समयसार - गाथा 324: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p><strong>ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति | <div class="PravachanText"><p><strong>ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदियत्था।</p> | ||
<p>जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि।।324।। </strong></p> | |||
<p><strong>व्यवहारभाषा का प्रयोग</strong>―व्यवहार के वचनों द्वारा अविदित परमार्थजन तो कहते हैं कि परद्रव्य मेरे हैं और जो निश्चय करके जानते हैं वे कहते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। यह अर्थ हुआ आत्मख्याति के रचियता अमृतचंद्र सूरि ने जो गाथा की है और जयसेनाचार्य ने अविदियत्था की जगह विदियत्था कहा है जिससे यह अर्थ होता है कि पंडितजन, तत्त्वज्ञानी पुरूष व्यवहारभाषा में ही ऐसा कहते हैं कि परद्रव्य मेरे हैं। निश्चय से तो वे जानते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं हैं। जैसे अभी आपका सिरदर्द हो और आपको अमृतांजन मंगाना है, तो क्या आप ऐसा कहेंगे कि असाता वेदनीय के उदय का निमित्त पाकर शरीर नो कर्म में कुछ रूधिर की रूकावट होने के आश्रय से इस आत्मा में पीड़ा का परिणमन उपभोग में हो रहा है, सो इसके विनाश के लिए उसके निमित्त का निमित्तभूत अमृतांजन ला दीजिए। कोई इतना कहेगा क्या ? अरे इतना कहने का उसके पास अवसर ही नहीं है। सीधा कह देगा कि भाई सिर में दर्द है अमृतांजन ले आवो। तो कोई निश्चय एकांती यह कह बैठे कि तुम बहुत झूठ बोलते हो, अरे तुम्हारे सिर कहां है, तुम्हारे दर्द कहां है और अमृतांजन दर्द को कैसे मिटा सकेगा ? क्या एक वस्तु दूसरे वस्तु का कुछ करता भी है। अरे संसारी बातों का जो आशय है उसे जान जावो। कि कहने को तो सभी कहते है।</p> | <p><strong>व्यवहारभाषा का प्रयोग</strong>―व्यवहार के वचनों द्वारा अविदित परमार्थजन तो कहते हैं कि परद्रव्य मेरे हैं और जो निश्चय करके जानते हैं वे कहते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। यह अर्थ हुआ आत्मख्याति के रचियता अमृतचंद्र सूरि ने जो गाथा की है और जयसेनाचार्य ने अविदियत्था की जगह विदियत्था कहा है जिससे यह अर्थ होता है कि पंडितजन, तत्त्वज्ञानी पुरूष व्यवहारभाषा में ही ऐसा कहते हैं कि परद्रव्य मेरे हैं। निश्चय से तो वे जानते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं हैं। जैसे अभी आपका सिरदर्द हो और आपको अमृतांजन मंगाना है, तो क्या आप ऐसा कहेंगे कि असाता वेदनीय के उदय का निमित्त पाकर शरीर नो कर्म में कुछ रूधिर की रूकावट होने के आश्रय से इस आत्मा में पीड़ा का परिणमन उपभोग में हो रहा है, सो इसके विनाश के लिए उसके निमित्त का निमित्तभूत अमृतांजन ला दीजिए। कोई इतना कहेगा क्या ? अरे इतना कहने का उसके पास अवसर ही नहीं है। सीधा कह देगा कि भाई सिर में दर्द है अमृतांजन ले आवो। तो कोई निश्चय एकांती यह कह बैठे कि तुम बहुत झूठ बोलते हो, अरे तुम्हारे सिर कहां है, तुम्हारे दर्द कहां है और अमृतांजन दर्द को कैसे मिटा सकेगा ? क्या एक वस्तु दूसरे वस्तु का कुछ करता भी है। अरे संसारी बातों का जो आशय है उसे जान जावो। कि कहने को तो सभी कहते है।</p> | ||
