गति: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1">(1) यह | <span class="HindiText">गति शब्द का दो अर्थों में प्राय: प्रयोग होता है—गमन व देवादि चार गति। छहो द्रव्यों में जीव व पुद्गल ही गमन करने को समर्थ हैं। उनकी स्वाभाविक व विभाविक दोनों प्रकार की गति होती है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव—ये जीवों की चार प्रसिद्ध गतियाँ हैं, जिनमें संसारी जीव नित्य भ्रमण करता है। इसका कारणभूत कर्म गति नामकर्म कहलाता है। </span> | ||
<p id="2">(2) | <ol class="HindiText"> | ||
<p | <li><strong>[[#1 |गमनार्थ गति निर्देश ]]</strong> | ||
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<li class="HindiText"> [[#1.1 | गति सामान्य का लक्षण।]]</li> | |||
<li class="HindiText"> [[#1.2 | गति के भेद व उसके लक्षण।]]</li> | |||
<li class="HindiText"> [[#1.3 | ऊर्ध्वगति जीव की स्वभावगति है।]]</li> | |||
<li class="HindiText"> [[#1.4 | पर ऊर्ध्वगमन जीव का त्रिकाली स्वभाव नहीं। ]]</li> | |||
<li class="HindiText"> [[#1.5 | दिगंतर गति जीव की विभाव गति है। ]]</li> | |||
<li class="HindiText"> [[#1.6 | पुद्गलों की स्वभाव विभाव गति का निर्देश। ]]</li> | |||
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<ul><li class="HindiText"> सिद्धों का ऊर्ध्वगमन।–देखें [[ मोक्ष#1 | मोक्ष - 1]]। </li> | |||
<li class="HindiText">विग्रह गति।–देखें [[ विग्रहगति ]]।</li> | |||
<li class="HindiText">जीव व पुद्गल की स्वभावगति तथा जीव की भवांतर के प्रति गति अनुश्रेणी ही होती है।–देखें [[ विग्रह गति ]]। </li> | |||
<li class="HindiText">जीव व पुद्गल की गमनशक्ति लोकांत तक सीमित नहीं है बल्कि असीम है।–देखें [[ धर्माधर्म#2.3 | धर्माधर्म - 2.3]]। </li> | |||
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<div class="image-with-content_image-box_right">[[File:गति.png|300px|गति]]</div> | |||
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<li class="HindiText">[[#1.7 | जीव की भवांतर के प्रति गति छह दिशाओं में होती है ऐसा क्यों। ]] </li> </ol> | |||
<ul><li class="HindiText"> गमनार्थगति की ओघ आदेश प्ररूपणा–देखें [[ क्षेत्र#3 | क्षेत्र - 3]], [[ क्षेत्र#4 | क्षेत्र - 4]] </li></ul> | |||
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<li class="HindiText"> <strong>[[#2 |नामकर्मज गति निर्देश ]]</strong> | |||
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<li class="HindiText"> [[#2.1 | निश्चय व्यवहार लक्षण। ]] </li> | |||
<li class="HindiText"> [[#2.2 | नामकर्म का लक्षण।]]</li> | |||
<li class="HindiText"> [[#2.3 | गति व गति नामकर्म के भेद। ]] </li> | |||
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<li class="HindiText"> [[नरक | नरक ]], [[ तिर्यंच | तिर्यंच ]], [[मनुष्य |मनुष्य ]] व [[ देव#II | देवगति ]] </li> | |||
<li class="HindiText"> सिद्ध गति।–देखें [[ मोक्ष ]]। </li> | |||
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<ol start = 4> <li class="HindiText"> [[#2.4 | जीव की मनुष्यादि पर्यायों को गति कहना उपचार है। ]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#2.5 | कर्मोदयापादित भी इसे जीव का भाव कैसे कहते हो। ]]</li> </ol> | |||
<ul> <li class="HindiText">यदि मोह के सहवर्ती होने के कारण इसे जीव का भाव कहते हो तो क्षपक आदि जीवों में उसकी व्याप्ति कैसे होगी।–देखें [[ क्षेत्र#3.1 | क्षेत्र - 3.1]]। </li></ul> | |||
<ol start = 6><li class="HindiText"> [[#2.6 | प्राप्त होने के कारण सिद्ध भी गतिवान् बन जायेंगे। ]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[#2.7 | प्राप्त किये जाने से द्रव्य व नगर आदिक भी गति बन जायेंगे। ]]</li> | |||
</ol><ul><li class="HindiText">गतिकर्म व आयुबंध में संबंध।–देखें [[ आयु#6 | आयु - 6]]।</li> | |||
<li class="HindiText"> गति जन्म का कारण नहीं आयु है।–देखें [[ आयु#2 | आयु - 2]]। </li> | |||
<li class="HindiText"> कौन जीव मरकर कहाँ उत्पन्न हो ऐसी गति अगति संबंधी प्ररूपणा।–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]। </li> | |||
<li class="HindiText"> गति नामकर्म की बंध-उदय-सत्त्व प्ररूपणा।–देखें [[ वह वह नाम ]]। </li> | |||
<li class="HindiText"> सभी मार्गणाओं में भावमार्गणा इष्ट होती है तथा वहाँ आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम है।–देखें [[ मार्गणा ]]।</li> | |||
<li class="HindiText"> चारों गतियों में जन्मने योग्य परिणाम।–देखें [[ आयु#3 | आयु - 3]]। </li> | |||
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<li><span class="HindiText" id="1"><strong>गमनार्थ गति निर्देश</strong> <br /></span> | |||
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<li><span class="HindiText" id="1.1"><strong> गति सामान्य का लक्षण </strong> <br /></span> | |||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/21/252/5 </span><span class="SanskritText">देशाद्देशांतरप्राप्तिहेतुर्गति:। </span> | |||
<span class="HindiText">=एक देश से दूसरे देश के प्राप्त करने का जो साधन है उसे गति कहते हैं। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/5/17/281/12 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/4/21/1/236/3 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/17/1/460/22 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/605/1060/3 )</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/4/21/1/236/3 </span><span class="SanskritText">उभयनिमित्तवशात् उत्पद्यमान: कायपरिस्पंदो गतिरित्युच्यते।</span> | |||
<span class="HindiText">=बाह्य और आभ्यंतर निमित्त के वश से उत्पन्न होने वाला काय का परिस्पंदन गति कहलाता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="1.2"><strong> गति के भेद व उनके लक्षण</strong><br /></span> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/21/490/21 </span><span class="SanskritText">सैषा क्रिया दशप्रकारा वेदितव्या। कुत:। प्रयोगादिनिमित्तभेदात् । तद्यथा, इष्वेरंडबीजमृदंगशब्दजतुगोलकनौद्रव्यपाषाणालाबूसुराजलदमारुतादीनाम् । इषुचक्रकणयादीनां प्रयोगगति:। एरंडतिंदुकबीजानां बंधाभावगति:। मृदंगभेरीशंखादिशब्दपुद्गलानां छिन्नानां गति: छेदगति:। जतुगोलककुंददारुपिंडादीनामभिघातगति:। नौद्रव्यपोतकादीनामवगाहनगति:। जलदरथमुशलादीनां वायुवाजिहस्तादीनां संयोगनिमित्ता संयोगगति:। मारुतपावकपरमाणुसिद्धज्योतिष्कादीनां स्वभावगति:।</span> | |||
<span class="HindiText">=क्रिया प्रयोग बंधाभाव आदि के भेद से गति दस प्रकार की है। बाण चक्र आदि की प्रयोगगति है। एरंडबीज आदि की बंधाभाव गति है। मृदंग भेरी शंखादि के शब्द जो दूर तक जाते हैं पुद्गलों की छिन्नगति है। गेंद आदि की अभिघात गति है। नौका आदि की अवगाहनगति है। पत्थर आदि की नीचे की ओर (जानेवाली) गुरुत्वगति है। तुंबड़ी रूई आदि की (ऊपर जानवाली) लघुत्वगति है। सुरा सिर का आदि की संचारगति है। मेघ, रथ, मूसल आदि की क्रमश: वायु, हाथी तथा हाथ के संयोग से होनेवाली संयोगगति है। वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदि की स्वभावगति है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="1.3"><strong> ऊर्ध्वगति जीव की स्वभाव गति है</strong><br /></span> | |||
<p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय/मूल/73 </span><span class="SanskritText">बंधेहिं सव्वदो मुक्को। उड्ढं गच्छदि।</span> | |||
<span class="HindiText">=बंध से सर्वांग मुक्त जीव ऊपर को जाता है।</span> | |||
<p><span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/10/6 </span><span class="SanskritText">तथागतिपरिणामाच्च।</span> | |||
<span class="HindiText">=स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊर्ध्व गमन करता है।</p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/2/7/14/113/7 </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वगतित्वमपि साधारणम् । अग्न्यादीनामूर्ध्वगतिपारिणामिकत्वात् । तच्च कर्मोदयाद्यपेक्षाभावात् पारिणामिकम् । एवमन्ये चात्मन: साधारणा: पारिणामिका योज्या:।</p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/10/7/4/645/18 </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वगौरवपरिणामो हि जीव उत्पतयेव।</p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/21/490/14 </span><span class="SanskritText">सिद्ध्यतामूर्ध्वगतिरेव।</span> | |||
<span class="HindiText">=1. अग्नि आदि में भी ऊर्ध्वगति होती है, अत: ऊर्ध्वगतित्व भी साधारण है। कर्मों के उदयादि की अपेक्षा का अभाव होने के कारण वह पारिणामिक है। इसी प्रकार आत्मा में अन्य भी साधारण पारिणामिक भाव होते हैं। 2. क्योंकि जीवों को ऊर्ध्वगौरव धर्मवाला बताया है, अत: वे ऊपर ही जाते हैं। 3. मुक्त होने वाले जीवों को ऊर्ध्वगति ही होती है।</p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/10/9/14/649 पर उद्धृत श्लोक नं. 13-16 </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमै:।-।13। यथाधस्तिर्यगूर्ध्वं च लोष्टवाय्वग्निदीप्तय:। स्वभावत: प्रवर्तंते तथोर्ध्वगतिरात्मनाम् ।14।...ऊर्ध्वगतिमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम् ।16।</span> | |||
<span class="HindiText">=जीव ऊर्ध्वगौरवधर्मा बताया गया है। जिस तरह लोष्ट, वायु और अग्निशिखा स्वभाव से ही नीचे तिरछे और ऊपर को जाती है उसी तरह आत्मा की स्वभावत: ऊर्ध्वगति ही होती है। क्षीणकर्मा जीवों की स्वभाव से ऊर्ध्वगति ही होती है। <span class="GRef">( तत्त्वसार/8/31-34 )</span>; <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/28 )</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/2 </span><span class="PrakritText">सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई।</span> | |||
<span class="HindiText">=जीव स्वभाव से ऊर्ध्व-गमन करने वाला है।</p> | |||
<p><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/184 </span><span class="SanskritText">जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं।</span> | |||
<span class="HindiText">=जीवों की स्वभाव क्रिया सिद्धिगमन है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="1.4"><strong> पर ऊर्ध्व गमन जीव का त्रिकाली स्वभाव नहीं</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/10/7/9-10/645/33 </span><span class="SanskritText">स्यान्मतम्–यथोष्णस्वभावस्याग्नेरौष्ण्याभावेऽभावस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगतिस्वभावत्वे तदभावे तस्याप्यभाव: प्राप्नोतीति। तन्न; किं कारणम् । गत्यंतरनिवृत्त्यर्थत्वात् । मुक्तस्योर्ध्वमेवगमनं न दिगंतरगमनमित्ययं स्वभावो नोर्ध्वगमनमेवेति। यथा ऊर्ध्वज्वलनस्वभावत्वेऽप्यग्नेर्वेगवद् द्रव्याभिघातात्तिर्यग्ज्वलनेऽपि नाग्नेर्विनाशो दृष्टस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगतिस्वभावत्वेऽपि तदभावे नाभाव इति।</span> | |||
<span class="HindiText">=<strong>प्रश्न—</strong>सिद्धशिला पर पहुंचने के बाद चूँकि मुक्त जीव में ऊर्ध्वगमन नहीं होता, अत: उष्णस्वभाव के अभाव में अग्नि के अभाव की तरह मुक्तजीव का भी अभाव हो जाना चाहिए। <strong>उत्तर—‘</strong>मुक्त का ऊर्ध्व ही गमन होता है, तिरछा आदि गमन नहीं’ यह स्वभाव है न कि ऊर्ध्वगमन करते ही रहना। जैसे कभी ऊर्ध्वगमन नहीं करती, तब भी अग्नि बनी रहती है, उसी तरह मुक्त में भी लक्ष्यप्राप्ति के बाद ऊर्ध्वगमन न होने पर भी उसका अभाव नहीं होता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="1.5"><strong> दिगंतर गति जीव की विभाव गति है</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/10/9/14/649 पर उद्धृत श्लोक नं. 15-16 </span><span class="SanskritText">अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषां यदुपलभ्यते। कर्मण: प्रतिघाताश्च प्रयोगाच्च तदिष्यते।15। स्यादधस्तिर्यगूर्ध्वं च जीवानां कर्मजा गति:।</span> | |||
<span class="HindiText">=जीवों में जो विकृत गति पायी जाती है, वह या तो प्रयोग से है या फिर कर्मों के प्रतिघात से है।15। जीवों के कर्मवश नीचे, तिरछे और ऊपर भी गति होती है।16। <span class="GRef">( तत्त्वसार/8/33-34 )</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय व त.प्र./73 </span> <span class="PrakritText">सेसा विदिसावज्जं गदिं जंति।73। </span><span class="SanskritText">बद्धजीवस्य षड्गतय: कर्मनिमित्ता:।</p> | |||
<p><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/184 </span><span class="SanskritText">जीवानां...विभावक्रिया षट्कायक्रमयुक्तत्वम् ।</span> | |||
<span class="HindiText">=1. शेष (मुक्तों से अतिरिक्त जीव भवांतर में जाते हुए) विदिशाएँ छोड़कर गमन करते हैं।73। बद्धजीव को कर्मनिमित्तक षट्दिक् गमन होता है। 2. जीवों की विभाव क्रिया (अन्य भव में जाते समय) छह दिशा में गमन है।</p> | |||
<p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/2/9/9 </span><span class="SanskritText">व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोर्ध्वाधस्तिर्यग्गतिस्वभाव:। =व्यवहार से चार गतियों को उत्पन्न करने वाले (भवांतरों को ले जाने वाले) कर्मों के उदयवश ऊँचा, नीचा, तथा तिरछा गमन करने वाला है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="1.6"><strong> पुद्गलों की स्वभाव विभाव गति का निर्देश</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/10/9/14/649 पर उद्धृत श्लोक नं.13-14 </span><span class="SanskritText">अधोगौरवधर्माण: पुद्गला इति चोदितम् ।13। यथाधस्तिर्यगूर्ध्वं च लोष्टवाय्वग्निदीप्तय:। स्वभावत: प्रवर्तंते...।14।</span> | |||
