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अपने पूर्व के सातवें भव में शृगाल था (46/115)। छठे भव में ब्राह्मणपुत्र अग्निभूति (43/100), पाँचवें भव में सौधर्म स्वर्ग में देव (46/136), चौथे भव में | अपने पूर्व के सातवें भव में शृगाल था (46/115)। छठे भव में ब्राह्मणपुत्र अग्निभूति (43/100), पाँचवें भव में सौधर्म स्वर्ग में देव (46/136), चौथे भव में सेठ पुत्र पूर्णभद्र (43/158) तीसरे भव में सौधर्म स्वर्ग में देव (43/158), दूसरे भव में मधु (43/160), पूर्व भव में आरणेंद्र था (43/40)। वर्तमान भव में कृष्ण का पुत्र था (43/40)। जन्मते ही पूर्व वैरी असुर ने इसको उठाकर पर्वत पर एक शिला के नीचे दबा दिया (43/44) तत्पश्चात् कालसंवर विद्याधर ने इसका पालन किया (43/47) युवा होने पर पोषक माता इन पर मोहित हो गयी (43/55) । इस घटना पर पिता कालसंवर को युद्ध में हराकर द्वारका आये तथा जन्ममाता को अनेकों बालक्रीड़ाओं द्वारा प्रसन्न किया (47/67) । अंत में दीक्षा धारण की (61/39), तथा गिरनार पर्वत पर से मोक्ष प्राप्त किया (65/16-17) । </span> | ||
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<span class="HindiText"> कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र । एक दिन यह शिशु अवस्था में अपनी माता रुक्मिणी के पास सोया हुआ था । उस समय धूमकेतु असुर उधर से जा रहा था । रुक्मिणी के महल पर आते ही उसका विमान रुक गया । विभंगावधिज्ञान से शिशु को अपने पूर्वभव का बैरी जानकर इस असुर ने रुक्मिणी को महानिद्रा में निमग्न किया और वह इसे उठा ले गया । इसके बाद उसने इसे खदिर अटवी में तक्षक शिला के नीचे दबा दिया और वहाँ से चला गया । कुछ समय बाद मेघकूट नगर का राजा कालसंवर भी उधर से अपनी रानी कनकमाला के साथ आ रहा था । तक्षकशिला के पास उसका विमान रुक गया । वह नीचे आया और उसने इसे शिला से निकालकर अपनी कांचनमाला को दे दिया । कालसंवर इसे लेकर अपने नगर आया और उसने विधिपूर्वक इसका देवदत्त नाम रखा तथा उसे युवराज बना दिया । इसने युवा होने पर अपने पिता की सलाह लेकर शत्रु अग्निराज पर आक्रमण किया और उसे जीतकर ले आया तथा उसे कालसंवर को सौंप दिया । इससे कालसंवर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने इसके पराक्रम की प्रशंसा की तथा श्रेष्ठ वस्तुएं देकर इनका सन्मान किया । इसके यौवन और पराक्रम से कांचनमाला प्रभावित हुई । वह इस पर काममुग्ध हो गयी किंतु यह उससे किसी भी प्रकार से आकृष्ट नहीं हुआ । निराश होकर कांचनमाला ने अपनी निर्जज्जता के निवारण के लिए अपने पति को इसे कुचेष्टावान् और अकुलीन बताया । रानी पर विश्वास कर राजा कालसंवर ने अपने पाँच सौ पुत्रों को इसे एकांत में ले जाकर मार डालने की आशा दी । राजकुमार इसे वन में ले गये । वहाँ राजकुमारों ने इसे एक अग्निकुंड दिखाकर कहा कि जो इस अग्निकुंड में प्रवेश करेगा वह निर्भय माना जायगा । इस बात को सुनकर यह अग्निकुंड में कूद गया । कुंड की देवी ने इसे जलने से बचाकर इसकी पूजा की और उसने इसे बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण भेंट में दिये । राजकुमार इसे मेघाकार दो पर्वतों के बीच ले गये