<p><strong>व्यवहारवचन और यथार्थ ज्ञान</strong>―भैया ! अभी आपसे पूछें कि यह लड़का किसका है ? तो आप कहते हैं कि महाराज आपका ही है और हम पकड़कर ले जायें कि अब घर में न रहने दो, हमारे संग में कर दो, इसे पढ़ाकर हित का अवसर देंगे क्योंकि हमारा ही तो लड़का है। तो न देंगे, क्योंकि आप तो व्यवहार भाषा में कह रहे थे। किंतु ऐसी ही आपको जानकारी हो, ऐसी बात नहीं है। क्या आप जान रहे हैं कि यह लड़का त्यागी का है ? नहीं जान रहे हैं और कह रहे कि साहब आपका ही बच्चा है, आपका ही मकान है। यहां तो इतनी गनीमत है कि अगर स्त्री को पूछें कि यह किसकी स्त्री है? तो यह कोई न कह देगा कि यह स्त्री त्यागी जी आपकी है। भला वैभव पूछें, धन पूछें तो कह देते हैं कि आपका ही है तो यह व्यवहार भाषा ही हुई और आपका जो ज्ञान है, सो ही है।</p> | <p><strong>व्यवहारवचन और यथार्थ ज्ञान</strong>―भैया ! अभी आपसे पूछें कि यह लड़का किसका है ? तो आप कहते हैं कि महाराज आपका ही है और हम पकड़कर ले जायें कि अब घर में न रहने दो, हमारे संग में कर दो, इसे पढ़ाकर हित का अवसर देंगे क्योंकि हमारा ही तो लड़का है। तो न देंगे, क्योंकि आप तो व्यवहार भाषा में कह रहे थे। किंतु ऐसी ही आपको जानकारी हो, ऐसी बात नहीं है। क्या आप जान रहे हैं कि यह लड़का त्यागी का है ? नहीं जान रहे हैं और कह रहे कि साहब आपका ही बच्चा है, आपका ही मकान है। यहां तो इतनी गनीमत है कि अगर स्त्री को पूछें कि यह किसकी स्त्री है? तो यह कोई न कह देगा कि यह स्त्री त्यागी जी आपकी है। भला वैभव पूछें, धन पूछें तो कह देते हैं कि आपका ही है तो यह व्यवहार भाषा ही हुई और आपका जो ज्ञान है, सो ही है।</p> | ||
<p>व्यवहार में आप और तरह बोल रहे हो। </p> | <p>व्यवहार में आप और तरह बोल रहे हो। </p> | ||
<p><strong>केवल का ज्ञान</strong>―एक बात विचारने की है कि केवलज्ञान क्या जानता है? तो एक शब्दार्थ ही अगर तको तो अर्थ मिलेगा केवलज्ञान केवल का ज्ञान करता है, अर्थात केवल एक-एक जितने भी द्रव्य हैं उन सब द्रव्यों का ज्ञान करता है। अभी इस मार्ग से यदि जावो तो भगवान न मकान देखता है और न कोई समानजातीय या असमानजातीय पर्याय को निरखता है, उनके तो समस्त केवल एक-एक समस्त पदार्थों का ज्ञान है, और वही परमार्थ सत् है और उसमें होने वाला जो कुछ परिणमन है वह शेष सब व्यवहार है। <strong>व्यवहारभाषा का लक्ष्य</strong>―व्यवहार की भाषा से पंडितजन ‘ये परद्रव्य मेरे हैं’ ऐसा बोलते हैं परंतु निश्चय से वे जानते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। अभी कुछ शब्दों की संस्कृत बनायी जाने लगी है तो किन्ही किन्ही के शब्द तो बड़े अटपट बनाए जाते हैं। अब जैसे एक शब्द है चाय। कोई जाकर कहे कि हमें चाय दो। तो चाय की संस्कृत जरा अच्छी बनावो। कुछ बात न छूटे और पूरा अर्थ आ जाय। तो एक ने बनाया कि ‘दुग्धशर्करामिश्रित विशिष्ट पत्रतप्तरसं देहि।’इतना बोलने में तो कहो गाड़ी छूट जाय। व्यवहार भाषा में बोलना अनर्थ नहीं है, मगर ज्ञान में यह बात आ जाय कि यह परद्रव्य मेरा है तो अनर्थ है। यों तो व्यवहार भाषा में क्या-क्या नहीं कहते ?</p> | <p><strong>केवल का ज्ञान</strong>―एक बात विचारने की है कि केवलज्ञान क्या जानता है? तो एक शब्दार्थ ही अगर तको तो अर्थ मिलेगा केवलज्ञान केवल का ज्ञान करता है, अर्थात केवल एक-एक जितने भी द्रव्य हैं उन सब द्रव्यों का ज्ञान करता है। अभी इस मार्ग से यदि जावो तो भगवान न मकान देखता है और न कोई समानजातीय या असमानजातीय पर्याय को निरखता है, उनके तो समस्त केवल एक-एक समस्त पदार्थों का ज्ञान है, और वही परमार्थ सत् है और उसमें होने वाला जो कुछ परिणमन है वह शेष सब व्यवहार है।