वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 323
From जैनकोष
एवं ण कोवि मोक्खो दीसदि लोयसमणाणंदोण्हं पि।
णिच्चं कुव्वंताणं सदेव मणुयासुरे लोए।।323।।
पर को कर्ता मानने का अँधेरा―जब स्वच्छ आत्मस्वरूप को नहीं ये लौकिक जन समझ सके और न श्रमण पहिचान सके तो इन दोनों को ही मोक्ष नहीं दृष्ट होता है। आनंद के पात्र ये दोनों ही नहीं होते हैं। भ्रम का क्लेश बहुत बड़ा क्लेश होता है। जिन्हें यह भ्रम है कि मेरे सुख दु:ख राग द्वेष आदि करने वाला प्रभु है तो अब यह अकिंचन हो गया अर्थात् अपनी सत्ता तक का भी विश्वास न रहा। मैं सद्भूत हूँ, यह बात अब कहां रही ? तो जैसा चिदानंद स्वरूप सत् हूँ वह तो निरंतर कुछ न कुछ रहा ही करेगा और जो रहा करुँ वही परिणमता हूँ। तो इसका सत्त्व ही नहीं रहा उसकी दृष्टि में। अब उसके भ्रम का क्या ठिकाना ?
आत्मा को कर्ता मानने का अँधेरा―इसी प्रकार जिसको यह भ्रम लग गया है कि रागद्वेष मोह करने का मेरा ही तो काम है। मैं ही कर्ता हूँ, मेरा ही स्वरूप है और न कर सकूं तो मैं रहूंगा ही नहीं, मिट जाऊँगा। जिस सिद्धांत के आधार पर यह बात मानी जाने लगी कि इस जीव का सर्वथा मोक्ष कभी नहीं होता। जिसे लोग मोक्ष कहते हैं, बैकुंठ कहते हैं वहां राग अत्यंत मंद रहता है, सो वहां बहुत काल तक सुख भोगते हैं, पर वह राग जब ऊपर उठता है और तब फिर संसार में आना पड़ता है, उस सिद्धांत में यह बात आयी है कि आत्मा रागादिक स्वभावी है और वह विभावों का कर्ता है। सो इन श्रमणों ने भी जो कि आत्मा को अपने को कर्ता मानते हैं इन श्रमणों का भी मोक्ष नहीं दृष्ट हो सकता है क्योंकि उनका मोक्ष कहां? वे तो निरंतर देव नारक तिर्यंच मनुष्य इन देहों को धारण करते रहने में हैं। श्रद्धा ही उनकी ऐसी हैं।
भ्रम में पर की आत्मीयता―लोग कहते हैं कि कोयल को कौवा पालता है। कोयल भी काली और कौवा भी काला। तो कोयल का बच्चा जब तक रहता है तब तक तो रंच भी अंतर नहीं मालूम होता है। तो कोयल के बच्चे को कौवा पालता है। भ्रम लगा है ना, पालते रहने में ही वह कौवा लगा है क्योंकि उसे भ्रम है। यह पर शरीर है, पौद्गलिक है, अचेतन है, फिर भी इसका करने का ही स्वरूप है, स्वभाव है, ऐसा भ्रम लगा है ना। इस कारण यह भ्रमी पुरूष इन सबको पाल रहा है। भ्रम के दु:ख को क्या कहें?
