strong id="2.1" name="2.1">गर्भ कल्याणक </strong></span><br/> | ||
</ | <div class="image-container-column"> | ||
<div> | |||
<div class="left-image">[[File:गर्भ कल्याणक.jpeg|300px|माता को 16 उत्तम स्वप्न]]</div> | |||
<span class="HindiText"> भगवान् के गर्भ में आने से छह मास पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त 15 मास तक उनके जन्म स्थान में कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार करोड़ रत्नों की वर्षा होती रहती है। दिक्कुमारी देवियाँ माता की परिचर्या व गर्भ शोधन करती हैं। गर्भवाले दिन से पूर्व रात्रि को माता को 16 उत्तम स्वप्न दिखते हैं, जिन पर भगवान् का अवतरण निश्चय कर माता-पिता प्रसन्न होते हैं। <span class="GRef">([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#112|पद्मपुराण - 3.112-157]])</span> <span class="GRef">( हरिवंशपुराण 37/1-47 )</span> <span class="GRef">( महापुराण/12/84-195 )</span></span></li> | |||
<br> | |||
<li> <span class="HindiText"><strong id="2.2" name="2.2">जन्म कल्याणक</strong></span><br/> | |||
<span class="HindiText">भगवान् का जन्म होने पर देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घण्टे आदि बजने लगते हैं और इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं जिससे उन्हें भगवान् के जन्म का निश्चय हो जाता है। सभी इन्द्र व देव भगवान् का जन्मोत्सव मनाने को बड़ी धूमधाम से पृथिवी पर आते हैं। अहमिन्द्रजन अपने-अपने स्थान पर ही सात पग आगे जाकर भगवान् को परोक्ष नमस्कार करते हैं। दिक्कुमारी देवियाँ भगवान् के जातकर्म करती हैं। कुबेर नगर की अद्भूत शोभा करता है। इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणी प्रसूतिगृह में जाती है, माता को माया निद्रा से सुलाकर उसके पास एक मायामयी पुतला लिटा देती है और बालक भगवान् को लाकर इन्द्र की गोद में दे देती है, जो उनका सौन्दर्य देखने के लिए 1000 नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता। ऐरावत हाथी पर भगवान् को लेकर इन्द्र सुमेरूपर्वत की ओर चलता है। वहाँ पहुँचकर पाण्डुक शिला पर, भगवान् का क्षीरसागर से देवों द्वारा लाये गये जल के 1008 कलशों द्वारा, अभिषेक करता है। तदनन्तर बालक को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर नगर में देवों सहित महान् उत्सव के साथ प्रवेश करता है। बालक के अंगूठे में अमृत भरता है, और ताण्डव नृत्य आदि अनेकों मायामयी आश्चर्यकारी लीलाएँ प्रगट कर देवलोक को लौट जाता है। दिक्कुमारी देवियाँ भी अपने-अपने स्थानों पर चली जाती हैं। <span class="GRef">([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#158|पद्मपुराण - 3.158-214]])</span> <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/38/54 तथा 31/15 वृत्तान्त)</span>, <span class="GRef">(महापुराण/13/4-216)</span> <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/152-291 )</span>।</span></li> | |||
[[Category:क]] | <li> <span class="HindiText"><strong id="2.3" name="2.3">तप कल्याणक</strong></span><br/> | ||
<span class="HindiText">कुछ काल तक राज्य विभूति का भोगकर लेने के पश्चात् किसी एक दिन कोई कारण पाकर भगवान् को वैराग्य उत्पन्न होता है। उस समय ब्रह्म स्वर्ग से लौकांतिक देव भी आकर उनको वैराग्य वर्द्धक उपदेश देते हैं। इन्द्र उनका अभिषेक करके उन्हें वस्त्राभूषण से अलंकृत करता है। कुबेर द्वारा निर्मित पालकी में भगवान् स्वयं बैठ जाते हैं। इस पालकी को पहले तो मनुष्य कन्धों पर लेकर कुछ दूर पृथिवी पर चलते हैं और देव लोग लेकर आकाश मार्ग से चलते हैं। तपोवन में पहुँचकर भगवान् वस्त्रालंकार का त्यागकर केशों का लुंचन कर देते हैं और दिगम्बर मुद्रा धारण कर लेते हैं। अन्य भी अनेकों राजा उनके साथ दीक्षा धारण करते हैं। इन्द्र उन केशों को एक मणिमय पिटारे में रखकर क्षीरसागर में क्षेपण करता है। दीक्षा स्थान तीर्थ स्थान बन जाता है। भगवान् बेला तेला आदि के नियमपूर्वक ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ कहकर स्वयं दीक्षा ले लेते हैं क्योंकि वे स्वयं जगद्गुरु हैं। नियम पूरा होने पर आहारार्थ नगर में जाते हैं और यथाविधि आहार ग्रहण करते हैं। दातार के घर पंचाश्चर्य प्रगट होते हैं। <span class="GRef">([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#263|पद्मपुराण - 3.263-283]] तथा [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_4#1|पद्मपुराण - 4.1-20]]) </span> <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/55/100-129 )</span> <span class="GRef">( महापुराण/17/46-253 )</span>।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong id="2.4" name="2.4">ज्ञान कल्याणक</strong></span><br/> | |||
<span class="HindiText">यथा क्रम ध्यान की श्रेणियों पर आरूढ़ होते हुए चार घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर भगवान् को केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्टय लक्ष्मी प्राप्त होती है। तब पुष्प वृष्टि, दुन्दुभी शब्द, अशोक वृक्ष, चमर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्ण सिंहासन और दिव्यध्वनि–ये आठ प्रातिहार्य प्रगट होते हैं। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवशरण रचता है; जिसकी विचित्र रचना से जगत् चकित होता है। 12 सभाओं में यथास्थान देव, मनुष्य, तिर्यंच, मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका आदि सभी बैठकर भगवान् के उपदेशामृत का पानकर जीवन सफल करते हैं।</span> | |||
<span class="HindiText">भगवान् का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान् के चरणों के नीचे देव लोग सहस्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं और भगवान् इनको भी न स्पर्श करके अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे नगाड़े बजते हैं। पृथिवी ईति भीति रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओं के साथ आगे-आगे जय-जयगान करते चलते हैं। मार्ग में सुन्दर क्रीड़ा स्थान बनाये जाते हैं। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामण्डल, छत्र, चमर स्वत: साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इन्द्र प्रतिहार बनता है। अनेकों निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर विरोध भूल जाते हैं। अन्धे बहरों को भी दिखने सुनने लग जाता है। <span class="GRef">([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_4#21|पद्मपुराण - 4.21-52]])</span> <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/56/112-118; 57/1, 59/1-124 )</span> <span class="GRef">( महापुराण सर्ग 22 व 23 पूर्ण )</span>।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong id="2.5" name="2.5">निर्वाण कल्याणक</strong></span><br/> | |||
<span class="HindiText">अंतिम समय आने पर भगवान् योग निरोध द्वारा ध्यान में निश्चलता कर चार अघातिया कर्मों का भी नाश कर देते हैं और निर्वाण धाम को प्राप्त होते हैं। देव लोग निर्वाण कल्याणक की पूजा करते हैं। भगवान् का शरीर काफूर की भाँति उड़ जाता है। इन्द्र उस स्थान पर भगवान् के लक्षणों से युक्त सिद्धशिला का निर्माण करता है। <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/65/1-17 )</span>;<span class="GRef">( महापुराण/47/343-354 )</span>।</span></li> | |||
</ol></li> | |||
<li class="HindiText"><strong id="3" name="3">पंच कल्याणकों में 16 स्वर्गों के देव व इन्द्र स्वयं आते हैं</strong></span></li> | |||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/8/131 </span><span class="SanskritText">स्वाम्यादेशे कृते तेन चेलु: सौधर्मवासिन:। देवैश्चाच्युतपर्यन्ता: स्वयंबुद्धा सुरेश्वरा:।131।</span> | |||
<span class="HindiText">=सेनापति के द्वारा स्वामी का आदेश सुनाये जाते ही सौधर्म स्वर्ग में रहने वाले समस्त देव चल पड़े। तथा अच्युत स्वर्ग तक के सर्व इन्द्र स्वयं ही इस समाचार को जान देवों के साथ बाहर निकले। <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/273-274 )</span>।</span> | |||
<li class="HindiText"><strong id="4" name="4">पंच कल्याणकों में देवों के वैक्रियक शरीर आते हैं देव स्वयं नहीं आते</strong></span></li> | |||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/595 </span><span class="PrakritText">गब्भावयारपहुदिसु उत्तरदेहा सुराण गच्छंति। जम्मणठाणेसु सुहं मूलसरीराणि चेट्ठंति।595।</span> | |||
<span class="HindiText">=गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर सुखपूर्वक जन्मस्थानों में स्थित रहते हैं।</span> | |||
<li class="HindiText"><strong id="5" name="5">रत्नों की वृष्टि में तीर्थंकरों का पुण्य ही कारण है</strong></span></li> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/48/18-20 </span><span class="SanskritText">तीर्थकृन्नामपुण्यत:।18। तस्य शक्राज्ञया गेहे षण्मासान् प्रत्यहं मुहु:। रत्नान्यैलविलस्तिस्र: कोटी: सार्घं न्यपतत्।20।<span> | |||
<span class="HindiText">=उस महाभाग के स्वर्ग से पृथिवी पर अवतार लेने के छह माह पूर्व से ही प्रतिदिन तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति के प्रभाव से, जितशत्रु के घर में इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वृष्टि की।</span> | |||
<li class="HindiText"><strong id="6" name="6">उन रत्नों को याचक लोग बे-रोकटोक ले जाते थे।</strong></span></li> | |||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/37/3 </span><span class="SanskritText">तया पतन्त्या वसुधारयार्धभाक्त्रिकोटिसंख्यापरिमाणया जगत्। प्रतर्पितं प्रत्यहमर्थि सर्वत: क्व पात्रभेदोऽस्ति धनप्रवर्षिणाम्।</span> | |||
<span class="HindiText">=वह धन की धारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ की संख्या का परिमाण लिये हुए पड़ती थी और उसने सब ओर याचक जगत् को संतुष्ट कर दिया था। सो ठीक ही है; क्योंकि, धन की वर्षा करने वालों को पात्र भेद कहाँ होता है। </span> | |||
<p><span class="HindiText"><strong>* हीनादिक कल्याणक वाले तीर्थंकर—</strong>देखें [[ तीर्थंकर#1.5 | तीर्थंकर - 1.5]]</span></p> | |||
</ol> | |||
<noinclude> | |||
[[ कल्याण | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ कल्याणक व्रत | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: क]] | |||
[[Category: प्रथमानुयोग]] |
Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
जैनागम में प्रत्येक तीर्थंकर के जीवनकाल के पाँच प्रसिद्ध घटनास्थलों का उल्लेख मिलता है। उन्हें पंचकल्याणक के नाम से कहा जाता है, क्योंकि वे अवसर जगत् के लिए अत्यन्त कल्याण व मंगलकारी होते हैं। जो जन्म से ही तीर्थंकर प्रकृति लेकर उत्पन्न हुए हैं उनके तो 5 कल्याणक होते हैं, परन्तु जिसने अंतिम भव में ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया है उसको यथा सम्भव चार व तीन व दो भी होते हैं, क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति के बिना साधारण साधकों को वे नहीं होते हैं। नवनिर्मित जिनबिम्ब की शुद्धि करने के लिए जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठ किये जाते हैं वह उसी प्रधान पंच कल्याणक की कल्पना है जिसके आरोप द्वारा प्रतिमा में असली तीर्थंकर की स्थापना होती है।
-
- पंच कल्याणकों का नाम निर्देश