</p><p><strong>व्यवहारभाषा का लक्ष्य</strong>―व्यवहार की भाषा से पंडितजन ‘ये परद्रव्य मेरे हैं’ ऐसा बोलते हैं परंतु निश्चय से वे जानते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। अभी कुछ शब्दों की संस्कृत बनायी जाने लगी है तो किन्ही किन्ही के शब्द तो बड़े अटपट बनाए जाते हैं। अब जैसे एक शब्द है चाय। कोई जाकर कहे कि हमें चाय दो। तो चाय की संस्कृत जरा अच्छी बनावो। कुछ बात न छूटे और पूरा अर्थ आ जाय। तो एक ने बनाया कि ‘दुग्धशर्करामिश्रित विशिष्ट पत्रतप्तरसं देहि।’इतना बोलने में तो कहो गाड़ी छूट जाय। व्यवहार भाषा में बोलना अनर्थ नहीं है, मगर ज्ञान में यह बात आ जाय कि यह परद्रव्य मेरा है तो अनर्थ है। यों तो व्यवहार भाषा में क्या-क्या नहीं कहते ?</p> | ||
<p><strong>व्यवहारभाषा के व्यवहार और उसके प्रयोजन</strong>―जैसे धर्मशाला में आप दो दिन को ठहर जाए और जिस कमरे में ठहरें तो आप लोगों से कहते है कि चलो हमारे कमरे में, चलो हमारी धर्मशाला में। लो, अब वह आपका कमरा हो गया। तो क्या ज्ञान में यह बात है कि मेरा कमरा है? नहीं है। और व्यवहारभाषा में यह बात बोल रहे हैं कि यह मेरा कमरा है। घी का डिब्बा। क्या आपके ज्ञान में भी यह बात बसी है कि घी से रचा हुआ यह डिब्बा है ? नहीं। आप जानते हैं कि यह टीन का डिब्बा है और इसमें घी रखा है। जिस लोटे से आप टट्टी जाया करते हैं-आप बोलते हैं कि यह टट्टी का लोटा है, यह पीने का लोटा है, यह चौके का लोटा है। आपके ज्ञान में क्या यह रहता है कि यह टट्टी का लोटा है? नहीं । आप तो जानते हैं कि यह पीतल का लोटा है, इसको संडास में ले जाया जाता हैं, इसलिए इसका नाम टट्टी का लोटा है। अब जल्दी-जल्दी में क्या बोलें? क्या यह बोलें कि देखो जिस लोटे के आधार में पानी को लेकर संडास में जाया जाता है वह लोटा दो। क्या कोई इतना बड़ा वाक्य बोलता है? नहीं। तो व्यवहार भाषा किसी मर्म को संक्षेप करने के लिए होती है और निश्चय का ज्ञान उससे भी अति संक्षेप लिए हुए होता है।</p> | <p><strong>व्यवहारभाषा के व्यवहार और उसके प्रयोजन</strong>―जैसे धर्मशाला में आप दो दिन को ठहर जाए और जिस कमरे में ठहरें तो आप लोगों से कहते है कि चलो हमारे कमरे में, चलो हमारी धर्मशाला में। लो, अब वह आपका कमरा हो गया। तो क्या ज्ञान में यह बात है कि मेरा कमरा है? नहीं है। और व्यवहारभाषा में यह बात बोल रहे हैं कि यह मेरा कमरा है। घी का डिब्बा। क्या आपके ज्ञान में भी यह बात बसी है कि घी से रचा हुआ यह डिब्बा है ? नहीं। आप जानते हैं कि यह टीन का डिब्बा है और इसमें घी रखा है। जिस लोटे से आप टट्टी जाया करते हैं-आप बोलते हैं कि यह टट्टी का लोटा है, यह पीने का लोटा है, यह चौके का लोटा है। आपके ज्ञान में क्या यह रहता है कि यह टट्टी का लोटा है? नहीं । आप तो जानते हैं कि यह पीतल का लोटा है, इसको संडास में ले जाया जाता हैं, इसलिए इसका नाम टट्टी का लोटा है। अब जल्दी-जल्दी में क्या बोलें? क्या यह बोलें कि देखो जिस लोटे के आधार में पानी को लेकर संडास में जाया जाता है वह लोटा दो। क्या कोई इतना बड़ा वाक्य बोलता है? नहीं। तो व्यवहार भाषा किसी मर्म को संक्षेप करने के लिए होती है और निश्चय का ज्ञान उससे भी अति संक्षेप लिए हुए होता है।</p> | ||