भ्रम की विडंबना―कहीं किसी के घर दीवाली के 7 दिन पहिले मकान की भींतों में गेरूवा रंग पोता जा रहा था। उस मनुष्य की आदत थी कि सुबह जब भी 4, 5 बजे नींद खुले तो लोटा लेकर टट्टी जाये, ऐसी आदत थी उस आदमी की। सो खटिया के नीचे रात में एक लोटा पानी रोज रख दिया जाता था। उस दिन क्या हुआ कि पानी खटिया के नीचे रखना भूल गया। उस पुरूष की लड़की ने एक लोटा रख दिया गेरूवे रंग का। जब 4।। बजे के करीब वह उठा तो लोटा उठाया और जंगल चला गया मील भर दूर। जब शौच करके सोचने लगा तो एकदम खून ही खून नजर आया । वह गेरूवा रंग था। झट उसके सिर में दर्द उत्पन्न हो गया, हाय आज तो आधासेर खून निकल गया। सर दर्द बढ़ता गया। जब घर पहुंचा तो चारपाई पर पड़ गया, बुखार चढ़ गया। लेटा हुआ है खटिया पर। इतने में लड़की आयी, सो उसे तो अपना पोतने का ही काम करना था। कहा दद्दा ! यहां गेरूवे का लोटा रखा था वह कहां गया ? इतनी बात सुनते ही उसकी समझ में आ गया कि वह खून नहीं था, वह लोटा गेरूवे रंग का था। लो बुखार मिट गया, सिर दर्द मिट गया। भ्रम ऐसी बुरी चीज होती है।
विसंवाद का मूल न कुछ―परस्पर में कुछ भी बात न हो और जरा सा कुछ भ्रम हो जाय तो भ्रम होने पर जरा सा बोलचाल कम हो गयी। सो अब और भ्रम बढ़ता गया। भ्रम बढ़ते-बढ़ते एकदम परस्पर में मैत्री भाव समाप्त हो गया। अब निर्णय करने कोई बैठे तो क्या निकला ? कुछ नहीं। यह इतना महान् संकट और संसार, कषायों का यह जगजाल, ये सब हम आप रात दिन भोगते हैं। इन संकटों की जड़ कितनी है? अच्छा क्या संकट है ? परिवार गुजर गया, धन कम हो गया, पड़ोसी हमसे ज्यादा धनी हो गया, बड़े संकट आ रहे हैं हम पर। ये संकट क्यों आए कि हमने प्रथम माना कि यह मेरा है। यह गलती क्यों हुई ? यों हुई कि इस शरीर को माना कि यह मैं हूँ। यह गलती क्यों हुई कि हमने रागादिक भावों को यह माना कि यह मैं हूँ। अब देखो हमने और बाहर में कुछ गड़बड़ नहीं किया सिर्फ इतना भर मान लिया कि मैं रागरूप हूँ। इतना ही भर तो मैंने काम किया कि ये सचमुच के पचासों संकट हम आप पर आ गए। अब जन्म लिया, अब मरे।
कुमति की हट का दुष्परिणाम―जैसे कोई जिद्दी लड़का भारी हठ करे कि हमें तो इस तलैया में नहवा दो, तो उसे तो गुस्सा आ गयी, पकड़कर उसे नदी में डुबाया, फिर उठाया, फिर डुबाया, फिर उठाया। अब वह चिल्लाता है कि रहने दो। अब नहीं नहवावो और वह कहे कि अभी और नहावो, खूब नहावो। सो जरा सी हठ करना इतना रागरूप है कि उसका फल यह हुआ जन्में, मरे। बड़ा क्लेश है। नहीं चाहता यह फिर भी यही होता है कि अभी और जन्मों और मरो। इतना संकट लद गया केवल भ्रम की नींव पर। हम भ्रम समाप्त करें तो सब संकट दूर हो जायेगे।
लौकिक और श्रमणों की समानता―जो जीव आत्मा को कर्ता ही मानते हैं वे लौकोत्तर होने पर भी लौकिकता का उल्लंघन नहीं करते हैं। जो किसी अन्य ईश्वर प्रभु विष्णु को कर्ता मानते हैं, अपने सुख दु:ख पुण्य पाप का, वे तो कहलाते है लौकिक जन। और जो ऐसा न मानकर अपने आपको ही सुख दु:ख पुण्य पाप का कर्ता मानते हैं वे लोकोत्तर हैं अर्थात् उनसे उठे हुए हैं। कुछ अध्यात्म की ओर चले हुए हैं, फिर भी चूंकि प्रयोजन है आत्मस्वरूप में मग्न होने का, वह प्रयोजन भी नहीं पा सकते जो आत्मा को ही कर्ता मानते हैं इसलिए वे भी लौकिक ही हैं।
ग्रामारि―एक शब्द प्रसिद्ध है लोग कहा करते है गंवारो। अब गंवार शब्द जो है वह लोग गाली मानते हैं, पर गंवार गाली नहीं है। गंवार का अर्थ है ग्रामारि। ग्रामारि का अर्थ है पंचेंद्रिय के विषय व अरिका भाव है विजेता। परमात्मप्रकाश में देख लो ग्राम का अर्थ इंद्रिय विषय लिया है। और इंद्रिय विषयों के जो अरि हैं, दुश्मन हैं, जीतने वाले हैं वे कहलाते हैं गंवार। जो विषयों को जीत करके संत हुए हैं उन संतों का नाम है गंवार। पर शब्द का अर्थ भूल गये, सो एक बात तो यह है और दूसरी बात यह है कि होय तो कोई छोटा आदमी बुद्धू सा और उसकी प्रशंसा की जाय कि आ गए गंवार साहब। गंवार तो बढि़या शब्द है ना संतपुरूष, और है कोई मामूली पुरूष और उसे कहते हैं कि आ गए गंवार साहब तो बस गाली सी लग जाती है। जैसे कोई हो तो मक्खीचूस अर्थात् कृपण और उसको कोई कहे कि आ गए कुबेर साहब, तो वह गाली मानेगा या प्रशंसा मानेगा? वह तो गाली मानेगा। कहा तो बढि़या शब्द है पर छोटे को बड़ा कहा इस कारण वह गाली में शामिल हो गया।
उच्चक―और भी शब्द देख लो। लोग कहते हैं कि यह बड़ा उचक्का है। उचक्का का अर्थ क्या है ? उच्चै शब्द में स्वार्थ क: प्रत्यय लग जाता है सो उस उच्चक: का अर्थ है बड़ा ऊँचा पुरूष । उच्चक से बिगड़ कर बन गया उचक्का। यह है बड़ा उच्च पुरूष, पर लोग मान लेंगे गाली। गालियों में जितने इकहरे शब्द हैं वे सब सभ्यता के जमाने में प्रशंसा के शब्द थे और प्रशंसा के लायक जो न हुआ और कहे गए ये शब्द तब से वे शब्द गाली बन गए।
कुलच्छी एवं पुंगव:--एक शब्द है कुलच्छी। कुलच्छी का क्या अर्थ है ? कुलं अच्छं यस्य स: कुलच्छी। जो कुल में श्रेष्ठ हो उसका नाम है कुलच्छी। अगर छोटे आदमी को बोला गया तो उसने उसको गाली मान लिया और पुंगा कहो तो कहो गरम हो जायें। यह है बड़ा पुंगा । पुंगा शब्द तो आप रोज-रोज भगवान की पूजा में बोला करते है। पुंगा का अर्थ हैं श्रेष्ठ साधु पुरूष । तो यहां लौकिक शब्द कहा गया है। लौकिक का अर्थ है जो इस लोक में रह रहा है, क्या बुरा शब्द है, कुछ भी बुरा नहीं, किंतु छोटी धारणा वालों को लौकिक शब्द बोला गया है । सो उसका फिर आशय उच्च नहीं रहा।
लौकिकता―जो पुरूष को कर्ता ही मानता है वह यद्यपि लौकिक पुरूषों से ऊँचा उठा हुआ है, वह पुरूष कर्तृत्व की धारणा से तो दूर है, इसलिए लौकिक पुरूष से ऊँचे उठा है, किंतु अपने प्रयोजन को न पा सकने से वह भी लौकिक ही कहलाता है। लौकिक पुरूषों के मत में परमात्मा विष्णु सुर नर नारकादिक कार्यों को करता है। तो कर्तृत्व का विपरीत आशय तो दोनों में बराबर है। इस कारण वह भी जन्म मरण का पात्र बना है और ये भी जन्म मरण के पात्र बने हैं। परमात्मा के जितने नाम हैं वे सब नाम भगवान के गुणों की प्रशंसा ही करने वाले हैं, किंतु किसी नाम के आधार से मतभेद हो गए अर्थ का आधार लो तो मतभेद नहीं हो।