किंतु वहाँ भी एक देवी ने इसकी सहायता की और उसने इसे दो दिव्य कुंडल दिये । राजकुमारों की प्रेरणा से यह वाराह गुहा में गया इस गुहा की देवी ने भी इसके पराक्रम से प्रसन्न होकर इसे विजयघोष शंख और महाजाल ये दो वस्तुएँ दी इसी तरह इसने कालगुहा में प्रवेश किया और वहाँ के राक्षस महाकाल को जीता । इसे उससे वृषभरथ तथा रत्नमय कवच प्राप्त हुए । इसने एक कीलित विद्याधर को बंधन मुक्त कर उससे सुरेंद्रजाल और नरेंद्रजाल तथा प्रस्तर ये तीन वस्तुएँ प्राप्त कीं । इसके पश्चात् | <span class="HindiText"> कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र । एक दिन यह शिशु अवस्था में अपनी माता रुक्मिणी के पास सोया हुआ था । उस समय धूमकेतु असुर उधर से जा रहा था । रुक्मिणी के महल पर आते ही उसका विमान रुक गया । विभंगावधिज्ञान से शिशु को अपने पूर्वभव का बैरी जानकर इस असुर ने रुक्मिणी को महानिद्रा में निमग्न किया और वह इसे उठा ले गया । इसके बाद उसने इसे खदिर अटवी में तक्षक शिला के नीचे दबा दिया और वहाँ से चला गया । कुछ समय बाद मेघकूट नगर का राजा कालसंवर भी उधर से अपनी रानी कनकमाला के साथ आ रहा था । तक्षकशिला के पास उसका विमान रुक गया । वह नीचे आया और उसने इसे शिला से निकालकर अपनी कांचनमाला को दे दिया । कालसंवर इसे लेकर अपने नगर आया और उसने विधिपूर्वक इसका देवदत्त नाम रखा तथा उसे युवराज बना दिया । इसने युवा होने पर अपने पिता की सलाह लेकर शत्रु अग्निराज पर आक्रमण किया और उसे जीतकर ले आया तथा उसे कालसंवर को सौंप दिया । इससे कालसंवर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने इसके पराक्रम की प्रशंसा की तथा श्रेष्ठ वस्तुएं देकर इनका सन्मान किया । इसके यौवन और पराक्रम से कांचनमाला प्रभावित हुई । वह इस पर काममुग्ध हो गयी किंतु यह उससे किसी भी प्रकार से आकृष्ट नहीं हुआ । निराश होकर कांचनमाला ने अपनी निर्जज्जता के निवारण के लिए अपने पति को इसे कुचेष्टावान् और अकुलीन बताया । रानी पर विश्वास कर राजा कालसंवर ने अपने पाँच सौ पुत्रों को इसे एकांत में ले जाकर मार डालने की आशा दी । राजकुमार इसे वन में ले गये । वहाँ राजकुमारों ने इसे एक अग्निकुंड दिखाकर कहा कि जो इस अग्निकुंड में प्रवेश करेगा वह निर्भय माना जायगा । इस बात को सुनकर यह अग्निकुंड में कूद गया । कुंड की देवी ने इसे जलने से बचाकर इसकी पूजा की और उसने इसे बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण भेंट में दिये । राजकुमार इसे मेघाकार दो पर्वतों के बीच ले गये किंतु वहाँ भी एक देवी ने इसकी सहायता की और उसने इसे दो दिव्य कुंडल दिये । राजकुमारों की प्रेरणा से यह वाराह गुहा में गया इस गुहा की देवी ने भी इसके पराक्रम से प्रसन्न होकर इसे विजयघोष शंख और महाजाल ये दो वस्तुएँ दी इसी तरह इसने कालगुहा में प्रवेश किया और वहाँ के राक्षस महाकाल को जीता । इसे उससे वृषभरथ तथा रत्नमय कवच प्राप्त हुए । इसने एक कीलित विद्याधर को बंधन मुक्त कर उससे सुरेंद्रजाल और नरेंद्रजाल तथा प्रस्तर ये तीन वस्तुएँ प्राप्त कीं । इसके पश्चात् वह सहस का नागकुमार के भवन में गया । यहाँ भी इसका सम्मान हुआ । नागकुमार ने इसे मकर चिह्नित ध्वजा, चित्रवर्ण धनुष, नंदक खड्ग, और कामरूपिणी अंगूठी दी । इसके बाद सुवर्णार्जुन वृक्ष के नीचे पाँच फण वाले नागराज से तपन, तापन, मोदन, विलापन और मारण ये पाँच बाण प्राप्त किये । यहाँ से यह क्षीरवन गया । यहाँ मर्कटदेव ने इसे मुकुट, औषधिमाला, छत्र और दो चमर दिये । इसके पश्चात् यह कदंबमुखी बावड़ी गया । यहाँ इसे नागपाश प्राप्त हुआ । राजकुमारों के पातालमुखी बावड़ी में कूदने के लिए कहने पर यह उनका मंतव्य समझ गया । अत: बावड़ी में यह स्वयं न जाकर इसने प्रज्ञप्ति विद्या को अपना एक रूप और बनाकर उसे वापी में भेज दिया । जब राजकुमारों ने वापी को शिला से ढँकने का प्रयत्न किया तो इसने ज्योतिप्रभ को छोड़कर शेष सभी राजकुमारों को नागपाश से बाँधकर इसी बावड़ी में औंधे मुँह लटका दिया और वापी को शिला से ढक दिया । राजकुमार ज्योतिप्रभ को भेजकर इस घटना की सूचना कालसंवर को भेज दी । क्रुद्ध होकर कालसंवर वहाँ ससैन्य आया । इसने अपनी विद्याओं तथा दिव्यास्त्रों से सेना सहित कालसंवर को हरा दिया । इसके पश्चात् इसने वन की समस्त घटनाओं से कालसंवर को अवगत कराया तथा सभी राजकुमारों को बंधन रहित किया । इसके पश्चात् कालसंवर की अनुमति से यह नारद के पास गया और उसके साथ नारद से अपने पूर्वभवों की घटनाएं सुनता हुआ हस्तिनापुर आया । यहाँ से द्वारिका गया । अपने रूप बदलकर विद्या बल से कई आश्चर्यकारी कार्य कर के इसने कृष्ण, रुक्मिणी, सत्यभामा और जांबवती आदि का मनोरंजन किया । इसके पश्चात् अपने असली रूप में आकर इसने सबको प्रसन्न कर दिया । सत्यभामा के पुत्र और इसके भाई भानुकुमार के लिए आयी हुई कन्याओं के साथ इसके विवाह हुए । द्वारिका में बहुत समय तक रहते हुए इसने राज-परिवार तथा समाज का मन जीत लिया । एक दिन बलराम के साथ यह तीर्थंकर नेमिनाथ के पास गया । उन्होंने उनसे कृष्ण के राज्य की अवधि जानने का प्रश्न किया । नेमिनाथ ने उन्हें बारह वर्ष में द्वारिका दहन, कृष्ण का मरण आदि सभी बात बतायी । यह सुनकर इसने और इसके साथ रुक्मिणी आदि देवियों ने कृष्ण से पूछकर संयम धारण किया । इसने गिरिनार पर्वत पर प्रतिमायोग में स्थिर होकर कर्म-निर्जरा करते हुए, नौ केवल-लब्धियाँ प्राप्त कीं और संसार से मुक्त हुआ । जांबवती का पुत्र शंभव और इसका पुत्र अनिरुद्ध भी इसका अनुगामी हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 72. 35-191, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_43#35|हरिवंशपुराण - 43.35-97]], 66.16-97 </span> ><br />सातवें पूर्वभव में यह शृंगाल, छठें पूर्वभव में अग्निभूत, पांचवे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग का देव, चौथे पूर्वभव में अयोध्या के रुद्रदत्त का पुत्र पूर्णभद्र, तीसरे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग का देव, दूसरे पूर्वभव में मधु और प्रथम पूर्वभव में आरणेंद्र था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_109#26|पद्मपुराण - 109.26-29]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_43#100|हरिवंशपुराण - 43.100]], 115, 146, 148-149, 158-159, 215 </span></span> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
