रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 30: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>भयाशा-स्नेह-लौभाच्च, कुदेवागमलिंगिनाम् ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>प्रणामं विनयं चेव, न कुर्य्यु: शुद्धदृष्टय: ।।30।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्दृष्टि के भयवश कुदेवों को प्रणाम विनय करने के भाव का अभाव</strong>―सम्यग्दर्शन की महिमा का संकेत करके अब इस श्लोक में यह कहा जा रहा है कि जो शुद्धदृष्टि वाला है, आत्मा के सहजस्वभाव का अनुभव कर चुकने वाला है ऐसा ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव भय से, आश से, स्नेह से, लोभ से, कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु को प्रणाम और विनय नहीं करते हैं । किन्हीं जीवों को भय हो जाता है कि इन कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरुवों को जिनको राजा मानता है, बड़े-बड़े नेता मानते हैं उन्हें मैं न मानूं तो ये लोग मेरे को न जाने क्या-क्या तकलीफ देंगे । अथवा ये ही देव, ये ही गुरु कहीं मेरे को पीड़ा न पहुंचा दें, ऐसा उनको भय हो जाता है किंतु सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को भय नहीं होता, क्योंकि वह अपने अविकार स्वरूप को निरख चुका । यह अमूर्त ज्ञानमात्र अविकार स्वरूप सदा अपनी सत्ता में रहने वाला, जिसका कभी विनाश नहीं हो सकता, जिसका सब कुछ इस मुझ पर ही निर्भर है, ऐसे ज्ञानानंद का निधान निज आत्मस्वरूप का परिचय हुआ है । इस कारण वह किसी भी अन्य कुदेव आदिक को भय से भी नमस्कार नहीं कर सकता । भय ही नहीं है इसके और फिर स्वरूपनिर्णय है कि कुदेव से मेरे को क्या भय? कुदेव कहते किसे हैं? जो देव तो नहीं हैं किंतु अपने को देवरूप में प्रसिद्ध करते हैं तो उसका नाम कुदेव है । वैसे कुदेव कोई चीज नहीं है । कोई भी जीव हो तो या तो वह देव होगा या देव न होगा, दो ही बातें हैं । कुदेव का मतलब क्या? देव तो नहीं है और उसे देव माने तो उसका नाम कुदेव पड़ता है । तो किसी भी व्यक्ति को कुदेव बनाने वाला कौन? भक्तजन, लौकिकजन और यदि वही व्यक्ति स्वयं अभिलाषा रखता है कि मैं देव की तरह पूजा जाऊं तो उसने अपनी ओर से अपने की कुदेव कर डाला । तो भय से ज्ञानी जीव कुदेव को प्रणाम और विनय नहीं करते । एक बात और ध्यान में देने की है कि जिन्होंने वीतराग सर्वज्ञ को देव माना है वे जैन लोग, वीतराग सर्वज्ञ को देव मानने वाले भक्त लोग प्रभु की स्थापना करके मूर्ति के समक्ष भी वंदन करते हैं, प्रणाम करते हैं । स्थापना किए जाने से वे प्रभु हैं, ठीक हैं, उनका वंदन प्रणाम कीजिये । अब यदि उनके प्रति भी यह भय रहे कि यदि मैं इनको न मानूंगा, इनको न पूजूंगा तो ये मुझे नरक पहुंचा देंगे या मुझे निर्धन बना देंगे । इस तरह की बात यहां भी हो तो इस भक्त ने उसे कुदेव बना डाला । वह स्वयं कुदेव तो नहीं है, वह अनंत ज्ञानादिक का निधान है, प्रभु है मगर भक्त ने जिस भाव से पूजा, जिस भाव से देखा उस भाव में उसकी दृष्टि में वह सुदेव न रहा । तो किसी भी देव के प्रति भय से प्रणाम विनय न हो । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जो वीतराग सर्वज्ञदेव में भक्ति करता है वह भय से नहीं करता किंतु स्वरूप की समता, मोक्षमार्ग का प्रकाश, उसके गुणों का स्पष्ट निर्णय, उसकी अपने स्वभाव से समानता आदिक का परिचय होने से वह उनकी भक्ति करता है । शुद्ध दृष्टिवाला पुरुष भय के वश होकर कुदेव की भक्ति नहीं करता ।</p> | ||