निजधाम―विष्णु का अर्थ क्या है ? व्यापनोति इति विष्णु:। जो समस्त लोक को व्याप जाय, समस्त विश्व में फैल जाय, उसको कहते हैं विष्णु। समस्त विश्व में प्रभु का ज्ञान फैला हुआ है। जैसे मानो आपका ज्ञान इस फर्लांग आधे फर्लांग में फैला है ना, प्रभु का ज्ञान समस्त विश्व में फैला है। ऐसा जो वीतराग निर्दोष सर्वज्ञदेव है वह विष्णु कहलाता है। जो आत्मकीर्तन में चतुर्थपद है―जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु, बुद्ध, हरि जिसके नाम। राग त्यागि पहुंचू निज धाम, आकुलता का फिर क्या काम।। इसका अर्थ कोई कुछ लगाता हैं, कोई कुछ लगाता है। कोई जिन के नाम बोलकर पहुंचू या पहुँचे निजधाम बोलता, पर इसका वास्तविक अर्थ क्या है इस अध्यात्म प्रकरण में कि जिस चिद्ब्रह्म के, आत्मतत्त्व के ये नाम हैं उस आत्मतत्त्व में मैं राग छोड़ करके पहुंच जाऊँ तो फिर आकुलतावों का कोई कार्य नहीं रह सकता है।
जिन, शिव, ईश्वर―क्या-क्या नाम है चिद्ब्रह्म का ? जिन-जो रागादिक शत्रुवों को जीत ले उसे जिन कहते हैं। वह जिन कौन हुआ ? निर्दोष सर्वज्ञदेव और वह भी है एक आत्मा। शिव जो कल्याणस्वरूप हो उसे शिव कहते हैं। कल्याणस्वरूप यह आत्मा स्वयं है। यह आत्मा ज्ञानानंदस्वभावी है। यह कल्याणमूर्ति है। ईश्वर जो अपने कार्य को करने में स्वतंत्र हो उसे ईश्वर कहते हैं। इस ही का नाम ऐश्वर्य है, जहां पराधीनता नहीं रहती, प्रत्येक कार्य में स्वाधीनता हो, उस ही का नाम ऐश्वर्य है। प्रभु सर्वज्ञदेव क्या कार्य करते हैं? जो करते हैं उसमें वे स्वतंत्र हैं। जैसे यहां दुकान आरंभ करने वाले को कितनी ही अड़चनें और परतंत्रता रहती हैं, यहां वहां कुछ भी नहीं है और आत्मा के स्वरूप को देखो तो यहां पर भी पराधीनता कुछ नहीं है। यह आत्मतत्त्व ईश्वर स्वरूप है।
ब्रह्मा, राम―ब्रह्मा जो सृष्टियों को रचे उसे ब्रह्मा कहते हैं। यह आत्मा अपनी परिणतियों को रचता रहता है। आत्मा ही क्या, जो कुछ भी सत् हो वह सर्वसत् अपने परिणमन को निरंतर रचता रहता है। यह आत्मा भी जो असाधारण चैतन्यस्वरूप है। वह अपने इस चैतन्य के परिणमन को निरंतर रचता रहता है। यह आत्मा ब्रह्म है। प्रभु परमात्मा ब्रह्मा है। राम―रमंते योगिनो: यस्मिन् इति राम:। जिसमें योगीजन रमण करें उसे राम कहते हैं। योगीजन कहां रमण करते है ? अपने आपमें। देखो अज्ञान का प्रसार कि जैसे हिरण के ही नाभि में कस्तूरी बसी है और उस कस्तूरी से कुछ-कुछ गंध उस हिरण को आ रही है, पर हिरण को यह बोध नहीं है कि मेरी ही नाभि में यह कस्तूरी बसी हैं, सो वह जंगल भर में भटकता फिरता है। तो इसी प्रकार यह अज्ञानी जीव अपने आप में बसे हुए ज्ञान और आनंद को भोगता है परंतु इसे स्वयं का पता नहीं हैं, सो ज्ञान और आनंद बाहर ढूँढ़ता रहता है। पर वह स्वयं जिस स्वरूप में रमण करता है वह अपने आपमें ही विराजमान् है। सो यही आत्माराम है।
विष्णु, बुद्ध, हरि―विष्णु–वह जो व्यापक हो, ज्ञान द्वारा व्यापक भगवान परमात्मा है। और आत्मा में यह स्वभाव पड़ा है इसलिए यह आत्मा विष्णु है। बुद्ध-जो ज्ञानमय हो उसे बुद्ध कहते हैं। ज्ञानमय यह आत्मा है। यही बुद्ध है। हरि-जो पापों को हरे उसे हरि कहते हैं। मेरे पाप हरने कोई दूसरा न आ जायेगा। कोई नहीं है ऐसा भला भगवान जो भूलकर अपना आनंद छोड़कर इन लटोरे खचोरों के पापों को हरने आए। पापों को हम स्वयं हरे, दूर करें तो कर सकते हैं। इसलिए यह आत्मस्वरूप ही हरिरूप है। ये सब जिसके नाम हैं यदि मैं राग छोड़कर उस आत्मतत्त्व में पहुंच जाऊँ तो फिर यहां वहां आकुलतावों का कोई काम नहीं हैं।