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/93 गब्भावयारकाले जम्मणकाले तहेव णिक्खमणे। केवलणाणुप्पण्णे परिणिव्वाणम्मि समयम्मि।93। =जो जिनदेव गर्भावतारकाल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल, केवलज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाणसमय, इन पाँच स्थानों (कालों) में पाँच महा-कल्याणकों को प्राप्त होकर महाऋिद्धियुक्त सुरेन्द्र इन्द्रों से पूजित हैं।93-94।
- पंच कल्याणक महोत्सव का संक्षिप्त परिचय
- गर्भ कल्याणक
भगवान् के गर्भ में आने से छह मास पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त 15 मास तक उनके जन्म स्थान में कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार करोड़ रत्नों की वर्षा होती रहती है। दिक्कुमारी देवियाँ माता की परिचर्या व गर्भ शोधन करती हैं। गर्भवाले दिन से पूर्व रात्रि को माता को 16 उत्तम स्वप्न दिखते हैं, जिन पर भगवान् का अवतरण निश्चय कर माता-पिता प्रसन्न होते हैं। (पद्मपुराण - 3.112-157) ( हरिवंशपुराण 37/1-47 ) ( महापुराण/12/84-195 ) - जन्म कल्याणक
भगवान् का जन्म होने पर देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घण्टे आदि बजने लगते हैं और इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं जिससे उन्हें भगवान् के जन्म का निश्चय हो जाता है। सभी इन्द्र व देव भगवान् का जन्मोत्सव मनाने को बड़ी धूमधाम से पृथिवी पर आते हैं। अहमिन्द्रजन अपने-अपने स्थान पर ही सात पग आगे जाकर भगवान् को परोक्ष नमस्कार करते हैं। दिक्कुमारी देवियाँ भगवान् के जातकर्म करती हैं। कुबेर नगर की अद्भूत शोभा करता है। इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणी प्रसूतिगृह में जाती है, माता को माया निद्रा से सुलाकर उसके पास एक मायामयी पुतला लिटा देती है और बालक भगवान् को लाकर इन्द्र की गोद में दे देती है, जो उनका सौन्दर्य देखने के लिए 1000 नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता। ऐरावत हाथी पर भगवान् को लेकर इन्द्र सुमेरूपर्वत की ओर चलता है। वहाँ पहुँचकर पाण्डुक शिला पर, भगवान् का क्षीरसागर से देवों द्वारा लाये गये जल के 1008 कलशों द्वारा, अभिषेक करता है। तदनन्तर बालक को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर नगर में देवों सहित महान् उत्सव के साथ प्रवेश करता है। बालक के अंगूठे में अमृत भरता है, और ताण्डव नृत्य आदि अनेकों मायामयी आश्चर्यकारी लीलाएँ प्रगट कर देवलोक को लौट जाता है। दिक्कुमारी देवियाँ भी अपने-अपने स्थानों पर चली जाती हैं। (पद्मपुराण - 3.158-214) ( हरिवंशपुराण/38/54 तथा 31/15 वृत्तान्त), (महापुराण/13/4-216) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/152-291 )। - तप कल्याणक
कुछ काल तक राज्य विभूति का भोगकर लेने के पश्चात् किसी एक दिन कोई कारण पाकर भगवान् को वैराग्य उत्पन्न होता है। उस समय ब्रह्म स्वर्ग से लौकांतिक देव भी आकर उनको वैराग्य वर्द्धक उपदेश देते हैं। इन्द्र उनका अभिषेक करके उन्हें वस्त्राभूषण से अलंकृत करता है। कुबेर द्वारा निर्मित पालकी में भगवान् स्वयं बैठ जाते हैं। इस पालकी को पहले तो मनुष्य कन्धों पर लेकर कुछ दूर पृथिवी पर चलते हैं और देव लोग लेकर आकाश मार्ग से चलते हैं। तपोवन में पहुँचकर भगवान् वस्त्रालंकार का त्यागकर केशों का लुंचन कर देते हैं और दिगम्बर मुद्रा धारण कर लेते हैं। अन्य भी अनेकों राजा उनके साथ दीक्षा धारण करते हैं। इन्द्र उन केशों को एक मणिमय पिटारे में रखकर क्षीरसागर में क्षेपण करता है। दीक्षा स्थान तीर्थ स्थान बन जाता है। भगवान् बेला तेला आदि के नियमपूर्वक ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ कहकर स्वयं दीक्षा ले लेते हैं क्योंकि वे स्वयं जगद्गुरु हैं। नियम पूरा होने पर आहारार्थ नगर में जाते हैं और यथाविधि आहार ग्रहण करते हैं। दातार के घर पंचाश्चर्य प्रगट होते हैं। (पद्मपुराण - 3.263-283 तथा पद्मपुराण - 4.1-20) ( हरिवंशपुराण/55/100-129 ) ( महापुराण/17/46-253 )। - ज्ञान कल्याणक
यथा क्रम ध्यान की श्रेणियों पर आरूढ़ होते हुए चार घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर भगवान् को केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्टय लक्ष्मी प्राप्त होती है। तब पुष्प वृष्टि, दुन्दुभी शब्द, अशोक वृक्ष, चमर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्ण सिंहासन और दिव्यध्वनि–ये आठ प्रातिहार्य प्रगट होते हैं। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवशरण रचता है; जिसकी विचित्र रचना से जगत् चकित होता है। 12 सभाओं में यथास्थान देव, मनुष्य, तिर्यंच, मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका आदि सभी बैठकर भगवान् के उपदेशामृत का पानकर जीवन सफल करते हैं। भगवान् का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान् के चरणों के नीचे देव लोग सहस्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं और भगवान् इनको भी न स्पर्श करके अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे नगाड़े बजते हैं। पृथिवी ईति भीति रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओं के साथ आगे-आगे जय-जयगान करते चलते हैं। मार्ग में सुन्दर क्रीड़ा स्थान बनाये जाते हैं। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामण्डल, छत्र, चमर स्वत: साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इन्द्र प्रतिहार बनता है। अनेकों निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर विरोध भूल जाते हैं। अन्धे बहरों को भी दिखने सुनने लग जाता है। (पद्मपुराण - 4.21-52) ( हरिवंशपुराण/56/112-118; 57/1, 59/1-124 ) ( महापुराण सर्ग 22 व 23 पूर्ण )। - निर्वाण कल्याणक
अंतिम समय आने पर भगवान् योग निरोध द्वारा ध्यान में निश्चलता कर चार अघातिया कर्मों का भी नाश कर देते हैं और निर्वाण धाम को प्राप्त होते हैं। देव लोग निर्वाण कल्याणक की पूजा करते हैं। भगवान् का शरीर काफूर की भाँति उड़ जाता है। इन्द्र उस स्थान पर भगवान् के लक्षणों से युक्त सिद्धशिला का निर्माण करता है। ( हरिवंशपुराण/65/1-17 );( महापुराण/47/343-354 )।
- गर्भ कल्याणक
- पंच कल्याणकों में 16 स्वर्गों के देव व इन्द्र स्वयं आते हैं हरिवंशपुराण/8/131 स्वाम्यादेशे कृते तेन चेलु: सौधर्मवासिन:। देवैश्चाच्युतपर्यन्ता: स्वयंबुद्धा सुरेश्वरा:।131। =सेनापति के द्वारा स्वामी का आदेश सुनाये जाते ही सौधर्म स्वर्ग में रहने वाले समस्त देव चल पड़े। तथा अच्युत स्वर्ग तक के सर्व इन्द्र स्वयं ही इस समाचार को जान देवों के साथ बाहर निकले। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/273-274 )।
- पंच कल्याणकों में देवों के वैक्रियक शरीर आते हैं देव स्वयं नहीं आते तिलोयपण्णत्ति/8/595 गब्भावयारपहुदिसु उत्तरदेहा सुराण गच्छंति। जम्मणठाणेसु सुहं मूलसरीराणि चेट्ठंति।595। =गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर सुखपूर्वक जन्मस्थानों में स्थित रहते हैं।
- रत्नों की वृष्टि में तीर्थंकरों का पुण्य ही कारण है महापुराण/48/18-20 तीर्थकृन्नामपुण्यत:।18। तस्य शक्राज्ञया गेहे षण्मासान् प्रत्यहं मुहु:। रत्नान्यैलविलस्तिस्र: कोटी: सार्घं न्यपतत्।20। =उस महाभाग के स्वर्ग से पृथिवी पर अवतार लेने के छह माह पूर्व से ही प्रतिदिन तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति के प्रभाव से, जितशत्रु के घर में इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वृष्टि की।
- उन रत्नों को याचक लोग बे-रोकटोक ले जाते थे। हरिवंशपुराण/37/3 तया पतन्त्या वसुधारयार्धभाक्त्रिकोटिसंख्यापरिमाणया जगत्। प्रतर्पितं प्रत्यहमर्थि सर्वत: क्व पात्रभेदोऽस्ति धनप्रवर्षिणाम्। =वह धन की धारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ की संख्या का परिमाण लिये हुए पड़ती थी और उसने सब ओर याचक जगत् को संतुष्ट कर दिया था। सो ठीक ही है; क्योंकि, धन की वर्षा करने वालों को पात्र भेद कहाँ होता है।
* हीनादिक कल्याणक वाले तीर्थंकर—देखें तीर्थंकर - 1.5