<span class="HindiText">=पुद्गल अधोगौरवधर्मा होते हैं, यह बताया गया है।13। लोष्ट, वायु और अग्निशिखा स्वभाव से ही नीचे-तिरछे व ऊपर को जाते हैं।14। <span class="GRef">( तत्त्वसार/8/31-32 )</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/2/26/6/138/3 </span><span class="SanskritText">पुद्गलानामपि च या लोकांतप्रापिणी सा नियमादनुश्रेणिगति:। या त्वन्या स भजनीया।</span> | |||
<span class="HindiText">=पुद्गलों की (परमाणुओं की) जो लोकांत तक गति होती है वह नियम से अनुश्रेणी ही होती है। अन्य गतियों का कोई नियम नहीं है।</p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/21/490/12 </span><span class="SanskritText">मारुतपावकपरमाणुसिद्धज्योतिष्कादीनां स्वभावगति:। वायो: केवलस्य तिर्यग्गति:। भस्त्रादियोगादनियता गति:। अग्नेरूर्ध्वगति: कारणवशाद्दिगंतरगति:। परमाणोरनियत। ...ज्योतिषां नित्यभ्रमणं लोके।</span> | |||
<span class="HindiText">=वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदि की स्वभाव गति है। (तहाँ) अकेली वायु की तिर्यक् गति है। भस्त्रादि के कारण वायु की अनियत गति होती है। अग्नि की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है। कारणवश उसकी अन्य दिशाओं में भी गति होती है। परमाणु की अनियत गति है। ज्योतिषियों का लोक में नित्य भ्रमण होता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="1.7"><strong> जीवों का भवांतर के प्रति गमन छह दिशाओं में ही होता है। ऐसा क्यों ?</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 4/3,1,43/226/2 </span><span class="PrakritText">छक्कावक्कमणियमे संते पंच चोद्दसभागफोसणं ण जुज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, चदुण्हं दिसाणं हेट्ठुवरिमदिसाणं च गच्छंतेहिं तदा मारणं पडिविरोहाभावादो। का दिसा णाम। सगट्ठाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम। ताओ छच्चेव अण्णेसिमसंभवादो। का विदिसा णाम। सगट्ठाणादो कण्णायारेण ट्ठिदखेत्तं विदिसा। जेण सव्वे जीवा कण्णायारेण ण जंति तेण छक्कावक्कमणियमो जुज्जदे।</span> | |||
<span class="HindiText">=<strong>प्रश्न–</strong>छहों दिशाओं में जाने-आने का नियम होने पर सासादन गुणस्थानर्त्ती देवों का स्पर्शनक्षेत्र 5/14 भागप्रमाण नहीं बनता है। <strong>उत्तर—</strong>ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चारों दिशाओं को और ऊपर तथा नीचे की दिशाओं को गमन करने वाले जीवों के मारणांतिक समुद्घात के प्रति कोई विरोध नहीं है। <strong>प्रश्न—</strong>दिशा किसे कहते हैं ? <strong>उत्तर—</strong>अपने स्थान से वाण की तरह सीधे क्षेत्र को दिशा कहते हैं। वे दिशाएँ छह ही होती हैं, क्योंकि अन्य दिशाओं का होना असंभव है। <strong>प्रश्न—</strong>विदिशा किसे कहते हैं? <strong>उत्तर—</strong>अपने स्थान से कर्णरेखा के आकार से स्थित क्षेत्र को विदिशा कहते हैं। चूँकि मारणांतिकसमुद्घात और उपपादगत सभी जीव कर्णरेखा के आकार से अर्थात् तिरछे मार्ग से नहीं जाते हैं, इसलिए छह दिशाओं के अपक्रम अर्थात् गमनागमन का नियम बन जाता है।</span></li></ol></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2"><strong>नामकर्मज गति निर्देश</strong> <br /></span> | |||
<ol> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.1"><strong> गति सामान्य के निश्चय व्यवहार लक्षण</strong></p> | |||
<p><span class="HindiText">1. निश्चय लक्षण</p> | |||
<p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/59 </span><span class="PrakritText">गइकम्मविणिवत्ता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा।</span> | |||
<span class="HindiText">= गति नामा नामकर्म से उत्पन्न होनेवाली जो चेष्टा या क्रिया होती है उसे गति जानना चाहिए। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,4/गा 84/135 )</span>; <span class="GRef">(सं./सं./1/136 )</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/3 </span><span class="SanskritText">नरकगतिनामकर्मोदयान्नारको भावो भवतीति नरकगतिरौदयिकी। एवमितरत्रापि।</span> | |||
<span class="HindiText">=नरकगति नामकर्म के उदय से नारकभाव होता है, इसलिए नरक गति औदयिकी है। इसी प्रकार शेष तीन गतियों का भी कथन करना चाहिए।</p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/134/4 </span><span class="SanskritText">"गम्यत इति गति:" </span> | |||
<span class="HindiText">= जो प्राप्त की जाये उसे गति कहते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/7/11/603/27 )</span></p> | |||
<p>(नोट—यहाँ कषाय आदि की प्राप्ति से तात्पर्य है–देखें आगे [[ गति#2.6 | गति - 2.6]])</p> | |||
<p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/976-979 </span><span class="SanskritText">कर्मणोऽस्य विपाकाद्वा दैवादन्यतमं वपु:। प्राप्य तन्नोचितान् भावान् करोत्यात्मोदयात्मन:।977। यथा तिर्यगवस्थायां तद्द्वया भावसंतति:। तत्रावश्यं च नान्यत्र तत्पर्यायानुसारिणी।978। एवं दैवेऽथ मानुष्ये वपुषि स्फुटम् । आत्मीयात्मीयभावाश्च संतत्यसाधारणा इव।979।</span> | |||
<span class="HindiText">=नामकर्म के उत्तरभेदों में प्रसिद्ध एक गति नामकर्म है और जिस कारण से गति चार हैं, तिस कारण से वह नामकर्म भी चार प्रकार का कहा जाता है।976। आत्मा दैवयोग से इस नामकर्म के उदय के कारण उस गति में प्राप्त होने वाले यथायोग्य शरीरों में से किसी एक भी शरीर को पाकर सामान्य तथा उस गति के योग्य जो औदयिकभाव होते हैं तिन्हें धारण करता है।977। जैसे कि तिर्यंच अवस्था में तिर्यंचों की तरह तिर्यंच पर्याय के अनुरूप जो भावसंतति होती है वह उस तिर्यंच गति में अवश्य ही होती है, दूसरी गति में नहीं होती है।978। इसी तरह यह बात स्पष्ट है कि देव, मनुष्य व नरकगति संबंधी शरीर में होने वाले अपने-अपने औदयिक भाव स्वत: परस्पर में असाधारण के समान होते हैं, अर्थात् उनमें अपनी-अपनी जुदी विशेषता पायी जाती है।</span></p> | |||
<p><span class="HindiText">2. व्यवहार लक्षण</p> | |||
<p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/59 </span><span class="PrakritText">जीवा हु चाउरंगं गच्छंति हु सा गई होइ।59।</span> | |||
<span class="HindiText">=अथवा जिसके द्वारा जीव नरकादि चारों गतियों में गमन करता है, वह गति कहलाती है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,4/ गा.184/135)</span>; <span class="GRef">(पं.स./सं/1/136)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/146/368 )</span></p> | |||
<p> <span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/135/3 </span><span class="SanskritText">भवाद्भवसंक्रांतिर्वां गति:।</span> | |||
<span class="HindiText">=अथवा एक भव से दूसरे भव को जाने को गति कहते हैं। <span class="GRef">( धवला 7/2,1,2/6/6 )</span></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.2"><strong>गति नामकर्म का लक्षण</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/1 </span><span class="SanskritText">यदुदयादात्मा भवांतरं गच्छति सा गति:। सा चतुर्विधा। </span> | |||
<span class="HindiText">=जिसके उदय से आत्मा भवांतर को जाता है, वह गति है। वह चार प्रकार की है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/11/1/5/676/5 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/13 )</span></p> | |||
<p> <span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,28/50/11 </span><span class="PrakritText">जम्हि जीवभावे आउकम्मादो लद्धावट्ठाणे संते सरीरादियाइं कम्माइमुदयं गच्छंति सो भावो जस्स पोग्गलवखंधस्स मिच्छत्तादिकारणेहि पत्तस्स कम्मभावस्स उदयादो होदि तस्स कम्मक्खंधस्स गति त्ति सण्णा।</span> | |||
<span class="HindiText">=जिस जीवभाव में आयुकर्म से अवस्थान के प्राप्त करने पर शरीरादि कर्म उदय को प्राप्त होते हैं, वह भाव मिथ्यात्व आदि कारणों के द्वारा कर्मभाव को प्राप्त जिस पुद्गलस्कंध से उत्पन्न होता है, उस कर्म-स्कंध की ‘गति’ संज्ञा है।</p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,101/363/9 </span><span class="PrakritText">जं णिरय-तिरिक्ख-मणुस्सदेवाणं णिव्वत्तयं कम्मं तं गदि णामं।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव पर्याय का बनाने वाला कर्म है वह गति नामकर्म है।</p></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.3"><strong>गति के भेद</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ सू.24/201 </span><span class="PrakritText">आदेसेण गदियाणुवादेण अत्थि णिरयगदी तिरिक्खगदी मणुस्सगदी देवगदी सिद्धगदो चेदि।24।</span> | |||
<span class="HindiText">=आदेशप्ररूपणा की अपेक्षा गत्यनुवाद से नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति है।</p> | |||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/2 </span><span class="SanskritText">गतिश्चतुर्भेदा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिरिति।</span> | |||
<span class="HindiText">=गति चार प्रकार की है—नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति।</p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/7/11/603/27 </span><span class="SanskritText">सा द्वेधा–कर्मोदयकृता क्षायिकी चेति। कर्मोदयकृता चतुर्विधा व्याख्याता–नरकगति:, तिर्यग्गति:, मनुष्यगति: देवगतिश्चेति। क्षायिकी मोक्षगति:।</span> | |||
<span class="HindiText">=वह गति दो प्रकार की है–कर्मोदयकृत और क्षायिकी। तहाँ कर्मोदयकृत गति चार प्रकार की कही गयी है–नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। क्षायिकी गति मोक्षगति है।</p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 7/2,11/1/520/4 </span><span class="PrakritText">गइ सामण्णेण एगविहा। सा चेव सिद्धगई (असिद्धगई) चेदि दुविहा। अहवा देवगई अदेवगई सिद्धगई चेदि तिविहा। अहवा णिरयगई तिरिक्खगई मणुसगई देवगई चेदि चउव्विहा। अहवा सिद्धगईए सह पंचविहा। एवं गइसमासो अणेयभेयभिण्णो।</p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 7/2,11,7/522/2 </span><span class="PrakritText">ताओ चेव गदीओ मणुस्सिणीओ मणुस्सा, णेरइया तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खजोणिणोओ देवा देवीओ सिद्धा त्ति अट्ठहवंति।</span> | |||
<span class="HindiText">=1. गति सामान्यरूप से एक प्रकार है। वही गति सिद्धगति और असिद्धगति इस तरह दो प्रकार है। अथवा देवगति अदेवगति और सिद्धगति इस तरह तीन प्रकार है। अथवा नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति, इस तरह चार प्रकार है। अथवा सिद्धगति के (उपरोक्त चार मिलकर) पाँच प्रकार है। इस प्रकार गतिसमास अनेक भेदों से भिन्न है। 2. वे ही गतियाँ मनुष्यणी, मनुष्य, नरक, तिर्यंच, पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिमति, देव, देवियाँ और सिद्ध - इस प्रकार आठ होती हैं।</p> | |||
<p><strong><span class="HindiText">गति नामकर्म के भेद</span></strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> षट्खंडागम 6/159-1/ सूत्र29/677 </span><span class="PrakritText">जे तं गदिणामकम्मं तं चउव्विहं णिरयगइणामं तिरिक्खगइणामं मणुस्सगदिणामं देवगदिणामं चेदि।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो गतिनामकर्म है वह चार प्रकार का है, नरकगति नामकर्म, तिर्यंचगति नामकर्म, मनुष्यगति नामकर्म और देवगति नामकर्म। <span class="GRef">(ष.ख/13/505/सू 102/367)</span> <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4/46 )</span> <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/1 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/11/1/576/8 )</span>; <span class="GRef">(म.ब/1/66/28)</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/13 )</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33 )</span></p></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.4"><strong>जीव की मनुष्यादि पर्यायों को गति कहना उपचार है</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,24/202/9 </span><span class="SanskritText">अशेषमनुष्यपर्यायनिष्पादिका मनुष्यगति:। अथवा मनुष्यगतिकर्मोदयापादितमनुष्यपर्यायकलाप: कार्ये कारणोपचारान्मनुष्यगति:।...</p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,24/203/4 </span><span class="SanskritText">देवानां गतिर्देवगति:। अथवा देवगतिनामकर्मोदयोऽणिमादिदेवाभिधानप्रत्ययव्यवहारनिबंधनपर्यायोत्पादको देवगति:। देवगतिनामकर्मोदयजनितपर्यायो वा देवगति: कार्ये कारणोपचारात् ।</span> | |||
<span class="HindiText">=1. जो मनुष्य की संपूर्ण पर्यायों में उत्पन्न कराती है उसे मनुष्यगति कहते हैं। अथवा मनुष्यगति नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए मनुष्य पर्यायों के समूह को मनुष्य गति कहते हैं। यह लक्षण कार्य में कारण के उपचार से किया गया है। 2. देवों की गति को देव कहते हैं। अथवा जो अणिमादि ऋद्धियों से युक्त ‘देव’ इस प्रकार के शब्द, ज्ञान और व्यवहार में कारणभूत पर्याय का उत्पादक है ऐसे देवगति नामकर्म के उदय को देवगति कहते हैं। अथवा देवगति नामकर्म के उत्पन्न हुई पर्याय को देवगति कहते हैं। यहाँ कार्य में कारण के उपचार से यह लक्षण किया गया है।</p></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.5"><strong>कर्मोदयापादित भी इसे जीव का भाव कैसे कहते हो?</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/980-990;1025 </span><span class="SanskritText">ननु देवादिपर्यायो नामकर्मोदयात्परम् । तत्कथं जीवभावस्य हेतु: स्याद्घातिकर्मवत् ।980। सत्यं तन्नामकर्मापि लक्षणाच्चित्रकारवत् । नूनं तद्देहमात्रादि निर्मापयति चित्रवत् ।981। अस्ति तत्रापि मोहस्य नैरंतर्योदयांजसा। तस्मादौदयिको भाव: स्यात्तद्देहक्रियाकृति:। ननु मोहोदयो नूनं स्वायत्तोऽस्त्येकधारया। तत्तद्वपु: क्रियाकारो नियतोऽयं कुतो नयात् ।983। नैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि मोहस्योदयवैभवे। तत्रापि बुद्धिपूर्वे चाबुद्धिपूर्वे स्वलक्षणात् ।984। तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूदयादिह। अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुदृक् ।990। तत्राप्यस्ति विवेकोऽयं श्रेयानत्रादितो यथा। वैकृतो मोहजो भाव: शेष: सर्वोऽपि लौकिक:।1025।</span> | |||