<p><strong>व्यवहार का प्रयोजन निर्वाह</strong>―भंगी लोग मकानों को लिए रहते हैं उनके संडास साफ करने के लिए। तो वे भी कहते हैं कि मेरे ये 7 मकान हैं जो जो बड़ी हवेली खड़ी है ना, भंगी कह रहा हैं कि ये मेरी है। तुम्हारी कितनी हवेली हैं? अजी हमारे 15 हवेली हैं, सेठजी के कितने हैं? सेठजी के एक हवेली है और उनके 10, 15 और जरूरत पड़े तो हवेली गिरवी भी रख देते हैं। दूसरे भंगी को 25) में दे दिया बिना ब्याज के। जब चुका दे 20) तो हवेली ले लेते हैं। तो प्रयोजनवश व्यवहार भाषा में कुछ से कुछ बोला जाता है। पर पंडित जन निश्चय की बात से अनभिज्ञ नहीं होते हैं। </p> | <p><strong>व्यवहार का प्रयोजन निर्वाह</strong>―भंगी लोग मकानों को लिए रहते हैं उनके संडास साफ करने के लिए। तो वे भी कहते हैं कि मेरे ये 7 मकान हैं जो जो बड़ी हवेली खड़ी है ना, भंगी कह रहा हैं कि ये मेरी है। तुम्हारी कितनी हवेली हैं? अजी हमारे 15 हवेली हैं, सेठजी के कितने हैं? सेठजी के एक हवेली है और उनके 10, 15 और जरूरत पड़े तो हवेली गिरवी भी रख देते हैं। दूसरे भंगी को 25) में दे दिया बिना ब्याज के। जब चुका दे 20) तो हवेली ले लेते हैं। तो प्रयोजनवश व्यवहार भाषा में कुछ से कुछ बोला जाता है। पर पंडित जन निश्चय की बात से अनभिज्ञ नहीं होते हैं। </p> |
Latest revision as of 16:27, 4 October 2021
ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदियत्था।
जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि।।324।।
व्यवहारभाषा का प्रयोग―व्यवहार के वचनों द्वारा अविदित परमार्थजन तो कहते हैं कि परद्रव्य मेरे हैं और जो निश्चय करके जानते हैं वे कहते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। यह अर्थ हुआ आत्मख्याति के रचियता अमृतचंद्र सूरि ने जो गाथा की है और जयसेनाचार्य ने अविदियत्था की जगह विदियत्था कहा है जिससे यह अर्थ होता है कि पंडितजन, तत्त्वज्ञानी पुरूष व्यवहारभाषा में ही ऐसा कहते हैं कि परद्रव्य मेरे हैं। निश्चय से तो वे जानते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं हैं। जैसे अभी आपका सिरदर्द हो और आपको अमृतांजन मंगाना है, तो क्या आप ऐसा कहेंगे कि असाता वेदनीय के उदय का निमित्त पाकर शरीर नो कर्म में कुछ रूधिर की रूकावट होने के आश्रय से इस आत्मा में पीड़ा का परिणमन उपभोग में हो रहा है, सो इसके विनाश के लिए उसके निमित्त का निमित्तभूत अमृतांजन ला दीजिए। कोई इतना कहेगा क्या ? अरे इतना कहने का उसके पास अवसर ही नहीं है। सीधा कह देगा कि भाई सिर में दर्द है अमृतांजन ले आवो। तो कोई निश्चय एकांती यह कह बैठे कि तुम बहुत झूठ बोलते हो, अरे तुम्हारे सिर कहां है, तुम्हारे दर्द कहां है और अमृतांजन दर्द को कैसे मिटा सकेगा ? क्या एक वस्तु दूसरे वस्तु का कुछ करता भी है। अरे संसारी बातों का जो आशय है उसे जान जावो। कि कहने को तो सभी कहते है।
व्यवहारवचन और यथार्थ ज्ञान―भैया ! अभी आपसे पूछें कि यह लड़का किसका है ? तो आप कहते हैं कि महाराज आपका ही है और हम पकड़कर ले जायें कि अब घर में न रहने दो, हमारे संग में कर दो, इसे पढ़ाकर हित का अवसर देंगे क्योंकि हमारा ही तो लड़का है। तो न देंगे, क्योंकि आप तो व्यवहार भाषा में कह रहे थे। किंतु ऐसी ही आपको जानकारी हो, ऐसी बात नहीं है। क्या आप जान रहे हैं कि यह लड़का त्यागी का है ? नहीं जान रहे हैं और कह रहे कि साहब आपका ही बच्चा है, आपका ही मकान है। यहां तो इतनी गनीमत है कि अगर स्त्री को पूछें कि यह किसकी स्त्री है? तो यह कोई न कह देगा कि यह स्त्री त्यागी जी आपकी है। भला वैभव पूछें, धन पूछें तो कह देते हैं कि आपका ही है तो यह व्यवहार भाषा ही हुई और आपका जो ज्ञान है, सो ही है।
व्यवहार में आप और तरह बोल रहे हो।
केवल का ज्ञान―एक बात विचारने की है कि केवलज्ञान क्या जानता है? तो एक शब्दार्थ ही अगर तको तो अर्थ मिलेगा केवलज्ञान केवल का ज्ञान करता है, अर्थात केवल एक-एक जितने भी द्रव्य हैं उन सब द्रव्यों का ज्ञान करता है। अभी इस मार्ग से यदि जावो तो भगवान न मकान देखता है और न कोई समानजातीय या असमानजातीय पर्याय को निरखता है, उनके तो समस्त केवल एक-एक समस्त पदार्थों का ज्ञान है, और वही परमार्थ सत् है और उसमें होने वाला जो कुछ परिणमन है वह शेष सब व्यवहार है।
व्यवहारभाषा का लक्ष्य―व्यवहार की भाषा से पंडितजन ‘ये परद्रव्य मेरे हैं’ ऐसा बोलते हैं परंतु निश्चय से वे जानते हैं कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। अभी कुछ शब्दों की संस्कृत बनायी जाने लगी है तो किन्ही किन्ही के शब्द तो बड़े अटपट बनाए जाते हैं। अब जैसे एक शब्द है चाय। कोई जाकर कहे कि हमें चाय दो। तो चाय की संस्कृत जरा अच्छी बनावो। कुछ बात न छूटे और पूरा अर्थ आ जाय। तो एक ने बनाया कि ‘दुग्धशर्करामिश्रित विशिष्ट पत्रतप्तरसं देहि।’इतना बोलने में तो कहो गाड़ी छूट जाय। व्यवहार भाषा में बोलना अनर्थ नहीं है, मगर ज्ञान में यह बात आ जाय कि यह परद्रव्य मेरा है तो अनर्थ है। यों तो व्यवहार भाषा में क्या-क्या नहीं कहते ?
व्यवहारभाषा के व्यवहार और उसके प्रयोजन―जैसे धर्मशाला में आप दो दिन को ठहर जाए और जिस कमरे में ठहरें तो आप लोगों से कहते है कि चलो हमारे कमरे में, चलो हमारी धर्मशाला में। लो, अब वह आपका कमरा हो गया। तो क्या ज्ञान में यह बात है कि मेरा कमरा है? नहीं है। और व्यवहारभाषा में यह बात बोल रहे हैं कि यह मेरा कमरा है। घी का डिब्बा। क्या आपके ज्ञान में भी यह बात बसी है कि घी से रचा हुआ यह डिब्बा है ? नहीं। आप जानते हैं कि यह टीन का डिब्बा है और इसमें घी रखा है। जिस लोटे से आप टट्टी जाया करते हैं-आप बोलते हैं कि यह टट्टी का लोटा है, यह पीने का लोटा है, यह चौके का लोटा है। आपके ज्ञान में क्या यह रहता है कि यह टट्टी का लोटा है? नहीं । आप तो जानते हैं कि यह पीतल का लोटा है, इसको संडास में ले जाया जाता हैं, इसलिए इसका नाम टट्टी का लोटा है। अब जल्दी-जल्दी में क्या बोलें? क्या यह बोलें कि देखो जिस लोटे के आधार में पानी को लेकर संडास में जाया जाता है वह लोटा दो। क्या कोई इतना बड़ा वाक्य बोलता है? नहीं। तो व्यवहार भाषा किसी मर्म को संक्षेप करने के लिए होती है और निश्चय का ज्ञान उससे भी अति संक्षेप लिए हुए होता है।
व्यवहार का प्रयोजन निर्वाह―भंगी लोग मकानों को लिए रहते हैं उनके संडास साफ करने के लिए। तो वे भी कहते हैं कि मेरे ये 7 मकान हैं जो जो बड़ी हवेली खड़ी है ना, भंगी कह रहा हैं कि ये मेरी है। तुम्हारी कितनी हवेली हैं? अजी हमारे 15 हवेली हैं, सेठजी के कितने हैं? सेठजी के एक हवेली है और उनके 10, 15 और जरूरत पड़े तो हवेली गिरवी भी रख देते हैं। दूसरे भंगी को 25) में दे दिया बिना ब्याज के। जब चुका दे 20) तो हवेली ले लेते हैं। तो प्रयोजनवश व्यवहार भाषा में कुछ से कुछ बोला जाता है। पर पंडित जन निश्चय की बात से अनभिज्ञ नहीं होते हैं।