<p | <p><strong> आशा से भी कुदेव को प्रणाम विनय करने की ज्ञानी के असंभवता</strong>―ज्ञानी को ऐसी आशा नहीं होती कि इस कुदेव की भक्ति से मुझे धन लाभ होगा, मुकदमें में विजय होगी ।... किसी आशावश वह कुदेव का सत्कार नहीं करता । उसको स्पष्ट निर्णय है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को कुछ परिणति नहीं दे सकता । प्रथम तो संसार का समागम मेरे लिए अनर्थ है । अनंत ज्ञानशक्ति के निधान इस आत्मा भगवान को यहाँ के समागमों का लगाव बरबाद कर रहा है, इसका घात करता है । ज्ञानीजीव वस्तुस्वरूप को सही समझ रहा है । वह जानता है कि मेरे में परपदार्थ का विकल्प ही उत्पन्न होता है, कहीं दूसरे पदार्थ का संग मेरे में नही है । और जो कुछ समागम होता है वह पुण्यपाप का फल है । ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक योग है कि पुण्य का उदय आये तो ऐसे इष्ट समागम प्राप्त हो । अब वह निमित्त नैमित्तिक भावों में कोई कैसे विरोध कर सकेगा? होता है । उस योग को स्पष्ट जान भी नहीं पा रहा । मगर फल तो जान रहा तीर्थंकर प्रभु का जन्म हुआ और स्वर्ग में घंटा बजा, जहाँ जो कुछ शब्द हुआ, कहीं सिंहनाद हुआ कहीं धपधप बजा, इंद्र का आसन हिला, इन सबको कौन बजाने गया? कौन हिलाने गया? क्या उनके पुण्य परमाणु निकलकर उनमें टक्कर लगाने लगें? जो जहाँ है वहाँ ही है, पर कैसा निमित्त नैमित्तिक योग है कि तीर्थंकर का जन्म हुआ तो वहाँ ऐसे-ऐसे अतिशय होने लगे । यहाँ पर जितने जो कुछ वैभव आपको प्राप्त होते हैं वे आपके वर्तमान विकल्प से नहीं होते, वर्तमान परिणाम से नहीं होते, किंतु पूर्वबद्ध पुण्यकर्म के उदय का निमित्त पाकर होते हैं । बहुत दूर इष्ट पदार्थ हों वे भी पुण्य के उदय में निकट आ जाते है । आप स्वयं इष्ट पदार्थ के निकट पहुंच जायें पुण्य के उदय में ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक योग है । उसमें अपना क्या कर्तव्य है सो यह जिस तरह से हम विधि बांध चुके है उस तरह से होगा । अब हमारा वर्तमान कर्तव्य तो यह है कि अपने परिणाम निर्मल रहे, अन्यथा पहले कमाये हुए कर्म के उदय में तो ये कष्ट पा रहे हैं और अब भी परिणाम खोटा रखा जाय यह ही कष्ट पाने की परंपरा बनी रहेगी । सो वर्तमान में अपने भावों को स्वच्छ करने का कर्तव्य है । और कुछ आशा या भय आदिक लेकर कुदेव आदिक को प्रणाम करना और उसमें अपना बचाव सोचना संपन्नता सोचना यह बिल्कुल व्यामोह है । ज्ञानी जीव आशा के वश होकर भी कुदेव को प्रणाम नही करता । कुदेव कौन कहलाता? जो रागी द्वेषी हो, अल्पज्ञ हो और जिसको देवत्व की प्रसिद्धि की गई हो वह कहलाता है कुदेव । एक ज्ञानप्रकाश, यही ज्ञानी की दृष्टि में रहता है । यह ही ज्ञानतेज यही प्रभु कहलाता है, ऐसा मेरा भी स्वभाव है ऐसा मैं भी हो सकूंगा । यह नाता है प्रणाम विनय करने का । न कि लौकिक पदार्थों की आशा करके कुदेव को प्रणाम करना, विनय करना आधार है । तब अपने आप में अपनी बात घटाइये―अपने में क्या प्रकाश पा रहे है । कहा अपनी दृष्टि बन रही है? अपने स्वभाव को निरखिये और यह ही अनुभव कीजिए कि यह मैं आत्मतत्त्व हूँ, अन्य क्या नहीं हूँ, ऐसा दुर्लभ मानव जीवन पाकर, ऐसे जैनशासन, जैन देव, जैन शास्त्र, जैन गुरु में भक्ति न जगे, बल्कि कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म में भक्ति जगे तो बताओ यह मानव जीवन किसलिए पाया । देखिए सम्यक्त्व जब भी होगा सहज होगा । कोई कमर कसकर बैठे कि मैं इस समय सम्यक्त्व पैदा करता हूं तो यों सम्यक्त्व नहीं हुआ करता । सम्यक्त्व के जो उपाय हैं, उन उपायों में लगता रहे । सम्यक्त्व जब भी होगा तब सहज होगा । सम्यक्त्व प्राप्त होने का उपाय क्या है? सच्चे देव, शास्त्र, गुरु के प्रति आस्था होना और कुदेव, कुशास्त्र कुगुरु के प्रति लगाव न रहना । ज्ञानी जीव आशा के वश होकर कुदेव को प्रणाम विनय नहीं करता ।</p> | ||
<p | <p><strong> स्नेह एवं लोभ के वश भी कुदेवों को प्रणाम विनयादि करने की ज्ञानी के असंभवता</strong>―स्नेह के वंश होकर कि ये हमारे कुलदेवता हैं । हमारे कुल में इनकी पूजा होती चली आयी है अथवा ये मेरे पुरुखा है, ऐसे स्नेह से भी कुदेव को ज्ञानी पुरुष प्रणाम नहीं करता । लोभ के वश होकर भी ज्ञानी कुदेव को प्रणाम नहीं करता । मुझे इससे बड़ी प्राप्ति होगी, खूब धन लाभ होगा ऐसे ख्याल से भी ज्ञानी कुदेव को प्रणाम विनय नहीं करता । वास्तविकता यह है कि जिसने आत्मस्वरूप का परिचय पाया है उसकी दुनिया अलौकिक हो गई । उसे अब लोगो से मतलब न रहा । लोक में मेरी प्रतिष्ठा हो, या लोगों के द्वारा मेरा अपमान हो, किसी भी बात से मेरे मे कुछ असर नहीं होता, उन दूसरों की परिणति का फल उन्हें प्राप्त होगा, मेरी परिणति का फल मुझे प्राप्त होगा । तो ऐसा वस्तु-स्वातंत्र्य जानकर ज्ञानी जीव को पर से उपेक्षा हुई है, अपने आपमें धीरता हुई है, वह पुरुष लोभवश कुदेव को क्या नमस्कार करेगा?</p> | ||