<span class="HindiText">=<strong>प्रश्न–</strong>जब देवादि पर्यायें केवल नामकर्म के उदय से होती हैं तो वह नामकर्म कैसे घातिया कर्म की तरह जीव के भाव में हेतु हो सकता है।980। <strong>उत्तर– </strong>ठीक है, क्योंकि, वह नामकर्म भी चित्रकार की तरह गति के अनुसार केवल जीव के शरीरादिक का ही निर्माण करता है।981। परंतु उन शरीरादिक पर्याय में भी वास्तव में मोह का गत्यनुसार निरंतर उदय रहता है। जिसके कारण उस उस शरीरादिक की क्रिया के आकार के अनुकूल भाव रहता है।982। <strong>प्रश्न—</strong>यदि मोहनीय का उदय प्रतिसमय निर्विच्छिन्न रूप से होता रहता है तब यह उन उन शरीरों की क्रिया के अनुकूल किस न्याय से नियमित हो सकता है।983। <strong>उत्तर—</strong>यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तुम उन गतियों में मोहोदय के लक्षणानुसार बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक होने वाले मोहोदय के वैभव से अनभिज्ञ हो।984। उसके उदय से जीव संपूर्ण परपदार्थों (इन शरीरादिकों) को भी निज मानता है।990। घातिया अघातिया कर्मों के उदय से होने वाले औदयिक भावों में यह बात विशेष है कि मोहजन्य भाव ही सच्चा विकारयुक्त भाव है और शेष सब तो लौकिक रूढ़ि से (अथवा कार्य में कारण का उपचार करने से) औदयिक भाव कहे जाते हैं।1025।</p></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.6"><strong>प्राप्त होने के कारण सिद्ध भी गतिवान् बन जायेंगे</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/134 </span><span class="SanskritText">गम्यत इति गति:। नातिव्याप्तिदोष: सिद्धै: प्राप्यगुणाभावात् । न केवलज्ञानादय: प्राप्यास्तथात्मकैकस्मिन् प्राप्यप्रापकभावविरोधात् । कषायादयो हि प्राप्या: औपाधिकत्वात् ।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो प्राप्त की जाय उसे गति कहते हैं। गति का ऐसा लक्षण करने से सिद्धों के साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं आता है, क्योंकि सिद्धों के द्वारा प्राप्त करने योग्य गुणों का अभाव है। यदि केवलज्ञानादि गुणों को प्राप्त करने योग्य कहा जावे, सो भी नहीं बन सकता, क्योंकि केवलज्ञान स्वरूप एक आत्मा में प्राप्य-प्रापक भाव का विरोध है। उपाधिजन्य होने से कषायादिक भावों को ही प्राप्त करने योग्य कहा जा सकता है। परंतु वे सिद्धों में पाये नहीं जाते हैं।</p></span></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.7"><strong>प्राप्त किये जाने से द्रव्य व नगर आदि भी गति बन जायेंगे</strong></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/134/6 </span><span class="SanskritText">गम्यत इति गतिरित्युच्यमाने गमनक्रियापरिणतजीवप्राप्यद्रव्यादीनामपि गतिव्यपदेश: स्यादिति चेन्न, गतिकर्मण: समुत्पन्नस्यात्मपर्यायस्य तत: कथंचिद्भेदादविरुद्धप्राप्तित: प्राप्तकर्मभावस्य गतित्वाभ्युपगमे पूर्वोक्तदोषानुपपत्ते:।</span> | |||
<span class="HindiText">=<strong>प्रश्न–</strong>जो प्राप्त की जाये उसे गति कहते हैं, गति का ऐसा लक्षण करने पर गमनरूप क्रिया में परिणत जीव के द्वारा प्राप्त होने योग्य द्रव्यादिक को भी ‘गति’ यह संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि गमनक्रियापरिणत जीव के द्वारा द्रव्यादिक ही प्राप्त किये जाते हैं। <strong>उत्तर—</strong>ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि गति नामकर्म के उदय से जो आत्मा के पर्याय उत्पन्न होती है, वह आत्मा से कथंचित् भिन्न है, अत: उसकी प्राप्ति अविरुद्ध है। और इसीलिए प्राप्तिरूप क्रिया के कर्मपने को प्राप्त नरकादि आत्मपर्याय के गतिपना मानने में पूर्वोक्त दोष नहीं आता है।</p> | |||
<p> </p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला/7/2,1,2/6/4 </span><span class="SanskritText">गम्यत इति गति:। एदीए णिरुत्तीए गाम-णयरं-खेड-कव्वडादीपं पि गदित्तं पसज्जदे। ण, रूढिबलेण गदिणामकम्मणिप्पाइयपज्जायम्मि गदिसद्दपवुत्तीदो। गदिकम्मोदयाभावा सिद्धगदी अगदी। अथवा भवाद् भवसंक्रांतिर्गति:, असंक्रांति:, सिद्धगति:।</span> | |||
<span class="HindiText">=<strong>प्रश्न–</strong>‘जहाँ को गमन किया जाये वह गति है’ गति की ऐसी निरुक्ति करने से तो ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट, आदि स्थानों को भी गति मानने का प्रसंग आता है। <strong>उत्तर–</strong>नहीं आता, क्योंकि रूढ़ि के बल से नामकर्म द्वारा जो पर्याय निष्पन्न की गयी है, उसी में गति शब्द का प्रयोग किया जाता है। गति नामकर्म के उदय के अभाव के कारण सिद्धगति अगति कहलाती है। अथवा एक भव से दूसरे भव को संक्रांति का नाम गति है, और सिद्ध गति असंक्रांति रूप है।</span> | |||
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Latest revision as of 22:20, 17 November 2023
गति शब्द का दो अर्थों में प्राय: प्रयोग होता है—गमन व देवादि चार गति। छहो द्रव्यों में जीव व पुद्गल ही गमन करने को समर्थ हैं। उनकी स्वाभाविक व विभाविक दोनों प्रकार की गति होती है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव—ये जीवों की चार प्रसिद्ध गतियाँ हैं, जिनमें संसारी जीव नित्य भ्रमण करता है। इसका कारणभूत कर्म गति नामकर्म कहलाता है।
- गमनार्थ गति निर्देश
- गति सामान्य का लक्षण।
- गति के भेद व उसके लक्षण।
- ऊर्ध्वगति जीव की स्वभावगति है।
- पर ऊर्ध्वगमन जीव का त्रिकाली स्वभाव नहीं।
- दिगंतर गति जीव की विभाव गति है।
- पुद्गलों की स्वभाव विभाव गति का निर्देश।
- सिद्धों का ऊर्ध्वगमन।–देखें मोक्ष - 1।
- विग्रह गति।–देखें विग्रहगति ।
- जीव व पुद्गल की स्वभावगति तथा जीव की भवांतर के प्रति गति अनुश्रेणी ही होती है।–देखें विग्रह गति ।
- जीव व पुद्गल की गमनशक्ति लोकांत तक सीमित नहीं है बल्कि असीम है।–देखें धर्माधर्म - 2.3।
- गमनार्थगति की ओघ आदेश प्ररूपणा–देखें क्षेत्र - 3, क्षेत्र - 4
- नामकर्मज गति निर्देश
- यदि मोह के सहवर्ती होने के कारण इसे जीव का भाव कहते हो तो क्षपक आदि जीवों में उसकी व्याप्ति कैसे होगी।–देखें क्षेत्र - 3.1।
- प्राप्त होने के कारण सिद्ध भी गतिवान् बन जायेंगे।
- प्राप्त किये जाने से द्रव्य व नगर आदिक भी गति बन जायेंगे।
- गतिकर्म व आयुबंध में संबंध।–देखें आयु - 6।
- गति जन्म का कारण नहीं आयु है।–देखें आयु - 2।
- कौन जीव मरकर कहाँ उत्पन्न हो ऐसी गति अगति संबंधी प्ररूपणा।–देखें जन्म - 6।
- गति नामकर्म की बंध-उदय-सत्त्व प्ररूपणा।–देखें वह वह नाम ।
- सभी मार्गणाओं में भावमार्गणा इष्ट होती है तथा वहाँ आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम है।–देखें मार्गणा ।
- चारों गतियों में जन्मने योग्य परिणाम।–देखें आयु - 3।
- गमनार्थ गति निर्देश
- गति सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/4/21/252/5 देशाद्देशांतरप्राप्तिहेतुर्गति:। =एक देश से दूसरे देश के प्राप्त करने का जो साधन है उसे गति कहते हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/5/17/281/12 ); ( राजवार्तिक/4/21/1/236/3 ); ( राजवार्तिक/5/17/1/460/22 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/605/1060/3 )
राजवार्तिक/4/21/1/236/3 उभयनिमित्तवशात् उत्पद्यमान: कायपरिस्पंदो गतिरित्युच्यते। =बाह्य और आभ्यंतर निमित्त के वश से उत्पन्न होने वाला काय का परिस्पंदन गति कहलाता है।
- गति के भेद व उनके लक्षण
राजवार्तिक/5/24/21/490/21 सैषा क्रिया दशप्रकारा वेदितव्या। कुत:। प्रयोगादिनिमित्तभेदात् । तद्यथा, इष्वेरंडबीजमृदंगशब्दजतुगोलकनौद्रव्यपाषाणालाबूसुराजलदमारुतादीनाम् । इषुचक्रकणयादीनां प्रयोगगति:। एरंडतिंदुकबीजानां बंधाभावगति:। मृदंगभेरीशंखादिशब्दपुद्गलानां छिन्नानां गति: छेदगति:। जतुगोलककुंददारुपिंडादीनामभिघातगति:। नौद्रव्यपोतकादीनामवगाहनगति:। जलदरथमुशलादीनां वायुवाजिहस्तादीनां संयोगनिमित्ता संयोगगति:। मारुतपावकपरमाणुसिद्धज्योतिष्कादीनां स्वभावगति:। =क्रिया प्रयोग बंधाभाव आदि के भेद से गति दस प्रकार की है। बाण चक्र आदि की प्रयोगगति है। एरंडबीज आदि की बंधाभाव गति है। मृदंग भेरी शंखादि के शब्द जो दूर तक जाते हैं पुद्गलों की छिन्नगति है। गेंद आदि की अभिघात गति है। नौका आदि की अवगाहनगति है। पत्थर आदि की नीचे की ओर (जानेवाली) गुरुत्वगति है। तुंबड़ी रूई आदि की (ऊपर जानवाली) लघुत्वगति है। सुरा सिर का आदि की संचारगति है। मेघ, रथ, मूसल आदि की क्रमश: वायु, हाथी तथा हाथ के संयोग से होनेवाली संयोगगति है। वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदि की स्वभावगति है।
- ऊर्ध्वगति जीव की स्वभाव गति है
पंचास्तिकाय/मूल/73 बंधेहिं सव्वदो मुक्को। उड्ढं गच्छदि। =बंध से सर्वांग मुक्त जीव ऊपर को जाता है।
तत्त्वार्थसूत्र/10/6 तथागतिपरिणामाच्च। =स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊर्ध्व गमन करता है।
राजवार्तिक/2/7/14/113/7 ऊर्ध्वगतित्वमपि साधारणम् । अग्न्यादीनामूर्ध्वगतिपारिणामिकत्वात् । तच्च कर्मोदयाद्यपेक्षाभावात् पारिणामिकम् । एवमन्ये चात्मन: साधारणा: पारिणामिका योज्या:।
राजवार्तिक/10/7/4/645/18 ऊर्ध्वगौरवपरिणामो हि जीव उत्पतयेव।
राजवार्तिक/5/24/21/490/14 सिद्ध्यतामूर्ध्वगतिरेव। =1. अग्नि आदि में भी ऊर्ध्वगति होती है, अत: ऊर्ध्वगतित्व भी साधारण है। कर्मों के उदयादि की अपेक्षा का अभाव होने के कारण वह पारिणामिक है। इसी प्रकार आत्मा में अन्य भी साधारण पारिणामिक भाव होते हैं। 2. क्योंकि जीवों को ऊर्ध्वगौरव धर्मवाला बताया है, अत: वे ऊपर ही जाते हैं। 3. मुक्त होने वाले जीवों को ऊर्ध्वगति ही होती है।
राजवार्तिक/10/9/14/649 पर उद्धृत श्लोक नं. 13-16 ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमै:।-।13। यथाधस्तिर्यगूर्ध्वं च लोष्टवाय्वग्निदीप्तय:। स्वभावत: प्रवर्तंते तथोर्ध्वगतिरात्मनाम् ।14।...ऊर्ध्वगतिमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम् ।16। =जीव ऊर्ध्वगौरवधर्मा बताया गया है। जिस तरह लोष्ट, वायु और अग्निशिखा स्वभाव से ही नीचे तिरछे और ऊपर को जाती है उसी तरह आत्मा की स्वभावत: ऊर्ध्वगति ही होती है। क्षीणकर्मा जीवों की स्वभाव से ऊर्ध्वगति ही होती है। ( तत्त्वसार/8/31-34 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/28 )
द्रव्यसंग्रह/2 सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई। =जीव स्वभाव से ऊर्ध्व-गमन करने वाला है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/184 जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं। =जीवों की स्वभाव क्रिया सिद्धिगमन है।
- पर ऊर्ध्व गमन जीव का त्रिकाली स्वभाव नहीं
राजवार्तिक/10/7/9-10/645/33 स्यान्मतम्–यथोष्णस्वभावस्याग्नेरौष्ण्याभावेऽभावस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगतिस्वभावत्वे तदभावे तस्याप्यभाव: प्राप्नोतीति। तन्न; किं कारणम् । गत्यंतरनिवृत्त्यर्थत्वात् । मुक्तस्योर्ध्वमेवगमनं न दिगंतरगमनमित्ययं स्वभावो नोर्ध्वगमनमेवेति। यथा ऊर्ध्वज्वलनस्वभावत्वेऽप्यग्नेर्वेगवद् द्रव्याभिघातात्तिर्यग्ज्वलनेऽपि नाग्नेर्विनाशो दृष्टस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगतिस्वभावत्वेऽपि तदभावे नाभाव इति। =प्रश्न—सिद्धशिला पर पहुंचने के बाद चूँकि मुक्त जीव में ऊर्ध्वगमन नहीं होता, अत: उष्णस्वभाव के अभाव में अग्नि के अभाव की तरह मुक्तजीव का भी अभाव हो जाना चाहिए। उत्तर—‘मुक्त का ऊर्ध्व ही गमन होता है, तिरछा आदि गमन नहीं’ यह स्वभाव है न कि ऊर्ध्वगमन करते ही रहना। जैसे कभी ऊर्ध्वगमन नहीं करती, तब भी अग्नि बनी रहती है, उसी तरह मुक्त में भी लक्ष्यप्राप्ति के बाद ऊर्ध्वगमन न होने पर भी उसका अभाव नहीं होता है।
- दिगंतर गति जीव की विभाव गति है
राजवार्तिक/10/9/14/649 पर उद्धृत श्लोक नं. 15-16 अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषां यदुपलभ्यते। कर्मण: प्रतिघाताश्च प्रयोगाच्च तदिष्यते।15। स्यादधस्तिर्यगूर्ध्वं च जीवानां कर्मजा गति:। =जीवों में जो विकृत गति पायी जाती है, वह या तो प्रयोग से है या फिर कर्मों के प्रतिघात से है।15। जीवों के कर्मवश नीचे, तिरछे और ऊपर भी गति होती है।16। ( तत्त्वसार/8/33-34 )
पंचास्तिकाय व त.प्र./73 सेसा विदिसावज्जं गदिं जंति।73। बद्धजीवस्य षड्गतय: कर्मनिमित्ता:।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/184 जीवानां...विभावक्रिया षट्कायक्रमयुक्तत्वम् । =1. शेष (मुक्तों से अतिरिक्त जीव भवांतर में जाते हुए) विदिशाएँ छोड़कर गमन करते हैं।73। बद्धजीव को कर्मनिमित्तक षट्दिक् गमन होता है। 2. जीवों की विभाव क्रिया (अन्य भव में जाते समय) छह दिशा में गमन है।
द्रव्यसंग्रह टीका/2/9/9 व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोर्ध्वाधस्तिर्यग्गतिस्वभाव:। =व्यवहार से चार गतियों को उत्पन्न करने वाले (भवांतरों को ले जाने वाले) कर्मों के उदयवश ऊँचा, नीचा, तथा तिरछा गमन करने वाला है।
- पुद्गलों की स्वभाव विभाव गति का निर्देश
राजवार्तिक/10/9/14/649 पर उद्धृत श्लोक नं.13-14 अधोगौरवधर्माण: पुद्गला इति चोदितम् ।13। यथाधस्तिर्यगूर्ध्वं च लोष्टवाय्वग्निदीप्तय:। स्वभावत: प्रवर्तंते...।14। =पुद्गल अधोगौरवधर्मा होते हैं, यह बताया गया है।13। लोष्ट, वायु और अग्निशिखा स्वभाव से ही नीचे-तिरछे व ऊपर को जाते हैं।14। ( तत्त्वसार/8/31-32 )
राजवार्तिक/2/26/6/138/3 पुद्गलानामपि च या लोकांतप्रापिणी सा नियमादनुश्रेणिगति:। या त्वन्या स भजनीया। =पुद्गलों की (परमाणुओं की) जो लोकांत तक गति होती है वह नियम से अनुश्रेणी ही होती है। अन्य गतियों का कोई नियम नहीं है।
राजवार्तिक/5/24/21/490/12 मारुतपावकपरमाणुसिद्धज्योतिष्कादीनां स्वभावगति:। वायो: केवलस्य तिर्यग्गति:। भस्त्रादियोगादनियता गति:। अग्नेरूर्ध्वगति: कारणवशाद्दिगंतरगति:। परमाणोरनियत। ...ज्योतिषां नित्यभ्रमणं लोके। =वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदि की स्वभाव गति है। (तहाँ) अकेली वायु की तिर्यक् गति है। भस्त्रादि के कारण वायु की अनियत गति होती है। अग्नि की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है। कारणवश उसकी अन्य दिशाओं में भी गति होती है। परमाणु की अनियत गति है। ज्योतिषियों का लोक में नित्य भ्रमण होता है।
- जीवों का भवांतर के प्रति गमन छह दिशाओं में ही होता है। ऐसा क्यों ?
धवला 4/3,1,43/226/2 छक्कावक्कमणियमे संते पंच चोद्दसभागफोसणं ण जुज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, चदुण्हं दिसाणं हेट्ठुवरिमदिसाणं च गच्छंतेहिं तदा मारणं पडिविरोहाभावादो। का दिसा णाम। सगट्ठाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम। ताओ छच्चेव अण्णेसिमसंभवादो। का विदिसा णाम। सगट्ठाणादो कण्णायारेण ट्ठिदखेत्तं विदिसा। जेण सव्वे जीवा कण्णायारेण ण जंति तेण छक्कावक्कमणियमो जुज्जदे। =प्रश्न–छहों दिशाओं में जाने-आने का नियम होने पर सासादन गुणस्थानर्त्ती देवों का स्पर्शनक्षेत्र 5/14 भागप्रमाण नहीं बनता है। उत्तर—ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चारों दिशाओं को और ऊपर तथा नीचे की दिशाओं को गमन करने वाले जीवों के मारणांतिक समुद्घात के प्रति कोई विरोध नहीं है। प्रश्न—दिशा किसे कहते हैं ? उत्तर—अपने स्थान से वाण की तरह सीधे क्षेत्र को दिशा कहते हैं। वे दिशाएँ छह ही होती हैं, क्योंकि अन्य दिशाओं का होना असंभव है। प्रश्न—विदिशा किसे कहते हैं? उत्तर—अपने स्थान से कर्णरेखा के आकार से स्थित क्षेत्र को विदिशा कहते हैं। चूँकि मारणांतिकसमुद्घात और उपपादगत सभी जीव कर्णरेखा के आकार से अर्थात् तिरछे मार्ग से नहीं जाते हैं, इसलिए छह दिशाओं के अपक्रम अर्थात् गमनागमन का नियम बन जाता है।
- गति सामान्य का लक्षण
- नामकर्मज गति निर्देश
- गति सामान्य के निश्चय व्यवहार लक्षण
1. निश्चय लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/59 गइकम्मविणिवत्ता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा। = गति नामा नामकर्म से उत्पन्न होनेवाली जो चेष्टा या क्रिया होती है उसे गति जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,4/गा 84/135 ); (सं./सं./1/136 )
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/3 नरकगतिनामकर्मोदयान्नारको भावो भवतीति नरकगतिरौदयिकी। एवमितरत्रापि। =नरकगति नामकर्म के उदय से नारकभाव होता है, इसलिए नरक गति औदयिकी है। इसी प्रकार शेष तीन गतियों का भी कथन करना चाहिए।
धवला 1/1,1,4/134/4 "गम्यत इति गति:" = जो प्राप्त की जाये उसे गति कहते हैं। ( राजवार्तिक/9/7/11/603/27 )
(नोट—यहाँ कषाय आदि की प्राप्ति से तात्पर्य है–देखें आगे गति - 2.6)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/976-979 कर्मणोऽस्य विपाकाद्वा दैवादन्यतमं वपु:। प्राप्य तन्नोचितान् भावान् करोत्यात्मोदयात्मन:।977। यथा तिर्यगवस्थायां तद्द्वया भावसंतति:। तत्रावश्यं च नान्यत्र तत्पर्यायानुसारिणी।978। एवं दैवेऽथ मानुष्ये वपुषि स्फुटम् । आत्मीयात्मीयभावाश्च संतत्यसाधारणा इव।979। =नामकर्म के उत्तरभेदों में प्रसिद्ध एक गति नामकर्म है और जिस कारण से गति चार हैं, तिस कारण से वह नामकर्म भी चार प्रकार का कहा जाता है।976। आत्मा दैवयोग से इस नामकर्म के उदय के कारण उस गति में प्राप्त होने वाले यथायोग्य शरीरों में से किसी एक भी शरीर को पाकर सामान्य तथा उस गति के योग्य जो औदयिकभाव होते हैं तिन्हें धारण करता है।977। जैसे कि तिर्यंच अवस्था में तिर्यंचों की तरह तिर्यंच पर्याय के अनुरूप जो भावसंतति होती है वह उस तिर्यंच गति में अवश्य ही होती है, दूसरी गति में नहीं होती है।978। इसी तरह यह बात स्पष्ट है कि देव, मनुष्य व नरकगति संबंधी शरीर में होने वाले अपने-अपने औदयिक भाव स्वत: परस्पर में असाधारण के समान होते हैं, अर्थात् उनमें अपनी-अपनी जुदी विशेषता पायी जाती है।
2. व्यवहार लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/59 जीवा हु चाउरंगं गच्छंति हु सा गई होइ।59। =अथवा जिसके द्वारा जीव नरकादि चारों गतियों में गमन करता है, वह गति कहलाती है। ( धवला 1/1,1,4/ गा.184/135); (पं.स./सं/1/136); ( गोम्मटसार जीवकांड/146/368 )
धवला 1/1,1,4/135/3 भवाद्भवसंक्रांतिर्वां गति:। =अथवा एक भव से दूसरे भव को जाने को गति कहते हैं। ( धवला 7/2,1,2/6/6 )
- गति नामकर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/1 यदुदयादात्मा भवांतरं गच्छति सा गति:। सा चतुर्विधा। =जिसके उदय से आत्मा भवांतर को जाता है, वह गति है। वह चार प्रकार की है। ( राजवार्तिक/8/11/1/5/676/5 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/13 )
धवला 6/1,9-1,28/50/11 जम्हि जीवभावे आउकम्मादो लद्धावट्ठाणे संते सरीरादियाइं कम्माइमुदयं गच्छंति सो भावो जस्स पोग्गलवखंधस्स मिच्छत्तादिकारणेहि पत्तस्स कम्मभावस्स उदयादो होदि तस्स कम्मक्खंधस्स गति त्ति सण्णा। =जिस जीवभाव में आयुकर्म से अवस्थान के प्राप्त करने पर शरीरादि कर्म उदय को प्राप्त होते हैं, वह भाव मिथ्यात्व आदि कारणों के द्वारा कर्मभाव को प्राप्त जिस पुद्गलस्कंध से उत्पन्न होता है, उस कर्म-स्कंध की ‘गति’ संज्ञा है।
धवला 13/5,5,101/363/9 जं णिरय-तिरिक्ख-मणुस्सदेवाणं णिव्वत्तयं कम्मं तं गदि णामं। =जो नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव पर्याय का बनाने वाला कर्म है वह गति नामकर्म है।
- गति के भेद
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.24/201 आदेसेण गदियाणुवादेण अत्थि णिरयगदी तिरिक्खगदी मणुस्सगदी देवगदी सिद्धगदो चेदि।24। =आदेशप्ररूपणा की अपेक्षा गत्यनुवाद से नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति है।
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/2 गतिश्चतुर्भेदा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिरिति। =गति चार प्रकार की है—नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति।
राजवार्तिक/9/7/11/603/27 सा द्वेधा–कर्मोदयकृता क्षायिकी चेति। कर्मोदयकृता चतुर्विधा व्याख्याता–नरकगति:, तिर्यग्गति:, मनुष्यगति: देवगतिश्चेति। क्षायिकी मोक्षगति:। =वह गति दो प्रकार की है–कर्मोदयकृत और क्षायिकी। तहाँ कर्मोदयकृत गति चार प्रकार की कही गयी है–नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। क्षायिकी गति मोक्षगति है।
धवला 7/2,11/1/520/4 गइ सामण्णेण एगविहा। सा चेव सिद्धगई (असिद्धगई) चेदि दुविहा। अहवा देवगई अदेवगई सिद्धगई चेदि तिविहा। अहवा णिरयगई तिरिक्खगई मणुसगई देवगई चेदि चउव्विहा। अहवा सिद्धगईए सह पंचविहा। एवं गइसमासो अणेयभेयभिण्णो।
धवला 7/2,11,7/522/2 ताओ चेव गदीओ मणुस्सिणीओ मणुस्सा, णेरइया तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खजोणिणोओ देवा देवीओ सिद्धा त्ति अट्ठहवंति। =1. गति सामान्यरूप से एक प्रकार है। वही गति सिद्धगति और असिद्धगति इस तरह दो प्रकार है। अथवा देवगति अदेवगति और सिद्धगति इस तरह तीन प्रकार है। अथवा नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति, इस तरह चार प्रकार है। अथवा सिद्धगति के (उपरोक्त चार मिलकर) पाँच प्रकार है। इस प्रकार गतिसमास अनेक भेदों से भिन्न है। 2. वे ही गतियाँ मनुष्यणी, मनुष्य, नरक, तिर्यंच, पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिमति, देव, देवियाँ और सिद्ध - इस प्रकार आठ होती हैं।
गति नामकर्म के भेद
षट्खंडागम 6/159-1/ सूत्र29/677 जे तं गदिणामकम्मं तं चउव्विहं णिरयगइणामं तिरिक्खगइणामं मणुस्सगदिणामं देवगदिणामं चेदि। =जो गतिनामकर्म है वह चार प्रकार का है, नरकगति नामकर्म, तिर्यंचगति नामकर्म, मनुष्यगति नामकर्म और देवगति नामकर्म। (ष.ख/13/505/सू 102/367) ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4/46 ) ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/1 ); ( राजवार्तिक/8/11/1/576/8 ); (म.ब/1/66/28); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/13 ) ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33 )
- जीव की मनुष्यादि पर्यायों को गति कहना उपचार है
धवला 1/1,1,24/202/9 अशेषमनुष्यपर्यायनिष्पादिका मनुष्यगति:। अथवा मनुष्यगतिकर्मोदयापादितमनुष्यपर्यायकलाप: कार्ये कारणोपचारान्मनुष्यगति:।...