कर्तृत्वव्यामोह की समानता―भैया ! लौकिक पुरूषों ने तो परमात्मा को कर्ता माना है हम सबकी अवस्थावों का। हो वह कर्ता है तो नित्य कर्ता कहलाया, और यहां श्रमणजनों ने भी अपने आत्मा को नित्य कर्ता माना है। तो लौकिक पुरूषों के व इन लोकोत्तर श्रमणों के भी मोक्ष नहीं होता है। परद्रव्य में और आत्मतत्त्व में रंचमात्र भी संबंध नहीं हैं, पर मोह का नशा ऐसा जड़ा हुआ है जगत के जीवों पर कि चित्त से हटता ही नहीं हैं। मेरे भाई हैं, मेरा परिवार है, मेरा धन है, मेरा शरीर है और तो बातें जाने दो, मेरी बात है, मेरी बात नहीं मानी गयी, अब हो गए बीमार। दु:खी हो गए, कष्ट में आ गए, अरे तेरी तो कुछ बात भी नहीं है। तेरा तो निस्तरंग चैतन्यस्वरूप है। बात के पीछे लोग अपना घर भी बरबाद कर देते है।
पर की हठ में बरबादी―गुरु जी सुनाया करते थे कि टीकमगढ़ में एक सुनारिन थी । सो उसने बहुत हठ किया हाथ में पहिनने वाले सोने के बखौरे बनवाने के लिए। वही बखौरे जो टेढ़ी गुड़ी करके बनाए जाते हैं। बहुत दिन तक प्रस्ताव चलता रहा और वह प्रस्ताव भी भोजन सभा में करती थी। जब सुनार भोजन करने आए तभी अपना प्रस्ताव वह सुनारिन रखे। बहुत दिनों बाद उसने कुछ कर्ज करके , कुछ और दंदफंद करके सोने के बखौरे बनवा ही दिए। अब देहातों में मोटी तो धोती पहिनें और सारा अंग धोती से ढक कर चलें। यह सब पहिले की रिवाज थी। लाइलोन तो समझते भी न थे। बरसात में जूता और चप्पल पहिनकर कोई स्त्री गाँव में निकलती ही नहीं थी, यदि बरसात हो तो सूप रख लें सिर पर, पर छतरी नहीं लेती। यह पुरानी सभ्यता की बात थी । तो बन तो गये बखौरे, पर धोती से ढके रहे। तो किसी स्त्री ने यह नहीं कहा कि तुम्हारे बखौरे बड़े अच्छे हैं। अब उसके मन में बड़ा रंज रहा कि लड़भिड़कर तो मुश्किल से बखौरे बनवाये और कोई यह नहीं कहती कि बड़े अच्छे बने हैं बखौरे। सो उसके मन ही मन बड़ा गुस्सा उठा। एक दिन इतना तेज गुस्सा आया कि अपने ही घर में आग लगा दी। होता है ऐसा। जब गुस्सा आता है तो घी का डबलाहो तो उसे भी पटक दिया जाता है। चाहे पीछे खबर आये कि इसमें तो पौने दो सेर घी निकल गया। जब आग लग गयी तो उसे ख्याल आया कि अरे यह तो मेरा मकान ही जल जायेगा। तो अब हाथ पसार-पसार कर लोगों को बुलाने लगी। अरे भैया रे दौड़ो, कुवे से पानी ले आवो, बाल्टी वह रक्खी, उनके यहां से रस्सी ले लो। जल्दी आग बुझावों। जब हाथ फैला-फैला कर कह रही थी तो एक स्त्री को उसके बखौरे दिख गए। अब वह कहती है कि अरी जीजी ये बखौरे कब बनवाये ? ये तो बड़े सलोने हैं। तो वह सुनारिन कहती है कि अरी राँड ! पहिले से ही इतने वचन बोल देती तो अपने घर में आग काहे को लगाती?तो देखो इतनी बात रखने के लिए घर में आग लगानी पड़ी।
आत्महित के आचरण की ओर ध्यान―मोही जीव को बात का भी कितना विचित्र रोष लगा है? मेरी बात नहीं रही। अहा, अब तो मरते हैं बात के पीछे और मरकर अगर बन गए पशु, तो वहां क्या बात रख लेंगे ? तो सुअवसर यदि पाया है तो इतनी नम्रता आनी चाहिए कि दूसरे का गौरव रखें। जो दूसरों का गौरव रखेगा वह सुखी रहेगा और दूसरे लोग भी उसका गौरव करेंगे। वचन ही तो मनुष्य को एक श्रेष्ठ वैभव मिला है जिससे कि इसका जीवन सुखमय रह सकता है। इससे चूके तो दु:खमय रह सकता है, बुरा कहला सकता है, अच्छा कहला सकता है। इतना श्रेष्ठ जन्म पाकर हमारी प्रवृत्ति क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से रहित यदि न हो तो मंद तो हो। किसी दूसरे से हम छल का व्यवहार न करें, माया न रखें। दूसरे पता ही न पाड़ सके कि आखिर इनके मन में क्या है ऐसे दगा, धोखा, छल आदि इतने कठिन परिणाम होते हैं कि जब लोक में विदित हो जाता है कि यह छल और धोखा देने वाला पुरूष है, तब उसका जीवन सुखमय नहीं रह पाता हैं।
निश्छलता का संकल्प―एक बार एक मनुष्य जंगल में जा रहा था, उसे मिल गया एक सिंह। तो डर के मारे वह एक पेड़ पर चढ़ गया। पेड़ पर तो चढ़ गया किंतु उस पेड़ पर पहिले से बैठा था रीछ। अब वह मनुष्य, रीछ और सिंह दोनों के बीच पड़ गया। बहुत डरा। तो रीछ कहता है कि रे मनुष्य तू मुझसे डर मत। तू किसी प्रकार इस मुझकी शरण में आया है तो मुझसे भय मत कर, सुखपूर्वक रह। वह मनुष्य सुखपूर्वक बैठ गया। तो थोड़ी देर में रीछ को नींद आने लगी। तो उस डाल पर वह सोने लगा। इतने में सिंह मनुष्य से कहता है कि ऐ मनुष्य ! रीछ मनुष्य बड़ा खतरनाक जानवर है―जानवर जानते हो किसे कहते हैं? जान मायने ज्ञान और वर मायने श्रेष्ठ। जिसका ज्ञान बड़ा श्रेष्ठ हो उसका नाम है जानवर। यह रीछ बड़ा खतरनाक जानवर हैं। यह अभी सोया हुआ है। जब हम नीचे से चले जायेंगे तो यह तुम्हें जिंदा न छोड़ेगा। यह अभी सो रहा है, इसे तुम नीचे ढकेल दो, तो तुम बच भी जावोगे। मनुष्य की समझ में यह दाव अच्छा रूचा। यो मनुष्य ढकेलने लगा। रीछ जग गया, रीछ गिरा तो नहीं किंतु सोचा है यह मेरी शरण में आया है। मैं इसे धोखा नहीं दे सकता हूँ। मैंने इसे वचन भी दिया है, सो क्षमा किया। अब थोड़ी देर बाद मनुष्य को नींद आने लगी, सोने लगा। अब सिंह रीछ से कहता है कि ऐ रीछ! अब यह मनुष्य सो रहा है, बड़ा ही अच्छा है, इसे नीचे ढकेल दो, क्योंकि अभी नीचे हम है इसलिए नहीं बोल रहा है, हमारे न रहने पर यह मनुष्य तुझे न छोड़ेगा, इसलिए इस सोते हुए मनुष्य को तू ढकेल दे तो तेरी जान बच जावेगी। तब रीछ कहता है कि मैंने इसे शरण का वचन दिया है, इस कारण मैं इसे कैसे ढकेल सकता हूँहूं ? अब सिंह कहता है कि ऐ रीछ ! देख तू बड़ा वफादार बना हुआ है इस मनुष्य का। यह मनुष्य तुझे सोते हुए में ढकेल रहा था जिससे तू नीचे गिर जाय और सिंह खा ले। अब भी तू होश में आ और इस मनुष्य को नीचे पटक दे। तो रीछ कहता है कि यह मनुष्य चाहे मुझे दगा दे दे, उसकी बात उसके साथ है पर हम पशु जो वचन दे चुके हैं, सो उसको नहीं उलट सकते। हम इस मनुष्य की रक्षा ही करेंगे।
ज्ञानप्रकाश और निरहंकारता―भैया ! आप समझें कि महत्ता उसी में है जो सब पर रक्षा की दृष्टि रखता है। खुद ही आराम से जीकर रहे, खुद विषयभोग का आराम भोगे, दूसरे की परवाह न रखे तो उसको न स्वयं का श्रद्धान है, न अन्य पुरूषों की दृष्टि में उसकी महत्ता है। सो भैया सबको एक चैतन्यस्वरूप ही जानकर सबका गौरव रखें, सन्मान रखें, अपनी तो चाहे नीची करालें पर दूसरों को ऊँचा ही उठाये रहें, ऐसी बात यदि सबमें आ जाती है तो फिर क्लेश का कोई काम नहीं है। अभिमानी