हरिवंशपुराण -
अपने पूर्व के सातवें भव में शृगाल था (46/115)। छठे भव में ब्राह्मणपुत्र अग्निभूति (43/100), पाँचवें भव में सौधर्म स्वर्ग में देव (46/136), चौथे भव में सेठ पुत्र पूर्णभद्र (43/158) तीसरे भव में सौधर्म स्वर्ग में देव (43/158), दूसरे भव में मधु (43/160), पूर्व भव में आरणेंद्र था (43/40)। वर्तमान भव में कृष्ण का पुत्र था (43/40)। जन्मते ही पूर्व वैरी असुर ने इसको उठाकर पर्वत पर एक शिला के नीचे दबा दिया (43/44) तत्पश्चात् कालसंवर विद्याधर ने इसका पालन किया (43/47) युवा होने पर पोषक माता इन पर मोहित हो गयी (43/55) । इस घटना पर पिता कालसंवर को युद्ध में हराकर द्वारका आये तथा जन्ममाता को अनेकों बालक्रीड़ाओं द्वारा प्रसन्न किया (47/67) । अंत में दीक्षा धारण की (61/39), तथा गिरनार पर्वत पर से मोक्ष प्राप्त किया (65/16-17) ।
पुराणकोष से
कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र । एक दिन यह शिशु अवस्था में अपनी माता रुक्मिणी के पास सोया हुआ था । उस समय धूमकेतु असुर उधर से जा रहा था । रुक्मिणी के महल पर आते ही उसका विमान रुक गया । विभंगावधिज्ञान से शिशु को अपने पूर्वभव का बैरी जानकर इस असुर ने रुक्मिणी को महानिद्रा में निमग्न किया और वह इसे उठा ले गया । इसके बाद उसने इसे खदिर अटवी में तक्षक शिला के नीचे दबा दिया और वहाँ से चला गया । कुछ समय बाद मेघकूट नगर का राजा कालसंवर भी उधर से अपनी रानी कनकमाला के साथ आ रहा था । तक्षकशिला के पास उसका विमान रुक गया । वह नीचे आया और उसने इसे शिला से निकालकर अपनी कांचनमाला को दे दिया । कालसंवर इसे लेकर अपने नगर आया और उसने विधिपूर्वक इसका देवदत्त नाम रखा तथा उसे युवराज बना दिया । इसने युवा होने पर अपने पिता की सलाह लेकर शत्रु अग्निराज पर आक्रमण किया और उसे जीतकर ले आया तथा उसे कालसंवर को सौंप दिया । इससे कालसंवर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने इसके पराक्रम की प्रशंसा की तथा श्रेष्ठ वस्तुएं देकर इनका सन्मान किया । इसके यौवन और पराक्रम से कांचनमाला प्रभावित हुई । वह इस पर काममुग्ध हो गयी किंतु यह उससे किसी भी प्रकार से आकृष्ट नहीं हुआ । निराश होकर कांचनमाला ने अपनी निर्जज्जता के निवारण के लिए अपने पति को इसे कुचेष्टावान् और अकुलीन बताया । रानी पर विश्वास कर राजा कालसंवर ने अपने पाँच सौ पुत्रों को इसे एकांत में ले जाकर मार डालने की आशा दी । राजकुमार इसे वन में ले गये । वहाँ राजकुमारों ने इसे एक अग्निकुंड दिखाकर कहा कि जो इस अग्निकुंड में प्रवेश करेगा वह निर्भय माना जायगा । इस बात को सुनकर यह अग्निकुंड में कूद गया । कुंड की देवी ने इसे जलने से बचाकर इसकी पूजा की और उसने इसे बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण भेंट में दिये । राजकुमार इसे मेघाकार दो पर्वतों के बीच ले गये किंतु वहाँ भी एक देवी ने इसकी सहायता की और उसने इसे दो दिव्य कुंडल दिये । राजकुमारों की प्रेरणा से यह वाराह गुहा में गया इस गुहा की देवी ने भी इसके पराक्रम से प्रसन्न होकर इसे विजयघोष शंख और महाजाल ये दो वस्तुएँ दी इसी तरह इसने कालगुहा में प्रवेश किया