धवला 1/1,1,24/203/4 देवानां गतिर्देवगति:। अथवा देवगतिनामकर्मोदयोऽणिमादिदेवाभिधानप्रत्ययव्यवहारनिबंधनपर्यायोत्पादको देवगति:। देवगतिनामकर्मोदयजनितपर्यायो वा देवगति: कार्ये कारणोपचारात् । =1. जो मनुष्य की संपूर्ण पर्यायों में उत्पन्न कराती है उसे मनुष्यगति कहते हैं। अथवा मनुष्यगति नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए मनुष्य पर्यायों के समूह को मनुष्य गति कहते हैं। यह लक्षण कार्य में कारण के उपचार से किया गया है। 2. देवों की गति को देव कहते हैं। अथवा जो अणिमादि ऋद्धियों से युक्त ‘देव’ इस प्रकार के शब्द, ज्ञान और व्यवहार में कारणभूत पर्याय का उत्पादक है ऐसे देवगति नामकर्म के उदय को देवगति कहते हैं। अथवा देवगति नामकर्म के उत्पन्न हुई पर्याय को देवगति कहते हैं। यहाँ कार्य में कारण के उपचार से यह लक्षण किया गया है।
- कर्मोदयापादित भी इसे जीव का भाव कैसे कहते हो?
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/980-990;1025 ननु देवादिपर्यायो नामकर्मोदयात्परम् । तत्कथं जीवभावस्य हेतु: स्याद्घातिकर्मवत् ।980। सत्यं तन्नामकर्मापि लक्षणाच्चित्रकारवत् । नूनं तद्देहमात्रादि निर्मापयति चित्रवत् ।981। अस्ति तत्रापि मोहस्य नैरंतर्योदयांजसा। तस्मादौदयिको भाव: स्यात्तद्देहक्रियाकृति:। ननु मोहोदयो नूनं स्वायत्तोऽस्त्येकधारया। तत्तद्वपु: क्रियाकारो नियतोऽयं कुतो नयात् ।983। नैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि मोहस्योदयवैभवे। तत्रापि बुद्धिपूर्वे चाबुद्धिपूर्वे स्वलक्षणात् ।984। तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूदयादिह। अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुदृक् ।990। तत्राप्यस्ति विवेकोऽयं श्रेयानत्रादितो यथा। वैकृतो मोहजो भाव: शेष: सर्वोऽपि लौकिक:।1025। =प्रश्न–जब देवादि पर्यायें केवल नामकर्म के उदय से होती हैं तो वह नामकर्म कैसे घातिया कर्म की तरह जीव के भाव में हेतु हो सकता है।980। उत्तर– ठीक है, क्योंकि, वह नामकर्म भी चित्रकार की तरह गति के अनुसार केवल जीव के शरीरादिक का ही निर्माण करता है।981। परंतु उन शरीरादिक पर्याय में भी वास्तव में मोह का गत्यनुसार निरंतर उदय रहता है। जिसके कारण उस उस शरीरादिक की क्रिया के आकार के अनुकूल भाव रहता है।982। प्रश्न—यदि मोहनीय का उदय प्रतिसमय निर्विच्छिन्न रूप से होता रहता है तब यह उन उन शरीरों की क्रिया के अनुकूल किस न्याय से नियमित हो सकता है।983। उत्तर—यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तुम उन गतियों में मोहोदय के लक्षणानुसार बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक होने वाले मोहोदय के वैभव से अनभिज्ञ हो।984। उसके उदय से जीव संपूर्ण परपदार्थों (इन शरीरादिकों) को भी निज मानता है।990। घातिया अघातिया कर्मों के उदय से होने वाले औदयिक भावों में यह बात विशेष है कि मोहजन्य भाव ही सच्चा विकारयुक्त भाव है और शेष सब तो लौकिक रूढ़ि से (अथवा कार्य में कारण का उपचार करने से) औदयिक भाव कहे जाते हैं।1025।
- प्राप्त होने के कारण सिद्ध भी गतिवान् बन जायेंगे
धवला 1/1,1,4/134 गम्यत इति गति:। नातिव्याप्तिदोष: सिद्धै: प्राप्यगुणाभावात् । न केवलज्ञानादय: प्राप्यास्तथात्मकैकस्मिन् प्राप्यप्रापकभावविरोधात् । कषायादयो हि प्राप्या: औपाधिकत्वात् । =जो प्राप्त की जाय उसे गति कहते हैं। गति का ऐसा लक्षण करने से सिद्धों के साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं आता है, क्योंकि सिद्धों के द्वारा प्राप्त करने योग्य गुणों का अभाव है। यदि केवलज्ञानादि गुणों को प्राप्त करने योग्य कहा जावे, सो भी नहीं बन सकता, क्योंकि केवलज्ञान स्वरूप एक आत्मा में प्राप्य-प्रापक भाव का विरोध है। उपाधिजन्य होने से कषायादिक भावों को ही प्राप्त करने योग्य कहा जा सकता है। परंतु वे सिद्धों में पाये नहीं जाते हैं।
- प्राप्त किये जाने से द्रव्य व नगर आदि भी गति बन जायेंगे
धवला 1/1,1,4/134/6 गम्यत इति गतिरित्युच्यमाने गमनक्रियापरिणतजीवप्राप्यद्रव्यादीनामपि गतिव्यपदेश: स्यादिति चेन्न, गतिकर्मण: समुत्पन्नस्यात्मपर्यायस्य तत: कथंचिद्भेदादविरुद्धप्राप्तित: प्राप्तकर्मभावस्य गतित्वाभ्युपगमे पूर्वोक्तदोषानुपपत्ते:। =प्रश्न–जो प्राप्त की जाये उसे गति कहते हैं, गति का ऐसा लक्षण करने पर गमनरूप क्रिया में परिणत जीव के द्वारा प्राप्त होने योग्य द्रव्यादिक को भी ‘गति’ यह संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि गमनक्रियापरिणत जीव के द्वारा द्रव्यादिक ही प्राप्त किये जाते हैं। उत्तर—ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि गति नामकर्म के उदय से जो आत्मा के पर्याय उत्पन्न होती है, वह आत्मा से कथंचित् भिन्न है, अत: उसकी प्राप्ति अविरुद्ध है। और इसीलिए प्राप्तिरूप क्रिया के कर्मपने को प्राप्त नरकादि आत्मपर्याय के गतिपना मानने में पूर्वोक्त दोष नहीं आता है।
धवला/7/2,1,2/6/4 गम्यत इति गति:। एदीए णिरुत्तीए गाम-णयरं-खेड-कव्वडादीपं पि गदित्तं पसज्जदे। ण, रूढिबलेण गदिणामकम्मणिप्पाइयपज्जायम्मि गदिसद्दपवुत्तीदो। गदिकम्मोदयाभावा सिद्धगदी अगदी। अथवा भवाद् भवसंक्रांतिर्गति:, असंक्रांति:, सिद्धगति:। =प्रश्न–‘जहाँ को गमन किया जाये वह गति है’ गति की ऐसी निरुक्ति करने से तो ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट, आदि स्थानों को भी गति मानने का प्रसंग आता है। उत्तर–नहीं आता, क्योंकि रूढ़ि के बल से नामकर्म द्वारा जो पर्याय निष्पन्न की गयी है, उसी में गति शब्द का प्रयोग किया जाता है। गति नामकर्म के उदय के अभाव के कारण सिद्धगति अगति कहलाती है। अथवा एक भव से दूसरे भव को संक्रांति का नाम गति है, और सिद्ध गति असंक्रांति रूप है।
- गति सामान्य के निश्चय व्यवहार लक्षण