<p | <p><strong> भय आशा स्नेह लोभ से भी कुशास्त्रों की आराधन की सम्यग्दृष्टि के असंभवता</strong>―कुशास्त्र जिन में रागद्वेषभरी बातें लिखी हैं जिन में पाप करने की प्रेरणा दी है ऐसे शास्त्र कुशास्त्र कहलाते है । हमारे कुल में ये-ये शास्त्र चले आये हैं, मैं अगर इनको न मानूँ तो मेरे पर आपत्तियां आ सकती हैं । पाप बंधेगा, कष्ट आयगा, इसलिए इन कुशास्त्रों को जो पुरखों से चले आये है, पूजते हैं, ऐसे भाव रखता है अज्ञानी मिथ्यादृष्टि । ज्ञानी जानता है कि किसी भी परद्रव्य की उपासना से मेरे को कुछ लाभ हानि नहीं, और पर की उपासना कोई कर ही नहीं सकता । जो भी उपासना करता है वह अपने आत्मा की उपासना करता है । आत्मा का जैसा स्वरूप नहीं है उस स्वरूप की उपासना करे तो वह मिथ्यात्व है और जैसा आत्मा का स्वरूप है वैसी उपासना करे तो वह सम्यक्त्व है । शुद्ध दृष्टि वाला पुरुष कुशास्त्र के भय से प्रणाम विनय नहीं करता, आशा से भी नहीं करता । इसमें अनेक मंत्र लिखे हैं, अनेक टोटका मंत्र चले है, इन शास्त्रों की विनय करें, इनके मंत्रों की साधना करेंगे तो लौकिक संपन्नता बढ़ेगी ऐसे भावों से भी ज्ञानी जीव कुशास्त्र को प्रणाम विनय नहीं करता । देखिये ज्ञानी जीव की केवल एक ही अभिलाषा होती कि मैं कैसे विकारों से हटकर अपने सहज स्वभाव में लगूं । दूसरी अभिलाषा नहीं होती । चूंकि शरीर है, प्राण रक्षा भी आवश्यक है, यों जबरदस्ती मरण करने से संसारचक्र न छूटेगा, किंतु यह जो भला जीवन है । इस जीवन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का संबंध बने तो यह संसारचक्र छूटेगा, इस कारण ज्ञानी के चित्त में दूसरी अभिलाषा रंच भी नहीं है । आखिर कुछ ही वर्षों बाद मरण होगा, यह शरीर जला दिया जायगा, जरा उस स्थिति को अपने ध्यान में तो लावो। आखिर मरण नियम से होगा, मरण के समय जो-जो स्थितियां आती हैं उन पर विचार तो करो । एक नीतिशास्त्र में बताया है कि अजरामखत्प्राज्ञों विद्यामर्थं च चिंतयेत् । गृहीत इवकेशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् । याने लौकिक विद्या और धन इन दो की कमाई तो तब हो पाती है जबकि कोई अपने को अजर अमर समझ रहा हो । यदि किसी के चित्त में यह बात घर कर जाय कि मेरा तो कुछ ही समय बाद मरण होने वाला है तो उसको न धन कमाने में उत्साह रहेगा न लौकिक विद्यायें सीखने में । हां अगर किसी को अपने मरण के संबंध में ध्यान बन जाय तो आत्मविद्या सीखने में जरूर उसकी रुचि बनेगी । मान लो किसी को फांसी लगने वाली है । उससे कोई कहे कि बोलो तुम क्या चीज खाना चाहते हो लड्डू, पेड़ा, बर्फी, रसगुल्ला वगैरह? तो वह तो यही कहेगा कि मुझे कुछ न चाहिये। ऐसे ही जब किसी को अपनी मृत्यु का सही-सही निर्णय हो जाता है तो उसे सांसारिक कोई भी समागम नहीं रुचता । जिसने अपनी मृत्यु का सही-सही निर्णय कर लिया वह पुरुष धर्म का आचरण करेगा । तो जिसने अपने स्वरूप का परिचय पाया वह कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु आदिक बाहरी बातों के पूजन वंदन में न लगेगा । भय, आशा, स्नेह, लोभ से यह सम्यग्दृष्टि जीव इन कुशास्त्रों को प्रणाम विनय नहीं करता।</p> | ||
<p | <p> <strong>भयादि किसी कारण से भी कुगुरु के प्रति आस्था की शुद्धबुद्धि आत्मा के असंभवता</strong>―कुगुरु जो विषयों की आशा के आधीन हैं, जो आरंभ परिग्रह में लगा करते हैं, जिनके चित्त में ज्ञान, ध्यान, तपश्चरण की बातें नहीं आती हैं, जिनको लौकिक पुजापने का भाव है वे पुरुष कुगुरु कहलाते हैं। ऐसे कुगुरुवों को सम्यग्दृष्टि जीव भय से भी प्रणाम विनय नहीं करता। हां मान लो कुछ परिस्थितिवश करना ही पड़े प्रणाम विनय किसी की जबरदस्ती करने से तो उसके सम्यक्त्व में दोष नहीं पैदा होने पाता । उसको स्वयं भीतर में श्रद्धा नही है और न वह प्रणाम विनय की वृत्ति से करता है । उसके दोष नहीं है । जैसे किसी ने खाने पीने की कोई चीज त्याग रखी है और कोई दूसरा उसे जबरदस्ती खिला पिला दे तो उसका नियम भंग न कहलायगा । सब बात अपनी भावना पर निर्भर है ज्ञानी जीव भय से कुगुरु को नमन नहीं करता । कहीं राजागण मुझे प्राण दंड न दे दें ऐसा भय ज्ञानी जीव को नहीं होता । ज्ञानी को भय किसका? लोग क्या कहेंगे? मुझको बुरा सोचेंगे या मुझ से लोग घृणा करेंगे तो यह सब उन्हीं का उन्हीं को भेंट होगा? मेरे पर उसका कुछ प्रभाव नहीं है । जिसका जैसा विचार होगा उसके अनुकूल कर्म का बंधन चलता है । ज्ञानी पुरुष क्यों भय करे । क्यों वह कुगुरु को वंदन करे ? उसे किसी का भी संकोच नहीं । वह केवल एक अपने में ज्ञानभावना बनाये हुए है । ज्ञान की चर्चा, ज्ञान से ही प्रसन्नता ऐसी जिसकी रुचि है वह ज्ञानी भय से भी कुगुरु को नमस्कार नहीं करता । आशा भी नहीं रखता कि ये सन्यासी जी मेरे को कोई मंत्र देंगे या मेरे पर कृपा करेंगे कि मैं मालोमाल होऊं या जो भी चाहे, ऐसी श्रद्धा ज्ञानी के नहीं है । वह जानता है कि मुझे बाहरी वैभव से भी प्रयोजन नहीं । मैं तो अपने में अपने स्वरूप को निरखता रहूँ, इसके अतिरिक्त कुछ न चाहिए । ज्ञानी जीव कुगुरु से कोई आशा नहीं रखता । स्नेह भी नहीं कि यह मेरा पड़ौसी है या इसको मेरे बाबा, पिता बड़े प्रेम से रखते आये हैं या किसी तरह का स्नेह करके कुगुरु को प्रणाम वंदन ज्ञानी पुरुष नहीं करता । वह तो अपने को अकिंचन मान रहा है । मेरा कुछ नहीं है, मैं अन्य किसी रूप नहीं, मैं अपने स्वरूपमात्र हूँ इस धुन में रहने वाला पवित्र व्यक्ति लोभ का भाव रखे यह नहीं हो सकता । कुगुरु को लोभवश भी वह प्रणाम विनय नहीं करता । धन मिले, रोग हटे, मुकदमें में विजय मिले आदिक किसी भी प्रकार के लोभ से सम्यग्दृष्टि जीव कुगुरु को प्रणाम विनय नहीं करता ।</p> | ||
<p | <p> <strong>ज्ञानी की दृष्टि की शुद्धता</strong>―देखिये लोक में कुदेव, कुशास्त्र कुगुरु का बड़ा ही प्रसार है । अच्छी चीज कम हुआ करती है, संसार का एक ऐसा प्राकृतिक नियम है । भले जीव जिन्होंने अपना ज्ञानप्रकाश पाया और उस ज्ञानभक्ति में रहा करते हैं ऐसे जीव इने गिने है, दुर्लभ हैं, बड़ी कठिनाई से मिलते हैं, शेष जीव तो विषय कषायों के अधीन हैं । अब उनमें कोई देवत्व की बुद्धि करें तो समझो कि उनके ज्ञान में कमी है । ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव को एक-दम यह निर्णय है कि सब असार है, सब बेकार है । एक अपना स्वभाव स्वरूप परमार्थ है । परमार्थ की दृष्टि में ही दुःखों का क्षय है, कर्मों का हटाव है, ऐसा निर्णय सम्यग्दृष्टि जीव के स्पष्ट बना हुआ है । वह किसी भय से, आशा से, स्नेह से, लोभ से, कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु का वंदन नहीं करता । थोड़ा लोक व्यवहार में एक अड़चन सी आती है, जिसके लिए लोग प्रश्न करते है कि कई प्रसंग ऐसे होते हैं कि हम पड़ौसी लोगों के साथ हैं और वे कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु के वंदन में भी चल रहे हैं, उनसे हमारे ताल्लुकात अच्छे हैं, हमारे उनसे बड़े काम बनते हैं तब फिर क्यों न उन जैसी क्रियायें करें? ऐसा एक प्रश्न होता है, तो भाई उनकी इस बात का उत्तर मेरे पास नहीं है । उसका उत्तर तो वे स्वयं ले लेंगे । ठीक है परिस्थितिवश जो करना पड़ रहा सो तो कर रहे, पर यह बात निश्चित है कि जिसकी जैसी भावना है उसको वैसा फल मिलेगा । जिसे कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु के प्रति आस्था है वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, वह नियम से संसार में रुलेगा । और जिसे सच्चे देवशास्त्र गुरु के प्रति श्रद्धा है वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है, उसका संसार बंधन कटेगा । तो चाहे कैसी ही स्थितियां आयें सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान रहे । इस सही श्रद्धान से विचलित न हों । इसके प्रताप से अपना सारा भविष्य उज्ज्वल बनेगा।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
भयाशा-स्नेह-लौभाच्च, कुदेवागमलिंगिनाम् ।
प्रणामं विनयं चेव, न कुर्य्यु: शुद्धदृष्टय: ।।30।।
सम्यग्दृष्टि के भयवश कुदेवों को प्रणाम विनय करने के भाव का अभाव―सम्यग्दर्शन की महिमा का संकेत करके अब इस श्लोक में यह कहा जा रहा है कि जो शुद्धदृष्टि वाला है, आत्मा के सहजस्वभाव का अनुभव कर चुकने वाला है ऐसा ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव भय से, आश से, स्नेह से, लोभ से, कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु को प्रणाम और विनय नहीं करते हैं । किन्हीं जीवों को भय हो जाता है कि इन कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरुवों को जिनको राजा मानता है, बड़े-बड़े नेता मानते हैं उन्हें मैं न मानूं तो ये लोग मेरे को न जाने क्या-क्या तकलीफ देंगे । अथवा ये ही देव, ये ही गुरु कहीं मेरे को पीड़ा न पहुंचा दें, ऐसा उनको भय हो जाता है किंतु सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को भय नहीं होता, क्योंकि वह अपने अविकार स्वरूप को निरख चुका । यह अमूर्त ज्ञानमात्र अविकार स्वरूप सदा अपनी सत्ता में रहने वाला, जिसका कभी विनाश नहीं हो सकता, जिसका सब कुछ इस मुझ पर ही निर्भर है, ऐसे ज्ञानानंद का निधान निज आत्मस्वरूप का परिचय हुआ है । इस कारण वह किसी भी अन्य कुदेव आदिक को भय से भी नमस्कार नहीं कर सकता । भय ही नहीं है इसके और फिर स्वरूपनिर्णय है कि कुदेव से मेरे को क्या भय? कुदेव कहते किसे हैं? जो देव तो नहीं हैं किंतु अपने को देवरूप में प्रसिद्ध करते हैं तो उसका नाम कुदेव है । वैसे कुदेव कोई चीज नहीं है । कोई भी जीव हो तो या तो वह देव होगा या देव न होगा, दो ही बातें हैं । कुदेव का मतलब क्या? देव तो नहीं है और उसे देव माने तो उसका नाम कुदेव पड़ता है । तो किसी भी व्यक्ति को कुदेव बनाने वाला कौन? भक्तजन, लौकिकजन और यदि वही व्यक्ति स्वयं अभिलाषा रखता है कि मैं देव की तरह पूजा जाऊं तो उसने अपनी ओर से अपने की कुदेव कर डाला । तो भय से ज्ञानी जीव कुदेव को प्रणाम और विनय नहीं करते । एक बात और ध्यान में देने की है कि जिन्होंने वीतराग सर्वज्ञ को देव माना है वे जैन लोग, वीतराग सर्वज्ञ को देव मानने वाले भक्त लोग प्रभु की स्थापना करके मूर्ति के समक्ष भी वंदन करते हैं, प्रणाम करते हैं । स्थापना किए जाने से वे प्रभु हैं, ठीक हैं, उनका वंदन प्रणाम कीजिये । अब यदि उनके प्रति भी यह भय रहे कि यदि मैं इनको न मानूंगा, इनको न पूजूंगा तो ये मुझे नरक पहुंचा देंगे या मुझे निर्धन बना देंगे । इस तरह की बात यहां भी हो तो इस भक्त ने उसे कुदेव बना डाला । वह स्वयं कुदेव तो नहीं है, वह अनंत ज्ञानादिक का निधान है, प्रभु है मगर भक्त ने जिस भाव से पूजा, जिस भाव से देखा उस भाव में उसकी दृष्टि में वह सुदेव न रहा । तो किसी भी देव के प्रति भय से प्रणाम विनय न हो । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जो वीतराग सर्वज्ञदेव में भक्ति करता है वह भय से नहीं करता किंतु स्वरूप की समता, मोक्षमार्ग का प्रकाश, उसके गुणों का स्पष्ट निर्णय, उसकी अपने स्वभाव से समानता आदिक का परिचय होने से वह उनकी भक्ति करता है । शुद्ध दृष्टिवाला पुरुष भय के वश होकर कुदेव की भक्ति नहीं करता ।
आशा से भी कुदेव को प्रणाम विनय करने की ज्ञानी के असंभवता―ज्ञानी को ऐसी आशा नहीं होती कि इस कुदेव की भक्ति से मुझे धन लाभ होगा, मुकदमें में विजय होगी ।... किसी आशावश वह कुदेव का सत्कार नहीं करता । उसको स्पष्ट निर्णय है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को कुछ परिणति नहीं दे सकता । प्रथम तो संसार का समागम मेरे लिए अनर्थ है । अनंत ज्ञानशक्ति के निधान इस आत्मा भगवान को यहाँ के समागमों का लगाव बरबाद कर रहा है, इसका घात करता है । ज्ञानीजीव वस्तुस्वरूप को सही समझ रहा है । वह जानता है कि मेरे में परपदार्थ का विकल्प ही उत्पन्न होता है, कहीं दूसरे पदार्थ का संग मेरे में नही है । और जो कुछ समागम होता है वह पुण्यपाप का फल है । ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक योग है कि पुण्य का उदय आये तो ऐसे इष्ट समागम प्राप्त हो । अब वह निमित्त नैमित्तिक भावों में कोई कैसे विरोध कर सकेगा? होता है । उस योग को स्पष्ट जान भी नहीं पा रहा । मगर फल तो जान रहा तीर्थंकर प्रभु का जन्म हुआ और स्वर्ग में घंटा बजा, जहाँ जो कुछ शब्द हुआ, कहीं सिंहनाद हुआ कहीं धपधप बजा, इंद्र का आसन हिला, इन सबको कौन बजाने गया? कौन हिलाने गया? क्या उनके पुण्य परमाणु निकलकर उनमें टक्कर लगाने लगें? जो जहाँ है वहाँ ही है, पर कैसा निमित्त नैमित्तिक योग है कि तीर्थंकर का जन्म हुआ तो वहाँ ऐसे-ऐसे अतिशय होने लगे । यहाँ पर जितने जो कुछ वैभव आपको प्राप्त होते हैं वे आपके वर्तमान विकल्प से नहीं होते, वर्तमान परिणाम से नहीं होते, किंतु पूर्वबद्ध पुण्यकर्म के उदय का निमित्त पाकर होते हैं । बहुत दूर इष्ट पदार्थ हों वे भी पुण्य के उदय में निकट आ जाते है । आप स्वयं इष्ट पदार्थ के निकट पहुंच जायें पुण्य के उदय में ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक योग है । उसमें अपना क्या कर्तव्य है सो यह जिस तरह से हम विधि बांध चुके है उस तरह से होगा । अब हमारा वर्तमान कर्तव्य तो यह है कि अपने परिणाम निर्मल रहे, अन्यथा पहले कमाये हुए कर्म के उदय में तो ये कष्ट पा रहे हैं और अब भी परिणाम खोटा रखा जाय यह ही कष्ट पाने की परंपरा बनी रहेगी । सो वर्तमान में अपने भावों को स्वच्छ करने का कर्तव्य है । और कुछ आशा या भय आदिक लेकर कुदेव आदिक को प्रणाम करना और उसमें अपना बचाव सोचना संपन्नता सोचना यह बिल्कुल व्यामोह है । ज्ञानी जीव आशा के वश होकर भी कुदेव को प्रणाम नही करता । कुदेव कौन कहलाता? जो रागी द्वेषी हो, अल्पज्ञ हो और जिसको देवत्व की प्रसिद्धि की गई हो वह कहलाता है कुदेव । एक ज्ञानप्रकाश, यही ज्ञानी की दृष्टि में रहता है । यह ही ज्ञानतेज यही प्रभु कहलाता है, ऐसा मेरा भी स्वभाव है ऐसा मैं भी हो सकूंगा । यह नाता है प्रणाम विनय करने का । न कि लौकिक पदार्थों की आशा करके कुदेव को प्रणाम करना, विनय करना आधार है । तब अपने आप में अपनी बात घटाइये―अपने में क्या प्रकाश पा रहे है । कहा अपनी दृष्टि बन रही है? अपने स्वभाव को निरखिये और यह ही अनुभव कीजिए कि यह मैं आत्मतत्त्व हूँ, अन्य क्या नहीं हूँ, ऐसा दुर्लभ मानव जीवन पाकर, ऐसे जैनशासन, जैन देव, जैन शास्त्र, जैन गुरु में भक्ति न जगे, बल्कि कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म में भक्ति जगे तो बताओ यह मानव जीवन किसलिए पाया । देखिए सम्यक्त्व जब भी होगा सहज होगा । कोई कमर कसकर बैठे कि मैं इस समय सम्यक्त्व पैदा करता हूं तो यों सम्यक्त्व नहीं हुआ करता । सम्यक्त्व के जो उपाय हैं, उन उपायों में लगता रहे । सम्यक्त्व जब भी होगा तब सहज होगा । सम्यक्त्व प्राप्त होने का उपाय क्या है? सच्चे देव, शास्त्र, गुरु के प्रति आस्था होना और कुदेव, कुशास्त्र कुगुरु के प्रति लगाव न रहना । ज्ञानी जीव आशा के वश होकर कुदेव को प्रणाम विनय नहीं करता ।
स्नेह एवं लोभ के वश भी कुदेवों को प्रणाम विनयादि करने की ज्ञानी के असंभवता―स्नेह के वंश होकर कि ये हमारे कुलदेवता हैं । हमारे कुल में इनकी पूजा होती चली आयी है अथवा ये मेरे पुरुखा है, ऐसे स्नेह से भी कुदेव को ज्ञानी पुरुष प्रणाम नहीं करता । लोभ के वश होकर भी ज्ञानी कुदेव को प्रणाम नहीं करता । मुझे इससे बड़ी प्राप्ति होगी, खूब धन लाभ होगा ऐसे ख्याल से भी ज्ञानी कुदेव को प्रणाम विनय नहीं करता । वास्तविकता यह है कि जिसने आत्मस्वरूप का परिचय पाया है उसकी दुनिया अलौकिक हो गई । उसे अब लोगो से मतलब न रहा । लोक में मेरी प्रतिष्ठा हो, या लोगों के द्वारा मेरा अपमान हो, किसी भी बात से मेरे मे कुछ असर नहीं होता, उन दूसरों की परिणति का फल उन्हें प्राप्त होगा, मेरी परिणति का फल मुझे प्राप्त होगा । तो ऐसा वस्तु-स्वातंत्र्य जानकर ज्ञानी जीव को पर से उपेक्षा हुई है, अपने आपमें धीरता हुई है, वह पुरुष लोभवश कुदेव को क्या नमस्कार करेगा?
भय आशा स्नेह लोभ से भी कुशास्त्रों की आराधन की सम्यग्दृष्टि के असंभवता―कुशास्त्र जिन में रागद्वेषभरी बातें लिखी हैं जिन में पाप करने की प्रेरणा दी है ऐसे शास्त्र कुशास्त्र कहलाते है । हमारे कुल में ये-ये शास्त्र चले आये हैं, मैं अगर इनको न मानूँ तो मेरे पर आपत्तियां आ सकती हैं । पाप बंधेगा, कष्ट आयगा, इसलिए इन कुशास्त्रों को जो पुरखों से चले आये है, पूजते हैं, ऐसे भाव रखता है अज्ञानी मिथ्यादृष्टि । ज्ञानी जानता है कि किसी भी परद्रव्य की उपासना से मेरे को कुछ लाभ हानि नहीं, और पर की उपासना कोई कर ही नहीं सकता । जो भी उपासना करता है वह अपने आत्मा की उपासना करता है । आत्मा का जैसा स्वरूप नहीं है उस स्वरूप की उपासना करे तो वह मिथ्यात्व है और जैसा आत्मा का स्वरूप है वैसी उपासना करे तो वह सम्यक्त्व है । शुद्ध दृष्टि वाला पुरुष कुशास्त्र के भय से प्रणाम विनय नहीं करता, आशा से भी नहीं करता । इसमें अनेक मंत्र लिखे हैं, अनेक टोटका मंत्र चले है, इन शास्त्रों की विनय करें, इनके मंत्रों की साधना करेंगे तो लौकिक संपन्नता बढ़ेगी ऐसे भावों से भी ज्ञानी जीव कुशास्त्र को प्रणाम विनय नहीं करता । देखिये ज्ञानी जीव की केवल एक ही अभिलाषा होती कि मैं कैसे विकारों से हटकर अपने सहज स्वभाव में लगूं । दूसरी अभिलाषा नहीं होती । चूंकि शरीर है, प्राण रक्षा भी आवश्यक है, यों जबरदस्ती मरण करने से संसारचक्र न छूटेगा, किंतु यह जो भला जीवन है । इस जीवन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का संबंध बने तो यह संसारचक्र छूटेगा, इस कारण ज्ञानी के चित्त में दूसरी अभिलाषा रंच भी नहीं है । आखिर कुछ ही वर्षों बाद मरण होगा, यह शरीर जला दिया जायगा, जरा उस स्थिति को अपने ध्यान में तो लावो। आखिर मरण नियम से होगा, मरण के समय जो-जो स्थितियां आती हैं उन पर विचार तो करो । एक नीतिशास्त्र में बताया है कि अजरामखत्प्राज्ञों विद्यामर्थं च चिंतयेत् । गृहीत इवकेशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् । याने लौकिक विद्या और धन इन दो की कमाई तो तब हो पाती है जबकि कोई अपने को अजर अमर समझ रहा हो । यदि किसी के चित्त में यह बात घर कर जाय कि मेरा तो कुछ ही समय बाद मरण होने वाला है तो उसको न धन कमाने में उत्साह रहेगा न लौकिक विद्यायें सीखने में । हां अगर किसी को अपने मरण के संबंध में ध्यान बन जाय तो आत्मविद्या सीखने में जरूर उसकी रुचि बनेगी । मान लो किसी को फांसी लगने वाली है । उससे कोई कहे कि बोलो तुम क्या चीज खाना चाहते हो लड्डू, पेड़ा, बर्फी, रसगुल्ला वगैरह? तो वह तो यही कहेगा कि मुझे कुछ न चाहिये। ऐसे ही जब किसी को अपनी मृत्यु का सही-सही निर्णय हो जाता है तो उसे सांसारिक कोई भी समागम नहीं रुचता । जिसने अपनी मृत्यु का सही-सही निर्णय कर लिया वह पुरुष धर्म का आचरण करेगा । तो जिसने अपने स्वरूप का परिचय पाया वह कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु आदिक बाहरी बातों के पूजन वंदन में न लगेगा । भय, आशा, स्नेह, लोभ से यह सम्यग्दृष्टि जीव इन कुशास्त्रों को प्रणाम विनय नहीं करता।
भयादि किसी कारण से भी कुगुरु के प्रति आस्था की शुद्धबुद्धि आत्मा के असंभवता―कुगुरु जो विषयों की आशा के आधीन हैं, जो आरंभ परिग्रह में लगा करते हैं, जिनके चित्त में ज्ञान, ध्यान, तपश्चरण की बातें नहीं आती हैं, जिनको लौकिक पुजापने का भाव है वे पुरुष कुगुरु कहलाते हैं। ऐसे कुगुरुवों को सम्यग्दृष्टि जीव भय से भी प्रणाम विनय नहीं करता। हां मान लो कुछ परिस्थितिवश करना ही पड़े प्रणाम विनय किसी की जबरदस्ती करने से तो उसके सम्यक्त्व में दोष नहीं पैदा होने पाता । उसको स्वयं भीतर में श्रद्धा नही है और न वह प्रणाम विनय की वृत्ति से करता है । उसके दोष नहीं है । जैसे किसी ने खाने पीने की कोई चीज त्याग रखी है और कोई दूसरा उसे जबरदस्ती खिला पिला दे तो उसका नियम भंग न कहलायगा । सब बात अपनी भावना पर निर्भर है ज्ञानी जीव भय से कुगुरु को नमन नहीं करता । कहीं राजागण मुझे प्राण दंड न दे दें ऐसा भय ज्ञानी जीव को नहीं होता । ज्ञानी को भय किसका? लोग क्या कहेंगे? मुझको बुरा सोचेंगे या मुझ से लोग घृणा करेंगे तो यह सब उन्हीं का उन्हीं को भेंट होगा? मेरे पर उसका कुछ प्रभाव नहीं है । जिसका जैसा विचार होगा उसके अनुकूल कर्म का बंधन चलता है । ज्ञानी पुरुष क्यों भय करे । क्यों वह कुगुरु को वंदन करे ? उसे किसी का भी संकोच नहीं । वह केवल एक अपने में ज्ञानभावना बनाये हुए है । ज्ञान की चर्चा, ज्ञान से ही प्रसन्नता ऐसी जिसकी रुचि है वह ज्ञानी भय से भी कुगुरु को नमस्कार नहीं करता । आशा भी नहीं रखता कि ये सन्यासी जी मेरे को कोई मंत्र देंगे या मेरे पर कृपा करेंगे कि मैं मालोमाल होऊं या जो भी चाहे, ऐसी श्रद्धा ज्ञानी के नहीं है । वह जानता है कि मुझे बाहरी वैभव से भी प्रयोजन नहीं । मैं तो अपने में अपने स्वरूप को निरखता रहूँ, इसके अतिरिक्त कुछ न चाहिए । ज्ञानी जीव कुगुरु से कोई आशा नहीं रखता । स्नेह भी नहीं कि यह मेरा पड़ौसी है या इसको मेरे बाबा, पिता बड़े प्रेम से रखते आये हैं या किसी तरह का स्नेह करके कुगुरु को प्रणाम वंदन ज्ञानी पुरुष नहीं करता । वह तो अपने को अकिंचन मान रहा है । मेरा कुछ नहीं है, मैं अन्य किसी रूप नहीं, मैं अपने स्वरूपमात्र हूँ इस धुन में रहने वाला पवित्र व्यक्ति लोभ का भाव रखे यह नहीं हो सकता । कुगुरु को लोभवश भी वह प्रणाम विनय नहीं करता । धन मिले, रोग हटे, मुकदमें में विजय मिले आदिक किसी भी प्रकार के लोभ से सम्यग्दृष्टि जीव कुगुरु को प्रणाम विनय नहीं करता ।
ज्ञानी की दृष्टि की शुद्धता―देखिये लोक में कुदेव, कुशास्त्र कुगुरु का बड़ा ही प्रसार है । अच्छी चीज कम हुआ करती है, संसार का एक ऐसा प्राकृतिक नियम है । भले जीव जिन्होंने अपना ज्ञानप्रकाश पाया और उस ज्ञानभक्ति में रहा करते हैं ऐसे जीव इने गिने है, दुर्लभ हैं, बड़ी कठिनाई से मिलते हैं, शेष जीव तो विषय कषायों के अधीन हैं । अब उनमें कोई देवत्व की बुद्धि करें तो समझो कि उनके ज्ञान में कमी है । ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव को एक-दम यह निर्णय है कि सब असार है, सब बेकार है । एक अपना स्वभाव स्वरूप परमार्थ है । परमार्थ की दृष्टि में ही दुःखों का क्षय है, कर्मों का हटाव है, ऐसा निर्णय सम्यग्दृष्टि जीव के स्पष्ट बना हुआ है । वह किसी भय से, आशा से, स्नेह से, लोभ से, कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु का वंदन नहीं करता । थोड़ा लोक व्यवहार में एक अड़चन सी आती है, जिसके लिए लोग प्रश्न करते है कि कई प्रसंग ऐसे होते हैं कि हम पड़ौसी लोगों के साथ हैं और वे कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु के वंदन में भी चल रहे हैं, उनसे हमारे ताल्लुकात अच्छे हैं, हमारे उनसे बड़े काम बनते हैं तब फिर क्यों न उन जैसी क्रियायें करें? ऐसा एक प्रश्न होता है, तो भाई उनकी इस बात का उत्तर मेरे पास नहीं है । उसका उत्तर तो वे स्वयं ले लेंगे । ठीक है परिस्थितिवश जो करना पड़ रहा सो तो कर रहे, पर यह बात निश्चित है कि जिसकी जैसी भावना है उसको वैसा फल मिलेगा । जिसे कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु के प्रति आस्था है वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, वह नियम से संसार में रुलेगा । और जिसे सच्चे देवशास्त्र गुरु के प्रति श्रद्धा है वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है, उसका संसार बंधन कटेगा । तो चाहे कैसी ही स्थितियां आयें सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान रहे । इस सही श्रद्धान से विचलित न हों । इसके प्रताप से अपना सारा भविष्य उज्ज्वल बनेगा।