और वहाँ के राक्षस महाकाल को जीता । इसे उससे वृषभरथ तथा रत्नमय कवच प्राप्त हुए । इसने एक कीलित विद्याधर को बंधन मुक्त कर उससे सुरेंद्रजाल और नरेंद्रजाल तथा प्रस्तर ये तीन वस्तुएँ प्राप्त कीं । इसके पश्चात् वह सहस का नागकुमार के भवन में गया । यहाँ भी इसका सम्मान हुआ । नागकुमार ने इसे मकर चिह्नित ध्वजा, चित्रवर्ण धनुष, नंदक खड्ग, और कामरूपिणी अंगूठी दी । इसके बाद सुवर्णार्जुन वृक्ष के नीचे पाँच फण वाले नागराज से तपन, तापन, मोदन, विलापन और मारण ये पाँच बाण प्राप्त किये । यहाँ से यह क्षीरवन गया । यहाँ मर्कटदेव ने इसे मुकुट, औषधिमाला, छत्र और दो चमर दिये । इसके पश्चात् यह कदंबमुखी बावड़ी गया । यहाँ इसे नागपाश प्राप्त हुआ । राजकुमारों के पातालमुखी बावड़ी में कूदने के लिए कहने पर यह उनका मंतव्य समझ गया । अत: बावड़ी में यह स्वयं न जाकर इसने प्रज्ञप्ति विद्या को अपना एक रूप और बनाकर उसे वापी में भेज दिया । जब राजकुमारों ने वापी को शिला से ढँकने का प्रयत्न किया तो इसने ज्योतिप्रभ को छोड़कर शेष सभी राजकुमारों को नागपाश से बाँधकर इसी बावड़ी में औंधे मुँह लटका दिया और वापी को शिला से ढक दिया । राजकुमार ज्योतिप्रभ को भेजकर इस घटना की सूचना कालसंवर को भेज दी । क्रुद्ध होकर कालसंवर वहाँ ससैन्य आया । इसने अपनी विद्याओं तथा दिव्यास्त्रों से सेना सहित कालसंवर को हरा दिया । इसके पश्चात् इसने वन की समस्त घटनाओं से कालसंवर को अवगत कराया तथा सभी राजकुमारों को बंधन रहित किया । इसके पश्चात् कालसंवर की अनुमति से यह नारद के पास गया और उसके साथ नारद से अपने पूर्वभवों की घटनाएं सुनता हुआ हस्तिनापुर आया । यहाँ से द्वारिका गया । अपने रूप बदलकर विद्या बल से कई आश्चर्यकारी कार्य कर के इसने कृष्ण, रुक्मिणी, सत्यभामा और जांबवती आदि का मनोरंजन किया । इसके पश्चात् अपने असली रूप में आकर इसने सबको प्रसन्न कर दिया । सत्यभामा के पुत्र और इसके भाई भानुकुमार के लिए आयी हुई कन्याओं के साथ इसके विवाह हुए । द्वारिका में बहुत समय तक रहते हुए इसने राज-परिवार तथा समाज का मन जीत लिया । एक दिन बलराम के साथ यह तीर्थंकर नेमिनाथ के पास गया । उन्होंने उनसे कृष्ण के राज्य की अवधि जानने का प्रश्न किया । नेमिनाथ ने उन्हें बारह वर्ष में द्वारिका दहन, कृष्ण का मरण आदि सभी बात बतायी । यह सुनकर इसने और इसके साथ रुक्मिणी आदि देवियों ने कृष्ण से पूछकर संयम धारण किया । इसने गिरिनार पर्वत पर प्रतिमायोग में स्थिर होकर कर्म-निर्जरा करते हुए, नौ केवल-लब्धियाँ प्राप्त कीं और संसार से मुक्त हुआ । जांबवती का पुत्र शंभव और इसका पुत्र अनिरुद्ध भी इसका अनुगामी हुआ । महापुराण 72. 35-191, हरिवंशपुराण - 43.35-97, 66.16-97 >
सातवें पूर्वभव में यह शृंगाल, छठें पूर्वभव में अग्निभूत, पांचवे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग का देव, चौथे पूर्वभव में अयोध्या के रुद्रदत्त का पुत्र पूर्णभद्र, तीसरे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग का देव, दूसरे पूर्वभव में मधु और प्रथम पूर्वभव में आरणेंद्र था । पद्मपुराण - 109.26-29, हरिवंशपुराण - 43.100, 115, 146, 148-149, 158-159, 215