वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 29
From जैनकोष
श्वापि देवापि देव: श्वा, जायते धर्मकिल्विषात्।
कापि नाम भवेदन्या, सम्यद्धर्धाच्छदीरिणाम्।।29।।
धर्म और अधर्म के फल का उदाहरण―धर्म के प्रभाव से कुत्ता भी देव हो जाता है और पाप के प्रभाव से देव भी कुत्ता हो जाता है। संज्ञी पंचेंद्रिय जीव ही देवगति में उत्पन्न हो पाते हैं, उनमें भी नारकी देव गति में उत्पन्न नहीं होते। मनुष्य और संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच ये ही देवगति में उत्पन्न होते हैं इस कारण यहाँ उदाहरण कुत्ते का दिया है। वैसे कुत्ता पशुवों में एक निंद्य पशु माना जाता है। हर कोई कुत्ते को धुधकार देता है। तो धुधकारा जाने वाला कुत्ता भी यदि उसके धर्म है, सम्यक्त्व है, मंदकषाय है तो वह मर कर देव बन जाता है और देव भी पाप के प्रताप से कुत्ता बन जाता है। देवगति के जीव मरकर दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय में उत्पन्न नहीं होते। एकेंद्रिय जीवों में पहिले और दूसरे स्वर्ग के देव भी उत्पन्न हो सकते हैं, उससे ऊपर के नहीं और 12वें स्वर्ग तक के देव तिर्यंच पंचेंद्रिय हो सकते हैं। तो देवगति में जन्म ले लिया, वहाँ पाप के परिणाम रहें तो वह भी मरकर कुत्ता बन सकता है फिर जो विशिष्ट मनुष्यजन हों और धर्म धारण करते हों तो उनको कोई भी भले प्रकार की संपदा प्राप्त हो जाती है, अहमिंद्र पद प्राप्त हो जाता है। अहमिंद्र होते हैं स्वर्गों से ऊपर। जिन ऊर्ध्व के विमानों के स्थानों में इंद्र सामानिक आदिक भेद नहीं होते, सभी देव समान होते हैं इसलिए वे अहमिंद्र कहलाते हैं। अहंइंद्र, हर एक के ऐसा ही अनुभव है कि मैं इंद्र हूं, क्योंकि उन पर कोई आज्ञा करने वाला नहीं है। इसलिए सभी अहमिंद्र कहलाते है। तो धर्म के प्रताप से इन प्राणियों की अहमिंद्रादिक पद जैसी कोई भी संपति प्राप्त हो जाती है और धर्म के फल में तो मोक्ष ही बताया गया है, पर धर्म करते हुए भी रागद्वेष होने से जो प्रवृत्ति होती है उसके फल में वह स्वर्गादिक जायगा ।
मिथ्यात्व की अनर्थकारिता―यहां यह शिक्षा दी है कि मिथ्यात्व बड़ा अनर्थकारी है । अधर्म मायने मिथ्यात्व, अधर्म में प्रधान मिथ्यात्व है, । जहाँ आत्मा का होश ही नहीं है, बाह्य पदार्थों में अहंकार और ममकार बसा है, उससे निराला कोई स्वतंत्र मैं आत्मा हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, सबसे निराला हूं। इसका भान न हो तो यह तो बहुत बड़ी विपत्ति है, क्योंकि संसार में जितने भी कष्ट है सब मोह के है और अपने आत्मा का यथार्थस्वरूप भान में जो लेता रहे, उसको कोई कष्ट ही नहीं । यह मेरा है, धन स्त्री पुत्रादिक मेरे है, इस प्रकार भीतर में श्रद्धान बसा है तो उसे के कारण स्वयं ही आकुलता होगी । आकुलता कहीं पुत्रादिक की प्रेरणा से नहीं मिलती किंतु स्वयं के विकल्प से मिलती है । जिस जीव के सम्यक्त्व है वह प्रत्येक स्थिति में धैर्य रखें, क्षोभ न करें, वस्तुस्वरूप को ध्यान में रखें तो उसको आकुलता न होगी । तो मिथ्यात्व