पुरूष का दृष्टांत बताया है कि जैसे कोई पहाड़ पर चढ़ा है, पहाड़ तो जाने दो, 5, 7 मंजिल का मकान हो और ऊपर की मंजिल पर चढ़ा हो तो वह नीचे वाले को बहुत छोटा देखता हैं और यह नीचे रहने वाला पुरूष उस ऊपर चढ़े हुए को बहुत छोटा देखता है। उस एक को अनेक छोटे देख रहे हैं और वह ऊपर चढ़ा हुआ पुरूष भी अनेक को छोटा देख रहा है। वह नीचे उतर आए और इस नीचे रहने वालों में मिल जाय तो न नीचे रहने वाले उसे छोटा देखेंगे और न वह ऊपर रहने वाला इन्हें छोटा देखेगा। इसी तरह जब हम बड़ी दूर-दूर रहा करते हैं, स्वरूप को भूल जाते हैं और ऐबों को दृष्टि में रखते हैं तब हम बड़े को छोटा देखते हैं, बड़ा मुझे छोटा देखता है। जरा स्वरूप के मार्ग से सब सबमें समा जावें तो वहां कौन छोटा और कौन बड़ा है? ऐसी सही दृष्टि हो तो वहां आनंद बरसेगा।
निश्चयनय और वस्तुस्वातंत्र्य―परद्रव्य का और आत्मवृत्त्व का किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है। प्रदेश को देखिये―प्रदेश गुणात्मक हैं। गुण-परिणमन प्रदेश से बाहर नहीं होता। इस प्रकार अखंड द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से निहारो तो प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र अपने अपने स्वरूपास्तित्त्व में है। यह स्पष्ट विदित होगा कि एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य केसाथ रंच भी संबंध नहीं है। फिर कर्ता कर्म का संबंध कैसा ? न कोई द्रव्य किसी द्रव्यका स्वामी है, न अधिकारी है, न सहयोगी है, न कर्ता है। निश्चय की दृष्टि का आलंबन करके यह सब प्रकरण सुनिये। जहां उपचरित व्यवहार में अनेक द्रव्यों पर दृष्टि रहती हैं वहां कर्ता कर्म संबंध भी मालूम होता है और एक दूसरे का अधिकारी है यों भी दिखता है, किंतु निश्चय दृष्टि के मार्ग से देखें तो कर्ता कर्म तो दूर की बात है, एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का सहयोगी भी नहीं है। प्रमाण दृष्टि से कहें तो यह कह सकेंगे कि अमुक उपादान पर उपाधि का निमित्त पाकर अपने ही प्रभाव से प्रभाव वाला बन गया है। निमित्त का प्रभाव उपादान में नहीं गया, किंतु उपादान ही अनुकूल पर उपाधि का निमित्त पाकर अपने ही प्रभाव से प्रभावित हो गया।
प्रभाव का परिचय―भैया ! प्रभाव कहते हैं परिणमन को और प्रभाव का अर्थ क्या है ? प्रभाव शक्ति का नाम नहीं है। शक्ति नित्य होती है, कोई भी प्रभाव नित्य होता है क्या ? प्रभाव द्रव्य का नाम नहीं है, प्रभाव पर्याय का नाम है और वह प्रभाव नामक पर्याय जो कि किसी वस्तु में हुई है, उपादान में हुई है वह प्रभाव नामक पर्याय उपादान की है या निमित्त की है ? निमित्तभूत वस्तु का प्रभाव निमित्तभूत वस्तु में ही है, जिसका जो प्रभाव है वह उसमें ही रहता है। तब यह सुविदित होता है कि ऐसा ही परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि योग्य उपादान अनुकूल निमित्त पाकर स्वयं की परिणति से अपने में प्रभाव उत्पन्न करता है। यह हुआ निमित्तनैमित्तिक संबंध, पर कर्ता कर्म कहां रहा ? जब एक द्रव्य का दूसरे पदार्थ के साथ कर्ताकर्म संबंध भी नहीं है तो फिर कर्तृत्व कैसे मान सकते हैं? इसी बात को अब अगली गाथा में कह रहे है।