महान अनर्थकारी है, इसके ही कारण चतुर्गति में परिभ्रमण करना पड़ता है । जो जीव अब तक संसार में रुल रहे वे इस मिथ्यात्व के ही कारण रुल रहे । जैसे बाह्य चीजों में निमित्त नैमित्तिक योग होता है अग्नि पर रोटी सिकी, पानी में शक्कर डाल दी गई तो वह घुल गई, तो जैसे बाह्य पदार्थों में निमित्त नैमित्तिक व्यवस्था है ऐसे ही जीव के विकारों में निमित्त नैमित्तिक व्यवस्था है । विकार हुआ, उसका निमित्त पाकर कर्म स्वयं बंध गए, कार्माणवर्गणायें कर्मरूप बन गई । अब बंधे हुए कर्मों का उदयकाल आया तो उसके उदय का निमित्त पाकर जीव में विकारभाव आ गया, यह स्पष्ट निमित्त नैमित्तिक व्यवस्था है आत्मा तो स्वयं सहज ज्ञान स्वभावमात्र है । उसमें अपने आप न विकार है न कोई कष्ट है । पर इस जीव का कितना बड़ी अपराध है कि कर्म विपाककाल में जो इस उपयोग पर छाया आयी, प्रतिफलन हुआ उस रूप जीव अपने को स्वीकार कर लेता है । न करे स्वीकार तो किसी की जबरदस्ती है क्या कि इसको विकार स्वीकार करना ही पड़ेगा, नहीं है जबरदस्ती, मगर वह उमंग से विकारों को स्वीकार करता है । यह ही मिथ्यात्व है । कर्मोदय आया, उसका प्रतिफलन हुआ, ज्ञानबल से उनका ज्ञाता रहे तो वह मोक्षमार्ग में बढ़ जायगा । तो मिथ्यादर्शन के समान कोई विपत्ति नही ।
विषयों को हेय जानकर उनसे उपेक्षा करके सम्यक्त्वलाभ का यत्न करने का अनुरोध―जो लोग कुछ धनिक होकर कुछ मौज के साधन पाकर गर्व में आते हैं कि हमें सब कुछ मिला है, वे मनमाने विषय भोगों में स्वच्छंद आचरण करेंगे । बाहरी-बाहरी व्यवस्था प्रबंधों में रहेंगे, बाह्य पदार्थों के संचय में ही मौज मानेंगे तो उनको भविष्य में बड़ा कष्ट भोगना पड़ेगा । तो इस जीवन में एक यह ही छांट होनी चाहिये कि हे प्रभो, हे सहज परमात्म-तत्त्व मेरे में मिथ्यात्व मत जगे, मेरे सहजस्वरूप की सुध न छूटे, मैं अपने उपयोग में अपने सहज चैतन्यस्वभाव को निरखता रहूं तो वहां किसी प्रकार का कष्ट न आयगा और एक अपनी सुध छोड़ दूं तो सुध छोड़ना ही स्वयं कष्ट-रूप है । फिर वहाँ किसी भी बाह्य पदार्थ का आलंबन लेकर अपने को व्यर्थ दुःखी अनुभव करें । और यह सम्यग्दर्शन जहां कि अपने सहज स्वरूप की सुध रहती है । मैं चैतन्यमात्र हूँ, अपनी सत्ता से परिपूर्ण हूँ, किसी बाह्य पदार्थ का मैं कर्ता भोक्ता नहीं हूँ । मेरे में अपने आप में उत्पाद व्यय धौव्य निरंतर चलते रहते है, ऐसी अपने आपके स्वरूप की सुध हो तो वहाँ किसी प्रकार का कष्ट नहीं है । अपने को अपने में देखो, आनंदमय अनुभवो, बस उसका मार्ग भला ही होता जायेगा और निकट काल में वह समस्त संसार के संकटों से छुटकारा पा लेगा । इस कारण मानव जीवन में एक सम्यक्त्व लाभ का प्रयत्न बन गया है तो समझो कि हमने सर्व कुछ पा लिया, क्योंकि जहाँ कोई कष्ट न रहे वही तो वैभव कहलाता है । तो इस सम्यक्त्व के प्रताप से सद्गति प्राप्त होती है मोक्षमार्ग का लाभ होता है और तपश्चरण करके मुक्ति प्राप्त होती है । इस कारण अधर्म से हटना, धर्म में लगना यह ही इस जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ।